दोनों नवरात्रों में हिंदू जन, देवी जी की विशेष आराधना कर शक्ति अर्जित करते हैं ।समष्टि के, विज्ञान सहित ज्ञान प्राप्ति के लिए, शक्ति व शक्तिमान के एकत्व का बोध अनिवार्य है ।शक्ति के बिना ब्रह्म से कुछ नहीं बन सकता (भगवान शंकराचार्य )।भगवान के बिना देवी की आराधना से देवी स्वयं रुष्ट हो जाती हैं( श्री लक्ष्मी नारायण हृदय )।भगवान की अनेक शक्तियों में दो (गीता 4.6)विशेष है-( 1) अंतरंग, आत्म माया या चिति(2) बहिरंग ,प्रकृति या त्रिगुणात्मका माया ।दोनों शक्तियों के संवित की जब पुरुष रूप से उपासना करते हैं ,तब उसे ईश्वर, शिव तथा भगवान आदि कहते हैं। जब उसी संवित की स्त्री रूप से उपासना करते हैं ,तो उसी को ईश्वरी, दुर्गा अथवा भगवती आदि कहते हैं ।दोनों के अधिष्ठान में एक ही परम सत्य रहता है। संसार चक्र चलाने में -सृष्टि ,पालन तथा संघार कर्मों के लिए ,नियंत्रक रूप में ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र प्रसिद्ध है। उनके कर्मों की संचालन शक्ति भगवती महामाया की तीन शक्तियाँ- सृष्टिशक्ति ,पालन शक्ति तथा संहार शक्ति के नाम ही महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती है ।यही अव्यक्त रूप में त्रिदेव के साथ संलग्न रहती हैं।इसी प्रकार कृष्ण -राधा, राम -सीता, विष्णु -लक्ष्मी तथा शिव -गौरी आदि सब परस्पर अभिन्न है।
सच्चिदानंद परमात्मा सृष्टि के प्रारंभ में अचिंत्य माया शक्ति भगवती के योग से उत्पत्ति ,स्थिति, संघार, विग्रह तथा अनुग्रह नामक पञ्च कृत्य का निर्वाह करने के लिये,स्वयं को सूर्य, विष्णु ,शिव ,शक्ति तथा गणपति संज्ञक पंचदेव रूपों में व्यक्त करते हैं ।इन पंचदेवों की और इनकी शास्त्र सम्मत अवतारों की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित तथा पूजित होती हैं ।पंचदेवों के निर्गुण निराकार तथा सगुण निराकार स्वरूप में उनके अधिष्ठान विराट स्वरूप में सर्वथा ऐक्य है ।केवल सगुण-साकार अर्चावतारों के नाम रूप लीला और धाम को लेकर भेद है ।
भगवती का परिचय देने वाला देव्यथर्वशीर्षम (देवी सूक्त) वेद का अंश है ।वैदिक मंत्र वक्ता, चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री ,सब ऋषि हैं ।वह मंत्र रचयिता नहीं ,मंत्र द्रष्टा थे ।देवी सूक्त म्रम,प्रमाद ,शून्य ऋषिका संवेदन है ।परमात्मा और भगवती अभिन्न है ।देवी सूक्त का मत, शंकर मत से प्रायः मिलता है ।जो साधक है ब्रह्मविद है, आत्मज्ञ है,वह जानते हैं कि आत्मा तथा देवी सर्वथा अभिन्न पदार्थ हैं ।
"मैं"," माँ" व आत्मा तीनों एक हैं ।मैं का पहचानना ,आत्मा का साक्षात्कार करना, मां को जानना यह एक ही बात है ।
देवीसूक्त अथर्ववेद का शिरोभाग अर्थात उपनिषद है। नवार्ण मंत्र इसी का 20वाँ मंत्र है ।
संक्षेप में उसका अर्थ है-
हे चित् स्वरूपिणी महासरस्वती !
हे सदरूपणी महालक्ष्मी !
हे आनंद स्वरूपणी महाकाली !
ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं।
दुर्गा सप्तशती देवी की महिमा बताने वाला प्रचलित ग्रंथ है। इसमें देवी जी के तीन चरित्रों का उल्लेख बड़ी सुंदरता से किया गया है। यह मार्कंडेय ऋषि रचित पुराण का अंश है ।चंडी या देवी महात्म्य, देवी सूक्त का ही, कथा के माध्यम से विश्लेषण मात्र है ।चंडी या देवी -महात्म्य में परमात्मा ही महामाया रूप में वर्णित हुए हैं ।
साधकों के बीच यह प्रचलित है ,कि सृष्टि का व्यापार तीनों गुणों सत्व ,रज तथा तम पर आधारित है ।गुणों से उत्पन्न संस्कारों या वासनाओं से मुक्ति पाना ही साधना का लक्ष्य होता है ।सप्तशती में तीन चरित्र उन्हीं तीनों के संस्कारों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए कथा रूप में वर्णित हैं ।वे कथाएं हैं --मधु -कैटभ वध, महिषासुर वध,और शुभ्भबध। इन से क्रमशा सत्य (सत्) प्रतिष्ठा ,चैतन्य (चित् )प्रतिष्ठा तथा आनंद प्रतिष्ठा हो जाती है । इस प्रकार जीवन में सच्चिदानंद का प्राकट्य हो जाता है।
प्रथम आख्यान में सत्वगुण के बाहरी विकास रुपी आसुरी संस्कार मधु-कैटभ के नाम से वर्णित हुए हैं ।द्वतीय आख्यान में रजोगुण के विकास से उत्पन्न संस्कार ही असुर बृंद है। जितनी कामना ,वासना है और गीतोक्त आसुरी संपदाऐं( अध्याय 16 )हैं ,वे रजोगुण की स्थूल आसुरी संपदाएं हैं, जिनका नायक महिषासुर है। अपने आपको न जानने की चेष्ठा से विमुख रहना अर्थात अज्ञान तमोगुण का प्रभाव है, जिसे सुंभ्भ रूप में दिखाया गया है। शरणागत हो ,तीनो चरित्रों द्वारा देवी की आराधना करने से ,आसुरी वृत्तियों नष्ट होती है।चित्त निर्मल होने से,जीव को अपने नैसर्गिक स्वभाव -सत्ता, चित्ता और आनंद का बोध होने लगता है।
दुर्गा सप्तशती का प्रथम चरित:
सप्तशती 700 श्लोकों का संग्रह है। प्रथम चरित्र में ब्रम्हा ने योगनिद्रा रूपी महाकाली देवी की स्तुति करके भगवान विष्णु को जागृत कराया। इस प्रकार जागृत होने पर भगवान द्वारा मधु-कैटभ का नाश हुआ ।राग-द्वेष रूपी आसुरी संपत्तियों के दमन से जीवन में सत्य (सत्) प्रतिष्ठित हो जाता है। हुआ यह कि कल्पांत में भगवान शेष पर विराजमान थे। उस समय कूर्म प्रष्ठ पर ,जल में विलीन होने के कारण ,पृथ्वी नवनीत के समान कोमल हो गई ।सृष्टि काल में यह प्राणियों को किस प्रकार धारण करेगी ,यह सोचकर भगवती ने विष्णु जी को अपनी योगनिद्रा शक्ति से प्रसुप्त करके अपने बामं हस्त की कनिष्ठिका से उनके कर्णमल को निकालकर मधु-कैटभ को बनाया। उत्पन्न हो कर दोनों दैत्य पहले कीट के समान पश्चात विशाल महा बलवान हो गए ।उन दोनों ने नाभि कमल में बैठे ब्रह्मा जी को देखा और उन्हें खाने के लिए उद्यत हुए । ब्रह्मा जी ने योगनिद्रा की सुंदर प्रार्थना की ,जो देवी के तात्विक रूप का परिचय देती है ।भगवती ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा से वरदान मांगने को कहा ।ब्रह्मा ने भगवान को जगाना और असुरों को मोह होना मांगा ।माता जी ने विष्णु को जगा दिया ।विष्णु से उन दैत्यों का 5000 वर्ष तक घोर युद्ध हुआ। महा प्रमत्त उन दत्यों ने महा माया के प्रभाव से विष्णु से ही बर मांगने को कहा। विष्णु भगवान ने बर के सहारे युक्ति से उनका बध कर दिया ।महामाया की योजना अनुसार असुरों के मेद का विलेपनकर पृथ्वी को दृढ़ (हार्ड )किया गया इसी से पृथ्वीका एक नाम मेदनी भी हुआ। ब्रह्मा जी की स्तुति से ज्ञात होता है, कि भगवती महाकाली अनंत शक्तियों से संपन्न है। वही आनंद प्रधान महाकाली सप्तशती के प्रथम चरित्र में वर्णित हैं।
दुर्गा सप्तसती का मध्यम चरित्र
द्वितीय चरित्र में महिषासुर वध के लिए सब देवताओं की शक्ति के अंश एकत्र होते हैं और उस पुन्जीभूत शक्तिके महालक्ष्मी देवी रूप द्वारा महिषासुर वध हुआ है ।इस आसुरी वृत्ति अहंकार के दमन से जीवन में चैतन्य (चित्) की प्रतिष्ठा होती है। द्वितीय चरित्र में संघ शक्ति का महत्व प्रत्यक्ष है। एक देव की शक्ति महिषासुर दमन के लिए पर्याप्त नहीं थी ,इसीलिए सभी देवों की शक्तियां समवेत हुई और उनका संगठित रूप महालक्ष्मी देवी का रूप बन गया ।इस चरित्र में देवी के मधु (शहद) पान की बात आई है ।यहां पर मधु का अर्थ उत्साहवर्धक उपकरण है ।दोष निवारण के लिए कभी-कभी उपकरण का प्रयोग आवश्यक होता है मध्यम चरित्र में भगवती, महालक्ष्मी के रूप में अवतरित होती हैं।देवताओं की प्रार्थना में उन की अनंत महिमा का वर्णन है ।यथा- हे मां !आप जगदात्मा शक्ति हैं ,आपसे संपूर्ण विश्व व्याप्त है। मोक्षार्थी यति लोग ब्रह्मविद्या रूप से आप का सेवन करते हैं।विश्व का अभ्युदय ,निःश्रेयस प्राप्त करने के लिए ,आप ही वेदत्रयी के रूप में प्रकट होती हैं।विष्णु के हृदय में महालक्ष्मी रूप से ,शशिमौलि के यहां गौरी रूप से ।,आप ही प्रतिष्ठित हैं- आदि -आदि ।"देवताओं ने देवी से अनेक बर मांगे हैं।माता "तथास्तु" कहकर अंतर्हित हो जाती हैं।
दुर्गा सप्तशती का उत्तर चरित्र
तृतीय चरित्र में शुंभ निशुंभ वध के लिए देवताओं ने देवी से प्रगट होने की प्रार्थना की है ।पार्वती जी के शरीर से महासरस्वती देवी का प्रादुर्भाव हुआ ।जिनसे क्रमश: धूम्रलोचन ,चंड -मुंड और रक्तबीज का वध होने के बाद शुंभ-निशुंभ का संघार हुआ है। इन बधों के पश्चात जीवन में आनंद की प्रतिष्ठा हो जाती है ।
इस चरित्र में यह शिक्षा मिलती है कि यदि किसी सत्कार्य के लिए कोई अकेली ही शक्ति अग्रसर हो जाए तो अन्य देवताओं की शक्तियां आप ही आप उस की सहायता के लिए दौड़ पड़ती हैं। जिस प्रकार अंबिका जी की सहायता के लिए अन्य देवताओं की शक्तियां आईं थीं। इस चरित्र से यह भी पता चलता है कि संघार का किसी समस्या के अंतिम उपाय रूप में ही प्रयोग करना चाहिए। देवी ने पहले सदाशिव को जो शान्ति के प्रत्यक्ष अवतार हैं ,दूत कार्य के लिए भेजा था। आध्यात्मिक दृष्टि से शुंभ-निशुंभ दर्प व विषयासक्ति का स्वरुप है ।चित्त शुद्धि के लिए पहले उन के सेनापतियों आलस्य रूपी धूम- लोचन, रागद्वेष रूपी चंड मुंड तथा वासना रूपी रक्तबीज का वध कर फिर इन दोनों का वध करना पड़ता है ।
हमारे अंदर देव भाव और असुर भाव दोनों विद्यमान हैं । व्यष्टि तथा समष्टि में सुमति तथा कुमति का द्वन्द सदा चलता रहता है ।जब पुण्य संचय से साधक के ह्रदय में देवासुर संग्राम तेज होता है, तब उसे पता चलता है कि मां स्वयं समर क्षेत्र में अवतीर्ण होकर सुरविरोधी भाव समूह का संघार कर ,उसकी सहायता कर रही हैं ।वर्ष में दो बार नवरात्रि के अवसर पर हम सब अपने अंदर दैवी संपदा (गीता 16.1,2,3 )बढ़ाने का प्रयास करते हैं ।सफल होने पर अंदर ही सत्ता ,चिता व आनंद प्रगट हो जाता है।
हवन का महत्व
नवरात्र की अष्टमी और नवमी तिथिओं में हवन करने की परंपरा है। हिंदुओं को नि:संकोच भाव से ,इस परंपरा को बनाए रखने के लिए ,अपना कर्तव्य पालन करते -कराते रहना चाहिए। यज्ञ प्रक्रिया ईश्वर संचालित (गीता 3.14,15) विज्ञान युक्त व्यवस्था है ।श्री गीता जी, देह और अध्यात्मिक विकास पूर्वक ,परमसत्य केंद्रित, समष्टि कल्याण के लिए बनी, शाश्वत भगवदीय संविधान है।उसकी उपेक्षा कर, जब मानव देहात्मभाव केंद्रित,भोग वादी, सेकुलर संविधान अपनाता है, तब पांचों तत्व प्रदूषित होने से ,व्यष्टि और समष्टि क्षुब्ध हो उठते हैं और सर्वत्र दुख व्याप्त हो जाता है।ऐसे में मदिरापान, गोमांस भक्षण, समलैंगिकता तथा पर स्त्री -पुरुष संबंध ,आज उन्नति के भले ही मापदंड बन जाएं ,पर वास्तविकता यह है कि,"आसुरी प्रकृति वाले" गीता 16.19,20 के अनुसार दंडित होंगे।आज की विकट परिस्थिति में भी भक्तों को स्थित प्रज्ञता ( गीता 2. 55--72) से विचलित नहीं होना चाहिए।
हिंदू धर्म आचरण अपने आप में संपूर्ण जीवन दर्शन है। यथा अवसर कर्म ,उपासना व ज्ञान को स्थान देने पर मानव जन्म की सफलता सुनिश्चित है। सेकुलर आसुरी राजनीतिक संगठनों के कुचक्र से बचे रहना कर्तव्य है ।
हिंदुओं के सामान्य जीवन में कर्म ,उपासना और ज्ञान इस तरह पिरोया हुआ है, कि जीवन परम लक्ष्य की ओर स्वत: अग्रसर हो जाता है।