Wednesday, March 27, 2019

समय चुकें पुनि का पछिताने - Election Special (2019)



कई राष्ट्र, जिनकी संस्कृति- सभ्यता हिंसात्मक व जंगली है ,उसको भी सुसज्जित और जिंदा रखने के लिए संगठित हो, कर्मठता से जुटे हुए हैं। भले ही वह सांसारिक दृष्टि से समृद्धशालीली और सुखी दिखाई देती हो,उसके अनुगामियों का अंत नर्क गामी होगा। आश्चर्य है कि भारत के हिंदू, जिनकी सभ्यता ,संस्कार और संस्कृति सर्वश्रेष्ठ आदर्श और गौरवशाली है तथा जीवों को परम लक्ष्य तक पहुंचाने में समर्थ है, उसको भूल कर स्वार्थ,सेकुलर व उदारता की मृगतृष्णा में फंसकर, दीन -हीन से दूसरों की ओर निहार रहे हैं ।


हिंदुओं जागो❗ दैनिक जीवन में हिंदुत्व अपनाकर, संगठित हो वोट दो। 



हिंदुओं कहां रहोगे ❓

महा ठग -गठबंधन की माया जाल में ना फंसे! इतिहासिक सत्य को ध्यान में रखकर,भारत की भारतीयता की रक्षा करनी है ।स्वधर्म पालन करते ,हुए संगठित होकर, राष्ट्र धर्म का पालन करना है। 




इतिहासिक सत्य:-


प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है, कि सुरक्षित चले आ रहे अपने सनातन जीवन दर्शन को, पहिचाने। वे नस्लें मिट गई, जिन्होंने अपनी सभ्यता, संस्कार व संस्कृति की रक्षा नहीं की। महात्माओं ने बड़े त्याग -तपस्या से इसकी रक्षा की है। सत्ता के मद में चूर सत्ताधारी उन पर क्रूरता से हमला करते रहते हैं। 












अविद्या माया ग्रस्त, पार्टियों और गठबंधनों से दूर रहना चाहिए ।राष्ट्रधर्म निर्वाह के लिए जिनके आचरण में विद्या माया है, उन्हें ही वोट देना कर्तव्य है ।आसुरी प्रकृति वाले लोगों को सत्ता सौंपकर सुखी नहीं रहा जा सकता।





भेड़ियों और जंगली कुत्तों के हिंसक संगठित झुंड, अपने से अधिक बलशाली शाकाहारी जीवो के समूह को तितर-बितर कर ही उनका शिकार करने में सफल होते हैं ।भारत- प्रेमियों को ₹72000 या 72 नूरो जैसे लोभों का तिरस्कार कर, संगठित रहते हुए अपने वोट देने के सही लक्ष्य को निर्धारित करना चाहिए






चोरहि चंदिनि राति न भावा ( मानस 2.11.7) स्वतंत्रता के बाद नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता की ऐसी आंधी चलाई कि "ज्ञान दीपक" (मानस 7.117.9से7. 119तक) बुझ गया ।अंधेरे में लूटपाट होने लगी। जनता धर्म को अनावश्यक मांनने लगी। अधर्म बढ़ गया।" धर्मेण हीना पशुभि: समाना" "का प्रभाव दिखने लगा ।रिश्वतखोरी ,कामचोरी बढी। छोटी-छोटी कन्याओं के साथ बलात्कार कर उन्हें मार दिया जाने लगा। मांस मदिरा का प्रयोग बढ़ गया ।


धर्म ही सभ्य नागरिकों का निर्माण करता है ,यदि इस सत्य को स्वीकार कर राजनीतिज्ञ राष्ट्रहित में "सेक्युलर"(SECULAR) शब्द ना बोलने का व्रत लेलें तो राष्ट्र सही दिशा में चल पड़ेग ।इससे समाज में धर्म के प्रति उत्पन्न की गई हीनभावना, नैसर्गिक रूप से समाप्त हो जाएगी। और सदाचार के प्रति प्रेम बढ़ेगा ।जनता में स्वधर्म और राष्ट्रधर्म जागेगा ।और भ्रष्टाचार रूपी कैंसर सेल समाप्त होगा। इससे एकमात्र हानि होने की संभावना यह है ,कि जातीयता और सांप्रदायिकता पर आधारित कुछ व्यक्तित्व और कुछ संगठन मिट जाएंगे। सही जगह पर वोट देकर आप ,अपना और राष्ट्र का हित कर सकते हैं।


परिधावी नाम विक्रम संवत 2076 सबके लिए मंगलकारी हो ! लोकतंत्र में हर प्रकार के प्रलोभनों से उठकर ,योग्य और चरित्रवान व्यक्ति के नेता चुनने से, राष्ट्र और अपना भला हो सकता है। हिंदुओं को अस्तित्व की रक्षा के लिए भी संगठित होकर वोट देना है। आसुरी शक्तियां एकजुट हैं। सत्ता की शक्ति उनके हाथ चली गई तो हम सबका और श्रेष्ठ भारतीयता की दुर्दशा सुनिश्चित है। अच्छा हो शुभ संकल्प दोहरालें:-



लोकतंत्र में सत्ता की शक्ति नेताओं को ,हम सब ही सौंपते हैं। अतः उसे ही वोट देना है ,जिसमें विवेक हो और सुत ,वित्त तथा लोक की ईष्णा से वह मुक्त हो ।वर्तमान में राजनीतिक नैतिक पतन बहुत हो चुका है:-



भूतों के स्वभाव दो प्रकार- आसुरी व दैवी, होते हैं। गीता 16 .6।


जो राष्ट्र में आसुरी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं, उनसे बचें ।पहले चरण में, दैवी प्रकति वालों को, हिंदुत्व कवच धारण कर, भारतीयता अर्थात अखंड भारत के बचे भाग की, रक्षा करना कर्तव्य है:-




गठबंधन का मकड़जाल:-  

जिन लोगों ने 15 वर्ष तक, उत्तर प्रदेश में --संप्रदायिकता, जातीयता, रिश्वतखोरी तथा गुंडागर्दी का नंग- नाच देखा है, उनमें यदि किंचित मात्र भी राष्ट्र प्रेम होगा, तो वे व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे रहेंगे ,और ठगों के जाल में नहीं फंसेगे।


श्रीमद् भागवत में राजा बेन की कथा आती है। शासन व्यवस्था का प्रयोजन है, प्रजा के बीच अराजकता, उच्छृंखलता, अव्यवस्था तथा लूटपाट को रोकना। जब सत्ताधारी स्वयं इसी में रुचि ले रहे हो, तो राष्ट्र की क्या दशा रहेगी। भारत का लोकतंत्र इसी दशा को प्राप्त हो चुका है। 


विचार पूर्वक वोट डालें!







Saturday, March 9, 2019

हिंदुओं ! स्वधर्म पहचानो।





हिंदुओं ! स्वधर्म पहचानो। 

जिस किसी के पीछे मत भागो। 


भगवान श्री कृष्ण ने गीता के मंत्र १५.१५ में अपना परिचय बताते हुए कहा है कि - सब वेदों से एक मात्र मैं ही जानने योग्य हूं' , परमात्मा को ही जानना है वह भी वेदों के आधार पर, मनमानी नहीं। आजकल जिस किसी को भगवान कहने का फैशन चल पड़ा है ।अधिकांश हिंदू अपने धर्म के स्वरूप को भूलते जा रहे हैं हैं। 


चारों वेद भारतीय धर्म ,संस्कृति और दर्शन आदि के प्राण रूप हैं ।यह अनादि ज्ञान के भंडार हैं। वेद में तीन कांड हैं, कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञान कांड ।मंत्रों की संख्या 1 लाख बताई जाती है, जिसमें 80 हजार मंत्र कर्मकांड के हैं, 16000 उपासना के और 4000 ज्ञान के हैं। ज्ञानकांड को ही वेदांत कहते हैं ,जिसकी आत्मा उपनिषदे हैं ।उपनिषद समूह ही भारतीय दर्शन का मूल स्रोत है। इनका मूल सिद्धांत ,अद्वयवाद यानी ब्रह्मवाद है। इसका भाव यह हुआ कि इस विश्व ब्रह्मांड के पीछे एक अद्वितीय, निर्विशेष तथा निरुपाधिक अखंड चैतन्यस्वरूप ब्रह्म तत्व ही विद्यमान है जो त्रिकाल परम सत्य वस्तु है ,यही वास्तविक ज्ञान है ।वेद प्रमाणित ग्रंथो जैसे श्री मदभागवत कथा श्री रामचरितमानस आदि से भी उसी ज्ञान का बोध सरलता से हो जाता है ।

          

कर्मरहस्य



श्री राम मंदिर निर्माण का संकल्प लें





जीवन की सफलता



राष्ट्रधर्म


आरक्षण कैंसर समाप्त होने में ही, हम सबकी भलाई है ।

कर्म प्रधान विश्व करि राखा । 
जो जस करइ सो तस फलु चाखा। 
के विपरीत व्यवस्था में विनाश है।

करीब 50 लाख केंद्रीय कर्मचारियों पर 125 करोड़ लोगों की सुव्यवस्था का दायित्व होता है।उन्हें सर्वश्रेष्ठ प्रतिभावान और घूसखोरी जैसे मानसिक रोगों से मुक्त होना चाहिए। इसके चुनाव की विधि ठीक हो।गरीब को आवश्यक बिंदु पर ही आर्थिक सहायता देना कर्तव्य है। उसके लिए प्रतिभा को कुचलकर , वोटबैंक बनाना ठीक नहीं। 

वर्तमान का सरकारी तंत्र:-



साधना





सृष्टि में नाना प्रकार के शरीरधारी हैं, जैसे पेड़ -पौधे ,पशु-पक्षी पक्षी आदि । जीव को मानव देह तो साधना द्वारा भगवत प्राप्ति के लिए है- जैसा मानस में कहा है " साधन धाम मोक्ष कर द्वारा "। किसी अन्य प्रकार की देह द्वारा पूर्णता के पथ पर साधन द्वारा अग्रसर होना संभव नहीं है। 


दैवी संपदा मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बंधन के लिए मानी गई है (गीता 16 • 5 )। 
रजोगुण और तमोगुण की प्रधानता ही असुरी प्रकृति का आधार है और सत्वगुण की प्रधानता ही दैवी प्रकृति का हेतु है।अतः साधना का उद्देश्य साधक की आसुरी व्रत्तियों को समाप्त कर दैवीगुणो को प्रकाशित करना होता है अर्थात सत्व गुण की वृद्धि करना होता है । गुणों का बढ़ना और घटना 10 तत्वों पर निर्भर करता है। यथा भोजन ,शास्त्र ,जल, देश, काल ,कर्म ,जन्म ,ध्यान ,मंत्र और संस्कार। इनमें आहार मुख्य है।
आहार शुद्धौ सत्व शुद्धि (छा 0 उ0 7• 26 •2 )। 
कुछ अपवादों को छोड़कर फल, सब्जियां साक , मेवा और देशी गाय का दूध सात्विक आहार है। 


भारत में आसुरी प्रकृति वालों की बहुत वृद्धि हुई है।राष्ट्र भक्तों को चाहिए कि वह दैवी प्रकृति के मनुष्य की वृद्धि का प्रयास करें।

ईश्वर दर्शन



राष्ट्रधर्म


2018 का सेकुलर भारत 



श्रीमद् भगवत गीता- जीव, जगत ,जगदीश्वर में पूर्ण सामंजस्य रखते हुए, मनुष्य को परम लक्ष्य प्राप्त कराने वाला, देश-काल-सीमा रहित शाश्वत ईश्वरी संविधान है।

श्री गीता जी की उपेक्षा कर मैकाले की कुटिल नीतियों को कार्यान्वित करने वाले, चार्वाक-सिद्धांत देहात्मभाव आधारित,दिशाहीन संविधान पर राष्ट्र की गतिविधियां चल रही हैं। तदनुसार शिक्षा पद्धति से केवल अविद्या के विद्वान पैदा हो रहे हैं।परिणाम स्वरूप पंचभूत प्रदूषित हो गए और सारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार व अक्षमता से ग्रस्त हो गया है।धर्मनिरपेक्ष भारत का किंकर्तव्यविमूढ़ नागरिक दैहिक, दैविक,भौतिक तापों से पीड़ित है और आनंद की प्यास बुझाने के लिए मांस-मदिरा भक्षण, समलैंगिकता व वृद्धाश्रम की मृगतृष्णा में भटक रहा है--वह भी विकास आधुनिकता तथा उदारता के नाम पर। सत्ता की शक्ति पर कभी भी नरपिशाच-संगठन का कब्जा हो सकता है।

राष्ट्रभक्तों का धर्म है - वर्तमान शिक्षा पद्धति में ही ईशावास्योपनिषद के अनुसार "विद्या" का समावेश हो तथा संविधान श्री गीता जी में बताए गए जीवन-दर्शन के अनुकूल हो। 


2019 का शिव संकल्प 



यह वर्ष हिंदुओं के लिए विशेष सावधान रहने का है। राजनीतिक मोर्चे पर चूके तो धर्म-कर्म सब मिट्टी में मिल जाएगा।अच्छा हो नीचे दिया संकल्प दोहरा लें और स्वधर्म पालन करते हुए संगठित रहें ।

वर्ष 2014 में सत्ता परिवर्तन भगवान और संतों की कृपा से हुआ।किंतु भाजपा ने उसमें अपना कौशल देखा और उसे अपनी झोली में डाल कर, आदतन संतो और हिंदुत्व को भूल गए। परिणाम में हिंदू-- संस्कार, सभ्यता और संस्कृति में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई।इसके लिए एक सीमा तक कण -कण में व्याप्त भ्रष्टाचार व सरकारी तंत्र की अक्षमता का भी योग है।

अगले चुनाव की सफलता के लिए भाजपा को सरकारी शण्ड और अमर्क जैसे पुरोहितों को भूलकर भगवान अधिकृत संतों से मार्गदर्शन लेना कर्तव्य है।समय रहते भूल सुधार आवश्यक है। 


राष्ट्र -चिंत्तन 


लगभग 65 वर्षों तक राष्ट्र "खुद खा और हमें खाने दे " के सिद्धांत पर चलता रहा । राष्ट्र के सभी कामकाज तदानुसार व्यवस्थित हैं । अब देश विपरीत दिशा में अर्थात "न खाएंगे न खाने देंगे "की ओर चल पड़ा है ।


पुरानी व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। नए वर्ष में कठिनाइयां अपेक्षित हैं। उनके समाधान के लिए भगवान हम सबको बल - बुद्धि दें। सब सुखी रहें।


घोटालेबाजों तथा टैक्स चोरों से जो रकम वसूल कर राष्ट्रीय खजाने में आई है ,उसमें आप के शेयर के 15 लाख जमा हो चुके हैं।राष्ट्रीय खजाने को अपना ही खजाना मानो।



साधन- पंथ का विज्ञान




कर्म योग, ज्ञान योग तथा भक्तियोग इन तीनों में से प्रत्येक के द्वारा चित भी शुद्ध होता है और ज्ञान भी होता है इनमें से किसी एक की पूर्णता होने पर, तीनों की पूर्णता हो जाती है | कर्तव्य परायणता से कर्मयोग, असंगतता से ज्ञान योग एवं समर्पण से भक्तियोग की सिद्धि होती है | योग ज्ञान तथा प्रेम में विभाजन संभव नहीं है |

हमारा शरीर 3 शरीरों का संवित है 

  • स्थूल
  • सूक्ष्म और 
  • कारण। 
 इन तीनों को दूसरों की सेवा में लगा दें, यह कर्म योग है ।स्वयं उनसे असंग होकर,अपने स्वरुप में स्थित हो जाएं,यह ज्ञान योग है और स्वयं इनके सहित भगवान को समर्पित हो जाएं, यह भक्ति योग है। 

यह जिज्ञासा हो सकती है कि पाप करने की स्फुरना कहां से आती है? 

गीता 2.62,63 के अनुसार विषय चिंतन से क्रमशः ➡विषयासक्ति ➡कामना ➡क्रोध ➡मूढ भाव ➡स्मृतिभ्रम➡बुद्धिनाश➡ स्वरूप च्युत। 

अतः पाप द्वारा पतन के लिए विषयासक्ति प्रधान कारण है ,ईश्वर नहीं अतः उसे त्यागना है। 

साधक को अहंता ममता से बचना होगा l तीनो योग मार्गो में व्यक्तिगत अहंकार को मिटाना ही होता है। कर्म योग सिद्ध होने पर अहंकार शुद्ध हो जाता है अर्थात देहात्म तदात्म्य हट जाने से कर्तृत्व भाव और भोगतृत्व भाव मिट जाता है ,ज्ञानयोग में अहंकार ब्रह्म के साथ मिल जाता है ,भक्ति योग में अहंकार भगवान को अर्पित हो जाता है। अहम को शुद्ध होने मिटाने और अर्पित होने का परिणाम एक ही है - तत्वबोध। 


मार्ग का चुनाव


ज्ञानयोग-अध्यात्म क्षेत्र में अपने को जानना ही सबसे कठिन,किंतु अनिवार्य आवश्यकता है। अपने को जाने बिना,मान्यता के आधार पर, कुछ स्वीकार करते रहने से,मिथ्या अभिमान में जीव बंधता रहता है।अपने को ब्रह्म भी मान लिया जाए, तो सत्य होते हुए भी, वह मिथ्या अभिमान ही होगा।

कर्मयोग की साधना तुलनात्मक दृष्टि से सरल है ।प्राप्त परिस्थितियों के अनुसार,शास्त्र निर्धारित स्वकर्तव्य को पूरी क्षमता और कुशलता से करना है और किसी से कुछ अपेक्षा नहीं करनी है।इतने से ही कर्मयोग सिद्ध हो जाएगा और जीवन आनंदमय हो उठेगा।

भक्ति योग अलौकिक साधना है, जो भगवान के बल पर संपादित होती है।एक बार भगवान को अपना तथा अपने को भगवान को मानकर,सर्वभावेन भगवान को समर्पित हो जाए,तो भक्तियोग प्रारंभ हो जाता है। सर्वरूप विराट भगवान की सेवा चलते रहने पर,भगवान की कृपा से अपरोक्षानुभूति और परा भक्ति की प्राप्ति भी हो जाती है

सनातन धर्म में नारी का स्थान







समय की बलवत्ता






आनंदमय जीवन



चुनाव किसका हुआ?

चुनाव के परिणाम राष्ट्र हित और विचार की भूमि में निराशाजनक हैं।

जनता विवेकहीनता, मानसिक- गुलामी और लोभ के वशीभूत दिखाई दे रही है।

शासन तंत्र को भी विचार करना चाहिए।

सरकारी कार्यालयों के कुप्रबंध और रिश्वतखोरी के चलते, विकास का राग जनता को लुभा न सका। 

मंदिर और गोबध की उदासीनता हिंदुओं को नहीं भाई।

वोट बैंक के भय से सभी दलों के नेता न्याय की बात नहीं कर पा रहे इसलिए राष्ट्र सम्मानीय नेता विहीन हो गया है; फिर भी अन्याय के लिए बेजा उत्साह नहीं दिखाया जाना चाहिए । 

हिंदुओं ने भी अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारी है।

उनके दैनिक आचरण में यदि हिंदुत्व, राजनीतिक-जागृति तथा संगठन का अभाव बना रहा और वे शठ- गठबंधन द्वारा उदारता तथा सेकुलरिज्म के बुने जाल में इसी तरह फंसते चले गए, तब उन्हें भविष्य के लिए रहने का स्थान ढूंढना शुरू कर देना चाहिए।

Friday, March 8, 2019

आकस्मिक और अकाल मृत्यु




पहला प्रारब्ध का फल है और दूसरा नया पाप कर्म।

कोई व्यक्ति दुर्घटना से, पानी में डूबकर, बिजली लगने से,सांप काटने से या हार्ट फेल हो जाने से मर जाता है, तो इसे आकस्मिक मृत्यु कहेंगे।

नैसर्गिक मृत्यु की तरह ही यह प्रारब्ध का फल है।

जब आदमी जानबूझकर आत्महत्या करता है,जैसे फांसी लगा ले, आग लगा ले, तथा जहर खा ले आदि- आदि, तो इसे अकाल मृत्यु कहेंगे।

इसमें जीव की आयु पूरी नहीं हुई, यह पलायन है और इसे नया पाप कर्म माना जाता है।

मनुष्य को देह, पुरानी वासनावों को विधिपूर्वक छयकर,परमात्मा की प्राप्ति के लिए, बिधि के विधान अनुसार दी गई है।

उसे विना सदुपयोग के नष्ट करना, ईश्वर की ओर से दंडनीय अपराध है।


कर्मफल




जीव अपने कर्मों के फल भोगने के लिए ही, संसार चक्र में भ्रमण कर रहा है।कर्म जड़ हैं, वे फल दे नहीं सकते।जीव कर्म फल के दुखद अंशको भोगना नहीं चाहता, अतः कर्मफल रूपी प्रारब्ध की नियंत्रक सत्ता कोई होनी चाहिए। कर्मफल भोगने की अपेक्षा से , कर्म तीन प्रकार के माने गए हैं संचित ,प्रारब्ध, क्रियमाण। शरणागत होकर तीनों योग मार्गों में से कोई एक अपनाने पर, संचित कर्म फल राशि भस्म हो जाती है तथा क्रियामाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात उनका संस्कार नहीं बनता।प्रारब्ध कर्म का फल देह और परिस्थितियां होती हैं ।उनको स्वीकार करना ही पड़ता है।शास्त्र व सत्संग के सहारे,साधक प्रारब्ध भोगते हुए तथा स्वधर्म पालनकर, परम लक्ष्य प्राप्त कर लेता है ।श्रीमद् गीता-18.56, 4.37 ,18.66। 


कर्मयोग बनाम प्रारब्ध 


कर्म फल तीन प्रकार के होते हैं - 

  • अभिमान पूर्वक वर्तमान में किए जाने वाले कर्म, क्रियमाण कर्म है, 
  • अनेक जन्मों से किए कर्मों के फल व संस्कार अंश, चित्तमें संग्रहित रहते हैं ,वे संचित कर्म हैं, 
  • संचित कर्म राशि का वह अंश जो विपाक क्रिया के फलस्वरूप ,फल देने के लिए उन्मुख है,उसे प्रारब्ध कहते हैं। 

कर्मयोग बनाम स्वभाव 


मनुष्य का जन्मजात स्वभाव,उसके प्रारब्ध कर्म फल के अनुसार होता है,जो तीनों गुणों(सत रज तम) के विभिन्न संयोगों से नियंत्रित रहता है।उसे बदलना कठिन है,यद्यपि उसके लिए तीन योग मार्ग हैं।स्वभाव के आगंतुक दोषों-काम, क्रोध,लोभ तथा मोह आदि को सदग्रंथ व सत्संग के सहारे मिटाया जा सकता है। भगवान के शरणागत हो, जन्मजात स्वभाव के अनुसार स्वधर्म पालन करने से ,परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। गीता , 18.45। 

कर्मयोग बनाम मोक्ष 


कर्म निर्धारण में प्रारब्ध की प्रधानता होती है,या पुरुषार्थ की, यह जटिल प्रश्न है।पुरुषार्थ 4 हैं धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष। अर्थ और काम में प्रारब्ध प्रबल है,और कर्म (प्रयत्न) गौढहै।धर्म और मोक्ष में कर्म प्रबल है, और प्रारब्ध गौढ रहता है। यह दोनों नए पुरुषार्थ हैं और मनुष्य योनि मुख्य रूप से इन्हीं को सिद्ध करने के लिए है मानव देह सुख -दुख भोगने के लिए नहीं है, वह प्रारब्ध के फल हैं।सुख भोगने का स्थान स्वर्ग है ,और देह- देवादि उत्तम योनियाँ हैं। वैसे ही दुख भोगने का स्थान नर्क है,और उसके लिए कीट- पतंग आदि अधम योनियाँ भी हैं। मनुष्य योनि तो सुख-दुख से ऊपर उठकर मोक्ष पाने के लिए है, इसलिए उसे साधन-धाम कहा जाता है। स्मरण रहे परमार्थ इन चारों से भिन्न है।उसमें स्वरूप का साक्षात्कार और परा-भक्ति आते हैं, मुक्त- पुरुष के लिए वह शरणागत और कृपा साध्य है।

मन का नियंत्रण


निसंदेह मन चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है (गीता 6. 35) । 


मन है क्या ?


विषयों से उद्वेलित चेतन की वृत्ति ही मन है ।वास्तव में सबिषय चेतन को ही मन कहते हैं ।यह एक अमूर्त पदार्थ है।मन नाम का कोई प्रथक तत्व नहीं है। जैसे ही हम विषय चिंतन करते हैं, तो मन उसी का आकार लेकर प्रकट हो जाता है ।अगर हमारा मन" कार" का चिंतन कर रहा है तो वह" कार" के रूप का हो जाएगा ।यदि हम अपनी पत्नी का चिंतन कर रहे हैं,तो वह पत्नी के रूप में मिलेगा। यदि हम पुत्र का चिंतन कर रहे होंगे,तो पुत्र के रूप में मिलेगा। मन के उपरोक्त स्वभाव में, उसको वश में करने का सूत्र छिपा है।आप अपना कोई इष्ट (श्री राम ,कृष्ण) चुन ले और उस के रूप में तन्मय हो जाए, तो मन भगवान के उसी रूप के आकार का हो जाएगा। भगवान के रूप के प्रभाव से उसका मल भस्म होगा और वह शुद्ध हो जाएगा। इष्ट का चित्र सामने रखकर उसके रूप अथवा स्वरूप का निरूपण करते हुए, नाम जपने का अभ्यास मन नियंत्रण का सरल उपाय है।

गोपाष्टमी




गोपाष्टमी, शुभ अवसर पर, दिव्य दर्शन कर, गो सेवा का व्रत ले ।गौ रक्षा मानव समाज का परम धर्म है। भारतीय गाय सूर्य से विकिरण होने वाली ऊर्जा को ग्रहण कर, पंचगव्य( दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर) द्वारा, सृष्टि को वितरित करती रहती है ।इस महान यज्ञ करने वाली गौ माता की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। 

यज्ञाचरण के बिना ,संसार- चक्र पर्यावरण प्रदूषण के कारण ,सुचारू रूप से नहीं चल सकता। गौ की बिना किसी प्रकार का यज्ञ नहीं हो सकता। सारी सृष्टि, देवता तथा मनुष्य गौ के द्वारा ही पुष्ट होते हैं। खेती में शक्ति के लिए बैलों की उपेक्षा कर, केवल पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भर करना ,अकाल को निमंत्रण देना है ।गोबर,गोमूत्र के अभाव में पृथ्वी मां,अन्न देना बंद कर देंगी। 

विद्या विहीन मैकाले -पद्धति प्रदत्त,अविद्या- विद्वानों के मूर्खतापूर्ण रसायनिक पांडित्य से, पांचों तत्व- भूमि जल तेज वायु तथा आकाश प्रदूषित हो रहे हैं और जीव दैहिक, दैविक,भौतिक तापों से पीड़ित है ।इतने पर भी आसुरी प्रकृति वाले गौ मांस भक्षण जैसे महापाप में जुटे हैं ।यह लोग श्री गीता मंत्र 16 .19 के अनुसार दंडित तो होंगे ही ,लेकिन दैवी प्रकृति वाले इस जघन्य अपराध के प्रतिकार करने के, दायित्व से बच नहीं सकते।


"धर्म" और "परमधर्म"



मानव जन्म की दुर्लभता तथा सार्थकता





आराधना



धुऐं से अग्नि के समान सब कर्म सत्



नवरात्र और भगवती तत्व



दोनों नवरात्रों में हिंदू जन, देवी जी की विशेष आराधना कर शक्ति अर्जित करते हैं ।समष्टि के, विज्ञान सहित ज्ञान प्राप्ति के लिए, शक्ति व शक्तिमान के एकत्व का बोध अनिवार्य है ।शक्ति के बिना ब्रह्म से कुछ नहीं बन सकता (भगवान शंकराचार्य )।भगवान के बिना देवी की आराधना से देवी स्वयं रुष्ट हो जाती हैं( श्री लक्ष्मी नारायण हृदय )।भगवान की अनेक शक्तियों में दो (गीता 4.6)विशेष है-( 1) अंतरंग, आत्म माया या चिति(2) बहिरंग ,प्रकृति या त्रिगुणात्मका माया ।दोनों शक्तियों के संवित की जब पुरुष रूप से उपासना करते हैं ,तब उसे ईश्वर, शिव तथा भगवान आदि कहते हैं। जब उसी संवित की स्त्री रूप से उपासना करते हैं ,तो उसी को ईश्वरी, दुर्गा अथवा भगवती आदि कहते हैं ।दोनों के अधिष्ठान में एक ही परम सत्य रहता है। संसार चक्र चलाने में -सृष्टि ,पालन तथा संघार कर्मों के लिए ,नियंत्रक रूप में ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र प्रसिद्ध है। उनके कर्मों की संचालन शक्ति भगवती महामाया की तीन शक्तियाँ- सृष्टिशक्ति ,पालन शक्ति तथा संहार शक्ति के नाम ही महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती है ।यही अव्यक्त रूप में त्रिदेव के साथ संलग्न रहती हैं।इसी प्रकार कृष्ण -राधा, राम -सीता, विष्णु -लक्ष्मी तथा शिव -गौरी आदि सब परस्पर अभिन्न है। 

सच्चिदानंद परमात्मा सृष्टि के प्रारंभ में अचिंत्य माया शक्ति भगवती के योग से उत्पत्ति ,स्थिति, संघार, विग्रह तथा अनुग्रह नामक पञ्च कृत्य का निर्वाह करने के लिये,स्वयं को सूर्य, विष्णु ,शिव ,शक्ति तथा गणपति संज्ञक पंचदेव रूपों में व्यक्त करते हैं ।इन पंचदेवों की और इनकी शास्त्र सम्मत अवतारों की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित तथा पूजित होती हैं ।पंचदेवों के निर्गुण निराकार तथा सगुण निराकार स्वरूप में उनके अधिष्ठान विराट स्वरूप में सर्वथा ऐक्य है ।केवल सगुण-साकार अर्चावतारों के नाम रूप लीला और धाम को लेकर भेद है । 



भगवती का परिचय देने वाला देव्यथर्वशीर्षम (देवी सूक्त) वेद का अंश है ।वैदिक मंत्र वक्ता, चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री ,सब ऋषि हैं ।वह मंत्र रचयिता नहीं ,मंत्र द्रष्टा थे ।देवी सूक्त म्रम,प्रमाद ,शून्य ऋषिका संवेदन है ।परमात्मा और भगवती अभिन्न है ।देवी सूक्त का मत, शंकर मत से प्रायः मिलता है ।जो साधक है ब्रह्मविद है, आत्मज्ञ है,वह जानते हैं कि आत्मा तथा देवी सर्वथा अभिन्न पदार्थ हैं । 


"मैं"," माँ" व आत्मा तीनों एक हैं ।मैं का पहचानना ,आत्मा का साक्षात्कार करना, मां को जानना यह एक ही बात है । 

देवीसूक्त अथर्ववेद का शिरोभाग अर्थात उपनिषद है। नवार्ण मंत्र इसी का 20वाँ मंत्र है । 

संक्षेप में उसका अर्थ है- 


हे चित् स्वरूपिणी महासरस्वती ! 

हे सदरूपणी महालक्ष्मी ! 

हे आनंद स्वरूपणी महाकाली ! 


ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। 


दुर्गा सप्तशती देवी की महिमा बताने वाला प्रचलित ग्रंथ है। इसमें देवी जी के तीन चरित्रों का उल्लेख बड़ी सुंदरता से किया गया है। यह मार्कंडेय ऋषि रचित पुराण का अंश है ।चंडी या देवी महात्म्य, देवी सूक्त का ही, कथा के माध्यम से विश्लेषण मात्र है ।चंडी या देवी -महात्म्य में परमात्मा ही महामाया रूप में वर्णित हुए हैं । 

साधकों के बीच यह प्रचलित है ,कि सृष्टि का व्यापार तीनों गुणों सत्व ,रज तथा तम पर आधारित है ।गुणों से उत्पन्न संस्कारों या वासनाओं से मुक्ति पाना ही साधना का लक्ष्य होता है ।सप्तशती में तीन चरित्र उन्हीं तीनों के संस्कारों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए कथा रूप में वर्णित हैं ।वे कथाएं हैं --मधु -कैटभ वध, महिषासुर वध,और शुभ्भबध। इन से क्रमशा सत्य (सत्) प्रतिष्ठा ,चैतन्य (चित् )प्रतिष्ठा तथा आनंद प्रतिष्ठा हो जाती है । इस प्रकार जीवन में सच्चिदानंद का प्राकट्य हो जाता है। 




प्रथम आख्यान में सत्वगुण के बाहरी विकास रुपी आसुरी संस्कार मधु-कैटभ के नाम से वर्णित हुए हैं ।द्वतीय आख्यान में रजोगुण के विकास से उत्पन्न संस्कार ही असुर बृंद है। जितनी कामना ,वासना है और गीतोक्त आसुरी संपदाऐं( अध्याय 16 )हैं ,वे रजोगुण की स्थूल आसुरी संपदाएं हैं, जिनका नायक महिषासुर है। अपने आपको न जानने की चेष्ठा से विमुख रहना अर्थात अज्ञान तमोगुण का प्रभाव है, जिसे सुंभ्भ रूप में दिखाया गया है। शरणागत हो ,तीनो चरित्रों द्वारा देवी की आराधना करने से ,आसुरी वृत्तियों नष्ट होती है।चित्त निर्मल होने से,जीव को अपने नैसर्गिक स्वभाव -सत्ता, चित्ता और आनंद का बोध होने लगता है। 


दुर्गा सप्तशती का प्रथम चरित: 



सप्तशती 700 श्लोकों का संग्रह है। प्रथम चरित्र में ब्रम्हा ने योगनिद्रा रूपी महाकाली देवी की स्तुति करके भगवान विष्णु को जागृत कराया। इस प्रकार जागृत होने पर भगवान द्वारा मधु-कैटभ का नाश हुआ ।राग-द्वेष रूपी आसुरी संपत्तियों के दमन से जीवन में सत्य (सत्) प्रतिष्ठित हो जाता है। हुआ यह कि कल्पांत में भगवान शेष पर विराजमान थे। उस समय कूर्म प्रष्ठ पर ,जल में विलीन होने के कारण ,पृथ्वी नवनीत के समान कोमल हो गई ।सृष्टि काल में यह प्राणियों को किस प्रकार धारण करेगी ,यह सोचकर भगवती ने विष्णु जी को अपनी योगनिद्रा शक्ति से प्रसुप्त करके अपने बामं हस्त की कनिष्ठिका से उनके कर्णमल को निकालकर मधु-कैटभ को बनाया। उत्पन्न हो कर दोनों दैत्य पहले कीट के समान पश्चात विशाल महा बलवान हो गए ।उन दोनों ने नाभि कमल में बैठे ब्रह्मा जी को देखा और उन्हें खाने के लिए उद्यत हुए । ब्रह्मा जी ने योगनिद्रा की सुंदर प्रार्थना की ,जो देवी के तात्विक रूप का परिचय देती है ।भगवती ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा से वरदान मांगने को कहा ।ब्रह्मा ने भगवान को जगाना और असुरों को मोह होना मांगा ।माता जी ने विष्णु को जगा दिया ।विष्णु से उन दैत्यों का 5000 वर्ष तक घोर युद्ध हुआ। महा प्रमत्त उन दत्यों ने महा माया के प्रभाव से विष्णु से ही बर मांगने को कहा। विष्णु भगवान ने बर के सहारे युक्ति से उनका बध कर दिया ।महामाया की योजना अनुसार असुरों के मेद का विलेपनकर पृथ्वी को दृढ़ (हार्ड )किया गया इसी से पृथ्वीका एक नाम मेदनी भी हुआ। ब्रह्मा जी की स्तुति से ज्ञात होता है, कि भगवती महाकाली अनंत शक्तियों से संपन्न है। वही आनंद प्रधान महाकाली सप्तशती के प्रथम चरित्र में वर्णित हैं। 


दुर्गा सप्तसती का मध्यम चरित्र 



द्वितीय चरित्र में महिषासुर वध के लिए सब देवताओं की शक्ति के अंश एकत्र होते हैं और उस पुन्जीभूत शक्तिके महालक्ष्मी देवी रूप द्वारा महिषासुर वध हुआ है ।इस आसुरी वृत्ति अहंकार के दमन से जीवन में चैतन्य (चित्) की प्रतिष्ठा होती है। द्वितीय चरित्र में संघ शक्ति का महत्व प्रत्यक्ष है। एक देव की शक्ति महिषासुर दमन के लिए पर्याप्त नहीं थी ,इसीलिए सभी देवों की शक्तियां समवेत हुई और उनका संगठित रूप महालक्ष्मी देवी का रूप बन गया ।इस चरित्र में देवी के मधु (शहद) पान की बात आई है ।यहां पर मधु का अर्थ उत्साहवर्धक उपकरण है ।दोष निवारण के लिए कभी-कभी उपकरण का प्रयोग आवश्यक होता है मध्यम चरित्र में भगवती, महालक्ष्मी के रूप में अवतरित होती हैं।देवताओं की प्रार्थना में उन की अनंत महिमा का वर्णन है ।यथा- हे मां !आप जगदात्मा शक्ति हैं ,आपसे संपूर्ण विश्व व्याप्त है। मोक्षार्थी यति लोग ब्रह्मविद्या रूप से आप का सेवन करते हैं।विश्व का अभ्युदय ,निःश्रेयस प्राप्त करने के लिए ,आप ही वेदत्रयी के रूप में प्रकट होती हैं।विष्णु के हृदय में महालक्ष्मी रूप से ,शशिमौलि के यहां गौरी रूप से ।,आप ही प्रतिष्ठित हैं- आदि -आदि ।"देवताओं ने देवी से अनेक बर मांगे हैं।माता "तथास्तु" कहकर अंतर्हित हो जाती हैं। 

दुर्गा सप्तशती का उत्तर चरित्र 



तृतीय चरित्र में शुंभ निशुंभ वध के लिए देवताओं ने देवी से प्रगट होने की प्रार्थना की है ।पार्वती जी के शरीर से महासरस्वती देवी का प्रादुर्भाव हुआ ।जिनसे क्रमश: धूम्रलोचन ,चंड -मुंड और रक्तबीज का वध होने के बाद शुंभ-निशुंभ का संघार हुआ है। इन बधों के पश्चात जीवन में आनंद की प्रतिष्ठा हो जाती है । 

इस चरित्र में यह शिक्षा मिलती है कि यदि किसी सत्कार्य के लिए कोई अकेली ही शक्ति अग्रसर हो जाए तो अन्य देवताओं की शक्तियां आप ही आप उस की सहायता के लिए दौड़ पड़ती हैं। जिस प्रकार अंबिका जी की सहायता के लिए अन्य देवताओं की शक्तियां आईं थीं। इस चरित्र से यह भी पता चलता है कि संघार का किसी समस्या के अंतिम उपाय रूप में ही प्रयोग करना चाहिए। देवी ने पहले सदाशिव को जो शान्ति के प्रत्यक्ष अवतार हैं ,दूत कार्य के लिए भेजा था। आध्यात्मिक दृष्टि से शुंभ-निशुंभ दर्प व विषयासक्ति का स्वरुप है ।चित्त शुद्धि के लिए पहले उन के सेनापतियों आलस्य रूपी धूम- लोचन, रागद्वेष रूपी चंड मुंड तथा वासना रूपी रक्तबीज का वध कर फिर इन दोनों का वध करना पड़ता है । 

हमारे अंदर देव भाव और असुर भाव दोनों विद्यमान हैं । व्यष्टि तथा समष्टि में सुमति तथा कुमति का द्वन्द सदा चलता रहता है ।जब पुण्य संचय से साधक के ह्रदय में देवासुर संग्राम तेज होता है, तब उसे पता चलता है कि मां स्वयं समर क्षेत्र में अवतीर्ण होकर सुरविरोधी भाव समूह का संघार कर ,उसकी सहायता कर रही हैं ।वर्ष में दो बार नवरात्रि के अवसर पर हम सब अपने अंदर दैवी संपदा (गीता 16.1,2,3 )बढ़ाने का प्रयास करते हैं ।सफल होने पर अंदर ही सत्ता ,चिता व आनंद प्रगट हो जाता है। 


हवन का महत्व 


नवरात्र की अष्टमी और नवमी तिथिओं में हवन करने की परंपरा है। हिंदुओं को नि:संकोच भाव से ,इस परंपरा को बनाए रखने के लिए ,अपना कर्तव्य पालन करते -कराते रहना चाहिए। यज्ञ प्रक्रिया ईश्वर संचालित (गीता 3.14,15) विज्ञान युक्त व्यवस्था है ।श्री गीता जी, देह और अध्यात्मिक विकास पूर्वक ,परमसत्य केंद्रित, समष्टि कल्याण के लिए बनी, शाश्वत भगवदीय संविधान है।उसकी उपेक्षा कर, जब मानव देहात्मभाव केंद्रित,भोग वादी, सेकुलर संविधान अपनाता है, तब पांचों तत्व प्रदूषित होने से ,व्यष्टि और समष्टि क्षुब्ध हो उठते हैं और सर्वत्र दुख व्याप्त हो जाता है।ऐसे में मदिरापान, गोमांस भक्षण, समलैंगिकता तथा पर स्त्री -पुरुष संबंध ,आज उन्नति के भले ही मापदंड बन जाएं ,पर वास्तविकता यह है कि,"आसुरी प्रकृति वाले" गीता 16.19,20 के अनुसार दंडित होंगे।आज की विकट परिस्थिति में भी भक्तों को स्थित प्रज्ञता ( गीता 2. 55--72) से विचलित नहीं होना चाहिए। 

हिंदू धर्म आचरण अपने आप में संपूर्ण जीवन दर्शन है। यथा अवसर कर्म ,उपासना व ज्ञान को स्थान देने पर मानव जन्म की सफलता सुनिश्चित है। सेकुलर आसुरी राजनीतिक संगठनों के कुचक्र से बचे रहना कर्तव्य है । 

हिंदुओं के सामान्य जीवन में कर्म ,उपासना और ज्ञान इस तरह पिरोया हुआ है, कि जीवन परम लक्ष्य की ओर स्वत: अग्रसर हो जाता है।


कर्तव्य



पितृपक्ष और हिंदू धर्म


भूमिका

हिंदू धर्म की मान्यता है, कि सारी सृष्टि सर्वव्यापक परंब्रह्म पर अधीष्ठित और उन्हीं की शक्ति से संचालित है ।अतः जड़- चेतन सबके साथ, सह अस्तित्व की भावना बनाए रखना है । हिंदू सभ्यता में कृतघ्नता नहीं है। जिनका हम पर उपकार है, उनकी पूजा करने से, प्रति -उपकार करने से, हिंदू धर्म की हानि नहीं होती। सारी सृष्टि परंब्रह्म की अभिव्यक्ति है ,अतः उसकी हिंसा नहीं करनी है । पितरों की पूजा करनी चाहिए। पितृपक्ष में पुत्रादि प्रदत्त ,जल -अन्नादि सूर्य और चंद्रमा की किरणों से समाकृष्ट होकर ,सकल विश्व ब्यापक सोमतत्व से संयुक्त होकर ,उसी क्षण उन- उन पितरों को प्राप्त हो जाता है, जिनके लिए दिया जाता है- वे चाहे जहां ,चाहे जिस योनि में हो। अस्तु जिनके के अंश से हमारी देह बनी है ,उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है।

मृत्यु उपरांत ,बद्ध जीव सूक्ष्म पंचतत्व से बने लिंग शरीर को धारण किए रहते हैं ।ये जीव अपनी -अपनी योग्यता और मान्यता के अनुरूप, देवयान अथवा पितृयान अथवा अर्चिआदि या धूमादि मार्गों से सूर्य आदि, चंद्रादि अथवा पितृलोक को जाते हैं । आगे केवल मन प्रधान पितरों की,जो सोम प्रधान समष्टि चंद्र को जाते हैं,उन्हीं की चर्चा होगी।चंद्रलोक , स्वसमसष्टि सोम के चारों तरफ पितृ लोक स्थित है।पितृ पक्ष में यह लोक पृथ्वी के निकट आ जाता है।जो लोग नित्य पितृ तर्पण नहीं करते,वे इस पक्ष में तर्पण और श्राद्ध करते हैं ।


विशेष समय में,विशेष स्थान में,पितरों का उद्देश्य करके विधिपूर्वक जो हविष वा सामग्री अग्नि,गायों,ब्राह्मणों तथा अतिथियों को दिया जाता है,उसे श्राद्ध कहते हैं। 


पितृगण श्राद्ध में पुत्र आदि प्रदत अन्नादि प्राप्त करते हैं। विश्व व्यापत वायु, सूर्य और चंद्रमा की किरणों से समाकृष्ट होकर श्राद्ध अन्न तत्-तत् पितरों को उसी क्षण पहुंच जाता है ।वायु के द्वारा उपनीत श्राद्धीय जन्य सोमरस तत् नाम गोत्रो उच्चारण पूर्वक ,पुत्र आदि प्रदत्त अखिल अन्न व तिलांजलि सद्यः सोमरस तत्वभूत होकर,सकल विश्व व्यापक सोमतत्व से संपृक्त, विद्युत तरंगधारा की तरह तत्काल उन-उन पितरों को प्राप्त हो जाता है ।अस्तु श्रद्धा विश्वास पूर्वक श्राद्ध कर्म करना कर्तव्य है।

श्राद्ध करने में हेतु क्या है ?

जब जीवात्मा अपने स्थूल शरीर को छोड़ देता है, तो उसके पास सूक्ष्म लिंग शरीर बचा रहता है ,जिसके साथ वह लोक -लोकांतर में गमन करता है। समय के साथ इस शरीर का ह्रास होता रहता है ।जिसकी पूर्ति करने में पितृ गण तब तक असमर्थ रहते हैं,जब तक दूसरी देह न मिल जाए। ह्रास पूर्ति और तृप्ति के लिए वह अपने पुत्र-पौत्रादि से अन्न, तिलांजलि आदि की अपेक्षा करते हैं। अतः पुत्र- पौत्रादि का कर्तव्य है ,कि पिंड ,दान आदि तथा ब्राह्मण भोजन द्वारा उनकी क्षतिपूर्ति कर, उन्हें तृप्त करें और उनका आशीर्वाद लें।
पितर पांच प्रकार के होते हैं।अग्निष्वात, वर्हिषद, सोमप, आज्यप और ऊष्मय। इनमें पहले तीन नित्य मुक्त होते हैं। उनका सोम क्षीण नहीं होता और वे नित्य सोम पीने वाले होते हैं।अतः वे अपने वंशजों से प्रदत्त श्राद्धादि की इच्छा नहीं करते। शेष दो आज्यप और ऊष्मय पितर पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य पितृ लोक में रहते हैं। उनको श्राद्ध की आवश्यकता होती है।

पितृगण अपने अपने कर्माशय के अनुसार -चाहे जहां, चाहे जिस लोक में, चाहे जिस योनि में पुनर्जन्म ले चुके हो --उनको श्रद्धा से किया गया हवन, दान हव्य एवं कव्य का फल, सूर्य किरण पहुंचा देती हैं।देवल स्मृति के अनुसार ,यदि शुभ कर्मों के कारण पितृ देवता हो जाते हैं तो श्राद्धान्न- उनको अमृत रूप में प्राप्त होता है ,गंधर्व होने पर भोग्य रूप में ,पशु होने पर तृण रूप में, सर्प आदि होने पर वायु रूप में,यक्ष होने पर पान रूप में, राक्षस होने पर आमिष रूप में, दानव होने पर मदिरा रूप में, प्रेत होने पर रुधिर और अशौच जल के रूप में तथा मनुष्य होने पर पान आदि नाना भोग रस के रूप में प्राप्त होता है ।अत: श्राद्ध कर्म कभी निष्फल नहीं जाता।

पितरों का श्राद्ध करता के साथ क्या संबंध है, यह समझ लेना कर्तव्य है। सभी पुरुषों में अपने अपने पिता, पितामहादि के अंश होते हैं। 84 अंश लेकर ही जीव जन्म प्राप्त करता है। उनमें 28 अंशों को तो अपने पूर्व जन्म वाले ही ले आता है,शेष 56 अंशों में पिता,पितामह,प्रपितामह,बृद्धप्रपितामह,ब्रद्बतर पितामह,बृद्धतम पितामह के क्रमशः 21,15, 10,6, 3 तथा 1 अंश समाहित रहते हैं ।इस प्रकार स्वकीय वीर्य में अपने साथ साथ 6 पूर्वजों का भी अंश रहता है।ऐसे शुक्र को अपनी भार्या में ही उपयोग करना चाहिए,जिस किसी स्त्री में नहीं। अन्यथा वर्णसंकरता हो जाएगी।जीव का आवागमन, सद्गति अथवा दुर्गति ईश्वरी संविधान के अनुसार ही चलती रहेगी। एससी द्वारा प्रदत पर पुरुष संबंध की स्वतंत्रता से ईश्वरी संविधान अप्रभावित रहेगा। देहात्मभाव केंद्रित भोगवादी संविधान के दुष्परिणाम भुगतने के लिए,मानव जाति को तैयार रहना चाहिए।

पूर्वजों की तरह ही मनुष्य के शुक्रांश का संबंध आगे उत्पन्न होने वाली संतानों के साथ भी रहता है ।अपने पुत्र के 21 अंश,पौत्र में 15,प्रपौत्र में 10 ,तत्पुत्र में 6,तत् पुत्र में 3 ,और तत् पुत्र में 1 अंश होता है ।जिसमें, जिसके अंश का संबंध होता है, उसी के द्वारा दिया गया जलादी उनके पिता -पितामहा आदि के समीप में ,सूर्य, अग्नि ,सोम तथा वायु आदि ले जाते हैं। पितर का भी स्व -स्व स्थान में स्थित होकर उसे ग्रहण करते हैं, प्रसन्न होते हैं ,और अपनी संतति को आशीर्वाद देते हैं। उपरोक्त संबंध के कारण ही वेद में कहा गया है कि, यह पिंड( देह) सप्त पौरुषिक है ।यदि वीर्यांश में किसी प्रकार से व्युत्क्रम होता है ,तब समस्त 13 पुरुष व्याप्त शुक्र संबंध चक्र अस्त-व्यस्त एवं विच्छिन्न हो जाता है। इससे पिंडोदक क्रियाएं लुप्त हो जाती है और पारिवारिक धर्म, परंपराएं तथा मर्यादाऐं भी लुप्त हो जाती है ।इसी संबंध के कारण ही जन्म और मरण अशौच( सूतक) भी सात पीढ़ियों तक सीमित रहता है।

श्री गीता जी के मंत्रों 1.42,43, 44 व 3.24 में वर्णसंकरता कि ओर संकेत किया गया है ।स्त्रियों के दूषित होने पर उस कुल के पूर्वज पितर भी नरक में गिरते हैं। दूषित कुलों में उत्पन्न वर्णसंकरी पुत्र -पौत्र आदि से प्रदत्त तर्पणजल व पिंड दान आदि उनके पितर नहीं प्राप्त कर पाते ।दूसरे के अंश से उत्पन्न होने के कारण ,तद्-दत्त -पिंड,तिल संयुक्त जल ,उनकी पितरों के समीप चंद्र- सूर्य-अग्नि के द्वारा पहुँचाये जाने पर भी ,हेय होने से उनकी पितर नहीं पाते। पितरगण, जिस आदमी में उनका अंश होता है, उसी के हाथ से दिया गया अथवा अधिकृत ब्राह्मण द्वारा, स्वनाम निर्देश पूर्वक दिया गया यत किंचित जलादि- पिंडादि को ही ग्रहण करते हैं, जिस किसी के हाथ से नहीं। अप्राकृतिक व शास्त्र विरुद्ध धर्मों के मिश्रण द्वारा जो बनता है, उसको संकर कहते हैं ।जब कर्तव्य का, स्वधर्म का पालन नहीं होता ,तब धर्म संकर, वर्णसंकर ,कुलसंकर तथा आहारसंकर आदि अनेक संकर दोष उत्पन्न होते हैं।आसुरी प्रकृति वालों से, भारत को वर्ण संकरी देश बनाने की कूटनीति जोरों पर है।

देह त्याग के बाद जो तपस्वी या सन्यासी हैं ,उनके अंदर सूर्यअंश अधिक होने से ,सूर्य लोक तक देवयान मार्ग से स्वत: खींचे चले जाते हैं ।ऐसे महापुरुषों के लिए श्राद्ध कर्म की अनिवार्यता नहीं रहती।

मैकाले पद्धति से उपजे अविद्या के विद्वानों की बाढ़ से अथवा स्वाभाविक परिवारिक दशा के कारण, भविष्य में जिनके श्राद्धकर्म होने की संभावना न हो, उनका कर्तव्य है कि वे जीवन मुक्तता के लिए प्रयास करें ।अन्यथा कम से कम तपस्या और संयम से अपना तेज तत्व बढ़ा लें। इससे भविष्य में उनके लिए श्राद्ध कर्म की अनिवार्यता न रह जाएगी। हरि ओम तत्सत्।

गंगातीरे ,मातृनवमी 23.9.2019, वंश ,परंपरागत श्राद्धकर्म ।हिंदू धर्म के दैनिक आचरण में ही- मानवता, जीवन-विकास तथा हिंदुत्व का रहस्य पिरोया हुआ है। उसका निर्वाह करते रहना हमारा कर्तव्य है:-



प्रार्थना रूपी कवच



मोक्ष



आभासी सुख



हिंदू संस्कार- आस्तिक भाव



अत्याचार निरोधक कानून



आसुरी वृत्ति विकास योजना (गीता 16.12 व16 )



शिक्षक दिवस