प्रथम दृष्टिकोण- मानस के सात कांडों की कथा पर आधारित
यहि मँह रुचिर सप्त सोपन
[1]
भूमिका
साधना के मार्ग का चुनाव :- प्रभु कृपा से हम सबको तीन प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं -क्रिया शक्ति, ज्ञान शक्ति तथा संकल्प शक्ति ।करने की शक्ति निस्वार्थ भाव से संसार की सेवा करने के लिए है जो कर्मयोग है। जानने की शक्ति,जगत को-अपने को - परमात्मा को जानने के लिए है, जो ज्ञानयोग है । इच्छा शक्ति या मानने की शक्ति से, भगवान को अपना तथा अपने को भगवान का मानकर,सर्वभावेन भगवान को समर्पित हो जाना है,जो भक्तियोग है ।यह तीनों ही योगमार्ग परमात्मा से जुड़े रहने के स्वतंत्र साधन है ,अन्य सभी साधन इन तीनों के अंतर्गत आ जाते हैं । अच्छा हो किसी न किसी एक मार्ग से हम परमात्मा की ओर बढ़ चलें। सिद्ध होने पर तीनोंयोग जीवन में एक साथ प्रकट रहते हैं। भक्तियोग दु:ख को मिटाने का श्रेष्ठ साधन है। अन्य साधन भी हैं, लेकिन उन में कठिनाई है ।धर्म का जीवन में होना अनिवार्य है, तो भी उधार का सौदा है। इस लोक में धर्माचरण, दान आदि करो तो आगे या परलोक में उसका फल मिलेगा। योग में परिश्रम बहुत है और अंत में केवल चित्त व्रत्तियों को ही लीन होना है ,स्वयं को स्वरुप में नहीं। ज्ञान में अभिमान आने का भय है। भक्ति में यह तीनों ही दोष नहीं है। अतः भक्ति आनंदमय जीवन के लिए सर्वोत्तम उपाय है। श्री गीता मंत्र 11.54 की यही ध्वनि है। भक्तिपथ पर चलने के लिए श्री रामचरित्र मानस से सहायता ली जा सकती है।यथा - यहि मँह रुचिर सप्त सोपाना ।रघुपति भगति केर पंथाना।।मानस 7.129.3।यह सात सोपान हैं - धर्माचरण➡️ वैराग्य ➡️नवधा भक्ति➡️संत की भगवान रूप में सेवा➡️ समष्टि की भगवत रूप में सेवा ➡️कथा का कथन-श्रवण और अनन्य शरणागति । (मानस, 3.16 श्री रामगीता)। भक्तिपथ के सातों सोपानों को मानस के सातों कांडों में कथा द्वारा पिरोया गया है।
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प्रथम सोपान धर्म और बालकांड
भक्ति के प्रथम सोपान में,धर्म के अंतर्गत ज्ञानयोग,भक्तियोग व कर्मयोग के संदर्भ से मानस(बाल कांड) में पहले निषेध-विधि पक्ष को उजागर किया गया है।निषेधात्मक पक्ष में क्रमशः सतीमोह, नारद-भ्रम व राजा भानुप्रताप की कथा है। आगे विधिआत्मक पक्ष में क्रमशः विश्वामित्र जी का समष्टि हित यज्ञ,दशरथजी का पुत्रेष्टि यज्ञ तथा जनक जी का धनुष यज्ञ है। धर्म,विधि-निषेधमय में होता है।धर्म भावना की रक्षा के लिए कर्तव्य कर्म, गीता 18.5,6 देखना चाहिए।
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दूसरा सोपान वैराग्य और अयोध्या कांड
भक्ति के दूसरे सोपान वैराग्य का वर्णन मानस के दूसरे अयोध्या कांड में है।राम जी ने पिता की आज्ञा पालन करने के लिए,अयोध्या जैसे समृद्ध राज्य को त्यागकर ,बन में तप करना स्वीकार किया। सीता जी,लक्ष्मण जी व भरत जी ने भी उनका अनुकरण कर,राज्य सुख से विरक्त हो,तपोमय जीवन बिताया।भरत जी का वैराग्य अद्भुत है। ऐसे वैरागी भक्तही भगवान की कृपा प्राप्त करते हैं। श्री गीता जी में ऐसे बैरागी भक्तों के लिए भगवान कहते हैं ,कि निरंतर मुझ में लगे हुए प्रेम पूर्वक भजन करने वालों को, मैं स्वयं ज्ञान देता हूं, जिससे वह मुझे प्राप्त कर लेते हैं ।यह ठीक है कि अपरोक्षानुभूति के बिना ,परा भक्ति की उपलब्धि नहीं होती ।किंतु यह भी सत्य है कि वह सब भगवान की कृपा से ही संभव होता है। वैरागी मन गीता 6.24-27 के अनुसार प्रभु कृपा से वश में होता है।
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तीसरा सोपान नवधा भक्ति (विवेक) और अरण्यकांड
भक्ति के तीसरे सोपान नवधा भक्ति का,अरण्यकांड में श्री राम जी ने शबरी माता को उपदेश दिया है।नौ में से किसी एक प्रकार की भक्ति का अभ्यास अनिवार्य है ।इसी कांड में श्री राम जी ने, लक्ष्मण जी को पूरे भक्ति पथ को संक्षेप में बताया है। श्री गीता 12.6-7 में ऐसी भक्ति करने वालों को प्रेमी भक्त कहा है:-
भक्ति के साधन कहऊँ बखानी।
सुगम पंथ मोहिं पावहिं प्रानी।।
मानस,३.१६.१
भक्ति पथ के सात सोपान:-
एहि मां रुचिर सप्त सोपाना ।
रघुपति भगति केर पंथाना ।।
मानस 7.129.3
- श्रुति प्रमाणित सामान्य-धर्म
- वैराग्य युक्त भगवदीय धर्म
- नवधा भक्ति, कथा-श्रवण
- संत कि भगवान-रूप में सेवा
- समष्टि कि भगवद-रूप से सेवा
- निष्काम भगवत-गुणगान
- अनन्य शरणागति,भजन।
भगवान द्वारा उपदेशित 9 विधाओं- सत्य का संग, कथा- श्रवण,गुरु सेवा, कीर्तन व जप, स्मरण, मन का संयम,संत को भगवान के रूप मानना, संतोष तथा शरणागति में से एक अपनाने पर भी, अवतार की लीलाओं में रुचि हो जाती है,जिससे जगत के द्वंदों का विवेक हो जाता है और देह की जड़-चेतन ग्रंथि भी दिखाई देने लगती है। इस सोपान में सरभंग ऋषि, जटायु तथा शबरी माता ने देह का त्याग कर ,भगवान की शरण ली है।
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चौथा सोपान मोक्ष और किष्किंधा कांड
भक्तिपथ के चौथे सोपान किष्किंधाकांड में, संत और सत्संग की महिमा है। भक्ति में, आराध्य की अपेक्षा,भक्त का अधिक आदर है।इस कांड में पहली बार,भक्त हनुमान जी व भगवान राम जी एक दूसरे के सामने आते है। ज्ञान (सुग्रीव)अथवा पुण्य( बालि )की सफलता तभी है,जब संत -भगवान की कृपा उन्हें मिले,अन्यथा नहीं।बालि की पराजय और सुग्रीव की राज्य प्राप्ति में ,क्रमशः संत-भगवंत की उपेक्षा व उनका संग हेतु है। बालि जैसे ही अपनी भूल सुधार कर शरणागत होता है,वह भी मुक्त हो जाता है।मानस 4.11.1। राम जी का ,हनुमान जी को दिया गया भक्ति का मंत्र, हम सब को स्मरण रखना चाहिए :-
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत।।
मानस,4.3
संत और सत्संग के प्रभाव से चेतन रूपी प्रतिबिंब-जीव अपने बिंब के रूप की अनुभूति कर जड़ता से तादात्म्य छोड़ आनंदित हो उठता है, यही मोक्ष है ।भक्तों को केवल मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार को गीता 18 .65 के अनुसार भगवान से जोड़े रखना है।
[6]
पांचवा सोपान ब्रह्मभाव और सुंदरकांड
भक्तिपथ के पांचवे सोपानमें माता, पिता तथा गुरु की इष्ट रूप में सेवा करनी होती है। मानस के पांचवें सुंदरकांड में,हनुमान जी द्वारा प्राणों की परवाह न करके आराध्य देव (गुरु भी )की सेवा के लिए- समुद्र लाँघा, राक्षसों का वध किया और लंका( विषय समूह) जलाई। फलस्वरूप सीताजी (सर्वव्यापक चिति शक्ति )की खोज पूरी हुई और उनके आशीर्वाद से राम जी की पराभक्ति प्राप्त हुई।संत हनुमान के सत्संग प्रभाव से, विभीषण जी को भगवान की शरण प्राप्त हुई। देह अभिमान व विषय आसक्ति से मुक्त जीव सीता जी के आशीर्वाद से सर्व अधिष्ठान ब्रह्म की अनुभूति कर, मानस 5.33. 1-2 आनंदित हो उठता है, भक्तों को केवल गीता 11.54 के अनुसार अनन्य भाव बनाए रखना है।
[7]
छटा सोपान विज्ञान और लंका कांड
भक्ति साधना के छठे सोपान लंकाकांड के अनुसार, प्रेम मगन हो भजन करना है,जिससे चित्त द्रवित हो जाए,और भगवान उसमें घुल-मिल जाएं।यह तभी संभव है,जब अंतःकरण की आसुरी वृत्तियों मोह,काम,क्रोध तथा लोभ आदि का लेस भी नष्ट हो जाएं। मानस का छठा सोपान - लंका कांड उसी प्रक्रिया को समझाने के लिए है ।भगवान स्वयं-रावण, मेघनाथ, कुंभकरण आदि को मारकर भक्त की सहायता करते हैं,तभी शरणागत जीव बिभीषण लंकानगरी(देह) पर राज्य कर पाता है। भक्ति योग माने -प्रेमानंद ।चित्त को स्वभाव से रस की भूख है ,जिसकी पूर्ति भगवत प्रीत से ही संभव है ,किसी अन्य उपाय से नहीं। प्रीति उसी को प्राप्त हो सकती है, जिसकी दृष्टि सदा ही प्रिय को रस प्रदान करने में रहती है। जैसे ब्रज गोपियां ।प्रिय से सुख प्राप्ति की आशा ,प्रेम रस प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है ।प्रेमी और प्रेमा- स्पद में जाति तथा स्वरूप की एकता है।अहम के मिटते ही,अनंत से अभिन्नता और सीमित प्यार के मिटते ही, असीम प्यार प्राप्त हो जाता है। समूल से आसुरी वृत्तियों भगवत कृपा से ही नष्ट होती हैं ,और तभी क्षरपुरुष ,अक्षरपुरुष तथा पुरुषोत्तम भगवान के एकत्व - विज्ञान से ब्रह्मभाव स्थिर हो जाता है ।गीता 15.18।
[8]
सातवाँ सोपान पराभक्ति और उत्तरकांड
भक्ति के सातवें अंतिम सोपान उत्तरकाण्ड के अनुसार,आंतरिक रामराज्य और पराभक्ति प्राप्त करना है। परमभक्त भरत जी ने 14 वर्ष तक जपयज्ञ द्वारा अयोध्या (भक्त हृदय) में राम-राज्य की भूमि तैयार की थी, तब राम राज्य हो सका। हम सब को भी जपयज्ञ प्रारंभ कर देना चाहिए। इसी कांड में काकभुशुण्डि जी की आत्मकथा है,जो पराभक्ति प्राप्त करने की संपूर्ण गाथा है।मानस रोग ही अंतकरण की अशुद्धि है,जिसके शोधन के लिए,इसी कांड में ज्ञानदीपक एवं भक्तिमंणि का वर्णन है। इस अवस्था को प्राप्त भक्त श्री गीता 15 .19 के अनुसार केवल भजन करता है। पूरे प्रकरण के लिखने का उद्देश संसार - चक्र व्यूह से निकलकर स्वरूप में स्थित हो , आनंदित होना है।
भक्तियोग-पथ में, मानस 3.16 के श्री रामगीता-प्रकरण के अनुसार
रघुपति भगति केर पंथाना
[1]
भूमिका
भक्ति पथ का प्रारंभ साधन भक्ति से होता है, और पथ की पूर्णता प्रेमा या पराभक्ति की उपलब्धि होने पर होती है। यात्रा का प्रारंभ और अंत कर्मपथ और ज्ञानपथ की तरह ही है ।प्रारंभ के दोनों सोपान धर्म और वैराग्य ही है, और अंतिम पराभक्ति का ही है ।बीच के सोपानों में कुछ अंतर है ,किंतु शरणागत भक्त को अन्य मार्गों की तरह उनकी अलग से साधना नहीं करनी पड़ती । साधन अनेक होते हैं ,पर उनमें विकास के विज्ञान की क्रमबद्धता देखी जाती है ।उसमें उलटफेर होने से सफलता में देर -सवेर हो सकती है ।साधना के क्रम से चलने पर सफलता सहज रुप से ही प्रकट हो जाती है ।ज्ञान मार्ग की तरह भक्ति मार्ग में भी लक्ष्य प्राप्त करने के सात ही सोपान बताए गए हैं यथा :-
एही मां रुचिर सप्त सोपाना ।
रघुपति भक्ति केर पंथाना ।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई।
पाउँ देइ एहि मार्ग सोई ।।
मानस 7 .129.3,4
जाते वेगि द्रवउँ मैं भाई।
सो मम भगति भगत सुखदाई।।
भगति के साधन कहूं बखानी।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं बिप्र चरण अति प्रीती ।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।। सो०-1
एहि कर फल पुनि *विषय विरागा।सो०-2
तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति* दृढाहीं।सो०-3
मम लीला रति अति मन माहीं।।
संत चरन पंकज अति प्रेमा।
मन क्रम बचनभजन* दृढ नेमा।।सो०-4
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहिं कहँ जानै* दृढ सेवा ।।सो०-5
मम गुण गावत पुलक सरीरा।सो०-6
गद् गद् गिरा नयन बह नीरा ।।
काम आदि मद दंभ न जाके ।
तात निरंतर बस मैं ताके।।
बचन कर्म मन मोरि गति,
भजनुकरहिं नि: काम।सो०-7
तिन्ह के ह्रदय कमल महँ ,
कर उँ सदा विश्राम।।
मानस 3.1 6
अत:, श्री राम जी द्वारा उपदेश किए गए भक्ति पंथ के सात सोपान हैं -शास्त्र अनुशासन में स्वधर्म पालन, वैराग्य, नवधा भक्ति, संतप्रेम व भजन, समष्टि कि भगवान रूप में सेवा,भगवद्-गुणगान,अनन्य शरणागत हो भजन।
[2]
धर्म
प्रथमहिं बिप्र चरण अति प्रीती ।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
बिप्र यहां आस्तिक विद्वान ब्राह्मण के अर्थ में आया है ।यदि प्रीति पूर्वक साधक उसका संग करेंगे, तो पुण्य मिलेगा और बिप्र उसको अपने कर्तव्य के बारे में सचेत रखेगा ।शास्त्र बिधि से स्वधर्म पालन करना ही भगवान की और अग्रसर होने का पहला चरण है ।धर्म की बात पहले कई पोस्टों ( मार्च 14 ,15) में की जा चुकी है ।फिर भी आज के भ्रष्ट सामाजिक परिवेश में ,उसके बारे में जितना कहा जाए ,कम है ।"स्वधर्मे निधनं श्रेय:" ( गीता 3,35 )का उपदेश देने वाले भारत के नागरिक, स्वधर्म को भूल चुके हैं ।वे अपने कर्तव्य की बात न कर ,केवल अपने अधिकार की बात करते हैं ।कोई विद्यार्थी है ,कोई गृहस्थ है, कोई मंत्री है ,कोई मुख्यमंत्री है ,आदि आदि। विद्यार्थी पढ़ना नहीं चाहता ,नकल करके परीक्षा पास करना चाहता है ।गृहस्थ,अपनी व्यहता पत्नी और बच्चों का लालन पालन नहीं कर पा रहा होता,लेकिन दूसरे की पत्नी और 72 नूरों के मोह में फंसा,अनगिनत बच्चे पैदा करना चाहता है। मंत्री आदि जातीय संकीर्णता ,धन लोलुपता तथा वोट बैंक के चक्कर में धर्मनिरपेक्ष हो रहे हैं ।ऐसे में शास्त्र सम्मत स्वधर्म पालन पर विचार करना कर्तव्य है ।
प्रथमहिं विप्र चरण अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
मानस कि यह चौपाई गीता के मंत्र 18. 45 का रूपांतर ही हैं ।अविद्या जनित वासनाओं की पूर्ति में लगा जीव,अपने उद्गम आत्मा की अनुभूति नहीं कर पाता ।यदि शास्त्र के अनुशासन में रहकर स्वधर्म पालन करे,तो वासनाओं का क्षय होता है और अध्यात्मिक विकास प्रारंभ हो जाता है ।स्वधर्म को सरल भाषा में संत तुलसी ने मानस 2.172- 17 3 में दर्शाया है । धर्म आचरण से जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के विज्ञान को जानना है। जीवन में धर्म आचरण न पालन करने का परिणाम स्पष्ट है ।पूर्व जन्म के कर्म फल स्वरुप ही वर्तमान की परिस्थितियां प्राप्त होती हैं ।प्रायः जीव उन्हें सच्चे हृदय से स्वीकार न कर,उनसे पलायन करता है,तथा दिनचर्या व विषय सेवन में,शास्त्र के अनुसासन को न मानकर,मनमानी आचरण करता है ।इस प्रकार धर्माचरण रूपी पहला चरण गलत दिशा में रख जाने के कारण, अध्यात्मिक विकास का सिलसिला थम जाता है। श्री गीता जी के मंत्रों 16. 23 ,24 में स्पष्ट कर दिया गया कि जो व्यक्ति शास्त्र बिधि का उल्लंघन कर मनमानी आचरण करता है,उसे न लौकिक सफलता मिलती है ,न मरने के बाद सदगति होती है,और ना ही परम गति अर्थात स्वरूप स्थिति हो पाती है ।अस्तु शास्त्र की मर्यादा में स्वधर्म का निश्चय कर उसके अनुसार जीवन जीना कर्तव्य है ।
स्वधर्म का प्रसंग चल रहा है।
प्रथमहिं विप्र चरण अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
निज कर्म क्या है?संत तुलसीदास मानस 2. 172-173 में,सूत्र रूप से बता रहे हैं:-
सोचिए विप्र जो वेद बिहीना।
तजि निज धर्म विषय लयलीना।।
सोचिए नृपति जो नीति न जाना।
जेहि न प्रजा प्रिय प्राण समाना।।
सोचिए वयसु कृपण धनवानू।
जो न अतिथि शिव भगति सुजानू।।
सोचिए सूद्र बिप्र अवमानी।
मुखर मान प्रिय ज्ञान गुमानी।।
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी।
कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी।।
सोचिअ बटु निज व्रत परिहरई।
जो नहीं गुरु आयसु अनुसरई।।
सोचिअ ग्रही जो मोहबस,
कर इ कर्म पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंच रत,
विगत विवेक विराग।।
बैखानस सोई सोचे जोगू।
तप बिहाइ जेही भावै भोगू।।
सोचिअ पिसुन अकारण क्रोधी।
जननी जनक गुरु बंधु विरोधी ।।
सब बिधि सोचिय पर अपकारी।
निज तन पोषक निर्दय भारी ।।
सोचनीय सबही विधि सोई ।
जो न छाड़ि छलु हरिजन होई।।
आत्म निरीक्षण कर हमें देखना है, कि क्या हम स्वधर्म पालन कर रहे हैं?
[3]
वैराग्य
धर्मपूर्वक जीवन जीने से नैसर्गिक रूप से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ।मानस के शब्दों में --
यहि कर फल पुनि विषय बिरागा ।
तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
सामान्यतया जीवो की सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति सुख बुद्धि होती है। यदि धर्मानुसार व्यवहार किया जाए,तो पता चल जाता है,कि यहां के ब्यहारों में कितना कपट व सुख की मृगतृष्णा है।यह देखकर, सुनकर तथा समझकर संसार से वैराग्य हो जाता है,और उसमें जो सुख बुद्धि है ,उसका त्याग हो जाता है । दर्शन और श्रवण आदि के द्वारा देह से लेकर ब्रम्हलोक पर्यंत ,संपूर्ण अनित्य निश्चय किए हुए पदार्थों में दोषबुद्धि का होना ही बैराग्य है।इसका परिणाम यह होता है कि स्वत: ही नित्यवस्तु( भगवान) के प्रति आकर्षण हो जाता है। कार्य-कारण श्रंखला चल रही है। इसके बाद भागवत धर्म अपनाने की नेसर्गिक इच्छा हो जाती है । भगवान का धर्म क्या है ?मानस में इसका वर्णन 7.86से87तक है । भागवत जी में भी, भागवत धर्म का वर्णन है- 11 .2.35 से55 तक।दोनों प्रकरणों का अध्ययन कर आत्म निरीक्षण करना कर्तव्य है,कि हम भागवत धर्म का पालन किस हद तक कर रहे हैं । वैराग्य की चर्चा चल रही है-
एहि कर फल पुनि विषय विरागा।
तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
मम धर्म क्या है ? यह भगवान राम ने स्वयं भक्त काकभशुण्डि को मानस 7.86-87 मेंबताया है यथा :-
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही ।
सुनु मन धरु सब तजिभजु मोही।।
मम माया संभव संसारा।
जीव चराचर विधि प्रकारा ।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए ।
सबसे अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्ह महुँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी
तिन्ह महुँ निगम धर्म अनुसारी ।।
तिन्ह मँह प्रिय विरक्त पुनिज्ञानी।
ज्ञानिहु ते अति प्रिय विज्ञानी।।
तिन्ह तेपुनि मोहि प्रिय निजदासा।
जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाही।
मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाही ।।
भगति हीन विरंची किन होई ।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ।।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रान प्रिय असि मम बानी।।
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई ।
सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोई।।
सत्य कहउँ खग तोही,सुचि सेवक मम प्राण प्रिय।
अस विचार भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।
ऊपर कहे गए भागवत धर्म के भाव,श्री गीताजी के मंत्रों 9.29. 30.31 तथा 18. 62. के भाव से मिलते-जुलते हैं ।
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नवधा भक्ति ( विवेक )
श्रवणादिक नव भक्ति दृढाहीं।
मम लीला रति अति मन माहीं।।
स्वधर्म पालन से,साधक की विषयों में आसक्ति समाप्त हो जाती है,और उसके आचरण में भगवान के प्रति स्वाभाविक लगाओ बढ़ता है। इसकी अभिव्यक्ति नौ प्रकार से होती है , जिसको नवधा भक्ति कहा जाता है ।साधक समाज में इसकी बहुत प्रतिष्ठा है ।आगे इस प्रकरण की स्वतंत्र रूप से मीमांसा की जाएगी ।यहां पर तो भक्ति साधना की श्रंखला में ,उसका एक साधन के रूप में परिचय देना है। नवधा भक्ति के लक्षणों को भगवान राम ने स्वयं भक्ति मती शबरी जी को मानस 3.35.7से3.36.6 तक उपदेश किया है। उसी नवधा भक्ति का कुछ भेद के साथ प्रहलाद जी भी श्रीमद्भागवत में दिग्दर्शन कराते हैं।साधन भक्ति में स्वामी को संतुष्ट करने की बात है ।वह जिस भाव से ,जिस आचरण से ,संतुष्ट हो उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना होता है। नवधा भक्ति की सुगमता एवम् सरलता यह है की नौ प्रकार की भक्ति में से ,कोई एक की भली प्रकार अनुष्ठान से भी ,भक्ति मार्ग की श्रंखला आगे बढ़ जाती है ।इसमें अष्टांग योग जैसी कठिनाई नहीं है। वहां तो साधक के आचरण में आठों अंगों के होने की अनिवार्यता है ।नहीं तो अंग-भंगी साधक, योग भ्रष्ट हो जाता है ।यहां तो भगवान की घोषणा है -"नौमहु एकहु जिनके होई" वह उनको प्रिय् है ।नव भक्तियां हैं -सत्संग, श्रवण ,पादसेवन, कीर्तन ,अर्चन, बंदन ,दास्य, संतोष व आश्रय या आत्म निवेदन। भक्ति मार्ग में थोड़ा बढ़ने पर,कृतिम साधना अपने आप प्रेम पूर्वक स्वाभाविक रूप में होने लगती है।इस समय संसार प्रपंच में अरुचि,और लीला श्रवण तथा लीला चिंतन में अत्यंत रति अर्थात लगन हो जाती है।जड़ता की आसक्ति दुख का हेतु है,और नित्य वस्तु चेतन ही आनंद में हेतु है -इसकी दृढ़ निष्ठा ही विवेक है।
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मोक्ष,अर्थात जड़ता त्याग पूर्वक भजन
राम जी के उपदेश में चौथा सोपान इस प्रकार है:-
संत चरण पंकज श्री राअति प्रेमा।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ।।
साधना के मध्य विंदु में पहुंचने पर साधक के लिए मायिक संसार से मुक्त होने का समय आ गया है।इसलिए संत के पाद की तुलना कमल से कर दी गई ।कमल कीचड़ व जल से उत्पन्न होता है और उसी का आश्रय लिए पलता रहता है, किंतु उनसे निर्लिप्त रहता है ।वैसे ही संत माया रूपी देह व जगत से निर्लिप्त( मुक्त) रहता है। कमल अपनी सुगंध और मकरंद बिखेरता रहता है ।वैसे ही संत कथा द्वारा तत्वज्ञान और भागवत प्रेम बिखेरता रहता है ।संत प्रकट भगवान है, अस्तु अब्यक्त आराध्य से अधिक उसका आदर करना कर्तव्य है, जिससे जड़ता का स्वाभाविक त्याग हो जाता है। तुलसी सावधान भी करते हैं ।संत से प्रेम करने का अर्थ यह नहीं है कि संत सबकुछ अपनी कृपा से कर देगा, ऐसा सोच बड़ा धोखा है ।अतः मन से, बाणी से और कर्म से स्वयं का भजन चलते रहना चाहिए ।मन से स्मरण चिंतन करें ,कर्म से स्वधर्म पालन करते हुए तीर्थाटन जाएं और अर्चना करें ,बाणी से जप कीर्तन करें। संत से प्रेम करने के साथ-साथ स्वयं का भजन विधिवत चलते रहना चाहिए। भक्तों को इस आचरण का फल यह होता है ,कि प्रभु कृपा से उसका देह से तादात्म्य हटता है और अपने चेतन स्वरूप का बोध हो जाता है । यही भाव श्री गीता मंत्र 6.20 का भी है ।अन्य मार्गों में इसे आत्म साक्षात्कार या मोक्ष कहते हैं ।
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ब्रह्मभाव अर्थात सांसारिक संबंध के स्थान पर आत्मीय संबंध का बोध
श्री राम जी के आदेशानुसार पांचवा सोपान यह है :-
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा ।।
गुरु -पितु -मातु की पूजा करने की आज्ञा स्वयं वेद देते हैं ।यहां उनके साथ तीन- बंधु ,पति और देवताओं को भी जोड़ा है ।इसी प्रकार संसार में और भी प्रेम पात्र होते हैं, उन्हें भी साथ में मिला समझना चाहिए ।भक्त अभी तक सांसारिक संबंध व ममता के नाते इन सब से प्रेम -व्यवहार कर रहा था ।भगवान की आज्ञा है,कि अब उनको हम में ही स्फुरित जानकर तथा हमारा ही रुप मान कर,उनकी सेवा करें ।वास्तव में जिस परिछिन्न आत्म चेतना का आभास पिछले सोपान में हुआ था, उसे यहां अब अपरिछिन्न आराध्य ब्रह्म के रूप में अनुभव करना है । अर्थात श्री गीता मंत्र 6.29 में कहे,बोध की अनुभूति करनी है। यहां गुरु, पिता तथा माता आदि के त्याग की बात नहीं है। मानस 5.48 में स्पष्ट कहा है -
जननी जनक बंधु सुत दारा ।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ।।
सबके ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बांध बरि डोरी ।।
इसका भावार्थ हुआ,कि लौकिक ममता संबंध की आसक्ति को भगवत प्रेम में बदल देना है ।हमें साधना से भगवान की कृपा द्वारा अपरिछिन्न आत्मा का अधिष्ठान रूप से बोध हो जाता है ।सभी साधन मार्गों में आंतरिक अध्यात्मिक विकास एक सा होता है। केवल वाहरी साधन स्वरुप में अंतर होता है ।इस उपलब्धि को दूसरे साधन मार्गों में ब्रह्मज्ञान कहा जाता है।
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विज्ञान युक्त बोध
भक्ति मार्ग की क्रमबद्ध श्रंखला का छठा सोपान इस प्रकार है:-
मम गुण गावत पुलक सरीरा ।
गदगद गिरा नयन वह नीरा ।।
काम आदि मद दंभ न जाके।
तात निरंतर बस मैं ताके।।
यदि पथ की यात्रा ,क्रमबद्ध ढंग से की गई है तो साधक कि भगवान में विज्ञान युक्त अविच्छिन्न मनोगति हो जाती है, अर्थात उसको क्षरपुरुष,अक्षर पुरुष व पुरुषोत्तम भगवान के निबंधनात्मक एकत्व का स्पष्ट बोध हो जाता है ।वह भगवान का बराबर गुणगान किया करता है,उन्हीं का ध्यान किया करता है ।भीतरी प्रेम के लक्षण बाहर भी पुलक- शरीर, गदगद- गिरा तथा नयन- नीर के रूप में प्रकट होते हैं। वास्तव में प्रेम के अतिरेक-प्रभाव से बिना यौगिक क्रियाओं के हीशरीर में कुंडलनी जागरण हो जाता है ।बढ़े हुए सत्व गुण के प्रभाव से चित्त् प्राण शक्ति से मिलता है और कुपित प्राण क्रमश: पांचों तत्वों -पृथवी, जल ,तेज,वायु व आकाश के 5 चक्रों में प्रवेश करके देहमें क्षोभ उत्पन्न करता है उस समय स्तंभ, अश्रु, स्वेद व विवरण , रोमांच ,कंप, स्वरभंग तथा 5 प्रलय( तंद्रा,मूर्छा) ये 8 सात्विक भाव देह के पांच चक्रों द्वारा उत्पन्न होते हैं । यहां 3: का ही वर्णन है -शरीर रोमांचित हो जाता है ,वाणी गद- गद हो जाती है और अश्रु प्रवाह चलने लगता है । इस सब से काम, मद,दंभ आदि सभी मानसिक विकार समाप्त हो जाते हैं ,और पूर्ण रूप से भूत शुद्धि और चित्त शुद्धि हो जाती है ।भगवान ऐसे भक्तों का पूर्ण रुप से स्वीकार कर लेते हैं अर्थात भक्तों को गीता के मंत्र 15.18 अनुसार,चर -अचर युक्त संपूर्ण भगवत स्वरुप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है ।अन्य मार्गों में इस स्थिति को विज्ञान युक्त ज्ञान कहा जाता है।
[8]
परा भक्ति
भक्ति पथ का परम लक्ष्य इस प्रकार :-
बचन कर्म मन मोरि गति,
भजन करहिं नि:काम।
तिनह के हृदय कमल महुँ,
करउँ सदा विश्राम ।।
वे भक्त अनन्य शरणागत है ,जो वाणी से, कर्म से और मन से,एक श्री भगवान के सिवा दूसरे किसी की भी आसा नहीं रखते ।ऐसे में जीवन भगवान मय हो जाता है ,व भगवान के लिए ही होता है। शरीर, मन, वाणी एक यंत्र के समान हो जाते हैं,जो प्रभु के लिए ही होते हैं और वह भी निष्काम भाव से ।लोक ,परलोक और मोक्ष की कामना नहीं होती ।जहां, गीता 15. 19 के अनुसार, भजन छोड़कर न कुछ बोलना अच्छा लगता है न करना और न सोचना ।ऐसे भक्त के हृदय कमल में प्रभु विश्राम करते हैं, अर्थात हमेशा प्रकट रहते हैं, भाव साधना इष्ट की कृपा से ही प्रेमपूर्ण भजन में रूपांतरित होती है ।इस भजन के फलस्वरूप भक्त और इष्ट दोनों द्रवित होते हैं ।दो सोने के अलंकारों के द्रवित होने पर ,एक रसमय तरल हो जाता है ,वैसे ही प्रेमा भक्ति से भक्त और इष्ट द्रवीभूत होकर रसमय स्थिति प्राप्त करते हैं ।यह अद्भुत है कि इस समस्त विकास में व्यक्ति का व्यक्तित्वहीन आस्तित्व बना रहता है ।जैसे नीर- क्षीर मिश्रण एक रस होते हुए भी,उसमें दोनों अवयव अलग-अलग रहते हैं और हंस उन्हें अलग कर सकता है ।भक्त और भगवान का ऐसा संबंध अनिर्वचनीय है।इसे बचन देने के प्रयास में विचारों की स्पष्टता के स्थान में,भ्रम पैदा होता है। अस्तु प्रकरण को विराम दिया जाता है ।
***********हरि :ऊँ तत्सत***********
प्रथमहिं बिप्र चरण अति प्रीती ।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
बिप्र यहां आस्तिक विद्वान ब्राह्मण के अर्थ में आया है ।यदि प्रीति पूर्वक साधक उसका संग करेंगे, तो पुण्य मिलेगा और बिप्र उसको अपने कर्तव्य के बारे में सचेत रखेगा ।शास्त्र बिधि से स्वधर्म पालन करना ही भगवान की और अग्रसर होने का पहला चरण है ।धर्म की बात पहले कई पोस्टों ( मार्च 14 ,15) में की जा चुकी है ।फिर भी आज के भ्रष्ट सामाजिक परिवेश में ,उसके बारे में जितना कहा जाए ,कम है ।"स्वधर्मे निधनं श्रेय:" ( गीता 3,35 )का उपदेश देने वाले भारत के नागरिक, स्वधर्म को भूल चुके हैं ।वे अपने कर्तव्य की बात न कर ,केवल अपने अधिकार की बात करते हैं ।कोई विद्यार्थी है ,कोई गृहस्थ है, कोई मंत्री है ,कोई मुख्यमंत्री है ,आदि आदि। विद्यार्थी पढ़ना नहीं चाहता ,नकल करके परीक्षा पास करना चाहता है ।गृहस्थ,अपनी व्यहता पत्नी और बच्चों का लालन पालन नहीं कर पा रहा होता,लेकिन दूसरे की पत्नी और 72 नूरों के मोह में फंसा,अनगिनत बच्चे पैदा करना चाहता है। मंत्री आदि जातीय संकीर्णता ,धन लोलुपता तथा वोट बैंक के चक्कर में धर्मनिरपेक्ष हो रहे हैं ।ऐसे में शास्त्र सम्मत स्वधर्म पालन पर विचार करना कर्तव्य है ।
प्रथमहिं विप्र चरण अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
मानस कि यह चौपाई गीता के मंत्र 18. 45 का रूपांतर ही हैं ।अविद्या जनित वासनाओं की पूर्ति में लगा जीव,अपने उद्गम आत्मा की अनुभूति नहीं कर पाता ।यदि शास्त्र के अनुशासन में रहकर स्वधर्म पालन करे,तो वासनाओं का क्षय होता है और अध्यात्मिक विकास प्रारंभ हो जाता है ।स्वधर्म को सरल भाषा में संत तुलसी ने मानस 2.172- 17 3 में दर्शाया है । धर्म आचरण से जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के विज्ञान को जानना है। जीवन में धर्म आचरण न पालन करने का परिणाम स्पष्ट है ।पूर्व जन्म के कर्म फल स्वरुप ही वर्तमान की परिस्थितियां प्राप्त होती हैं ।प्रायः जीव उन्हें सच्चे हृदय से स्वीकार न कर,उनसे पलायन करता है,तथा दिनचर्या व विषय सेवन में,शास्त्र के अनुसासन को न मानकर,मनमानी आचरण करता है ।इस प्रकार धर्माचरण रूपी पहला चरण गलत दिशा में रख जाने के कारण, अध्यात्मिक विकास का सिलसिला थम जाता है। श्री गीता जी के मंत्रों 16. 23 ,24 में स्पष्ट कर दिया गया कि जो व्यक्ति शास्त्र बिधि का उल्लंघन कर मनमानी आचरण करता है,उसे न लौकिक सफलता मिलती है ,न मरने के बाद सदगति होती है,और ना ही परम गति अर्थात स्वरूप स्थिति हो पाती है ।अस्तु शास्त्र की मर्यादा में स्वधर्म का निश्चय कर उसके अनुसार जीवन जीना कर्तव्य है ।
स्वधर्म का प्रसंग चल रहा है।
प्रथमहिं विप्र चरण अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
निज कर्म क्या है?संत तुलसीदास मानस 2. 172-173 में,सूत्र रूप से बता रहे हैं:-
सोचिए विप्र जो वेद बिहीना।
तजि निज धर्म विषय लयलीना।।
सोचिए नृपति जो नीति न जाना।
जेहि न प्रजा प्रिय प्राण समाना।।
सोचिए वयसु कृपण धनवानू।
जो न अतिथि शिव भगति सुजानू।।
सोचिए सूद्र बिप्र अवमानी।
मुखर मान प्रिय ज्ञान गुमानी।।
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी।
कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी।।
सोचिअ बटु निज व्रत परिहरई।
जो नहीं गुरु आयसु अनुसरई।।
सोचिअ ग्रही जो मोहबस,
कर इ कर्म पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंच रत,
विगत विवेक विराग।।
बैखानस सोई सोचे जोगू।
तप बिहाइ जेही भावै भोगू।।
सोचिअ पिसुन अकारण क्रोधी।
जननी जनक गुरु बंधु विरोधी ।।
सब बिधि सोचिय पर अपकारी।
निज तन पोषक निर्दय भारी ।।
सोचनीय सबही विधि सोई ।
जो न छाड़ि छलु हरिजन होई।।
आत्म निरीक्षण कर हमें देखना है, कि क्या हम स्वधर्म पालन कर रहे हैं?
[3]
वैराग्य
धर्मपूर्वक जीवन जीने से नैसर्गिक रूप से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ।मानस के शब्दों में --
यहि कर फल पुनि विषय बिरागा ।
तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
सामान्यतया जीवो की सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति सुख बुद्धि होती है। यदि धर्मानुसार व्यवहार किया जाए,तो पता चल जाता है,कि यहां के ब्यहारों में कितना कपट व सुख की मृगतृष्णा है।यह देखकर, सुनकर तथा समझकर संसार से वैराग्य हो जाता है,और उसमें जो सुख बुद्धि है ,उसका त्याग हो जाता है । दर्शन और श्रवण आदि के द्वारा देह से लेकर ब्रम्हलोक पर्यंत ,संपूर्ण अनित्य निश्चय किए हुए पदार्थों में दोषबुद्धि का होना ही बैराग्य है।इसका परिणाम यह होता है कि स्वत: ही नित्यवस्तु( भगवान) के प्रति आकर्षण हो जाता है। कार्य-कारण श्रंखला चल रही है। इसके बाद भागवत धर्म अपनाने की नेसर्गिक इच्छा हो जाती है । भगवान का धर्म क्या है ?मानस में इसका वर्णन 7.86से87तक है । भागवत जी में भी, भागवत धर्म का वर्णन है- 11 .2.35 से55 तक।दोनों प्रकरणों का अध्ययन कर आत्म निरीक्षण करना कर्तव्य है,कि हम भागवत धर्म का पालन किस हद तक कर रहे हैं । वैराग्य की चर्चा चल रही है-
एहि कर फल पुनि विषय विरागा।
तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
मम धर्म क्या है ? यह भगवान राम ने स्वयं भक्त काकभशुण्डि को मानस 7.86-87 मेंबताया है यथा :-
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही ।
सुनु मन धरु सब तजिभजु मोही।।
मम माया संभव संसारा।
जीव चराचर विधि प्रकारा ।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए ।
सबसे अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्ह महुँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी
तिन्ह महुँ निगम धर्म अनुसारी ।।
तिन्ह मँह प्रिय विरक्त पुनिज्ञानी।
ज्ञानिहु ते अति प्रिय विज्ञानी।।
तिन्ह तेपुनि मोहि प्रिय निजदासा।
जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाही।
मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाही ।।
भगति हीन विरंची किन होई ।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ।।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रान प्रिय असि मम बानी।।
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई ।
सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोई।।
सत्य कहउँ खग तोही,सुचि सेवक मम प्राण प्रिय।
अस विचार भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।
ऊपर कहे गए भागवत धर्म के भाव,श्री गीताजी के मंत्रों 9.29. 30.31 तथा 18. 62. के भाव से मिलते-जुलते हैं ।
[4]
नवधा भक्ति ( विवेक )
श्रवणादिक नव भक्ति दृढाहीं।
मम लीला रति अति मन माहीं।।
स्वधर्म पालन से,साधक की विषयों में आसक्ति समाप्त हो जाती है,और उसके आचरण में भगवान के प्रति स्वाभाविक लगाओ बढ़ता है। इसकी अभिव्यक्ति नौ प्रकार से होती है , जिसको नवधा भक्ति कहा जाता है ।साधक समाज में इसकी बहुत प्रतिष्ठा है ।आगे इस प्रकरण की स्वतंत्र रूप से मीमांसा की जाएगी ।यहां पर तो भक्ति साधना की श्रंखला में ,उसका एक साधन के रूप में परिचय देना है। नवधा भक्ति के लक्षणों को भगवान राम ने स्वयं भक्ति मती शबरी जी को मानस 3.35.7से3.36.6 तक उपदेश किया है। उसी नवधा भक्ति का कुछ भेद के साथ प्रहलाद जी भी श्रीमद्भागवत में दिग्दर्शन कराते हैं।साधन भक्ति में स्वामी को संतुष्ट करने की बात है ।वह जिस भाव से ,जिस आचरण से ,संतुष्ट हो उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना होता है। नवधा भक्ति की सुगमता एवम् सरलता यह है की नौ प्रकार की भक्ति में से ,कोई एक की भली प्रकार अनुष्ठान से भी ,भक्ति मार्ग की श्रंखला आगे बढ़ जाती है ।इसमें अष्टांग योग जैसी कठिनाई नहीं है। वहां तो साधक के आचरण में आठों अंगों के होने की अनिवार्यता है ।नहीं तो अंग-भंगी साधक, योग भ्रष्ट हो जाता है ।यहां तो भगवान की घोषणा है -"नौमहु एकहु जिनके होई" वह उनको प्रिय् है ।नव भक्तियां हैं -सत्संग, श्रवण ,पादसेवन, कीर्तन ,अर्चन, बंदन ,दास्य, संतोष व आश्रय या आत्म निवेदन। भक्ति मार्ग में थोड़ा बढ़ने पर,कृतिम साधना अपने आप प्रेम पूर्वक स्वाभाविक रूप में होने लगती है।इस समय संसार प्रपंच में अरुचि,और लीला श्रवण तथा लीला चिंतन में अत्यंत रति अर्थात लगन हो जाती है।जड़ता की आसक्ति दुख का हेतु है,और नित्य वस्तु चेतन ही आनंद में हेतु है -इसकी दृढ़ निष्ठा ही विवेक है।
[5]
मोक्ष,अर्थात जड़ता त्याग पूर्वक भजन
श्रवणादिक नव भक्ति दृढाहीं।
मम लीला रति अति मन माहीं।।
स्वधर्म पालन से,साधक की विषयों में आसक्ति समाप्त हो जाती है,और उसके आचरण में भगवान के प्रति स्वाभाविक लगाओ बढ़ता है। इसकी अभिव्यक्ति नौ प्रकार से होती है , जिसको नवधा भक्ति कहा जाता है ।साधक समाज में इसकी बहुत प्रतिष्ठा है ।आगे इस प्रकरण की स्वतंत्र रूप से मीमांसा की जाएगी ।यहां पर तो भक्ति साधना की श्रंखला में ,उसका एक साधन के रूप में परिचय देना है। नवधा भक्ति के लक्षणों को भगवान राम ने स्वयं भक्ति मती शबरी जी को मानस 3.35.7से3.36.6 तक उपदेश किया है। उसी नवधा भक्ति का कुछ भेद के साथ प्रहलाद जी भी श्रीमद्भागवत में दिग्दर्शन कराते हैं।साधन भक्ति में स्वामी को संतुष्ट करने की बात है ।वह जिस भाव से ,जिस आचरण से ,संतुष्ट हो उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना होता है। नवधा भक्ति की सुगमता एवम् सरलता यह है की नौ प्रकार की भक्ति में से ,कोई एक की भली प्रकार अनुष्ठान से भी ,भक्ति मार्ग की श्रंखला आगे बढ़ जाती है ।इसमें अष्टांग योग जैसी कठिनाई नहीं है। वहां तो साधक के आचरण में आठों अंगों के होने की अनिवार्यता है ।नहीं तो अंग-भंगी साधक, योग भ्रष्ट हो जाता है ।यहां तो भगवान की घोषणा है -"नौमहु एकहु जिनके होई" वह उनको प्रिय् है ।नव भक्तियां हैं -सत्संग, श्रवण ,पादसेवन, कीर्तन ,अर्चन, बंदन ,दास्य, संतोष व आश्रय या आत्म निवेदन। भक्ति मार्ग में थोड़ा बढ़ने पर,कृतिम साधना अपने आप प्रेम पूर्वक स्वाभाविक रूप में होने लगती है।इस समय संसार प्रपंच में अरुचि,और लीला श्रवण तथा लीला चिंतन में अत्यंत रति अर्थात लगन हो जाती है।जड़ता की आसक्ति दुख का हेतु है,और नित्य वस्तु चेतन ही आनंद में हेतु है -इसकी दृढ़ निष्ठा ही विवेक है।
[5]
मोक्ष,अर्थात जड़ता त्याग पूर्वक भजन
राम जी के उपदेश में चौथा सोपान इस प्रकार है:-
संत चरण पंकज श्री राअति प्रेमा।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ।।
साधना के मध्य विंदु में पहुंचने पर साधक के लिए मायिक संसार से मुक्त होने का समय आ गया है।इसलिए संत के पाद की तुलना कमल से कर दी गई ।कमल कीचड़ व जल से उत्पन्न होता है और उसी का आश्रय लिए पलता रहता है, किंतु उनसे निर्लिप्त रहता है ।वैसे ही संत माया रूपी देह व जगत से निर्लिप्त( मुक्त) रहता है। कमल अपनी सुगंध और मकरंद बिखेरता रहता है ।वैसे ही संत कथा द्वारा तत्वज्ञान और भागवत प्रेम बिखेरता रहता है ।संत प्रकट भगवान है, अस्तु अब्यक्त आराध्य से अधिक उसका आदर करना कर्तव्य है, जिससे जड़ता का स्वाभाविक त्याग हो जाता है। तुलसी सावधान भी करते हैं ।संत से प्रेम करने का अर्थ यह नहीं है कि संत सबकुछ अपनी कृपा से कर देगा, ऐसा सोच बड़ा धोखा है ।अतः मन से, बाणी से और कर्म से स्वयं का भजन चलते रहना चाहिए ।मन से स्मरण चिंतन करें ,कर्म से स्वधर्म पालन करते हुए तीर्थाटन जाएं और अर्चना करें ,बाणी से जप कीर्तन करें। संत से प्रेम करने के साथ-साथ स्वयं का भजन विधिवत चलते रहना चाहिए। भक्तों को इस आचरण का फल यह होता है ,कि प्रभु कृपा से उसका देह से तादात्म्य हटता है और अपने चेतन स्वरूप का बोध हो जाता है । यही भाव श्री गीता मंत्र 6.20 का भी है ।अन्य मार्गों में इसे आत्म साक्षात्कार या मोक्ष कहते हैं ।
[6]
ब्रह्मभाव अर्थात सांसारिक संबंध के स्थान पर आत्मीय संबंध का बोध
श्री राम जी के आदेशानुसार पांचवा सोपान यह है :-
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा ।।
गुरु -पितु -मातु की पूजा करने की आज्ञा स्वयं वेद देते हैं ।यहां उनके साथ तीन- बंधु ,पति और देवताओं को भी जोड़ा है ।इसी प्रकार संसार में और भी प्रेम पात्र होते हैं, उन्हें भी साथ में मिला समझना चाहिए ।भक्त अभी तक सांसारिक संबंध व ममता के नाते इन सब से प्रेम -व्यवहार कर रहा था ।भगवान की आज्ञा है,कि अब उनको हम में ही स्फुरित जानकर तथा हमारा ही रुप मान कर,उनकी सेवा करें ।वास्तव में जिस परिछिन्न आत्म चेतना का आभास पिछले सोपान में हुआ था, उसे यहां अब अपरिछिन्न आराध्य ब्रह्म के रूप में अनुभव करना है । अर्थात श्री गीता मंत्र 6.29 में कहे,बोध की अनुभूति करनी है। यहां गुरु, पिता तथा माता आदि के त्याग की बात नहीं है। मानस 5.48 में स्पष्ट कहा है -
जननी जनक बंधु सुत दारा ।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ।।
सबके ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बांध बरि डोरी ।।
इसका भावार्थ हुआ,कि लौकिक ममता संबंध की आसक्ति को भगवत प्रेम में बदल देना है ।हमें साधना से भगवान की कृपा द्वारा अपरिछिन्न आत्मा का अधिष्ठान रूप से बोध हो जाता है ।सभी साधन मार्गों में आंतरिक अध्यात्मिक विकास एक सा होता है। केवल वाहरी साधन स्वरुप में अंतर होता है ।इस उपलब्धि को दूसरे साधन मार्गों में ब्रह्मज्ञान कहा जाता है।
श्री राम जी के आदेशानुसार पांचवा सोपान यह है :-
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा ।।
गुरु -पितु -मातु की पूजा करने की आज्ञा स्वयं वेद देते हैं ।यहां उनके साथ तीन- बंधु ,पति और देवताओं को भी जोड़ा है ।इसी प्रकार संसार में और भी प्रेम पात्र होते हैं, उन्हें भी साथ में मिला समझना चाहिए ।भक्त अभी तक सांसारिक संबंध व ममता के नाते इन सब से प्रेम -व्यवहार कर रहा था ।भगवान की आज्ञा है,कि अब उनको हम में ही स्फुरित जानकर तथा हमारा ही रुप मान कर,उनकी सेवा करें ।वास्तव में जिस परिछिन्न आत्म चेतना का आभास पिछले सोपान में हुआ था, उसे यहां अब अपरिछिन्न आराध्य ब्रह्म के रूप में अनुभव करना है । अर्थात श्री गीता मंत्र 6.29 में कहे,बोध की अनुभूति करनी है। यहां गुरु, पिता तथा माता आदि के त्याग की बात नहीं है। मानस 5.48 में स्पष्ट कहा है -
जननी जनक बंधु सुत दारा ।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ।।
सबके ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बांध बरि डोरी ।।
इसका भावार्थ हुआ,कि लौकिक ममता संबंध की आसक्ति को भगवत प्रेम में बदल देना है ।हमें साधना से भगवान की कृपा द्वारा अपरिछिन्न आत्मा का अधिष्ठान रूप से बोध हो जाता है ।सभी साधन मार्गों में आंतरिक अध्यात्मिक विकास एक सा होता है। केवल वाहरी साधन स्वरुप में अंतर होता है ।इस उपलब्धि को दूसरे साधन मार्गों में ब्रह्मज्ञान कहा जाता है।
[7]
विज्ञान युक्त बोध
भक्ति मार्ग की क्रमबद्ध श्रंखला का छठा सोपान इस प्रकार है:-
मम गुण गावत पुलक सरीरा ।
गदगद गिरा नयन वह नीरा ।।
काम आदि मद दंभ न जाके।
तात निरंतर बस मैं ताके।।
यदि पथ की यात्रा ,क्रमबद्ध ढंग से की गई है तो साधक कि भगवान में विज्ञान युक्त अविच्छिन्न मनोगति हो जाती है, अर्थात उसको क्षरपुरुष,अक्षर पुरुष व पुरुषोत्तम भगवान के निबंधनात्मक एकत्व का स्पष्ट बोध हो जाता है ।वह भगवान का बराबर गुणगान किया करता है,उन्हीं का ध्यान किया करता है ।भीतरी प्रेम के लक्षण बाहर भी पुलक- शरीर, गदगद- गिरा तथा नयन- नीर के रूप में प्रकट होते हैं। वास्तव में प्रेम के अतिरेक-प्रभाव से बिना यौगिक क्रियाओं के हीशरीर में कुंडलनी जागरण हो जाता है ।बढ़े हुए सत्व गुण के प्रभाव से चित्त् प्राण शक्ति से मिलता है और कुपित प्राण क्रमश: पांचों तत्वों -पृथवी, जल ,तेज,वायु व आकाश के 5 चक्रों में प्रवेश करके देहमें क्षोभ उत्पन्न करता है उस समय स्तंभ, अश्रु, स्वेद व विवरण , रोमांच ,कंप, स्वरभंग तथा 5 प्रलय( तंद्रा,मूर्छा) ये 8 सात्विक भाव देह के पांच चक्रों द्वारा उत्पन्न होते हैं । यहां 3: का ही वर्णन है -शरीर रोमांचित हो जाता है ,वाणी गद- गद हो जाती है और अश्रु प्रवाह चलने लगता है । इस सब से काम, मद,दंभ आदि सभी मानसिक विकार समाप्त हो जाते हैं ,और पूर्ण रूप से भूत शुद्धि और चित्त शुद्धि हो जाती है ।भगवान ऐसे भक्तों का पूर्ण रुप से स्वीकार कर लेते हैं अर्थात भक्तों को गीता के मंत्र 15.18 अनुसार,चर -अचर युक्त संपूर्ण भगवत स्वरुप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है ।अन्य मार्गों में इस स्थिति को विज्ञान युक्त ज्ञान कहा जाता है।
[8]
परा भक्ति
भक्ति पथ का परम लक्ष्य इस प्रकार :-
बचन कर्म मन मोरि गति,
भजन करहिं नि:काम।
तिनह के हृदय कमल महुँ,
करउँ सदा विश्राम ।।
वे भक्त अनन्य शरणागत है ,जो वाणी से, कर्म से और मन से,एक श्री भगवान के सिवा दूसरे किसी की भी आसा नहीं रखते ।ऐसे में जीवन भगवान मय हो जाता है ,व भगवान के लिए ही होता है। शरीर, मन, वाणी एक यंत्र के समान हो जाते हैं,जो प्रभु के लिए ही होते हैं और वह भी निष्काम भाव से ।लोक ,परलोक और मोक्ष की कामना नहीं होती ।जहां, गीता 15. 19 के अनुसार, भजन छोड़कर न कुछ बोलना अच्छा लगता है न करना और न सोचना ।ऐसे भक्त के हृदय कमल में प्रभु विश्राम करते हैं, अर्थात हमेशा प्रकट रहते हैं, भाव साधना इष्ट की कृपा से ही प्रेमपूर्ण भजन में रूपांतरित होती है ।इस भजन के फलस्वरूप भक्त और इष्ट दोनों द्रवित होते हैं ।दो सोने के अलंकारों के द्रवित होने पर ,एक रसमय तरल हो जाता है ,वैसे ही प्रेमा भक्ति से भक्त और इष्ट द्रवीभूत होकर रसमय स्थिति प्राप्त करते हैं ।यह अद्भुत है कि इस समस्त विकास में व्यक्ति का व्यक्तित्वहीन आस्तित्व बना रहता है ।जैसे नीर- क्षीर मिश्रण एक रस होते हुए भी,उसमें दोनों अवयव अलग-अलग रहते हैं और हंस उन्हें अलग कर सकता है ।भक्त और भगवान का ऐसा संबंध अनिर्वचनीय है।इसे बचन देने के प्रयास में विचारों की स्पष्टता के स्थान में,भ्रम पैदा होता है। अस्तु प्रकरण को विराम दिया जाता है ।
***********हरि :ऊँ तत्सत***********
भक्ति मार्ग की क्रमबद्ध श्रंखला का छठा सोपान इस प्रकार है:-
मम गुण गावत पुलक सरीरा ।
गदगद गिरा नयन वह नीरा ।।
काम आदि मद दंभ न जाके।
तात निरंतर बस मैं ताके।।
यदि पथ की यात्रा ,क्रमबद्ध ढंग से की गई है तो साधक कि भगवान में विज्ञान युक्त अविच्छिन्न मनोगति हो जाती है, अर्थात उसको क्षरपुरुष,अक्षर पुरुष व पुरुषोत्तम भगवान के निबंधनात्मक एकत्व का स्पष्ट बोध हो जाता है ।वह भगवान का बराबर गुणगान किया करता है,उन्हीं का ध्यान किया करता है ।भीतरी प्रेम के लक्षण बाहर भी पुलक- शरीर, गदगद- गिरा तथा नयन- नीर के रूप में प्रकट होते हैं। वास्तव में प्रेम के अतिरेक-प्रभाव से बिना यौगिक क्रियाओं के हीशरीर में कुंडलनी जागरण हो जाता है ।बढ़े हुए सत्व गुण के प्रभाव से चित्त् प्राण शक्ति से मिलता है और कुपित प्राण क्रमश: पांचों तत्वों -पृथवी, जल ,तेज,वायु व आकाश के 5 चक्रों में प्रवेश करके देहमें क्षोभ उत्पन्न करता है उस समय स्तंभ, अश्रु, स्वेद व विवरण , रोमांच ,कंप, स्वरभंग तथा 5 प्रलय( तंद्रा,मूर्छा) ये 8 सात्विक भाव देह के पांच चक्रों द्वारा उत्पन्न होते हैं । यहां 3: का ही वर्णन है -शरीर रोमांचित हो जाता है ,वाणी गद- गद हो जाती है और अश्रु प्रवाह चलने लगता है । इस सब से काम, मद,दंभ आदि सभी मानसिक विकार समाप्त हो जाते हैं ,और पूर्ण रूप से भूत शुद्धि और चित्त शुद्धि हो जाती है ।भगवान ऐसे भक्तों का पूर्ण रुप से स्वीकार कर लेते हैं अर्थात भक्तों को गीता के मंत्र 15.18 अनुसार,चर -अचर युक्त संपूर्ण भगवत स्वरुप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है ।अन्य मार्गों में इस स्थिति को विज्ञान युक्त ज्ञान कहा जाता है।
[8]
परा भक्ति
भक्ति पथ का परम लक्ष्य इस प्रकार :-
बचन कर्म मन मोरि गति,
भजन करहिं नि:काम।
तिनह के हृदय कमल महुँ,
करउँ सदा विश्राम ।।
वे भक्त अनन्य शरणागत है ,जो वाणी से, कर्म से और मन से,एक श्री भगवान के सिवा दूसरे किसी की भी आसा नहीं रखते ।ऐसे में जीवन भगवान मय हो जाता है ,व भगवान के लिए ही होता है। शरीर, मन, वाणी एक यंत्र के समान हो जाते हैं,जो प्रभु के लिए ही होते हैं और वह भी निष्काम भाव से ।लोक ,परलोक और मोक्ष की कामना नहीं होती ।जहां, गीता 15. 19 के अनुसार, भजन छोड़कर न कुछ बोलना अच्छा लगता है न करना और न सोचना ।ऐसे भक्त के हृदय कमल में प्रभु विश्राम करते हैं, अर्थात हमेशा प्रकट रहते हैं, भाव साधना इष्ट की कृपा से ही प्रेमपूर्ण भजन में रूपांतरित होती है ।इस भजन के फलस्वरूप भक्त और इष्ट दोनों द्रवित होते हैं ।दो सोने के अलंकारों के द्रवित होने पर ,एक रसमय तरल हो जाता है ,वैसे ही प्रेमा भक्ति से भक्त और इष्ट द्रवीभूत होकर रसमय स्थिति प्राप्त करते हैं ।यह अद्भुत है कि इस समस्त विकास में व्यक्ति का व्यक्तित्वहीन आस्तित्व बना रहता है ।जैसे नीर- क्षीर मिश्रण एक रस होते हुए भी,उसमें दोनों अवयव अलग-अलग रहते हैं और हंस उन्हें अलग कर सकता है ।भक्त और भगवान का ऐसा संबंध अनिर्वचनीय है।इसे बचन देने के प्रयास में विचारों की स्पष्टता के स्थान में,भ्रम पैदा होता है। अस्तु प्रकरण को विराम दिया जाता है ।
***********हरि :ऊँ तत्सत***********
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