Wednesday, May 13, 2020

ज्ञानयोग-पथ के क्रमिक विकास पर तीन दृष्टिकोण




प्रथम दृष्टि कोण - वेदांतानुसार


[1]
परंपरागत साधन


परंपरागत साधनों में धर्म उपासना एवं योग आते हैं ।शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म करना और स्वधर्म पालन एक ही बात है ।धर्म हमारे कर्मों को नियंत्रित करता है ।इससे हमारा जीवन वासना पथ से हटकर मर्यादित हो जाता  है और तब हम एक सभ्य समाज के नागरिक बन जाते हैं अन्यथा धर्मनिरपेक्ष "पशुभि:समाना "है। उपासना धर्म का ही विकसित रूप है ,जिससे अंतःकरण में सत्व गुणी वासनाओं की वृद्धि होती है तथा उसी अनुपात में तमोगुणी वासनाओं में कमी आती है ।उपासना वासना को बाँधती है और प्रवृति अंतर्मुखी हो जाती है ।योग भी एक विशिष्ट उपासना ही है किंतु उपासना की अपेक्षा अधिक अंतरंग ।योग चित्त की चंचलता दूर करके चित्त को निरूद्ध करता है । चित्त की इस दशा में विवेक को अपरोक्ष (गीता 6.20) किया जा सकता है जो साधना पथ का अगला चरण है। कोरे वेदांती परंपरागत साधनों का उपहास करते देखे जाते हैं।




[2]
साधन चतुष्टय


ज्ञान मार्ग में साधक धर्म ,उपासना तथा योग(परंपरागत साधन) की प्राइमरी शिक्षा पूरा करने के बाद  साधनचतुष्टय( अ-विवेक,ब-वैराग्य,स-षटसंपत्ति तथा द-मुमुक्षा )से संपन्न होने के लिए अग्रसर होता है ।चारों पर विचार करना है :- 



विवेक :-

विवेक बुद्धि का गुण है ,जो नैसर्गिक रूप से सब के पास नहीं होता ।उसके लिए प्रयास करना पड़ता है ।जब दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं,एकाकार होने का भ्रम उत्पन कर रही हो, तो उनको प्रथक-प्रथक जानने की शक्ति का नाम विवेक है ।हमारे जीवन में दुख का हेतु यह है कि जड़-चेतन अर्थात देह- देही इस प्रकार मिल गए हैं, कि हम चेतन होते हुए भी,जड़ से तादात्मय करके,उसके गुण- दोष अपने ऊपर थोप लेते हैं ।परम सत्य के (ब्रह्म )विचार के लिए,बुद्धि में विवेक उदय  की अपरोक्ष अनुभूति,गीता मंत्र 6.20 के अनुसार स्वयं को करनी होती है । आध्यात्मिक जीवन विकास में,विवेक  का होना पहली शर्त है ।यह सत्संग, सदाचार धर्म, उपासना व योग द्वारा विकसित होता है ।जिसकी परिणीति वैराग्य में होती है।


वैराग्य :-

साधन चतुष्यठय के दूसरे पायदान पर वैराग्य आता है ।देह असत, अनित्य ,जड़ और दुख रूप है ,और इसका साक्षी आत्मा- सत्य, चेतन और आनंद रूप है। बुद्धि में इसका निश्चय हो जाना ही विवेक है ।इस निश्चय के साथ ही नैसर्गिक वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ।वैराग्य आंतरिक अनुशासन है ,वाह्मय आडंबर नहीं। वैराग्य  में ,क्रोध और घृणा का कोई स्थान नहीं है ।वहां आत्मा की प्रधानता है ,राग-द्वेष का कोई स्थान नहीं है ।वैराग्य उदय होने पर मन शांत हो जाता है ,इंद्रियों की चंचलता कम हो जाती है ,मन में संशय कम हो जाते हैं और कर्म आधिक्य में रुचि कम हो जाती है ।गुरु ,शास्त्र और परमात्मा में श्रद्धा बढ़ जाती है । वास्तव में वैराग्य का आशय,वस्तुओं- व्यक्तियों आदि को छोड़ने से कदापि नहीं है ,बल्कि इन में जो सुख-बुद्धि है,उसका त्याग ही वैराग्य है ।अपनी दृष्टि संसार की ओर से हटाकर परमात्मा में लगा लेने का नाम वैराग्य है ।


षटसंपत्ति :-

साधन चतुष्टय के तीसरे पायदान पर षट- संपत्ति आती है ।वैराग्य के परिपाक होने पर छह स्वाभाविक संपदाएं प्रकट होती हैं, जिंहें षट संपत्ति कहते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद के मंत्र 4.4.23. के अनुसार- शम, दम ,उपरति ,तितिक्षा ,श्रद्धा और समाधान की संपत्ति से युक्त होकर,मुमुक्ष अपनी आत्मा को देखे ।

शम - चित्त का अपने लक्ष्य पर स्थिर हो जाना शम,अथवा शांति है ।वास्तव में संसार के विषयों में,महत्व बुद्धि का त्याग और बुद्धि का ईश्वर में निष्ठावान होना शम है ।

दम - इंद्रियों को मन के द्वारा वश में रखने की शांति का नाम दम है।

उपरति - शम ,दम की चरम सीमा है उपरति -कर्माशक्ति के त्याग को उपरति कहते हैं। ईश्वर संपत्ति के उदय होने पर,जीव अपने को सांसारिक व्यापार से अलग समझने लगता है।  उपरति में राग-द्वेष के न संस्कार रहते हैं और ना उनकी सत्ता ।

तितिक्षा: -शीत- ऊष्ण ,सुख -दुख, मान-अपमान आदि द्वन्दो  को प्रसन्नतापूर्वक सहते हुए ,अपने लक्ष्य के लिए,साधन में डटे रहने का नाम तितीक्षा है ।तितीक्षा में तपो बुद्धि होनी चाहिए।

श्रद्धा:- सत्य को धारण करने वाली बुद्धि का नाम,श्रद्धा है ।वेद और गुरु के प्रति श्रद्धा से ही सत तत्व की उपलब्धि हो सकती है ।

समाधान -समाधान चित्त की शांति है ।शांत चित्त में एकाग्रता सुनिश्चित हो जाती है ।शांति का सबसे अधिक महत्व है ।शांति ही मन में रहने से शम है ,इन्द्रियों में रहने से दम है ,कर्म में रहने से उपरति है , शरीर में रहने से तितीक्षा है, भावों में रहने से श्रद्धा है और चित्त् में रहने से समाधान कहलाती है।

मुमुक्षा :-


साधन चतुष्टय का अंतिम अंग मुमुक्षा है ।सच्चिदानंद स्वरूप जीव, जड़ता से तादात्म्य के कार,नाना प्रकार के दुख भोग रहा है ।साधना जैसे-जैसे बढ़ती है ,साधक को संसार-बंधन दुखमय प्रतीत होने लगता है। अतः संसार बंधन से छूटने कि उसकी तीव्र इच्छा उत्पन्न हो जाती है ।इसी इच्छा को मुमुक्षा कहते हैं। बंधन क्या है ?अर्थ और भोग वासना का न तृप्त्त होना, और न ही उससे निवृत हो पाना। कामसुख, धनसुख, तथा परिवार सुख के पीछे भागना ही पराधीनता है ।सभी उसके पीछे भाग रहे हैं,जब कि वह सत्य नहीं मृगतृषणा है। आपका अपना स्वरूप ही सत् है ,वही ज्ञान स्वरुप है ,तथा वही आनंद स्वरुप है ।उसमें स्थित होते ही ,देह रहते हुए मोक्ष हो जाता है। वहां सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति हो जाती है। मनुष्य का देह साधन धाम है ,जिसमें मोक्ष का द्वार लगा  है ।इस "चित्त रूपी दर्पण -द्वार" को स्वच्छ कर लेने पर, उसमें प्रतिबिंबित चिदाभास   (जीव) अपना बिंब रूपी आत्मा देख करके, मोक्ष प्रक्रिया में, प्रवेश कर जाता है ।इसके आगे,जीव  आत्मा और सर्व अधिष्ठान परमात्मा के साथ निबन्धनात्मक एकत्व का बोध हो जाने से वेदांतिक मोक्ष प्रिक्रिया भी पूरी हो जाती है। मोक्ष के विषय में संतों के बीच अनेक मत प्रचलित हैं ।सच्चा साधक वाद- विवाद में न पड़कर ,श्री गीता जी के अध्याय 6 के, मंत्रों- 20,29 तथा 30 से मोक्ष का वास्तविक अभिप्राय समझ कर मुक्त हो जाता है। ध्यान योग साधना के अंतर्गत साधन चतुष्टय पर चार पोस्टों में विचार किया जो चुका है।


समाधि बनाम साक्षात्कार :- शंका समाधान


जिज्ञासा का स्वागत है। "सोपान परंपरा न्याय" के अंतर्गत,समग्र साधना पथ में,समाधि-सुख की स्थिति को लेकर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है। ऐसा प्रश्न तब उठता है,जब समाधि-सुख में आत्म-साक्षात्कार अथवा स्वरूप-स्थिति का भ्रम पैदा हो गया हो ।अष्टांग योग का अंतिम पायदान (step) समाधि ही है। वहां पहुंचकर चिंतन का आधार,गीता के मंत्र 6. 20 व 21 को बनाना चाहिए ।मंत्र में निरूद्ध चित्त् ही समाधि है ।वृत्तिहीन चित्त को उपराम या बाधित( अस्तित्व बना रहने पर भी निरर्थक जैसा )करने से, अर्थात चित्त को अपने से अलग करने पर, आत्म- साक्षात्कार होता है, केवल समाधि में रहते नहीं ।समाधि में जीव का,चित्त (जड़ता)से तादात्म बना रहने के कारण,साक्षात्कार संभव नहीं है ।समाधि सुख ,समाधि छूटने के पश्चात नहीं रहता, किंतु उसकी स्मृति बनी रहती है, जो आत्म साक्षात्कार का भ्रम पैदा करती है ।स्मरण रखना चाहिए कि आत्म- साक्षात्कार का आनंद स्थाई होता है ।चित् और अचित् की ग्रंथि मुक्त हो जाने पर समाधि- प्रज्ञा नहीं रहती, यही उसका मरना है ।


आध्यात्मिक विकास के लिए चिंतन शास्त्र आधारित होना चाहिए, मनमानी नहीं।भगवत्गीता,श्री मानस,तथा श्रीमद्भागवत आदि शास्त्र सबको सुलभ हैं ।ज्ञानयोग साधना में विकास क्रम की सोपान परंपरा:-

  1. धर्म

  2. उपासना

  3. योग

  4. विवेक

  5. वैराग्य

  6. षट्संपत्ति

  7. मुमुक्षा

  8. श्रवण

  9. मनन

  10. निदिध्यासन

  11. बोध

माने गए हैं। प्रत्येक सोपान अगले सोपान (step) पर आरुढ कराकर,निष्प्रयोजन सा हो जाता है , यही उसका मरना है ।साधक को लक्ष्य सहित उसको प्राप्त करने का समग्र पथ,स्पष्ट रहना चाहिए फिर, वर्तमान में स्थिति कहीं हो सफलता मिलती है।



[3]
अंतरंग साधन

वेदांत के अंतरंग साधनो में श्रवण ,मनन तथा निदिध्यासन आते हैं। इसके पहले परंपरागत साधन- धर्म ,उपासना एवं योग तथा बहिरंग -साधन विवेक, वैराग्य षट संपत्ति एवं मुमुक्षा की चर्चा पांच पोस्टों में की जा चुकी है । इनसे संपन्न जिज्ञासु ब्रह्मज्ञान का मुख्य अधिकारी होता है। उसको आगे क्या साधना करनी है इस पर विचार किया जा रहा है।अध्यात्म ग्रंथों में आत्मा और ब्रह्मतत्व के विषय में विभिन्न प्रकार से वर्णन होने के कारण, साधक में संशय उत्पन्न हो जाता है - "कि इसमें क्या ठीक है"।अतः गुरुमुख से शास्त्र का तात्पर्य निश्चय कर लेना चाहिए; जिसे "श्रवण" कहते हैं ।सुने हुए का अनुकूल युक्तियों से चिंतन तथा बाधक युक्तियों का खंडन "मनन" कहलाता है ।श्रवण और मनन द्वारा निश्चित किए अर्थ में,बुद्धि का तैलधारवत् प्रवाह "निदिध्यासन" कहलाता है। निदिध्यासन का अर्थ है-अनुभूति या साक्षात्कार। निदिध्यासन की परिपक्व अवस्था ही वेदांत की समाधि है ।यह योग में वर्णित समाधि से भिन्न अवस्था है ।योग की समाधि में व्यक्ति का अहं सुरक्षित रहता है ,जबकि वेदांत में वह ब्रह्म में लय कर जाता है ।इसके आगे पूर्ण बोध के लिए श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ट संत से महावाक्यों के गुढ अर्थ समझना होता है।


[4]
पूर्णता - बोधक प्रज्ञा

ज्ञान योग का अंतिम साधन -महावाक्य जन प्रज्ञा है।परम ब्रम्ह की अपरोक्षानुभूति का परिचय देने वाला ग्रंथ, श्री वेदव्यास रचित ब्रह्म सूत्र है। इसमें 555 सूत्र हैं ।इसका अध्ययन कठिन है। उपनिषदों और ब्रह्म सूत्र का परम तात्पर्य एक ही है -"वह है ब्रह्म और आत्मा का ऐक्य"। उपनिषद के चार महावाक्य 1 प्रज्ञानं ब्रह्म 2 अहम् ब्रम्हास्मि 3 तत्वमसि तथा 4 अयंआत्मा ब्रह्म भी,उसी तात्पर्य का प्रतिपादन करते हैं ।ज्ञान योग के 10 साधनों की चर्चा,छह पोस्टों में की जा चुकी है। इन साधनों से संपन्न होकर साधक को महावाक्य का अर्थ हृदयंगम करने के लिए,श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत के पास जाना ही पड़ता है। श्री गीता जी के मंत्र 4.34 का भी यही अभिप्राय है ।यही ज्ञान योग का अंतिम साधन है । उपनिषदों के अध्ययन से पता लगता है- कि जिन में साधन चतुष्टय आदि थे, उनको ही ब्रह्म विद्या का उपदेश किया गया है। यदि साधन नहीं थे,तो साधनों का उपदेश किया गया है ।क्योंकि साधन के बिना साध्य की प्राप्ति नहीं होती। जिसमें साधन है,उसको श्रवण मात्र से,ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है ।जिस आनंद के लिए जन्म- जन्मांतर से भटक रहे हैं,वह केवल अपरोक्षानुभूति तथा पराभक्ति द्वारा ही संभव है। इस पोस्ट तथा फरवरी माह के दिनांक 3 ,16, 17,18, 19 व 26 की पोस्टों में व्यक्त विचारों से ज्ञान योग के साधना पथ की रूपरेखा स्पष्ट हो जाती है।


द्वितीय दृष्टिकोण - मानस 7 . 54 अनुसार




[1]
भूमिका

मानस में वर्णित राम कथा में,बड़े मनोरम और सरल ढंग से,तीनों योग मार्गों को पिरोया गया है ।संत तुलसी ने मानस- सरोवर की कल्पना करके उसको भगवान राम के यश रूपी जल से भरा है ।मानस -सर में स्नान करने और गहराई तक डुबकी लगाने के लिए, चारों और चार घाट बनाए है ।सरोवर के कर्मघाट के वक्ता- श्रोता ,क्रमश: याज्ञवल्क्य व भरद्वाज जी हैं।ज्ञानघाट के वक्ता-श्रोता, भगवान शंकर और पार्वती जी हैं ।भक्ति के स्वरुप को दो भागों से दर्शाया गया है -एक पराभक्ति के वक्ता- श्रोता क्रमशा काकभुसिंड जी व गरुण जी हैं; जबकि दूसरे (साधन भक्ति) दैन्य या पशु घाट के वक्ता -श्रोता क्रमशा तुलसी व तुलसी का मन है। दैन्य या पशु घाट सपाट है ।जबकि शेष तीनों घाटों में सात-सात सीढ़ियां बनी है जो तीनो- कर्म, ज्ञान व भक्ति के पथ में क्रमिक विकास का प्रतीक है ।ज्ञान पथ की सीढ़ियों के लिए तुलसी लिखते हैं :-


सप्त प्रबंध शुभग सोपाना।  

ज्ञान नयन निरखत मनमाना।।

मानस 1.37.1।


ज्ञान नयन( ज्ञान चक्षु) पारिभाषिक शब्द है ।हम सब के पास तीन प्रकार की चार आंखें हैं।दो जिनसे लौकिक स्थूल जगत दिखता है ।तीसरी दिव्य चक्षु जिससे सूक्ष्म जगत दिखता है ;श्री गीता जी के मंत्र 11.8 में इसकी चर्चा है ।चौथी "ज्ञान चक्षु "जिससे से आत्मा परमात्मा की अनुभूति होती है ।इसके बोध के लिए गीता जी के मंत्र 15.10 को समझना होगा ।शिव पार्वती संवाद द्वारा,ज्ञानपथ स्पष्ट होता है। पार्वती जी ज्ञान पथ की सातों सीढ़ियों को मानस 7. 54.1से8 तक की चौपाइयों से स्पष्ट करती हैं। सीढियों के नाम हैं :- 

  1. धर्म

  2. वैरग्य

  3. सम्यक ज्ञान अर्थात जड़ चेतन ज्ञान 

  4. जीवन मुक्त

  5. ब्रम्हज्ञान 

  6. विज्ञान 

  7. पराभक्ति


मानस की मुख्य कथा,शिव जी और पार्वती जी के बीच संवाद रूप में है ।शिवजी ने कथा के मध्य में बताया, कि जो कथा वह सुना रहे हैं उसे उन्होंने काकभुसुंडी जी से सुना था ।इस पर पार्वती जी के मन में शंका हुई कि ऐसी दुर्लभ कथा, काग शरीरधारी जीव कैसे कह सकता है ?यह कथा तो वही कह सकता है जिसे जीवन का परमलक्ष्य- अपरोक्ष अनुभूति व पराभक्ति का बोध हो ।अतः भक्तों को ज्ञान पथ के क्रमिक विकास के सातों सोपानों --धर्म,विराग ,सम्यक ज्ञान ,जीवन- मुक्तता,  ब्रम्हज्ञान ,विज्ञान व पराभक्ति को स्पष्ट करने के उद्देश्य से शंकर जी के सम्मुख,अपनी जिज्ञासा प्रकट करती हैं यथा:-

 

नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी । 

कोउ एक होइ धर्म व्रतधारी ।।


सोपान 1

धर्मशील कोटिक महँ कोई ।
विषय विमुख विराग रत होई।।

सोपान 2

कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहाई ।

सम्यक ज्ञान सकृत कोउ लहई ।।

सोपान 3

ज्ञानवंत कोटिक महँ कोऊ ।

जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ।।

सोपान 4

तिन्ह सहस्त्र मँह सब सुख खानी।

दुर्लभ ब्रम्हलीन विज्ञानी ।।

सोपान 5,6


धर्मशील विरक्त अरु ज्ञानी ।
जीवनमुक्त ब्रम्ह पर प्रानी।।

 सब ते सो दुर्लभ सूरराया ।
 राम भगति रत गत मदमाया ।।

सो हरि भगति काग किमि पाई।
विश्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।

सोपान 7


[2]

धर्म


नर सहस्त्र मँह सुनहु पुरारी।

कोउ एक होई  धर्म व्रत धारी ।।


तीनो योग मार्गों का प्रथम व द्वितीय सोपान क्रमशः धर्म और वैराग्य है ।इन के अभाव में अध्यात्म पथ पर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। साधारणतया धर्म शब्द से मत -मतांतर, संप्रदाय या कुछ आचरण विशेष के भाव को लिया जाता है, जो भ्रम है ।सनातन धर्म का मूल ग्रंथ आचार्य जेमिन कृत पूर्वमीमांसा है ।धर्म के विषय में अनेक परिभाषाएं हैं- उनमें एक है "जिससे प्रेय और श्रेय दोनों की उपलब्धि हो"।जब शारीरिक धर्म ,पारिवारिक धर्म, सामाजिक धर्म ,राष्ट्रधर्म आदि की बात कही जाती है तो उसका अभिप्राय उस विधि- निषेध मय आचरण से होता है जिससे, क्रमशः शरीर, परिवार, समाज व राष्ट्र का विघटन ना हो और उनका अस्तित्व बना रहे। इंद्रीय संयम ,यज्ञ ,दान तथा तप आदि कर्म भी धर्म के अंतर्गत आते हैं ।कर्तव्य कर्म स्वधर्म कहलाते ही हैं ।धर्म का आधार शास्त्र है ।आचरण शास्त्र की मर्यादा में हो तभी धर्म है। धर्म हमारे जीवन को वासना के पथ से हटाकर, हमें सभ्य सामाजिक प्राणी बनाता है ।मनु स्मृति में बताए गए धर्म के 10 लक्षण स्वयं में स्पष्ट हैं यथा:-धैर्य, क्षमा ,शम ,चोरी न करना , शुद्धता, दमन, सुद्धबुद्धि,विद्या ,सत्य तथा अक्रोध। इनको जीवन में अपनाना है । अष्टांग योग के 8 अंगों के, प्रथम 2 अंगों यम और नियम के अंतर्गत आने वाले- अहिंसा ,सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष ,तप ,स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान को धर्म ही कहा जाता है ।


अहिंसा:- मन वचन कर्म से किसी भी प्राणी को दुख मत देना अहिंसा है ।आताताई को मारना हिंसा नहीं है ।


सत्य:- जैसा देखा, सुना ,समझा वैसा मन वा वाणी में रहने को सत्य कहते हैं ।सत्य के बहाने अन्य प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाना है ।


आस्तेय:- अशास्त्रीय ढंग से धन वस्तु को, मालिक की अनुमति के बिना ले लेना ,स्तेय है। ऐसा न करना अस्तेय है।


ब्रम्हचर्य :-आठ प्रकार के मैथुनों- स्मरण, कीर्तन,केलि ,प्रेक्षण ,गुह्यभाषण ,संकल्प ,अध्यवसाय तथा क्रियानिवृत्ति के त्याग का नाम ब्रम्हचर्य है। 


अपरिग्रह :-अर्जन ,रक्षण ,क्षय, संग तथा हिंसा आदि दोषों को देखते हुए, विषय सामग्री को संग्रह न करना अपरिग्रह ।


शौच:- जल आदि से वाह्य प्रक्षालन तथा आत्म संयम से चित्तशुषद्धि का नाम शौच है।


संतोष:-प्राण रक्षा से अधिक वस्तु की इच्छा का ना होना संतोष है ।


तप:-शीत-उष्ण तथा सुख- दुख आदि व्याधिओं को प्रसन्नतापूर्वक सहना तप है ।


स्वाध्याय :-मोक्षदायक शास्त्रों का अध्ययन एवं जप, स्वाध्याय है ।


ईश्वर प्राणिधान:-परम गुरु ईश्वर के शरणगत रहते हुए ,उसी की प्रसन्नता के लिए ,सब कर्म करना ईश्वर प्राणिधान है।


जिसके आचरण में उपरोक्त 10 बातें हैं वह धार्मिक है।





[3]

वैराग



धर्मशील कोटिक मँह कोई।
विषय विमुख विराग रत होई।।


वैराग्य के बिना तीनों योग मार्गो में लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ा जा सकता। साधकों के बीच में" धर्म से विरति" का सिद्धांत प्रसिद्ध है। इन्द्रियों का विषयों में स्वाभाविक राग है ,यदि इंद्रियों के पीछे मन भी जाए और उससे जीव की तादात्म्य भी रहे, तो यह पशुवत जीवन माना जाता है ।धर्मानुसार जीवन जीने से नैसर्गिक राग नियंत्रित हो जाता है ।धर्म की चर्चा पिछले पोस्टों में की जा चुकी है ।जप, तप, व्रत, यम-नियम,  दान, दया, तीर्थाटन आदि धर्म आचरण में आते हैं ।धर्म पालन का फल यह होता है कि विषयों का यथार्थ बोध हो जाने से उनके प्रति वैराग्य हो जाता है;और तब भगवदीय धर्म के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है ।  वैराग्य का अर्थ राग द्वेष, में शिथिलता होना है। वैराग्य माने  विशेष प्रकार का वेश बनाना और परिवार छोड़ना नहीं है ।वैराग्य अंतःकरण में रहता है ।वैराग्य उदय होने पर मन शांत हो जाता है ,इन्द्रिओं की चंचलता कम हो जाती है तथा गुरु, शास्त्र और परमात्मा के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती  है । केवल अनित्य के ज्ञान से वैराग्य नहीं होता। नित्य की प्रति अत्यंत आकर्षण भी होना चाहिए। वैराग्य में त्याग और ग्रहण की शक्ति होनी चाहिए। निश्चय किए हुए असत्य का त्याग, और जिसे आप सत्य मान रहे हैं, उसका ग्रहण करने का साहस होना चाहिए ।अपनी दृष्टि संसार की ओर से हटाकर, परमात्मा में लगा लेने का नाम ही वैराग्य है।



[4]
सम्यक ज्ञान


कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहई ।

सम्यक ज्ञान सुकृत को लहई ।।


सम्यक ज्ञान का भावार्थ बुद्धि का सम हो जाना है। अर्थात बुद्धि को सांसारिक द्वन्दों का स्पष्ट ज्ञान रहता है,और उनसे निरपेक्ष रहकर वह परम लक्ष्य -आत्मतत्व  पर स्थित हो जाती है। सृष्टि इस प्रकार की बनी हुई है ,कि इसमें विपरीत धर्म वाले जोड़े होते हैं- जैसे सुख-दुख,  सर्दी -गर्मी, रात-दिन आदि ।इन के प्रभाव से बुद्धि विचलित होती रहती है ।परमात्मा प्राप्ति के लिए,बुद्धि में दृढ़ निश्चय हो जाने पर,संसार का महत्व व आकर्षण स्वत: मिटने लगता है और बुद्धि सम हो जाती है ।उस समय अनुकूलता या प्रतिकूलता बाधा नहीं पहुंचाती । द्वन्द के विज्ञान को समझना है। इंद्रियों के ज्ञान से वस्तुओं में झूठी सत्यता तथा सुंदरता का आभास होता है।साधक के सामने समस्या तब होती है, जब इंद्रियों ने जिसे सत्य और सुंदर बताया है, उसी को बुद्धि- ज्ञान अनित्य तथा असुंदर बताता है ।इंद्रियों के ज्ञान से कामनाओं और बुद्धि- ज्ञान के महत्व से तत्व-जिज्ञासा का जन्म होता है ।कामना की पूर्ति का प्रलोभन जिज्ञासा को शिथिल बनाता है,और जिज्ञासा की जागृति कामनाओं का नाश करती है ;यही द्वंद है। इंद्रियों के ज्ञान का प्रभाव मिटते ही राग ,वैराग्य में और भोग ,योग में बदल जाता है ।इस दशा में वस्तुओं की महत्व-बुद्धि समाप्त हो जाती है,और बुद्धि सम होकर स्वरूप पर स्थित होने के योग्य हो जाती है । गीता जी के मंत्र 2.15 ,41का यही अभिप्राय है ।यह मोक्ष के पूर्व की अवस्था है।



[5]
मोक्ष

ज्ञानवन्त कोटिक मँह कोऊ।

जीवन मुक्त सकृत जग सोऊ।।


मोक्ष के बारे में साधकों के बीच अनेक मत प्रचलित हैं ।वास्तव में प्रथम तीन सोपान- धर्म, वैराज्ञ और सम्यक ज्ञान- जड़ प्रकृति के स्तर पर घटित होते हैं ;इसलिए उन्हें समझा जा सकता है। किंतु शेष चारों सोपान,चेतन के स्तर पर घटित होते हैं ,जो अनुभूति के विषय हैं ।इस अनर्वचनीय विषय को शब्दों से व्यक्त करने के प्रयास में ,समाधान के स्थान पर,शंकायें बढ जाती है। इस सोपान में कहे गए मोक्ष का अभिप्राय है-कि अंतः करण से प्रतिबिंबित जीव (चिदाभास) अपने उद्गम विम्ब आत्मा को देख लेता है और आनंदित हो उठता है। वेदांत का मोक्ष आगे कहा जाएगा। गीता 6.20 का यही अभिप्राय है ।इस दशा में जड़- चेतन ग्रंथि खुल जाती है अर्थात जीव का प्रकृति के कार्य रूप स्थूल ,सूक्ष्म तथा कारण तीनों शरीर में से सर्वथा तादात्म्य विक्षेद हो जाता है ;किंतु परिछिन्ता बनी रहती है अर्थात त्वं पदार्थ दृष्टा बना रहता है।यह सब उसी साधक के जीवन में घटता है, जिसने सफलतापूर्वक पहले के तीनों सोपानों को पार कर लिया है।अन्यथा मोक्ष पर चर्चा विद्या व्यसन ही सिद्ध होती है।




[6]

ब्रह्मज्ञान



तिन सहस्त्र मँह सब सुख खानी ।
दुर्लभ ब्रह्मलीन विज्ञानी।।

चौथे सोपान पर आरूढ मुक्त साधक,अज्ञान वश माने हुए, देह के आधार को छोड़कर ,नया आश्रय पाने के लिए बेचैन हो उठता है । भाग्यवश यदि कोई मार्गदर्शक मिल गया ,तो उसे सही आश्रय बता देता है ।अब सब प्रकार की परिछिन्नताओं को और वैयक्तिक अहं को त्यागकर ,व्यापक अपरिछिन्न आत्म तत्व (कूटस्थ चैतन्य) में स्थित हो जाता है ;यही ब्रह्मलीनता है ।इस अवस्था को प्राप्त साधक के जीवन में ,श्री गीता जी के मंत्र 6.29 का अभिप्राय स्पष्ट दिखाई देने लगता है,अर्थात सर्व व्यापी अनंत आत्मचेतना से युक्त हुआ तथा सब मे समभाव देखने वाला योगी ,अपनी आत्मा को संपूर्ण भूतों में व्यापक देखता है तथा संपूर्ण भूतों को अपनी आत्मा में देखता है । परम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए,अभी उसे 2 सोपानों में आरूढ होना है।




[7]
विज्ञान


तिन सहस्त्र मँह सब सुख खानी । दुर्लभ ब्रम्हलीन विज्ञानी।।

अध्यात्म विद्या में विज्ञान शब्द अपने में बहुत बड़ा गूढार्थ समेटे हुए हैं ।श्री गीता जी के मंत्रों 7.2 तथा 9.1 में भगवान ने विज्ञान सहित ज्ञान बताने की प्रतिज्ञा की है ।अतः विज्ञान को समझने के लिए गीता जी के अध्याय 7 व 9 को किसी ब्रह्मनिष्ठ संत से अध्ययन करना होगा। यहां पर तो केवल इतना ही संकेत दिया जा सकता है,कि सर्वाधिष्ठान  परंब्रह्म (परम सत्य), ईश्वर ,जीव, तथा जगत चारों के परस्पर संबंध को,हृदय गुहा में अपरोक्ष कर लेना विज्ञान है। दूसरे शब्दों में गीता जी के अध्यय 15 के मंत्रों 15,16 ,17 व 18 में कहे गए शब्दों -क्षरपुरुष ,अक्षरपुरुष ,ईश्वर तथा पुरुषोत्तम का स्पष्ट बोध और उनके परस्पर की निबंधनात्मक एकता को अपनी देह में अनुभव कर लेना, विज्ञान है । शेष एक सोपान की चर्चा अगली पोस्ट में होगी।


[8]
पराभक्ति

सब ते सो दुर्लभ सुर राया ।
राम भगति रत गत मद माया।।

संत तुलसी, जीवन का परम लक्ष्य अपरोक्षानुभूति के बाद उत्पन्न पराभक्ति या सिद्धा भक्ति को मांनते हैं,यथा -



जाने बिन न होय परतिती। 
बिन परतीत होय नहीं प्रीती।।

किन्हीं-किन्हीं श्रेष्ठ साधकों में ,अपरोक्षानुभूति के पश्चात ,प्रभु कृपा से पराभक्ति उदय होती है। यह अवस्था अत्यंत दुर्लभ है। ऐसे परम भक्तों में नारद जी, काकभुसुंडी जी, शुकदेव जी ,दत्तात्रेय जी तथा ब्रजगोपियों आदि का स्मरण किया जाता है ।ऐसे भक्त अपने को पूर्णरुप से परमात्मा को समर्पित होकर रहते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । ऐसे भक्तों का वर्णन गीता जी के मंत्रों - 8.22 ,9. 14 ,11 .54 ,12 .20,14.26,15 .19 तथा 18.62.65 में किया गया है।संत तुलसी के मत में,तो सब साधनों की सफलता अनन्य भक्ति की प्राप्ति में ही है यथा :-


जप तप नियम योग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना शुभ कर्मा।। ज्ञान दया दम तीर्थ मज्जन। जहां लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।। आगम निगम पुराण आनेका । पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ।। तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर ।।


मानस के अनुसार ज्ञानयोग पथ का वर्णन मार्च 12 से 22 तक 10 पोस्टों में किया गया ।उद्देश्य यह है कि स्वधर्म से विमुख हिंदुओं को कम से कम अपने धर्म की रूपरेखा का परिचय ही हो जाए। दैनिक आचरण में उतार लिया जाए ,तो सोने में सुगंध हो जाएगी।


 

तृतीय दृष्टिकोण - मानस के ज्ञानदीपक अनुसार


[1]

भूमिका

साधक को जीवन का परम लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का मार्ग स्पष्ट रहना चाहिए ।इस उद्देश्य पूर्ति के लिए पिछले 17 पोस्टों में ,ज्ञान -पथ की दो दृष्टिकोणों से मीमांसा की गई ।विषय अत्यंत सूक्ष्म है ,अतः इसे बार-बार दोहराने के लिए शास्त्र अनुशंसा करते हैं ।मानस का एक प्रकरण ज्ञान दीपक नाम से( 7.11 7से119तक) प्रसिद्ध है ।आगे की कुछ पोस्टों में उसके अनुसार बताए गए ज्ञानपथ की चर्चा होगी। भूमिका में,संत तुलसी हम सबको अपनी वर्तमान अध्यात्मिक  स्थिति का परिचय कराते हैं यथा :-

सुनहु तात यह अकथ कहानी ।
संमुझत बने न जाए बखानी ।।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।

सो माया बस भयो गोसाईं ।
बँध्यो कीर मरकट की नाईं।।

जड़ चेतनहिं ग्रंथ पर गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।

जब ते जीव भयंउ संसारी।
 छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ।।

श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई।
 छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।

जीव  ह्रदय तम मोह विशेषी।
 ग्रंथि छूट किमि परै न देखी ।।

अस संजोग ईस जब करई।
तबहूँ कदाचित सो निरुअरई।।



[2]
धर्म

ज्ञान दीपक के प्रकाश में साधना पथ् देखना है ।संत तुलसी के शब्दों में-उस सात सोपान वाली निश्रेणी(सीढ़ी)का पहला सोपान धर्म है :-

सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
जो हरि कृपा हृदय बस आई।।

जप तप व्रत जम नियम अपारा ।
जे श्रुति कह शुभ *धर्म आचारा*।।

तेइ तृन हरित चरय जब गाई।
भाव वच्छ शिशु पाइ पेन्हाई।।

नोइ निवृत्ती पात्र विश्वासा ।
निर्मल मन अहीर निज दासा ।।

परम धर्ममय पय दुहि भाई।
अवटै अनल अकाम बनाई ।।

तोष मरुत तब क्षमा जुड़ावै।
धृति सम जावनु देइ जमावै।।

भगवान की ओर अग्रसर होने के लिए" सात्विक श्रद्धा" का होना अनिवार्य है ।जिसे समझने के लिए श्री गीता जी के अध्याय 17 का अध्ययन करना होगा ।दीपक के अंगों से हम सब परिचित हैं ।उसी के रूपक से ज्ञान पथ् समझाया जा रहा है ।ज्ञान दीपक के लिए घी कैसे बनता है यह बताना है ।सात्विक धर्म आचरण से चित्त में भगवत प्रेम रूपी दूध उत्पन्न हो जाता है।जिसे वशीमन अहीर बनकर,भगवत साक्षात्कार रूपी विश्वासपात्र में दुह लेता है।निष्काम धर्म आचरण,धर्ममय दूध गर्म करने के लिए अग्नि का काम करता है।फिर शास्त्र बचनों के अनुसार परोक्ष ज्ञान का विचार (आवंटना) करें ।इस से चित्त में संतोष, क्षमा, बुद्धि की समता तथा धारणा शक्ति आदि दैवी गुण विकसित हो जाते हैं, जो वैराग्य के लिए भूमि (दही )है ।

[3]

वैराग्य


संत तुलसी के शब्दों में -

मुदिता मथै विचार मथानी।

दम आधार रजु सत्य सुबानी।।

तब मथि काढि लेइ नवनीता ।

विमल *विराग* शुभग सुपुनीता।।

धर्म-मय दूध से बने दही को, शास्त्र वचनों (सत्य सुबानी) के आधार पर अनुचिंतन( मंथन) करने से विमल वैराज्ञ (मक्खन) निकल आता है। नवनीत न तो पानी में घुलता है और ना ही डूबता है ।उसी तरह वैरागी अंतः करण का संसार से लेना -देना नहीं होता। इस प्रकार दीपक के लिए वैराग्य रूपी मक्खन बन गया,जिसे भी में बदलना है।वैराग्य के विषय में पीछे की पोस्टों में गहन विचार किया जा चुका है; उसे देखना कर्तव्य है।



[4]

सम्यक ज्ञान


मानस के शब्दों में तीसरी सीढी इस प्रकार है -

जोग अगिनि करि प्रगट तब , कर्म सुभाशुभ लाइ।

 बुद्धि शिरावै ज्ञान घृत, ममता मल जरि जाइ।।

तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि, विसद घृत पाइ।

चित्त् दिया भरि धरै दृढ, समता दिअटि बनाइ ।।

 तीन अवस्था तीन गुण , तेहि कपास ते काढि।

 तूल तुरीय सँवारि पुनि, बाती करे सुगाढि।

*एहि बिधि लेसै दीप*, तेज राशि विज्ञानमय।

 जातहिं जासु समीप, जरहिं मदादिक सलभ सब।।



वैराग्य रूपी मक्खन को योग(मनन )रूपी ताप से गर्म करने पर,ममता रूपी छांछ (मक्खन में मिली हुई) जल जाती है, और शुद्ध घी प्राप्त हो जाता है ।अब द्वन्द्ध रहित समबुद्धि सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर, गुंणातीत रूई की बाती बना कर,ज्ञानदीपक जला लेती है ।अर्थात शास्त्रज्ञान के प्रकाश में जड़ चेतन को अलग-अलग देखने लगती है ।परिणाम स्वरुप जड़ता के तादात्म्य से उत्पन्न मद,मम आदि दोष मिट जाते हैं।अब जीव मोक्ष के लिए योग्य हो जाता है।


[5]

मोक्ष

ज्ञान दीपक प्रकरण अनुसार,चौथा पायदान"मोक्ष "-यथा :-

सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा ।
दीपशिखा सोइ परम प्रचंडा।।
*आतम अनुभव सुख* सुप्रकासा ।
तब भव मूल भेद भ्रम नासा ।।

तीसरी सीढ़ी पर आरूढ़ साधक के चित्त में लगातार यह वृति बनी रहती है,कि मैं जड़ नहीं ईश्वर का अंश चेतन हूं ।उद्गम की अनुभूति की उत्कंठा (व्याकुलता )हर समय प्रचंड रूप लिए रहती है ।उसी की उपमा दीपक के लौ से दी गई है ।एक दिन साधक को इस चौथी सीढ़ी पर भी सफलता मिलती है और जीव( हम सब )अपने उद्गम आत्मा का साक्षात्कार -गीता 6.20 अनुसार कर लेता है। इस आनंद का शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। यहां चिदाभास को ही ज्ञानदीपक का प्रकाश कहा गया ।इस अवस्था में मोह-अंधकार (जड़ता से तादात्म्य) तो मिट जाता है, और जीव मुक्त हो जाता है, किंतु जन्म-जन्मांतर के संस्कारों के कारण परिच्छिनता बनी रहती है ।वह अगले सोपान में दूर होगी। 



[6]
ब्रह्मज्ञान

 मानस में ब्रह्म ज्ञान रूपी पाँचवें पायदान का वर्णन इस प्रकार है- 

प्रबल अविद्या कर परिवारा।
 मोह आदि तम मिटइ अपारा ।।

तब सोई बुद्धि पाई उजियारा ।

उर ग्रह बैठि ग्रंथि निरूआरा ।।

*छोरन ग्रंथि पाव जो सोई* ।

तब यह जीव कृतार्थ होई ।।

चौथे पायदान में जीव को अपरिछिन्न व्यापक आत्मा का आभास तो हो जाता है लेकिन मोह के परिवार काम, क्रोध तथा लोभ आदि के जन्म- जन्मांतर से अभ्यास के कारण उसकी अपनी परिछिन्नता नहीं समाप्त होती। यदि सद्ग्रंथ का आश्रय रहे और सतसंग मिलता रहे तो जड़ता से मुक्त हुये चेतन जीव को अपने उद्गम स्थान आत्मा का बोध हो जाता है ।ब्रह्म शब्द का अर्थ है निरतिशय ब्रहद्,दूसरे शब्दों में देश, काल तथा वस्तु से अपरिछिन्न चेतन आत्मा ।जीव क्या है? यह कुछ और न होकर लिंग शरीर से अवछिन्न शुद्ध "मैं "युक्त परिछिन्न आत्मा ही है ।सर्वव्यापक अपरिछिन्न आत्मा और परिछिन्न आत्मा के एकतत्व की स्थाई अनुभूति ही ब्रह्म ज्ञान है ।वही कैवल्य पद है ।इसकी कसौटी यह है की साधक गीता 6.29 के अनुसार आत्मा को सब भूतों मे और सब भूतों को अपनी आत्मा में देखने लगता है ।यह उपलब्धि जीवन की कृतार्थता है। 



[7]
विज्ञान

ब्रह्म बोध में विज्ञान विकसित होने पर,जीव ,जगत तथा ईश्वर का सर्वाधिष्ठान परंब्रम्ह (परम सत्य)के साथ निबंधनात्मक एकतत्व का साक्षात्कार हो जाता है। सफलता की कसौटी यह है की साधक को गीताजी के मंत्रों 7.19तथा9.4,5 का गूढ़ अर्थ स्पष्ट हो जाता है। विज्ञान तथा शरणागति के अभाव में माया- मोह (मानस 7.70. से71 तक )के कारण ब्रह्मज्ञान स्थिर नहीं रह पाता।तुलसी यहां निषेधात्मक विधि से विज्ञान का वर्णन कर रहे हैं। अर्थात यदि परंब्रह्म,ईश्वर ,जीव व जगत के एकत्व का बोध न हुआ तो :-

छोरत ग्रंथि जानि खगराया ।
बिघ्न अनेक करे तब *माया* ।।

रिद्धि-सिद्धि प्रेरे बहू भाई ।
बुद्धि हि लोभ दिखावहिआई।

कल बल छल कर जाहिसमीपा।
अंचल बात बुझावहि दीपा ।।

होई बुद्धि जो परम सयानी ।
तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ।।

जौ तेहि बिघ्न बुद्धि नहीं बाधी।
तौ बहोरि* सुर*करहिं उपाधी ।

विज्ञान के अभाव में,कैवल्य पद से माया द्वारा पतित होने की चर्चा पिछली पोस्ट से लगातार चल रही है ।उसके आगे संत तुलसी कहते हैं,कि विज्ञान के अभाव में पतन का दूसरा कारण पूर्वजन्म के विषय भोग जनित संस्कार भी होते हैं यथा -

इंद्री द्वार झरोखा नाना ।
तहँ तहँ सुर बैठे कर थाना ।।

आवत देखहिं विषय बयारी ।
ते हठि देही कपाट उघारी ।।

जब सो प्रभंजन उरग्रह जाई ।
तबहि दीप विज्ञान बुझाई ।।

ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकाशा ।
बुद्धि विकल भए विषय बताशा ।।

इंद्रिन्ह सुरन्ह न ज्ञान सोहाई ।
विषय भोग पर प्रीति सदाई।।

*विषय समीर बुद्धि कृत भोरी* ।
तेहि विधि दीप को बार बहोरी ।।

तब फिरि जीव विविधि विधि ,
पावई संसृति क्लेस।

हरि माया अति दुष्तर ,
तरि न जाइ विहंगेस।।

कहत कठिन समुझत कठिन ,
साधन कठिन विवेक ।

होई घुनाक्षर न्याय जौं,
पुनि प्रत्यूह अनेक ।।

ज्ञान पंथ कृपान के धारा ।
परत खगेश होई नहीं बारा।।

जौ निर्विघ्न पंथ निर्वहई।
सो *कवैल्य परमपद*लहई।।

अति दुर्लभ कवैल्य परमपद ।
संत पुराण निगमागम बद ।।

कुछ साधक कैवल्य पद को ही जीवन का परम लक्ष्य मान लेते हैं, और ब्रह्मानंद में मगन रहते हैं।जिन साधकों में प्रेमानंद की भूख होती है,वे परा भक्ति-जो हनुमान जी, नारद जी तथा गोपियों आदि को प्राप्त है,के लिए भी प्रयास करते हैं।



[8]
पराभक्ति

कैवल्य पद पर स्थित साधक को ब्रह्मानंद अथवा शांतानंद सुलभ रहता है ,किंतु उसे प्रेमानंद नहीं मिल पाता ।जो अनन्य भाव (गीता 11.54 व6.30 व15.19व18.66) के अनुसार अनन्य भाव से शरणागत हैं ,उनके ह्रदय में भक्ति-मणि सदा प्रकाशित होती रहती है और उन्हें भगवान का प्रेम प्राप्त होने लगता है।प्रेमी और प्रेमास्पद में प्रेम का ही आदान-प्रदान होता है ।यह भी स्मरण रहे कि ज्ञान-विज्ञान संपन्न भक्त ही भगवत्प्रेम का प्राकृत अधिकारी होता है। ज्ञान दीपक के सातवें पायदान का रहस्य,संत तुलसी के अनुसार, इस प्रकार है :--

राम भजत सोइ मुक्ति गोसाईं ।
अन इक्षित आवइ बरिआई।।

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
 कोटि भँति कोउ   करे उपाई।।
 

तथा मोक्ष सुख सुन खगराई।
 रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।

अस विचारि हरि भगत सयाने ।
*मुक्ति निरादर भगति लुभाने*।।

भगति करत बिनु जतन प्रयासा।
 संसृति मूल अविद्या नासा।।

भोजन करिअ तृप्ति हित लागी।
जिमि सो असन पचवै जठरागी।।

असि हरि भगति सुगम सुखदाई ।
को अस मूढ न जाहि सोहाई ।।

सेवक सेव्य भाव बिनु ,भव न तरिअ उरगारी। 

भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत विचारि।।



इस प्रकार ज्ञान योग में ,क्रमिक विकास की चर्चा तीन दृष्टिकोणों से 26 पोस्टों में पूरी हुई। सारी पोस्टों को Crome Apps के Spiritual Reality- अपना वह हिंदुत्व का परिचय By durgashanker में देखा जा सकता है।


*********हरि : ऊँ तत्सत्*********


















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