ग्रंथ परिचय
हरि:शरणम।
उद्देश्य -वर्तमान में,लोगों के हाथ में, धर्म ग्रंथ न होकर केवल मोबाइल रह गए हैं । कथा की श्रंखला प्रारंभ करने का उद्देश्य मोबाइल द्वारा भी धर्म की ओर संकेत करने का दुस्साहस है। मैं डाल-डाल,तू पात- पात। जिज्ञासाओं से निवेदन है कि मूल ग्रंथ अवश्य देखें।
- ग्रंथ का आधार श्रीमद् भागवत महापुराण है। इसकी रचना भगवान वेदव्यास जी ने की है। इसमें 18000 श्लोक हैं।भागवत शब्द का अर्थ है- जो भगवान का है। भक्त जो अनन्य भाव से भगवान के शरणागत हो जाता है, उन्हें भी भागवत कहते हैं। श्रीमद् का अर्थ है कि भगवान के 6 भग-- ऐश्वर्या, धर्म, यश,श्री,ज्ञान और वैराग्य से यह ग्रंथ परिपूर्ण है। जीवों के परम कल्याण के लिए इस ग्रंथरत्न का आविर्भाव हुआ है ।भक्त उद्धव जी की प्रार्थना से भगवान ने भागवत में प्रवेश किया है। इसमें उन्होंने अपना विशेष तेज स्थापित किया है। जैसे कास्ट की, धातु की अथवा पत्थर की, मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करने से वह फलदाई व पूज्य हो जाती है, वैसे ही भगवान केभागवत जी में प्रवेश करने से ,वह वांग्मयी मूर्ति के रूप में प्रभावी हो गई है। इसके श्रवण मात्र से हृदय से परमात्मा का बोध होने लगता है।
- ग्रंथ की परंपरा इस प्रकार है-- कि इसके ज्ञान को भगवान नारायण ने सृष्टि के प्रारंभ में,किंकर्तव्यविमूढ़ ब्रह्मा जी को चार श्लोकी भागवत (2. 9.32-35)में दिया। ब्रह्मा जी ने नारद जी को, और नारद ने व्यास जी को, वही ज्ञान दिया। व्यास जी ने लोक कल्याण के लिए,उसे 18000 श्लोकों में विस्तार कर दिया, और उस ज्ञान से परमहंस शुकदेव जी को सुसज्जित कर,वक्ता के रूप में तैयार कर दिया । भगवान श्री कृष्ण के स्वधाम गमन के 30 वर्ष बाद, पहली बार श्री शुकदेव जी ने यह कथा, श्री परीक्षित जी को सुनाई।उसके 200 वर्ष बाद,यह कथा गोकर्ण ने,प्रेतत्व से मुक्ति के लिए,धुंधकारी को सुनाई।उसके 30 वर्ष और बीत जाने पर,सनकादि ने यह कथा संतो को सुनाई। जिसके मुख्य स्रोता नारद जी थे। श्रीमद्भागवत का महत्व और प्रभाव जैसा आज देखने को मिल रहा है, वह अकारण नहीं है। ग्रंथ का रस सधनात्मक नहीं है,फलात्मक है, जो श्रवण मात्र से तत्काल फल देकर, कलयुगी जीवों का कल्याण कर रहा है।
- सनातन धर्म में,सब प्रकार की उन्नति के लिए,प्रायः दो प्रकार के शास्त्र स्वीकार किए गए हैं - श्रुति (वेद)और स्मृति। श्रुति "शब्द" नित्य होते हैं।सब युग,सब मन्वंतर और सब कल्पों में उनकी क्रमबद्धता एकसी होती है।विशुद्ध अंतःकरण वाले ऋषिगण ध्यान में,उनका श्रवण करते हैं। बाद में अपनी शिष्य परंपरा में,उन्हीं शब्दों का विस्तार करते हैं।हर कल्प में वेद "शब्दशः" एक ही होते हैं।देश और काल के व्यवधान से उनमें अंतर नहीं पड़ता।वह परमात्मा की श्वास से विसर्जित शब्द हैं। दूसरे प्रकार के शास्त्र" स्मृति"कहलाते हैं। मनु आदि स्मृति ,महाभारत आदि इतिहास, श्रीमद्भागवत आदि पुराण, स्मृति शास्त्र के अंतर्गत हैं ।महान तपस्वी,त्रिकालग्य, ऋषियों के परम पवित्र अंतःकरण में भगवान की प्रेरणा से,समयानुकूल इन भावों का आविर्भाव हुआ करता है। ये शास्त्र भाव रूप से तो सर्वदा एक ही रहते हैं,किंतु इनके शब्दों की क्रमबद्धता परिवर्तित होती रहती है ।स्मृति के आधार पर रचे जाने के कारण यह स्मृति शास्त्र कहलाते हैं ।
महात्म्य
- कथा के आरंभ में, भागवत जी के महात्म्य कथन का प्रचलन है।यह कथा श्री पद्मपुराण के उत्तरखंड में "श्रीमद् भागवत महात्मय" के नाम से 6 अध्यायों में दी गई है।अपनी बड़ाई अपने मुंह से करना अच्छा नहीं लगता,अस्तु दूसरे पुराण उसकी महिमा गाएँ, यही शोभनीय है। इन 6 अध्यायों में मुख्य दो कथाएं हैं।एक कथा का कथानक यह है-कि भागवत जी के श्रवण मात्र से श्रोता के हृदय में, साक्षात भक्ति देवी अपने दोनों पुत्रों ज्ञान व वैराग्य के साथ,जागृत हो जाती हैं।इस कथा के वक्ता-सनकादि व श्रोता -नारद जैसे श्रेष्ठ महापुरुष हैं। पापी,साधारण श्रोताओं के लिए भी कथा कल्याणकारी है, इसके लिए महापापी धुंधकारी की प्रेतात्मा के मुक्त होने की दूसरी कथा कही जाती है।अस्तु सभी प्रकार के श्रोताओं को कथा श्रवण मात्र से कल्याण हो जाने का पूरा विश्वास रखना चाहिए।
- नैमीषारण्य में,महामति सूत जी यज्ञ- याग के संदर्भ में बैठे हैं ।यज्ञ में हवन आदि से जब छुट्टी मिलती है, तब सब ऋषि -महर्षि इकट्ठे हो जाते हैं ।सूत जी का काम ही है ,ऐसे अवसरों पर पुराणों की कथा सुनाना।अध्यात्म शोध -साधकों के कुलपति शौनक जी ने वहां आकर सूत जी का अभिवादन किया और कथा सुनाने के लिए जिज्ञासा प्रकट करी -" संसार के लोग अज्ञान अंधकार में भटक रहे हैं।घोर कलियुग आ गया है।जीव आसुरी प्रकृति का हो गया है। इन क्लेशों से आक्रांत जीवों को सुखी बनाने का क्या उपाय है?" सूत जी उत्तर में कहते हैं, कि मैं भलीभांति विचार करके भयनाशक, भक्तिवर्धक और श्रीकृष्ण को संतुष्ट करने वाला, साधन सुनाता हूं।कलियुग के प्रभाव से बचने के लिए, जो शुकदेव जी महाराज ने श्रीमद् भागवत शास्त्र का उपदेश, राजा परीक्षित के लिए किया है ।इसको सुनने मात्र से श्रोता का मन शुद्ध हो जाता है और उसको सांसारिक कष्टों से मुक्ति हो जाती है।
- श्री सूत जी ने शौनक जी को बताया, कि इस कथा की श्रवण विधि, सनकादि ने नारद जी को बताई है।इस पर शौनक जी ने प्रश्न किया- कि नारद जी की प्रीति कर्मकांड में नहीं है,वह कैसे भागवत सुनने लग गए?उत्तर में सूत जी एक कथा कहते हैं। कि एक बार सनकादि सत्संग के लिए विशाला नगरी (बद्रिका आश्रम क्षेत्र) में एकत्र हुए थे ।वहां उनकी नारद जी से भेंट हुई। सनकादि ने नारद जी से पूछा-- कि आप चिंतातुर दशा में जल्दी-जल्दी कहां से आ रहे हैं, और कहां जा रहे हैं? अनासक्त पुरुष को इतना व्याकुल होना उचित नहीं है। नारद जी ने कहा ,कि मैं पृथ्वीलोक गया था, वहां पुष्कर ,प्रयाग, काशी तथा हरिहर क्षेत्र आदि में भ्रमण करता रहा। किंतु किसी भी तीर्थ में शांति, संतोष नहीं दिखाई पड़ा। वहां लोगों में न सत्य है, न तप है,न शौच है, न दया- दान है,सर्वत्र झूठ और पाखंड का बोलबाला है। नारद जी ने कलियुग के प्रभाव को जैसा देखा था,विस्तार से वर्णन किया है।आज हम सब उसे अपनी आंखों से देख रहे हैं ।
- श्री नारद जी, सनकादि को आप बीती बता रहे हैं।एक दिन विचरण करता हुआ मैं वृंदावन पहुंचा। वहां मैंने एक कौतुक देखा ।एक तरुणी स्त्री दुखी होकर बैठी है, उसके पास दो बालक मूर्छित पड़े हैं। मैं दूर से यह दृश्य देखकर उसके पास चला गया। वह स्त्री उठ कर खड़ी हो गई, और निवेदन किया कि आप क्षण भर के लिए यहां ठहर जाएं, और कुछ ऐसी दया करें, जिससे हमारा दुख मिट जाए। जब मैंने पूछा कि तुम कौन हो, तुमको दुख क्या है? उसने बताया – मेरा नाम भक्ति है,यह मेरे दोनों बेटे हैं ,ज्ञान और वैराग्य जो, देश -काल के प्रभाव से जर्जर हो गए हैं।मैं आचार्यों के द्वारा दक्षिण देश में प्रकट होती हूं, कर्नाटक में बढ़ती हूं ,महाराष्ट्र में कहीं-कहीं प्रकट हो जाती हूं, गुजरात में जाकर बेटों सहित में जीर्ण -शीर्ण हो जाती हूं। गुजरात में पाखंड है।मनुष्य जब समग्र धर्म को लेकर नहीं चलता, तो उसके अंग- भंग हो जाने से मैं दुर्बल हो जाती हूं, और मेरे पुत्र मंद हो जाते। वृंदावन की हवा पानी से मैं तो युवती हो गई, परंतु मेरे पुत्र ज्यों के त्यों पड़े हैं।वृंदावन में भक्ति के ग्राहक बहुत हैं,ज्ञान और वैराग्य के ग्राहक नहीं है। आप मेरे पुत्रों की मूर्छा दूर करें।
- श्रीनारदजी, सनकादि को आप बीती बता रहे हैं, कि भक्ति देवी के कष्ट का कारण भगवान से ध्यान में जाना, और देवी को समझाया, कि तुम विषाद मत करो, भगवान कल्याण करेंगे।पुत्रों पर दारुण कलि का प्रभाव है। योग, सदाचार, तपस्या का लोप होने से, ज्ञान -वैराग्य जीर्ण हो गए हैं। लोग अघासुर बन गए हैं, संत दुखी हैं और असंत सुखी है। भक्ति देवी ने पूछा- कि राजा परीक्षित ने ऐसे कलियुग को रहने का स्थान ही क्यों दिया? नारद ने बताया कि भगवान के भरोसे,शरणागत- संरक्षण धर्म को प्रकट करने के लिए,उन्हें ऐसा करना पड़ा। कलियुग का एक बड़ा लाभ भी है, कि जो जीवन का लक्ष्य अन्य युगों में कठिन तपस्या,योग व समाधि आदि से भी नहीं प्राप्त होता, वह इसके प्रभाव से नामजप और कीर्तन मात्र से मिल जाता है। नारद जी ने प्रतिज्ञा पूर्वक कहा कि कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है।मैं तुमको (भक्ति को) घर- घर में, जन- जन में स्थापित करूंगा। भक्ति देवी ने नारद जी को धन्यवाद दिया और पुत्रों को जागृत करने की विनती की।
- भक्तिदेवी की प्रार्थना पर उनके पुत्रों को, नारदजी जगाने लगे।नारद जी उनको हाथ से स्पर्श करें,अर्थात क्रिया के द्वारा जगाने का प्रयत्न करें,किंतु वह न कर्म से जागते हैं, न शब्द से जागते हैं।फिर कान के अंदर बोलते हैं, उससे भी ना जगे। वेद-वेदांत, गीतापाठ द्वारा जगाने पर भी न जागे। जब सब विद्यायें निष्फल हो गई, तब भगवान की शरण ली। इस पर आकाशवाणी हुई,"नारद दुखी मत हो, तुम्हारा उद्यम सफल होगा। इसके लिए तुम सत्कर्म करो। सत्कर्म साधुओं से ज्ञात होगा। " नारद जी साधुओं से सत्कर्म जानने के लिए,भटकने लगे। लोग उनकी बात सुनें, लेकिन निश्चित रूप से कोई कुछ ना बता सके। कोई कहे यह असाध्य है ,कोई कहे दुर्ज्ञेय है। साधुओं के पास जाने पर ,कोई मौनी बाबा बन जाए। कोई पलायन कर जाएं। कोई झूठ- मुठ की समाधि लगा ले। नारद के पहुंचते ही सर्वत्र भगदड़ मच जाए।इस प्रकार भटकते हुए नारद जी बद्री बन पहुंच गए ।जहां उनकी सनकादि से भेंट हुई।
- नारद जी की आपबीती सुनकर सनत्कुमारों ने कहा देवर्षि नारद !चिंता मत करो ।तुम जिस उपाय की खोज कर रहे हो, वह बहुत ही तूसाध्य है।आकाशवाणी का बताया हुआ सत्कर्म" श्रीमद् भागवत जी का श्रवण है।" श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ है।ज्ञान का अर्थ है- इसके द्वारा परमात्मा सब जगह जैसा है,वैसा मिल जाता है।भक्ति,ज्ञान ,वैराग्य तीनों एक ही चीज है, श्रवण से भजनीय का ज्ञान होता है और उससे भिन्न से वैराग्य होता है और तब प्रेम पूर्वक तदाकार बृत्ति हो जाती है।जब यह तीनों बढ़ जाते हैं,तब भक्ति सुखी हो जाती है।भागवत की ध्वनि से कलियुग के सब दोष दूर हो जाते हैं। इस पर नारद जी ने प्रश्न किया कि, महाराज !जब वेद- वेदांत के घोष से, गीता पाठ से, ज्ञान- वैराग्य प्रबोधित नहीं हुए,तब भागवत की ध्वनि से कैसे जागृत होंगे? क्योंकि उसके श्लोक- श्लोक में, पद- पद में ,वेदार्थ ही भरा हुआ है। अतः आप मेरे इस संशय को मिटाँए।
- सनतकुमारों ने, नारद जी की शंका समाधान करते हुए कहा- यह ठीक है,कि वेद-उपनिषद के सार से यह भागवती कथा बनी है,फिर भी उससे अलग है।जैसे वृक्ष में से निकला हुआ फल, उसी वृक्ष का सार होता है, उसी प्रकार यह वेद-उपनिषद का सार है।वेद में-कहीं धर्म है, कहीं अर्थ,कहीं काम और कहीं मोक्ष का वर्णन है।अतः उसके सार-सार का जल्दी ग्रहण नहीं होता। किसी भी वृक्ष में जड़ से लेकर शाखा तक, उसका ही रस रहता है, लेकिन वही रस, जब उसके फल के रूप में प्रकट होता है, तो उसका आकर्षण, स्वाद व प्रभाव कुछ और होता है। इसी तरह भागवत पुराण, साक्षात वेद के समान ही है, पर भक्ति-ज्ञान-वैराग्य रूपी इसका फल विशेष प्रभावी है (भागवत-1.1.3)।इसीलिए हे नारद! इसको सुनो।श्रवण मात्र से ही तुम्हारा, व भक्ति देवी का, दुख दूर हो जायेगा। इस पर नारद ने कहा- कि महाराज आप के दर्शन से ही हमारे सारे अशुभ दूर हो गए हैं, अब आप ही हमको श्री भागवत जी की कथा सुनाइए।
- सनतकुमारों के निर्देशानुसार ,कथा की तैयारियां प्रारंभ हो गयीं। हरिद्वार के पास आनंद नामक तट को स्थान रूप में चुना गया। वहां नाना वृक्ष -लताएं हैं ,और बहुत से ऋषि महात्मा रहते हैं। वातावरण ऐसा है, कि बिना विक्षेप के सहज भाव से कथा श्रवण की जा सकती है। कथा आयोजन का समाचार, तीनों लोकों में फैल गया। कथा प्रेमी संत- महात्मा – भ्रुगु , वशिष्ठ ,च्यवन, गौतम आदि अपने पुत्रों तथा शिष्यों के साथ आ गए। वेद, वेदांत, मंत्र- तंत्र ,17 पुराण, शास्त्र ,गंगा आदि नदियां, क्षेत्र ,दिशाएं ,दंडकादि बन, नागादि सब के सब मूर्तिधारी होकर वहां पहुंच गए।
- नारद जी ने सभी आगंतुक श्रोताओं को आसन दिया है,और सनतकुमारों की पूजा बंदना की। वैष्णव,विरक्त,सन्यासी, गृहस्थ,ब्रह्मचारी,सब यथा स्थान बैठ गए।सबके आगे नारद जी बैठे हैं। एक ओर ऋषि-देवता,दूसरी ओर वेद- उपनिषद, तीसरी ओर तीर्थ और चौथी ओर स्त्रियां हैं। शंख की ध्वनि गूंज उठी, अवीर ,लाजा तथा प्रसून की वर्षा होने लगी। विधिवत व्यास पूजन हुआ।सब का मन कथा के प्रति एकाग्र हो गया। श्रीयुत सनतकुमारों ने भागवत जी की महिमा बताई। ग्रंथ भगवान की प्रत्यक्ष मूर्ति है,इसके शब्दों में भगवान का तेज समाया हुआ है। इसी से इसके श्रवण की भारी महिमा है।इसका प्रभाव, 17 तत्वों वाले मनुष्य के सूक्ष्म शरीर को,विध्वंस और बाधित कर ,इसकी वासनाओं को मिटाकर,एक अद्वय परमात्मा से मिला देता है।मनुष्य तभी तक संसार चक्र में भ्रमण करता है, जब तक श्रीमद् भागवत की कथा नहीं सुनता।
- सनतकुमारों ने जैसे ही भागवत श्रवण का माहात्म्य सुनाया, वैसे ही वहां बड़ा आश्चर्य हुआ -भक्ति देवी मूर्तिमती होकर अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के साथ वहां प्रकट हो गयीं ।इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। प्रत्येक भाव की एक मूर्ति होती है, हमारे मन में जिस भाव का आध्यात्मिक रूप से उदय होता है, उसकी एक आधिदैविक मूर्ति होती है, और भक्तों के आनंद के लिए वह आधिभौतिक मूर्ति के रूप में प्रकट हो सकती है। कथा से प्रकट हुई भक्ति देवी ने कहा -कलियुग में मैं नष्टप्राय हो चुकी थी ,आप लोगों ने हमको कथा के रस से पुष्ट कर दिया(महात्म्य, 3.73)। अब आप बताएं हम कहां रहें? सनत कुमारों ने बताया कि तुम भक्तों के ह्रदय में,भगवान का रूप धारण कर रहो। हमारे हृदय में जो भगवदाकारता है ,वही भक्ति है। यह बहुत प्रेम प्रदान करने वाली है।भवरोगों का हनन करने वाली है ।भक्ति के आ जाने पर, भक्तों के हृदय से सब दोष भाग जाते हैं।
- जब भगवान ने देखा कि यहां जितने स्रोता बैठे हैं, सबके हृदय में अलौकिक भक्ति आगई, तब उन्होंने अपना लोक छोड़ कर सबके हृदय में, वे भी प्रकट हो गए ।भगवान की अद्भुत छवि है ।उस समय भक्तिरस का अलौकिक प्रवाह चला ।बार-बार अबीर, गुलाल और पुष्पों की वर्षा तथा शंख ध्वनि होने लगी।वहां उद्धव जी गुप्त रूप से कथा श्रवण कर रहे थे, उनके समेत ,सभा में जितने लोग बैठे थे वह सब देह-गेह भूल गए । यह सब देखकर नारद जी बोले- मुनीश्वरओं! हमने भागवत के श्रवण की अलौकिक महिमा देखी। पशु-पक्षी तक निष्पाप हो गए ।इसलिए चित्त शुद्धि के लिए इससे पवित्र संसार में दूसरा कोई साधन नहीं है। यह तो कोई नवीन मार्ग प्रकाशित हुआ है ।कृपया यह भी बताइए कि इससे कैसे -कैसे जीव पवित्र हो सकते हैं। सनतकुमारों ने बताया ,कि इससे तो दुराचारी,कुमार गामी,क्रोधाग्नि दग्ध, कुटिल, कामी, सब पवित्र हो जाते हैं। जो जानबूझकर पाप करते हैं, वे भी कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं।
- सनतकुमार ने अपने कथन के दृष्टांत रूप में ,धुंधकारी की कथा सुनाई । तुंगभद्रा नदी के किनारे ,एक ग्राम था ।वहां आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी धुंधली के साथ रहता था। आत्मदेव पवित्र था।उसकी पत्नी धुंधली स्वभाव से क्रूर, झगड़ने वाली थी। आत्मदेव निसंतान होने से दुखी थे। प्रयत्न करने पर भी ,संतान पाने में असफल रहने से, आत्महत्या करने का निश्चय किया ।आत्मदेव जंगल की ओर चले गए,और घूमते फिरते नदी के किनारे पहुंचे।वहां उन्हें एक महात्मा मिले। उनसे रो- रो कर अपने दुख का कारण सुनाया।आत्मदेव ने बताया कि ,संतान न होने के कारण वह दुखी है ,और यहां आत्महत्या की उद्देश्य से आया है । महात्मा ने समझाया, तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है।इसे परमात्मा की कृपा मानो।पुत्र परिवार ना हो, तो समझना चाहिए, कि श्री ठाकुर जी ने अपने हाथों से ही ,अपना कल्याण करने को तुम्हारे भाग्य में लिखा है।तुम्हारे लिए पुत्र तो दुख रूप है।
- आत्मदेव महात्मा की बात से सहमत नहीं हुए ,और बोले कि मुझे पुत्र चाहिए, क्योंकि पुत्र ही पिता को सद्गति देता है । महात्मा ने समझाया कि श्राद्ध पाने से, जीव अच्छी योनि में तो चला जाता है,परंतु वह जन्म -मृत्यु के चक्र से नहीं छूट सकता। श्राद्ध हो जाने से नर्क से छुटकारा मिलता है, परंतु मुक्ति नहीं मिलती। पिंड दान का सही अर्थ समझना चाहिए। शरीर को पिंड भी कहते हैं। शरणागत हो इसे परमात्मा को अर्पण करना ही पिंडदान है।अपना जीवन ईश्वर को समर्पित कर,उनकी आज्ञा अनुसार स्वधर्म पालन से मुक्त हुआ जा सकता है। स्वयं अपने द्वारा ही ,अपनी आत्मा का संसार समुद्र से उद्धार करना होता है। मृत्यु के पहले, जो भगवान का अनुभव करते हैं ,उन्हें ही मुक्ति मिलती है।परमात्मा के अपरोक्ष बोध के बिना मुक्ति नहीं मिलती । महात्मा के समझाने पर भी, आत्मदेव दुराग्रह ही करते रहे ।महात्मा को दया आई, उन्होंने एक फल देकर कहा कि इस फल को तुम अपनी पत्नी को खिलाना। तुम्हारे यहां योग्य पुत्र होगा।
- सनतकुमार नारद जी को कथा सुना रहे हैं- आत्मदेव महात्मा से फल लेकर आए और पत्नी को दे दिया।धुंधली को पुत्र (फल)की इच्छा तो है,किंतु बिना कुछ कष्ट किए, तप किए। वह गर्भवती होने और बच्चा पैदा होने के दुखों की कल्पना से, मन ही मन तर्क- कुतर्क करके ,दुखी हुई। छोटी बहन की सलाह पर, फल गाय को खिलाया गया, और स्वयं गर्भवती होने का नाटक करने लगी।बाद में बहन का पुत्र ले आई,और बताया कि यह मेरा पुत्र है ।धुंधली ने अपने नाम पर ,पुत्र का नाम धुंधकारी रखा। दूसरी ओर जिस गाय को वह फल खिलाया गया, उसने गाय जैसे कान वाले मनुष्याकार बालक को जन्म दिया। उसका नाम गोकर्ण रखा गया। दोनों बालक बड़े हुए। गोकर्ण पंडित और ज्ञानी हुए ,और धुंधकारी महा दुष्ट हो गया।
- कथा भी सत्य है ,और उसका कथानक भी सत्य है।मानव काया ही तुंगभद्रा अर्थात अत्यधिक कल्याण करने वाली नदी है।आत्मदेव ही जीवात्मा है, हम सब आत्मदेव हैं।गुस्सा करने वाली,कुतर्क करने वाली, द्वंद्वात्मक बुद्धि ही धुंधली है।स्थितप्रज्ञ ना होने तक द्वंद बना रहता है। बुधि के साथ आत्मा का विवाह तो हुआ है, किंतु जब तक महात्मा न मिले, सत्संग ना हो,तब तक विवेक रूपी पुत्र का जन्म नहीं होता। विवेक के अभाव में,जीवन संसार नदी में डूब मरने लायक बना रहता है। संत द्वारा दिया गया फल( विवेक) बुद्धि को पसंद नहीं और वह मन (छोटी बहन) की सलाह पर चलने लगती है।आत्मदेव, मन- बुद्धि का छल, नहीं समझ सका। आत्मा- बुद्धि-मान एकरस रहना चाहिए। धुंधकारी कौन? जिसके जीवन में धर्म नहीं,काम सुख व द्रब्य सुख ही है, वह धुंधकारी है। धुंधकारी पांच वेश्याओं के चक्कर में फँसकर, उनका गुलाम हो गया। शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गन्ध, यह पांच विषय ही वेश्याएं हैं।देखें ! कहीं हम धुँधकारी तो नहीं बन गए? दूसरी ओर गोकर्ण सूर्य की आराधना करते हैं। संध्या वंदन करने से तेजवान और ज्ञानवान हो गए।सम्यक ध्यान ही संध्या है।
- धुंधकारी के दुराचरणों को देखकर आत्मदेव को ग्लानि हुई।अब उसकी समझ में आया, कि वह पुत्र हीन ही रहता, तोअच्छा होता। धुंधकारी ने सारी संपत्ति को ब्यय कर दिया।वह माता-पिता को पीटने भी लगा।पिता के दुख को देखकर, गोकर्ण पिता के पास आया, और उनसे कहा- कि तुमअब घर- बार छोड़कर वन गमन करो। घर के मोह का त्याग करो ।यह देह,- हाड़, मांस और रुधिर का पिंड है,इसे अपना मानना भूल है। स्त्री -पुत्र आदि की ममता छोड़ो। यह संसार क्षणभंगुर है, इससे राग -मोह न करो। केवल वैराग्य के रसिक बनो,और भगवान की भक्ति में डूब जाओ। भागवत महात्म्य, 4.79। पिताजी अब तुम श्री भगवान का आश्रय लेकर,भगवान मय जीवन बिताओ। आत्मदेव गंगा किनारे आया,मानसी पूजा करने लगा, और एकांत में बैठकर मन को एकाग्र करने लगा। मानसी पूजा की बड़ी महिमा है।
- एक बार भी भागवत कथा का श्रवण करने से ,पाप की राशि भस्म हो जाती है ।इसको श्रद्धा से पढने पर, पितरों को तृप्ति मिलती है और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कलियुग में नाम जप प्रधान है ।नाम ही ब्रह्म है ,नाम ही परमात्मा है। नाम साधन सरल है। श्री भागवत, भगवान का ही नाम स्वरूप है ।जो भागवत का आश्रय लेता है, वह भगवान बनता है । आत्मदेव एकांत में, आसन लगाकर 10 -12 घंटे बैठने लगे ।आत्मदेव शरणागत होकर दशम स्कंध का पाठ करते थे ।केवल दशम स्कंध के पाठ से ही उनको मुक्ति मिल गई।
- गोकर्ण ने भी, भाई धुंधकारी के व्यवहार से ऊबकर,घर छोड़ दिया ।धुंधकारी ,वेश्याओं को प्रसन्न करने के लिए चोरी करने लगा ।उसने राजा के महल में भी चोरी की अलंकार आदि चुरा लिया और वेश्याओं को दे दिया। वेश्याएं सोचती हैं,कि हम सब किसी दिन पकड़ी जाएगी। अतः उन्होंने धुंधकारी को मार डालने की योजना बना ली। उसे रस्सी से बांधकर गले में फांसी का फंदा डाला, और मुंह पर अंगारे रह कर मार डाला।उसे घर के आंगन में गाड़ भी दिया। धुंधकारी भयंकर प्रेत बना ।बड़े पापियों का यमपुरी में भी प्रवेश नहीं है ।वह तो प्रेत ही होता है ।अतृप्त लिंग शरीरधारी होकर ,अंतरिक्ष में मंडराता रहता है । गोकर्ण को धुंधकारी की मृत्यु का समाचार मिला ,तो वह गया जी गया, और उसकी श्राद्ध कर दी।
- गोकर्ण लौट कर घर आया।रात में सोते समय ,उसके सामने किसी कसी की प्रेत लीला शुरू हुई।पूछने पर प्रेत बोल नहीं सका।तब गोकर्ण ने अंजुलि में पवित्र जल लेकर उस पर छिड़का।वह प्रेत बोला- मैं तुम्हारा भाई धुंधकारी हूं, मैंने बड़े पाप किए हैं ।बाजारू औरतों ने मुझे मार डाला, इसलिए मैं प्रेत हो गया।अब आप मुझे इस प्रेत योनि से छुड़ाइये। गोकर्ण ने कहा- मैंने तो तुम्हारे कल्याण के लिए गया श्राद्ध कर दिया है। प्रेत ने कहा- सौ गया श्राद्ध करने पर भी मेरे जैसे पापी की मुक्ति नहीं होती । गोकर्ण को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ ।दूसरे दिन विद्वान पंडितों ने विचार कर, भगवान सूर्य से उपाय जानने का निश्चय किया ।शक्तिशाली ब्राह्मणों ने सूर्य भगवान को स्तब्ध कर के, प्रश्न किया- कि धुंधकारी की सद्गति का उपाय बताएं? सूर्य भगवान ने बताया कि इसके लिए भागवत वाचन करो।
- गोकर्ण ने धुंधकारी को कथा सुनाने का निश्चय किया। गांव -गांव से श्रोता लोग आने लगे।बड़ा भारी समाज जुटा।गोकर्ण ने एक वैष्णव ब्राह्मण को मुख्य स्रोता बनाया।जब गोकर्ण कथा सुनाने लगे,तो प्रेत रूप धुंधकारी आया।वह 7 गांठ वाले बांस पर बैठ गया। दिनके अंत में ,जब कथा का विश्राम हुआ,तब लोगों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, कि बांस की एक गांठ फट गई है।इस तरह दूसरे,तीसरे,चौथे,पांचवें,छठे और सातवें दिन,क्रमशः सातों गाँठें फट गई । बॉस वासना का रूप है।जीव वासनाओं में फंसा हुआ है। वासना से ही जीव का जीवत्व है।बांस की सात गांठ अर्थात वासना की सात गाठें ।शास्त्र में काम, क्रोध,लोभ मोह,मद,मत्सर और अविद्या को 7 गांठें कहा जाता है। व्यावहारिक सात वासनाएं भी स्पष्ट हैं --पति -पत्नी की आसक्ति,पिता-पुत्र की आसक्ति, व्यवसाय की आशक्ति,द्रव्य की आसक्ति, परिवार की आसक्ति, जाति की आसक्ति तथा गांव की आसक्ति। भागवत कथा से यह ग्रंथियां निर्मूल होती हैं ।
- पूरी कथा सुनने से धुंधकारी की प्रेतयोनि छूट गई ।जैसा भगवान का रूप होता है ,वैसा ही उसका रूप हो गया ।उसने आकर गोकर्ण को नमस्कार किया और कहा कि तुमने ही मुझे इस बंधन से छुड़ाया है ।यह भागवत कथा भी धन्य है ,यह सारे पापों का नाश कर देने वाली है ।भागवत महात्म्य, 5.54 । इसी समय चमकता हुआ विमान आया और उस पर धुंधकारी बैठ गये। गोकर्ण ने पार्षदों से पूछा - कि श्रोता तो बहुत है ,सबके लिए विमान क्यों नहीं आया ?भगवान के पार्षदों ने उत्तर में कहा- कि सुनते तो सब हैं पर समझने की कोशिश नहीं करते ,इसी से फल में भेद है ।इस प्रेत ने कथा ठीक-ठीक श्रवण किया है,और मनन भी किया है ।यदि कोई श्रवण तो करें परंतु प्रमाद करके मनन ना करें ,तो कथा श्रवण का फल नष्ट हो जाता है।
- सूत जी कहते हैं- शौनक जी! इस प्रकार जब सनद्कुमारों ने ,नारद जी को श्रीमद्भागवत की सप्ताह कथा का श्रवण करा दिया, तब ज्ञान, वैराग्य और भक्ति पुष्ट हो गए ।तीनों तरुण हो गए और आकर्षक हो गए ।अब नारद कृतार्थ हो गए, उनके शरीर में रोमांच हो गया, और वे परमानंद में मग्न होकर ,सनदकुमारों से बोले- आपने बहुत अनुग्रह किया। आज मैं मान गया ,कि दुनिया में जितने भी धर्म है ,उनमें सबसे श्रेष्ठ धर्म श्रवण ही है। श्रवण बिना भक्ति नहीं ,ज्ञान नहीं ।स्वाध्याय विधि दूसरी है, और श्रवण विधि दूसरी है ।स्वाध्याय धर्माड़ग बिधि है, और श्रोतब्यो, मंतव्यो, निधिध्यासितव्य:( बृहदारण्यक) , यह ज्ञान का साधन है ।
- सूत जी कहते हैं -नारद जी, इस प्रकार कृतज्ञता प्रकट ही कर रहे थे ,कि योगेश्वर श्री सुकदेव जी वहां पहुंच गए ।16 वर्षीय किशोर अवस्था है ,स्वरूप में स्थित सुकदेव जी का दर्शन करते ही ,लोगों के हृदय में ज्ञान की लहरें उमड़ने लगी ।उनको ऊंचे आसन पर बैठाया गया ।देवर्षि नारद ने उनका प्रीति पूर्वक पूजन किया।श्री सुकदेव जी, श्री भागवत की महिमा बताने लगे:- रासिको और भावुको! वेद कल्पवृक्ष है, कल्पतरू है, अज्ञात ज्ञापक है ,भागवत उसका गलित फल है अर्थात अपने आप पक कर चुआ है। यह साधनात्मक नहीं फल आत्मक है। यह रस स्वरूप है ,इसे पिओ। इसमें गुठली, छिलका आदि कुछ भी त्याज्य नहीं है ।कब तक पीना है? मृत्यु -पर्यंत पीते रहो। जब तक अत्यान्तिक प्रलय ना हो जाए ,तब तक पीते रहो । इसके श्रवण, पठन और विचारण से- मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो जाती है ।स्वर्ग, कैलाश, वैकुंठ आदि में यह रस नहीं है। इसमें ज्ञान ,वैराग्य और भक्ति का विरोध नहीं है, नैषकर्म्य, ब्रह्म का आविष्कार है। भाग्यवानों इस रस का पान करो।
- श्री सुकदेव जी महाराज, श्रीमद्भागवत महात्मा का वर्णन कर ही रहे थे, कि उसी समय सभा में भगवान प्रकट हो गए।भागवत महात्म,6.84 । भगवान के साथ प्रहलाद,बलि, उद्धव तथा अर्जुन आदि भी थे। भगवान सिंहासन पर विराजमान हुए।नारद ने उन सब की पूजा की।गौरी के साथ शंकर जी भी आ गए, ब्रह्मा जी भी आ गए, सरस्वती तो कथा प्रारंभ होते ही आ गई थीं। दिव्य कीर्तन प्रारंभ हुआ- प्रहलाद तबला बजा रहे हैं, उद्धव माँझ बजा रहे हैं,देवर्षि नारद वीणा बजा रहे हैं, अर्जुन राग अलाप रहे हैं,इंद्र मृदंग बजा रहे हैं,सनत्कुमार जय जय कर रहे हैं, व्यास नंदन सुकदेव जी महाराज भाव का निर्देश कर रहे हैं और भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य तीनों नृत्य कर रहे हैं । भगवान अलौकिक कीर्तन देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए, और वर मांगने को कहा।भक्तों ने कहा, कि जहां-जहां भागवत जी की कथा हो ,वहां-वहां आप अवश्य पधारें। भगवान तथास्तु कहकर, अंतर्धान हो गए ।भागवत महात्म्य 6.89। श्रीमद् भागवत जी की, जिस कथा से भक्ति देवी अपने पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के साथ पुष्ट और आनंदित रहती हैं, तथा धुंधकारी प्रेतत्व त्याग कर स्वरूप में स्थित हुआ,वह आगे की पोस्टों में है।
प्रथम स्कंध
- सत्कर्म में अनेक विघ्न आते हैं। उन सभी के निवारण के लिए मंगलाचरण की आवश्यकता है। अतः प्रत्येक कार्य का आरंभ मंगलाचरण से करना है।भागवत में तीन विशेष मंगलाचरण हैं- प्रथम स्कंध में व्यास जी का, द्वितीय स्कंध में सुकदेव जी का, और समाप्ति में सूतजी का है।
- व्यास जी का मंगलाचरण, एक श्लोक मात्र का है। उसका सार है- "सत्यं परम् धीमहि"।व्यास जी ने परमात्मा के किसी विशिष्ट रूप के ध्यान का निर्देश नहीं किया है। भक्त का जो भी इस्ट हो, उसके रूप का ध्यान कर सकता है। यह सभी संप्रदायों को स्वीकार है, कि उनका इष्ट परम सत्य है।
- वह सत्य कैसा है? जन्मादि का कारण है, सब में अनुगत है। सृष्टि का हेतु जानता है, स्वतंत्र है। आदिकवि ब्रह्मा को ऐसे वेदों का ज्ञान दिया है, जिसमें सभी विद्वान मोहित हो जाते हैं। माया के तीनों गुण परमात्मा से ही हैं ,अतः उन से संलग्न रहते सत्य हैं, और पृथक होने पर मृषा हैं। उस सत्य के स्वयं प्रकाश स्वरूप के बोध से, माया व उसके कार्य निरस्त हो जाते हैं। ध्यान में ऐसे सत्य से एकत्व होने पर, संसार का निवारण हो जाता है, और परम आनंद प्राप्त होने से, भागवत ग्रंथ आनंद का समुद्र बन जाता है। हम सब ऐसे परम सत्य में स्थित रहकर, ग्रंथ का स्वाध्याय करेंगे।
- श्रीमद्भागवत कल्पवृक्ष है।जैसे वृक्ष में कंधे होते हैं ,और उनसे मोटी मोटी डालियां निकलती हैं ,वैसे ही इसमें 12 स्कंध होते हैं । प्रथम स्कंध में कुल 19 अध्याय हैं, जो तीन प्रकारणों में बंटे हैं ।एक तो सूत- शौनक संवाद है और दूसरा नारद- व्यास संवाद है। इन दोनों के तीन-तीन अध्याय हैं।तीसरा शुक- परीक्षित का उपाख्यान है, जो 13 अध्यायों का है। इन प्रकरणों में बताया गया है, कि भागवत जी के वक्ता- श्रोता कैसे-कैसे रहे हैं ।पहले धर्माधिकारी सूत-शौनक का निरूपण है।फिर उपासना अधिकारियों के लिए नारद- व्यास का निरूपण है ।इसके बाद सर्वोत्तम अधिकारी के रूप में शुकदेव व राजा परीक्षित का निरूपण है।परमहंस शुकदेव जी निर्गुण वक्ता हैं,तो परीक्षित निर्गुण श्रोता है। दोनों को स्वरूप स्थिति ही प्रिय है।
- सत्यम परम धीमहि।प्रथम प्रकरण ,सूत-शौनक संवाद धर्म प्रधान है। ज्ञानी ब्राह्मण शौनकादि यज्ञ कर रहे हैं। उसी बीच सूत जी महाराज आ गए और वे धर्मांग रूप से श्रीमद्भागवत का श्रवण करा रहे हैं ।यहां यज्ञ मुख्य है, और भागवत श्रवण गौड़ है। सूत जी महाराज की तो यह वंश परंपरागत जीविका ही है ।वे जहां -जहां यज्ञ होता है वहां-वहां पुराण सुनाते हैं।
- यहां श्रोता, अध्यात्म विश्वविद्यालय के कुलपति शौनक आदि का वंश श्रेष्ठ है, ज्ञान भी श्रेष्ठ है, और वक्ता सूतजी का वंश, अपेक्षाकृत कनिष्ठ है,और उनका ज्ञान भी वेदातिरिक्त होने से, कनिष्ठ है। कथा सुनाना उनकी जिविका है और श्रोता,धर्मांग के रूप में श्रवण कर रहे हैं। वैसे तो यह शास्त्र मान्य विधि है ,परंतु इस स्थिति में श्री भागवत का श्रवण -वर्णन, विलंब से फलप्रद होता है।
- दूसरे प्रकरण में नारद जी वक्ता है और व्यास जी श्रोता है ।व्यास जी अवतार-रूप, कारक पुरुष होने के कारण, श्रेष्ठ है ।लोक हित की चिंता करते हैं,उसके लिए अनेक उपाय भी करते हैं,किंतु आत्मतुष्टि नहीं है ।नारद जी भी वीणा बजाते हुए, लोक के हित के लिए ही, सृष्टि में विचरण करते रहते हैं।आध्यात्मिक दृष्टि से विराट भगवान के मन है ।
- नारद जी भगवान की प्रेरणा से आकर, अपने में असंतुष्ट व्यास जी से कहा, "कि तुमने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है ,अब समाधि लगा कर भगवान की लीलाओं को देखकर उनका वर्णन करो ,तब आत्म- तुष्टि होगी। यहां भी "त्वं पदार्थ" की ही प्रधानता हुई, क्योंकि श्रवण तत्काल सफल नहीं है। "सफलता"; नारद -व्यास- संवाद, एक दीर्घकालिक ध्यान कीर्तन तथा स्मरण की योजना पर निर्भर है। अस्तु इस दूसरे प्रकरण में लोक कल्याण की भावना ही मुख्य उद्देश्य है।
- तीसरा संवाद है- शुकदेव और परीक्षित के बीच का ।अगले 12 अध्यायों (7 से 18) मेंपरीक्षित, एवं एक अध्याय में शुकदेव जी का वर्णन है। इन सर्वश्रेष्ठ श्रोता- वक्ताओं का, व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से,कोई स्वार्थ-परार्थ नहीं है। वे भगवत- गुणाकृष्ट होकर मन से उन्हीं के वर्णन एवं श्रवण में संलग्न है।
- प्रभु दर्शन की आतुरता के लिए,पांच प्रकार की शुद्धि होनी चाहिए- मातृ शुद्धि, पितृ शुद्धि, वंसशुद्धि,अन्न शुद्धि और आत्मशुद्धि। इसीकेलिए, यहां महाभारत का संक्षिप्त संदर्भ है ।परीक्षित की प्रपतामही कुंती, पितामही सुभद्रा एवं माता उत्तरा तीनों ही भगवत भक्त थी। कुंती ने अपने लिए विपत्ति का वरदान मांगा था, कि उन विपत्तियों से रक्षा करने के लिए बार-बार भगवान का दर्शन होता रहे। सुभद्रा और द्रौपदी ने पुत्रों की मृत्यु होने पर भी,भगवान को कोई उलाहना नहीं दिया। सुभद्रा तो मूक रह कर अपने भाई श्री कृष्ण की लीला देख रही थी।परीक्षित जब अपनी माता के गर्भ में थे और अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया ,तब उत्तरा पांडवों की शरण में न जाकर। श्री कृष्ण की शरण में गईं।भगवान स्वयं गर्भ में प्रवेश कर गए, और गदा व चक्र दोनों का ही प्रयोग कर,परीक्षित की रक्षा की।जिसने गर्भावस्था में भगवान के दर्शन किए हैं, वह कथा श्रवण का श्रेष्ठतम अधिकारी है।
- मातृ कुल ही नहीं, परीक्षित का पितृ कुल भी श्रेष्ठ है ।परीक्षित के पिता पांडू थे, वे महर्षि व्यास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी कुंती धर्मशील यदुवंश की पुत्री थी। कुंती पर शंकरांश दुर्वासा की कृपा थी और इंद्र के पुत्र के रूप में ही अर्जुन का जन्म हुआ था। अर्जुन साधारण मनुष्य नहीं देवांश थे।श्री कृष्ण ने अपने मुख से ही,अर्जुन को सखा, भक्त एवं अपना इष्ट कहा है। उनकी पत्नी सुभद्रा ,श्री कृष्ण की बहन थी। परीक्षित के पिता अभिमन्यु,गर्भ से ही इतने प्रतिभा संपन्न थे,कि चक्रव्यूह भेदन सीख लिया। उनके मामा श्री कृष्ण का वरद हस्त उनके सिर पर था। वर्षों तक द्वारिका में रहकर, उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। ऐसे पिता के पुत्र थे- परीक्षित।उपरोक्त सारा वर्णन मातृ शुद्धि,फितृ शुद्धि तथा वंश शुद्धि बताने के लिए किया गया है।
- परीक्षित को सब कुछ प्राप्त है - मातृवंश-पितृ वंश की योग्यता ,सप्तदीपवती पृथ्वी का एकछत्र साम्राज्य, एश्वर्य, दैवी सिद्धि, प्रभाव ,सद्गुण,दयालु स्वभाव, युवा अवस्था,विचार, वैराग्य, त्याग, भक्ति और भगवान का अनुग्रह। संसार में लोग दिग्विजय करते हैं, लेकिन परीक्षित ने तो कलियुग पर भी विजय प्राप्त की थी।राजा परीक्षित सब देशों की विजय करते हुए, एक ऐसे स्थान पर पहुंचे, जहां गाय और बैल आपस में बातें कर रहे थे ।परीक्षित में दिव्यता थी ,अतः उनकी बातें समझ सकते थे।उन्होंने समझ लिया ,कि गाय तो पृथ्वी है, और धर्म बैल है,जिसके 3पाँव( तप, शौच और दया )टूटे हुए थे।
- पृथ्वी दुखी तभी होती है, जब सर्वत्र अधर्म फैल जाता है -जैसा आजकल है। उन्होंने पृथ्वी और धर्म का संवाद सुना, और उन्हें सुखी करने का आश्वासन दिया। उन्होंने बैल के टूटे हुए तीनों टांगे जोड़ दिया, और पृथ्वी का संवर्धन किया। भागवत 1. 17.42
- परीक्षित जब और आगे बढ़े, तब उन्होंने देखा,कि एक व्यक्ति जिसके शरीर पर राजा के चिन्ह है -सिर पर मुकुट है, वस्त्र भूषण है, हाथ में तलवार है, बैल को मार रहा है ,धर्म का नाश कर रहा है। आजकल के सत्ताधारी भी धर्म विनाशक है।उन्होंने उसे मारने के लिए शस्त्र उठा लिया। उसको ललकारा! कि तू मेरे राज्य में वृषभ को, धर्म को,मारने वाला कौन है?
- यह सुनते ही उस व्यक्ति ने राजा के चिन्ह छोड़ दिये, और साधारण पुरुष की तरह राजा परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा।परीक्षित ने कहा कि शरणागति भी धर्म है, इसलिए तुझे मारूंगा नहीं,लेकिन तू मेरे राज्य में मत रह। वह व्यक्ति कलि था ।उसने कहा, कि महाराज आपकी आज्ञा शिरोधार्य है ।लेकिन आपका राज्य तो सब जगह है, मैं कहां जाऊं ?अंततोगत्वा कलि को ,रहने के लिए पांच स्थान निर्धारित हो गए, यथा-द्युत,मद्यपान, पर स्त्री संग, हिंसा और स्वर्ण अर्थात जहां झूठ, मद ,धर्म विरुद्ध काम ,वैर और काला धन हो, वहाँ कलि का वास रहता है।
- परीक्षित ,धर्म पूर्वक प्रजापालन करते थे ।एक समय ,वे शिकार खेलने वन में जाते हैं, वहां प्यास लगने पर समाधिस्थ ऋषि शमीक से पानी मांगते हैं ,न मिलने पर ऋषि के गले में मरा सर्प पर डाल देते हैं और उनका पुत्र श्रृंगी आकर ,7 दिन के अंदर सर्पदंश से मृत्यु होने का शाप दे देता है।
- परीक्षित के मन में क्षोभ एवं क्रोध क्यों आया ,यह प्रश्न हो सकता है। स्वर्ण धारण के कारण, अथवा अन्य किसी कारण, कलियुग के प्रभाव से उनकी बुद्धि भ्रष्ट नहीं हो सकती थी ।उनकी बुद्धि भगवदीय थी। वास्तव में भगवान उनकी मृत्यु को ,सब लोगों के लिए ,सब काल के लिये, कल्याणकारी बनाना चाहते थे ।अतः परीक्षित के क्रोध को निमित्त बनाकर ,भगवान ने सदा के लिए भागवत के रूप में, "वाँगमय अवतार" ग्रहण किया। शाप की बात ज्ञात होने पर,परीक्षित राज्य त्यागकर गंगा के किनारे आ जाते हैं ,और वहीं पर शुकदेव जी का आगमन होता है।
- श्री शुकदेव जी निर्गुणनिष्ठ परमहंस होने पर भी ,भक्ति में निमग्न रहते हैं। वे वैष्ण भी हैं ,और शैव भी। कथा की वैष्ण परंपरा बताई जा चुकी है - कथा नारायण से ब्रह्मा जी को➡ नारद जी को➡ व्यास जी को➡ शुकदेव जी को प्राप्त हुई है। कौशिकी संहिता के अनुसार ,यह शैव परंपरा भी है। एक बार शंकर जी ,गौरी जी को श्रीमद् भागवत की कथा, अमरनाथ गुफा में सुना रहे थे ।वहीं पर तोते का (शुक का) एक मरा हुआ अंडा पड़ा था।शंकर जी की वाणी के, तांत्रिक प्रभाव से वह जीवित हो गया ।मानो, मृत -संजीवनी- मंत्र का प्रयोग हो गया हो। वहां से शुक भाग कर व्यास जी की पत्नी के शरीर में प्रवेश हो गया और गर्भ से 12 वर्ष तक नहीं निकला ।भगवान के आने पर ही शुकदेव जी के रूप में बाहर आया।अस्तु शिव जी की कही और गौरी जी द्वारा सुनी कथा, शुक ने भी सुनी अतः वे शैव भी हैं।
- श्री भागवत पुराण अनादि है, सनातन है ,प्रवाह रूप से नित्य है। श्री शुकदेव जी के मुखामृत से, वैश्णवी कथा तंत्र रूप भी हो गई। उसके सब अधिकारी हो गए ,और श्रवण मात्र से जीव का उद्धार करने वाली हो गई ।
निगम कल्पतरोर्गलितं फलम ।
शुकमुखादमृतद्रव संयुक्तम।।
पिवत भगवतम रसमालयम।
मुहु रहो रसिका भुवि भावुकाः।।
- परीक्षित ; ऋषिकुमार के शाप को स्वीकार कर ,प्रसन्न चित्त ,आमरण अनशन व्रत लेकर गंगा तट पर आ गए हैं, यह बात सुनकर वहां पर- अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्ठनेमी ,भृगु, अंगिरा ,पराशर ,विश्वामित्र परशुराम ,देवल, भरद्वाज ,गौतम,पिप्पलाद ,मैत्रेय,अगस्त्य, व्यास तथा नारद आदि भी आ गए ।परीक्षित ने सबका यथा योग्य सत्कार और प्रार्थना की ।
- उसी समय भगवान की कृपा से ,व्यास नंदन श्री शुकदेव जी वहां प्रकट हो गए ।उनका वेश अवधूत जैसा रहता है।वे अत्यंत सुंदर सुकुमार 16 वर्ष की आयु वाले दिखते हैं ।वह श्याम रंग के श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी हैं ।राजा परीक्षित ने उन्हें श्रेष्ठ आसन पर विराजमान कराके पूजा और प्रार्थना की। राजा ने मधुर वाणी में ,अपनी जिज्ञासा प्रकट करी- भगवन !जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिए ?मनुष्य मात्र का क्या कर्तव्य है ?वह किसका श्रवण ,किसका जप, किसका स्मरण, और भजन करे तथा किस का त्याग करे ? श्री शुकदेव जी के उत्तर से ,दूसरा स्कंध प्रारंभ हो जाता है।
द्वितीय स्कंध
- श्री भागवत जी के प्रथम स्कंध में ,अधिकार का निरूपण किया गया है ।श्रोता -वक्ता कैसे होने चाहिए। दूसरा स्कंध साधन प्रधान स्कंध है ।इसमें केवल 10 अध्याय हैं, जिनमें परमात्मा की प्राप्ति के साधन बताए गए हैं, जो मुख्य रूप से श्रवण है ।श्रवण के मुख्य अंग है- ध्यान, श्रद्धा और मनन । 10 अध्यायों में से ,पहले दो अध्यायों में ध्यान ,उसके बाद दो अध्याय में हृदय की निर्मलता था श्रद्धा का वर्णन है। शेष 6 अध्यायों में मनन का वर्णन है ।
- प्रतिबंध और संशय व विपर्यय से रहित भागवत श्रवण जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करा देता है। संशय से बचने के लिए भाव रूप श्रद्धा और विचार रूप मनन है तथा विपर्यय से बचने के लिए भाव रूप आत्माकार वृत्ति का प्रवाह और बोध है।
- परीक्षित जी के मुख्य प्रश्न का उत्तर सुखदेव जी महाराज संक्षेप में दे रहे हैं -परीक्षित! तुम्हारे पास तो 7 दिन का समय है, राजर्षि खटवांग( राम जी के पूर्वज), स्वर्ग में देवताओं से अपनी आयु की समाप्ति का समय जान कर ,दो घड़ी में ही वहीं सब कुछ त्याग कर अमर पद को प्राप्त हो गए ।
- मृत्यु का समय निकट आने पर घबराएं नहीं ।जीव को, वैराग्य के शस्त्र से ,शरीर और उससे संबंध रखने वालों के प्रति ममता को काट डाले। स्नान कर ,पवित्र तथा एकांत स्थान में विधि पूर्वक आसन लगाकर बैठ जाए ।तत्पश्चात ओम प्रणव का जाप करता रहे। बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा ,इंद्रियों को उनके विषयों से हटा ले ,और मन के संकल्प - विकल्प छोड़कर ,उसे भगवान के मंगल रूप में लगाए रखें ।
- मृत्यु के समय भगवान की स्मृति बनाए रखने के लिए, ध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिए। यदि मन ध्यान के समय, रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से लय होता हो ,तो उसे धैर्य पूर्वक योग धारणा से वश में करने का अभ्यास करना पड़ता है ।धारणा के लिए अगली पोस्ट देखें।
- श्री शुकदेव जी महाराज, धारणा की दो विधियों में से ,एक को बताते हुए कहते हैं, कि विराट पुरुष के कटि प्रदेश के नीचे, 7 भुवन क्रमश: अतल➡ वितल➡ सुतल ➡तलाताल➡ महातल➡ रसातल ➡पाताल (तलवा) और कटिप्रदेश के ऊपर भी, सात भुवन क्रमशः भूलोक➡ भुवर्लोक➡ स्वर्ग ➡ब्रह्मलोक➡ जनलोक➡ तपलोक ➡सत्यलोक हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड- प्रपंच को भगवान के विराट विग्रह में न्यास करते हुए ,यह धारणा करनी चाहिए, कि संपूर्ण नदियां ,वृक्ष ,पर्वत, मेंघ, महतत्त्व,प्राणी मात्र और ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र आदि सबका भगवान के विराट रूप में ही सन्निवेश है ।इसको विस्तार से जानने के लिए भागवत 2.1 .23..37 को, देखना चाहिए । सारी सृष्टि के बारे में यह धारणा बना लेनी चाहिए, कि सब में, सब समय, सर्वत्र, एक परमात्मा सच्चिदानंद घन भरा हुआ है। ब्रह्म का चिंतन करता हुआ जीव स्वयं ब्रह्म रूप बन जाता है। यही कैवल्य मुक्ति है ।
- धारणा की दूसरी विधा में, साधक अपने शरीर के भीतर हृदयाकाश में, विराजमान भगवान के अंगुष्ठनमात्र स्वरूप की धारणा करते हैं ।इस धारणा का पूरा विवरण भागवत 2.2.8... 12 ,में देखना कर्तव्य है ।भगवान के चरण कमलों से लेकर, उनके मुस्कान युक्त मुख कमल परयंत्र, समस्त अंगों की एक-एक करके ,बुद्धिद्वारा धारणा करना चाहिए ।जब एक अंग का ध्यान ठीक ठीक होने लगे,तब उसे छोड़कर दूसरे अंग का ध्यान करना चाहिए।
- सगुण, निर्गुण सब कुछ भगवान का स्वरूप है। साधक में प्रेम भक्तियोग उदय होने तक, नित्य- नैमित्तिक कर्मों के बाद, एकाग्रता से भगवान के उपर्युक्त स्थूल रूप का ही चिंतन करते रहना चाहिए ।वैष्णव आचार्य ,पहले द्वैत का नाश करते हैं, और अद्वैत प्राप्त करते हैं ।फिर काल्पनिक द्वैत बनाए रखते हैं ,जिससे कन्हैया की गोपी भाव से पूजा की जा सके,यह अद्भुत है ।
- धारणा द्वारा जिनका अंतःकरण शुद्ध है, ऐसे यति देह त्याग के समय, सद्योमुक्ति अथवा क्रममुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। देह त्याग के समय, यति मन को देश, काल की आसक्ति से हटा लेता है ।आसन पर बैठकर पहले एड़ी से मूलाधार को दबाकर स्थिर हो जाता है। फिर प्राणवायु को षट चक्र भेदन की रीति से, ऊपर ले जाता है ।अर्थात मूलाधार➡ स्वाधिष्ठान➡ मणिपुर➡ अनाहत ➡तथा विशुद्धि चक्र तक ले जाया जाता है। धीरे-धीरे तालूमूल (विशुद्धि चक्र का अग्रभाग )होते हुए आज्ञा चक्र तक ले जाया जाता है। यदि किसी लोक में जाने की इच्छा न हो, तो थोड़ी देर वायु को वहां रोककर, स्थिर लक्ष्य के साथ परमात्मा में स्थित हो जाए,और ब्रह्मरंध्र भेदन द्वारा देह का त्याग कर दे। इसी को सद्यो मुक्ति कहते हैं।क्रममुक्ति के लिए अगली पोस्ट देखना चाहिए ।
- श्री शुकदेव जी, सद्योमुक्ति के बाद क्रममुक्ति का वर्णन करते हैं ।यदि योगी की इच्छा हो ,कि मैं ब्रह्मलोक में जाऊं, आठों सिद्धियां प्राप्त करके आकाश चारी सिद्धों के साथ विहार करूं, तो उसे लिंग शरीर को साथ लेकर, निकलना चाहिए। योगीलोग जहां चाहे ,वहां जा सकते हैं। वे सुषुम्ना नाड़ी से, ब्रह्मलोक पथ के द्वारा पहले अग्निलोक में जाते हैं, फिर शिशुमार चक्र में जाते हैं। शिशुमार चक्र विश्व ब्रम्हांड के भ्रमण का केंद्र है। उसका अतिक्रमण करके ,अति सूक्ष्म एवं निर्मल शरीर से, अकेला ही महर्लोक को जाता है। वहां से ब्रह्मलोक, सत्यलोक चला जाता है। महाप्रलय के समय वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।इस प्रकार शुकदेव जी ने वेदोक्त द्विविधि सनातन मार्ग - सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति का वर्णन कर दिया ।
- शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित! तुमने मुझसे पूछा था - कि मरते समय बुद्धिमान पुरुष को क्या करना चाहिए, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया है। यहां,शुकदेव जी चाहते ,तो चर्चा को विश्राम दे देते। किंतु उनकी विशेष कृपा परीक्षित पर होने से, मृत्यु का समय आने तक,सत्संग चलाए रखना चाहते हैं।परीक्षित के मन में ,मृत्यु के समय तक, निरंतर भगवान का स्मरण बनाएं रखने के लिए, आगे अनेक प्रश्न -उत्तर हैं, जिससे 7 दिन तक अविराम कथा चलती रहती है ।
- श्री शुकदेव जी बताते हैं ,कि भिन्न-भिन्न कामना वाले मनुष्य भिन्न भिन्न देवताओं की आराधना -पूजा करते हैं, और उनकी मनोकामना पूरी होती है। लेकिन बुद्धिमान पुरुष को- वह चाहे निष्काम हो, चाहे समस्त कामनाओं से युक्त हो, अथवा मोक्ष चाहता हो, उसे तो तीव्र भक्ति योग के द्वारा, केवल पुरुषोत्तम भगवान की आराधना करनी चाहिए। प्रेमी भक्तों का संघ करते रहने पर भगवान की ललित कथाएं होती रहती हैं, और दुर्लभ ज्ञान प्राप्त होने से, कैवल्य मोक्ष का सर्व सम्मत मार्ग- "भक्ति योग" प्राप्त हो जाता है।
- कथा नेमीशरण में श्री सूत जी, कुलपति शौनक जी को सुना रहे हैं ।श्रोता -वक्ता का हृदय निर्मल होने से तथा उनके बीच श्रद्धा- विश्वास होने पर, कथा में रस बढ़ता रहता है ।शौनक जी ने कहा -सूत जी! राजा परीक्षित व परमहंस शुकदेव जी दोनों परम भागवत है। मुख्य प्रश्न का उत्तर हो जाने पर भी, क्या उनकी वीच रसमयी लीला कथाएं होती रहीं? सूत जी कहते हैं;- परीक्षित ने श्रद्धा से भगवान की महिमा सुनने के लिए फिर से प्रश्न कर दिया:- "मैं जानना चाहता हूं ,कि भगवान अपनी माया से इस संसार की सृष्टि कैसे करते हैं? ब्रह्मांडों को कैसे बनाते हैं, कैसे मिटा देते हैं ?इस सब में किन-किन शक्तियों का प्रयोग करते हैं?" शुकदेव जी उत्तर देने की अभिप्राय से, मंगलाचरण प्रारंभ करते हैं। वास्तव में अवधूत शिरोमणी शुकदेव जी प्रेम अतिरेक के कारण, प्रारंभ में मंगलाचरण करना भूल गए थे ।उसी का सुधार कर रहे हैं। भागवत 2.4 .12 से 24।
- राजा परीक्षित का कथा श्रवण चलता रहने के प्रति, प्रेम पूर्ण आग्रह देखकर ,श्री शुकदेव जी ने मंगलाचरण प्रारंभ किया,यह हमारी परंपरा है। मंगल उसको कहते हैं- जिससे आदमी अपने काम में आगे बढ़े। पूरा मंगलाचरण ग्रंथ में देखना चाहिए। यहां हम केवल एक श्लोक का भावार्थ कर रहे हैं:- जो बड़े भक्तवत्सल हैं ,और भक्तिहीन साधन करने वाले ,जिनकी छाया भी नहीं छू सकते। जिनके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं है ,फिर उससे अधिक कैसे हो सकता है ?ऐसे ऐश्वर्य से युक्त होकर, जो निरंतर ब्रह्म स्वरूप ,अपने धाम में बिहार करते रहते हैं ,उन भगवान श्री कृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूं ।भागवत 2,4.14 ।
- इस श्लोक में "राधसा" शब्द आया है ।जिसका अर्थ कुछ संत राधिका जी से जोड़ते हैं। श्री राधा जी शुकदेव जी की गुरु है ,इसलिए उनके नाम का उल्लेख भी भागवत में नहीं है। गुरु का प्रकट रूप से नाम लेना शास्त्र विरुद्ध है।
- द्वितीय स्कंध के तीसरे और चौथे अध्याय में श्रोता -वक्ता के हृदय के प्रसाद की कथा है। राजा परीक्षित अत्यंत विवेकी एवं श्रद्धा संपन्न है। अब तक की कथा द्वारा जो कुछ ममता का लेश चित्त में शेष था ,वह भी मिट गया ।वे प्रसन्न हृदय से, अत्यंत विनय के साथ, शुकदेव जी महाराज के सामने अपनी जिज्ञासा प्रकट करने लगे। श्री शुक का हृदय अत्यंत निर्मल है। स्वयं आत्माराम, निर्गुणनिष्ठ होने पर भी, भगवान और उनके चरित्र के प्रति अत्यंत आदर है। भक्त की श्रद्धा ने उन्हें नमस्कार- प्रवण कर दिया ।वह भगवान की स्मृति धारा में निमग्न होकर स्तुति करने लगे ।2.4 .12-24 ।
- प्रभु का कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वंदन, श्रवण और पूजन प्राणी मात्र की पाप राशि को तत्काल नष्ट कर देता है। संसार का श्रम और क्लेस मिटा देता है। मंगलाचरण के बाद, श्री शुकदेव जी कहते हैं ,परीक्षित! तुम्हारी जिज्ञासा शांति के लिए जो तथ्य बताने जा रहे हैं, यह नारायण ने➡ ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने➡ नारद को, नारद ने ➡व्यास को और मेरे पिता व्यास जी ने➡ मुझको बताया है। स्मरण रहे सनातन धर्म में, मनमानी कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है ।वे भगवदीय परंपरा से चली आ रही होती है।
- परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्रवण ,कीर्तन तथा स्मरण करना कर्तव्य है। श्रवण के तीनों अंगों में से दो अंगो- ध्यान तथा हृदय के प्रसाद की मीमांसा दूसरे स्कंध के, 4 अध्यायों में पूरी हो चुकी है। अब तीसरे अंग मनन पर विचार करना है ।
- मनन के दो प्रकार हैं- अर्थात उत्पत्ति के द्वारा, दूसरा व्यतिरेक अर्थात उपपत्तियों के द्वारा। इस स्कंध के, 5 से 7,तीन अध्यायों में उत्पत्ति के द्वारा ,मनन की प्रक्रिया है, और आठवीं से दसवीं तक उपपत्ति के द्वारा। जगत, जो अनित्य है, उसकी उत्पत्ति होती है।जीव, जो नित्य और परिछन्न है, उसका अनित्य से समागम होता है। जो नित्य अपरिछिन्न परमात्मा है, उसमें सृष्टि- माया द्वारा निर्मित होती है। उत्पत्ति के प्रसंग के निरूपण में, पहले माया से जगत की उत्पत्ति, फिर जीव का समागम और तत्पश्चात भगवान के अवतारों का वर्णन है। ब्रह्मबोध अन्वय तथा व्यतिरेक के द्वारा ही संभव हो पाता है ।
- श्रीमद् भागवत में कम से कम 6 स्थानों पर सृष्टि विषयक प्रश्न और उसके उत्तर की चर्चा हुई है। सृष्टि वर्णन की भाषा में वहिरंग दृष्टि से अंतर दिखाई दे सकता है ।ऐसा इस कारण है- कि जो माया में विविध कल्पना रूप प्रपंच है, जो वस्तु नहीं केवल नाम है, उसके वर्णन में अंतर हो जाता है। मनन का उद्देश्य तो अज्ञानता वश, प्रकृति की विकृतियों के विभिन्न स्तरों से, किये तादात्म्य को छोड़ना है। सृष्टि से चिपकना सब विपत्तियों की जड़ है। सृष्टि-- सिद्धांत के धरातल से परे होते ही ,आत्म साक्षात्कार हो जाता है।
- श्रीनारदजी के प्रश्न का उत्तर देते हुए ,श्री ब्रह्मा जी ने बताया है कि- अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव सहित 14 भुवन वाले अनेक ब्रह्मांडों वाला, विराट भगवान का शरीर, किस प्रकार का है। सातवेंअध्याय में, 24 अवतारों का भी वर्णन है। मोबाइल पोस्टों में उनकी लीला कथा का वर्णन संभव नहीं है। अतः उसे मूलग्रंथ में ही देखना चाहिए।
- परीक्षित, कथा श्रवण में रस ले रहे थे, अतः अध्याय 8 में पुनः अनेक प्रश्न करते हैं। उत्तर में शुकदेव जी कहते हैं, कि जब ब्रह्मा जी ने प्रलय वारि में दिव्य तप किया ,तब वे नारायण के दिव्य लोक में पहुंच गए। वहां नारायण का दर्शन हुआ ।उनके चारोंओर- पुरुष ,प्रकृति ,महत्व, अहंकार ,मन ,दस इंद्रियां,पंच तन मात्राएं, और पंचमहाभूत- ये 25 तत्व मूर्तिमान शक्ति के रूप में उनके चारों ओर खड़े थे। दृश्य जगत की रचना में ये ही हेतु हैं।
- नारायण ने ब्रह्मा जी से हाथ मिला कर (भागवत 2.9. 18) उन्हें अपनाया और कहा कि जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम -पर्यवसन मेरे दर्शन में है । ब्रह्मा जी ने उनकी विनती करी और वरदान मांगा ,"कि मैं आपके सगुण और निर्गुण दोनों रूपों को जानकर कुशलता पूर्वक आपकी सेवा रूप कार्य सृष्टि रचना में लगा रहा हूं"। उत्तर में भगवान ने चतुश्लोकी भागवत का उपदेश किया है। नारायण जी ने उत्तर दिया, ब्रह्माजी! अपरोक्षानुभूति, प्रेमाभक्ति तथा साधनों से युक्त, अत्यंत गोपनीय अपना स्वरूप -ज्ञान (चतुश्लोकी भागवत) मैं तुमसे कहता हूं -तुम उसे ग्रहण करो!
- पहला श्लोक 2.9 .32 ।ब्रह्म तत्व का परिचय:- सृष्टि व्यक्त होने से पहले, मैं (परम सत्य) ही था ।मूर्त अर्थात स्थूल तथा सूक्ष्म अर्थात अमूर्त कुछ भी न था।सृष्टि रूप में अभी मैं ही हूं, और महाप्रलय के बाद मैं ही रहूंगा। भगवान कह रहे हैं कि "मैं ही था" ,और केवल था ही था, क्रिया -प्रणा आदि कुछ भी न था। निष्क्रिय सत्ता मात्र में ही था,दूसरी कोई सद -असद वस्तु नहीं थी। "परमात्मा का स्वरुप अद्वितीय है", यह बताने के लिए यह सब कुछ कहा गया है। हृदयस्थ आत्मा के अनुसंधान से अविद्या निवृत्ति हो जाती है।
- नारायण, ब्रह्मा जी को सृष्टि रहस्य का दूसरा सूत्र बताते हैं। भागवत , 2.9 .33 ।माया तत्व का परिचय:-जो न हो, उसे दिखा दे और जो वास्तविकता है, उसे छुपा दे- इसी को माया कहते हैं ।जादूगर कहे जाने वाले लोग ,इस प्रकार के अनेक खेल मंच से दिखाते रहते हैं। बिना हुए जगत प्रतीत हो रहा है, आत्मा है- लेकिन प्रतीत (उपलब्ध) नहीं हो रहा है। मेरी माया के प्रभाव से आंख में उंगली लगा कर जब देखते हैं ,तो दो चंद्रमा भासते हैं ,जबकि दूसरा चंद्रमा होता नहीं ।वैसे ही जगत न होते हुए भी ,व्यक्तित्व न होते हुए भी ,जीवत्व ना होते हुए भी, प्रतीत हो रहे हैं ।यह आत्मा का अज्ञान है, परमात्मा की माया है।
- नारायण, ब्रह्मा जी को सृष्टि रहस्य का तीसरा सूत्र बताते हैं। भागवत 2.9.34, जगत तत्व का परिचय:- जगत में कार्य कारण भाव देखने में आता है – आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वीः, और फिर पंजीकृत स्थूल पंचभूत जो सृष्टि के अंतिम कार्य हैं, बनते हैं ।योग दर्शन, सांख्य दर्शन तथा वेदांत दर्शन के अनुसार स्थूल पंचमहाभूत अंतिम कार्य है, अब वे किसी के कारण नहीं बन सकते। दृश्य जगत पंच भूतों में गढी हुई आकृतियां है, पंच भूतों में सारे शरीर भास रहे हैं। भगवान कहते हैं - जैसे पांचो भूत -आकारों में, प्रविष्ट (अनुगत, व्याप्त) भी हैं ,और प्रविष्ट नहीं भी है ,वैसे ही जो चिन्मय अस्तित्व है, वह जगत में प्रविष्ट भी है और प्रविष्ट नहीं भी है ।गीता, 9.4.5 का भी ऐसा ही भाव है।
- भगवान नारायण, ब्रह्मा जी को शक्ति रहस्य का चौथा सूत्र बताते हैं । भागवत 2.9 .35। आत्म तत्व का परिचय:- जो आत्म तत्व को जानना चाहते हैं ,उनके लिए इतना ही जान लेना पर्याप्त है, कि वह अन्वय और व्यतिरेक की युक्ति से जाना जाता है। युक्ति यह है- कि घड़ा नहीं बना था तब भी माटी थी ,और जब बनाया गया तब भी माटी है ,औरजब वह फूट गया तब भी माटी है।घड़े की सर्व दशा में, मिट्टी का अन्वय है ।मिट्टी होने पर ही घड़ा होता है,और घड़ा न रहने पर भी घट से मृतिका व्यतिरिक्त है। अस्तु जो वस्तु अन्वय- व्यतिरेक से सर्वदा,सर्वत्र, सर्व रूप में है, वह निश्चय ही आत्म तत्व है ।आत्म तत्व से ही सब की सिद्धि एवं प्रसिद्ध है। सृष्टि न होने पर भी, आत्म तत्व का निषेध नहीं किया जा सकता।
- भगवान नारायण, ब्रह्मा जी से कहते हैं कि जो परम सत्य का असली जिज्ञासु है, उसे केवल उपरोक्त चारों श्लोकों में कह गए तथ्य पर ही विचार करना है। वह व्यक्ति इन्हें नहीं समझेगा ,जो केवल यह जानना चाहता है- कि रोटी ,कपड़ा ,मकान ,आरक्षण तथा सत्ता आदि क्या है, उन्हें कैसे प्राप्त करें। उसका जीवन तो अविद्या माया के नशे में बीत रहा है । इस प्रकार चतुश्लोकी भागवत में भगवान ने ,ब्रह्मा जी को निमित्त बनाकर समस्त जिज्ञासु को ,अपने अनंत विस्तार का, अपनी माया के खेल का, सृष्टि की उत्पत्ति का और जीव जगत के अंतिम ज्ञातव्य का वर्णन किया है। उपरोक्त चारों श्लोकों को समझाने के लिए ही, पूज्य व्यास जी ने 18000 लोगों की रचना की है।जिन साधकों ने इन चारों के भाव को आत्मसात कर लिया है, उन्हें फिर संसार में कुछ भी जानने योग्य नहीं बचता।
- द्वितीय स्कंध के अंतिम दसवें अध्याय में, सुखदेव जी महाराज ने यह बताया ,कि भागवत जी में 10 वस्तुओं के द्वारा परमात्मा के स्वरूप का निरूपण है, वह है:-
सृष्टि कैसे हुई➡ "सर्ग" तृतीय स्कंध।
विविध योनियों कैसे बनी" ➡"विसर्ग"चतुर्थ स्कंध।
सृष्टि किस स्थान पर टिकी है➡ "स्थिति"पंचम स्कंध।
सूखने पर इसे कौन सींचता है➡" पुष्टि" अष्टम स्कंध।
वासनाँयें कैसी-कैसी होती है ➡"कर्म वासना" सप्तम स्कंध।
काल का विभाग कैसे होता है ➡"सद्धर्म" अष्टम स्कंध।
भक्तों के चरित्र कैसे होते हैं ➡"वंश कथा" नवम स्कंध।
भगवान के प्रेम से मन का निरोध कैसे होता है➡ "निरोध" दशम स्कंध।
मुक्ति क्या है➡ "मुक्ति" एकादश स्कंध।
सबके अधिष्ठान परमात्मा का स्वरूप क्या है➡ "आश्रय" द्वादश स्कंध ।
इस प्रकार ग्रंथ की विषय वस्तु और प्रयोजन पहले दो स्कंधों से स्पष्ट किया गया और शेष 10 स्कंधों से आश्रय तत्व सार यह निकला, कि अद्वय-परम सत्य के आवरण भंग में ,भागवत जी को परम तात्पर्य है-जिसका साधन श्रवण है।
तृतीय स्कंध
- तृतीय स्कंध में सर्ग सृष्टि का वर्णन है ।दृश्य सृष्टि दो चरणों में पूरी होती है, एक सर्ग- तत्व क्रम से अर्थात ईश्वरी या स्वरुप सृष्टि और दूसरी विसर्ग- कर्मानुसार अर्थात जीवसृष्टि या वाह्य सृष्टि। सब प्रकार की सृष्टि में भगवान की व्यापकता और उनका अनुशासन आवश्यक है ।सृष्टि का सारा दारोमदार और आधार ईश्वर पर है। इसका रहस्य जानने की प्रबल जिज्ञासा साधक में रहती है। जगत किस धातु का बना है, कैसे बना है ,यह जाने बिना साधना का विज्ञान समझ में नहीं आता और उसमें रुचि नहीं होती। तीसरे स्कंध में 33 अध्याय हैं। श्री गीता 16 .6 के अनुसार दो प्रकार के भूत सर्ग होते हैं- एक देव सर्ग और दूसरा असुर सर्ग। तीसरे स्कंध में पहले 19 अध्यायों में असुर सर्ग का और अगले 14 अध्यायों में देव सर्ग का वर्णन है। असुर सर्ग में हिरण्याक्ष वह हिरण्यकश्यप की कथा है। और देव सर्ग में मनु -शतरूपा, कर्दम -देवहूति की वंश परंपरा का वर्णन है।
- शौनक- सूत संवाद के अनुसार, श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं, कि राजा परीक्षित तुमने जैसा प्रश्न किया है, ऐसा ही प्रश्न मैत्रेय जी से विदुर जी ने किया था। कथा में रस लेने के लिए, प्रसंग का स्मरण रखना कर्तव्य है। एक ओर नैमिषारण्य में सूत- शौनक संवाद हो रहा है, और दूसरी ओर गंगा जी के तट पर शुक- परीक्षित संवाद चल रहा है। अब विदुर- मैत्रेय संवाद का श्रीगणेश हो रहा है ।तीनों संवाद परस्पर बद्ध हैं राजा परीक्षित ने प्रश्न किया -कि विदुर और मैत्रेय कहां और कैसे मिले। प्रश्न सुनकर शुकदेव जी बहुत प्रसन्न हुए और बोले, कि विदुर जी ने अपना घर त्यागा और तीर्थों का सेवन करने लगे।
- प्रसंग यह है कि दुर्योधन ने पांडवों को लाक्षा भवन में बंद करके जलवाने की और बाद में भरी सभा में द्रोपदी के बाल पकड़कर नंगा करने की कुचेष्टा की। किंतु धृतराष्ट्र ने राजा होकर भी, अपने पुत्रों और उनके साथियों को कुकृत्य से निवारण नहीं किया ।खल मंडली ने छल पूर्वक पांडवों को जीता और वनवास दे दिया। लौट कर आने पर, शर्त अनुसार उनका हिस्सा नहीं दिया। श्री कृष्ण राजदूत बनकर आए धृतराष्ट्र ने उनकी बात नहीं सुनी ,परिणाम स्वरुप अंदर से घोर अशांति हो गई।
- आगे के प्रसंग में, शुकदेव जी बताते हैं की चिंता के मारे धृतराष्ट्र की नींद उड़ गई। विदुर जी बुलाए गए। उन्होंने सलाह दी - जो विदुर नीति के नाम से विख्यात है। उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा- तुम्हें अपने तथा पांडु के पुत्रों के साथ विषमता का व्यवहार नहीं करना चाहिए। श्री कृष्ण ने पांडवों को अपना लिया है। तुम्हारे घर में दुर्योधन रूपी कलियुग का अवतार हुआ है और वह वंश का नाश करने के लिए आया है। इस सलाह को धृतराष्ट्र ने नहीं माना।
- दुर्योधन ने विदुर को, बुरा- भला कह कर वहां से चले जाने को कहा। विदुर ने युद्ध न करने की प्रतिज्ञा कर धनुष बाण द्वार पर रख दिया और अवधूत वेष में वहां से तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। यदि संयम पूर्वक तीर्थ यात्रा की जाए तो उससे अंतः करण की शुद्धि होती है। जिसके हाथ, पांव, जीभ, मन -ये सब काबू में रहते हैं, जो दान करता है, तप करता है, कीर्तन करता है उसको तीर्थ का फल अवश्य प्राप्त होता है।
- प्रसंगवश विदुर जी के व्यक्तित्व को जान लेना कर्तव्य है। विदुर गृहस्थ हैं, सुलभा उनकी पत्नी है। धृतराष्ट्र उनके बड़े भाई हैं, और वह कौरवों के प्रधानमंत्री भी हैं। वस्तुतः विदुर देवता स्वरूप यमराज ही थे। शाप के कारण, शुद्र माता से जन्म लेना पड़ा,और 100 वर्ष तक शुद्र रहे भी। 100 वर्ष बीत जाने पर उनकी शूद्रता की निवृत्ति हो गई। वे व्यासपुत्र हैं ।श्री कृष्ण ने उन्हें अपना कर उनके घर भोजन किया था।वे धृतराष्ट्र के समकाल ही उत्पन्न हुए थे, और श्री कृष्ण के जन्म से पूर्व ही उनका जन्म हुआ था।सूद्रत्व निवृत्ति हो जाने पर भी ,वे श्री कृष्ण प्रेम के कारण मृत्युलोक में बने रहे, और सत्संग प्राप्त करके, उन्होंने उद्धव जी व मैत्रेय जी से कथा का श्रवण किया। तीर्थ यात्रा से वाह्य प्रतिबंध की निवृत्ति होती है। आंतरिक प्रतिबंध की निवृत्ति तो भगवत कथा श्रवण से ही होती है। अतः विदुर का प्रसंग भगवत कथा में विश्वास उत्पन्न करने वाला है।
- विदुर जी विभिन्न तीर्थों का भ्रमण करते हुए,जब वृंदावन में यमुना तट पर पहुंचे, तब उनकी भेंट उद्धवजी से हो गई ।उनसे विदुर जी ने, द्वारिका तथा पांडवों का कुशल मंगल पूछा । जब तक भगवान श्रीकृष्ण अंतर्धान हो चुके थे, जिससे विदुर जी अनिभिज्ञ थे ।यादवों में सिर्फ उद्धव जी ही बचे थे। उद्धवजी बहुत बड़े विद्वान, विज्ञ मंत्री, गुप्त रहस्य के ज्ञाता और तत्व ज्ञानी होते हुए भी, विदुर जी द्वारा कुशल मंगल पूछने पर, श्री कृष्ण के स्मरण में मगन हो गए। उनकी आंखों से आंसू गिरने लगे ,और उनको रोमांच हो गया। थोड़ी देर बाद ,जब उद्धवजी सामान्य हुए ,तब विदुर जी के प्रश्नों का उत्तर देने लगे ।उन्होंने श्री भागवत जी के 69 श्लोकों 3.2.7 से 3.4 .13 तक में ,भगवान कृष्ण की लीलाओं का स्मरण किया है। सच्चे साधक को उनका अध्ययन या श्रवण कर मनन करना चाहिए। इससे अंतः करण की शुद्धि होगी और वही मानव जीवन की सफलता है। लीलाओं का स्मरण करने के बाद, उद्धव जी ने कहा -विदुर जी! लीला संभरण करते समय भगवान ने ,भागवत् ज्ञान देकर, मुझे बद्रीनाथ जाने की आज्ञा दी थी,अतः मैं वही जाकर तपस्या और भगवान की आराधना करूंगा, फिर जैसी उनकी आज्ञा होगी वैसा करूंगा। इस पर विदुर जी ने अनुरोध किया, कि आप मुझे वह ज्ञान सुनाइए, जो श्री कृष्ण ने आपको दिया है। उद्धव जी ने कहा, कि विदुर जी !पर धाम जाते समय भगवान ने आपको याद किया। मैत्रेय जी भी उस समय वहां थे। उन्होंने उपदेश देने के बाद ,मैत्रेय जी को आज्ञा दी,कि जब विदुर जी तुमसे मिले ,तब तुम उन्हें मेरे ज्ञान का उपदेश कर देना। इसलिए आप मैत्रेय जी के पास चले जाइए। उसके बाद उद्धव जी ने वह रात यमुना पुलिन पर विताई, और दूसरे दिन बद्री बन को चले गए, जहां आज भी ,वहां हैं। मैत्रीय मुनि हरिद्वार क्षेत्र में,गंगा जी के किनारे ,विराजमान थे ।विदुर जी जमुना किनारे से चलकर उनके पास पहुंच गए।
- मैत्रेय ऋषि के पास पहुंचकर, विदुर जी ने विधिवत प्रणाम किया और अपनी जिज्ञासा अनेक प्रश्नों द्वारा व्यक्त करी है। संसार के लोग अपने- अपने सुख के लिए जीवन भर कर्म करते हैं, परंतु उससे न तो उन्हें सुख मिलता है और ना उनका दुख दूर होता है, अतः इस विषय में क्या करना चाहिए?आप हमको तत्तवाधिगम- सहित भागवत ज्ञान प्रदान करने की कृपा करें। भगवान अवतार लेकर क्या-क्या लीलाएं करते हैं? कैसे योग माया के साथ शयन करते हैं? कैसे लोक परलोक की सृष्टि करते हैं ,आदि- आदि?विदुर जी ने कहा आप हमको भागवत कथा सुनाइए। मैत्रेय जी ने जिज्ञासा का आदर किया, और कहा विदुर जी तुम सचमुच साधु हो। केवल अपने लिए प्रश्न नहीं करते ,सबकी भलाई के लिए करते हो। तुम साधु हो, तुम्हारा प्रश्न साधु है ,और साधु लोगों पर अनुग्रह कर रहे हो।
- मैत्रेय जी ने कहा, विदुर जी! भगवान ने मुझे आपको ज्ञान उपदेश करने की आज्ञा दी थी ,अतः में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिए, योगमाया के द्वारा विस्तारित, भगवान की विभिन्न लीलाओं का वर्णन करता हूं। भागवत 3. 5.22। मैत्रेय जी ने पहले सर्ग सृष्टि का विस्तार से वर्णन किया है ,उसे ग्रंथ में देखना चाहिए। भागवत जी में कम से कम 6 स्थानों में सृष्टि विषयक प्रश्न और उत्तर की चर्चा हुई है। द्रष्य जगत परमात्मा की शक्ति का अभिन्न विक्षेप है। अधिष्ठान में बैठे परमात्मा, सारी सृष्टि से संबंध रहित संबंध बनाए हुए, उसको पुष्टि लाभ देते रहते हैं ।जो विविध कल्पना रूप है, जो वस्तु नहीं केवल नाम रूप है, उसके समझने में कठिनाई है। पुराणों में भिन्न-भिन्न कल्पों की शक्ति का वर्णन है।कभी ब्राह्म कल्प, कभी पाद्म कल्प, कभी वाराह कल्प के सृष्टि की चर्चा है। यह सब काल के भेद अनुसार होता है। सृष्टि संबंधी कोई एक धारणा बनाए बिना उपासना में मन नहीं लगता।
- मैत्रेय जी ने कहा -विदुर जी!सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे, न द्रष्टा न दृश्य। उनसे सद्-असदात्मिका, अनर्वचनीय माया प्रकट हुई ।उसमें चिदाभास( पुरुष) रूप बीज आधान करने से महतत्त्व की उत्पत्ति हुई ।उसे ही जड़ता की प्रधानता से महतत्त्व,चेतना की प्रधानता से हिरण्यगर्भ ,बीच की प्रधानता से माया और चैतन्य की प्रधानता से ईश्वर और निरविशेष चैतन्य को ब्रह्म कहते हैं।महतत्त्व से अहंकार ,मन ,पांच ज्ञानेंद्रियां ,पांच कर्मेंद्रियों, 5 तन मात्राएं तथा 5 सूक्ष्म पंचभूत हुए। इन सब के प्राकट्य की लंबी प्रक्रिया है। ये सब तत्त्व मिलकर एक तो हुए, परंतु इससे ब्रह्मांड की रचना नहीं हो सकी ।इन तत्वों ने मिलकर ईश्वर की स्तुति की। भागवत 3.5 .38 से 50 तक ।
- मैत्रेय जी कहते हैं -जब सब त़्त्व सृष्टि की रचना न कर सके ,तब भगवान ने स्वयं उनके अंदर प्रवेश किया ।जिससे विराट शरीर का जन्म हुआ। बहुत काल तक विराट,जल के भीतर अंडकोष में रहा। फिर भगवान ने उसमें अध्यात्म,अधिदैव और अधिभूत-ये तीन विभाग किये और 10 प्राणों के रूप में प्रवेश किया ।विराट पुरुष का विस्तार भागवत 3.6 में देखना चाहिए। मैत्रेय जी कहते हैं- समस्त सृष्टि परमात्मा की श्री विग्रह से प्रकट हुई है ,इसका वर्णन कौन कर सकता है? विदुर जी! यह हमारी जीभ दुनिया की चीजों का नाम लेते -लेते कुलटा हो गई है, इस को शुद्ध करने के लिए ही हम भगवान के गुणों का वर्णन करते हैं। भागवत 3.6.37। भगवान की महिमा ,श्री ब्रह्मा जी भी न जान सके। भगवान की माया, बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देने वाली है ,अतः उन श्रीभगवान को हम नमस्कार करते हैं।
- पिछली पोस्ट के प्रसंग अनुसार,मैत्रेयजी के कथन एवं मायाकृत सृष्टि के प्रति स्पष्ट विचार बनाने में, ब्रह्मलीन स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती की टिप्पणी अत्यंत सहायक है यथा:- "परमात्मा के अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ जान पड़ता है ,वह निर्मूल और अर्थशून्य है। जादू के खेल में किसी वस्तु का दीखना और लुप्त हो जाना - क्रम, युक्ति ,संगति की अपेक्षा नहीं रखता। इसी प्रकार मायामयी सृष्टि में क्रम, युक्ति या संगति की कोई अपेक्षा नहीं होती। वेदों में माया के रूप में अथवा इंद्रजाल के रूप में,सृष्टि का वर्णन आता है ।माया की रचना को विचार संगत बताना उचित नहीं होता ।इसी कारण कल्पभेद से कथा में भेद होता है।" अस्तु भगवत कृपा से ही, जीव सृष्टि को मिथ्या मानकर, स्वरूप में स्थिति हो सकता है ।जो जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए।
- मैत्रेय जी की वाणी को सुनकर विदुर जी ने उसका सत्कार किया, और अपनी जिज्ञासा प्रकट की- भगवान नित्य तृप्त, पूर्ण काम और सर्वदा असंग है, फिर क्रीड़ा के लिए ही सही, सृष्टि का संकल्प क्यों? भगवान गुणमयी माया से जगत की रचना, पालन और संघार करते हैं ।उनका माया के साथ किस प्रकार का संयोग हो सकता है? मैत्रेय जी कहते हैं- ईश्वर अंश आत्मा का बंधन युक्ति विरुद्ध अवश्य है,किंतु वस्तुतः यही तो भगवान की माया है ।निष्काम भाव से धर्म का आचरण करते हुए, श्री कृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण सारे दुखों और जिज्ञासाओं को शांत कर देता है। इसके बाद विदुर जी ने अनेक प्रश्न किए हैं, जिन्हें भागवत 3.7 में देखना ही चाहिए ।उनको पढ़ने से ऐसा लगेगा, कि सारे प्रश्न आपकी जिज्ञासायें हैं। तभी आगे की कथा में आनंद ले सकेंगे। जिसमें जिज्ञासा नहीं होती,वह ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।
- विदुर जी ने अनेक प्रश्नों के उत्तर में मैत्रेय जी ने कहा कि सब दुखों की निवृत्ति के लिए ,मैं श्रीमद्भागवत पुराण प्रारंभ करता हूं। मैत्रेय जी ने सबसे पहले कथा की परंपरा बताई है - भगवान संकर्षण ने सनत्कुमार को, सनत्कुमार ने सांख्यापन को सांख्यापन ने पराशर और बृहस्पति को और पराशर जी ने ही मुझको कथा सुनाई है । मैत्रेय जी सब प्रकार की सृष्टियों का विस्तार से वर्णन करते हैं। किस प्रकार से ब्रह्म कल्प की सृष्टि हुई। फिर भगवान की नभ-सदृस्य नाभि से एक कमल पैदा हुआ। उसी पर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उन्हीं से पद्म कल्प की 10 प्रकार की सृष्टि हुई ।इस पर भी जब सृष्टि का विस्तार नहीं हुआ ,तो उन्होंने अपनी देह से ही मनु - शतरूपा को उत्पन्न किया ,जिससे मैथुनी सृष्टि का विस्तार हुआ है। सर्ग सृष्टि के अनेक भेद हैं ,किंतु तृतीय स्कंध के पूर्वार्ध में ,कश्यप-दिति से होने वाली आसुरी सृष्टि और उससे संबंधित वराह अवतार का प्रसंग महत्वपूर्ण है।उसी प्रकार स्कंध के उत्तरार्ध में, मनु-शतरूपा से विस्तारित होने वाला दैवसर्ग और उसमें भगवान कपिल के अवतार का प्रसंग महत्वपूर्ण है।
- मैत्रेय जी कहते हैं ,विदुर जी !पद्मकल्प में, जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि के विस्तार का संकल्प किया, तब उनका शरीर दो भागों में विभक्त हो गया।ब्रह्मा जी का शरीर,स्थूल भौतिक शरीर नहीं होता।समस्त सूक्ष्म-समष्टि ही ब्रह्मा जी का शरीर है। उनके शरीर के एक भाग से स्वयंभू मनु और दूसरे से शतरूपा प्रकट हुई।यह दोनों पति -पत्नी के रूप में परिणित हो गए। मनु ने पिताजी से आगे के कर्तव्यों के लिए आज्ञा मांगी। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए,और सृष्टि बढ़ाने की आज्ञा दी। मनु ने कहा कि हम आपकी आज्ञा पालन करेंगे,किंतु प्रजा के रहने के लिए स्थान तो चाहिए ।ब्रह्मा जी ने मनु की बात का अनुमोदन किया और वह सृष्टि के आधार उत्पत्ति का विचार करने लगे।
- साधक का सृष्टि विषयक चिन्तन तभी सार्थक होता है, जब उसे कल्प भेद-- ब्राह्मकल्प,पाद्म कल्प तथा वाराह कल्प आदि का बोध रहे।पृथ्वी कभी भगवान की जांघ से पैदा होती है,कभी पानी से निकलती है,कभी स्वतंत्र रूप से परमात्मा द्वारा प्रकट होती है।यहां पर स्वतंत्र रूप से उत्पन्न पृथ्वी जल में डूबी हुई थी,उसको प्रकट करने के लिए ब्रह्मा जी ने विचार किया।परिणाम में ब्रह्मा जी की नाक से,ईश्वर की अधिदैव शक्ति वराह के रूप में प्रकट होकर, विशाल रूप में हो गई।गंध अधिभूत है,नासिका अध्यात्म है,वराह अधिदैव है।ब्राह्म कल्प में ही अव्यक्त समष्टि सृष्टि, इन तीनों भागों में विभक्त हो जाती है, अतः कुछ भी आश्चर्य नहीं है। ब्रह्मा ने दिव्य शरीर धारी वराह भगवान की स्तुति की। वराह भगवान सीधे वहां पहुंचे जहां पृथ्वी डूबी हुई थी,लीन थी ।भगवान डाढ़ पर पृथ्वी रख कर बाहर निकले ,और उसे स्थापित कर दिया ,जिससे मनु-शतरूपा की सृष्टि उस पर निवास कर सके।
- वराह भगवान के अवतारी स्वरूप का स्मरण कर लेना कर्तव्य है।उनके एक-एक रोमकूप में बड़े-बड़े यज्ञ समाए हुए हैं। यह कोई साधारण सूकर नहीं है ,ये, हैं, दिव्य शरीर धारी ,जगत कारण सूकर। महात्माओं ने स्तुति की है - महाराज आपके अंग -अंग वेद हैं ,यज्ञ की सामग्री हैं। आप के रोंऐं कुशा हैं। आपकी आंखों में घृत है ।आपके चरणो में चतुर्होत्र हैं। इस प्रकार यज्ञ के जितने अंग होते हैं, उनका वर्णन महात्माओं ने वराह भगवान की देहमें विस्तार से किया है। जब वराह भगवान के संसर्ग से समुद्र जल ऊपर उछलने लगा ,तो उससे जनलोक ,सत्यलोक तथा तपलोक के निवासी पवित्र हो गए ।जो व्यक्ति भगवान के इस रूप का आदर नहीं करता ,उनकी बुद्धि भ्रष्ट मानना चाहिए ।वास्तव में महत्व आकृति का नहीं, वस्तु का होता है ।सोने से बना हाथी सोने के भाव बिकता है ।वराह भगवान का शरीर दिव्य अवतारी शरीर है।
- विदुर जी ने मैत्रेय जी से प्रश्न किया कि हमने तो सुना है, कि भगवान जब पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, तब हिरण्याक्ष से उनका युद्ध हुआ और उन्होंने उसे मार दिया। यह कथा हम सुनना चाहते हैं। यहां यह स्वाभाविक जिज्ञासा है - कि उस समय ब्रह्मा जी ने सृष्टि प्रारंभ ही की थी, अतः हिरण्याक्ष कहां से प्रकट हो गया? इसका समाधान पुराणों में है। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का जन्म ,पूर्व कल में हुआ था। पद्म-कल्प में ब्रह्मा जी के 1 दिन का जो कल्प ( 43 20000000 वर्ष) होता है, उसके अंत में सृष्टि का संपूर्ण नाश नहीं होता ,वह आंशिक प्रलय होता है। कश्यप जी अदिति के साथ स्वर्ग में चले जाते हैं ।दिति पाताल में चली जाती हैं, और उसके पुत्र हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप तपस्या करने के लिए प्रलय जल में विहार करने लगते हैं ।जब वराह भगवान पृथ्वी निकालने लगते हैं, तब हिरण्याक्ष यह कहकर बाधा डालता है, कि पृथ्वी तो हमारी थाती है, संपत्ति है,तुम इसे कहां ले जा रहे हो?
- मैत्रेय जी विदुर जी को दिति- कश्यप और उनके पुत्रों ,हिरण्याक्ष और हिरणकशिपु का इतिहास बता रहे हैं दिति कोई साधारण स्त्री नहीं है ,दक्ष की पुत्री है ।एक दिन संध्या समय ,अपने पति कश्यप से संतान प्राप्ति की इच्छा की।उसके लिए शास्त्र का अनुशासन है -एकादशी हो ,पूर्णिमा हो रात दिन का संधिकाल हो, तो संयम वर्तना चाहिए ,अन्यथा संतान उछृखंल होती है ।वह धर्म शास्त्र को नहीं मानती ,आसुरी प्रकृति की हो जाती है।दिति ने धर्म के विरुद्ध ,काम के वश हो कर, संतान की इच्छा की। महर्षि कश्यप उस समय अग्निहोत्र में बैठकर ,भगवान की आराधना कर रहे थे और उसी अवस्था में दिति ने कहा कि मेरा मन काम से अत्यंत व्याकुल हो रहा है और मैं सौतों की संपत्ति से जल रही हूँ। आप हमारे पति हैं, आपको हमारी इच्छा पूरी करनी चाहिए ।
- जब पत्नी दिति ने बहुत बड़ा आग्रह किया, तब महर्षि कश्यप जी ने उसे समझाया।तुम्हारी इच्छा तो मुझे पूर्ण करनी चाहिए, क्योंकि पत्नी से ही धर्म,अर्थ काम की सिद्धि होती है। मनुष्य काम के वश में हो कर, कुकर्म न कर बैठे,इसके लिए ही विवाह होता है। तुम्हारे बल से हम इन्द्रियों पर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं, जैसे कोई किले में बैठकर डाकुओं पर विजय प्राप्त करता है।भागवत 3.14.19। हम तुम्हारी कामना पूरी करने के लिए तैयार हैं।लेकिन जरा ठहर जाओ,क्योंकि यह समय प्रतिकूल है। इस समय शंकर जी और उनके गंण भंयकर वेष में विचरण करते हैं,उनका अनादर नहीं होना चाहिए । कश्यप जी के समझाने- बुझाने पर भी दिति के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।उसने उनका दुपट्टा पकड़ लिया ।भागवत 3.14.29 ।कश्यप जी ने दैव को नमस्कार किया और दिति की इच्छा पूरी की।हम सब को इससे शिक्षा लेनी चाहिए।किस प्रकार शास्त्र विरुद्घ आचरण से एक महर्षि की संतान भी आसुरी प्रकृति की हो जाती है ।
- कश्यप जी ने स्नान किया, परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करने लगे।दिति को भी अपनी भूल का वोध हुआ और कहने लगी - शंकर जी समस्त भूतों के स्वामी हैं ,वह मुझे क्षमा करें, तथा हमारे इस गर्भ का नाश ना करें, मैं उनके चरणों में नमस्कार करती हूं। दिति की यह अवस्था देखकर कश्यप जी बोले -तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है, शिव जी का अपमान किया है, समय की उपेक्षा की है। तुम्हारे उदर भे जो बच्चे होंगे,वे सारी दुनिया को रुला कर छोड़ेंगे।वे निरापराध प्राणियों को मारेंगे.महात्माओं को अप्रसन्न करेंगे ।फिर भगवान अवतार लेकर,उनका वध करेंगे।तुमने पश्चाताप प्रकट किया है, इसलिए तुम्हारे पुत्रों में से,एक पुत्र के एक ऐसा पुत्र पैदा होगा, जो महा- भागवत होगा।लोग उसका आदर करेंगे,और उससे तुम्हारे वंश का उद्धार हो जाएगा। इतना सुनकर दिति को बहुत आनंद हुआ।
- मैत्रेय जी विदुर जी को हिरण्याक्ष की कथा सुना रहे हैं ।दिति ने अपने होने वाले पुत्रों के दुराचरण भय से,कश्यप के तेज को 100 वर्ष तक अपने उदर में रोके रखा। उधर एक बार सनकादि भगवान से मिलने के लिए बैकुंठ गए ।द्वार पर जय- विजय नाम की दो द्वारपाल रहते हैं, उनमें इंद्रिय-जय और मनो- विजय रहती है ।जय- विजय भक्त जीव होते हैं, सर्वज्ञान संपन्न है और सनकादिक को अच्छी तरह जानते हैं ।लेकिन उस समय भगवान की प्रेरणा से पार्षदों ने सनकादि को बालक समझकर रोक दिया । जय विजय के दुर्व्यवहार से सनकादि को क्रोध आ गया ।उन्होंने कहा कि सारा विश्व तो भगवान के पेट में है, फिर उनके लोक में, इस प्रकार की भेद- बुद्धि?तुम लोग वैकुंठ में रहने योग्य नहीं हो,इसलिए तुम तीन बार असुर होकर जन्म लो। असुर कौन?- जो अपने अंतःकरण को ठीक -ठीक ना समझे ,सांसारिक ज्ञान करने वाली इंद्रियों में फँस जाए ,वही असुर है। अतः तुम लोग वहां चले जाओ ,जहां इंद्रियों में फंसे लोग रहते हैं।
- हिरण्याक्ष के जन्म की कथा चल रही है- भगवान अंतर्यामी हैं।उन्हें द्वार की खटपट का पता लग गया ,कि उनके सेवकों ने महापुरुष का अपराध कर दिया है ।भगवानश्री, लक्ष्मी जी के साथ वहां आ गए।यद्यपि सनकादिक अक्षर ब्रह्म में निष्ठा वाले हैं ,परंतु भगवान के श्री विग्रह की तुलसी मिश्रित सुगंध से उनके चित्त में द्रवता आ गई और शरीर में पुलकावलि छा गई ।वे भगवान के सौंदर्य को देखकर उन्हीं में ध्यान मग्न हो आनंदित हो गये। भागवत 3.15.43 -44। सनकादिक ने कहा, महाराज! हमने क्रोध करके अपराध तो जरूर किया है ,फिर भी एक बात चाहते हैं, कि जैसे भ्रमर कमल में रमता है, वैसे ही हमारा चित्त आपके चरण कमलों में भ्रमण करें ,हमारी वाणी आपके ही चरणारविंद की चर्चा में लगी रहे ,हमारे कानों के छेद आपके गुंणगान श्रवण से ही परिपूर्ण रहें। आप के दर्शन से हमें परम आनंद की प्राप्ति हो रही है।
- हिरण्याक्ष के जन्म की कथा चल रही है ।भगवान ने महात्माओं का आदर, सत्कार किया। फिर कहा-आप लोगों ने इन दोनों को जो शाप दिया है, वह बिल्कुल ठीक है। हमारे पार्षद होकर भी हमारा मत नहीं जानते, और उसके विपरीत महात्माओं का अनादर करते हैं। महात्मन्! मैं तो महात्माओं को ही अपना सब कुछ मानता हूं ।यदि महात्मागण मेरे गुणों का वर्णन नहीं करते, तो लक्ष्मी मुझे वरण नहीं करती, मैं वैकुंठनाथ भी नहीं होता। मुझे ईश्वर रूप में कोई जानता ही नहीं।मैं तो आप लोगों के मुंह से ही खाता हूं, और आप लोगों के आधार पर ही जीता हूं।यदि मेरे हाथ भी आप लोगों के विरुद्ध आचरण करें, तो मैं इनको काट -काट कर फेंक सकता हूं ,फिर इन पार्षदों में तो रखा ही क्या है? भागवत 3.16.6।
- भगवान महात्माओं के शाप का अनुमोदन करते हुए ,उनका आदर करते हुए, स्वयं ही अपने सेवक पार्षदों के शाप का अनुग्रह भी कर रहे है ।यह भगवान की भक्त वत्सल ही है, कि यदि भगवान के सेवक से सनत्- कुमार जैसे बड़े संत का अपमान हो जाए, वह भी उनके खास धाम बैकुंठ में, तो भी भगवान अपने भक्तों को क्षमा कर देते हैं । वे बोले- कि इनका तो 3 बार ही जन्म होगा ,किंतु मुझे इन के उद्धार के लिए 4 बार जन्म लेना होगा ।हिरण्याक्ष के लिए वराह रूप में व हिरण्यकश्यप के लिए नरसिंह रूप में ।इनके अगले जन्म रावण -कुंभकरण के लिए तीसरा अवतार राम के रूप में ,और शिशुपाल- दंतवक्र के लिए चौथा अवतार कृष्ण के रूप में होगा ।भगवान अपने भक्तों की सहायता के लिए एक कदम आगे ही रहते हैं ।
- भगवान, महात्माओं को संतुष्ट कर, अपने धाम में चले गए और जय -विजय हत श्री, नष्ट गर्भ होकर बैकुंठ से गिर गए और दिति के गर्भ में, जो पहले से ही तैयार था, प्रवेश कर गए। जब परम शक्तिशाली जय-विजय दिति के गर्भ में आए, तब सृष्टि में बड़े भारी उपद्रव होने लगे।देवता लोग घबराकर, ब्रह्मा जी के पास गए।उन्होंने समझाया कि दिति के गर्भ में भगवान के पार्षद,शाप ग्रस्त होकर आए हैं ,इसलिए ऐसा हो रहा है।देवताओं ! जो संसार की सृष्टि- स्थिति- प्रलय का कारण है, वह सब कुछ देख रहा है। इसलिए तुम लोग घबराओ मत ।जो प्रभु त्रिगुणमयी माया मृगी को नचाने वाला है, उस का अधिपति है, वही हमारा कल्याण करेगा। फिर हम लोग चिंता क्यों करें? सब मंगल ही मंगल होगा।भागवत 3.16.37।
- समय पाकर, दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म हुआ। हिरण्याक्ष प्रलय के समय भी समुद्र में तपस्या करता रहा ,और अगले कल्प में जब उसको मालूम हुआ कि भगवान जल से डूबी हुई पृथ्वी को लिए जा रहे हैं, तो उनको ललकारा। हिरण्याक्ष और वराह भगवान का युद्ध बड़ा भीषण हुआ ,तथा बहुत समय तक चला। यहां तक कि देवता और ब्रह्मा जी भी घबरा गए ।ब्रह्मा जी ने आकर भगवान से उसको मारने की प्रार्थना की, इसके बाद भगवान ने हिरण्याक्ष का पेट फाड़ दिया ।उसमें से एक ऐसी ज्योति निकली जो रावण होने के लिए तैयार हो गई।सनकादि के 3 जन्मों वाले शाप को प्रमाणित ही होना था। भगवान वराह ने हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी की स्थापना कर दी ,जिससे ब्रह्मा जी बहुत प्रसन्न हुए।
- पृथ्वी स्थापित हो जाने पर,मनु शतरूपा के साथ ब्रह्मा जी के पास आए। ब्रह्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उनको आशीर्वाद देते हुए कहा, कि अब तुम लोग सृष्टि को बढ़ाओ, इसका पालन करो,और इसके राजा बनो।ब्रह्मा जी के कई मानस पुत्र हैं।ब्रह्मा जी ने कई प्रकार से सृष्टि बढ़ाने का प्रयास किया है, मूल ग्रंथ के 3.12 अध्याय में उसे देखना चाहिए।वस्तुतः सृष्टि का रहस्य अद्भुत है। कभी-कभी तो भगवान स्वयं अपने को ही सृष्टि के रूप में बना लेते हैं, कभी पंच भूतों से सृष्टि होती है, कभी ब्रह्मा जी सृष्टि का निर्माण करते हैं,कभी क्रम से सृष्टि होती है,और कभी विक्रम से सृष्टि होती है। सृष्टिमें समय-समय का भेद होता है, स्थान-स्थान का भेद होता है, कर्ता -कर्ता का भेद होता है।जो मैकाले पद्धति के पढे, केवल अविद्या के विद्वान हैं,उनको पौराणिक प्रसंग कठिनता से समझ में आते है। ये प्रसंग आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों स्तर से संबंधित होते हैं ।
- अब मनु शतरूपा द्वारा मैथुनी सृष्टि का विस्तार होने लगा।भागवत 3.21.1 ।उनसे 2 पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद हुए तथा तीन पुत्रियां आकूति, देवहूति और प्रसूति हुईं। स्कंध के शेष भाग में दैवसर्ग और भगवान कपिल के अवतार की कथा है। देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ, जो स्वयं तत्वज्ञान संपन्न होकर प्रकट हुए थे। कर्दम जी जब भगवान प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहे थे,तब ब्रह्माजी ने उनसे विवाह करके सृष्टि बढ़ाने की आज्ञा दी। कर्दम जी ने पहले ब्रह्मचर्य पालन और तपस्या के द्वारा आत्मबल बढ़ाने का निश्चय किया। उन्होंने गुजरात प्रांत के सिद्धपुर नामक स्थान पर, भगवान की आराधना की ।उनकी आराधना से विष्णु भगवान प्रसन्न हो गए और गरुड़ पर चढ़कर उनके पास आए ,कर्दम जी ने उनकी स्तुति की। भगवान ने उनको आशीर्वाद और वरदान दिया।
- भगवान विष्णु ने कहा- कर्दम जी! तुमने जिस अभिप्राय से तपस्या की, वह मुझे मालूम है ।उसकी सारी व्यवस्था हो गई है ।परसों के दिन स्वयंभू मन और उनकी पत्नी शतरूपा दोनों ही, अपनी पुत्री देवहुति को साथ लेकर तुम्हारे पास आएंगे, और तुमसे अपनी कन्या के विवाह का प्रस्ताव करेंगे। इसलिए तुम यहीं रहकर उनकी प्रतीक्षा करो ।तुम उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना ।मैं तुम्हारी पत्नी की गर्भ से अंशकला रूप से अवतार लेकर,सांख्य शास्त्र की रचना करूंगा। भागवत 3.21.32 । तीसरे दिन स्वायंभूव मनु अपनी पत्नी शतरूपा और पुत्री देवहुति के साथ कर्दम जी के निवास स्थान पर आ गए। कर्दम जी ने उनका स्वागत करते हुए पूछा - महाराज! आपके राज्य में प्रजा सुखी है? राज्य में जल का प्रबंध तो बढ़िया है? लोगों को खाना पीना अच्छा मिलता है? प्रजा प्रसन्न है ?
- स्वयंभू मनु ने कहा -कर्दम जी! आपने कुशल प्रश्न के बहाने राज्य- धर्म का उपदेश कर दिया। राज्य में सब ठीक है ।मेरे मन में एक ही चिंता है, कि हमारी पुत्री का विवाह, योग्य पुरुष के साथ हो जाए।हमें पता चला है, कि आप विवाह करना चाहते हैं, इसलिए हम दोनों, अपनी पुत्री लेकर, आपके पास आए हैं। आप इसको स्वीकार कीजिए। कर्दम ने कहा- कि महाराज आप की पुत्री का आदर कौन नहीं करेगा! यह तो इतनी सुंदरी है, इतनी बुद्धिमती है,इतनी शील सम्पन्ना है ,कि इसको देख कर एक बार विश्वावसु गंधर्व मुग्ध हो गया था, और अपने विमान पर से नीचे गिर पड़ा।कर्दम जी के मुंह से ,अपनी प्रशंसा सुनकर देवहूति का मुंह ,लज्जा से लाल हो गया,वह शयानी हो चुकी थी ।कर्दम जी ने स्वयंभू मनु का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ,और देवहूति के साथ उनका विवाह हो गया।
- विवाह के बाद मनु, शतरूपा के साथ अपने राज्य में चले गए और देवहूति, कर्दम की सेवा में रह गई । कर्दम जी के पास ना कोई कुटिया थी और ना कोई रसोईघर था वह वृक्ष के नीचे रहते थे। देवहूति का कर्दम जी की शक्ति पर बहुत विश्वास था, वह उनकी सेवा में तन में हो गई। उसने अपनी सेवा से परम तेजस्वी पति कर्दम जी को संतुष्ट कर लिया। जहां पवित्रता होती है -वहां श्रद्धा होगी। जहां श्रद्धा होती है-वहां विश्वास होता है ।जहां परस्पर विश्वास होता है -वहां प्रेम का उदय हो जाता है, और एक दूसरे को सुख पहुंचाने की इच्छा हो जाती है। ऐसे वातावरण में खाने का है या नहीं ,पहनने का है या नहीं, मकान है या नहीं ,इन बातों पर कभी दृष्टि ही नहीं जाती। सुखी गृहस्थ जीवन का यही रहस्य है ।
- एक दिन कर्दम जी अत्यंत प्रसन्न होकर देवहूति से बोले- देवि! तुमने तो मेरी सेवा में अपने शरीर, इंद्रिय और मन की भी परवाह नहीं की, इसलिए मेरी तपस्या का फल तुमको भी प्राप्त हो, और जो लोक मुझे मिले वही तुम्हें भी मिले। अब अपने मन की बात मुझे बताओ, तुम्हें क्या चाहिए? देवहूति ने बड़े संकोच के साथ कहा महाराज विवाह अंगसंग के लिए होता है, अतः एक बार मुझे आपकी सहधर्मिणी पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त होना चाहिए। यदि मेरा यह शरीर आप के काम आए, तो मेरा जीवन और सौंदर्य, सफल सार्थक हो जाएगा।भागवत 3.23.11। कर्दम जी ने देवहूति की प्रार्थना स्वीकार कर ली।
- मैत्रीय जी कहते, हैं विदुर जी! कर्दम मुनि ने, अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिए, उसी समय योग में स्थित होकर,एक विमान रचा- जो इच्छा अनुसार सर्वत्र जा सकता था। विमान की दिव्यता भागवत, 3. 23. 13 से 48 तक पढ़ने लायक है ।उसमें कई मंजिलें थी, अनेक दिव्य कमरे थे, नाना प्रकार की भोग विलास सामग्री थी। इसके बाद देवहूति व कर्दम जी ने बिंदु सरोवर में स्नान किया।दोनों अत्यंत सुंदर देवी, देवता रूप होकर उस विमान द्वारा बिहार करने लगे। उस विमान पर निवास करते हुए दोनों ने,आठों लोक- पालों की बिहार भूमि,मेरु पर्वत की घाटियों में दीर्घकाल तक विहार किया।प्राणप्रिया देवहूति के साथ उन्होंने वैक्षभ्भक ,सुरसन,नंदन, पुष्पभद्र और चित्ररथ अनेकों देव उद्यानों तथा मानसरोवर में,अनुराग पूर्वक विहार किया ।भागवत 3.23.40 ।आजकल के भोगवादी उन दिब्य भोगों के सामने बोने ही सिद्ध होंगे ।
- कर्दम जी ने देवहूति के साथ सिद्ध रूप से विहार करते हुए, उन्होंने विश्व सृष्टि के विस्तार के लिए ,नौ कन्याओं को जन्म दिया ।उन कन्याओं का बड़े-बड़े ऋषि यों के साथ विवाह हुआ। इसके बाद कर्दम जी ने कहा - देवी! मेरी रुचि भोग विलास में नहीं है, अतः मुझे सन्यास की अनुमति दे दो, भोग वासना कभी तृप्त नहीं होती। देवहूति ने कहा स्वामी आप ने कन्याओं के विवाह तो कर दिए हैं, अब एक पुत्र भी हो जाता, तो अच्छा होता।भगवान ने तो आपको वरदान भी दे रखा है,कि वे स्वयं आपके पुत्र रूप में प्रकट होंगे।कर्दम जी ने देवहूति की प्रार्थना स्वीकार करते हुए कहा,कि हां थोड़े दिन में स्वयं भगवान्, ज्ञानाचार्य कपिल देव के रूप में,तुम्हारे गर्भ से प्रकट होंगे ।
- वैदिक धर्म ,ईश्वर का अवतार स्वीकार करता है ।जीवो के कल्याण के लिए ,करुणा बस होकर, भगवान अवतीर्ण होते हैं ,यह स्पष्ट रहना चाहिए ।मनुष्य वासनाओं के अधीन होकर जन्मता है,वह अंतःकरण शुद्ध कर उत्थान कर सकता है और स्वरूप में स्थित हो सकता है, किंतु अवतारी ईश्वर के समकक्ष कभी नहीं हो सकता। शुद्ध जीवो को- महात्मा बुध, पारसनाथ तथा पैगंबर आदि कुछ भी कहा जा सकता है, लेकिन वह अवतारी ईश्वर की श्रेणी में नहीं आते । भगवान निराकार होते हुये भी सर्वत्र हैं ,सर्वशक्तिमान है ,सर्व रूप हैं और स्वयं आत्ममाया और त्रिगुणात्मक माया को स्वीकार कर, निराकार से साकार होते हैं। गीता4.6। उनको मनुष्य की कल्पना अथवा विशिष्ट महापुरुष मानना अपराध है। अस्तु कर्दम जी को दिए गए वरदान अनुसार, भगवान के ज्ञानावतार रूप में भगवान कपिल देव का अवतार हुआ है ।उसे सादर दंडवत है।
- कपिलदेव का अवतरण होते ही, ब्रह्मा जी ने आकर स्तुति की ,और परिक्रमा कर चले गए। फिर कर्दम जी उनके पास आकर बोले- आपने वरदान अनुसार कृपा कर ,मेरे यहां अवतार लिया है, आपको नमस्कार करता हूं ।मैं अब सन्यासी होना चाहता हूं, आपको अपने हृदय में रखकर विशोक होकर पृथ्वी में विचरण करना चाहता हूं। सन्यास की महिमा देखो -घर में पुत्र रूप से प्राप्त भगवान को छोड़कर ,जाना चाहते हैं। भगवान ने कर्दम से कहा -तुम्हें जहां मौज हो ,वहां जा सकते हो ।मैं तुम्हारी आत्मा हूं, सर्व गुहाशय हूं,एक अद्वय ज्योति हूं।तुम अपने आत्मरूप से मेरा दर्शन करो,और विशोक होकर अभय पद प्राप्त करो। अधिकारी पुरुष, ज्ञान के उदय मात्र से ,कृतार्थ हो जाता है।उसको ज्ञान वृत्ति बनाए रखने की आवश्यकता नहीं होती।मैं यहां रह कर अपनी माता को, अध्यात्म विद्या का उपदेश करूंगा। वह भय से पार हो जाएंगी, तथा संसार में जो आत्मपथ बहुत दिनों से लुप्त सा हो गया है,उसका प्रवर्तन हो जाएगा।कथा प्रसंग में, कर्दम जी के चले जाने के बाद देवहूति जी, कपिल भगवान के पास आकर कहती हैं- मेरा इतना जीवन इंद्रियों और विषयों के संसर्ग में व्यर्थ ही बीत गया।आप साक्षात भगवान हैं, और हमारे पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं, इसलिए मुझे उस विद्या का उपदेश कीजिए ,जो अविद्या को शांत कर देती है। कपिल भगवान ने कहा, माताजी ! आत्मा के स्वरूप में न बंधन है न मुक्ति। जीव के बंधन और मोक्ष का कारण,मन ही माना गया है ।भागवत 3.25.15।अपने स्वरूप को न जानने के कारण ही, अपनी परिछिन्नता और अपने बंधन की ,कल्पना होती है। चित्त में जब अपनी परिछिन्नता का भ्रम निवृत हो जाता है,तब मुक्ति तो अपने आप प्राप्त है ही।यदि विषयों में तुम्हारी आसक्ति है, तब बंधन है,और आसक्ति टूट गई तो बंधन नहीं है ।
- भगवान कपिल, माता जी को मुक्ति का उपाय ,"अध्यात्म योग युक्त भक्ति" समझा रहे हैं।जो शरीर के भीतर होता है,वह अध्यात्म होता है।अपनी देह के भीतर- जो स्थूल- सूक्ष्म-कारण है ,इसका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करना है।संसार की आसक्ति बंधन है ,यदि वही आसक्ति , महापुरुष से कर ली जाती है ,तो मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है। स्तु सर्व संग रहित, साधु पुरुषों का संघ ,मनुष्य को करना चाहिए।भक्ति का मार्ग,चित्त को वश में करने के लिए, सरल और सीधा है । पहले श्रद्धा होती है➡ फिर भगवान से ,संत से राग होता है ➡फिर भक्ति होती है। विषयों के सेवन न करने से ,वैराग्य पूर्वक योग से,भक्ति द्वारा अपनी प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। प्रत्यक् वह है ,जो प्रत्येक इंद्री मन के पीछे बैठकर,सब देख रहा है ।उसी का साक्षात्कार हो जाता है ।विस्तार के लिए भागवत जी को देखना होगा।
- देवहूति ने कहा, भगवन! आपकी भक्ति का समुचित स्वरूप क्या है ?जिससे मेरी जैसी अबलाएं भी, सहज में आप का निर्वाण पद को प्राप्त कर सकें। उत्तर में भगवान ने प्रकृति आदि तत्वों के निरूपण करने वाले सांख्य शास्त्र का उपदेश किया है।साथ ही भक्ति विस्तार एवं योग का भी वर्णन है।भागवत 3.25.31।भागवत जी का सांख्य, सांख्यकारिका आदि में वर्णित सांख्य शास्त्र नहीं है। वहां आत्मा- परमात्मा की एकता का प्रतिपादन है और भक्ति योग से चित्त का शोधन भी मान्य है, किंतु ईश्वर के बारे में वह मौन है ।जब की भागवत जी में ,भगवान कपिल, भक्ति योग का द्दढ प्रतिपादन करते हैं और ब्रह्म -आत्मैक्य बोध में उसको सफल बताते हैं।इस सांख्य का आधार ईश्वर ही है ।
- धर्म -अनुष्ठान एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति देवहूति ,अपने पुत्र के पास रहती हैं और उनके द्वारा प्रकृति -पुरुष- विवेक ,भगवत -आराधना तथा भगवत- भक्ति ,संबंधी ज्ञान प्राप्त करती हैं ।विवेक से पुरुष मूल स्वरूप में स्थित हो जाता है, और भक्ति पूर्वक भगवान का ध्यान करने से ,अंततः चित्त- निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।भगवान कपिल- देवहूति के पावन संवाद का निरूपण भागवत जी के, तीसरे स्कंध के अध्याय 25 से 33 तक दिया गया है ।साधक को इसे मूल ग्रंथ में अवश्य देखना चाहिए ।हम आगे की पोस्टों में, कुछ बिंदुओं पर संकेत मात्र कर सकेंगे ।कपिल देव जी ने सांख्य शास्त्र को अनेक प्रकार से समझाया है ।
- माता देवहूति ने मोह निवारण के लिए कपिल जी से प्रार्थना की। 3.25.10 । देह-गेह में जो" मैं" और" मेरा" है, उसी का नाम मोह है। कपिल भगवान मुस्कुरा कर बोले -उसके लिए आध्यात्मिक योग करना चाहिए।उसका सीधा -सीधा अर्थ हुआ- अपनी देह के अंदर जो स्थूल- सूक्ष्म- कारण है, उसका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करना। परमात्मा को ,सत्य को, अपने भीतर प्राप्त करना ही अध्यात्म योग है ।आत्मा ने ना बंधन है ना मुक्ति है।मन में ही बंधन-मुक्ति है ,मन विषयों से आसक्त हो गया तो बंध गया और विषयाशक्ति से रहित हो गया तो मुक्त है।वैराग्य पूर्ण ज्ञान होने से ,भक्ति से ,अपना जो प्रत्यगात्मा है, उसका साक्षात्कार होता है।प्रत्यगात्मा वह होता है ,जो इंद्रियों तथा मन आदि के पीछे रहकर, सब कुछ देखता है।
- देवहूति ने कपिल जी से पूछा -कि भगवान की कैसी भक्ति की जाए, जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो। निर्वाण शब्द का अर्थ होता है- परम निवृत्ति ,परम गति। गीता 2.72 में ब्रह्मनिर्वाण शब्द का प्रयोग है। जीव, सच्चिदानंद का अंश है। अतः सत्ता ,चित्ता और आनंद की उसकी मूल मांग है।लेकिन नासमझी के कारण, वह इन तीनों के विरोधी क्रमशः 3 बाणों- मृत्यु, अज्ञान तथा दुख का भ्रम, चेतन पर अध्यारोपित करता रहता है। भगवान की भक्ति करने से पता चल जाता है,कि मृत्यु, देह आदि प्रकृति का व्यापार है,हमारा नहीं।अपना बोध हो जाने से, अज्ञान की निवृति होती है।दुख मन का व्यापार है, जो कामना पूरी न होने से होता है।निष्काम होकर,मनसे तादात्म्य छोड़ते ही, अपने आनंद स्वरूप में स्थिति हो जाती है।इस प्रकार भगवान के योग से,तीनों बांण निकल जाते हैं, और निर्वाण अवस्था प्राप्त हो जाती है।
- देवहूति जी ने पूछा, हे प्रभो! योग के कितने अंग हैं, जिससे तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस पर कपिल जी ने, माता को भक्ति प्रधान सांख्य का उपदेश किया। माता जी! हमारे शरीर में द्योतनात्मक देवता निवास करते हैं। आंखों में सूर्य देवता ,कान में दिशा देवता ,और नासिका में अश्वनी कुमार देवता आदि- आदि। यह सब संसार के विषयों को प्रकाशित करते हैं। पहली बात यह करनी चाहिए,कि इंद्रियों को अनूश्रविक कर्म में लगाओ। अनूश्रविक कर्म का अर्थ है, कि जो वेद में करने को कहा गया है, वही करो !और जिसको मना किया गया है ,उसको मत करो! मन और इंद्रियों की वासना के अनुसार, कर्म नहीं करना चाहिए।शास्त्र और गुरु की आज्ञा अनुसार ,किए कर्म से ही मन में एकाग्रता आती है ,सत्य में स्थिति हो जाती है,और वुद्धि स्वाभाविक हो जाती है ।कपिल गीता का प्रारंभ 25वें अध्याय से होता है और 3 अध्यायों में, पहले वेदांत ज्ञान आता है ,और अंत में भक्ति का वर्णन है ।
- भगवान कपिल का, माता देवहूति के प्रति, भक्ति का उपदेश चल रहा है। मेरे भक्तों में तीन बातें देखी जाती हैं – उनकी भगवान की चरण सेवा में प्रीति होती है, भगवत आज्ञा अनुसार कार्य करते हैं, चार भक्त मिलने पर भजन करते हैं। मैया !! ऐसे भक्त ही मेरे दिव्य रूप का दर्शन पाते हैं। जो लोग सबकी ओर से मुंह मोड़ कर, सब से नाता तोड़ कर ,मेरा भजन करते हैं, आनंद भक्ति से सब जगह मुझे देखते हैं- उन्हें में मृत्यु से पार कर देता हूं।ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्तियोग ही, परम कल्याण स्वरूप भगवत प्राप्ति का साधन है। किसी भी वस्तु में आनंद नहीं होता है। जीव अज्ञानवश जड़ वस्तु में, आनंद खोजता है। संसार के विषय सुख तो दे सकते हैं, किंतु आनंद नहीं देते। आनंद परमात्मा का स्वरूप है।
- कपिल कहते हैं - माताजी! आत्मा तो नित्य शुद्ध और आनंद रूप है। सुख - दुख तो मन के धर्म है। मन के निर्विषय होने पर आनंद मिलता है। दृश्य से दृष्टि हटाकर, दृष्टा में स्थिर किया जाए तो आनंद मिलेगा। आनंद प्रतीति का विज्ञान जानना चाहिए।संसार के पदार्थों में तो आनंद नहीं है, किंतु इंद्रियों को मनचाहे पदार्थ मिलने पर, क्षण भर के लिए अंतर मुख होती हैं। अंतर मुख हुए मन और इंद्रियों पर,ईश्वर का प्रतिबिंब पड़ता है, अतः आनंद आता है। मन के अंदर आने पर सुख मिलता है,और बाहर जाने पर सुख समाप्त हो जाता है। सुख-दुख मन का धर्म है। जन्म मरण शरीर का धर्म है। जीव, मन तथा शरीर आदि से तादात्म्य होने के कारण, मन में सुख- दुख होने पर ,अज्ञान से उन्हें जीवात्मा अपने ऊपर आरोपित कर लेती है ।आत्म स्वरूप में उपाधि के कारण सुख -दुख का भास होता है ।
- भगवान कपिल कहते हैं -हे माता! मन को ही इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण माना गया है। जो मन, विषयों में आसक्त हो जाए, वह बंधन का कारण बनता है ,और वही मन यदि परमात्मा में आसक्त हो जाए तो मोक्ष का कारण बनता है। जल में चंद्रमा का प्रतिबिंब बनता है। जल में हलचल के कारण, प्रतिबिंब भी हलचल करता दिखता है, किंतु वास्तविक चंद्रमा पर उसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता।इसी तरह देहादि की धर्म ,स्वयं जीव में ना होते हुए भी,वह भ्रमवश, अपने पर कल्पित कर लेता है, अन्यथा जीवात्मा तो निर्लेप है। निष्काम भागवत धर्म के अनुसरण से, उसकी कृपा प्राप्त होती है, और अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है।संसार के विषयों से हटा मन, ईश्वर में लीन रहता है,तभी वह आनन्द रूप होता है।
- भगवान कपिल कहते हैं- हे माता! जल के प्रवाह की तरह, मन भी अधोगामी है। यंत्र की सहायता से पानी ऊपर की ओर ले जाया जाता है ,उसी तरह देह रूपी यंत्र की सहायता से,मन को ऊर्ध्वगामी बनाकर परमात्मा के चरणों की ओर ले जाना होता है। देह के तीन भाग-- कारण, सूक्ष्म, और स्थूल है। मंत्र से कारण, उपासना से सूक्ष्म, और आहार- विहार से स्थूल शरीर को शुद्ध और सबल बनाकर,मन को नियंत्रित किया जाता है। मंत्र या नाम जप से, मन की मलिनता और चंचलता दूर होती है।भगवान का निर्गुण तथा सगुण स्वरूप हम सबके अंदर होते हुए भी,अनुभव में नहीं आते हैं। अस्तु भगवान के नाम-स्वरूप या मंत्र- स्वरूप को ही इष्ट बनाओ। यह स्वरूप प्रकट है,और इनका आश्रय लेने से कल्याण हो जाता है। बिगड़ा हुआ मन,ध्यान के साथ जप करने से सुधरता है।लौकिक वासनाओं से मन बिगड़ता है, और अलौकिक वासनाओं के जगाने से मन सुधरता है।असद वासना का विनाश- सदवासना से होगा।
- कपिल देव कहते हैं- हे माता! हमें गुणातीत भक्ति करनी है। इसमें दो बातें होती हैं- एक अहेतुकी दूसरी अव्यवहिता अर्थात भक्ति अन्य प्रेरित नहीं, और अन्य प्रयोजन से नहीं ,तथा लगातार, धाराप्रवाह हो।अध्यात्म योग की दो अवस्थायें हैं -एक तो जहां फंसे हैं, वहां से लौट आए, और दूसरे लौटने के बाद- परमात्मा से एक होकर उसमें भरपूर हो जाए। अध्यात्म योग में न राग है न द्वेष है,ना अपना है ना पराया है, सारा भेद मिट गया है। यम नियम का पालन करो ,कथाओं का श्रवण करो, नाम संकीर्तन करो ,श्रेष्ठ पुरुषों का संग करो- इससे चित्त शुद्धि होगी। चित्त जब योग के रथ पर चढ़ता है ,तब निर्विकार आत्मा के पास पहुंच जाता है।
- कपिल जी ने, भगवान -आराधना की एक बात बिलक्षण बताई है। वे कहते हैं कि सब प्राणियों के आत्मा रूप में भगवान ही हैं, इसलिए किसी प्राणी का तिरस्कार करके की गई पूजा- ढोंग है । समस्त प्राणियों के हृदय- स्थित आत्मा के रूप में बैठे हुए भगवान की उपेक्षा कर, जो मूर्खता से पूजा करता है, वह राख में होम करता है।राग-द्वेष रहते ,भक्ति करने पर शांति नहीं मिलती। भागवत 3.29.25 । भगवान कपिल कहते हैं कि मनुष्य को मूर्ति की पूजा तभी तक करनी चाहिए ,जब तक वह अपने तथा सब के हृदय में प्रतिष्ठित परमात्मा का ज्ञान न प्राप्त कर ले। यह कथन मूर्ति पूजा के निषेध के लिए नहीं है।इसका तात्पर्य है-कि सब का सम्मान भी करो, और मूर्ति पूजा भी करो। भगवान कपिल देव यह भी समझाते हैं कि जो भक्ति नहीं करता, वह संसार चक्कर में फंसा हुआ जन्म - मृत्यु के चक्कर में फंसा हुआ,कष्ट भोगता रहता है।
- अपनी माता देवहूतिजी को उपदेश करने के बाद ,कपिल देव जी उन्हें प्रणाम करके गंगासागर चले गए। समुद्र ने उनका स्वागत किया ।आज भी उनके वहां दर्शन होते हैं । माता देवहूति, सरस्वती के किनारे जा बिराजीं। स्नान करती हैं ,ध्यान करती हैं ,अतः मन की शुद्धि होती है। मन से नारायण का चिंतन करते-करते मुक्ति मिल गई। मुक्ति अपने आत्मा का स्वरूप ही है।अपने स्वरूप की उपलब्धि में सब अधिकारी हैं ।उसमें समय, देश,जाति, लिंग,आदि प्रतिबंधक नहीं हो सकते।देवहूति लिंगतः स्त्री शरीर में है,फिर भी उन्हें ज्ञान प्राप्त करने और जीवन मुक्ति का, स्वतःसिद्ध अधिकार है।अतः देवहूति की जीवनमुक्ति होने का, विशेष वर्णन किया गया है। उन्हें सिद्धि मिलने के कारण, उस स्थान का नाम सिद्धपुर (गुजरात) पड़ा ।वह स्थान मातृगया नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार तीसरा स्कंध पूर्ण हुआ।
चतुर्थ स्कंध
- चतुर्थ स्कंध में, विसर्ग सृष्टि का वर्णन है ।सृष्टि दो प्रकार की है, एक ईश्वरीय- सृष्टि दूसरी जीव- सृष्टि। पहली को सर्ग कहते हैं दूसरी को विसर्ग। भगवान की स्वतंत्रता सर्वत्र अप्रतिहत है। चौथे स्कंध में विसर्ग के द्वारा, परमात्मा का ही निरूपण है। इस सृष्टि में विविधता कैसे हुई? मनुष्य के जीव के मन में जो वासनाओं (चाहत, प्रयोजन) की विविधता है- वही सृष्टि की विविधता है। अलग-अलग आकृति कैसे होती है? अलग-अलग नाम रूप कैसे मिलता है?- इसकी जड़ में जीव की वासना और फलदाता परमेश्वर है ।एक सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान प्रभु,जीव को उसके कर्म और वासना को देख कर, उसको सुख और दुख देकर सुधारने के लिए ,सारी सृष्टि करता है। अतः विसर्ग वर्णन से, ईश्वर की ईश्वरता ही सिद्ध होती है।
- श्रीमद्भागवत के श्रोता- वक्ता लोक नहीं चाहते, वह परम सत्य के कामी है। अतः ग्रंथ में सर्ग, विसर्ग आदि का वर्णन भी अलौकिक है। चतुर्थ स्कंध में जो विसर्ग सृष्टि वर्णित है, वह लोक प्रसिद्ध सृष्टि से हटकर है, और उसकी" स्कंधों के विभाग की विषय वस्तु" से संगति, अध्यात्मिक ज्ञान से ही संभव है। सामान्यतया विराट के एक अंड में, ब्रह्मा जी के द्वारा जो विविध सृष्टि होती है, उसका नाम विसर्ग है। जबकि इस स्कंध में पुरुषार्थ चतुष्टय का वर्णन है, जो विसर्ग सृष्टि की आधारशिला है। चतुर्थ स्कंध की विषय वस्तु को चार भागों में विभक्त माना जाता है -धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके 31 अध्यायों में, पहले सात में धर्म प्रधान सृष्टि है, उसके बाद 5 अध्यायों में अर्थ का वर्णन है। उसके बाद 11 अध्ययों में काम का वर्णन है। अंतिम 8 अध्यायों में मोक्ष पुरुषार्थ का वर्णन है। यह विभाग सअभिप्राय है।
- ग्रंथ में चल रहे कथा संवादों का स्मरण रखना कर्तव्य है। परस्पर बद्ध 3 संबादों में एक ही कथा हो रही है। एक ओर नैमिषारण्य में सूत- शौनक संवाद चल रहा है, दूसरी ओर सुकताल में गंगा तट पर शुक- परीक्षित संवाद चल रहा है, और यहां हरिद्वार क्षेत्र में चल रहे विदुर - मैत्रेय संवाद में , मैत्रेय जी विदुर जी को सृष्टि विस्तार संबंधी प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी ! स्वयंभू मनु और शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद इन दो पुत्रों के सिवा आकूति,देवहूति और प्रसूति नाम की 3 कन्याएं भी थी। भागवत 4.1.1 । आकूति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ ,पुत्रिका धर्म अनुसार हुआ। ऐसे विवाह में यह शर्त होती है, कि कन्या के जो पहला पुत्र होगा, उसे कन्या के पिता ले लेंगे। प्रसूति का विवाह दक्ष से हुआ,उसका बहुत बड़ा बंश बढा। देवहूति की नौ कन्यायें 9 महर्षियों से ब्याही गई ।इन सब को विस्तार से जानने के लिए जिज्ञासुओं को मूलग्रंथ देखना कर्तव्य है।
- जैसा पहले बताया गया, कि जीवों की धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की विभिन्न इच्छाएं ही, विसर्ग सृष्टिमें हेतु है। अतः पहले धर्म के सात अध्यायों में स्पष्ट किया गया कि बिना भगवत आश्रय की धर्म की सिद्धि नहीं होती। गुण भेद से भगवान के तीन रूप- ब्रह्मा, विष्णु, महेश अवश्य है, परंतु उनमें ईश्वर एक ही है।इन तीनों में से किसी एक का तिरस्कार करने पर ईश्वर का ही तिरस्कार होता है और धर्म की सिद्धि नहीं होती। मनु- शतरूपा की कन्याओं से सृष्टि विस्तार की कथा प्रसंग में, जब मैत्रेय जी ने बताया ,कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शंकर जी की पत्नी सती ने, कम आयु में ही शरीर का परित्याग कर दिया, तो विदुर जी ने पूछा कि यह आश्चर्यजनक घटना कैसे हुई? भगवान शंकर जैसे जमाई और दक्ष जैसे ससुर के बीच द्वेष कैसे हुआ?
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धर्म, विधि -निषेधमय होता है| दक्ष द्वारा निषेधात्मक धर्म अपनाने के कारण, उनका यज्ञ भी विध्वंस हुआ, और सती को देह त्यागना पड़ा| मैत्रेय जी कहते हैं -विदुर जी ! पहले एक बार प्रजापतियों का बड़ा भारी यज्ञ हुआ था ।उसमें ऋषि ,देवता ,अग्नि सब के सब आए थे ।इसी बीच में दक्ष वहां आ गए। उनके आने पर और सब तो उठ कर खड़े हो गए हैं, लेकिन ब्रह्मा और शंकर जी दोनों चुपचाप अपने- अपने आसनों पर बैठे रहे। दक्ष जी को, शंकर जी के ना उठने से, बहुत बुरा लगा। वह क्रोध में आकर बोले- कि देखो मैं बहुत समझ बूझ कर यह बात कह रहा हूं। यह जो शिव यहां बैठा है, यह लोकपालों के यश को नष्ट करने वाला है। इसने सत्य पथ का त्याग कर दिया है ।यह मर्कट लोचन है ।यह मेरी बेटी से विवाह करने लायक नहीं था, मैंने ब्रह्मा जी के कहने से इससे ब्याह कर दिया था, आदि। सती के देह त्याग की कथा चल रही है।दक्ष क्रोधवश, शंकर जी की निंदा कर रहा है – यह अपवित्र रहता है! धर्म भ्रष्ट है! श्मशान में रहता है! भूतों के साथ नाचता है! नंगा रहता है! उन्मत्तवत विचरण करता है! चिता की भस्म लगाता है! मुंड माल पहनता है! नाम है शिव, लेकिन है अशिव।
- दक्ष ने शिव को शाप भी दे दिया - इसको यज्ञ में देवताओं के साथ कोई भाग न मिले। यह कह सभा का त्याग कर चला गया। वहां ब्रह्मा जी बैठे थे, बड़े-बड़े ऋषि- मुनि बैठे थे, यह सब का अपमान था। नंदीश्वर ने देखा यह तो बेसमझी का काम किया ।भगवान शंकर तो आदि पुरुष है।जो उनसे द्रोह करेगा, उसको परमात्मा का साक्षात्कार कभी नहीं हो सकता। आकृति विशेष से द्वेष करने पर,उस आकृति में, जो उपादान भूत परम तत्व है, उसका भी तिरस्कार हो जाएगा।इसलिए किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए।
- सती के देह-त्याग की कथा चल रही है। अपने स्वामी का अपमान देख, नंदीश्वर को भी क्रोध आया।उन्होंने शाप दिया – कि दक्ष ने हमारे स्वामी कि आँख को वानर कि आँख की तरह बताया है, तो इसका समूचा धड़ ही पशु के समान हो जाए। यह विद्या को अविद्या समझता है- जो इसके पीछे चले, उसका जन्म मरण न छूटे। भगवान शंकर से द्वेष करने वाले कर्म भक्त हो जाएं। गाड़ी यहीं नहीं रुकी नंदीश्वर, ब्राह्मणों पर भी बरस पड़े।बोले- की जो ब्राह्मण दक्ष मत का अनुसरण करने वाले हैं, उनमें भले ही विद्या हो, तपस्या हो, लेकिन वे यजमान के घर में जाकर, सब कुछ खाने लग जाएं। पवित्रता- अपवित्रता का कोई ध्यान ना रखें। यह सुनकर वहां उपस्थित भृगु जी को भी बहुत क्रोध आ गया।उन्होंने शाप देते हुए कहा -कि जो शिव व्रत रखें वे पाखंडी हो जाएं। जटा, अस्थि, भस्म आदि धारण करें और शौच का ध्यान न रखें।तुमने वेद-ब्रह्मणों की निंदा की है, तो तुम पाखंडी हो जाओ। एक दूसरे के शापा-शापी से, बड़े भारी उपद्रव की सृष्टि हो गई। शंकर जी को खेद हुआ और वहां से उठकर चले गए ।बाकी जो देवता, ऋषि, महर्षि थे उन्होंने यज्ञ का अवभृथ-स्नान किया।
- मैत्रेय जी कहते हैं,विदुर जी !शंकर जी वहां से हट कर चुप लगा गए। घर आकर अपनी पत्नी सती को कुछ नहीं बताया। उन्होंने सोचा कि इन बातों से सती को दुख होगा ।उनके लिए बात आई -गई हो गई। लेकिन दक्ष को चैन नहीं हुई। उन्होंने शंकर जी को नीचा दिखाने के लिए एक आयोजन किया ।यज्ञ में अन्य देवताओं को तो आमंत्रित किया, परंतु शंकर जी को आमंत्रित नहीं किया। प्रतिरोध की भावना धर्म को पूर्ण नहीं होने देती। वह न अंतःकरण को शुद्ध करती है,ना अहिंसा को प्रतिष्ठित होने देती है,और न व्यवहार में सफलता आने देती है ।दक्ष का आचरण धर्म के विपरीत प्रारंभ हो गया।धर्म का निषेध-पक्ष अपनाना ही संसार चक्र में फंसे रहने का हेतु है, वही विसर्ग सृष्टि का भी हेतु है।
- जब सती जी ने सुना, कि उनके पिता यज्ञ कर रहे हैं और उसमें भाग लेने सब देवता जा रहे हैं, तब उनके मन में भी वहां जाने की इच्छा हुई ।उन्होंने शंकरजी से चलने को कहा, और धर्म का तर्क दिया, कि अपने पिता, पति तथा गुरु के घर से आमंत्रण ना आने पर भी, वहां जाया जा सकता है, अतः मैं वहां जाऊंगी। शंकर जी ने कहा कि देवि ! यदि अनजान में आमंत्रण न आया हो, तो वहां जाया जा सकता है। परंतु जहां जानबूझकर आमंत्रित न किया गया हो, मन मैला हो, वहां नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार शंकर जी ने साफ- साफ मना कर दिया, लेकिन सती जी नहीं मानी। जगतगुरु तथा पति की आज्ञा का उल्लंघन कर सती जी ने भी धर्म का निषेध पक्ष अपना लिया और पिता के घर जाने के लिए, स्वयं घर से निकल पड़ी।
- सती जी अकेले ही ,पिताजी के घर जाने के लिए निकल पड़ी। यह देख उनके सेवक उनकी सवारी के लिए बैल ले आए। जब सती जी शंकर जी के साथ बैल पर चढ़ती है ,तो उनकी शोभा अलग होती है। आज शंकर जी के बिना ही नंदी पर सवार हो गई ।जब शक्ति और ज्ञान अलग- अलग हो जाते हैं, तब धर्म अधूरा हो जाता है । जब सती जी पिता के घर पहुंची ,तब वहां किसी ने भी उनका आदर नहीं किया। मां जरूर प्रेम से मिली।लेकिन बहनें हंसती हुई सी, कुछ तिरस्कार पूर्वक मिली ।दक्ष तो मिले ही नहीं । अतः सती जी का माथा ठनका ।वे यज्ञ मंडप में गई, लेकिन उनको शंकर जी के बैठने के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई पड़ा। फिर वे सब कुछ समझ कर क्रुद्ध हो गई। उन्होंने पिताजी को खरी-खोटी सुनाना प्रारंभ किया।
- सती जी ने कहा – “पिताजी! भगवान शंकर से बड़ा तू संसार में कोई नहीं है ।उनका "शिव" यह दो अक्षरों का नाम प्रसंग बस,एक बार भी मुख से निकल जाने पर,मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और उनकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता ।उन्हीं पवित्र, मंगलमय भगवान शंकर से आप द्वेष करते हैं,अवश्य ही आप अमंगलरूप है। आप भगवान नीलकंठ की निंदा करने वाले हैं, इसलिए आप से उत्पन्न हुए इस शरीर को, अब मैं नहीं रह सकती। “ देवी सती मौन होकर तथा आंखें मूंदकर, शरीर छोड़ने के लिए योग मार्ग में स्थित हो गई । हृदयस्थ वायु को कंठ मार्ग से भृकुटी के मध्य ले गई ।सती ने संपूर्ण अंगों में वायु और अग्नि की धारणा की। जगतगुरु भगवान शंकर के चरण कमलों के चिंतन करते,सब ध्यान भुला दिए। अभिमान से मुक्त हो गई और उनका शरीर योगाग्नि से जल उठा।
- यज्ञशाला में सती का शरीर भस्म हो गया ।चारों तरफ हाहाकार मच गया। शंकर जी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे ।भृगु जी ने मंत्रों द्वारा ऋभु नामक देवता उत्पन्न किए,जिन्होंने यज्ञ की रक्षा की। इस घटना के बहुत दिन बाद ,नारद जी शंकर जी के पास आए ,और उन्होंने सती जी के शरीर त्याग की बात बताई। यह सुनकर शंकर जी को क्रोध आया ,और उन्होंने अपनी जटा का एक बाल उखाड़ कर,पृथ्वी पर पटका। उससे विशाल ,अत्यंत बलशाली वीरभद्र नामक पुरुष, उत्पन्न हुआ। भगवान शंकर की आज्ञा से ,अन्य गणों के साथ, वहां जाकर उसने यज्ञ विध्वंस कर दिया। यज्ञ में सम्मिलित बड़े-बड़े देवता, अंग भंग होकर वहां से भागकर, ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। अश्रद्धा ,ईर्ष्या, द्वेष तथा स्पर्धा से और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए किया गया धार्मिक कार्य भी, परिपूर्ण नहीं होता।
- मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर! जी! पितामह ब्रह्माजी शांति के देवता हैं,वह सब को लेकर शंकर जी के पास गए। देवताओं ने क्षमा मांगी और सब ने उनसे प्रार्थना की। शंकर जी भी आशुतोष है, उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा दक्ष तो बालक है, उसके अपराध पर हम कहाँ विचार करते हैं? शंकर जी ने दक्ष को क्षमा कर दिया ।लेकिन उसका सिर तो यज्ञ कुंड में जल चुका था, अतः बकरे का से जोड़ा गया ।शंकर जी ने ऐसी व्यवस्था कर दी ,कि भृगु की दाढ़ी में बकरे की दाढ़ी जोड़ी गई ।पूषा के लिए यह कह दिया गया ,कि यजमान अपने मुंह से चबाएगा और इनका पेट भर जाएगा। इसके बाद यज्ञ में साक्षात विष्णु भगवान आये।सब देवताओं ने अलग-अलग उनकी स्तुति की, और दक्ष का यज्ञ किसी प्रकार परिपूर्ण हो गया। कथा का सार यह है, कि सृष्टि के मूल में ईश्वर है, यदि फलदाता ईश्वर के प्रति श्रद्धा ना हो, तो धर्म फल पद नहीं होता ,भले ही कर्ता दक्ष के समान कुशल हो।
- इस प्रकार 7 अध्यायों में धर्म प्रकरण पूरा करके, आगे के 5 अध्यायों में अर्थ का निरूपण है।श्री वल्लभाचार्य जी ने संकेत दिया है ,कि ध्रुव पूर्व जन्म में ही ऋषि थे। किसी राजकुमार को देखकर उनके मन में राजकुमार बनने की वासना का उदय हो गया, इसीलिए राजकुमार होना पड़ा।संसार( अर्थ) की वासना विसर्ग सृष्टि में हेतु बनी। अर्थ प्रकरण के पहले अध्याय में- ध्रुव की तपस्या का वर्णन है। दूसरे अध्याय में भगवत प्राप्ति-रूप, साधना फल का निर्देश है। तीसरे अध्याय में दिखाया गया, कि राज्यादि प्रापंचिक पदार्थ स्वीकार करने पर, क्रोधादि दोष की प्राप्ति अनिवार्य है। चौथे अध्याय में स्वयंभू मनु के उपदेश से दोष त्याग का वर्णन है। जो काम भगवत -दर्शन से नहीं हुआ, वह भागवत मनु के उपदेश से हो गया। पांचवें अध्याय में अभीष्ट फल की प्राप्ति, और देवार्षि नारद के द्वारा कीर्ति गान किया गया है।
- मैत्रेय जी, विदुर जी को- मनु वंश की कथा सुना रहे हैं। मनु के 2 पुत्र थे- एक प्रियव्रत और दूसरा उत्तानपाद। उत्तानपाद के दो पत्नियां थी- सुनीति और दूसरी सुरुचि। सुनीत का अर्थ होता है सुंदर नीति राजा को उसके अनुसार चलना चाहिए। सुरुचि का अर्थ है सुंदर रुचि ।राजा उत्तानपाद को सुनीति पसंद नहीं थी सुरुचि पसंद थी। एक बार राजा की गोद में सुरुचि पुत्र उत्तम बैठा था। तभी सुनीत पुत्र ध्रुव भी वहां आया और राजा की गोद में चढ़ने का प्रयास किया, लेकिन राजा ने उसको गोद में नहीं लिया। वहां सुरुचि बैठी थी। उसने बालक ध्रुव से कहा - कि बेटा यदि तुम महाराज की गोद में बैठना चाहते हो ,तो पहले भगवान का आराधना करो ।फिर तुम्हारा जन्म मेरे पेट से होगा, तब तुम्हें राजा का सिंहासन बैठने को मिलेगा। भागवत 4 .8.13।
- ध्रुव चरित्र की कथा चल रही है। विमाता सुरुचि की बात सुनकर, विचारे ध्रुव रोने लगे, क्योंकि उनके मन में राजा की गोद में बैठने की वासना थी। वह रोते- रोते ,अपनी मां सुनीति के पास गए। दासी द्वारा सुनीति को सारी घटना का पता था। उसने शांतिपूर्वक बेटा ध्रुव से कहा, कि तुम्हारी सौतेली माता ने तुमको जो रास्ता बताया है, वही तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है। तुम्हारे पिता को, तुम्हारे बाबा मनु को, भगवान की कृपा से ही राजपद मिला है ।इसलिए तुम जाओ और भगवान की आराधना करो। भगवान की लीला देखो- राजकुमार बनने की वासना थी, इसलिए राजा के यहां जन्म हुआ। महात्मा थे, पूर्व जन्म की कमाई है, इसलिए सदमार्ग में ले जाने के लिए अपमान हुआ है।
- ध्रुव चरित्र की कथा चल रही है। माताजी की बात सुनकर, बालक ध्रुव तत्काल भगवान की आराधना का निश्चय कर,घर से निकल पड़े। बाहर निकलते ही नारद जी मिल गए। उन्होंने पहले तो यही समझाया कि अभी तुम्हारी आयु छोटी है, अभी तुम्हारे लिये क्या मान-अपमान घर लौट जाओ। ध्रुव की दृढ़ निष्ठा देखकर, नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने तुरंत ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र बता दिया,और उसके जपने की विधि भी बता दी। यह भी बताया कि तुम यमुना तट पर जाओ। मथुरा के पास मधुबन नामक एक बन है ,उसमें रहकर भगवान की आराधना करो । ध्रुव 6 महीने तक वहां बड़ी कठोर तपस्या करते रहे। पहले फलफूल खाकर, फिर जल पीकर, फिर वायु पीकर और अंत में सब कुछ छोड़कर, एक पांव से धरती पर खड़े हो गए। उनका व्यष्टि भाव निवृत हो गया और वे समष्टि भाव में स्थित हो गए। ऐसे में जब उन्होंने प्राण रोध किया तो सारी सृष्टि का प्राण- रोध होने लगा। देवता लोग घबराकर भगवान के पास गए।
- ध्रुव चरित्र की कथा चल रही है। भगवान ने देवताओं को आश्वासन दिया ,और गरुड़ पर आरूढ़ हो ध्रुव के सामने प्रकट हो गए।ध्रुव हृदयस्थ भगवान के ध्यान में, इतना मगन थे, कि उन्होंने आंख नहीं खोली। भगवान ने अंतःकरण में होने वाली स्फुरणा को बंद किया,तब ध्रुव ने आंख खोलकर चतुर्भुज रूप के दर्शन किए। उसके शरीर में रोमांच हो गया,आंखों में आंसू आ गए, कंठ अवरुद्ध हो गया, और हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया । वह भगवान के चरणों में गिर पड़ा, उठा तो भगवान की स्तुति चाहने पर भी, न कर सका। भगवान ने ध्रुव की स्थिति समझी, और उसके कपोलों में अपने शंख का स्पर्श कर दिया। ध्रुव ने, भागवत 4.9.6 से 17 में बड़ी सुंदर स्तुति की है, उसे मूलग्रंथ में देखना चाहिए।
- श्री मैत्रेय जी कहते हैं, विदुर जी! शुभ संकल्प वाले ध्रुव की इस प्रकार स्तुति सुन, भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया। उन्होंने कहा कि मैं तुमको वह स्थान देता हूं, जो किसी दूसरे को नहीं मिला और ना आगे किसी को मिलेगा। ध्रुव को वह सब मिला, जो वे चाहते थे, संसार में जिसकी आवश्यकता होती है। सब कुछ प्राप्त करने भी ध्रुव पछताते हुए घर लौटे। पछतावा इस बात का हुआ,कि मैं चाहता तो स्वयं भगवान मुझे मिल जाते, फिर भी मैंने अर्थ प्राप्ति का वरदान मांगा। ध्रुव अपने नगर लौटे, वहां उनका बड़ा स्वागत संस्कार हुआ ।वह उत्तम की माता सुरुचि से मिले, उन्हें प्रणाम किया और कहा कि तुम ही मेरी आदि गुरु हो। इसके बाद राजा उत्तानपाद, ध्रुव को राज्य देकर बन को चले गए और ध्रुव राजा हुए।वे राजर्षि कहलाए।
- ध्रुव चरित्र की कथा चल रही है। एक दिन एक विचित्र घटना घटी। एक बार सुरुचि का बेटा उत्तम शिकार खेलने गया, वहां मृगया मैं ,किसी यक्ष ने उसका वध कर दिया। जब उसकी मां सुरुचि उसको ढूंढने गई, तो वह भी दावानल में जल मरी । जब ध्रुव को यह मालूम हुआ, तब उनके प्रति उनकी ममता उमड़ पड़ी ।उन्होंने अर्थ प्राप्ति की रुचि से भगवान का भजन किया था, इसलिए ममत्व की निवृत्ति नहीं हुई थी ।उन्होंने क्रोधवश यक्षों पर चढ़ाई कर दी। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ ,तमाम यक्ष मारे गए। ध्रुव, नारायण अस्त्र छोड़कर समस्त यक्षों को भस्म कर देना चाहते थे।परंतु उसी समय उनके दादा स्वयंभू मनु आ गए, और समझाया कि क्रोध मत करो, क्रोध स्वयं में बड़ा पाप है।
- स्वयंभू मनु,ध्रुव से बोले –बेटा तुमने तो परमात्मा का दर्शन किया है, फिर तुम्हारे हृदय में ऐसा क्रोध क्यों ? निरापराध यक्षों को मार रहे हो! अपराध किया किसी एक यक्ष ने और तुम बध कर देना चाहते हो समस्त यक्षों का! युद्ध बंद करो !और देखो कि भगवान कैसे प्रसन्न होते हैं:“अपने से बड़ों के प्रति सहनशीलता ,छोटों के प्रति दया ,बराबर वालों के साथ मित्रता और समस्त प्राणियों के साथ समता का बर्ताव करने से ही, सर्वात्मा श्रीहरि प्रसन्न होते हैं।“भागवत 4.11.13। मनु जी, भागवत में वर्णित 12 भागवतों में से एक हैं, इसलिए उनके उपदेश से ,ध्रुव का क्रोध शांत हो गया। यक्षों के अधिपति कुवेर वहां आए ।दोनों में प्रेम हो गया, और कुबेर जी ने, ध्रुव को उनके हृदय में अचल भगवद् भक्ति, रहने का वरदान दिया।
- ध्रुव हजारों वर्ष तक राज्य करने के बाद, पुत्र को राज्य देकर ,बन में जाकर तपस्या करने लगे। अंत में, भगवान के भेजे हुए विमान के साथ ,उनके पार्षद आए।ध्रुव जी ने बड़ी शांति से यमुना जी में स्नान किया, फिर संध्या वंदन आदि करके, ऋषि-मुनियों को प्रणाम करके, उस विमान पर चढ़ने को तैयार हुए। इसी बीच वहां मृत्यु आ गई। उसने कहा कि जो मृत्युलोक से ऊपर जाता है, उसको हमारे मुंह से निकलना पड़ता है। ध्रुव जी ने उसको भी आदर दिया, और उसके सिर पर पैर रखकर, विमान पर आरूढ़ हो गए। इतने में ध्रुव जी को,अपनी माता सुनीति जी की याद आ गई। तब पार्षदों ने दिखलाया, कि आपकी मां तो दूसरे विमान से पहले ही आगे आगे जा रही हैं। मैत्रेय जी कहते हैं, कि विदुर जी!ध्रुव का चरित्र बहुत ही पवित्र है ,और सुनने से भक्ति प्रदान करने वाला है ।
- अब चतुर्थ स्कंध का 11 अध्यायों वाला, काम पुरुषार्थ संबंधी प्रकरण,प्रारंभ होता है।यह पहले कहा जा चुका है, कि चतुर्थ स्कंध में नामरूप प्रधान विसर्ग सृष्टि का वर्णन है। मनुष्य के मन में जो वासनाओं की ,कामनाओं की ,विविधता है वही सृष्टि की विविधता का कारण है ।इस प्रकरण में राजा पृथु और राजा वेन केउपाख्यानों की प्रधानता से,अन्वय व्यतिरेकेण काम पुरूषार्थ का वर्णन है। मैत्रेय जी, विदुर जी से ध्रुव वंश का वर्णन कर रहे हैं। ध्रुव के पुत्रों में एक तो उत्कल हुए, जो अवधूत हो गए।वे ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव करते हुए,मगन रहते थे, अतः राज्य को स्वीकार नहीं किया।इसलिए ध्रुव के दूसरे पुत्र को राजा बनाया गया ।
- ध्रुव वंश की कथा चल रही है।आगे चलकर इस वंश में,एक अंग नामक राजा हुए। उनका विवाह मृत्यु की दौहित्री सुनीथा से हुआ । अंग राजा के पहले कोई बेटा नहीं हुआ।जब उन्होंने ब्राह्मणों की सम्मति से पुत्रेष्ठी यज्ञ करवाया,तब नाना के प्रभाव वाला पुत्र उत्पन्न हुआ।जिसका नाम पड़ा वेन। शास्त्रों में कहा गया है,कि विवाह के समय कन्या की आनुवंशिकी- शुद्धि पर ध्यान देना चाहिए ,क्योंकि नाना नानी का प्रभाव भी बच्चों पर पड़ता है । वेन बचपन से ही प्रजा को दुख पहुंचाने लगा ।उसका व्यवहार राक्षस जैसा था।वह जहां जाए वहां मृत्यु का वातावरण पैदा कर दे।राजा अंग पुत्र के दुख से अत्यंत दुखी रहने लगे, यहां तक की संसार से मोह ममत्व छूट गया और राज्य छोड़कर जंगल भजन करने चले गए। यद्यपि पुत्र में माता का प्रभाव रहा,किंतु धर्म( पुत्रेष्टि यज्ञ) के अनुशासन में पूरी की गई कामना, परमार्थ सिद्धि में हेतु बन गई।
- राजा के अभाव में वेन का राज्याभिषेक किया गया, यद्यपि जनता का उसके प्रति अनादर भाव और असंतोष था। राजा बनते ही उसने राज्य भर में ढिंढोरा पिटवा कर घोषणा कर दी- कि कोई भी यज्ञ, दान ,हवन ना करें।समस्त धार्मिक क्रियाकलाप बंद करवा दिए।भागवत 4.14.6।आज के संदर्भ में राजा सेकुलर हो गया। महात्मा लोग मिलकर राजा को सावधान करने पहुंचे। बेन ने उनसे कहा कि तुम लोग बड़े मुर्ख हो। मैं ही खाने-पीने रहने की व्यवस्था करता हूं, सबका विकास करता हूँ, तुम्हारी वृत्ति दान करने वाला पिता हूं ,जगत का ईश्वर हूं ।भागवत 4.14.23 से 28। इस पर महात्माओं ने तिरस्कार पूर्वक,ऐसी हुंकार की,जिससे उसकी ध्वनि के आघात से वेन मर गया। भागवत 4.14.34 ।महात्माओं के चले जाने के बाद माता सुनीथा ने पुत्र के शव को सुरक्षित करवा दिया ।
- ध्रुव वंश की कथा चल रही है। वेन के न रहने पर, राज्य सत्ता विहीन हो गया।प्रजा अराजक और उच्छृंखल हो गई ।अव्यवस्था,लूटपाट तथा दुष्टता बढ़ जाने से, जनता जहां-तहां पलायन करने लगी। ऋषियों ने प्रजा की पीड़ा देखकर, वेन के शरीर का मंथन किया।उन्होंने कहा कि राजर्षि ध्रुव के वंश का लोप नहीं होना चाहिए।अधो भाग के मंथन से निषाद और बाहुओं के मंत्थन से ,लक्ष्मीनारायण के अंश से राजा पृथु और उनकी पत्नी अर्चि का प्राकट्य हुआ। पृथु में भगवता प्रकट हुई। बाहु मन्थन से संबंध होने के क्षत्रित्व भी था । मंथन प्रक्रिया का विज्ञान ध्यान देने योग्य है। जगत का उपादान चाहे ईश्वर हो या प्रकृति,सब का बीज उसमें विद्यमान है ।बीज से ही जगत- वृक्ष की ;शाखा- प्रशाखा ,पल्लव ,पुष्प ,फल, रस, सब का निर्माण होता है। अतः अव्यक्त रूप में, सब में सब की स्थिति बनी रहती है। मंथन प्रयोग विशेष से ,अभिव्यक्ति हो जाती है। प्रयोग करने वाला पुरुष ही दुर्लभ है।
- पृथु जी के उत्पन्न होने पर, उनका राज्याभिषेक हुआ। सारी प्रजा ने उनका अभिनंदन किया। देवताओं के पास जो-जो अधिकार हैं, वे सब उनको समर्पित किए गए। राज्याभिषेक के समय, राज्य की भूखी -प्यासी प्रजा ने अपनी व्यथा दूर करने की, प्रार्थना की ।पृथु ने पूछा, प्रजाजन! पृथ्वी से जो अन्न पैदा होता था, वह कहां चला जाता है? प्रजा ने कहा, महाराज! सब पृथ्वी में लीन हो गया है ,पैदा नहीं होता। पृथु ने अपना बाण उठाया और क्रोध पूर्वक पृथ्वी का पीछा किया। पृथ्वी आक्रांत होकर, हाथ जोड़कर शरणागत हुई ,और कहा कि महाराज क्रोध करने से नहीं, हमारे दोहन की सुव्यवस्था कर, आपको जो चाहिए,मुझसे ले सकते हैं। पृथ्वी ने जो उत्तर दिया है, वह शाश्वत सत्य है, और आज भी हम सब के लिए उतना ही उपयोगी है। निठल्ले बनकर ,मनरेगा योजना से ,अन्न न उत्पन्न होगा।
- पृथ्वी ने राजा पृथु से कहा, राजन !जब ब्रतहीन निठल्ले लोग- जिनके अंदर न तो ब्रह्मचर्य ही था, ना तो सदाचार का पालन करते थे,और अन्न का दुरुपयोग भी करते थे ,तभी हमने वस्तुओं को छिपा लिया था।भागवत,4.18.5से7। इस प्रकार के अनेक नीतिवचन स्मृतियों में मिलते हैं। जैसे चोर को साथ देने वाला भी चोर होता है ,वैसे ही ब्रतहीन, अयोग्य तथा निठल्लों को भोजन देने वाला भी अपराधी है।अतः भूदेवी ने अन्य छिपा लिया था। आजकल भी, वोट बैंक के चक्कर में, निठल्ले बनाने का अभियान चल रहा है ।जैसे विद्यार्थियों को, विना उपयुक्त योग्यता के नंबर लुटाए जाते हैं। धन न लौटाने का इरादा रखने वालों को, बैंक का लोन दिया जाता है। श्रम न करने वालों के लिए मनोरेगा योजना है। अयोग्यता का आरक्षण है। कृषि को गोवंश से अलग कर पेट्रोलियम पदार्थों पर आश्रित किया जा रहा है। यह सब भविष्य में दुर्भिक्ष का कारण हो सकते हैं।
- राजा पृथु ने, पृथ्वी के नेक सलाह को मान लिया ।यदि अलौकिक उपाय से वस्तु की सिद्धि होती हो, तो अलौकिक कल्पना नहीं करनी चाहिए। राजा ने सब के बीजों को सुरक्षित किया ।सिंचाई के लिए जलाशयों की व्यवस्था की। पृथ्वी को समतल बनवाया, ऊंचे नीचे टीलों को तोड़वाया। जो कठोर धरती थी ,उसको जोतने बोने के योग्य बनवाया। गांव, पुर तथा नगर आदि व्यवस्थित ढंग से बसाकर,धरती का श्रृंगार किया।राज्य की प्रजा अपने अपने अभीष्ट को पाकर, स्वधर्म पालन करते हुए, सुखी हो गई । जब सब सुखी हो गए ,तब राजा पृथु ने यज्ञ किये। यज्ञ से सृष्टि में आदानप्रदान की क्रिया संपन्न होती है, और समाज का शक्ति का संतुलन बना रहता है। यज्ञ भावना को समझना कर्तव्य है ।
- पृथु के जब 99 यज्ञ पूरे हो गए, तो इंद्र ने बाधा डाली। पृथु को क्रोध आया, और उन्होंने इंद्र को मार डालने का संकल्प किया। बीच -बचाव के लिए ब्रह्मा जी को आना पड़ा। निष्काम होने के कारण, ब्रह्मा जी के समझाने से ,पृथु जी ने 100 यज्ञ करने का संकल्प छोड़ दिया ,और बिघ्न करने वाले इंद्र को भी क्षमा करके, उनको हृदय से लगाया। इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होकर आए, और वर मांगने को कहा ।वर में पृथु जी ने भगवान की कथा सुनने के लिए, हजार कान होने का वरदान मांगा। इससे श्रवण की महिमा का पता चलता है।वास्तविकता यह है, कि संसार हमारे ह्रदय में आंख के रास्ते से कम, कान के रास्ते से अधिक घुसता है ।विद्या और ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के लिए, श्रवण ही साधन है।
- सिद्धांत यह है कि भले ही ईश्वर का वाह्य या अंतरंग; प्रत्यक्ष अथवा अपरोक्ष दर्शन हो जाए; समाधि लगाने से नाम रूप का लोप हो जाए; लेकिन उस सबसे अंतः करण में जो संस्कार भरा हुआ है , उनका लोप नहीं होता है ।अस्तु पृथु की परमार्थ सिद्धि के लिए, सनकादि उनके पास सत्संग के लिए आए ,और उनको उपदेश दिया।सनकादि के उपदेश से पृथु को ,अंतरंग संस्कारों का बोध हो गया और उनकी निवृत्ती के लिए ,उन्होंने राज्यगृह त्याग कर , वानप्रस्थ जीवन व्यतीत कर, परम ब्रह्म परमात्मा से एकता का अनुभव किया। पृथु इसी जीवन में ,पौरुष के द्वारा, संपूर्ण कामनाएं पूर्ण कर ली ।उनके जीवन में पुरुषार्थ और परमार्थ पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित दिखाई देता है ।यह सब हम लोगों की शिक्षा के लिए है।
- इस स्कंध के अंतिम 8 अध्याय मोक्ष संबंधी हैं। मान्यता यह है ,कि 5 अध्यायों में निर्गुण मोक्ष का, और 3 अध्याय में सगुण मोक्ष का वर्णन है।निर्गुण (कैवल्य) मोक्ष का वर्णन, प्राचीनवर्हि और पुरंजन उपाख्यान में है ।सगुण( ईश्वर दर्शन )मोक्ष का वर्णन प्राचेतस उपाख्यान में है। मोक्ष की वास्तविकता यह है- कि वह आत्मा का स्वरूप है ,उसको पाया नहीं जाता ,जाना जाता है।हमारा आत्मा संपूर्ण भेदों- परिच्छेदों से मुक्त है। सारे भेद परिच्छेद,अपने अत्यंत अभाव के अधिकरण, आत्मा में ही भास रहे हैं ।वही उनका अपरिछिन्न प्रकाशक अधिष्ठान है ।इसलिए आत्मा नित्य मुक्त है।
- मैत्रेय जी,विदुर से कहते हैं की पृथु वंश में, आगे चलकर, प्राचीनवर्हि नाम के एक कर्मठ राजा हुए। उन्होंने इतने यज्ञ किए ,की पुर्वाभिमुख कुशों के द्वारा ,बिछाकर सारी पृथ्वी को ढका जा सकता था । राजा प्राचीन वर्ग के 10 पुत्र थे ,उनको प्रचेता कहा जाता था। उन्होंने जब अपने पिता से पूछा, कि हम क्या करें ,तब राजा ने कहा - पहले तपस्या करो ,फिर राज्य और वंश की वृद्धि करना। आज्ञा पा प्रचेतागण तपस्या करने के लिए, कच्छ प्रदेश में स्थित नारायण सरोवर पर गए। वहां पर उनको बहुत सुंदर संगीत सुनाई पड़ा ।थोड़ी देर बाद, भगवान गौरीशंकर वृषभ पर आरूढ़ होकर उनके सामने प्रकट हुए। जब प्रचेताओं ने भगवान गौरी शंकर की पूजा स्तुति कर ली ,तब उन्होंने उनको एक मंत्र बताया ।भागवत 4,24.23 ।मंत्र के साथ-साथ भगवान ने, उनको विष्णु की बहुत बढ़िया स्तुति बताई। उसे ग्रंथ 4.24 में देखना चाहिए। प्रचेता लोग समुद्र किनारे रहकर, भगवान विष्णु की आराधना करने लगे। इसमें बहुत वर्ष बीत गए ।
- पृथु वंश की चर्चा चल रही है।नारद जी का ध्यान, कर्मासक्त प्राचीनवर्हि की ओर गया और उन्हें सकाम भाव से, पशु यज्ञ करते देख ,उनके प्रति करुणा का उदय हो गया ।नारद उसी को कहते हैं, जो नरक के हृदय में रहने वाले जीवभाव (नार)का खंडन कर दे ।अतः नारद ने पुरंजन उपाख्यान के द्वारा प्राचीनवर्हि के देहाभ्यास का विनाश किया ।नारद जी ने कहा ,राजा जी !जीव और ईश्वर सखा है, जो शरीर रूपी एक ही वृक्ष में रहते है ,लेकिन जीव अपने सखा को पहचानता नहीं। जीवने परमेश्वर से अलग होकर देखा ,कि एक शरीर रूपी नगरी है, इसमें 9 दरवाजे हैं,और इसमें भोग की सामग्री भरी हुई है।हाथ-पांव अंधे हैं ,और ज्ञानेंद्रियां ज्ञान रूप है। वे जो मार्ग बताती हैं,उन से आया -जाया जाता है ।पांच प्राण इस नगरी की रक्षा करते हैं। प्राण तब तक नहीं मरते, जब तक जीव को मोक्ष न मिल जाए। इस प्रकार नारद जी ने, शरीर को बड़े भारी नगर के रूप में वर्णन किया ।
- नारद जी प्राचीनवर्हि को पुरंजन उपाख्यान समझा रहे हैं। इस शरीर रूपी नगरी में एक बुद्धि है, जो प्रमदा है ,उसको देख कर जीव मतवाला हो जाता है, और अपने सखा को भूल कर उसी के साथ लग जाता है ।बुद्धि रूपी स्त्री और जीवात्मा ने आपस में तादात्म्य कर लिया और एक दूसरे पर आसक्त हो गए। अब जीव उस प्रमदा का हंसना, अपना हंसना माने; उसका खाना अपना खाना माने;और उसका चलना- बोलना अपना चलना- बोलना माने। वह उसी के साथ घुलमिल गया । अंत में, शरीर में बुढ़ापा आने लगा और उसको सताने वाले रोग आदि शत्रु, प्रकट हो गए ।लड़ते -झगड़ते पंचप्राण भी क्षीण हो गए, और एक दिन शरीर शांत हो गया ।अब जीव ,स्त्री का( प्रमदा का) ध्यान करते मरा, तो अंतमती, सो गति -के अनुसार एक स्त्री के रूप में, प्रमदा के रूप में पुनर्जन्म को प्राप्त हुआ ।
- अंत मती- सो- गति के अनुसार, पुरंजन रूपी जीव स्त्री हो गया। नये शरीर के अनुसार, उसका ब्याह हुआ,उसके संताने हुई, और वंश चला।अंत में ,जब स्त्री रूपी पुरंजन के पति की, मृत्यु हुई, तब वह अपने पति के साथ सती होने के लिए नदी तट पर गई, और वहां विलाप करने लगी। इस समय उसका पुराना अभीज्ञात नामक सखा,जो निरपेक्ष भाव से सदा उसके साथ रहा,प्रकट होकर समझाने लगा-विचार कर तू कौन है ,ना तू स्त्री है,और न वह मरने वाला तेरा पति है। यह तो माया का खेल है। तू मुझ से विमुख होकर, संसार की ओर चले जाने से,उस से तादात्म्य कर लेने से, उसमें फंस गया ।तुम ना स्त्री हो न पुरुष।हम दोनों मानसरोवर के हंस हैं, एक हैं,सदा शुद्ध, बुध, मुक्त हैं।ऐसा समझाने सेमाया का पर्दा हट गया,और जीव अपने सखा परमात्मा के साथ एकत्त्व का अनुभव करने लगा ।
- नारद जी ने राजा प्राचीनवर्हि को, पुरंजन उपाख्यान का कथानक समझाया। प्राचीनवर्हि ने नारद जी से पूछा; कि मनुष्य कर्म एक देह से करता है, और फल दूसरा शरीर धारण कर भोगता है -यह कैसे न्याय संगत हो सकता है? नारद जी ने समझाया कि कर्म स्थूल शरीर से नहीं होता, लिंग शरीर ही उसका करता होता है और देह से अध्यास होने के कारण फल भी वही भोक्ता है ।पुनर्जन्म न तो जड़ पंचतत्वों का होता है, और न चेतन आत्मा का होता है, सूक्ष्म शरीर में जो अहंता रूपी चिदाभास है ,उसी का पुनर्जन्म होता है। नारद जी ने समझा दिया- वैराग्य हीन के लिए कर्म का विधान है। जब तक वैराग्य न हो, तब तक कर्म करें। सत्संग और कथा श्रवण बराबर करता रहे। श्रद्धा के साथ श्रवण और स्वाध्याय करने से ही, भक्तियोग की प्राप्ति होती है ,तब सच्चे वैराग्य और ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है। इसके बाद राजा प्राचीनवर्हि, कपिलाश्रम में जाकर भगवान की भक्ति की ,और अपनी ब्रह्मता का अनुभव करके ,अविद्या बंधन से सर्वथा मुक्त हो गए ।
- विदुर जी ने पूछा, कि प्राचीनवर्हि के पुत्र प्रेचेताओं को साधना से क्या मिला? मैत्रेय जी ने कहा- कि मैं बता चुका हूं, कि शिव जी की आज्ञानुसार वे नारायण सरोवर पर जप यज्ञ से भगवान विष्णु की आराधना करने लगे ।जब प्रचेताओं ने बड़ी भारी तपस्या करी ,तब भगवान विष्णु गरुड़ारूढ हो उनके सामने प्रकट हुए ।भगवान ने आज्ञा और वरदान दिया, कि तुम लोग घर जाओ, व्याह करो ,और सृष्टि बढ़ाओ। अंत में मेरे धाम आना।प्रचेता जब घर लौटे तब देखा - न तो उनके पिता है, न राज्य शासन है, और न कोई व्यवस्था है। सारी पृथ्वी वृक्षों से ढकी हुई है। उनको क्रोध आ गया और उससे सारे वृक्ष जलने लगे ।वृक्षों के देवता चंद्रमा प्रकट हुए ,उन्होंने कहा कि निरा अपराध वृक्षों को मत जलाओ ।यह सब प्राणी है ।कांडू ऋषि से प्रम्लोचा अप्सरा द्वारा उत्पन्न मारिषा नाम की कन्या को वृक्षों ने पाला है,उससे ब्याह कर लो ।वैसा ही हुआ ।
- प्राचेताओं ने राज्य कार्य संभाला ।ब्रह्मा जी के पुत्र प्रजापति दक्ष, बकरे का सिर मिल जाने पर ,बहुत लज्जित हुए थे ,और उन्होंने वह शरीर छोड़ दिया था। वही दक्ष, प्राचेतस दक्ष होकर, मारिषा के पुत्र रूप में जन्मे। उन्हीं से सृष्टि का बहुत विस्तार हुआ है।प्रचेता, राजकाज में ऐसे लग गए, कि सारा ज्ञान-विज्ञान दब गया। बहुत समय बाद, उनका विवेक उदय हुआ ,और उन्हें भगवान की बात याद आई। वह घर बार, पुत्र दक्ष के हवाले कर, तपस्या के लिए चले गए। वहां नारद जी आए और बहुत सुंदर उपदेश दिया। जिससे प्रचेताओं को प्रत्यक्ष जीवनमुक्ति का अनुभव होने लगा। विदुर जी ;मैत्रेय जी से सब प्रश्नों का उत्तर पाकर, बहुत संतुष्ट हुए ,और प्रेमाश्रु पूर्ण नेत्रों से कृतज्ञता प्रकट करी।इसके बाद विदुर जी, अपने परिवार के लोगों से मिलने के लिए, हस्तिनापुर चले गए ।इस प्रकार यह चतुर्थ स्कंध पूरा हुआ।
धर्म, विधि -निषेधमय होता है| दक्ष द्वारा निषेधात्मक धर्म अपनाने के कारण, उनका यज्ञ भी विध्वंस हुआ, और सती को देह त्यागना पड़ा| मैत्रेय जी कहते हैं -विदुर जी ! पहले एक बार प्रजापतियों का बड़ा भारी यज्ञ हुआ था ।उसमें ऋषि ,देवता ,अग्नि सब के सब आए थे ।इसी बीच में दक्ष वहां आ गए। उनके आने पर और सब तो उठ कर खड़े हो गए हैं, लेकिन ब्रह्मा और शंकर जी दोनों चुपचाप अपने- अपने आसनों पर बैठे रहे। दक्ष जी को, शंकर जी के ना उठने से, बहुत बुरा लगा। वह क्रोध में आकर बोले- कि देखो मैं बहुत समझ बूझ कर यह बात कह रहा हूं। यह जो शिव यहां बैठा है, यह लोकपालों के यश को नष्ट करने वाला है। इसने सत्य पथ का त्याग कर दिया है ।यह मर्कट लोचन है ।यह मेरी बेटी से विवाह करने लायक नहीं था, मैंने ब्रह्मा जी के कहने से इससे ब्याह कर दिया था, आदि। सती के देह त्याग की कथा चल रही है।दक्ष क्रोधवश, शंकर जी की निंदा कर रहा है – यह अपवित्र रहता है! धर्म भ्रष्ट है! श्मशान में रहता है! भूतों के साथ नाचता है! नंगा रहता है! उन्मत्तवत विचरण करता है! चिता की भस्म लगाता है! मुंड माल पहनता है! नाम है शिव, लेकिन है अशिव।
पंचम स्कंध
- गंगा जी के किनारे ,श्री शुकदेव जी महाराज, का परीक्षित के साथ सत्संग चल रहा है। परीक्षित जी ने मनु जी के दूसरे पुत्र प्रियव्रत के,चरित्र को जानने की जिज्ञासा की । यह बात पहले --पोस्ट संख्या 58 में बताई जा चुकी है, की भागवत जी में 10 वस्तुओं के द्वारा परमात्मा के स्वरूप का निरूपण है।पांचवें स्कंध में बताया गया कि सृष्टि किस स्थान पर व किस आधार पर स्थित है।किसके अनुशासन में ,भ्रमण करते हुए ग्रह -नक्षत्र आदि, आपस में लड़ नहीं जाते। इन सब के निरूपण से अधिष्ठान परमात्मा का बोध होता है । अपनी व्यक्तिगत स्थिति पर विचार करने के लिए ही सब कुछ है। योगांग-- धारणा में मन( जीव)को देश में स्थिर रहने का अभ्यास है, ध्यान में निश्चित काल तक स्थित रहने का अभ्यास है, और समाधि में निश्चित वस्तु में स्थित रहने का अभ्यास है। देश, काल तथा वस्तु( space, time, matter) से ऊपराम होते ही स्वरूप स्थिति हो जाती है। इस स्कंध में प्रियव्रत तथा उनके वंशजों की कथाओं के माध्यम से, अपनी स्थिति का बोध कराया गया है। सबको आनंद प्राप्ति के लिए ,स्वरूप में स्थित होना ही पड़ता है ।
- प्रियव्रत का जीवन शिक्षाप्रद है। वे पहले विवेक पूर्वक सदगुरु नारद जी के पास रहकर, ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।परंतु ब्रह्मा जी ,और मनु जी उनके पास आकर राज्य करने के लिए समझाते हैं। ब्रह्मा जी वेद के आचार्य हैं, मनु जी स्मृतियों के आचार्य हैं। प्रियव्रत ने निश्चय किया कि, उन लोगों की आज्ञा वेद और धर्मशास्त्र की आज्ञा है, इसलिए उसे स्वीकार करना चाहिये। स्वयं प्रियव्रत के मन में ,भोग की कोई कामना नहीं थी। परंतु भगवान का दिया हुआ प्रसाद ,उन्हीं की प्रसन्नता के लिए ,स्वीकार किया। अतएव राज्यभोग की प्राप्ति के अनंतर भी ,उनको वैराग्य हुआ और स्वरूप स्थिति हुई। स्पष्ट है, कि सब भगवान की लीला है। प्रियव्रत जैसा प्रभावशाली, प्रतापी ,कर्म ज्ञान से परिपूर्ण, और राग- वैराग्य मय जीवन वाला राजा, पौराणिक इतिहास में दूसरा कोई नहीं मिलता ।
- प्रियव्रत के पुत्र अग्नीध्र हुए। प्रियव्रत के जीवन में, ब्रह्माजी की आज्ञा से जो काम का भोगांश आया था, उसकी प्रधानता अग्नीध्र में थी। अतः ब्रह्मा जी ने अग्नीध्र को काम भोग के लिए अप्सरा भेजी। काम भोग के लिए जड़ता स्वीकार करनी पड़ती है। इसी कारण अप्सरा को देखकर,अग्नीध्र प्रेमासक्त हो जड़वत हो गए। उन्होंने मधुर वचनों से, उसको वश में किया था ।रसिक लोग चाहे, तो इस प्रसंग को भागवत 5.2. 7 से 16 तक देख सकते हैं। अग्नीध्र के 9 पुत्र हुए। अग्नीध्र की तत्काल मुक्ति नहीं हुई।अप्सरा से प्रीति होने के कारण, उन्हें अप्सराओं के लोक में जाना पड़ा।वहां जब उनके चित्त में अनासक्ति का उदय हुआ,तब कामभोग को त्यागकर भगवान से एक हो गए, क्योंकि उसका बीज भी उनके अंदर था।
- अग्नीध्र के पुत्र नाभि, बड़े धर्मात्मा हुए। प्रियव्रत में जो ब्रह्मा जी की वाणी पर, श्रद्धा थी, कि वह पुत्र नाभि के जीवन में ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा के रूप में प्रकट हुई। ब्राह्मण ;ब्रह्मा ही है, क्योंकि उनकी वाणी से वेदों का प्रकाशन होता है। नाभि ने ब्राह्मणों द्वारा, बहुत बड़ा यज्ञ करवाया ।यज्ञ में स्वयं भगवान प्रकट हुए। नाभि ने उनकी स्तुति की। याज्ञिकों ने स्तुति करते हुए कहा-- हे प्रभु आप हमारे वचनों का आदर करते हैं ,वेदज्ञ, सदाचारी ,त्यागी, और कर्म -उपासना -ज्ञान सिद्ध ब्राह्मणों के प्रति, आपका सम्मान है ।हम लोग चाहते हैं- राजा के, आप के समान पुत्र हो ।भगवान ने कहा, मेरे समान और कोई नहीं है, अतः मैं ही उनका पुत्र बनूंगा । अपनी प्रतिज्ञा अनुसार, भगवान नाभि के यहां मोक्ष स्वरूप ऋषभदेव के रूप में प्रकट हुए। तब नाभि भजन करने के लिए बन को चले गए। नाभि ने पत्नी सहित वानप्रस्थ धर्म की रीति से भगवत् प्राप्ति की ।
- ।अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, भगवान नाभि के यहां मोक्ष स्वरुप ऋषभदेव के रूप में प्रकट हुए। जिसकी शोभा अपने ज्ञान के द्वारा हो, उसको ऋषभ कहते हैं ।नाभि भजन करने के लिए, वन में चले गए। कहते हैं- कि जब ऋषभदेव बालक थे, तभी इंद्र ने उनके राज्य में वर्षा बंद कर दी ;यह प्रकट करने के लिए भगवान हैं या नहीं ।भगवान वह होता है जिसमें कर्तुं, अकर्तुं अन्यथा कर्तुं करने का समर्थ हो ।ऐसा भी प्रतीत होता है ,कि इंद्र अपनी कन्या जयंती का विवाह ऋषभदेव से करना चाहते थे ,इसलिए उनके गुणों की परीक्षा ली। कन्या का विवाह करने के लिए ,वर की योग्यता परखना आवश्यक है ।ऋषभदेव ने अपने संकल्प से बरसा करवा दी। ऋषभदेव का विवाह हुआ। उनसे ऐसे वंश की वृद्धि हुई ,जिसमें एक ओर नव योगेश्वर पैदा हुए, और दूसरी ओर सप्त द्वीपवती पृथ्वी का शासन करने वाले भरत पैदा हुए, उन्हीं के नाम पर राष्ट्र का नाम भरतखंड पड़ा।
- ऋषभदेव ने शास्त्र विधि के अनुसार प्रजा का पालन किया ।उनकी दृष्टि में प्रजा और पुत्रों में कोई भेद नहीं था। उन्होंने अपने पुत्रों को अपनी प्रजा के सामने ही उपदेश किया। मेरे प्यारे बच्चों ! - यह शरीर कामनाओं में फंसकर व्यर्थ गंवाने के लिए नहीं है। वह प्राप्ति जो पशु पक्षियों को भी हो जाती है ।तुम्हारी जन्मभूमि, "भारत" भोग भूमि नही ,धर्म भूमि है। इसमें अपनी इंद्रियों को संयमित, और विषय भोगों को मर्यादित करना चाहिए। इंद्रियों की तृप्ति में मुग्ध नहीं हो जाना है ।सत्संग में प्रीति रखने से ही,ब्रह्म सुख का द्वार खुलेगा ।संसार की वस्तुओं में,मैं -मेरापन ही मोह है ।अन्य पदार्थों में ,दृश्य में ,जीवात्मा में , - अहम भाव ही लिंग शरीर है; जिससे गमनागमन होता है। कुशलता से इसका निषेध कर देना चाहिए ।जब हृदय ग्रंथि छिन्न-भिन्न हो जाय, तब योगाभ्यास से भी उपराम हो जाना चाहिए ।साधकों के लिए मूलग्रंथ में यह महत्वपूर्ण प्रकरण ,अध्याय 5 .5 में देखना कर्तव्य है।
- भगवान ऋषभदेव ने गृहस्थ के कर्तव्य निभा चुकने के बाद, अपने जेष्ठ पुत्र भरत को राज्य सौंपकर,अवधूत धर्म अपनाया और विचरण करने लगे। ऋषभदेव के जीवन में योगिक सिद्धियां स्वयं आई, परंतु उन्होंने उनको स्वीकार नहीं किया। राजा परीक्षित ने पूछा! कि ऋषभदेव ने उन्हें क्यों नहीं स्वीकारा। इस पर शुकदेव जी ने कहा,- कि मन बड़ा चंचल है, इसके साथ मित्रता नहीं करनी चाहिए ।बड़े-बड़े समर्थ पुरुष भी मन के साथ मित्रता करके, अपनी तपस्या खो चुके हैं। भागवत 5.6.3 ।मन पहले कहता है कि देखने में क्या पाप है, फिर कहता है बात करने में क्या पाप है, फिर कहता है संकीर्णता छोड़ो ,जैसे दूसरे की पत्नी वैसे अपनी। अनजाने में ही मन मनुष्य को पाप के गर्त में ढकेल देता है । अंत समय ऋषभदेव, जिस जंगल में विचरण कर रहे थे, उसमें आग लग गई। वह बिना प्रतिकार किए उसी में जल गए। जिनका शरीर ज्ञान अग्नि में दग्ध हो चुका है, उनके लिए अंत्येष्टि क्रिया अनावश्यक होती है। इस प्रकार ऋषभदेव ने शिक्षा दी,कि संसार त्यागकर ,सर्वाधिष्ठान में स्थित हो जाना ही ,परम कल्याणकारी है।
- ऋषभदेव के बाद, उनके पुत्र भरत राजा हुए ।उनके राज्य में धर्म ही धर्म का वातावरण बन गया। भरत -चरित्र मनुष्य जीवन का उत्कृष्ट प्रकाश है। पृथ्वी का पालन, विवाह,पुत्र- उत्पादन और इतना यश, कि हमारे देश का नाम - अजनाभवर्ष से बदलकर भारत वर्ष कर दिया गया। शकुंतला -दुष्यंत के पुत्र भरत तो बहुत बाद में हुए। राजा भरत के यहां यज्ञ पर यज्ञ आयोजित होते रहते थे ।वे संपूर्ण देवताओं में और अपने यजमान शरीर में भी, एक ही अंतर्यामी परमेश्वर की भावना करते थे।देवता का नाम चाहे कुछ भी हो,और यजमान चाहे कोई भी हो, उनके नियंता प्रभु एक ही होते हैं। देवता, यज्ञ, यजमान, मन्त्र, पुरोहित तथा क्रियाकलाप सब के सब प्रभु के अवयव हैं -इस दृष्टि से भारत यज्ञ करते थे । अंत में भरत अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर, तपस्या करने के लिए गंडकी नदी के तट पर बने हुए।पुलह- आश्रम में रहकर भगवान की आराधना करने लगे।
- संयोगवश, इतनी ऊंची अवस्था प्राप्त भरत के जीवन में विघ्न उपस्थित हो गया। हुआ यह ,की नदी में स्नान करते समय, उन्हीं के समीप एक हिरणी, हरिण शावक को जन्म देकर मर गई। उन्होंने उस हरिण शवक का, सात्विक दया बस, अपने पास रखकर पालन पोषण करने लगे। गुण इतने परिणामी होते हैं, कि सत्वगुण को रजोगुण और रजोगुण को तमोगुण में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। भक्ति होती है अंतरंग अंतर्यामी के प्रति,दया होती है बहिरंग दुखी प्राणी के प्रति। दया सात्विक वृत्ति होने पर भी ,मन को बाहर फेंक देती है। सात्विक वृत्ति भी विकृत होकर बंधन का रूप ग्रहण कर लेती है। भरत के जीवन में भी ऐसा ही हुआ - वह हरिण का ध्यान करते हुए मरे और "अंते:मति ही सो गति:" के अनुसार अगले जन्म में हरिण हो गए। नियम है, कि भगवान की आराधना व्यर्थ नहीं होती ,अतः हरिण शरीर में भी भगवान की स्मृति बनी रही और समय पूरा होने पर, उस शरीर का परित्याग हुआ। उनका अगला जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ, और नाम पड़ा जड़भरत।
- तीसरे जन्म में, ब्राह्मण शरीर मिलने पर, जड़भरत ने किसी के साथ मेलजोल नहीं रखा,और यथा नाम तथा गुण के अनुसार, जीवन व्यतीत करने लगे।पिता ने उनको पढ़ाने- लिखाने की बहुत कोशिश की, और उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। किंतु उनको गायत्री मंत्र तक कंठस्थ नहीं हुआ। उनको जिस किसी भी सांसारिक काम में लगाया जाए, वे उसको ठीक ठीक नहीं कर पाते थे,लेकिन उनकी मस्ती बनी रहती ,और वे अपने स्वरूप में स्थित रहते। एक दिन यह हुआ, कि जड़ भरत डाकुओं के हाथ पड़ गए। वे डाकू देवी को पशु बल दिया करते थे। उन्होंने बलि के लिए जो पशु पकड़ा था, वह कहीं भाग गया।उस पशु के स्थान पर जड़भरत की बलि देना चाहते थे ।जड़ भरत को स्नान कराया गया, चंदन लगाया गया, माला पहनाई गई, और भोजन भी कराया गया। जब बलि चढ़ाने के लिए डाकू उद्यत हुए, तब उनके हाथ से तलवार छीनकर, देवी ने डाकुओं काट काटकर, उनके सिरों को, गेंद की तरह खेलना शुरू कर दिया। जड़भरत की दृष्टि में, तो मान-अपमान और जीवन- मरण में कोई भेद नहीं था।उन पर किसी भी क्रिया का प्रभाव नहीं पड़ता,और वह ज्यों- का- त्यों जीवन व्यतीत करते रहे।
- आगे की कथा प्रसंग में, सिंधुसौवीर के राजा रघु गण ,पालकी पर चढ़कर कपिल देव जी से सत्संग करने जा रहे थे। अचानक पालकी ढोने वाले कहारों में ,एक बीमार हुआ; तो उन लोगों ने जड़ भरत को पकड़कर पालकी ढोने के काम में लगा लिया। पालकी लड़खड़ाने लगी,तो रहुगण ने डांट लगाई ।इस पर जड़भरत जी का ब्रह्मज्ञान मुखरित हो उठा,और उत्तर में उन्होंने बड़ी डांट फटकार के साथ राजा को उपदेश दिया। जड़ भरत का स्पष्ट मत है - कि तत्व ज्ञान को व्यवहार के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। तत्वानुभूति के लिए, तत्व के अतिरिक्त अन्य का वैराग्य आवश्यक है। मन ही माया है। संसारचक्र उसी का जादू है।गुरु-हरि के चरणोंपासना की तलवार से ही, मन बस में होता है।राजापने का अभिमान एक झूठा नशा है। भली-भांति सत्संग करके ज्ञान की तलवार प्राप्त करो, और मोह बंधन को काट डालो ।जड़भरत ने परोक्ष और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में,जीव की गति का वर्णन करके, रहुगण के अज्ञान को दूर कर दिया ।पूरे प्रसंग को इस स्कंध के 10 से 13 अध्याय तक देखना कर्तव्य है । इस प्रकार स्कंध के पहले 15 अध्यायों में- सत्संग, वैराग्य, देवतानुग्रह, यज्ञ, भगवत्प्रसाद, जीवनमुक्ति, भक्ति, तथा योग आदि द्वारा देशकाल का अतिक्रमण और स्वरूप स्थिति का वर्णन है ।भगवत् भजन से ही ऐसा होना शक्य है।
- राजा परीक्षित के पूछने पर,श्री शुकदेव जी महाराज सृष्टि की भौगोलिक स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। श्रीमद्भागवत वर्णित भूगोल -खगोल, ऐतिहासिक या भौगोलिक दृष्टि से अनुसंधान करके कोई मत सिद्ध करने के लिए ना होकर ,भगवान का सर्वरूप में ध्यान करने के लिए है। इसके वर्णन का उद्देश्य यही है - कि इसमें जो जड़ है, चेतन है, तृण से लेकर प्रकृति पर्यंत है, और कीट से लेकर हिरण्यगर्भ पर्यंत है - वह सब परमात्मा का स्वरूप है। यदि इस विराट विश्वरूप ; भूगोल- खगोल के रूप में भगवान का ध्यान किया जाए, तो मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, और उसके राग- द्वेष की निवृत्ति हो जाती है। एक ब्रह्मांड में 14 लोक हैं। उनमें भूर्लोक एक लोक हैं। भूर्लोक में सात द्वीप है - जम्बू, प्लाक्ष ,शाल्मली, कुशद्वीप, क्रौंच,शाकद्वीप,पुष्कर। ये क्रमशः सात समुद्रों से घिरे हैं यथा - खारा जल, इक्षु रस, मदिरा,घृत, दूध, मट्ठा तथा मीठे जल का समुद्र। ये अव्यक्त तत्वों के रूप में रहते हैं ।एक द्वीप से दूसरा द्वीप दुगना है, दूसरे द्वीप से तीसरा द्वीप दुगना है -इस प्रकार सब।
- भारत का भौगोलिक परिचय चल रहा है। धार्मिक कर्मकांडों में जो संकल्प बोलने की परंपरा है यथा-- जंबूद्वीपे ,भारतवर्षे, भरतखंडे आदि । इसमें निहित देश का परिचय, सामान्य जन को "स्थान"का महत्व बताने के लिए है। पिछली पोस्ट में जंबूद्वीप का परिचय दिया गया, उसको 9 वर्षों में विभक्त माना गया है। जिनमें 1 वर्ष का नाम भारतवर्ष है।भारतवर्ष के अतिरिक्त शेष 8 वर्ष देवलोक के समान सूक्ष्म है । भारतवर्ष स्थूल है, और उस हिसाब से जितनी धरती दिखाई देती है, उस सब का नाम भारतवर्ष है। इसमें हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए खंड को भारत या हिंदुस्तान कहा जाता है ।यहां देवता लोग जन्म लेने के लिए तरसते हैं ,क्योंकि यह भूमि पवित्र और भोग क्षेत्र न होकर कर्म क्षेत्र है ।भागवत 5 .17 .11 ।यहां की भूमि ,भजन के लिए परम पवित्र है। धरती में जो अपवित्रता आ गई थी, वह क्षारसागर की समा गई। इस भूमि में भगवती गंगा का आविर्भाव होता है। भारतखंड वर्णाश्रमियों का स्थान है। यहां अपने- अपने वर्ण के लिए नियत किए हुए धर्मों का अनुष्ठान करने से ,मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।भागवत 5. 19 .19 ।भारत में भगवान की स्मृति से युक्त जन्म पाकर, भजन करने वाला परम कल्याण प्राप्त कर लेता है। भागवत 5.19 .28।यह सुविधा अन्य देशों में नहीं है ।इस प्रकार पंचम स्कंध का परिचय पूरा हुआ।
छठा स्कंध
- श्रीमद् भागवत की प्रक्रिया के अनुसार इस स्कंध को पुष्टि (अनुग्रह) स्कंध कहा जाता है।इस स्कंध में बताया गया- कि जैसे माली अपने बगीचे का पालन -पोषण करता है, वैसे ही संसार रूपी बगीचे में भगवान अपने भक्तों का पालन- पोषण तथा संरक्षण- संवर्धन करते हैं। इसमें 19 अध्याय हैं। 3 अध्यायों में भगवान के नाम का, 14 अध्याय में भगवान के रूप की उपासना है, और 2 अध्यायों में भगवान की पूजा का वर्णन है। जीव कैसा भी शरीर यथा- मानव, देव, दैत्य धारण किए हुए हो, भगवान की शरणागति लेने से वह अनुग्रह --पोशण का अधिकारी हो जाता है। वासनाओं के वशीभूत हुआ जीव संसार सागर में गोते लगा रहा है, उससे उबरने के लिए केवल इंद्रियों को विषयों से रोकने मात्र से नहीं, किंतु उन्हें प्रभु की ओर मोड़ने से काम बनता है ।जिसके लिए नाम साधना और ध्यान किए बिना काम नहीं बन पाता।
- भगवान के विराट स्वरूप में, नरकों की स्थिति और उनमें यात्ना का वर्णन सुनकर, राजा परीक्षित ने उससे बचने का उपाय पूछा? उत्तर में श्री शुकदेव जी महाराज; कन्नौज (उत्तर प्रदेश) में रहने वाले ब्राह्मण का पुरातन इतिहास सुनाने लगे ।जिससे नाम श्रवण और संकीर्तन की महिमा से नरकों से बचा जा सकता है। अजामिल बड़ा विद्वान, मंत्रविद और व्रती था।भगवत 6.1.53 ।वह एक दिन समिधा लेने बन गया ,तो वहां देखा एक शुद्र ,व्यभिचारिणी स्त्री के साथ शराब पीकर नंगा होकर कामकेलि में मस्त हो रहा है। इससे उसके मन में काम का प्रवेश हो गया ।ऐसे दृश्य को देखना शास्त्र में मना किया गया है। आजकल ऐसे दृश्यों से युक्त मोबाइल, हर व्यक्ति के हाथ में है, अतः समाज की दशा की कल्पना सहज की जा सकती है। अजामिल पर उस दृश्य का ऐसा असर पड़ा कि वह कुमार्गी हो गया। अपनी सती पत्नी को त्याग कर ,एक वेश्या को घर ले आया। वह सारे पतित कर्म करने लगा अर्थात किसी को बंदी बना लेना, चोरी करना, जुआ खेलना, ठग लेना ,मार डालना यह सब उसके धन पैदा करने के साधन और स्वभाव बन गये।
- कदाचार का जीवन जीते हुए अजामिल की आयु के 88 वर्ष बीत गए। उसके 10 पुत्र थे ,जिनमें सबसे छोटे का नाम नारायण था। अजामिल का मन उस में लगा रहता था ।उसके जीवन में मृत्यु का समय आया, जो सभी के जीवन में आता है ।उसे बड़े भयंकर यमराज के दूत दिखने लगे,और मृत्यु भय से उसने अपने पुत्र नारायण को पुकारा। संयोग से नारायण नाम भगवान का भी है, अतः भगवान के पार्षद वहां प्रकट हो गये। उन्होंने यमराज के दूतों को ,जो अजामिल के सूक्ष्म शरीर को बांधकर खींच रहे थे, पीछे धकेल दिया और फंदे को काट दिया। यमराज के दूतों ने आपत्ति की, तथा उनसे भगवान के पार्षदों के साथ ,"धर्म "और "नाम" को लेकर संवाद हुआ। उसे ग्रंथ में देखना चाहिए। अजामिल को, भगवान के पार्षदों और यमदूतों का वाद-विवाद प्रत्यक्ष सुनाई पड़ रहा था, यद्यपि पार्षद दिखाई नहीं दे रहे थे।
- अजामिल की कथा का प्रसंग चल रहा है ।भगवान के पार्षदों को अजामिल ने देखा नहीं, किंतु उनके संग और उनकी वाणी सुनने का प्रभाव यह हुआ, कि उसकी पाप राशि समाप्त हो गई। वह पूर्व संचित पुण्य के कारण घर बार छोड़कर गंगा तट पर भजन करने लगा, और समय पाकर उसे भगवान की प्राप्ति हो गई। यमदूतों का भगवान के पार्षदों से संवाद ,और बाद में दूतों की यमराज से चर्चा का विस्तार, ग्रंथ के इस स्कंध के अध्याय 2 व 3 में है, जिसे देखना चाहिए। अजामिल अपने पूर्व जन्म से सद्गुण संपन्न था।किंतु उस में श्रेष्ठता का अभिमान था, जिसके कारण काल शक्ति रूप वेश्या ने उस पर काम का आक्रमण करके, उसके अभिमान को चूर-चूर कर दिया ।नामाभास में भी भगवान का संपूर्ण बल प्रकट रहता है, अतः पुत्र का नाम नारायण लेने पर भी, पाप राशि नष्ट हुई और सदमार्ग प्रशस्त हो उठा। यही भगवान की अनुग्रह है। शास्त्र स्पष्ट रूप से कहता है- कि नाम ही नहीं, नामाभास भी संपूर्ण पापों को नाश कर देता है। यदि नाम उच्चारण के अनंतर, मृत्युपर्यंत कोई पाप न हो, तो पाप शेष नहीं रहता और कल्याण का मार्ग खुल जाता है।
- अभी तक के 3 अध्यायों में ,भगवान के नाम व नामाभास का महत्व बताया गया ।अब अगले 14 अध्यायों में रूप के महत्व को स्पष्ट किया जाएगा।भगवान के रूप में -उनका स्वभाव, प्रभाव, गुण, लीला व तत्व- रहस्य पूर्ण रूप से रहता है ।अहिल्या के समान निःसाधन एवं कुब्जा के सामान कुसाधन का कल्याण, रूप के द्वारा होता है। श्री शुकदेव जी महाराज प्राचेतस दक्ष द्वारा हुई वंश वृद्धि की कथा सुना रहे हैं।उनकी दो पुत्रियां अदिति और दिति, कश्यप जी से व्याही हुई है। दिति की संताने दैत्य होती हैं, अर्थात धर्म को क्षय करने में प्रवृत्त रहती हैं। अदिति के पुत्र देवता होते हैं, और ईश्वर के विधान को स्वीकार कर, जीवों को धर्म में प्रवृत्त करते रहते हैं। अदिति पुत्र इंद्र ,देवराज पद पर अभिषिक्त रहते हैं।एक बार इंद्र सभा में बैठे थे ,तब देवताओं के गुरु बृहस्पति वहां पधारें,होतब्यतावश, इंद्र ने गुरु की ओर से आंखें फेर लीं। वह अपने बड़प्पन में आ गए और उन्होंने बृहस्पति जी की उपेक्षा कर दी ।गुरु ने सोचा कि शिष्य में अभिमान का रहना ,उसके लिए हितकारी नहीं है, अतः बृहस्पति जी अंतर्धान हो गए।
- दैत्यों को जब यह बात मालूम हुई- कि इंद्र द्वारा तिरस्कृत होकर बृहस्पति जी, उनकी सभा से उठकर चले गए हैं, तो वे अपने गुरु शुक्राचार्य के पास पहुंचे। उन्होंने दैत्यों को देवताओं पर चढ़ाई करने की सलाह दे दी ।गुरु के मार्गदर्शन बिना,देवता लोग दैत्यों से हार गए ,और बन -बन भटकने लगे। अंत में सब देवता सहायता के लिए ब्रह्मा जी के पास गए। उन्होंने देवताओं को बताया, कि तुम लोग एक पुरोहित बनाओ और उससे विद्या प्राप्त करो ।देवता लोगों ने इसके लिए, विश्वरूप को वरण किया। विश्वरूप के नाना का वंश उत्तम नहीं था ,अतः उन में देवता ,दैत्य और मनुष्य तीनों का थोड़ा-थोड़ा अंश था। उनकी तीन मुख थे- एक मुख से वह सोमपान करते थे, दूसरे मुख से सुरापान करते थे ,और तीसरे मुख से अन्न खाते थे ।भागवत 6 .9 .1 । पुरोहित बनने के बाद विश्वरूप ने इंद्र को नारायण कवच की विद्या सिखा दी।यह कवच श्रीमद्भागवत के छठे स्कंध के आठवें अध्याय में वर्णित है। इसके अनुष्ठान से लाभ होता है। नारायण कवच के पाठ स्वरूप शरीर में दिव्यता आ जाती है।
- इंद्र ने नारायण कवच धारण करने के पश्चात्, असुरों को पराजित कर दिया, और फिर से स्वर्ग के राजा बन गए। उनके पुरोहित विश्वरूप में, देवता और दैत्य दोनों का अंश होने के कारण, वे स्वभावबस देवताओं के पक्ष में भी आहुतियां डालें, और चुपके से कभी दैत्यों के पक्ष में भी आहुतियां डाल दें। एक दिन इंद्र ने उनकी चालाकी पकड़ ली ,और उसी समय उनको मार दिया। वास्तव में विश्वरूप के हृदय में नारायण कवच रूपी नाद था, उसे इंद्र को देने के बाद, दिव्य नाद का संबंध दैत्यवंश से अलग करने के लिए, भगवान की अनुग्रह से उस संबंध को नष्ट कर दिया गया। पुरोहित का वध करने के कारण ,उसकी ब्रह्महत्या इंद्र के सामने प्रकट हुई। इंद्र ने हाथ जोड़कर हत्या स्वीकार कर ली। जो अपनी गलती स्वीकार कर लेता है,उसके प्रति सारी सृष्टि की सहानुभूति हो जाती है ।उन्होंने अपनी ब्रह्म हत्या को चार भागों में बांट दिया--कुछ भाग भूमि ने, कुछ भाग जलने, कुछ वृक्षों ने ,और कुछ भाग स्त्रियों ने ले लिया ।भागवत 6.9.6। इससे इंद्र ब्रह्म हत्या से मुक्त हो गए, और उन को फिर से परम ऐश्वर्य की प्राप्ति हो गई ।
- आगे की कथा में- जब विश्वरूप के पिता त्वष्टा को पता चला, की इंद्र ने उसके पुत्र का वध कर दिया है, तब उन्होंने वैदिक मंत्रों द्वारा उनके विरुद्ध हवन प्रारंभ किया ।उनका मंत्र था "इंद्रम् शत्रो विवर्धस्व"। इसका अर्थ है कि इंद्र ने शत्रु की वृद्धि हो। इस मंत्र के प्रभाव से वृत्र नाम का एक बहुत बड़ा असुर उत्पन्न हुआ। वृत्रासुर का स्वरूप यह है, कि वह आकाश में कुहासे की तरह, मनुष्य की बुद्धि को अंधकार से आवृत कर देता है ।असुर के प्रकट होते ही सारे विश्व में अंधकार -ही- अंधकार छा गया ।उसने सब दैत्यों को साथ लेकर ,अस्त्र शस्त्रों से इंद्र पर आक्रमण कर दिया और इंद्र हार गए। वृत्रासुर की इंद्र के साथ युद्ध की कथा लंबी है, उसे ग्रंथ में देखना चाहिए। पराजित देवता भगवान विष्णु की शरण में गए, और उनको अपनी व्यथा निवेदन किया। भगवान ने कहा कि तुमने जिस विश्वरूप को मारा है, उसी की पिता ने हवन द्वारा वृत्रासुर उत्पन्न किया है। तुम दधीचि ऋषि से उनकी अस्थियां मांगो और उससे बज्र बनवाओ ,उसी वज्र से ब्रत्रासुर की मृत्यु संभव होगी ।
- भगवान के आदेशानुसार देवता ,दधीचि ऋषि के पास गए, और अपने आने का उद्देश्य निवेदित किया ।दधीचि ने देवताओं की परीक्षा के लिए उनसे पूछा?- कि जगत में जीवन के लिए शरीर बहुत ही अनमोल ,प्रिय ,और अभीष्ट वस्तु है अतः ,यदि विष्णु जी जीव से शरीर मांगे ,तो कौन उसे देने का साहस करेगा? देवताओं ने धर्म पूर्ण तर्क देकर कहा, कि हमारी विपत्ति समझ कर ,हमारी याचना पूर्ण कीजिए । महर्षि दधीच बहुत बड़े शिव भक्त थे। वे ब्रह्मविद्या में बहुत निपुण थे। उन्होंने इंद्र पर कृपा करने के लिए, अपने को परम् ब्रह्म परमात्मा में लीन करके, अपना स्थूल शरीर त्याग दिया ।उन्हें इस बात का पता ही न चला ,कि मेरा शरीर छूट गया है । दधीच की अस्थि से बना बज्र ;और उस बज्र को लेकर इंद्र युद्ध भूमि में देवताओं के साथ जाकर ,वृत्रासुर सहित दैत्यों को ललकारा ! भीषण युद्ध होने लगा ,और दैत्यों में भगदड़ मच गई।
- वृत्रासुर- इंद्र के युद्ध की कथा चल रही है ।युद्ध से भागते हुए दैत्यों को ,वृत्रासुर ने रोकने का प्रयास किया ,लेकिन सफल नहीं हुआ। वह अकेला ही इंद्र के साथ युद्ध करने लगा। युद्ध करते -करते हैं उसके हृदय में भक्ति का उदय हुआ और उसने अद्भुत उदगार प्रकट किए:- " इंद्र मैं जानता हूं, कि तुम्हारी जीत होगी। लेकिन भगवान जिसको विजय ऐश्वर्य और राज्य देते हैं ,उस पर उनकी कृपा नहीं होती ।अपना तो वह उसको समझते हैं, जिसका सब कुछ छीन लेते हैं"। भागवत 6 11 23 । ऐसा बोलते- बोलते व्रत्रासुर को ऐसा लगा- कि मानो भगवान साक्षात उसके सामने खड़े हो ,और वह उनकी अद्भुत प्रार्थना करने लगा ।कुछ लोग उसे चतुश्लोकी भागवत ही मानते हैं। भागवत के 4 श्लोकों को 6 .11:24 से 27 तक ग्रंथ में देखना कर्तव्य है।
- सुंदर स्तुति के बाद वृत्रासुर का असुर भाव जाग उठा और वह हाथ में परिधि लेकर इंद्र पर प्रहार करने लगा।इंद्र ने उसका हाथ काट दिया।उसने दूसरे हाथ से ,ऐसा प्रहार किया कि इंद्र का वज्र उनके हाथ से छूट कर गिर गया। वृत्रासुर ,ऐसे में भी इंद्र का उद्बोधन करता है- इंद्र! शरमाओ मत ,तुम फिर से बज्र उठा लो, यह तुम्हें भगवान की कृपा से मिला है। भगवान तुम्हारी पुष्टि करते हैं, इसलिए तुम बज्र उठाओ और इससे मुझे मारो।इंद्र ने बज्र उठा लिया।श्री शुकदेव जी कहते हैं -इंद्र ने वृत्रासुर के सत्य और निष्कपट वचन के लिए उसका आदर किया है। इसे भागवत 6.12 .19से22 तक देखना कर्तव्य है। वृत्रासुर ने पुनः इंद्र पर प्रहार किया ,तब इंद्र ने उसका दूसरा हाथ भी काट दिया ।इतने पर भी उसने अपना विशाल मुंह खोलकर ,इंद्र को उनके हाथी सहित निगल लिया। इंद्र ने वज्र के प्रहार से उसका पेट फाड़ा और बाहर निकल आए ।फिर उन्होंने उसका सिर काट दिया, और उसकी मृत्यु हो गई ।उसके शरीर से एक ज्योति निकली और वह भगवान में विलीन हो गई ।देवरूपा ,रस पूरित भक्ति,वृत्रासुर के हृदय में थी, भगवान की वज्ररूपी रूपाभास के स्पर्श की अनुग्रह से वह दैत्यांश से अलग हो गई, यही पुष्टि है ।
- राजा परीक्षित ने, वृत्रासुर के हृदय में श्रेष्ठ भगवत् भक्ति देखकर, महाराज शुकदेव जी से प्रश्न कर कर दिया, कि एक दैत्य के हृदय में ऐसी भक्ति कहां से और क्यों आ गई? जिज्ञासा के समाधान में शुकदेव जी ने उसके पूर्व जन्म की कथा सुनाई । वृत्रासुर पूर्व जन्म में चित्रकेतु नाम का राजा था, जो मथुरा में राज्य करता था।उसके पास भारी वैभव और ऐश्वर्य था ।प्रजा सुखी थी किंतु पुत्र न होने के कारण वह दुखी रहता था। एक दिन अंगिरा ऋषि उनके पास आए, और उनसे उदास रहने का कारण पूछा? उन्होंने पुत्र न होने के कारण दुखी रहना स्वीकार किया। अंगिरा ऋषि ने चरू का निर्माण किया, और प्रसाद रूप में बड़ी रानी को दे दिया। यह भी स्पष्ट कर दिया कि पुत्र तुम्हें सुख भी देगा,और दुख भी देगा।बड़ी रानी के पुत्र हुआ, रनिवास और प्रजा सर्वत्र सुख ही सुख छा गया। राजा अपनी पुत्रवती बड़ी रानी को,अधिक प्यार करने लगा ।अन्य रानियां रुष्ट हो गई ,और बेटे को विष दिलवा कर मरवा दिया ।अब चित्रकेतु के यहां सुख के स्थान पर दुख ही दुख व्याप्त हो गया ।
- जिस समय राजा चित्रकेतु के यहां पुत्र शोक के कारण रोना-धोना मचा हुआ था, उस समय अंगिरा जी, नारद जी को साथ लेकर वहां आए।उन लोगों ने चित्रकेतु को बहुत समझाया,और अपने प्रभाव से मृत पुत्र के लिंग शरीर को बुलाकर,राजा के सामने खड़ा कर दिया ,और उससे कहा कि तुम अपने मां-बाप के घर लौट आओ । इसपर पुत्र ने उत्तर दिया -कि मैं तो इन्हें पहचानता भी नहीं ,कि यह मेरे किस जन्म के मां-बाप हैं। अब तक मैं लाखों योनियों में जा चुका हूं, और मेरे अनगिनत मां-बाप बन चुके हैं ,इसलिए मुझे याद नहीं आ रहा, कि यह मेरे किस जन्म के मां-बाप हैं । यह सुनकर राजा -रानी का पुत्र के प्रति जो मोह-ममत्व था वह जाता रहा ,उन्होंने उसकी अंत्येष्टि क्रिया की। नारद जी ने ,चित्रकेतु को मंत्रोंपदेश कर ,शेष भगवान की आराधना बताई ।सात दिनों में ही आराधना सफल हो गई और राजा को भगवान का दर्शन हो गया ।शेष भगवान ने राजा चित्रकेतु को वरदान देकर ,सिद्ध पुरुष बना दिया,और एक विमान भी दिया, जिससे वह इच्छा अनुसार विचरण कर सकते थे ।
- एक दिन चित्रकेतु अपने दिव्य विमान द्वारा विचरण करता हुआ, भगवान शंकर के कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा ।उसको वहां के विधि-विधान का ज्ञान नहीं था। देवलोक तथा मनुष्य लोक के विधि-विधान भिन्न-भिन्न होते हैं। अज्ञानी मनुष्य को अपने संविधान की दृष्टि से, देवताओं पर अनर्गल टीका टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। चित्रकेतु ने वहां देखा, कि भगवान शंकर अपनी गोद में गौरी जी को बिठाए हुए, अनेक ऋषि-मुनियों को तत्व ज्ञान का उपदेश कर रहे हैं। जो ब्रह्मनिष्ठ है, वे जानते हैं कि तत्वज्ञान का फल बिल्कुल नगद होता है।उससे तुरंत अपरोक्ष जीवनमुक्ति और निर्द्वन्र्ता प्राप्त हो जाती है अस्तु, शंकर जी तो सर्वतंत्र स्वतंत्र हैं। भगवान शंकर तत्वज्ञान की मूर्तिमान विग्रह हैं, वे निर्द्वन्द और निर्विकार रूप से ऋषि यों को तत्व ज्ञान का उपदेश कर रहे थे। मानवी मर्यादाओं में आबद्ध चित्रकेतु, शंकर जी पर आक्षेप करने लगा- कि यह कैसा तत्व ज्ञानी है ,जो भरी सभा में अपनी पत्नी को गोद में बैठाकर ब्रह्म ज्ञान बघार रहा है।
- वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा चल रही है। चित्रकेतु के अनर्गल प्रलाप का, शंकर जी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, वह मुस्कुराते रहे।लेकिन गौरी जी को चित्रकेतु पर क्रोध आ गया ,और उन्होंने उसे असुर योनि प्राप्त होने का शाप दे दिया। चित्रकेतु तुरंत अपने विमान से उतर पड़ा ,और प्रणाम करके बोला- मैं बड़ी प्रसन्नता पूर्वक दोनों हाथ जोड़कर आपका शाप स्वीकार करता हूं, क्योंकि देवता लोग मनुष्यों के लिए जो कुछ कहते हैं, वह होने वाला ही होता है ।भागवत 6 .17.17। मेरा शरीर कोई भी रहे, भगवान सदा मेरे साथ रहेंगे ,और मैं भगवान से प्रेम करूंगा। चित्रकेतु की बातें सुनकर ,भगवान शंकर ने गौरी जी से कहा, कि देवी! देखो भगवान के भक्त ऐसे ही होते हैं। श्री शुकदेव जी परीक्षित को समझाते हुए कहते हैं, राजन ! वही चित्रकेतु, वृत्रासुर के रूप में उत्पन्न हुआ, और इसी कारण असुर होने पर भी, उसके हृदय में पूर्व जन्म की भक्ति, ज्यों की त्यों बनी रही।
- स्कंध के अंतिम दो अध्याय- 18 व 19 में दैत्यों की माता दिति को समर्पित हैं। उनमें भगवत पूजा पुंसवन व्रत के प्रति श्रद्धा होना, पूजा का अनुष्ठान, गर्भ में पुत्र का आगमन ,इंद्र का छद्म वेश में उनकी सेवा,पुत्र का गर्भ में ही अनेक रूपों (मरुद्गणों) में परिवर्तित होना और दैत्य के स्थान पर देवता हो जाने की कथा है। छठे स्कंध के 19 अध्यायों के द्वारा -रक्षा, पुष्टि अर्थात अनुग्रह का निरूपण है ।पहले 3 अध्याय में दिखाया- कि जब अजामिल का अभिमान टूट गया, तो नामाभास में ही भगवान का बल प्रगट हो गया, यही काल- कर्मादि निवारक अनुग्रह है। इंद्र के प्रसंग में- विश्वरूप दधीच एवं वृत्रासुर तीनों की में ,इंद्र के प्रति भगवान का अनुग्रह ही हेतु है। अहंकार, जीव- आत्मा को परमात्मा से अलग कर देता है। चित्रकेतु को वृत्रासुर बनाने के लिए शंकर की अवज्ञा के हेतु अहंकार उदय तो हो गया, परंतु भगवत कार्य संपन्न होने पर वह निराहंकार होकर देवी को प्रसन्न करने में समर्थ हो गया।भगवान की भक्ति असुर योनि में भी हो सकती है, यह दिखाना ही वहां भगवता है। जिस पर भगवान का अनुग्रह होता है, उसके जीवन में साधना रूप से नाम, ध्यान एवं पूजा ये तीनों,या तीनों में से एक अवश्य प्रकट हो जाते हैं ।
सप्तम स्कंध
- श्रीमद् भागवत प्रक्रिया के अनुसार सप्तम स्कंध को ऊति स्कंध माना जाता है। ऊति शब्द का अर्थ है कर्म वासना। जैसे जाल बुना जाता है,वैसे ही कर्म वासनाएं जीव के लिए ,वेशभूषा( देह) या पोशाक बनती हैं ।इन्हीं से सूक्ष्म और स्थूल शरीर की आकृतियां बनती है । सातवें स्कंध में 15 अध्याय हैं, जो पाँच-पाँच के तीन प्रकरणों में बँटे हुए हैं ।पहले 5 अध्यायों में हिरणकशिपु की प्रधानता से असुर वासना का, उसके बाद के 5 अध्यायों में प्रहलाद की प्रधानता से देव वासनाका, और अंत के 5 अध्यायों में युधिष्ठिर की प्रधानता से मानव वासना का अर्थात वर्णाश्रम धर्म का वर्णन है।कर्म -अकर्म अथवा धर्म -अधर्म का विचार मनुष्य के लिए ही है। क्योंकि अन्य सब योनियाँ तो भोग योनियाँ है। मनुष्य अपने वर्तमान आचरण के द्वारा ,पूर्व के विकारों को बदल सकता है और शास्त्रीय संस्कार के अनुसार कर्म करके, अपने को मुक्ति पर्यंत ले जा सकता है। ऐसा पूर्ण जीवन मनुष्य के सिवाय दूसरी किसी योनि में नहीं होता।
- स्कंध के प्रारंभ में राजा परीक्षित जिज्ञासा प्रकट करते हैं- कि भगवान तो सम है ,सब की आत्मा है ,और सब की भलाई चाहने वाले हैं, फिर भी वह क्यों बार-बार देवताओं का पक्ष लेकर दैत्यों को मारते हैं । श्री शुकदेव महाराज परीक्षित के प्रश्न की सराहना करते हुए कहते हैं ,कि जीव के हृदय की वासना ही उसके जीवन का निर्माण करती है। वासना के अनुसार ही भगवान की कृपा या उपेक्षा प्रकट होती है। उदाहरण के लिए एक ही बिजली के मीटर से, निकलने वाली विद्युत शक्ति, घर के सभी विद्युत यंत्रों- बल्ब ,पंखा, टीवी ,फ्रिज, मिक्सी, तथा ओवेन आदी में प्रवाहित होती है। शक्ति सबके लिए सम है,किंतु अभि- व्यंजक संस्थान के अनुसार- प्रकाश, हवा ,द्रश्य,गाने, ठंडक तथा गति के रूप में विभूतियां उपलब्ध होती हैं। ऐश्वर्य की अभिव्यक्ति की भिन्नता का दायित्व,विद्युत धारा की असमता पर न होकर,यंत्रों की विभिन्नता पर है।इसी प्रकार सारी सृष्टि में भगवान की एक ही शक्ति स्फुरित है, किन्तु जीव की आवरण की वासनाओं में विषमता के कारण ,व्यवहार में भिन्नता दिखाई पड़ती है।
- शुकदेव जी महाराज, परीक्षित की जिज्ञासा शांत करने के लिए, एक पूर्व का इतिहास सुना रहे हैं। श्री शुक कहते हैं, परीक्षित ! युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में, जब शिशुपाल की आत्मा, श्री कृष्ण की आत्मा से मिल गई, तब युधिष्ठिर को बड़ा आश्चर्य हुआ ।नारद जी भी वहां थे ,अतः युधिष्ठिर ने उनसे पूछा -कि महाराज! शिशुपाल तो श्री कृष्ण का बड़ा भारी द्वेषी था, फिर इसको कृष्ण की प्राप्ति कैसे हो गई? इसके उत्तर में देवर्षि नारद ने प्रहलाद का चरित्र सुनाते हुए कहा- कि भगवान के साथ मन जुड़ना चाहिए, फिर देवता हो या दैत्य इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। प्रहलाद दैत्य- योनि में पैदा हुए थे, फिर भी भगवान ने उनकी रक्षा की। जिसने अपना मन -काम ,क्रोध ,लोभ मोह,भय आदि किसी भी वृत्ति से भगवान में लगाया है, उसका सदा कल्याण हुआ है ।अस्तु भगवान पर विषमता का दोष नहीं लगाया जा सकता। भगवत तत्व तो सदा एकरस ही है ।
- आसुरी वासना वाले हिरण्यकश्प की कथा से भक्त समुदाय परिचित है ।भगवान विष्णु के पार्षद जय- विजय, सनकादिक के शाप से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नाम के असुर हो गए थे।नारद, युधिष्ठिर को भगवान की समता के बारे में बता रहे हैं। भगवान ने वराह अवतार धारण करके हिरण्याक्ष का वध कर दिया,तब उसकी पत्नी व माता को बड़ा दुख हुआ। उस समय हिरण्यकश्युप उनके पास जाकर ,ब्रह्मज्ञान सुनाता है, असुर वेदांत का उपदेश करता है । वेदांत एक असुर होता है, दूसरा देव होता है ।जब अपने दोष के समर्थन के लिए वेदांत का प्रयोग होता है, तब उसे असुर वेदांत कहते हैं, और जब दूसरों को तत्व समझाने के लिए वेदांत का उपदेश किया जाता है, तब वह देव वेदांत होता है। हिरण्यकश्युप ने ,अपने भाई की पत्नी और माता को समझाया ,की आत्मा अजर -अमर है, वह कभी मरती नहीं ,जबकि शरीर सब के मरने वाले हैं ।इसलिए तुम लोग हिरण्याक्ष की मृत्यु के कारण शोक मत करो।
- हिरण्यकशिपु ने अपने परिवार वालों को ऐसा असुर उपदेश दिया, कि एक बार उन सब का शोक निवृत हो गया। अब उसके मन में आया -कि वह स्वयं अजर -अमर हो जाए, जब की सबको उपदेश दिया था कि शरीर नश्वर है। हिरण्यकशिपु ने अपने असुर संकल्प के अनुसार ,बड़ी भारी तपस्या की। ब्रह्मा जी को उसके पास आना पड़ा। उसे वरदान मांगने को कहा। उसने मांगा -कि मेरी मृत्यु कभी न हो। ब्रह्मा जी ने कहा यह अशक्य वरदान है, अतः तुम्हें प्राप्त नहीं हो सकता। उसने बुद्धि लगाकर पुनः वरदान मांगा -की मैं न दिन में मरूँ ना रात में, ना बाहर मरूँ न भीतर, ना आपके बनाए किसी प्राणी से मरूँ ना अप्राणी से, ना देवता से मारूँ ना दानव से ,न अस्त्र से मरूँ न शस्त्र से ।प्रार्थना के अनुसार ब्रह्मा जी ने वरदान दे दिया । हिरण्यकशिपु ने तो यही समझा वह अजर- अमर हो गया है, जबकि उसके मरने की गुंजाइश वरदान में है।अब उसने स्वर्ग से सब देवताओं को भगा दिया,और वहां स्वयं त्रिलोक का ऐश्वर्य धारण करके बैठ गया ।
- हिरण्यकश्यपु के चार बेटे थे, उनमें प्रहलाद सबसे छोटा था। उसमें दैवी वासना थी।वह शील के समुद्र ,सद्गुणों के भंडार, और भगवान की भक्ति में निमग्न थे ।उनकी शिक्षा-दीक्षा शुक्राचार्य के गुरुकुल में, उनके पुत्रों शंड और अमर्क की देखरेख में चल रही थी। एक दिन हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद से पूछा -बेटा बताओ सबसे बढ़िया बात क्या है? प्रहलाद के उत्तर में कहा -संसार के प्राणी "मैं"और "मेरे" के चक्कर में उद्विग्न हो रहे हैं। इसलिए सबसे बढ़िया बात यही है, कि सब कुछ छोड़कर ,श्री हरि की शरण ग्रहण की जाए । हिरण्यकश्यपु क्रोधित हुआ और गुरु पुत्रों को डांट- डपट कर आदेश दिया! कि प्रहलाद को अच्छी देख-रेख में शिक्षा दी जाए। समय पाकर हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद से फिर पूछा- कि शिक्षा में क्या सीखा है ?प्रह्लाद ने कहा- मैंने केवल 9 बातें पढ़ी हैं- भगवान के गुण- लीला का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके नाम -रूप आदि का स्मरण, चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, बंदन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन। भागवत 7.5 .23, 24। प्रहलाद की बात सुनकर क्रोध के मारे हिरण्यकश्यपु के होंठ फड़कने लगे ।
- प्रहलाद के उत्तर से क्रोधित हो हिरण्यकशिपु, उनके शिक्षक गुरु पुत्रों को, अनाप-शनाप बकने लगा। उन लोगों ने कहा, राजन् ! हमने ऐसी शिक्षा नहीं दी है। इस पर हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद से पूछा कि ऐसी शिक्षा किसने दी है? प्रह्लाद ने कहा, पिताजी ! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं ,चबाये हुए को चबा रहे हैं। ऐसे लोग किसी को क्या शिक्षा देंगे? किसी के सिखाने से, किसी की बुद्धि भगवान में नहीं लगती ।वह तो भगवान की कृपा से ही भगवान ने लगती है। यह सुन हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे अंधा हो गया। प्रहलाद के मारे जाने के अनेक उपाय किए जाने लगे- उसे हाथियों से कुचलवाया, विषधर सांपों से डसवाया, पहाड़ की चोटी से गिरवाया ,अंधेरी कोठरी मैं बंद करवाया ,विष पिलवाया, खाना-पीना बंद करवाया,आग में जलवाया ,बर्फ में दबवाया, समुद्र में डुबवाया आदि- आदि। परंतु किसी के द्वारा प्रहलाद का बाल बांका नहीं हुआ। हिरण्यकशिपु,प्रहलाद के अद्भुत सामर्थ्य की देख कर सोच विचार में फंस गया। शण्ड वा अमर्क, हिरण्यकशिपु को समझा-बुझाकर, प्रहलाद को फिर से पाठशाला ले आए।
- शंडामर्क प्रहलाद को फिर से धर्म ,अर्थ व काम की एकांगी शिक्षा (भगवदार्पण, त्याग व संग रहित) देने लगे। प्रह्लाद पर तो शिक्षा का असर नहीं पड़ा, उल्टे असुर बालक प्रहलाद के प्रभाव में आ गए ।प्रहलाद उन्हें असुर भाव छोड़ने का उपदेश करने लगे। पाठशाला में भगवान नाम का कीर्तन होने लगा। वास्तव में प्रहलाद को, गर्भ अवस्था में ही नारद जी का सत्संग मिल गया था। माता के माध्यम से संत सेवा भी हो गई। अतः प्रहलाद की सब वासनायें मिट गई, और प्रहलाद मुक्त हो गए। अब जो- जो दैत्य बालक उनके संग आ रहे हैं, उन सब को भी मुक्त होना है। जब गुरुओं ने देखा, कि उनकी पाठशाला के सभी विद्यार्थी प्रहलाद के साथ हो गए हैं, और उन सब की बुद्धि भगवान में स्थिर हो गई है ।तब वे बहुत घबराए! उन्होंने हिरण्यकश्यपु के पास जाकर सब कुछ बता दिया। यह सुन हिरण्यकशिपु के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा ।
- क्रोधातुर हिरण्यकशिपु ने निश्चय किया, कि अब मुझे प्रहलाद को, अपने हाथ से ही मार डालना चाहिए ।उसने प्रहलाद को बुलवाकर डांटते हुए कहा!बोल !तूने किस के बलबूते पर मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है ?प्रहलाद ने विनम्र भाव से उत्तर दिया,"राजन! केवल मेरे और आपके ही नहीं, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल, केवल भगवान ही हैं। वही सब की आत्मा है"।भागवत 7. 8.81। यह सुन हिरण्यकश्यपु और भी क्रोधित हो गया। बोला !कहां है तेरा ईश्वर? मुझको दिखा! यदि वह सब जगह है ,तो इस खंभे में कहां है? यह कहकर, उसने अपनी सभा के खंभे में जोर से घूँसा मारा। खंभा तड़-तड़ाकर टूट गया, उसमें से नरसिंह भगवान प्रकट हो गए। हिरणकश्यपु ने उनसे युद्ध किया। अंत में नरसिंह भगवान उसे पकड़कर, दरवाजे की देहरी के ऊपर, अपने घुटनों पर रखकर ,पंजे से पेट फाड़ दिया। वरदान में न मरने की, जितनी शर्तें थीं,सब पूरी हो रही थीं। उसकी अंतडियों को माला की तरह पहनकर भगवान स्वयं ही सिंहासन पर बैठ गए। मानो उसे शुद्धकर ,अपने भक्त के बैठने लायक प्रसाद बना रहे हो।
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सिंहासन पर बैठे नृसिंह भगवान का चेहरा अत्यंत भयंकर था। ब्रह्मा जी, रूद्र जी तथा सभी देवता लोग उन को प्रसन्न करने के लिए स्तुति करने लगे। नृसिंह भगवान का क्रोध कम नहीं हुआ। तब देवताओं ने लक्ष्मी जी से प्रार्थना की,कि वह अपने पतिदेव को संभाले। लेकिन उनकी हिम्मत उनके पास जाने की नहीं हुई। तब ब्रह्माजी ने प्रहलाद को उनके पास भेजा। वे नृसिंह भगवान के पास जाकर, उनके चरणों में लौट गए। भगवान ने उन्हें उठाकर गोद में बैठा लिया, और जीभ से प्रहलाद को चाटने लगे ।उन्होंने कहा, प्यारे प्रहलाद! क्रूर असुर द्वारा तुमको कठोर यातनाएं दी जाती रहीं, मेरे आने में विलंब हो गया, मुझे क्षमा करो ! इसके बाद प्रह्लाद ने बहुत सुंदर प्रार्थना की है, उसे ग्रंथ में देखना कर्तव्य है। भागवत 7.9 .8 से 50 तक। नृसिंह भगवान बहुत प्रसन्न हुए, और उनसे वर मांगने को कहा ।
- नृसिंह भगवान ने वरदान मांगने को कहा? तब प्रहलाद ने मुस्कराकर उत्तर दिया,-" कि मैं जन्म से ही प्रलोभनों में फंसा हुआ हूं ,और उन से डरकर, विरक्त होकर, छूटने के लिए आपके पास आया हूं ।जो आपसे कुछ मांगना चाहता है, वह सेवक नहीं, बनिया है। यदि आप हमें कुछ देना ही चाहते हैं ,तो यह दीजिए कि मेरे हृदय में कोई कामना ही न उठे। क्योंकि कामना के उत्पन्न होने पर, इंद्रिय, मन ,प्राण ,आत्मा, धर्म, गति ,मति,हृई, श्री, तेज, स्मृति तथा सत्य सब नष्ट हो जाते हैं ।भागवत 7.10. 7 व 8। मनुष्य जिस समय अपने मन से कामनाओं को निकाल देता है ,उसी समय वह आपसे एक हो जाता है"। भगवान ने कहा, प्रहलाद ! तुमने बिल्कुल ठीक कहा है, भक्त हो तो तुम्हारे जैसा। फिर भी तुम मेरी प्रसन्नता के लिए, यहां एक मन्वंतर तक राज्य करो। इसके बाद नृसिंह भगवान ने प्रहलाद का राज्याभिषेक कर दिया। सृष्टि में सब मंगल हो गया ।दैत्यों के अधिपति प्रहलाद हुए, देवताओं के अधिपति इंद्र हुए, और पृथ्वी पर मनुष्य का शासन स्थापित हो गया।
- स्कंध के अंतिम 5 अध्यायों में वर्णाश्रम युक्त सनातन धर्म का वर्णन है ।वर्णाश्रम धर्म के जिज्ञासु को ग्रंथ का अध्ययन- मनन करना चाहिए । गृहस्थ धर्म का जैसा निरूपण सप्तम स्कंध में है,वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है ।जो गति-मति अवधूतों को सब कुछ त्यागने पर प्राप्त होती है ,वह एक गृहस्थ को भी मिल सकती हैवशर्ते मन में वैराग्य हो और लोक व्यवहार में मनुष्यता । वर्ण का अर्थ जाति नहीं होता। जो शास्त्रोक्त वर्णन से प्रमाणित होता है,उसका नाम वर्ण है।जीव के कर्म संस्कार काल के प्रभाव से, परिपक्व होकर तीन गुणों (इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन) में परिवर्तित हो जाते हैं ।वही प्रारब्ध बनकर, गुण आधारित देश के रूप में, वर्ण का निर्माण करते हैं। अतः कल्याण कामी पुरुष को,उसे स्वीकार करना है। वह अपने कर्मों का ही फल है। इसी प्रकार आश्रम का अर्थ होता है- शारीरिक शक्ति आधारित श्रम की मर्यादा और श्रम के स्वरूप का विभाजन ।आश्रम 4 हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ ,वानप्रस्थ और संन्यास । वर्ण -आश्रम में आचरण की जो शास्त्रीय व्यवस्था है, वह लोक- परलोक दोनों में मनुष्य के कल्याण के लिए है। उससे, जीवन काल में मंगल होता है, और मरने के बाद भी मंगल की प्राप्ति होती है। उनके धर्मों के आचरण से परमार्थ के ज्ञान में भी सहायता मिलती है। नारद जी युधिष्ठिर के सब जिज्ञासाओं का समाधान कर देव लोक चले गए।
सिंहासन पर बैठे नृसिंह भगवान का चेहरा अत्यंत भयंकर था। ब्रह्मा जी, रूद्र जी तथा सभी देवता लोग उन को प्रसन्न करने के लिए स्तुति करने लगे। नृसिंह भगवान का क्रोध कम नहीं हुआ। तब देवताओं ने लक्ष्मी जी से प्रार्थना की,कि वह अपने पतिदेव को संभाले। लेकिन उनकी हिम्मत उनके पास जाने की नहीं हुई। तब ब्रह्माजी ने प्रहलाद को उनके पास भेजा। वे नृसिंह भगवान के पास जाकर, उनके चरणों में लौट गए। भगवान ने उन्हें उठाकर गोद में बैठा लिया, और जीभ से प्रहलाद को चाटने लगे ।उन्होंने कहा, प्यारे प्रहलाद! क्रूर असुर द्वारा तुमको कठोर यातनाएं दी जाती रहीं, मेरे आने में विलंब हो गया, मुझे क्षमा करो ! इसके बाद प्रह्लाद ने बहुत सुंदर प्रार्थना की है, उसे ग्रंथ में देखना कर्तव्य है। भागवत 7.9 .8 से 50 तक। नृसिंह भगवान बहुत प्रसन्न हुए, और उनसे वर मांगने को कहा ।
अष्टम स्कंध
- संतो के मतानुसार ,श्री भागवत जी के अष्टम स्कंध को सर्द्धम या मन्वंतर स्कंध कहते हैं। सत् पुरुषों( मनु ) ने जो धर्म स्थापित किया है, वही सद्धर्म है। यह पुरुष को प्रकृति के तादात्म्य से छुड़ाने वाला होता है। युग,कल्प तथा मन्वंतर आदि काल( समय )की गणना के साधन हैं। इससे पता लगता है, कि हम अनंत काल से संसार -चक्र में भटक रहे हैं ,तथा उससे निकलना कठिन है ।उसके लिए प्रकृति से वैराग्य जरूरी है । मनुष्य वर्षों के हिसाब से 432 00 00 वर्षों की एक चतुर्युगी होती है। 71 चतुर्युगी का एक मन्वंतर होता है। 14 मन्वंतरों का एक कल्प( ब्रह्मा का दिन)होता है। इस श्वेतवराह कल्प का सातवां मन्वंतर चल रहा है। जिसके मनु वैवस्वतजी हैं ।इस हिसाब से वर्तमान सृष्टि( 6 मन्वंतर +27 चतुर्युगी+ 3 युग)में हम सब 1960 85312 0 वर्षों से भटक रहे हैं । प्रत्येक मनु (कुल 14) अपने शासनकाल में,सद्धर्म की रक्षा और प्रचार करते हैं, और इनके सहायक देवता, पुत्र ,ऋषि आदि स्थान -स्थान पर गुप्त रूप से रहकर, सद्धर्म और धार्मिकों की रक्षा करते हैं ।जो आज भी यथावत है।
- आठवें स्कंध की विषय वस्तु और प्रयोजन समझ लेना कर्तव्य है। इसके पहले सातवें स्कंध में कर्मज वासनाओं के निवारणार्थ, जीवबल से अनुष्ठित होने वाले, सामान्य धर्म की चर्चा की जा चुकी है।आठवें स्कंध में प्राकृतिक वासनाओं के निवारणार्थ भगवद् बल से अनुष्ठित होने वाले सद्धर्म का वर्णन है। बहिरंग एवं अंतरंग इन दोनों धर्मों का फल भक्ति है ,जो जीवात्मा पुरुष में रहती है ;उसकी नवे स्कंध में वर्णित भक्तों के चरित्र से प्राप्ति होगी और तब आप दशम स्कंध सुनने- समझने के लायक बनेंगे,जो भागवत ग्रंथ का दर्शन है। इस स्कंध में 24 अध्याय हैं, जो मुख्य रूप से तीन प्रकरण में बांटे हैं यथा,-आपत्ति- विपत्ति में भगवान का स्मरण, सुख- संपत्ति में सर्वदान और तीसरा अपने वचन का निर्वाह। पहले चार अध्याय में हरिस्मरण धर्म की चर्चा है ,उसके बाद 10 अध्यायों में दान- धर्म का निरूपण है, तत्पश्चात 9 अध्याय में प्रतिज्ञा पूर्ति का वर्णन है और अंतिम 1 अध्याय में मत्स्य अवतार की कथा है। आठवें स्कंध के सारे क्रिया- कलाप यथा,- स्वयंभू मनु की मुक्ति ,गजेंद्र का उद्धार, देवताओं को समुद्र मंथन का परामर्श, मन्दराचल लाना ,कच्छपादि आदि रूप में उसका धारण ,देवतादी में प्रवेश करके मंथन,धनवंतरी रूप से अमृत का दान, मोहनी रूप से वितरण, दैत्यों की पराजय ,बली का आत्मसमर्पण- सब कुछ भगवत बल से ही निस्पन्न एवं संपन्न होता है।
- भगवत- स्मरण के दिव्य फल को बताने वाली, गजेंद्र जगह की कथा से सभी परिचित हैं, अतः केवल उसके तत्वार्थ पर विचार करते हैं। गजेंद्र पूर्व जन्म में ,इंद्रद्युम्न भगवत पूजा- निष्ठ राजा था ।महात्मा अगत्स्य के आने पर उसने उनका उचित सत्कार नहीं किया, अतः उसे एक और जन्म लेना पड़ा,तथा पूजा के फल में विलंब हो गया। यह निश्चित है कि भक्ति मार्ग में,स्खलन और पतन नहीं है, तथापि शिवभक्त अगत्स्य ऋषि के प्रति दोष का भाव इंद्रद्युम्न के पतन का हेतु हो गया। कभी-कभी धर्म मर्यादा की स्थापना हेतु भगवान शॉप दिला देते हैं। गजेंद्र को तत्काल मोक्ष की सिद्धि न होने पर भी, अगले जन्म में उसे अर्थ सिद्धि और काम सिद्धि प्राप्त हुई। मोक्ष प्राप्त की भूमिका रूप में -ग्राह के पैर पकड़ लेने से क्लेश हुआ ,और उसने भगवान की स्तुति की। जीवन में कामना का उत्कृष्ट रूप ,उसे भगवान की स्तुति एवं प्रार्थना की ओर मुड़ जाना है। मोक्ष तो स्वयं भगवान ही हैं ।अतः प्रकट होकर भगवान ने केवल गजेंद्र को ही नहीं ,ग्रह सहित, इस कथा को श्रवण करने वाले सभी भक्तों को मोक्ष प्रदान कर दिया करते हैं ।भगवत- स्मरण का इससे अच्छा फल क्या हो सकता है- जो अंततः राजा इंद्रद्युम्न को मिल गया ।
- समुद्र मंथन की कथा के कथानक की संक्षेप में चर्चा की जा रही है। जीवन में चारों पुरुषार्थों में सफलता ,भगवान के आश्रय लेने पर ही मिलती है। इंद्र द्वारा महात्मा (दुर्वासा) व गुरु के अपमान से और ईश्वर को भूल कर अभिमान करने से, देवताओं की सारी सुख- संपत्ति नष्ट हो जाती है।देवताओं ने जब ब्रह्माजी की सलाह से -भगवान का आश्रय लेकर ,शंकर जी के द्वारा विघ्न निवारण से ,संगठित होकर समुद्र मंथन का प्रयत्न किया, तो उन्हें सफलता मिली।मंथन से प्राप्त- कामधेनु, रमा एवं अमृत मुख्य रत्न है।कामधेनु से धर्म ,लक्ष्मी से अर्थ और भगवान से अमृत की प्राप्ति होती है।वैसे विश्व सृष्टि में जितने भी रत्न हैं, वे सब भगवान के ही दिए हुए हैं। यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए, कि समुद्र मंथन के उद्यम में, देवता-दैत्य दोनों ही संलग्न थे। देश, काल, हेतु प्रयोजन ,कर्म एवं बुद्धि में कोई भेद नहीं था।परंतु भगवान के चरण बिंदु का आश्रय लेने से, देवताओं को अमृत फल की प्राप्ति हुई, आश्रय न लेने से ,दैत्यों को नहीं ।वृक्ष के मूल में जल देने से- तना ,शाखा, पल्लव, फूल ,फल सबके लिए हो जाता है। भगवान की सर्वत्र आराधना ही संपूर्ण विश्व की सेवा है।
- समुद्र मंथन की कथा-सार की मीमांसा चल रही है।यह पूरा प्रकरण, दान के निरूपण के लिए हैं। ध्यान रखना है, कि जगत में जो कोई भी कुछ भी दान करता है,वह भगवान ही करते हैं। समुद्र मंथन सहित, सभी क्रियाओं में त्रिगुण का संबंध रहता है। कालकूट विष तम है,देव-दैत्यों का कपट-मिलन रजस है, और शंकर जी के द्वारा विषपान शुद्ध सात्विक क्रिया है । अमृत के पिता, धन्वंतरि जी के रूप में स्वयं भगवान हैं। वह अमृत- घट अपने हाथों में लेकर आए। अमृत की माता भी भगवान है ।मोहनी के रूप में, उन्होंने पुनः अमृत घट को अपने हाथों में ले लिया। इस प्रकार भगवान ने ही रूपद्वय से ,अमृत प्रकट करके, सत्पात्रों को पिलाया। समुद्र- मंथन और अमृत- तत्व की प्राप्ति जीव के प्रयास से नहीं ,भगवान की कृपा से ही संभव है। देवताओं को हम समुद्र मंथन कर लेंगे, यह अभिमान था ।उसके टूटने पर ही,भगवान ने अपना प्रभाव हर,विघ्न को दूर करने के लिए दिखाया।मंदराचल के लिए नीचे भगवान, ऊपर भगवान, बासुकी के शरीर में भगवान, देवताओं में भगवान, दैत्यों में भगवान ।भगवान की कृपा से ही मंथन संभव हुआ। मंथन के बाद देवासुर संग्राम शुरू हुआ। देवताओं को अपने बल से जीतने का अभिमान हुआ, अमृत का प्रभाव जाता रहा। अभिमान टूटने पर, भगवान प्रकट होकर देवताओं की तरफ से युद्ध किया। जहां भगवान है, वही जीत है ।देवताओं को अभीष्ट की प्राप्ति हुई।
- समुद्र मंथन से जुड़ी शंकर- मोहनी लीला भी विलक्षण है। समुद्र मंथन के बाद,देवासुर संग्राम समाप्त होने पर ,शंकर जी को भगवान के मोहनी रूप धारण करने की सूचना मिली। वे गौरी तथा गणों के साथ भगवान के पास पहुंच गए।सुंदर प्रार्थना करने के बाद, उन्होंने मोहनी रूप के दर्शन की इच्छा प्रकट की ।भागवत 8.12 .13 । कुछ क्षणों में ही ,शिवजी को अत्यंत सुंदर उपवन में, एक सुंदर स्त्री ,गेंद उछाल -उछाल कर खेलती हुई दिखाई देने लगी।उसके हाव-भाव इतने मोहक थे,कि शिव भवानी जी के सामने ही, कामातुर हो उसके पीछे दौड़ पड़े ।भागवत 8 .12 .25 से 27। स्थिति यहां तक पहुंची की अमोघ वीर्य धारण करने वाले शंकर जी का तेज, मोहनी के माया से स्खलित हो गया।भगवान हरि बड़े भक्त वत्सल हैं।उनकी सलाह पर ही शंकर जी ने,विष पी लिया था। शंकर जी के शरीर में उसका प्रभाव बना रहे, यह भगवान को अभीष्ट नहीं था। अतः शंकर जी के शरीर से विष निकाल देने की यह लीला थी। संतों ने लीला के अभिप्राय की अनेक उत्प्रेक्षाएं की है ।मुख्य अभिप्राय यही है, कि जब ईश्वर कोटि के शंकर जी ,विष्णु भगवान की प्रकट स्त्री रूपी माया से नहीं बच सकते, तो मानव को स्त्री से प्रभावित न होने का अभिमान नहीं करना चाहिए। धर्मपत्नी के अतिरिक्त, सभी स्त्रियों से एक दूरी बनाकर ,सम्मान पूर्वक व्यवहार करना कर्तव्य है ।
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इस स्कंध के अध्याय 1,13 व 14 में चौदह मन्वंतरों और उनके अधिष्ठाता मनु की चर्चा है। प्रत्येक मनु- सप्त ऋषियों एवं देवताओं के साथ प्रत्येक मन्वंतर के विशेष धर्म की रक्षा करते हैं। यथा:- स्वायंभुव➡ तपस्या पूर्वक उपनिषद पाठ। स्वारोचिष➡ विभु द्वारा ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठा। उत्तम ➡सत्यसेन द्वारा सत्यवाद। तामस ➡वैधृति देवा द्वारा वेद अभ्यास संवर्धन। रैवत➡ रमा बैकुंठ की स्थापना,तुलसी दल आदि से अर्चना। चाक्षुष➡ अजित भगवान द्वारा समुद्र मंथन अमृत उत्पादन। वैवस्वत( वर्तमान) ➡एकादशी व्रत द्वारा उपासना । सावर्ण्य ➡सर्वभौम द्वारा पुष्टि धर्म। दक्ष सावर्णि➡ ऋषभदेव द्वारा यज्ञादि व अवधूत धर्म। ब्रह्म सावर्णि➡ अमूर्त अवतार द्वारा लोक सुखप्रद धर्म। धर्म सावर्णि ➡धर्मसेतु द्वारा आत्मसंयम पूर्वक स्मार्त धर्म। रुद्र सावर्णि ➡स्वधाम प्राप्ति धर्म । रुचि सावर्णि➡ जितेंद्रय देव पोषक धर्म। भौम सावर्णि➡ज्ञान निष्ठ कर्मकांड धर्म ।
- अगले 9 अध्यायों वाला, दान का प्रकरण आरंभ होता है। जिससे पता चलता ,है कि जीव भगवान को अपना लोक -परलोक एवं अहं-भाव भी अर्पित कर सकता है ।बलि के जीवन चरित्र से प्रतिज्ञा निर्वाह -रूप धर्म की द्दढ निष्ठा प्रकट होती है । समुद्र मंथन के बाद हुए देवासुर संग्राम में ,बलि की मृत्यु हो चुकी थी। उनके मृत शरीर को दैत्यगण ,गुरुदेव के बंशज भृगु ब्राह्मणों के पास ले गए। उन्होंने मृत संजीवनी विद्या से बलि को जीवित कर दिया। असुर संगठित हो गए, और उन्होंने पुनः स्वर्ग पर विजय प्राप्त की ।अब ब्राह्मणों ने बलि से यज्ञ करने का संकल्प कराया ,जिससे स्वर्ग का राज्य स्थिर हो जाए। देवमाता अदिति ने अपने पुत्रों को भटकता देख, अपने पति कश्यप के परामर्श से, भगवान की आराधना के लिए पयोव्रत किया ।परिणाम स्वरूप भगवान बामन के रूप में प्रकट होकर उनके पुत्र बने। बलि सत्य पथ पर चल रहा था ,इसलिए ईश्वर ने भी अन्याय पूर्वक उसे राज्य से च्युत करना उचित नहीं माना। भगवान का आश्रय लेने के कारण, देवमाता अदिति के पास भगवान आए तो सही, परंतु बलि के सामने जाकर याचना करने के लिए उन्हें बामन बनना पड़ा। मांगने वाले को बौना बनना पड़ता है।
- भगवान बामन और बलि का प्रसंग चल रहा है। बटुक के वेश में सज- धज कर, भगवान बलि द्वारा आयोजित अश्वमेघ यज्ञ क्षेत्र में पहुंच गए। बलि ने स्वागत- सत्कार करके ,बटुक को जो चाहिए, देने की प्रतिज्ञा कर ली ।शुक्राचार्य के मना करने पर भी बलि अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे ।पत्नी ने सहयोग दिया ।तीन पग भूमि देने का संकल्प हो गया। भगवान मांगने के समय तो छोटे थे, परंतु लेने के समय ब्रह्मांड व्यापी विशाल बन गए ।छल होने के कारण, बलि चाहते तो दान देने से मना कर देते। परंतु उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा धर्म का निर्वाह किया। यह स्पष्ट हो चुका था ,कि मांगने वाला कोई साधारण जीव नहीं है,साक्षात भगवान है। बलि के अश्वमेध यज्ञ में, भगवान की आराधना की कमी थी, वह भी भगवान की आराधना होते ही दूर हो गई ।भले ही कोई कितना बड़ा धर्मात्मा क्यों न हो, परंतु भगवत अर्पण के बिना धर्म- कार्य अधूरा ही रहता है ।
- राजा बलि के दान का प्रसंग चल रहा है। त्रिविक्रम बने वामन ने,एक पग में बलि का यह लोक नाप लिया, और दूसरे पग से उनका धर्म जन्य परलोक नाप लिया।परंतु इससे वे संतुष्ट नहीं हुए, तीसरा पग उन्हें और चाहिए था। प्रतिज्ञा पूर्ण न होने के कारण,वेदरूप गरुड़ ने बलि को बांध लिया। बलि घबराए नहीं, उन्होंने कहा- मेरे सिर पर तीसरा पांव रख लीजिए।भागवत 8.22. 2।यही अहम-भाव का समर्पण है। यह आत्म बलि है,इसी को बलिदान कहते हैं; पशु हिंसा को नहीं। यह केवल जगत के स्वामी, भगवान के प्रति ही हो सकता है ।उनकी वस्तु उन्हें दे दी गई; पहले से ही उनकी थी ।अपनेपन का तो केवल अभिमान ही था ।दर्शन शास्त्र के सिद्धांत अनुसार, कोई अपने आप को समर्पित नहीं कर सकता ।कर्ता कर्म का विषय नहीं हो सकता, अतः भगवान जब स्वयं स्वीकार करते हैं ,तभी अहंकार का पूर्ण समर्पण होता है। भगवान ने स्वयं अपना पाँव बलि के सिर पर रख कर ,उनको स्वीकार कर लिया। इसी समय बलि ने भगवान के विराट रूप के दर्शन किए हैं ।इसी समय जाम्बवान ने भी विराट भगवान के सात परिक्रमा देकर ,उनका जयघोष किया है ।
- भगवान बामन और राजा बलि की कथा प्रसंग चल रहा है। जिस समय बलि बांध दिए गए, उस समय प्रहलाद जी भी वहां आते है-यह देखने के लिए कि उनके पुत्र की भगवत भक्ति कितनी बढ़िया है ?वे भगवान की स्तुति भी करते हैं,और कहते हैं- कि आपका देना और लेना दोनों ही कल्याणकारी है। प्रहलाद की पत्नी विंध्यावली ने भी भगवान की प्रार्थना की, और बलि की प्रतिज्ञा की प्रशंसा की। ब्रह्मा जी भी वहां आए, और कहने लगे - प्रभो !जो आपको एक दूब का अंकुर भी अर्पित करता है, उसको परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। यदि सबकुछ समर्पण करने वाला बलि बंधन में रहेगा, तो आपकी भक्ति का संप्रदाय कैसे चलेगा? भगवान ने कहा - यह तो मेरा अनुग्रह है।जब मैंने बलि का सब कुछ ले लिया, तब मेरा भी सब कुछ बलि का हो गया।अब बलि कुछ दिनों के लिए,सुतल लोक में जाएंगे। वहां सारा वैभव है ।प्रह्लाद जी भी चलेंगे ।नित्य सत्संग मिलेगा। मैं इनके पास पहरेदार बन कर रहूंगा। बलि मेरा दर्शन करता रहेगा और मैं इनकी रक्षा करूंगा। अगले मन्वंतर में यह इंद्र हो जाएगा। इस प्रसंग से यह विदित होता है कि भगवान का भजन करने वालों के जीवन में चाहे जो उतार-चढ़ाव आए लेकिन अंततोगत्वा उन्हें लक्ष्य मिल जाता है।
- इस स्कंध के अंतिम 24वें अध्याय में परीक्षित ने मत्स्य अवतार लीला जानने की जिज्ञासा की। शुकदेव जी महाराज, वेद के प्रमाण को सिद्ध करने के लिए बताते हैं, कि वेद का लोप प्रलय में भी नहीं होता। प्रलय के समय भगवान मत्स्य के रूप में, एक नाव पर, समग्र औषधियों और प्राणियों के बीज व वेद के साथ, सप्तऋषियों तथा राजर्षि सत्यव्रत की रक्षा करते हैं। सत्यव्रत ने पहले, अंजलि में आए हुए मत्स्य भगवान की रक्षा का व्रत लिया था।रक्षक का अभिमान मिट जाने के बाद, उन्होंने प्रभु को शाश्वत रक्षक के रूप में पहचान लिया । सत्यव्रत के विद्या विषयक प्रश्न के उत्तर में, मत्स्य भगवान ने जो उपदेश किया है, उसको मत्स्य पुराण कहते हैं। अवतीर्ण भगवान ही मर्यादा के संस्थापक होते हैं। जैसे वेदांत में वृत्यारूढ चैतन्य ही, अविद्या एवं तत्कार्य का निवर्तक माना गया है, सामान्य चेतन नहीं। उसी प्रकार सगुणभक्ति के प्रसंग में भी ,अवतीर्ण भगवान ही विशेष कल्याणकारी होते हैं। मत्स्य भगवान ने स्पष्ट किया, कि अज्ञान निवृत्ति का उपाय वैदिक ज्ञान है, जो अनुभव स्वरूप है। उसका आश्रय लिए बिना ,धर्म- भक्ति, लोक- परलोक किसी का भी रहस्य ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। उस ज्ञान का निर्माण न ईश्वर करता है, और न जीव, वह अपौरुषेय है। भगवान की कृपा से राजा सत्यव्रत अगले मन्वंतर के मनु हुए।
इस स्कंध के अध्याय 1,13 व 14 में चौदह मन्वंतरों और उनके अधिष्ठाता मनु की चर्चा है। प्रत्येक मनु- सप्त ऋषियों एवं देवताओं के साथ प्रत्येक मन्वंतर के विशेष धर्म की रक्षा करते हैं। यथा:- स्वायंभुव➡ तपस्या पूर्वक उपनिषद पाठ। स्वारोचिष➡ विभु द्वारा ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठा। उत्तम ➡सत्यसेन द्वारा सत्यवाद। तामस ➡वैधृति देवा द्वारा वेद अभ्यास संवर्धन। रैवत➡ रमा बैकुंठ की स्थापना,तुलसी दल आदि से अर्चना। चाक्षुष➡ अजित भगवान द्वारा समुद्र मंथन अमृत उत्पादन। वैवस्वत( वर्तमान) ➡एकादशी व्रत द्वारा उपासना । सावर्ण्य ➡सर्वभौम द्वारा पुष्टि धर्म। दक्ष सावर्णि➡ ऋषभदेव द्वारा यज्ञादि व अवधूत धर्म। ब्रह्म सावर्णि➡ अमूर्त अवतार द्वारा लोक सुखप्रद धर्म। धर्म सावर्णि ➡धर्मसेतु द्वारा आत्मसंयम पूर्वक स्मार्त धर्म। रुद्र सावर्णि ➡स्वधाम प्राप्ति धर्म । रुचि सावर्णि➡ जितेंद्रय देव पोषक धर्म। भौम सावर्णि➡ज्ञान निष्ठ कर्मकांड धर्म ।
नवम स्कंध
- नवम स्कंध को ईशानुकथा स्कंध कहते हैं।इसमें भगवान के अवतारों और भक्तों के चरित्र की प्रधानता से, भक्तिवर्धक प्रसंगों का वर्णन है। कृष्णलीला को समझने के लिए, मनोगत और बुद्धि गत वासना का विनाश आवश्यक है। बहिरंग धर्म (सातवें स्कंध में वर्णित) से वासनाओं में परिवर्तन होता है। अंतरंग सद्धर्म (आठवें स्कंध में वर्णित) से वासनाओं का क्षय हो जाता है।नवें स्कंध की ईशानुकथाओं से वासना के बीज का ही नाश हो जाता है। नवें स्कंध में 24 अध्याय हैं ।12 में सूर्यवंश का वर्णन है ,और शेष 12 अध्यायों में चंद्रवंश का वर्णन है। वासना निवृत्ति के लिए 2 चीजें चाहिए- वैराग्य और भक्ति।वैराग्य से बुद्धिगत वासना क्षींण हो जाती है और भक्ति से मनोगत वासना रूपांतरित हो जाती है।बुद्धि के स्वामी सूर्य हैं ,और मन के स्वामी चंद्रमा है ।सूर्यवंशी राजाओं की कथा श्रवण और मनन से बुद्धिगत वासनाऐं समाप्त होती हैं ।चंद्रवंश के वर्णन का उद्देश्य,मनोगत वासनाओं को रूपांतरित करना है । भक्ति से वासनाओं के बीज का ही नाश हो जाता है,जो ईशानुकथा के श्रवण -कीर्तन -स्मरण से प्राप्त होती है।
- भागवत कथा का लक्ष्य,सांसारिक विषयों का विस्मरण और ईश्वर के साथ तन्मयता है। आत्मा तो नित्य मुक्त है ही,मुक्ति तो मन को चाहिए। सामान्यधर्म के आचरण से इंद्रियगत विकार का नाश होता है।किंतु जो विकार- वासना बुद्धि और मन में सूक्ष्म रूप से व्याप्त है,उसका विनाश शीघ्र नहीं होता। प्रभु के द्वारा निर्मित जगत, भजन में विक्षेप नहीं करता। किंतु जीव अपने मन से, जिस जगत को स्वयं बनाता है, उसकी मृगतृष्णा भजन में विक्षेप का कारण बन जाती है। मनुष्य का चित्त एक बर्तन के समान है, जिसमें अनेकों जन्म की विषय वासना के संस्कार रखे हैं। वर्तन(चित्त) में उनके अंश का लेश ऐसा चिपक जाता है ,कि सामान्य धुलाई से जाता नहीं, और जब भगवत् प्रेमरस व भक्तिरस उसमें रखा जाता है,तो वह बर्तन में चिपके विकार से संक्रमित हो जाता है। सातवें और आठवें स्कंध में, क्रमशः सामान्य धर्म और सद्धर्म बताने पर सुखदेव जी को लगा- कि परीक्षित के मन -बुद्धि में सूक्ष्म वासना बाकी रह गई है। राजा को रासलीला के मर्म समझाना है। मृत्यु के पूर्व ही उसे परमानंद देना है ;समय कम है ।जब तक बुद्धि में कामनाएं हैं, उसे श्री कृष्ण के दर्शन नहीं होंगे।अस्तु राजा के मन में शेष बची वासना को, पूर्णत: नाश करने के लिए शुकदेव जी सूर्य और चंद्र वंश की कथा सुनाने लगे। हम सब भी वही लक्ष्य रखकर, इस स्कंध की कथा का श्रवण- मनन -निदिध्यासन करना है।
- इस कल्प के मनु ,वैवस्वत जी सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक हैं।उनकी 10 संतानों से आगे का वंश चला ।सूर्य वंश में इतने राजे हुए हैं ,कि सब का वर्णन असंभव है। उन राजाओं की उपयोगी विशेषताओं की ओर संकेत करते हैं। दोनों वंशों(सूर्य व चन्द्र) में जितने भी राजे हुए, वे सब भगवान के भक्त रहे। किसी ने सत्य के द्वारा, किसी ने भक्ति के द्वारा, किसी ने गुरु सेवा के द्वारा, किसी ने न्याय के द्वारा -अपने जीवन में ऐसी निष्ठा धारण की, जिससे भगवान प्रसन्न हुए ।नवम स्कंध में वर्णित किसी भी राजा की दुर्गति नहीं हुई । नवम स्कंध में वैराग्य भरा पड़ा है। इसमें वर्णित राजे भगवत भक्त के साथ-साथ, चक्रवर्ती सम्राट हुए।उनमें अनेक सशरीर स्वर्ग गए ।वहां देवताओं की ऐसी सहायता की, कि इंद्र कृतज्ञ होकर उनके सेवक बन गए। इतना सब होते हुए भी, कोई राजा काल के ग्रास से नहीं बच सका। इन राजाओं के उपाख्यानों का अध्ययन- श्रवण करने से वैराग्य उदय हुए, बिना नहीं रहता ।जिनके लिए संभव हो सके, वह मूल ग्रंथ से राजाओं के चरित्रों का अध्ययन करें। इससे मन- बुद्धि भगवान से लगने में सहायता मिलेगी।
- भगवान के अवतारी शरीर के, जन्म और कर्म दिव्य होते हैं ।लीला के लिए, उनका व्यवहार सामान्य जन की तरह रहता है। उनकी वंश परंपरा भी मनुष्यों जैसी ही दिखाई देती है, जिससे भगवान के अवतार पर निष्ठा दृढ़ होती है।भगवान राम की सूर्यवंशी- वंशावली इस प्रकार है:- नारायण➡ ब्रह्मा➡ मरीचि➡ कश्यप➡ विवस्वान ➡विवस्वमनु➡ इक्ष्वाकु➡ कुक्षि➡ विकुक्षि➡बाण ➡अनरण्य➡पृथु➡त्रिशंकु➡ धुन्धमार➡युवनाश्र्व ➡मान्धाता➡ सुसंधि➡ भरत➡ असित➡ सगर ➡असमंज➡ अंशुमान➡ दिलीप➡भगीरथ➡ काकुत्स्थ➡रघु➡प्रबृद्ध➡ शंखण➡ सुदर्शन➡ अग्निवर्ण➡ शीघ्रग➡मरु➡ प्रशुश्रुक➡ अंबरीश➡ नहुष➡ ययाति➡नाभाग➡ आज➡दशरथ ➡राम, भरत ,लक्ष्मण ,शत्रुघ्न।
- श्रीमद्भागवत में राम जी की 30 पीढ़ियों के नाम गिनाए गए हैं।श्री राम का चरित्र भागवत में केवल 2 अध्यायों- 10 व 11 में वर्णित है ।भगवान का चरित्र बहुत प्रसिद्ध है। बाल्मीक आदि मुनियों ने उसका गायन किया है।महाभारत में भी उसका वर्णन है। तुलसीदास जी द्वारा वर्णित चरित्र सबसे अधिक लोकप्रिय है । भागवत जी में राम जी का चरित्र इस ढंग से वर्णित है, जिससे उनका आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक तीनों रूप, सिद्ध हो जाएं ।जैसे कौशिल्या शुद्ध बुद्धि रूप है,दशरथ शुद्ध मन रूप है, और उन दोनों के द्वारा हृदय में भगवत- तत्व का आविर्भाव होता है।श्री रामचरित्र के आध्यात्मिक अर्थ की परंपरा प्राचीन काल से है । राम के आगमन के बाद ही श्रीकृष्ण आते हैं।हृदय में राम जी के आने से,रावण रूपी काम मरता है, तभी श्री कृष्ण प्रकट होते हैं,और रासलीला समझ में आती है। रामचंद्र जी का मातृप्रेम, पित्रप्रेम, बंधुप्रेम, एक पत्नी व्रत तथा प्रजा प्रेम सबकुछ जीवन में उतारने योग्य है। रामायण के सभी पात्र आदर्श हैं ।दशरथ जी का पुत्रप्रेम, सीता जी की पतिभक्ति, लक्ष्मण और भरत का बंधु प्रेम आदि सब आदर्शमय है ।
- भगवान राम का चरित्र, बुद्धिगत वासनाओं को समाप्त करता है। अतः उसका स्मरणकर उससे शिक्षा लेना कर्तव्य है। राम जी माता- पिता की आज्ञा हमेशा मांगते थे।उनका व्यवहार अपने भाइयों और शखाओं के साथ अत्यंत प्रेमपूर्ण रहता था।वह विद्या अभ्यास के लिए गुरु वशिष्ट जी के आश्रम में रहे। बालपन में ही वे विश्वामित्र के यज्ञ में जाकर,मारीच आदि राक्षसों को मारा। सीता- स्वयंवर में जाकर शिव- धनुष तोड़ा और उसके बाद सीता जी के साथ विवाह हो गया।उन्होंने परशुराम के दर्प को भी, मर्यादा में ही रहकर चूर कर दिया। राज्याभिषेक का समय आया,तो वे केकई के कारण बिना प्रतिरोध, राज्य छोड़कर माता पिता की आज्ञा पालन हेतु बन चले गए। वहां दंडकारण्य के राक्षसों को मारा ।रावण ,सीता जी का अपहरण कर ले गया। राम जी अत्यंत दुखी हो, स्त्री वियोग की लीला कर, संतो को स्त्री आसक्ति का फल दिखाया।कृपा मूर्ति हो भक्ति शबरी के आश्रम स्वयं गए। भगवान ने कर्तव्य परायण, मांसभोजी जटायु की भी अंत्येष्टि अपने हाथों की। कबंध नामक राक्षस का दमन किया।सुग्रीव आदि से मित्रता की ,और बाली को मारा क्योंकि उसने असुर रावण से मित्रता कर ली थी। भगवान ने हनुमान आदि वानरों द्वारा, जानकी जी का पता लगाया ।समुद्र पर सेतु बांधकर सुग्रीव,जामवान आदि के साथ लंका को जाकर, घेरा ।
- राम -चरित्र की कथा चल रही है। लंका पहुंचकर, राम जी ने वानरी सेना से लंका को घेर लिया। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।इंद्र की प्रेरणा से मातिल दिव्यरथ ले आया।राम जी उस पर सवार होकर,रावण के साथ युद्ध कर, उसको मारा। राम जी की आज्ञा से विभीषण ने रावण की अंत्येष्टि क्रिया की, और बाद में लंका का राज्य किया । राम जी सीता जी को लेकर ,पुष्पक विमान पर सवार होकर अयोध्या लौटे। वहां राम जी का भव्य स्वागत हुआ। राम जी का भरत, परिवार तथा अयोध्या वासियों से मिलन अत्यंत नैसर्गिक तथा प्रेम पूर्ण वातावरण में हुआ, जिसे देखकर कठोर से कठोर हृदय भी द्रवित हो गया।इसके बाद भगवान का,वशिष्ठ जी के अनुशासन में, अयोध्या की गद्दी पर राज्याभिषेक हुआ। रामराज्य में सारी प्रजा वर्णाश्रम धर्म को मानती थी। त्रेता में, सतयुग जैसा समय हो गया। सारे बन, नदी, पर्वत, तथा समुद्र सब कामधेनु सदृश्य हो गए और आधि- ब्याधि, जरा -ग्लानि, दुख -सुख तथा भय आदि सब निवृत हो गए। भगवान राम के कहने से, तीनों भाइयों ने दिग्विजय किया।अयोध्या हमेशा सजी-धजी रहती थी- पुर, द्वार सभामंडप आदि सब ,साफ-सुथरे ,स्वर्ण ,पताका एवं कलश आदि से सुशोभित रहते थे। भगवान राम अपनी पुरी की देखभाल स्वयं भी करते थे। इस प्रकार भगवान राम ने अपनी प्रिया जानकी जी के साथ, आनंद पूर्वक रहते हुए, लंबे काल तक अयोध्या का राज्य चलाया।
- नवम स्कंध में, सूर्यवंश के बाद ,चंद्रवंश का वर्णन है ।सूर्यदेव बुद्धि प्रधान, और चंद्र मन प्रधान है। भगवान की प्राप्ति -विचार और प्रीति दोनों से होती है। राम के आने के बाद ही, कृष्ण आते हैं। काम रूपी रावण तभी मरता है,जब राम जी की कथा सुनी जाती है। बुद्धि में कामवासना रहते ,कृष्ण के दर्शन नहीं होते । चंद्रवंश का प्रारंभ ,अत्रि ऋषि की दृष्टि से उत्पन्न, चंद्रमा से माना जाता है।इस वंश में भी बड़े- बड़े भक्त और ज्ञानी राजे हुए हैं। राजा पुरुरवा -उर्वशी की कथा इसी वंश में आती है ।राजा गाधि, विश्वामित्र, जमदग्नि ,परशुराम सहस्त्रार्जुन आदि इसी वंश में हुए। यहां तक कि राजा नहुष कुछ समय के लिए इंद्र हुए, लेकिन बाद में श्राप ग्रस्त हो गए। राजा ययाति का ब्याह ,शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी, तथा शर्मिष्ठा दोनों से हुआ। देवयानी के दो पुत्र- यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा के 3 पुत्र- द्रुह्य, अनु और पूरु हुए। ययाति ने मुख्य राज्य छोटे पुत्र पूरु को दिया, और शेष चारों पुत्रों को अंश राज्य दिया। पूरु वंश का बहुत विस्तार है। इसी में दुष्यंत, भरत, रंतिदेव आदि अनेक श्रेष्ठ राजा हुए हैं।
- चंद्रवंश की कथा चल रही है।ययाति के जेष्ठ पुत्र यदु के पुण्य वंश में ही, अनेक पीढ़ियों के बाद, भगवान कृष्ण हुए हैं। यदु के वंश राजा शूरसेन से ही, कौरव पांडवों का भी वंश चला है। भगवान श्री कृष्ण को यदुवंशी, मधुबंशी तथा वृष्णिवंशी कहा जाता है।अस्तु उन्हीं के संदर्भ को ध्यान में रखकर, भगवान की अति संक्षेप वंशावली प्रस्तुत है, अन्यथा यदुवंश की वंशावली बहुत बड़ी है:- ब्रह्माजी➡ अत्री➡ चंद्रमा➡ बुध➡ पुरुरवा➡ आयु➡ नहुष➡ ययाति➡ यदु➡ क्रोस्टा...... सहस्त्रार्जुन... मधु ...ज्यामघ... विदर्भ.. कृथ... सात्वत➡ वृष्णि➡ चित्ररथ➡ विदूरथ➡ शूर➡ भजमान➡ शिनि➡ स्वयंभ्भोज➡ हृदीक➡ देवमीढ➡ शूरसेन➡ वसुदेव➡ भगवान कृष्ण। भगवान की मानवी वंश परंपरा देखकर, भक्तों को विश्वास हो जाता है, कि भगवान हमारे बीच में मनुष्य रूप से अवतार लेते हैं, यह कोई कोरी कल्पना नहीं ।
- यह स्कंध पूर्णता की ओर है।भगवान श्री कृष्ण प्रकट होकर- पिता के घर से ब्रज में गए, फिर मथुरा आकर कंस को मारा, उसके बाद द्वारिका में जाकर बहुत सारे ब्याह किये, यज्ञ किए और अपने साक्षात्कार की पद्धति को प्रकट किया। पृथ्वी का भार दूर किया। कौरव -पांडवों का युद्ध कराया। अंत में उद्धव जी को तत्व ज्ञान का उपदेश देकर,अपने धाम को चले गए।यह कृष्ण- कथा शुकदेव जी महाराज ने ,मात्र 5 श्लोकों में कह दी। भागवत 9. 24. 63 से 67। नवम स्कंध ,दशम स्कंध की पूर्व- पीठिका है।ईशानु कथा ही भगवान के आविर्भाव का मूल है। कथा से ही भगवान का प्राकट्य होता है। वस्तुतः भगवान ही वासना बीज का अत्यंतिक नाश कर सकते हैं। भगवान रामावतार में, अपने समकालीन उत्तरकोसल के समग्र जन समूह को, अपने धाम ले गए। लंका में जाकर, वहां के राक्षसों और राक्षसियों को अपना दर्शन देकर ,वासना का बीज नाश कर, मुक्त किया।जिन्होंने भी भगवान का दर्शन किया, स्पर्श किया, अनुगमन किया, सबके वासना बीज का, सर्वथा नाश हो गया। यही बात श्री कृष्णावतार में भी देखने को आती है। महाभारत की युद्ध भूमि में, जो भी श्री कृष्ण का दर्शन करते हुए मारे गए थे, वह सब मुक्त हो गए। ब्रज में जिन- वृक्ष, पक्षी ,पशुओं के मन में पूर्व सिद्ध -भक्ति नहीं थी, उन्हें भी अपने गाने से, रूप दर्शन से, छेड़छाड़ से,अपनी ओर आकृष्ट कर,उनके वासना बीज का नाश कर दिया ।
दशम स्कंध
- दशम स्कंध में
श्री कृष्ण
लीला- निरोध
लीला के
लिए है
।मन का
निरोध करना
है। मन
से जगत
का विस्मरण
और भगवताशक्ति
होना ही
निरोध है
। परीक्षित
का मुख्य
प्रश्न था
-आसन्न मृत्यु
व्यक्ति का
क्या कर्तव्य
है? शुकदेव
जी ने
सोचा- यदि
राजा कृष्ण
कथा में
तन्मय हो
सके, तो
उसे मुक्ति
मिल सकती
है ।संसार
का पूर्ण
विस्मरण ,और
परमात्मा का
सतत स्मरण,
हो तो
मुक्ति है।
शुकदेव महाराज
ने योजनाबद्ध
ढंग से
पिछले तीन
स्कंधों में,
भूतशुद्धि, चित्शुद्धि
कराकर, सूर्यवंश
और चंद्रवंश
की कथाओं
द्वारा सांसारिक
वीज का
भी नाश
करा चुके
हैं ,और
अब कृष्ण
कथा जिज्ञासा
की प्रबलता
की परीक्षा
कर रहे
हैं ।
दसवें स्कंध
के प्रारंभ
में परीक्षित
ने शुकदेव
जी से
कहा -महाराज
आपने सूर्यवंश
और चंद्रवंश
के राजाओं
की कथा
विस्तार से
किया, किंतु
भगवान कृष्ण
का चरित्र
केवल 5 श्लोकों
में पूरा
कर दिया,
मुझे तृप्ति
नहीं हुई।
कृपया विस्तार
से श्री
कृष्ण चरित्र
वर्णन कीजिए
। शुकदेव
जी ने
राजा की
परीक्षा ली-
कहा 5 दिनों
से एक
आसन से
बैठे हो,
यदि कुछ
जलपान करना
हो,तो
कर सकते
हो! परीक्षित
ने कहा-
भगवन! आपके
मुख कमल
से वह
रहे ,श्री
हरि कथा
अमृत का
पान कर
रहा हूं,
अतः मुझे
भूख और
प्यास नहीं
है ।
-
श्री कृष्ण कथा के संबंध में परीक्षित के उद्गार सुनकर शुकदेव जी ने कथन का अभिनंदन किया, और कहा, राजन !जब कोई भगवान के चरित्र के संबंध में प्रश्न करता है, तब प्रश्न कर्ता, उत्तर दाता ,और अन्य श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं। इसके बाद, शुकदेव जी ने भगवान के चरित्र का वर्णन प्रारंभ कर दिया। भगवान अवतरण की भूमिका:- जब पृथ्वी पर आसुरी प्रकृति के लोग अनाचार करने लगते हैं, तो भूदेवी कष्टित् हो जाती हैं । कष्ट किसको होता है? पृथ्वी में उसका एक अधिदेवता रहता है। प्रत्येक पदार्थ में चैतन्य शक्ति भरपूर है ,और वही वस्तु -अवछिन्न शक्ति अपना काम करती है, जो उस वस्तु की देवता कहलाती है। भूदेवी बैकुंठ जाने के लिए उद्यत हुई, और साथ में ब्रह्मा जी को लेने के लिए उनके पास गई। ब्रह्मा जी ने उनके दुख को समझ लिया। वह स्वयं रजोगुण के देवता हैं ,उन्हें ने तमोगुण के अधिष्ठाता देवता रुद्र को ,तथा अन्य सात्विक देवताओं को साथ ले लिया। ये सब लोग मिलकर ,पृथ्वी के साथ छीर सागर के तट पर गए। वहां उन सबने पुरुष- सूक्त से, नारायण भगवान की प्रार्थना की।
-
भूदेवी के साथ, सब मिलकर पुरुषसूक्त से नारायण की स्तुति कर रहे हैं। पुरुषसूक्त में वर्णन यह है -कि समग्र सृष्टि भगवान का विराट रूप है, और इसके भीतर नारायण भगवान भरे हैं ।इसमें जो कुछ भी है वह सब भगवान का विस्तार है । भगवान की स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी की समाधि लग गई ।उनके हृदय -आकाश में भगवान प्रकट हुए। उन्होंने कहा -कि तुम लोग भूदेवी का दुख बताने के लिए आए हो, मुझे पहले से ही सब कुछ मालूम है ,उपाय करूंगा । ब्रह्मा जी की समाधि टूटी। उन्होंने देवताओं से कहा कि भगवान आने वाले हैं, तुम सब लोग ब्रज में चलकर यदुवंश में प्रकट हो जाओ! थोड़े दिनों में भगवान आएंगे, और वसुदेव के घर में अवतरित होकर ,धरती के भार का हरण करेंगे । ब्रह्मा जी ने कहा कि नारायण के साथ-साथ संकर्षण भी आएंगे। अबकी बार बड़े भाई बलराम बनकर आएंगे। संकर्षण के साथ-साथ भगवान की सेवा के लिए, योग- माया भी आएंगी। ब्रह्मा जी की बात सुनकर देवता लोग प्रसन्न हो गए, और लौट गए।
-
इधर मथुरा में भी भगवान के अवतरण की स्थिति बनने लगी। ब्रज में वसुदेव जी का विवाह देवकी जी से हुआ। देवकी की विदाई के समय,मथुरा के तत्कालीन राजा उग्रसेन का बेटा कंस,अपनी चचेरी बहन देवकी और बहनोई वासुदेव को प्रसन्न करने के लिए, उनके रथ की बागडोर पकड़कर चला। उसके पीछे-पीछे सैकड़ों सुनहले रथ चल रहे थे। देवताओं ने यह दृश्य देखकर विचार किया,कि यदि कंस देवकी-वसुदेव का ऐसा भक्त हो गया, तो भगवान इसे कैसे मारेंगे ?अस्तु आकाशवाणी की-" अरे ओ नासमझ कंस !इस देवकी के आठवें गर्व से तेरी मौत होने वाली है।"
आकाशवाणी सुनते ही, कंस ने रथ की बागडोर छोड़ दी। देवकी की चोटी पकड़ कर उसको सड़क पर खींच लिया, तथा हाथ में तलवार लेकर मारने को तैयार हो गया।"
खल की प्रीति यथा थिर नाही।"
वसुदेव ने विवेक के आधार पर समझाया- बुझाया, देवकी को बचाने का प्रयत्न करते रहे, किंतु कंस नहीं माना । अंत में वसुदेव ने प्रतिज्ञा पूर्वक कहा- कि खतरा देवकी से नहीं, उसके पुत्र से है, अतः उससे होने वाले पुत्रों को लाकर तुम्हें दे दिया करेंगे । वसुदेव जी इतने सत्यवादी थे, कि उनकी बात का कंस जैसे क्रूर के हृदय में भी विश्वास हो गया, और उसने देवकी को छोड़ दिया।
-
अवतरण-कथा प्रसंग में, विदाई के घटनाक्रम के बाद, वसुदेव- देवकी अपने घर चले आए। समय आने पर देवकी के गर्भ रहा। पहला बच्चा हुआ, तो वसुदेव जी उसे ले जाकर, कंस के हाथों में दे दिया। इससे वसुदेव जी को कष्ट तो हुआ, लेकिन उन्होंने दिए गए वचनों की रक्षा की। वसुदेव जी की सत्य निष्ठा देखकर, कंस को बड़ा संतोष हुआ। उसने कहा कि इस बच्चे को ले जाओ !जब आठवां गर्भ आएगा तब देखेंगे। वसुदेव वापस घर चले गए । इस बीच में नारद जी वहां आ गए। उन्होंने यह सोचा- कि कंस धर्मात्मा बन जाएगा, तो भगवान इसका जल्दी उधार नहीं करेंगे। यह सोचकर नारद जी ने, कंस को बताया,- कि ब्रज में जितने गोप है, वसुदेवादि वृष्णि वंशी है, देवकी आदि यदुवंशी स्त्रियां है, ये सब की सब देवता हैं। दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है ,इसलिए देवताओं की ओर से उनके वध का उद्यम हो रहा है । यह कहकर देवर्षि नारद चले गए।उनके जाने पर, कंस ने यह निश्चय कर लिया, कि अवश्य ही विष्णु हमारे वध के लिए आ रहे हैं। अतः उसने वसुदेव-देवकी को हथकड़ी लगाकर जेल खाने में डाल दिया, और उनकी संतानों को, विष्णु होने की आशंका से मारने लगा।
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अवतार की पृष्ठभूमि में,कंस का परिचय भी आवश्यक है।कंस जानता था- कि मैं पूर्व जन्म में कालिनेम था, विष्णु ने मुझे मारा था, इसलिए वह यदुवंशियों को सुर मानकर उनका विरोध करने लगा । कंस ने अपनी पुलिस से कहा- कि तुम हमारे पिता राजा उग्रसेन को, गिरफ्तार कर लो।लेकिन पुलिस ने ऐसा करने से मना कर दिया। फिर कंस ने फौज को कहा, तो उसने भी मना कर दिया। फिर वह स्वयं हथकड़ी- बेड़ी लेकर अपने पिता के पास पहुंचा। भागवत 10.1. 69 ।उसने यदु ,भोज और अंधक वंश के स्वामी उग्रसेन को,स्वयं पकड़कर, हथकड़ी- बेड़ी लगाकर जेल में डाल दिया,और स्वयं राजा बन बैठा। इसके बाद उसने असुरों का संगठन प्रारंभ किया। जरासंध ने तो अपनी बेटियों से, कंस का विवाह कर दिया। उसके साथ प्रलंभ, बक, चाणूर, तृणावर्त,मुष्टिक, द्विविद, पूतना,केशी, और धेनुका आदि थे। बाणासुर व भौमासुर भी उसके सहायक थे। सबको साथ लेकर वह यदुवंशियों को दुख देने लगा। अच्छे लोग मथुरा छोड़कर भाग गए ।जो बचे, वे जी-हजूरी करके जान बचाए रहे।
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अवतार का प्रसंग चल रहा है। जब देवकी के छह बेटे मार दिए गए, तब सातवें गर्भ में श्रीशेष जी जिन्हें अनंत भी कहते हैं, पधारे। इधर भगवान ने अपनी योग माया से कहा, कि बलराम जी ने स्थान की शुद्धि कर दी है। इनको उठा कर आप रोहणी जी के पेट में रख दो, और उसके बाद मैं देवकी के गर्भ में आता हूं। तुम नंद पत्नी यशोदा से प्रकट होना। योग माया ने आज्ञा शिरोधार्य किया, और धरती पर जाकर उसका पालन किया ।लोगों के बीच यह खबर फैल गई, कि देवकी का सातवां गर्भ अपने आप गिर गया है। अब भगवान का गर्भ में प्रकट्य हुआ।पहले वसुदेव का मन, भगवान के चिंतन से भर गया। भगवान रहते सब जगह हैं, परंतु चिंतन से प्रकट हो जाते हैं,वैसे नहीं। जैसे दिए की लौ से, दूसरी लौ प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही वसुदेव के मन से देवकी का मन भगवद् चिंतन से चमक उठा ।वसुदेव के हृदय के भगवान, देवकी के हृदय में क्रियाशील हो गए,मानो मानसी दीक्षा हो गई हो । गर्भ धारण की हुई देवकी को देखकर, कंस के मन में भी हर्ष हो गया ,और उसकी बुद्धि थोड़ी देर के लिए सद्भाव युक्त हो गई। इसके बाद कंस प्रतीक्षा करने लगा, कि इसका जन्म कब हो। भले ही कंस की कृष्ण के प्रति द्वेष बुद्धि थी, किंतु उसका जीवन कृष्ण स्मरण से भर गया।
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अवतार प्रसंग। ब्रह्मा, रूद्र, इंद्र आदि सब देवता कंस के कारागार में गर्भस्थ भगवान की स्तुति के लिए आए। जगत के अभिन्न निमित्तोत्पादन कारण के रूप में, भगवान की स्तुति की गई। देवताओं ने कहा, कि प्रभो!आपका व्रत सत्य है तीनों लोकों में आप ही सत्य हैं। आप -पृथ्वी, जल,अग्नि, वायु तथा आकाश की योनि है, और इन्हीं पंचतत्वों में रहते भी हैं। यह सब सत्य हैं, परंतु आप सत्य के भी सत्य अर्थात परमार्थिक सत्य हैं। हम आपकी शरण में आए हैं। देवताओं ने आगे कहा, कि प्रभो! आप अवतार इसलिए लेते हैं कि आप की साकार मूर्ति लोगों को मिले, और वे आपकी पूजा कर सकें, आपका स्मरण कर सकें। अवतार भगवान का एक विनोद है। इसके बिना उनका वास्तविक विज्ञान प्राप्त करना कठिन है। इसी प्रसंग से भगवान की भगवता प्रमाणित होती है। ब्रह्मा, शंकर आदि की स्तुति का यही अभिप्राय है। यह कितने आनंद की बात है कि जीव के सखा, भगवान अपने सख्य का निर्वाह करने के लिए गर्भस्थ भी होते हैं। देवताओं ने देवकी माता की भी स्तुति की और कहा- कि माता जी! आपकी कोख में भगवान पधार चुके हैं। कंस ,चंद दिनों का मेहमान है। आपके पुत्र यदुवंश की रक्षा करेंगे। इसके बाद सब देवता यथा स्थान चले गए।
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अवतार प्रसंग। जब सगुण साकार रूप में, भगवान प्रकट होते हैं, तब समग्र सृष्टि में ,प्रकृति में, एक विलक्षणता आ जाती है, वैसे ही -जैसे जब कोई साधक, अपने हृदय में भगवान का आविर्भाव चाहता है, तो उसे भूत शुद्धि और चित्त शुद्धि करनी होती है । भगवान के प्राकट्य समय, काल के अंतरंग-बहिरंग, अंग -प्रत्यंग सुहावने गुणयुक्त एवं शांत हो गए। दिशाएं निर्मल हो गई, नीले आकाश ने तारे- हीरे छिटका दिए, वायु शीतल, मंद, सुगंध बहने लगी, अग्नि निर्धूम ,नदी जल निर्मल, एवं पृथ्वी मंगलमय हो गई। मन प्रसन्न एवं ऋषि, देवता; श्री कृष्ण के दर्शन के लिए उत्सुक हो गए ।रोहणी नक्षत्र,भद्र मास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि,रात्रि के मध्य भाग,बुध दिन, वृष लग्न में -अंधकार को चीरकर महान प्रकाश का उदय हुआ । भगवान के प्रकट होने पर, अद्भुत असाधारण बालक की ओर, सबसे पहले वसुदेव जी की दृष्टि गई ।बालक में आश्चर्यों का निवास था- चारभुजा, चार आयुध, कमल सी उत्फुल्लदृष्टि ,वस्त्रालंकार युक्त ।वसुदेव जी ने जब अद्भुत बालक का रूप देखा, तब उनका सिर नैसर्गिक रूप से झुक गया ,उनके हाथ जुड़ गए, और उन्होंने यह निश्चय करके कि ये साक्षात भगवान हैं, उनकी स्तुति की।
-
बालक रूप में जन्मे, भगवान के अद्भुत दर्शन कर, वसुदेव जी स्तुति करने लगे- महाराज ! मैंने आपको पहचान लिया, आप साक्षात जगत के कारण है। केवल बनाने वाले ही नहीं,बनने वाले भी आप ही हैं।बनने वाले की विशेषता यह होती है, कि वह अपने कार्य में विद्यमान रहता है। इसलिए कण-कण में भगवान भरपूर है।बनाने वाला है "चित्" और बनने वाला है "सत्" और उसका अविनाशी रूप है" आनंदघन "अर्थात सच्चिदानंद परमात्मा । जब वसुदेव जी ने स्तुति कर ली, तब देवकी की आंखें खुली, और उसने भी साक्षात् नारायण के दर्शन किए। फिर देवकी ने उनकी स्तुति करते हुए कहा! कि हमारे हृदय में रहकर ,अध्यात्म दीप प्रकाशित करने वाले, साक्षात ब्रह्म तुम ही हो। भगवान ने स्वयं ,उन्हें पूर्व जन्म की तपस्या-वरदान का स्मरण दिलाया- पहले तुम दोनों प्रश्नि-सुतमा थे, और मेरा नाम प्रश्निगर्भ पड़ा। फिर दूसरे जन्म में, तुम दोनों अदिति- कश्यप हुए और मेरा नाम बामन पड़ा।इस तीसरे जन्म में तुम लोग देवकी- वसुदेव हुए और मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। भगवान ने आदेश दिया- कि तुम लोग! मुझे अपना पुत्र भी समझना, और ब्रह्मभाव भी रखना। इसलिए देवकी-वसुदेव में मिश्र भक्ति है, किंतु यशोदा- नंद की भक्ति में विशुद्ध वात्सल्य है। भगवान ने कहा, मुझे अब गोकुल ले चलो, और तुरंत प्राकृत शिशु के समान बन गए।
-
भगवान की प्रेरणा से ,वसुदेव जी ने भगवान को गोकुल पहुंचाने का संकल्प किया। भगवान के गोकुल गमन में, हिंदू धर्म के दर्शन का विज्ञान है ।निर्गुण से सगुण होना,निराकार से साकार होना, अंतरंग से बहिरंग होना और हृदय से गोकुल में आना,यह भगवान का साधारणीकरण है। आत्मा के रूप में रहें,ज्ञान ध्यान में रहें, मंदिर में रहें ,यह एक बात है।परंतु गोकुल में ,अर्थात इंद्रियों के समूह में आना-अपने गंध ,रस, रुप, स्पर्श एवं शब्दों से तथा विभिन्न चेष्टाओं से जीवो को अपनी ओर आकर्षित कर देना ,यही कृष्ण का गोकुल में आगमन है। संकल्प होते ही वसुदेव जी की हथकड़ी- बेड़ियां खुल गई, और जैसे ही वे सूतिका ग्रह से चले ,उसी समय योग माया ने अपना चमत्कार दिखाया ।मथुरा के सब नागरिकों और द्वारपालों को सुला दिया। सभी कारागार के बंद दरवाजे अपने आप खुल गए। मेघ वर्षा करने लगे और शेष अपने फणों से छाया कर, जल निवारण करते चले ।वर्षा होने के कारण यमुना जी में बड़ी भारी बाढ़ आ गई ।भागवत 10 .3.50 ।यमुना जी ने चरण स्पर्श कर, भगवान की भगवता का अभिनंदन किया और मार्ग दे दिया।
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वसुदेव जी आराम से यमुना पार चले गए। जब वे गोकुल पहुंचे, तब वहां भगवान की स्वजन मोहिनी माया ने, अपनी लीला रची ।सारे गोकुलवासी निद्रा ग्रस्त हो गए ,नंद भवन के सारे किवाड़ खुल गए, यशोदा मैया सो गई । वसुदेव जी ने, अपने पुत्र भगवान को ,यशोदा मैया की शैया पर सुला दिया ,और उनकी जो बेटी हुई थी, उसको अपनी गोद में उठाकर मथुरा लौट आए। मथुरा पहुंचकर, वसुदेव जी ने लड़की को देवकी की गोद में रख दिया। और फिर से उनकी हथकड़ी-बेड़ी लग गई, और जेल के दरवाजे पहले की तरह बंद हो गए। भगवान के संयोग- वियोग की यही महिमा है। अब माया देवी रोने लगीं, पहरेदार जग गए, उन्होंने तत्काल कंस को सूचना दी। कंस तो जग- जग कर प्रतीक्षा कर ही रहा था, कि कब कृष्णावतार हो। भागवत 10.4.2। वह जल्दी से जल्दी जेल खाने में पहुंचा। देवकी ने उससे अनुनय विनय की, यह तो बेचारी लड़की है, इसे मत मारो! लेकिन वह नहीं माना। कंस ने देवकी के हाथों से बच्ची छीन ली, और उसको पत्थर पर पटकने का प्रयास किया। वह तो देवी थीं, आकाश में उड़ गई। उन्होंने कहा अरे मंद कंस तेरा मारने वाला पूर्व शत्रु पैदा हो चुका है। बाद में यही देवी विंध्यवासिनीं के नाम से प्रसिद्ध हुई।
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देवी के आकाश में चले जाने पर कंस भयभीत हो गया। वह देवकी और वसुदेव के पास आकर, पहले तो असुर वेदांत बोलने लगा और फिर क्षमा मांगी। उसने वसुदेव-देवकी को कारागार से मुक्त कर दिया। कंस जब तक देवकी- वसुदेव के पास था,सत्संग के प्रभाव से उसकी बुद्धि ठीक रही। जब वहां से घर लौटा और कुटिल मंत्रियों का कुसंग मिला तो उसकी बुद्धि फिर बदल गई । मंत्रियों ने कहा, भोजराज! हम आज ही नगरों, गांवों, वस्तियों के सब बच्चों को मार डालेंगे।देवता लोग हमारा क्या करेंगे !देवताओं के मूल हैं विष्णु, और विष्णु वहां रहते हैं जहां सनातन धर्म रहता है। सनातन धर्म वहां रहता है, जहां ब्राम्हण, वेद, गाय, तपस्या और दक्षिणा सहित यज्ञ रहते हैं ।भागवत 10,4,41 । असुरों की सलाह की- यदि ऋषि, महात्माओं को नष्ट कर दिया जाए ,तो विष्णु कहां रहेंगे? कंस ने उनकी सलाह मान ली, और आज्ञा दे दी -की असुर सब जगह जाएं और बच्चों व ब्राह्मण -साधुओं को मारना शुरू करें। श्री शुकदेव जी कहते हैं, कि परीक्षित! संत से विद्वेष करना, मौत को पास बुलाना है।यदि कोई महापुरुष का अतिक्रमण करता है, तो उसकी आयु, लक्ष्मी , यश, धर्म, लोक, आशीष, और सारे श्रेय नष्ट हो जाते हैं।भागवत
10.4.45, 46।
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मथुरा में जन्माष्टमी कैसे मनी, यह पिछली पोस्ट में लिखा गया। इधर गोकुल में, नंद बाबा के घर का हाल देखा जाए। योगमाया ने यशोदा जी को अचेत कर दिया था। उन्हें यह तो आभास हुआ, कि संतान हुई है,पर यह न जान सकीं, कि पुत्र है या पुत्री! बालक के रोने की आवाज से सचेत हुई, झट से दास- दासिया आ गई । बालक को देखा !और आनंद विभोर हो गई !उनके मुंह से निकलने लगा- नंद के आनंद भयो-नंद के आनंद भयो।ब्रज में खबर तेजी से फैल गई । शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित! नंद बाबा बड़े मनस्वी और उदार हैं। पुत्र का जन्म होने पर, उनका हृदय विलक्षण आनंद से भर गया। असल बात यह है, कि भगवान अपने को न किसी का बाप मानते हैं, और न बेटा। वे अपनी महिमा मैं ही स्थित रहेते है।परंतु जो दृढता से उनको अपना बेटा मानता है ,उसके बेटे हो जाते हैं, नंद बाबा और यशोदा जी ने, भगवान का चतुर्भुज रूप न देखा,और न ब्रह्म माना। यही कारण है कि यशोदा- नंद बाबा का पुत्रभाव जितना प्रौढ़- प्रबल था, उतना देवकी- वसुदेव का नहीं । भगवान जब महात्माओं से मिलते हैं, तब उनकी आत्मा तो होते हैं ,लेकिन आत्मज नहीं होते ।यह तो यशोदा -नंद की महिमा है, कि उनके पास आत्मज होकर आए हैं।
- नंदोत्सव।पुत्रजन्म की बात जानकर,नंद बाबा ने स्नान किया। सुंदर वस्त्र-आभूषण धारण किए। वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलाकर, स्वस्तिवाचन और जात कर्म संस्कार करवाया। देवता और पितरों की विधिपूर्वक पूजा भी करवाई। वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित लाख गौऐं दान करीं।रत्नों से ,व सुनहरे वस्त्रों से सुसज्जित,तिल के सात पहाड़ दान किये। पूरा ब्रज, उत्सव और उल्लास से भर गया। उस समय ब्राह्मण,सूत, मागध, और बंदीजन, मंगलमय आशीर्वाद देने लगे। ब्रज मंडल के सभी घरों के द्वार, आंगन,झाड़- पोंछकर सुसज्जित कर दिए गए। सभी ग्वाल,बहुमूल्य वस्त्र,गहने, अंगरखे और पगड़ियों से सुसज्जित होकर, भेंट की सामग्री ले-लेकर नंद बाबा के घर आए। सुंदर-सुंदर गोपियां ,आनंद से भर कर, विधिवत श्रंगार कर और भेंट की सामग्री लेकर यशोदा जी के पास आने लगी। वे सब नवजात शिशु को आशीर्वाद देती हैं। जहां भगवान का निवास होता है, वहां लक्ष्मी जी का भी निवास स्वत: हो जाता है, इसलिए वह बैकुंठ छोड़ कर आई । उनके सारे ब्रजमंडल में व्याप्त हो जाने से,वहां की शोभा निराली हो गई ।ब्रज उत्सव का बड़ा विस्तार है। भागवत 10 .5 .18।
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जब गोकुल का
उत्सव संपन्न हो गया, तब
नंदबाबा का, कर चुकाने की
ओर ध्यान गया। इसके लिए वे मथुरा गए,
और वहां डेरा डालकर कई दिनों तक
रहे।उन्होंने कंस को वार्षिक कर
चुका दिया।उसके बाद वसुदेव जी उनसे मिलने
के लिए डेरे पर आए ।
नंदबाबा और वसुदेव ऐसे
मिले, मानो प्राण से प्राण मिल
रहे हों। उनके मिलन की बातचीत शिक्षाप्रद
है।किसी से मिले -तो
अपनी ही नहीं हाँकनी
चाहिए ,बल्कि सामने वाले के सुख-दुख
परिस्थिति का ध्यान रखना
चाहिए । वसुदेव
जी ने कहा! आप
की अवस्था बड़ी हो गई थी,
संतान की कोई आशा
नहीं थी, भगवत कृपा से पुत्र हो
गया ।दैवयोग से यह संभव
नहीं हो पाया, कि
हम लोग आपके साथ रहकर ,आपके सुख में सुख मनाते। गोकुल में लोगों के खाने-पीने
का प्रबंध ठीक है न ?आपके
पास हमारा बेटा बलराम रहता है, वह आपको ही
अपना पिता मानता है ,वह आनंद में
है न? नंदबाबा कहते
हैं ,वसुदेव जी !बड़े दुख का विषय है,
कि कंस ने तुम्हारे बच्चों
को मार दिया। एक लड़की बची
थी वह भी स्वर्ग
चली गई ।जीवन का
रहस्य अदृश्य है। अदृश्य के आश्रय में
ही सब कुछ हो
रहा है। वसुदेवजी ने कहा, ठीक
है नंद जी! आपने तो कर दे
ही दिया है। यहां अब आप को
नहीं रहना चाहिए। गोकुल में बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं
।भागवत 10 .5.31।
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सत्य निष्ठ व्यक्ति के मुख से,अनजान में कोई बात निकल जाए, तो वह सच हो जाती है।इसलिए वसुदेव जी की बात सुनकर, नंदबाबा ने विलंब नहीं किया। तुरंत छकड़े जोड़े गए, और साथ के सब ग्वालों सहित,नंदबाबा गोकुल के लिए चल पड़े । नंद बाबा के हृदय में, सत्यवादी वसुदेव के वचन पर-की गोकुल में उत्पात हो रहे हैं, पूर्ण विश्वास है। इसलिए उन्होंने मन- ही -मन भगवान की शरण ग्रहण की। सत्पुरुष विपत्ति के समय, भगवान का ही पल्ला पकड़ते हैं।विघ्न- बाधा -असुर का प्रभाव वहीं प्रकट हो सकता है, जहां भगवान का श्रवण- कीर्तन आदि न हो। इधर ब्रज की स्थिति यह थी- कि वहां कंस की प्रेरणा से पूतना पहुंच चुकी थी। श्री वल्लभाचार्य जी ने पूतना को अविद्या माना है। पूतना शब्द का अर्थ यह भी मान्य है- कि वह अविद्या रूप होने के कारण, बड़े-बड़े पूतात्मा अर्थात पवित्रात्माओं को भी अभिमान के वश में करके, उड़ा ले जाती है । पूतना उद्धार लीला के द्वारा, भगवान के वीर्य का निरूपण है। जैसे व्रत्यारूढ ज्ञान, अविद्या को निवृत्त करता है, वैसे ही अवतीर्ण भगवान, प्रकट अविद्या पूतना का नाश करते हैं। दुष्ट का निरोध होता है, दुष्ट को भी सद्गति मिलती है। बालकों की रक्षा होती है। पूतना की मृत्यु से भक्तों के वाह्य भय का निवारण होता है।भगवान की लीलाएं अनेक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए होती हैं।
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पूतना उद्धार। पूतना जन्म से राक्षसी थी। वह खून पीने वाली बालघातिनी,कंस की प्रेरणा से गोकुल आई थी।उसने बड़ा सुंदर वेश बनाया -जैसे साक्षात लक्ष्मी हो, बालों में मालती के फूल लगे हुए थे ,हाथ में कमल लिए हुए थी। भगवान ने सोचा- कि कहीं दूसरे के घर जाकर, अन्य बालकों को न मारे, अतः प्रेरणा की कि वह सीधे मेरे पास आ जाए ।उसको देखकर लोग मुग्ध हो गए, और नंद बाबा के घर जाने में किसी ने रुकावट नहीं डाली। नंद- महल में जाकर पूतना ने देखा कि, नन्हे से श्यामसुंदर पलंग पर लेटे हुए हैं। एक और रोहणी मैया बैठी हैं, दूसरी ओर यशोदा मैया है। उस मायावी ने कहा- कि तुम लोगों के यहां कोई बच्चा नहीं हुआ क्या? यह बच्चा भूखा- प्यासा और तुम लोग चुपचाप देख रही हो। यह कहकर पूतना ने भगवान को गोद में उठा लिया। तब उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली। भगवान ने अपनी आंखें क्यों बंद की, इसका विचार भक्तों के लिए चर्चा और अत्यंत आनंद का विषय है। श्री हरिसूरि, श्री वल्लभाचार्य जी ने, तथा जीव गोस्वामी आदि महात्माओं ने :20- 25 प्रकार की उत्प्रेक्षाए की है, उनका आनंद तो कथा श्रवण में ही लिया जा सकता है ,मोबाइल पोस्ट में नहीं।
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पूतना उद्धार। गोद में लेकर, पूतना ने अपना विष लगा स्तन,भगवान के मुंह में डाल दिया। वे बलवत् सहज स्वभाव से, स्तनपान करने लगे।जब योगी कृष्ण ! दूध के साथ,उसके प्राणों को भी खींचने लगे, तो वह बहुत व्याकुल हुई ,और" मुच्च- मुच्च"( छोड़ो-छोड़ो) चिल्लाते हुए भागी। पूतना एक ग्रह है, जो बच्चों को लगता है। झाड़ने वाले "पूतने मुच्च मुच्च" मंत्र कहकर ही इस रोग को दूर करते हैं। यहां उल्टा हुआ- बालक ही पूतना को लग गया, और वह स्वयं मंत्र बोलने लगी ।भगवान ने कहा जिसको मैं पकड़ता हूं उसको मैं कभी छोड़ता नहीं हूं। इसके बाद पूतना मर कर गिर पड़ी ।कथावाचक उसके शरीर की विशालता का वर्णन करते हुए कहते हैं- जहां उसका हाथ गिरा, वह हाथरस हो गया ;जहां उसकी अलकें गिरी, वह अलीगढ़ हो गया ;और जहां उसका गरल गिरा,वह आगरा हो गया। गोपियों ने देखा- कि विशालकाय पूतना धरती पर गिरी पड़ी है ,और लाला उसकी छाती पर खेल रहा है। वे तुरंत लाला को उठा लाई, उन्होंने अपने ढंग से लाला की रक्षा का उपचार शुरू कर दिया। गाय के खुर की धूल लगाई गई, गोमूत्र से स्नान कराया गया, फिर गोबर का तिलक लगाकर, गाय की पूंछ से झाड़ा गया। अब उनको याद आया- कि वे स्वयं मुर्दा छूकर आई है, अपवित्र है,अत: उपचार बेकार हो गया। इसलिए उन्होंने अपने को स्नान कर ,कवच आदि का पाठ कर पवित्र किया ,और पुनः लाला की रक्षा के उपचार दोहराए गये।
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पूतना उद्धार। राक्षसी पूतना के शरीर को देखकर, यशोदा मैया बहुत डर गई। उनको अपने लाला के जिंदा होने का, विश्वास ही नहीं रहा। उनकी अवस्था देखकर, गोपियों ने लाला को उनकी गोद में दे दिया। बालक के स्वास्थ्य की परीक्षा के लिए ,उन्होंने लाला के मुख में स्तन दिया। जब वह स्वस्थ बालक की तरह दूध पीने लगा तो वे सामान्य हुई। भागवत 10 .6.30। इसी बीच मथुरा से नंद आदि आगए। उन्होंने पूतना का मृत शरीर देखा, तो उन्हें बड़ा भारी आश्चर्य हुआ।बोले वसुदेव जी ऋषि हैं, जो कुछ कहा ठीक निकला।गोपों ने पूतना के शरीर को, फरसे से काट- काट कर टुकड़े किए, और लकड़ी के ढेर के अंदर रखकर, जला दिया।जलते समय, पूतना के शव से सुगंध निकली। यद्यपि पूतना बालघातिनी थी, जाति से राक्षसी थी, नियत से मारने की इच्छा वाली थी, फिर भी श्रीकृष्ण ने अपना मुंह लगाकर उसके स्तन के दूध का भोग लगाया था, इसलिए सद्गति को प्राप्त हो गई। इस प्रसंग से अनुमान लगाया जा सकता है, कि श्री कृष्ण के पीछे दौड़ने वाली, और उनको अपना सर्वस्य मानने वाली, ब्रज की गोपियों और गौवों की क्या मिलेगा? यशोदा जी की सद्गति कल्पना अतीत है। शुकदेव जी, यशोदा मैया को वात्सल्य के साम्राज्य- सिंहासन पर अभिषेक करके, दंडवत करते हैं।
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अविद्या का कार्य है ,जड़ता। अविद्या रूप पूतना नष्ट हो गई। अब जड़वाद- ध्वंस लीला प्रारंभ हो रही है । भगवान 3 महीने की हुए, करवट बदली।उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। अभिषेक हुआ, ब्राह्मणों को अन्नदान -गोदान हुआ।लाला को एक शकट( छकड़ा) के नीचे सुला कर ,मैया स्वयं मेहमानों के स्वागत सत्कार में लग गई । चेतन के ऊपर जड़ छकड़े की स्थापना हुई, और उस पर दूध, दही,मक्खन तथा घी से भरे पात्र रख दिए गए, मानो भगवान से भी बड़ा कोई रस है। भगवान मां का दूध पीने के लिए रोने लगे।मां स्वागत-सत्कार में इस प्रकार तनमय हो गई ,कि लाला का रोना भी नहीं सुनाई पड़ा ।श्री कृष्ण रोते-रोते अपने पांव उछालते-पटकते चरणों से छकड़े को छू दिया ।छकड़ा उलट गया,और उस पर रखा गया सारा दूध -दही धरती पर बिखर गया। वास्तव में गाड़ी पर पूतना का भाई,शकटासुर मुक्त होने के लिए आ बैठा था। वह लोमस ऋषि केशाप से देह रहित था तथा चरण स्पर्श से मुक्त हो गया । अब सभी का ध्यान लाला व छकड़े की तरफ गया।यही निरोध लीला है,जिसके लिए भगवान ने अवतार लिया है।आसपास के खड़े ग्वाल बालों ने कहा ,कि लाला ने पांव से छकड़े को उलट दिया है।लोगों ने इसे नहीं माना। वे तो प्रमाण शास्त्र से बंधे हुए हैं ,जबकि भगवान अप्रमेय हैं।
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एक दिन की बात है,यशोदा मैया लाला को गोद में लिए बैठी हैं। कृष्ण ने देखा कि कंस का भेजा हुआ तृणावर्त आकाश में आया है। मैया के पास से उड़ा ले जाएगा, तो लीला बिगड़ जाएगी। अतः भगवान ने "गरिमा" सिद्धि से अपना भार बढ़ा लिया। मैया अपने लाला का भार नहीं संभाल सकीं, अतः धरती पर बैठाकर अपने काम में लग गई। उसी समय एक बड़ा भारी वातचक्र अथवा बवंडर आया, और वह लाला को आसमान में उड़ा ले गया। तृणावर्त ने गोकुल को धूल( राजस) और अंधकार(तमस) से ढक दिया ,और गोकुल वासियों को आत्मा- परमात्मा का दर्शन विलुप्त हो गया। भागवत 10 .7.22।आसमान में,तृणावर्त लाला को कंस के पास ले जाना चाहे, तो उधर न जाएं। अब भगवान ने तृणावर्त का गला पकड़ा और उसके सहारे ही नीचे लटक गए। वह नंद बाबा के पूर्व द्वार की ओर, पड़े हुए पत्थर पर गिरकर मर गया,और श्रीकृष्ण उसकी छाती पर खेलने लगे। गोपियों ने दौड़कर बालक को उठा लिया, और समझा, कि ब्राह्मणों के आशीर्वाद से हमारे लाला की रक्षा हुई है। पापी अपने पाप से मर गया। भागवत 10.7.31। तृणावर्त रूपी रजोगुण,मन में घुसते ही, बुद्धि ईश्वर विमुख हो जाती है। काम ,क्रोध ही उसके पुत्र हैं। उनकी आंधी जीव को संसार के चक्रवात में डाल देती है। आत्म निरीक्षण करते रहना कर्तव्य है।
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भगवान भक्तों के घर स्वत: पहुंच जाएं, तो भी उसे भक्तों को भगवान के रूप और नाम की महिमा का पता होना ही चाहिए। इसके लिए भगवान ने, एक लीला की। यशोदा मैया, एक दिन अपने लाला को गोद में लेकर, दूध पिला रही थी। उनके ध्यान में आया, कि वह पर्याप्त दूध पी चुका है। अधिक पीने से इसे अपच न हो जाए, इसलिए मैया ने उस समय,उसे दूध पीना छुड़ाना चाहा। जब बच्चा दूध पी रहा हो, तो उसको बिना रुलाए, दूध पीने से अलग करना -एक समस्या है । यशोदा जी मुस्कुरा- मुस्कुरा कर लाला की ओर देखें, और उसका मुंह चूम ले। भगवान ने जान लिया मैया अब दूध नहीं पिलाना चाहती। इतने में भगवान ने जमांही ली। मैया ने खुले मुख में देखा, कि वहां तो तीनों लोक हैं!वह चकरा गई !भगवान मानो बता रहे हैं- तू अकेली मेरी मैया नहीं है ,देख !!मेरे साथ, सारा विश्व तेरा दूध पी रहा है। ऐसे में अपच का कोई डर नहीं। जब यशोदा मैया ना देखा, कि नन्हे से बच्चे के मुख में पहाड़, नदी, सूर्य, चंद्रमा आदि लोक सभी स्थित हैं, तो पहले होश उड़ गए! बाद में मैया ने अपना समाधान कर लिया, कि यह ईश्वर की सृष्टि नहीं मेरी दृष्टि का दोष है। मेरी निगोड़ी निगाहें, ही लाला में न जाने क्या-क्या गड़बड़झाला देखती रहती हैं। यह सोचने के बाद मैया ने अपनी आंखें बंद कर ली। भागवत 10.7. 36,37।
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नाम रूप दुइ ईश उपाधि..। मुख में अलौकिक रूप प्रकट करने के बाद, भगवान के नाम प्राकट्य का प्रसंग आया। श्री शुकदेव जी ने कहा!परीक्षित गर्गाचार्य जी बड़े तपस्वी थे। वे वसुदेव की प्रेरणा से ब्रजमें ,नंद बाबा के यहां आए। उन्होंने उनका बड़ा भारी स्वागत सत्कार किया, फिर बोले कि महाराज आप तो ब्रह्मविद संत हैं,हमारे पुत्रोंका नामकरण कर दीजिए । गर्गाचार्य ने कहा ,देखो नंद जी! मैं यदुवंशियों का पुरोहित हूं ,यदि धूमधाम से नामकरण संस्कार होगा, तो पापी कंस के मन में, पुत्रों के वसुदेव का बेटा होने की शंका होगी, और वह अनर्थ करेगा। नंद बाबा ने कहा कि इसके लिए, हमारा तीर्थरूप गोष्ट सर्वथा उपयुक्त रहेगा ,अतः सब लोग गोष्ट में पहुंच गए। यशोदा मैया बलराम को ,और रोहिणी मैया श्री कृष्ण को, अपनी- अपनी गोद में लेकर बैठ गई। आचार्य जी ने, यशोदा मैया की गोद के बालक की ओर इशारा करके कहा- यह रोहिणी पुत्र है,सुहृदों को रमण कराने के कारण, इसका नाम राम है। बलाधिक्य से इसका नाम बल है-बलराम और यदुवंशियों में मेल- मिलाप कराने के कारण नाम संकर्षण भी है । नंद जी! यह जो तुम्हारा सांवरा, सलोना नंदन रोहणी की गोद में विद्यमान है, इसकी तीन रंग -श्वेत ,रक्त और पीत पहले युग में रह चुके हैं। अबकी यह कृष्ण वर्ण हुआ है, इसलिए इसका नाम कृष्ण होगा। यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी, वसुदेव जी के घर भी पैदा हुआ था, इसलिए इसे वासुदेव भी कहेंगे।तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत से नाम- रूप हैं ।यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा। नंद जी तुम्हारे इस पुत्र में नारायण के समान गुण हैं। तुम इनका एकाग्रता से गोपन करो। भागवत 10.8.19 ।
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नंदबाबा के घर में आनंद ही आनंद छा गया। थोड़े दिन में दोनों भैया घुटनों के बल बकैंयाँ चलने लगे ।भगवान धरती का दुख दूर करने के लिए आए हैं। उनके पांव से धरती का जन्म हुआ है।पांव धरती का बीज है,और हाथ धरती की रक्षा के लिए क्षत्रिय वीज है। भगवान पांव और हाथ से दोनों से चलकर -मानव पृथ्वी को बता रहे हैं, कि पांव के रूप में पिता तुम्हारे पास है, हाथ के रूप से रक्षक भी तुम्हारे पास है। दोनों भैया गाय-गोष्ठ में घुस जाएं, और उसमें खेलने लगे।वहां से निकलने पर, गोबर-गोमूत्र से सने, माताओं के पास चले आए। माताएं प्रसन्न चित्त, उसी अवस्था में, उन को गोद में लेकर दूध पिलाने लगें।वात्सल्य कहते ही इसी को है,जो अपने आश्रितजन के दोषों को अपनी प्रसन्नता का साधन बना ले। भगवान नाना प्रकार की दर्शनीय बाल लीलाएं करते हैं-कभी कहते हैं कि हमको तो चंद्रमा दे दो, कभी खड़ा होने की कोशिश करते हैं और गिर पड़ते हैं,कभी रेंगते हुए बैठे बछड़ों के पास पहुंचकर, उनकी पूंछ आपस में बांध देते हैं।कभी उनकी पूंछ पकड़कर खड़े हो जाते हैं,बछड़े भागते हैं,तो श्री कृष्ण भी खींचे चले जाते हैं। गोपियां यह सब देखकर हंसती हैं,और परमानंद अनुभव करती हैं।गोपियों का अपना घर-द्वार छूट गया है, मानो कर्माधिकार की समाप्ति हो गई है,और वह वेदांत प्रतिपाद्य का दर्शन करने लगी।
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भगवान की बाल लीलाएं- एक दिन घर में नई -नई ब्यायी गाय आई। नए बछड़े को गाय चाट रही थी, वे धीरे-धीरे उसके पास पहुंच गए। गाय के गले में दोनों हाथ डालकर लटक गए, गोपियां दौड़ी कहीं नयी ब्यायी गाय सींग न मार दे।एक दिन सुनार घर आकर कुछ जेवर बनाने लगा, तो उसकी आग फूकने वाली नली उठाकर,आग फूकने लगे। जब चिंगारी उड़कर शरीर में लगी तब बलराम व श्रीकृष्ण,चिल्लाने लगे मैया-मैया। एक दिन घर में वानर आया, उसको रोटी खिलाने पास गए।वह उनकी गोद में बैठ गया, और वे हाथ से उसे रोटी खिलाने लगे, मैया दौड़ी कहीं वह काट न ले।एक दिन वे दोनों, पानी के हौज में कूदकर डूबने लगे,मैया- मैया बचाओ, कहकर चिल्लाने लगे ,मैया दौड़ी।एक दिन घर में मोर आया, उसको अपने हाथ से रोटी खिलाने लगे, और अवसर पाकर उसकी पीठ पर सवार हो गए।मोर उड़ा ,मैया दौड़ी, कहीं कांटो में न गिरा दे। मैया के सामने समस्या है- घर के काम भी करना आवश्यक है, और दोनों भाइयों की देखभाल भी। योगी लोग समाज में अपने मन की स्थिरता को भले ही श्रेष्ठ मानते हों, किंतु वहां रस रूप श्री कृष्ण प्रकट नहीं रहते। योगियों के मन स्थिरता से मैया की चंचलता भली, जहां साक्षात भगवान का प्रेमरूपी रस रहता है। वही रस, कथा सुनते भक्तों का ,आज भी अवलंबन है।
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भगवान अब घुटनों का सहारा लिए बिना, चलने लगे, बाहर भी जाने लगे, और गोप बालकों के साथ ऐसी- ऐसी क्रीड़ा करने लगे, कि आसपास के लोग भी आनंदित होने लगे। गोपियां अंदर से चाहती हैं -कि भगवान हमारे घर आकर लीलाएं करें। फिर भी वह नंद भवन पहुंचकर, यशोदा मैया को उलाहना दें, कि तुम्हारा लाला, यह करता है, वह करता है। एक और वे उलाहना देती हैं,और दूसरी ओर प्रेम भरी दृष्टि से श्रीकृष्ण को देखती भी जाती है। यशोदा मैया गोपियों का यह हाल देखतीं, असलियत समझती ,और हंस देती।भागवत 10.8.28,29 । गोपियों के उलहाने तो बहाने मात्र हैं,जैसे- लाला असमय ही बछड़ों को छोड़ देता है, वे गाय का दूध पी जाते हैं ,जिससे हानि होती है। तुम्हारा लाला चोरी से, हमारे घर का स्वादिष्ट दही खा लेता है।दुनिया में अष्टांग योग आदि हैं, किंतु इस लाला ने तो नए स्तेय-योग का आविर्भाव किया है ।यह बंदरों को, दूध- दही- मक्खन परस देता है ।यदि किसी के यहां का दही, बंदर नहीं खाते, तो उसके बर्तन फोड़ देता है।कहता है कि इस बर्तन के कारण दही बिगड़ गया है। चलते- चलते बच्चों की चिकोटी काट लेता है। दो बच्चे एक साथ सोते हैं, तो उनकी चोटी बांध देता है, आदि -आदि ।
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एक दिन श्रीकृष्ण ने माटी खा ली।ग्वाल -वालों ने ,यशोदा मैया से उसकी शिकायत कर दी।यशोदा मैया ने अपने बाएं हाथ से, श्री कृष्ण का दाहिना हाथ पकड़ा, और दाएं हाथ में छड़ी लेकर कहने लगी- क्यों रे लाला !तू ने माटी खाई है? श्री कृष्ण ने कहा- मैंने माटी नहीं खाई। मैया बोली, तेरे सखा- संघाती तथा दाऊ दादा भी ऐसा कहते है। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि सब के सब झूठे हैं। यदि उनकी बात सच्ची मानती हो, तो स्वयं मेरा मुख देख लो ! भागवत 10.8.34, 35 । अब जब श्री कृष्ण ने मुंह खोला, तो उसमें मैया को संपूर्ण विश्व दिखाई पड़ा, मैया अपने हाथ की साँटी फेंक कर कहने लगी ,अरे ! देखो तो सही, हमारे लाला के मुंह में यह सब क्या है? मैं कोई सपना तो नहीं देख रही हूँ।यह कोई माया है, अथवा क्या हमारा लाला ही ईश्वर है? श्री कृष्ण सोचा- कहीं मैया ईश्वर रूप में पहचान जाएंगी, तो वात्सल्य लीला भंग हो जाएगी। अतः मुंह बंद कर कहने लगी तू मेरी मैया है, कि नहीं? मैया ने कहा हां तू मेरा बेटा है ,और झट गोद में उठा लिया। श्री शुक कहते हैं, परीक्षित! यशोदा मैया का सौभाग्य देखो ! जिसकी वेद उपनिषद महिमा गाते हैं, उसे वे अपना लाला मानकर लाड़ लड़ाती हैं, और प्यार करती हैं। भागवत 10. 8.45।
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भगवान की लीलाओं को देखकर, परीक्षित ने प्रश्न कर दिया, महाराज ! यह तो बताइए कि नंद- यशोदा को इतना बड़ा सौभाग्य कैसे प्राप्त हो गया? उन्होंने ऐसा कौन सा व्रत और तप किया, जिसके करने से साक्षात भगवान, ऐसे लाला के रूप में प्राप्त हो गए। श्री शुकदेव महाराज कहते हैं ! कि जब ब्रह्मा जी के आदेश से, द्रोण वसु अपनी पत्नी धरा के साथ, इस सृष्टि में आने लगे, तब उन्होंने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की,कि महाराज ! हमारा जन्म मनुष्य रूप में भले ही हो, लेकिन हमारे हृदय में भगवान की भक्ति बनी रहे, और हमें उनसे प्यार करने का अवसर मिलता रहे। उन्हें वरदान मिला। वही द्रोण- धरा दोनों ,नंद- यशोदा के रूप में अवतरित हुए । यद्यपि वे नित्य लोक में रागात्मिका भक्ति के रूप में रहते हैं ,फिर भी भगवान प्रकटरूप धारण करने पर भी, उनका प्रेम स्वीकार करते हैं। नंद- जसोदा को किसी व्रत, तपस्या या धर्म अनुष्ठान से, भगवान की प्राप्ति नहीं हुई। बल्कि ईश्वरकोटि के महापुरुष द्वारा आशीर्वाद से हुई। शुकदेव जी महाराज कहते हैं, कि भगवान की प्राप्ति में जप -तप -व्रत की अपेक्षा महात्माओं का आशीर्वाद अधिक प्रभावशाली है ।
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श्री शुकदेव जी महाराज, उखल-बंधन लीला सुना रहे हैं।यशोदा मैया ने, एक दिन, सब दास- दासियों को, इंद्र पूजा की तैयारी में लगा दिया, और स्वयं लाला के लिए मक्खन निकालने को दही मथने लगीं ।दही मथते समय, मैया श्री कृष्ण द्वारा की गई विभिन्न लीलाओं का स्मरण कर,गुनगुनाती हैं।यह स्मृति ही साधना है। श्री शुकदेव जी,मैया की दही-मंथन करने की दिव्य झांकी का वर्णन करते हैं - मैया के शरीर पर रेशमी वस्त्र हैं, उनकी कमर में डोरी बंधी है, सामने मटका-मथानी है, और वह दही मथ रही हैं।परिश्रम करने के कारण उनके जुड़े से, मालती के फूल गिर रहे हैं और चेहरे पर पसीना आ रहा है। श्री शुकदेव जी कहते हैं -कि एक ओर पलंग पर भगवान सो रहे थे।जागे! तो देखा रोज की तरह मैया बगल में नहीं है,पुकारा, मैया ओ मैया ! अंगड़ाई ली, आंख मली, काजल मुंह पर फैल गया, चारों तरफ देखा, तो मैया दही मथती दिखाई पड़ी। पलंग पर से उतर कर वहीं आए ,और दूध पीने की जिद करते-करते धरती पर लोट गए। मैया ने दही मथना छोड़ दिया, और गोद में लेकर दूध पिलाने लगीं। इतने में देखा तो आग पर चढ़ा हुआ दूध,उफलाने लगा। यह भगवान के पिलाने वाला, पद्मगंधा गाय का विशिष्ट दूध था। अतः लाला को एक और बैठा कर,दूध बचाने चली गई। दूध को ठीक कर लौटी, तो देखा,कृष्ण वहां नहीं है ,जहां छोड़ गई थीं ।
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उखल-बंधन लीला का प्रसंग चल रहा है। मैया जब कृष्ण को दूध- पीते से छोड़कर चली गई, तो उन्हें क्रोध आ गया,और उन्होंने यशोदा मैया के, ददिया-सास के जमाने से चले आ रहे मटके को, लोढे से फोड़ दिया।बहुत सारा दूध नंद भवन में फैल कर क्षीरसागर का दृश्य उत्पन्न करने लगा।भगवान स्वयं उल्टे हुए उखल पर बैठकर, बासी मक्खन खाने लगे और साथ-साथ इकट्ठा हुए बहुत सारे वानरों को बांटने लगे । मैया लौटने पर ,यह दृश्य देखकर, आश्चर्यचकित हो गई, कि मेरा लाला चोर-विद्या में निपुण हो गया। इसका नियंत्रण करना चाहिए। मैया एक छोटी से छड़ी लेकर धीरे-धीरे उसकी ओर बढीं। लाला डरकर ऊखल से कूदकर भगे, मैया ने उनका पीछा किया। आगे-आगे कृष्ण और पीछे-पीछे मैया।दृश्य बड़ा लुभावना है। अंत में भगवान ने देखा भैया बहुत थक गई है,तो करुणा कर अपनी पकड़ाई दे दी। भगवान यशोदा मैया के हाथों में छड़ी देखकर डर गए, और उसे फेंकने का आग्रह करने लगे, और कहने लगी अब ऐसा नहीं करूंगा। छड़ी फेंककर, मैया ने उन्हें ऊखल से बांधना चाहा। बांधते-बांधते भैया थक गई, और घर की सारी रसियाँ लगाई ,पर वे बार-बार दो अंगुल छोटी पड़ जाए।मैया थक गई ,चेहरे पर पसीना आ गया, तब भगवान कृपा के वशीभूत हो बंध भी गए।भागवत 10-9-18।
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भगवान की लीलाओं के रहस्य का विचार करने पर, मन का निरोध होता है।मोबाइल पोस्ट में विस्तारपूर्वक लिखना संभव नहीं है, सिर्फ लीलाओं की ओर संकेत मात्र किया जा रहा है। फिर भी बानगी के तौर पर, उखल-बंधन लीला के तत्वार्थ पर विचार करते हैं, जिससे तदनुसार, भक्त लोग सभी लीलाओं पर भी स्वयं विचार कर आनंदित हो सकेंगे । जगत प्रपंच का विस्मरण और भगवान में तन्मयता- यही लीला का प्रयोजन है। यहां आनंद यह है, कि भगवान स्वयं लीलाधारी है, हीरो है। अतः बुद्धि पर अधिक जोर नहीं देना पड़ता। उल्लसित रस का नाम लीला है।जिन्हें पढ़ने- सुनने से,अंतःकरण का संबंध भगवान से होता है, और मन में भक्ति रस का प्रवाह स्वत: होने लगता है। माता जसोदा का कर्म दधि-मंथन कृष्ण की प्रसन्नता के लिए है। हृदय में स्मरण नटखट कृष्ण की अन्य बाल लीलाओं का है। वही स्मरण वाणी से भी प्रस्फुटित हो रहा है। अस्तु कर्म, मन,वाणी कृष्ण के लिए है। भक्ति का यही स्वरूप है- कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिए हो,स्मरण का विषय भगवान हो, वाणी के शब्द भगवान संबंधी हों, जो कीर्तन है।यशोदा जी मूर्ति मती भक्ति हो रही है। उन्हें अपने शरीर और श्रृंगार का विस्मरण है। मुख पर स्वेद झलकता है, मालती के पुष्प जुड़े से झडकर पांव में गिर रहे हैं। लीला के स्मरण मात्र से, परबस हो, शुकदेव जी हृदय से इस झांकी का वर्णन कर रहे हैं ।
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उखल-बंधन लीला की मीमांसा करने का प्रयास चल रहा है । भक्त ह्रदय श्री हरिसूरी ने कहा है- की मृदभक्षण लीला के मध्य, मुख में रूपात्मक प्रपंच का दर्शन हो जाने पर, भगवत सेवा के कार्य में भक्तों की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। जो कर्म अनुष्ठान के समय भी,भगवत स्मरण करता है, उसे भगवान सुलभ होते हैं ।यशोदा मैया के वस्त्र- आभूषण के वर्णन से यह सिद्ध होता है, कि जो भगवान का श्रवण-वर्णन, ध्यान- गान एवं सेवा-स्नेह में संलग्न है, उसको संसार त्याग की आवश्यकता नहीं है। वह अपने विहित, वैराग्ययुक्त, सांसारिक विषय भोगों के साथ भी, भगवान को प्राप्त कर सकता है। भगवान ह्रदय के स्तन द्वारा छलकते हुए प्रेम रस को देखते हैं ,और उसका पान करने भाग कर आते है। वाह्य नैवेद्य- मक्खन की ओर नहीं देखते । भगवान के आने पर भी, यशोदा जी दही माथे जा रही हैं ।आचार्यों का मानना है, कि मैया की तत्परता देखकर मुक्त पुरुषों के ह्रदय में क्षोभ होता है। यशोदा जी के सिर से मालती (सिद्ध पुरुष) गिर रहे हैं। माता का जूड़ा सिद्ध स्थान है, वहां मालती अर्थात ब्रह्मविद्या की स्थिति है। मालती- (मा➕ अलम) अर्थात लक्ष्मी से परिपूर्ण जगत मालम है, और उसका अतिक्रमण करके जो रहे, सो मालती (ब्रह्मविद्या) है । भगवान के आने पर भी, जब मैया ने दूध नहीं पिलाया, तो कृष्ण धरती पर लोट गए ।अब यशोदा ने सारे कर्म छोड़ दिए, वे सुंदर अभीष्ट मुख का पान करने लगीं, और श्रीकृष्ण दूध का।
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उखल-बंधन लीला का हर प्रकरण, शिक्षाप्रद और भक्ति रस से सराबोर है।लीला में ध्यान देने योग्य यह है- कि सबसे पहले श्रीकृष्ण के मन में स्तनपान की कामना हुई। स्तन्य भोग में अतृप्ति हुई -यह लोभ है। लोभ में बाधा पड़ने से-क्रोध हुआ।दही का मटका भंजन क्रिया-हिंसा हुई। झूठे आंसू दंभ आने का सूचक है। बासी माखन की चोरी- तृष्णाधिक्य है।भय, पलायन और बंधन उसके उत्तर भावी परिणाम है।कामना से बंधन-पर्यंत ईश्वर की लीला है।जीव के लिए सावधान रहने की शिक्षा है। भगवत धाम के जड़वत प्रतीयमान पदार्थ भी,चेतन ही होते हैं।ब्रज के भूमि, लता,वृक्ष,सव भाव रूप से अभिव्यक्त "सद" ब्रह्म है ।पशु,पक्षी, गाय ,गोपाल, रूप में "चिद्" ब्रह्म है।आलंबन विभव यशोदा, कृष्ण, श्रीदामा आदि सखा, गोपी"आनंद" ब्रह्म है । दूध में उफान क्यों आया ?अग्नि पर संतप्त होता हुआ दुग्ध, भाव-संवृत चेतन है। वह अनेक जन्मों में तप करता हुआ,भगवत भोग्य दूध के रूप में परिणित हुआ है। अभी भी तप कर रहा है।सामने स्वामी हैं, पर अभी भी नहीं मिल पा रहा।जिनके नाम स्मरण से ही, जीवो का पाप- ताप भस्म हो जाता है, मैं अभागा उनके सामने होने पर भी संतप्त हो रहा हूं ,मुझे धिक्कार है! अब मैं आग में कूदकर आत्महत्या कर लूंगा।
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उखल-बंधन लीला की मीमांसा चल रही है।एक जिज्ञासा का उदय होता है- श्री कृष्ण हृदय-स्नेह-रस का पान कर रहे थे और यशोदा दर्शन रस का। फिर वे उन्हें छोड़कर क्यों चली गई? इसके समाधान में भक्त लोग प्रेम की विचित्र परिपाटी बताते हैं।अपने प्रियतम के भक्ष्य,पेय आदि उपयोग की वस्तुओं में, कोई ऐसी अपेक्षा होती है,जिसके कारण कभी-कभी प्रियतम उपेक्षा का पात्र हो जाता है। दूसरी बात यह है- कि यशोदा माता परम भागवत हैं। उनकी करुणा पूर्ण दृष्टि से ही, दूध भगवत-भोग्य एवं भगवत- तादात्म्यापन्न हो सकता है।ऐसे अवसरों पर भगवान को एक ओर रखकर, भक्तों की ओर देखना पड़ता है। माता के चले जाने पर, श्री कृष्ण के मन में कोप का संचार हुआ।माता छोड़कर चली जाए, और बालक असंग उदासीन रहे, उपेक्षा कर दे, तो उसके हृदय में माता के प्रति प्रेम की न्युनता ही कही जाएगी। माता दूध के लोभ में मुझे छोड़ कर गई हैं, तो स्वाभाविक बालरोष के कारण, उससे कहीं अधिक दूध- दही की हानि उठानी पड़ी ।यज्ञ आयुध लोढे से भागवत यज्ञ में बाधक,भांड- असुर को फोड़ दिया गया।परंतु भगवान का क्रोध और उनके आंसू मिथ्या हैं,क्योंकि वे तत्काल एकांत में जाकर नवनीत का आस्वादन करने लगते हैं। असली क्रोध और आंसू के साथ, भोजन का मेल संभव नहीं है। वे अपना विनोद भी प्रकट कर रहे हैं- बालकों और बंदरों को भोजन देने के ब्याज से ,माता को उलाहना भी दे रहे हैं ।
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ऊखल- बंधन- लीला पर विचार चल रहा है । माता ने शांति से दूध को परिपक्व करके,भगवत भोग्य बना दिया।भागवत का काम पूरा हुआ।लौट कर आई, देखा मटका फूटा हुआ है। अपने पुत्र का कर्म है,हंसी आ गई।थोड़े की रक्षा के लिए गई, और बड़ी हानि हुई।हंसने का अर्थ क्या है -कि श्री कृष्ण डरकर कहीं भाग न जायँ। भगवान उल्टे रखे ऊखल पर बैठे हैं ।स्वयं और मर्कटो को वासी मक्खन खा-खिला रहे हैं। श्री हरिसूरि जी कहते हैं -कि यह उलूखल नहीं खल है। मां ने मन में विचार किया, कि शिशु की खल- संगति ठीक नहीं, अतः गाय हाँकने वाली छड़ी लेकर, दौड़ी ।श्री कृष्ण ने मन में कहा- जिसमें क्रोध है, जो जड़ता पकड़े हैं, मैं उसको मिल नहीं सकता ।अतः भागना प्रारंभ किया। श्री कृष्ण के पीछे- पीछे दौड़ने में भी माता की विशेष शोभा है, एक पूजनीय गति है ।भगवान के पीछे दौड़ने मात्र से ही, केश( जुड़े )के बंधन टूट गए। अंतःकरण की शुद्धि हो गई। मां ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया।
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उखल- बंधन-लीला की मीमांसा चल रही है ।कृष्ण का हाथ पकड़कर मां ने पीटा नहीं, धमकाया -मनचले!क्रोधी!लोभी! चंचल ,चोर नए-नए नाम रख दिए।ऐसे बांधकर रख दूंगी! कि बाहर न जा सकेगा !माखन न खा सकेगा !शाखाओं से मिल न सकेगा! श्री कृष्ण ने विचार किया- कि संतों ने मेरा नाम की महिमा का संगीत गाया है- कि श्री कृष्ण नाम षड्- रिपुओं का नाशक है ।क्रोध का अवरोधक में !सम्मुख खड़ा हूं! और मां के हृदय में रोष का संचार हो रहा है !कृष्ण स्नेह की प्रबलता से ही, ऐसा है। स्नेह पर स्नेह ही सफल होता है ।रोदन ही शिशु का बल है। श्री कृष्ण के नेत्र भय-विह्वल हो गए, और वे अपने हाथों से काजल लगे नेत्र मलने लगे।यशोदा माता के हृदय में वात्सल्य उल्लसित हुआ,और उन्होंने अपने हाथ से बछड़े को डराने वाली छड़ी फेंक दी। श्री कृष्ण का हाथ भी पकड़ना ,और अपने हाथ में जड़ता की प्रतीक छड़ी को रखना- एक साथ संभव नहीं है। माता के मन में ,भगवान को बांधने की इच्छा उदित हुई, ऐसा क्यों हुआ ?क्या यशोदा भगवान के सामर्थ्य से अपरिचित हैं ?पूतना ,तृणावर्त आदि का वध देख चुकी है, क्या तब भी उनकी भगवता से अपरिचित हैं? सुखदेव जी कहते हैं, कि हां अपरिचित है !यह प्रेम का सामर्थ्य है, कि वह प्रियतम के माधुर्य को पहचानता है ,ऐश्वर्य को नहीं। भागवत 10. 9 .12।
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उखल-बंधन- लीला पर विचार चल रहा है। कन्हैया के साथी गोपाल, अपने- अपने घरों में जाकर कहते हैं- कि यशोदा जी ,कन्हैया को बांधकर मारने जा रही हैं !गोपियां दौड़ती हुई यशोदा जी के यहां इकट्ठा हुई और उन्हें समझाने लगी -लाला हमारे यहां आकर रोज मटकी फोड़ता है ,दही लुटाता है, लेकिन हमने कभी उसे बांधने की नहीं सोची ,तुम उसे छोड़ दो ! यशोदा जी ने तो लाला को सुधारने की ठान ली है। उसे ऊखल से बांधने लगी ।आश्चर्य यह है कि रस्सी हमेशा दो अंगुल भर छोटी रह जाती है ! एक के साथ दूसरी ,दूसरी के साथ तीसरी डोरियां जोड़ी जाए, लेकिन गाँठ देते समय दो अंगुल छोटी ही रह जाए। वास्तव में बंधने का न कारण एक जीव का अहम होता है, और दूसरा भगवान की कृपा का अभाव ।यशोदा जी आश्चर्य में डूब गई और गोपियां हास्य में! भागवत 10 9 16 । वात्सल्य शक्ति बांधने चली है -ऐश्वर्य शक्ति अपने पति को बँधन में देख नहीं सकती! ऐश्वर्य और वात्सल्य का यह मीठा झगड़ा है !प्रभु ने ऐश्वर्य शक्ति से कहा कि गोकुल में प्रेम का प्राधान्य है, द्वारिका में तेरा प्रभाव रहेगा, तू यहां से चली जा ! गोकुल लीला में वात्सल्य भाव है ,तो पौगंड्र लीला में सख्य भाव प्रधान है ।गोपी लीला में माधुर्य भाव मुख्य है। श्री कृष्ण ने देखा कि माता थककर, पसीना- पसीना हो रही है ,तो दयावश होकर बंधन में बंध गए ।भगवान कहते हैं -जब मैं कृपा करता हूं ,तभी बँधता हूं।भागवत 10-9-18 से 20।
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आगे यमलार्जुन वृक्षों के उद्धार की कथा है।जब मैया ने श्रीकृष्ण को बांध लिया,तब उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ा, उन्होंने सोचा लाला ने सवेरे से कुछ खाया- पिया नहीं है। यह सोचकर मैया ताजी मक्खन- रोटी तैयार करने चली गयीं। इधर बंधे-बंधे ही श्रीकृष्ण की दृष्टि यमलार्जुन पर पड़ी, जो पूर्व जन्म में कुबेर के पुत्र नलकूवर व मणिग्रीव नामक पुत्र थे,और नारद जी के श्राप से जड़ वृक्ष हो गए थे।भगवान स्वयं कितने ही कष्ट में हों, अपने भगवदीय कर्तव्य को नहीं भूलते।उन्होंने सोचा मैं तो भक्त नारद के वचन से बंधा हूं,मेरे द्वारा इन वृक्षों का उद्धार होना है। परीक्षित के, नारद द्वारा दिए श्राप का कारण पूछने पर, शुकदेव महाराज कहते हैं- कि कुबेर पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव अपने श्रीमद से अंधे हो रहे थे।वे पर स्त्री,जुंआँ और शराब में डूबे रहते थे।वह नंगे होकर शंकर जी के कैलाश पर्वत के पास, विहार कर रहे थे।नारद जी के वहां पहुंचने पर भी, वे दिगंबर ही रहे।नारद जी ने सोचा -इन श्री मदान्धों को मार्गदर्शन कराना चाहिए।यह सोचकर नारद जी ने कहा कि ये वृक्ष-योनि में जाने योग्य हैं,जहां इनकी दिगंबर रहने की वासना पूरी हो जाएगी। इन्हें जब तक भगवान श्री कृष्ण की प्राप्ति न हो, और इनके भीतर भगवत भक्ति ना आए, तब तक ये जड़ वृक्ष बनकर गोकुल में रहें।
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यमलार्जुन वृक्षों के उद्धार की कथा चल रही है। उखल से बंधे श्री कृष्ण, धीरे-धीरे खिसककर, दोनों वृक्षों के बीच से घुसकर, दूसरी ओर निकल गए। किंतु उखल टेढ़ा होकर, अटक गया।दामोदर भगवान ने कमर की बंधी रस्सी में जरा जोर लगाया,दोनों वृक्ष तड़तड़ा कर गिर पड़े ।माया ने उनकी ध्वनि वही अवरुद्ध कर दी, जिससे लीला में विघ्न न पड़े।उनमें से दो देवता निकले ,उन्होंने भगवान की सुंदर स्तुति की,जिसे भागवत 10.10 .29 से 38 तक, ग्रंथ में देखना चाहिए । इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना कर जब नलकूवर और मणिग्रीव अपने लोक को चले गए, तब वृक्षों की ध्वनि गोकुल में फैल गई।नंदबाबा आदि सभी ग्वाल- बाल दौड़ पड़े ।इतने में नंद बाबा की दृष्टि श्री कृष्ण के बंधन पर पड़ी। उन्होंने कहा कि अरे! मेरा बेटा तो बन्धा हुआ है! उन्होंने झट जाकर बंधन खोला ,और श्रीकृष्ण को गोद में उठा लिया । मैया ने बंधन लगाया, नंद बाबा ने उसे खोल दिया,उन्हें मुक्ति दे दी।वस्तुतः भगवान के स्वरुप में, न तो कोई बंधन है, और न मुक्ति है ।अध्यारोप से ही बंधन और मुक्ति की सिद्धि होती है ।भगवान स्वयं ,बंधन में पड़े हुए जीवो को मुक्त करते हैं। मुक्ति केवल नलकूवर-मणिग्रीव की ही नहीं होती,उन सब की होती है -जो इस लीलाकथा को पढ़ते- लिखते और सुनते -सुनाते हैं ।
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भगवान कृष्ण थोड़ा बड़े हुए, तो उनकी बाल लीलाओं का विस्तार हुआ,जो यशोदा-नंद के आंगन में तथा बाल-गोपालों के साथ पड़ोस में चल रही है। भगवान गोपियों के फुसलाने से, साधारण बालक की तरह नाचने लगते हैं। उनके कहने पर गाने भी लगते हैं। यशोदा मैया के कहने पर पीढा उठाकर ले आते हैं, कुछ तौलने के लिए बटखरे ले आते हैं ।नंदबाबा के कहने से खड़ाऊँ भी ले आते हैं ।यहां भगवान और भक्तों के बीच एकांगी प्रेम नहीं है ,परस्पर का प्रेम है। एक दिन एक फल बेचने वाली गोपी आई ,श्री कृष्ण फल खरीदने के लिए ,छोटी सी अंजुली में अनाज लेकर दौड़े।आनाज तो रास्ते में ही बिखर गया,पर गोपी ने उनके हाथ फलों से भर दिए।इस पर भगवान ने उसकी टोकरी रत्नों से भर दी। भागवत 10 .11.11। यह ठीक है कि परमब्रह्म, अविद्या निवृत्ति होने पर, केवल ज्ञान से ही मिलता है। किंतु यहां सगुण साकार भगवान नंदनंदन ,अपनी बाल लीलाओं से गोकुल वासियों के साथ-साथ संपूर्ण देवताओं को आनंदित कर रहे हैं। एक दिन नंदबाबा और बड़े-बूढ़ों ने मिलकर विचार किया -कि गोकुल महाबन में, बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं। हमारा लाला- पूतना से बचा,बवंडर से बचा, तृणावर्त से बचा, तथा पेड़ों के गिरने से बचा।अतः दूसरे उत्पात आएं, इसके पहले ही गोकुल छोड़ देना चाहिए।दूसरा प्रस्ताव यह भी था ,कि हमें वृंदावन में रहना चाहिए।वह स्थान पवित्र पर्वत, धास और लता वनस्पतियों से भरपूर है।अतः पशुओं सहित हम सबके लिए सुविधाजनक है। भागवत 10 .11.28 ।
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गोपों के वृंदावन में, बसने की कथा प्रारंभ हो रही है। एक बालक के प्रेम और उसकी सुरक्षा की दृष्टि से, पूरे गोकुल वासियों को घर- बार तथा खेती- बारी का मोह त्याग कर,नए स्थान में बसने का निर्णय, भगवत प्रेम का आदर्श नमूना है । शुकदेव जी महाराज कहते हैं, परीक्षित! ब्रज वासियों ने झुंड की झुंड अपनी गायों को इकट्ठा किया। छकड़ों में बूढ़ों,बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्री चढ़ाकर, वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। स्वयं सुरक्षा की सब व्यवस्था कर, सावधानीपूर्वक, पीछे-पीछे चलने लगे।वृंदावन में प्रवेश कर ;ग्वाल वालों ने, वृंदावन - गोवर्धन पर्वत, गोवर्धन - बरसाने, और बरसाने - नंद गांव तक; अर्धचंद्राकार वस्ती बसा दी। गोधन के रहने योग्य स्थान भी बना दिया। भागवत 10 11 .35 । वृंदावन का हरा- भरा बन, मनोहर गोवर्धन पर्वत तथा यमुना जी की सुंदर पुलिनों को देखकर, श्री कृष्ण और बलराम के हृदय में उत्तम प्रीति का उदय हुआ।वेदांत में प्रश्न उठाकर,कि वह "बन" कौन सा है- जिसकी पृष्ठभूमि में विश्वकर्मा ने इस विश्व का निर्माण किया?उत्तर दिया गया -"ब्रह्म ही वह बन है"। केनोपनिषद ४.6। तात्पर्य है कि वृंदावन प्रकट ब्रह्मात्मक है। राम और श्याम अपनी तोतली- बोली और बाल- लीलाओं से पूर्ववत ब्रजवासियों को आनंद देने लगे।
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थोड़े ही दिनों में राम और श्याम इस योग्य हो गए, कि वे ग्वालबालों के साथ,गायों और बछड़ों को चराने के लिए, आसपास के जंगलों में जाने लगे।वे कहीं बांसुरी बजाए, कहीं ढोलक पीटें, कहीं पांव के नूपुरों से ध्वनि करें,कहीं गाय- बैल बनकर क्रीड़ा करें। इस प्रकार उनका समय बड़े आनंद से बीतने लगा। एक दिन वत्सासुर, आक्रमण करने के लिए, बछड़े का रूप बनाकर आया।वत्सासुर ममत्व का रुप है।श्री कृष्ण की पैनी नजर,धोखा नहीं खाई।उन्होंने दाऊ दादा को बता दिया-यह नया बछड़ा असुर है।देखते-देखते उसके पास पहुंच गए।दोनों पैर पकड़कर, घुमाकर कैथ के पेंड़ में पटक दिया।उसका प्रणान्त हो गया,और असल रूप प्रकट हो गया।ग्वालबालों ने श्रीकृष्ण को अपनी बाहों में भर लिया,और उछल कूद मचाने लगे। एक दिन, बन में ,किसी जलाशय के पास पहुंचे।उसके पास सफेद विशालकाय बगुला बैठा था।बगुला दंभ का प्रतीक होता है। जैसे ही कृष्ण उसके पास पहुंचे उसने झपट कर उनको निगल लिया, उसका मुंह जलने लगा, मानो उसने आग निगल ली हो।उसने श्रीकृष्ण को उगल दिया।भगवान ने उसके चोंच के दोनों हिस्से पकड़कर चीर दिए।दंभ को मरते देख,देवताओं ने उन पर पुष्प वृष्टि कर, जयकारा लगाया।
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एक दिन की बात है,कि श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ बिना दाऊदादा के ही बछड़ों को चराने के लिए बन में गए। बलराम जी का जन्मदिन होने के कारण वे नहीं गए। उस दिन बन में कंस का भेजा हुआ पूतना (अविद्या)तथा बकासुर (दंभ) का भाई अघासुर आया। उसने अपनी माया फैलाई, तथा अपने मुंह को विशाल रूप से ऐसा फैलाया, कि वह सुंदर गुफा की तरह दिखाई देने लगा। भगवान कृष्ण थोड़ी दूर पर थे, अतः ग्वाल बालों ने उस गुफा को वृंदावन की शोभा माना, और उसमें बछड़ों के साथ घुस गए। अधासुर तो कृष्ण को मारना चाहता था,अतः उनकी भी आने की प्रतीक्षा करने लगा। भगवान ने जब अपने भक्तों को पाप के मुंह में प्रवेश करते देखा, तो विचार किया, कि हमारा निवास तो भक्तों का ह्रदय ही है। अतः अव्यक्त रूप से तो हम वहां पहुंच ही गए। अब सशरीर, भक्तों को बचाने के लिए, वहां जाना ही होगा। इसलिए भगवान भी अघासुर के मुंह में प्रवेश कर गए। अघासुर तो इसकी प्रतीक्षा ही कर रहा था, अतः उसने मुंह बंद कर लिया। भगवान तुरंत उसके प्राणों के सहारे ब्रह्मरंध्र में पहुंचे, और उसे फाड़ दिया। श्री कृष्ण ग्वाल- वालों तथा बछड़ों के साथ बाहर निकल आए। अघासुर की ज्योति निकलकर, श्री कृष्ण में समा गई।यह आश्चर्य देख देवता लोग जयकारा लगाकर महोत्सव मनाने लगे ।
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अघासुर उद्धार की तात्विक मीमांसा महत्वपूर्ण है। भगवान प्रातः सींग- ध्वनि से ग्वालवालों को जगाते हैं। मानो अनाहत ध्वनि से, प्रलय निद्रा में सोते जीवो को, जगाया।स्वयं उनके साथ संसार- बन में प्रवेश करते हैं। श्रुतियों में यही सृष्टि क्रम है। उन्हीं प्रभु के साथ, अंगणित जीव ,अपने-अपने प्रारब्ध कर्म के अनुसार, विभिन्न प्रकार के भोग के पदार्थ लेकर, प्रपंच-विपिन में प्रवेश करते हैं ।उनके आगे-आगे इंद्रिय-गोवत्स चल रहे हैं। कोई भगवान के दर्शन की होड़ लगाते हैं, कोई भगवान को भूलकर ,तीन गुणों वाली भोग वस्तुओं में, फंस जाते हैं। जीव जब भगवान से समानता करने लगता है, और स्वच्छंद चेष्टा करता है, तब जीवन में अघासुर आ जाता है। पाप का मुंह बहुत बड़ा है। जीवो के लिए उसको पहचानना बहुत कठिन है। वे अनजान में ही उसके मुंह में घुस जाते हैं। जीवों के शरीर में अनुप्रविष्ट भगवान भी वहां पहुंच ही जाते हैं। भक्तों के उद्धार के लिए भगवान को सशरीर वहां जाना पड़ता है। तब अघासुर अपना मुंह बंद कर लेता है ।उसके प्राणों से मिलकर ग्वाल वालों सहित भगवान बाहर निकल आए। अघासुर की आत्मज्योति श्री कृष्ण से मिल गई। अघासुर की आत्मा, व श्रीकृष्ण की आत्मा एक है, यह ब्रह्मा जी के लिए भी आश्चर्य है, और बिना भोग किए पाप का नाश,एक पहेली है ।इसी को समझने के लिए आगे की लीला है ।
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जब ब्रह्मा जी ने, देवताओं द्वारा मनाए जा रहे महोत्सव की ध्वनि सुनी, तो वे ब्रजभूमि पहुंचे। महोत्सव का कारण जाना, तो पता चला कि अघासुर की मुक्ति, पाप भोगे बिना ही, हो गई! उन्होंने सोचा यह तो वेद -पुराण- शास्त्र विरुद्ध है! केवल अद्वय परमात्मा ही ऐसा कर सकता है ।अतः उस परमात्मा की अन्य लीला देखने के लिए, श्री कृष्ण के पास पहुंच गये। वहां अघासुर मुंह से निकलने के बाद, ग्वाल वालों सहित श्री कृष्ण का बन- भोज, जमुना के किनारे चल रहा था। बीच में श्रीकृष्ण बैठे हैं, चारों तरफ कई गोलाकार मंडलों में ग्वाल बाल बैठे हैं। उनके पास न थाली है, न पत्तल है। श्री कृष्ण की झांकी बड़ी लुभावनी है- उनके बाएं हाथ में दही चावल है, दाहिने हाथ से खा रहे हैं जिसकी उंगलियों के बीच में कई प्रकार के आचार फसा रखे हैं। वेंणु को कमर के फेटे में लगा रखा है। श्री कृष्ण के साथ भोजन करते हुए, ग्वाल बाल बड़े आनंदित हैं। वहां जाति- पाति, पवित्रता आदि का कोई विचार नहीं है। ब्रह्मा जी को आश्चर्य हो रहा है! कि परमात्मा इस प्रकार वेद विरुद्ध आचरण में कैसे संलग्न है? इसी बीच, सब बछड़े हरी घास के लोभ से, जंगल में घुस गए और आंख से ओझल हो गए। ग्वाल बालों का ध्यान उधर गया, और वे भोजन छोड़कर ढूंढने के लिए उठे। श्री कृष्ण ने कहा तुम लोग भोजन करो, मैं उन्हें ढूंढ कर लाता हूं। भगवान जब बछड़े ढूंढने गए, तो वे मिले नहीं। लौट कर आए, तो ग्वाल बाल भी गायब थे!ध्यान में देखा, तो पता चला कि यह सब ब्रह्मा जी की करतूत है।
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ब्रह्मा-मोह की कथा चल रही है। यह कथा 3, अध्याय 12, 13, 14 में है, जिसे कुछ संप्रदाय के लोग प्रक्षिप्त मानते हैं। किंतु कथा प्राचीन समय से चली आ रही है, अस्तु सभी का उसके प्रति आदर भाव है, और उस कथा को विस्तार से कहते हैं । भगवान ने जान लिया- कि ब्रह्मा जी मेरी लीला देखना चाहते हैं ।अतः लीला का विषय सृष्टि चुना,जिसमें ब्रह्मा जी अपने को निपुण मानते हैं। वास्तव में ब्रह्मा जी सृष्टि उत्पन्न नहीं करते,संयोजन करते हैं।जीव,प्रकृति, पंचभूत,अंत:करण ,कर्मवासना तथा प्रारब्ध पहले से रहते हैं ,ब्रह्मा जी उनका सुंदर संयोजन करके, ऐसा शरीर प्रदान कर देते हैं, जिससे जीव अपनी वासनाओं को पूरा करते हुए भी ,भगवान की ओर अग्रसर रहें । भगवान ने ऐसी लीला की-कि बिना अंतः करण संस्कार के होते हुए ,सारे खोए हुए ग्वाल बाल ,तथा पशुओं को उनकी व्यक्तिगत वस्तुओं -छड़ी, वेंणु, छींके, कपड़े ,आभूषणों के सहित प्रकट कर दिया ।यह सब वस्तुएं परमात्म तत्व से बनी होने के कारण ,माता-पिता तथा गायों आदि के लिए, विशेष आकर्षण का केंद्र बन गई ।बलराम जी को यह सब कौतुक देखकर ,जब संदेह हुआ तब श्रीकृष्ण ने संक्षेप में सब घटनाओं को बता दी। ब्रह्मा जी बच्चों और ग्वाल बालों को छिपाकर, अपने लोक गए। तब वहां पहले से ही एक-दूसरे ईश्वरीमाया कृत ब्रह्मा आ गए थे, अतः द्वारपालों ने उनका तिरस्कार किया, और उनको भीतर घुसने नहीं दिया। अस्तु वहां से पुनः ब्रज में आ गए। ब्रह्मा जी के कालमान से आधा क्षण का समय बीता था, लेकिन मनुष्यों के कालमान से 1 वर्ष बीत गए थे।
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ब्रह्मा जी, जब ब्रज लौटकर आए, तो देखते हैं, कि उनके छिपाए ग्वाल- बाल और बछड़े यथा स्थान पर अचेत पड़े हैं। दूसरी ओर भगवान कृष्ण भी ठीक उसी प्रकार के ग्वाल-बाल तथा बछड़ों के साथ पूर्ववत् क्रीड़ा कर रहे हैं ।ब्रह्मा जी आश्चर्यचकित हो गए, गौर से देखने पर, उसी क्षण सब ग्वाल-बाल व, बछड़े श्री कृष्ण के रूप में दिखाई देने लगी । उन्होंने देखा- कि अणिमा- महिमा आदि सिद्धियां, माया- विद्या आदि विभूतियां, और महत्व आदि चौबीसों तत्व, सभी चारों ओर भगवान को घेरे खड़े हैं। भागवत 10. 13.52। ब्रह्माजी काष्ट मौन हो गए। उनकी ग्यारहों इंद्रियां, क्षुब्ध और स्तब्ध हो गयीं। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गए, मानो ब्रज के अधिष्ठाता देवता के पास,एक पुतली खड़ी है। भागवत 10 .13.56। ब्रह्मा की ऐसी दशा देखकर, भगवान ने तुरंत अपनी माया का पर्दा हटा लिया ।इससे ब्रह्मा जी को ब्रह्मज्ञान हुआ और स्वस्थ हो गए। ब्रह्मा जी भगवान के चरणों में दंड की भांति गिर पड़े। उनकी आंखों से प्रेम अश्रु निकल रहे थे। वे उठे और नम्रता से,अंजलि बांधकर,गदगद वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे।सुंदर स्तुति भागवत 10.14 में दी गई है। विस्तृत होने के कारण पोस्ट में देना संभव नहीं है।
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ब्रह्मा-मोह का तात्विक विवेचन आनंद प्रद है। वास्तव में ब्रह्मा जी, श्री कृष्ण की मंजुल-मंजुल भगवदीय लीला देखना चाहते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वे परम ब्रह्म के अवतार हैं। भगवान ने लीला का विषय सृष्टि चुना- जिसमें ब्रह्मा जी को निपुणता प्राप्त है । ब्रह्माजी सृष्टि कैसे बनाते हैं? पहले से ही जीव है, अंतःकरण है ,वासना है ,कर्म है- उसके अनुसार देह दे दिया, मानो विभिन्न अवयवों को लेकर, एक यंत्र का संयोजन कर दिया गया ।और भगवान की सृष्टि की विशेषता क्या थी?पहले से- न जीव है,न प्रकृति है,न अंतःकरण है, न वासना है, न कर्म -लेकिन ग्वाल-बाल- बछड़े की सृष्टि वैसे ही बन गई, जैसे ब्रह्मा जी ने बनाई थी। इससे सिद्ध होता है, कि सृष्टि के भगवान अभिन्न निमित्तोपादान कारण है।भगवान की कृपा से, ब्रह्मा जी ने सभी ग्वाल- बाल -पशुओं को श्रीकृष्ण रूप में देखा। ब्रह्मा जी की स्तुति में, यह अभिप्राय स्पष्ट हो गया, कि न बंधन है न मोक्ष!तत्व के अज्ञान से ही, सब कुछ प्रतीत हो रहा है। सूर्य सर्वदा एक सा है, वहां दिन-रात नहीं है। अपनी स्थिति के कारण हमारे लिए दिन-रात सच है । वृंदावन और वहां के निवासियों की महिमा, का वर्णन ब्रह्मा जी तो करते ही हैं, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी अनेक प्रसंगों में पुनः पुनः करते हैं। भगवान के सानिध्य के लिए, पुण्य की कमाई और भगवत कृपा चाहिए।
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धेनुकासुर का उद्धार। राम-श्याम की आयु( 6 वर्ष) इस योग्य हो गई, कि उनको गाय चराने की अनुमति मिल गई ।दोनों भाई अपने साथी ग्वाल-बालों के साथ, गायों को चराने वन में जाते हैं, और वहां की निराली शोभा देखकर हर्षित होते हैं । एक दिन श्रीदामा नामक सखा ने कहा- बलराम भैया, कृष्ण भैया! यहां से थोड़ी दूर पर ताड़ का एक विशाल बन है, उसमें मीठे मीठे फल पक कर गिरते रहते हैं। लेकिन धेनुकासुर किसी को फल खाने नहीं देता, आप हम लोगों के साथ चलकर फल खिलाओ। दोनों लोग, ग्वाल वालों को साथ लेकर, ताल-बन गए। बलराम जी ने ताल वृक्षों को हिला- हिला कर फल गिरा दिए और ग्वाल- बाल खाने लगे। इतने में गधे के रूप में रहने वाला धनुकासुर दौड़ता आया, और बलराम जी पर आक्रमण कर दिया। बलराम जी ने, उसके पीछे के पैर पकड़ कर घुमाया और ऐसा पटका कि उसके प्राण निकल गए। तात्विक बात यह है, कि भगवत रसास्वादन में, देहा- ध्यास अर्थात धेनुकासुर बड़ी बाधा है। यह दोष चिरकाल से अनुवृत है ,जिसकी निवृत्ति योगाभ्यास से होती है। योगाभ्यास के आचार्य बलराम जी ने, धेनुकासुर के बध से प्रणव नाद को मुक्त किया और वह सुलभ हो गया।
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कालिय नाग दमन लीला। एक दिन बलराम जी घर पर ही रह गए। श्री कृष्ण ग्वाल-बालों और गायों के साथ यमुना तट पर,उस स्थान पर चले गए,जहां कालिय नाग रहता था।वहां का जल विषैला रहता था, लेकिन गाय और ग्वाल बाल उसे पी गए। विषैला पानी पीने से सबके सब मर गए, लेकिन भगवान ने अपनी अमृतवर्षिणी दृष्टि से, सब को जीवित कर दिया । भगवान ने कालिया नाग को वहां से हटाने के लिए, यमुना जल में कूद पड़े ।कालिया नाग और कृष्ण में युद्ध हुआ।एक बार तो कालिय नाग ने, कृष्ण को नागपाश में जकड़ भी लिया,डस भी दिया और क्षण भर के लिए श्री कृष्ण निश्चेष्ट भी हुए।ब्रज में हाहाकार मच गया। लेकिन भगवान शरीर को फैलाकर,नागपास से निकलकर,नाग के शौ-फण वाले सिर पर तांडव नृत्य करने लगे।उनका नृत्य देखने के लिए, गंधर्व,अप्सराएं, देवता,ब्रह्मा और शंकर आदि आए।उनके नृत्य से कालिय के फण छिन्न-भिन्न हो गए ,और उसे खून की उल्टियां हुई ।भागवत 10. 16.30। कालिय शरणागत हुआ, नाग पत्नियों ने स्तुति की। भगवान ने उसे समझाया- कि तुम्हारा यहां रहना ठीक नहीं है। मेरी यह लीला स्थली है। मेरे पैर के चिन्ह तुम्हारे सिर पर होने से, अब गरुण से तुम्हें भय नहीं रहेगा। तुम अपने स्थान रमण द्वीप चले जाओ। कालिय दमन के पश्चात, श्री कृष्ण कुंड से बाहर आए। ब्रज वासियों ने उन्हें गले लगाया। नंद बाबा ने ब्राह्मणों को बड़े-बड़े दान दिए। सूर्य अस्त हो गया था। तन मन से थके बृजवासी, वहीं यमुना तट पर सो गए।
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कालिय- दमन लीला का तत्वार्थ भी जानना चाहिए। यमुना जी की महिमा सर्वविदित है। यह ब्रज एवं द्वारिका दोनों स्थानों में, भगवान की लीला- सहचरी हैं । यह भौतिक रूप में जल है, किंतु आधिदैविक रूप में सूर्यपुत्री कालिंदी है। इसके अंदर कालिय नाग का निवास उचित नहीं था। कालिय नाग हम सब की इंद्रियां हैं, उनके सहस्त्र- सहस्त्र फन हैं। उनका विषय संपर्क ही विष है। जब तक भगवान, अंतःकरण वृत्तिरूप यमुना में प्रवेश नहीं करेंगे, तब तक यह विषय-संपर्क रूप काम, निवृत्त नहीं हो सकता और तब भक्तों को, आगे की चीरहरण लीला और रासलीला भी समझ में नहीं आएगी। श्री कृष्ण के यमुना के उदर में निवास करने के कारण, कालिय का वध न कर, उसके स्थान रमणीक द्वीप में भेज दिया। इस लीला प्रसंग में ,एक लाभ और हुआ। ब्रज वासियों को, विशेषकर गोपियों को, बन से आते- जाते समय, श्री कृष्ण-दर्शन में जो आनंद आता था, उस रूपरस संभोग की रस वृद्धि के लिए, वियोग आवश्यक था।थोड़ी देर ही सही, कालिय-दह में अदृश्य रहने के कारण, ब्रज वासियों को जो वियोग- दुख हुआ, वह उनके हृदय के गुप्त एवं सुप्त प्रेम को जगाने में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ।
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क्रोधाग्नि लीला का प्रसंग आता है।भक्तों की लोभाग्नि धेनुका-वध लीला में, और कामाग्नि कालिय-दमन लीला में शांत करने के बाद,भक्तों की क्रोधाग्नि भी शांत करना है । दावानल दो प्रकार का होता है- एक देवता दूसरा दैत्य, भगवान ने दोनों का शमन किया है।कालिया नाग दमन के पश्चात, भूखे प्यासे बृजवासी,गौएँ,गोप-सब रात्रि के समय वही कालियदह पर सो गए।अग्नि देवता( देव- दावानल)ने सोचा, कि प्रातः काल यह लोग उठकर, आसपास के फल-फूल, घास-पात का उपयोग करेंगे,जो नाग के विष से दूषित है,अतः इन्हें जला देना चाहिए, और उन्होंने वैसा ही किया।भगवान ने प्रसन्न होकर अग्नि देवता को पी लिया। विराट पुरुष के मुख से अग्नि की उत्पत्ति होती है-कार्य कारण में लीन हो गया। दूसरे प्रसंग (दैत्य दावानल) में,गौएँ चरती- चरती बहुत बड़े सरकंडे के गहन बन में घुस गई। श्री कृष्ण-बलराम तथा ग्वाल-बाल उनके पैर के चिन्हों के सहारे ,ढूंढते-ढूंढते वहां पहुंचे।तभी अकस्मात दावाग्नि लग गई और साथ में आंधी भी चलने लगी। गायें डर के मारे,डकारने लगीं और ग्वालवाल भी सहायता के लिए, श्रीकृष्ण को पुकारने लगे। श्री कृष्ण ने ढाँढस बंधाते हुए उन सब को आंख बंद करने को कहा, और योगशक्ति से दावानल पी गए।इस प्रकार भक्तों का भय-कष्ट दूर हो गया ।
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इसके बाद वर्षा और शरद ऋतु में वृंदावन की शोभा का वर्णन है।वृंदावन चीन्मय भूमि होने के कारण,वहां की प्रकृति वर्णन अत्यंत विलक्षण है।इसमें एक ओर आध्यात्मिक दृष्टांत है, और दूसरी ओर प्रकृति के रूपों का वर्णन है। इसका विस्तार से वर्णन भागवत- 10.20 में है ,उसे ग्रंथ में देखना होगा । वृंदावन का स्वरूप क्या है? एक तो यहां गिरिराज है, दूसरी बहती हुई नदी है, और तीसरा निर्मल सरोवर है। निर्मल सरोवर भक्तों के हृदय हैं, नदी भगवान की ओर प्रवाहित होने वाली वृत्ति है,और गिरिराज पर्वत दृढ़ निष्ठा है । वृंदावन ध्येय भूमि के कारण, चिन्मय है, भगवत रस की अभिव्यक्ति है। सत् की प्रधानता से आकृतियां है चित्त की प्रधानता से, वृत्तियां है और आनंद की प्रधानता से सुख का उल्लास होता है।वृतियों में सुख की झलक ही, प्रेम संज्ञा धारण करती है । वृंदावन में भगवत प्रेम कण -कण में प्रकट हो रहा है। जीव जब निस्साधन एवं कुसाधन हो जाता है,तब स्वयं भगवान अपनी ओर से लीला प्रकट करके,जीवो को आलिंगन देते हैं और अपने में मिला लेते हैं।अस्तु वृंदावन भगवान की अनुग्रह एवं भक्तों के प्रेम का मिलन स्थान है।
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शरद ऋतु में,दिव्य शोभा युक्त वृंदावन में, भगवान की वेणुगीत लीला हुई है ।श्री वल्लभाचार्य के मत में,श्री कृष्ण का यह वृंदावन धाम में प्रवेश, सरित-सरोवर में स्थित आधिदैविक शक्ति के साथ रमण है।भगवत् सम्मिलन के लिए केवल ब्रजआंगनायें ही नहीं,परा-अपरा प्रकृति, सब लालायित है।उसी रमण के लिए वेंणुकूजन द्वारा भगवान ने बन देवताओं को उद्बोधन किया है। वेंणुकूजन नाद( दिव्य शब्द शक्ति) कि यह महिमा है, कि जिससे यह संबंधित हो जाए, उसे भगवान का बना दे। कूजन में अर्थहीन केवल ध्वनि होती है, परंतु गीत सार्थक अर्थ युक्त होता है । पहले भगवान ने वेंणु कूजन कर। सबको सावधान किया। वेणुकूजन श्रवण से, ब्रज गोपिकायें मूर्छित हो गई। उनमें से कुछ को ,श्रीकृष्ण के अनुग्रह विशेष से,सावधानता प्राप्त हुई। जब वे सावधान हो गयीं, तब श्रीकृष्ण ने वेणु द्वारा गीत गाया,जो स्पष्टार्थक था ।भगवान की लीला विशिष्ट द्वारा,तत्कालिक स्वरूप का निर्देश,इस वेणु गीत से हुआ। जिन्होंने उसे सुना, उनके अंतःकरण में भगवत- स्वरूप व्यक्त हुआ। जब वेणु गीत द्वारा,भगवान की अधर सुधा से,गोपियों का रोम-रोम भरपूर हो गया ,तो गोपियों के अधर पल्लवों से भी" वरहा पीडं नटवर बपु" इत्यादि वेणु गीत रूप में अभिव्यक्त हो उठा। इसीलिए गीत उस अनुभूत तत्व का उद्गार है, वर्णन नहीं।
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वेणुगीत का प्रकरण चल रहा है।वृंदावन चिन्मय है।वहां के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, धूलकण सब चिनमय है।गोपियां घर में बैठी हैं, और देख रहे हैं बन में श्रीकृष्ण व उनकी लीला को। गोपियां एक जगह बैठकर जो देख रहीं हैं, वे उद्गार होंठों से 15 गीतों के रूप में छलकने लगे:- वृंदावन के जड़ - चेतन सब, वंशी ध्वनि सुनकर, प्रेम मग्न है।ब्रज के वृक्ष और लताएं, भगवद्- रस प्रकट करती हैं। वृंदावन के पशु-पक्षी, प्रपंच दर्शन से विमुख होकर, श्री कृष्ण के प्रेम में मग्न है।हरिणियाँ प्रेमभरी दृष्टि से उन्हें देखती है, और श्रीकृष्ण उनके नेत्र से नेत्र मिलाते हैं।वन देवियां मुग्ध है।गाय-बछड़ों के शरीर में,रोमांच है,नेत्रों में आंसू हैं, भोग का विस्मरण है। पक्षी खुली आंखों से देखते हैं,मौन रहकर वंशी ध्वनि सुनते हैं।नदियां मिलन की लालसा से, स्थिर हो जाती हैं, और चरणों पर कमल चढ़ाती हैं।मेघ छाया करते हैं, और कृष्ण पर फुहारों द्वारा प्रेम रस की वर्षा करते हैं।बन की भीलनें भी,घास-पात पर भगवान के चरणों का लगा सिंदूर, लगाकर तृप्त हो रही है। गिरिराज भी अनेक प्रकार से सेवा कर रहे हैं।वृक्षों से मधुधारा का क्षरण हो रहा है। चर,अचर और अचर,चर हो रहा है। भागवत 10. 21. 5 से 19।
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अब हेमंत ऋतु आई, जिसमें चीरहरण लीला का प्रसंग है। चीरहरण माने- आवरण भंग।ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार, बीच के आवरण भंग होने पर ही होता है। मार्गशीर्ष महीने में, गोपियां हविष्यान्न का भोजन करती हुई, दुर्गा की उपासना करने लगीं। गोपियां प्रातः काल जाकर कालिंदी में स्नान करें, किनारे पर देवी की बालू से मूर्ति बनाकर, गंध-माल्य-सूरभि आदि से पूजा करें ,और मंत्र जपें। इस प्रकार उन्होंने एक महीने तक अनुष्ठान क्रिया और भद्रकाली की पूजा की । गोपियों की दिनचर्या प्रारंभ होती थी- प्रातः काल उठकर,आपस में गलबहियाँ डालकर, कृष्ण-कृष्ण का गान करती हुई, जमुना किनारे जाकर, अपने कपड़े अलग रखकर ,निर्वस्त्र हो जल में बिहार करने से। श्री यमुना में स्नान करते ही, प्राणी को श्रीकृष्ण सम्मिलन की योग्यता प्राप्त हो जाती है। पर यहां साधन में 2 दोष हैं -वस्त्र का त्याग और मौन का त्याग। एक दिन योगेश्वर भगवान का ध्यान, साधना के दोषों की ओर गया, और उनके परिहार के लिए साथियों को लेकर, गोपियों के पास पहुंचे ।भगवान श्री कृष्ण गोपियों के उतारे कपड़े लेकर, कदंब पर चढ़ गए। कुछ हंसी- विनोद की बातचीत के बाद, सब गोपियां बाहर निकली। भगवान ने उनको दिव्य दृष्टि से देखा, और उनके अंदर जो लज्जा, शंका, कुल, जाति, शील आदि का बंधन था, वह सब छिन्न-भिन्न कर दिया। उनसे हाथ जोड़कर सूर्य भगवान को नमस्कार करवाकर, साधनागत दोषों का भी परिहार करा दिया। भगवान ने गोपियों को,वस्त्र के माध्यम से, स्पर्शी दीक्षा देकर, कह दिया कि जाओ! तुम सिद्ध हो गई।
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चीरहरण, रासलीला आदि कुछ ऐसी कथाएं हैं,जिन पर अविवेकी जनों द्वारा, अनेक शंकाएं की जाती हैं।अतः चीर हरण लीला पर,कुछ विचार कर लेना चाहिए।ब्रज कुमारीकायें श्री कृष्णचंद को वर रूप में प्राप्त करने के लिए, भगवती कात्यायनी की अर्चना में लगी है।इन सब के पास, पूर्वजन्म की कमाई है।वह पूर्व जन्म में कृष्ण के दर्शन का वरदान प्राप्त कर चुकी है,कि अगले जन्म में ब्रजकुमारी के बनने पर,रमण(तादात्म्येन सम्मिलन)संभव होगा। वेदांत में जीव को, स्वयं ज्ञान प्राप्त करके,आवरण भंग करना पड़ता है।किंतु भक्ति सिद्धांत में, भगवान स्वयं आकर,आवरण भंग करते हैं।वही प्रक्रिया चीरहरण लीला द्वारा संपन्न हुई है । लीला में,श्री कृष्ण ने वस्त्रों के माध्यम से- आवरण, लज्जा, अहंकार,आदि सब कुछ लेकर ,उसे अपने से संबंधित करके, फिर ब्रजांगनाओं को दे दिया।प्रसाद रूप आवरण,लज्जा और अहंकार सब सरस हो गए। उन वस्त्रों को धारण करने से ब्रजांगनाओं को, श्री कृष्ण के संस्पर्श का सुख मिला और उनके अंग-अंग,रोम-रोम इंद्रिय-प्राण,अंतः करण, अंतरात्मा सब में कृष्णरस का संचार हुआ । श्रीकृष्ण ने वस्त्र और अपने को तो दे दिया, परंतु गोपियों के मन को चुरा लिया। अतः वे ब्रज नहीं लौटना चाहती।अस्तु कृष्ण को कहना पड़ा-आप लोग ब्रज जाएं। जिस उद्देश्य से आप लोगों ने देवी की अर्चना की है,वह आगे रात्रि (रासलीला) में सफल होगी । भगवान का रमण आत्मा में ही होता है। ब्रजांगनाओं को पूर्ण पात्र बनाने के लिए, सम्मिलन की उत्कट उत्कंठा पूर्वक प्रतीक्षा की आवश्यकता है, अतः भगवान का ऐसा निर्देश हुआ।
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ब्राह्मण पत्नियों पर कृपा।एक दिन राम- श्याम, ग्वालबालों के साथ मथुरा की ओर, काफी दूर तक निकल गए। गर्मी के दिन थे,फिर भी वृक्ष उन पर छाया किए हुए थे। भगवान ने ग्वालवालों से कहा-वृक्ष अपने पत्र-पुष्प, फल, छाया, मूल,वल्कल, लकड़ी, गंध, गोद तथा अंकुर आदि से सब जीवों की सेवा करते हैं।उनके जीवन में परार्थ है, जो एक प्रकार की भक्ति है । इस प्रकार की बातें करते हुए, सभी यमुना जी का सुस्वाद जल पीकर ,तट पर बैठ गए। ग्वाल-बालों ने भूख लगने की बात कहकर ,कुछ खिलाने को कहा।भगवान कृष्ण ने कहा- थोड़ी दूर पर मथुरा के ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं, वहां जाकर दाऊ दादा और मेरा नाम लेकर भोजन सामग्री मांग लो! ग्वाल वालों के वहां जाने पर ब्राह्मणों ने हां -ना कुछ नहीं कहा। ग्वाल- बाल निराश होकर, लौट आए ।वास्तव में यह ब्राह्मण ज्ञानशून्य कर्मठ है। दो साधन मार्ग हैं -भक्ति व ज्ञान ।या तो सर्व को भगवत रूप मानकर ,सेवा भाव से, हां कर देना चाहिए था या नेति- नेति सिद्धांत से ना कर देना चाहिए था। श्री कृष्ण ने सब सुनकर कहा -कि अब ब्राह्मण पत्नियों के पास जाओ, और उनसे हमारा नाम लेकर भोजन सामग्री मांगो! ग्वाल-बाल जाकर जब ब्राह्मण पत्नियों से मिले ,तो उनकी बात सुनते ही वह प्रेम से भर गई, और तुरंत सब प्रकार की भोजन सामग्री लेकर श्री कृष्ण के पास पहुंच गई।
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ब्राह्मण पत्नियों को भगवान का ऐसा दिव्य दर्शन हुआ, कि उसका वर्णन सुनकर चैतन्य महाप्रभु, मूर्छित हो जाया करते थे:- यज्ञ पत्नियों ने देखा- कि श्रीकृष्ण के सांवले शरीर पर, सुनहला पीतांबर झिलमिला रहा है।गले में वनमाला है, मस्तक पर मोरमुकुट है।उन्होंने नए-नए कोपलों के गुच्छे शरीर में लटकाकर,नटवर का- सा वेष बना रखा है। उनका एक हाथ सखा के कंधे पर है,और उनके दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है।कानो में पुष्पों का कुंडल है, कपोलों पर घूंघराली अल्कें लटक रही हैं, और उनके मुख कमल पर मंद-मंद मुस्कुराहट है । ऐसा दिव्य दर्शन पाकर, यज्ञ पत्नियां अत्यंत मुग्ध हो गई।उन्होंने श्री कृष्ण-बलराम और ग्वाल-बालों को भोजन कराया,फिर उनका अनुग्रह प्राप्त कर यज्ञ स्थल पर लौट गई । इन लीलाओं का शिक्षार्थ क्या है? कर्मकांडी ब्राम्हणों से परोपकारी वृक्ष उत्तम है, वृक्षों से ब्राह्मण पत्नियां उत्तम है, और उनसे भी गोपियां उत्तम है। ब्राह्मण अभक्त कोरे कर्मकांडी हैं,ब्राह्मण पत्नियों का भक्त मिश्रित धर्म अनुष्ठान है, और गोपियों की शुद्ध पराभक्ति है।
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श्री गिरिराज गोवर्धन, भगवान के भक्तों में श्रेष्ठ हैं।भक्त गिरिराज की पूजा हो,या इंद्र की-यह प्रसंग है।भक्ति में दो ही की पूजा चल सकती है -भगवान की या भक्तों की। ब्रज में परंपरागत चली आ रही, इंद्रपूजा की तैयारियां चल रही थी। श्रीकृष्ण ने बाबा से पूछा- कि इतनी सब तैयारियां किस लिए हो रही हैं। नंदबाबा ने कहा कि बेटा! इन दिनों इंद्र देवता की पूजा होती है।यह हमारी कुल परंपरा से चली आ रही है।हमारा विश्वास है, कि इंद्र की कृपा से ही वर्षा होती है, अन्न होता है।इसलिए हम लोग इंद्र की पूजा करते हैं । कृष्ण ने कहा- सब लोग कर्मफल के अनुसार पैदा व मरते हैं। कर्म से गुण बनते हैं-तदानुसार सृष्टि बनती है, और शरीर प्राप्त होते हैं। समष्टि के मनुष्यों के कर्मानुसार बादल बनते हैं, और वर्षा करते हैं, उसी से सृष्टि का व्यापार चलता है। हमारे पास न तो राज्य है,और न कोई नगर-गांव है, बनवासी हैं, और गिरिराज की तलहटी में रहते हैं, इन्हीं से हमें अन्न- फल आदि मिलता है, और उसी से हमारी गौएँ पलती हैं। हमारे पूजा के योग्य तो गाय, ब्राह्मण व पर्वत हैं। जिसके द्वारा मनुष्य की जीवन सुगमता से चलता है, वही उसका इष्टदेव है ।भागवत 10.24. 18। नंदबाबा व सभी गोपों ने, श्रीकृष्ण की बात मान ली।इंद्र-पूजा के लिए जो सामग्री इकट्ठा की गई थी, उसी से गिरिराज की पूजा हुई ।
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गोवर्धन पूजन।कन्हैया ने सबको समझाया-गोवर्धन तो हमारा प्रत्यक्ष देव है।जो पर्वत दिखाई दे रहा है, यह तो उसका आधिभौतिक स्वरूप है, उसका आधिदैविक स्वरूप तो और ही है-सूक्ष्म है।कन्हैया ने अपना एक स्वरुप नंदबाबा के पास रखा, और दूसरे से गिरिराज में प्रवेश किया । भगवान ने गोवर्धन पूजा के लिए दीपावली का दिन तय किया।सभी ब्रजवासी गाड़ियाँ भर-भर के खाद सामग्री लेकर गिरिराज के पास आए।ब्राह्मण वेदोच्चार करने लगे,और कन्हैया अभिषेक।कन्हैया आज अपनी ही पूजा कर रहे हैं,सारे बृजवासी सहभागी हो रहे हैं। भोग का अवसर आया।खाद्य सामग्री प्रकोष्ठ में रखी गई, ऊपर तुलसी दल लगाकर,भोग करने के लिए प्रार्थना की गई।गायों को चारा खिलाया गया।सभी ने प्रसाद ग्रहण किया,यहां तक की चांडाल,पतित,तथा कुत्तों तक यथा योग्य वस्तुएं दी गई।भागवत 10.24. 28। इसके बाद ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त कर ,नंदबाबा सहित सभी गोप, गिरिराज का परिक्रमा करने लगे। गोपियों ने भी भली-भांति श्रंगार कर,छकड़ों में सवार होकर,श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते हुए,परिक्रमा की!
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गोवर्धन धारण।इंद्र को पता चला, कि उनकी पूजा न होकर,गोवर्धन की पूजा हुई है।इंद्र क्रोध वश होकर,असुर भाव को प्राप्त हो गए।उन्होंने प्रलयकारी मेघों को आज्ञा दे दी-कि भीषण वर्षा से,ब्रज में जितने पशु,गौएँ हैं ,सब का नाश कर दो । मेघों ने ब्रज पर मूसलाधार वृष्टि प्रारंभ की।बिजलियां चमकने लगी,बड़े-बड़े ओले गिरने लगे,आंधी का वेग प्रचंड हो गया,ब्रज वासियों में हाहाकार मच गया।सब श्रीकृष्ण की शरण में आए।भगवान ने एक हाथ से गिरिराज को उखाड़ कर उठा लिया,वैसे ही,जैसे बालक छत्रक पुष्प को उखाड़ लेते हैं।भागवत 10.25.19। भगवान बोले-कि सब लोग पर्वत के नीचे बन गए गड्ढे में आ जाओ। भगवान श्री कृष्ण ने,अपने बाएं हाथ की उंगली पर, जरा कमर टेढ़ी करके,एक ही पांव पर,अपने मुंह पर बांसुरी लगाए, 7 दिन तक गोवर्धन धारण किए रहे। जब ग्वालवालों ने,सहानुभूति दिखाते हुए आराम देने को कहा,तो श्रीकृष्ण ने हंसकर कहा-कि तुम लोग भी अपनी-अपनी लाठियों से टेक देकर सहारा दे दो । यह सब देखकर, इंद्र अत्यंत विस्मित हो गया।स्वयं मेघों को वर्षा बंद करने की आज्ञा दी। श्री कृष्ण के कहने पर सभी ब्रजवासी, अपने छकड़े, सामान और परिवार लेकर, बाहर निकल आए।भगवान ने बड़े आदर, शांति के साथ।गोवर्धन को यथा स्थान जमा दिया ।
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जब इंद्र का मान मर्दन हो गया,तब वे और कामधेनु अलग-अलग,श्री कृष्ण के पास आए।इंद्र ने स्तुति की- जिसे ग्रंथ 10.27 में देखना चाहिए ।उन्होंने क्षमा मांगते हुए कहा- आप ही मेरे स्वामी है ,गुरु हैं, आत्मा है ,मैं आपकी शरण में हूं ।इस प्रकार इंद्र का अनुशासन हो गया । अब कामधेनु सामने आई, और कहा आज से हमारे इंद्र आप हैं, आप ही गोविंद, गोपाल हैं।यह कहकर कामधेनु ने अपने दूध से, भगवान का अभिषेक किया।तब इंद्र ने भी तुरंत आकाशगंगा का जल मंगवाया, और देवताओं तथा ऋषि यों के साथ,भगवान श्री कृष्ण का अभिषेक किया । इस बीच श्री कृष्ण की, अलौकिक महिमा प्रकट करने वाला,वरुण लोक जाने का प्रसंग उपस्थित हो गया।नंद बाबा ने एकादशी का व्रत किया, द्वादशी रात्रि में लग गई, अतः आधी रात के बाद, नंदबाबा स्नान के लिए यमुना जल में प्रवेश किया।सामान्यता स्नान के लिए, यह आसुरी बेला (11:00 से 3:30)मानी जाती है। वरुण दूत नंद बाबा को पकड़कर वरुण के पास ले गए,बृजवासी नंद बाबा को डूबा मान कर रोने लगे।भगवान सब जानते थे, वे तुरंत जल में कूदकर वरुण लोक पहुंच गए।वरुण ने उनका बड़ा सम्मान किया।पूजा-अर्चना की,क्षमा प्रार्थना की, नंद बाबा आश्चर्यचकित हो सब देखते रहे।श्री कृष्ण नंद बाबा को लेकर ब्रज लौट आए।
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गोपों को कृष्ण की प्रभुता-दर्शन।नंदबाबा वरुण लोक की लीला देखकर,चकित थे।उन्होंने गांव के लोगों को, सब कुछ बताया।अब तो गोप श्रीकृष्ण से कहने लगे-कि जो नंदबाबा को दिखाया हम को भी दिखाओ! भगवान ने देखा -कि सबके मन में चमत्कार देखने की इच्छा हो गई है। भगवान ने सोचा संसार के जीव अविद्या ग्रस्त होते हैं,सांसारिक कामनाओं के वशीभूत,नीची-ऊंची गतियों में जाते रहते हैं,अपने वास्तविक गति को नहीं जानते।करुणा के वशीभूत होकर भगवान ने गोपों को "दर्शायामास लोकं स्वयं" ।भागवत 10.28 .14 । भगवान, गोपों को ब्रह्महृद जलाशय में ले गए, जहां अक्रूर को भगवान ने अपना स्वरूप दिखलाया था। भागवत 10. 28.16।वहां उन लोगों नें डुबकी लगाई,फिर भगवान ने उनको वहां से निकाल लिया,और तब वे परम धाम का दर्शन करने लगे। लोगों ने देखा -कि वहां श्रीकृष्ण सिंहासन पर बैठे हैं। चारों वेद मूर्तिमान होकर,भगवान की स्तुति कर रहे हैं।वहां उन लोगों ने शंकर जी, ब्रह्मा जी,अंबिका जी,आदि सबको देखा। गोपों ने लोगों से पूछा- कि गोवर्धन पर्वत कहां है, यमुना जी कहां है, कृष्ण की बांसुरी कहां है ,उनका मोर मुकुट भी नहीं है ! मुझे कृष्ण के पास ले चलो! सब का नकारात्मक उत्तर मिला। तब वे बोले- हमारे लिए ब्रज ही ठीक है, और श्रीकृष्ण के साथ ब्रज लौट आए।
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श्री रासलीला की भूमिका। आचार्यों का ऐसा मत है,कि श्रीमद् भागवत भगवान की वांग्मय विग्रह है। दशम स्कंध उसका हृदय है। जिसमें रास पंचाध्यायी (अध्याय 29 से 33) उसके प्राण है । रासलीला कोई सामान्य लौकिक लीला नहीं है।जीव- आत्मा-परमात्मा का मिलन है। गोपियां सामान्य स्त्रियां नहीं है,उनके जीवन में पूर्व जन्म के साधना की कमाई है। गोपियों के दो भेद हैं -नित्यसिद्धा और साधनसिद्धा।साधन सिद्धा गोपियों के कई भेद हैं- श्रुति रूपा,ऋषि रूपा,संकीर्ण रूपा,अन्यपूर्वा,अनन्यपूर्वा आदि। ध्यान यह भी रहे,कि परमात्मा कृष्ण की आयु,रासलीला के समय मात्र 9 वर्ष की है। जिन जीवों में अनन्य भगवत प्रेम होता है, उन के ब्रह्म के साथ तादात्म्य के लिए,आवश्यक भूतशुद्धि, चित्तशुद्धि तथा आवरण भंग आदि की योग्यताएं, भगवान स्वयं आधान कर देते हैं, यथा:- पूतनालीला से अविद्या का नाश किया, शकटासुर, तृणावर्त तथा माखनचोरी आदि से, तीनों गुणों का शोधन किया। और फिर संसाराशक्ति रूपी मटका फोड़कर, दामोदर लीला कर ,जीव के प्रेम- पाश में बंध गए।इसके बाद जीवो के अंतः करण शुद्धि के लिए -धनुकासुर, अघासुर आदि को मारकर, कालिया दमन से चित्त की असद वासनाओं का क्षय कर दिया । इसके बाद वेणुगीत से नादब्रह्म की उपासना पूरी कर, चीरहरण लीला से निरावरण कर दिया।गोवर्धन लीला से इंद्रियों को पुष्ट कर, वरुणलोक तथा वैकुंठलोक लीला से, ब्रह्म मिलन की उत्कंठा तीब्र करदी।अगली 14 पोस्टों में रासलीला है।
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श्री रासलीला की तैयारी का प्रसंग चल रहा है।भगवान ने रासलीला के अनुकूल सारी पृष्ठभूमि तैयार कर ली। ब्राह्मणिंयाँ भी कृष्ण को भगवान मानकर उनकी पूजा के लिए दौड़ी आई, गोवर्धन उठाने से गोपों ने उनकी अलौकिकता स्वीकार की, इंद्र, कामधेनु, देवताओं, तथा वरुण ने उनका अभिषेक किया। इस प्रकार भगवान ने नंदबाबा, सारे बृजवासी,यज्ञ- ब्राह्मण, तथा देवता सब की अनुकूलता तथा सब पर अपना प्रभाव स्थापित कर दिया। अब दिव्य रहस्यमई रासलीला का कोई प्रतिबंधक नहीं रहा। रासलीला स्वरूप साक्षात्कार की लीला है।ब्रज में एक कहावत प्रसिद्ध है-" छठी भावना राशि की"। पहली पांच भावनाओं को क्रमशः पार कर लेने पर ही, रास दर्शन का अधिकार प्राप्त होता है।पांचवी भावना में देह सुधि भूल जाती है-" पाँचे भूले देह सुधि", अर्थात इस भावना में ब्राह्मीस्थिति हो जाती है।ऐसी स्थिति हुए बिना रासदर्शन का अधिकारी नहीं होता। अतः पूर्व में भगवान ने विविध लीलाओं- अघासुर वध, कालिया मर्दन, गोवर्धन धारण, तथा वरुणलोक के ईश्वर दर्शन से, ब्रज वासियों को पहली चार भावनाओं से ऊपर उठा दिया। ब्रह्महद में डुबकी लगवाकर निर्विशेष स्वरूप का दर्शन कराया, और फिर वैकुण्ठ लोक में ले जाकर, अपने सगुण स्वरूप का दर्शन भी कराया, जिससे पांचवी भावना की सिद्धि हो गई। चीरहरण लीला से, गोपियों का आवरंण भंगकर,वस्त्र के माध्यम से स्पर्शी दीक्षा भी दे दी। तब से भगवान के स्मरण में डूबी हुई गोपियां, भी रासलीला के लिये तैयार हैं ।
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रासलीला प्रसंग। भगवान ने चीरहरण के समय, गोपियों को जिन रात्रियों (भागवत 10.22.27) का संकेत किया था,वे सब-की-सब पुंजीभूत होकर एक ही रात के रूप में, उल्लसित हो रही थी।भगवान ने उन्हें देखकर दिव्य बनाया । शरद पूर्णिमा में, चंद्रमा अपनी दिव्य किरणों से,बन की शोभा बढ़ा रहा था।भगवान ने बांसुरी पर, गोपियों के मन को हरण करने वाले काम बीज "क्लिं" की मधुर तान छोड़ दी। उसे सुनकर गोपियों के मन की सब वृत्तियां- भय,संकोच,धैर्य, मर्यादा आदि समाप्त हो गई, और वह घर-द्वार, सब-कुछ छोड़ कर, भगवान से मिलने के लिए दौड़ पड़ी।एक तरह से धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष सब का परित्याग कर दिया।सब ने अपने अपने कामकाज जहां-के-तहां छोड़ दिए,और श्री कृष्ण के पास पहुंच गई। जिन गोपियों को घर से निकलने का अवसर नहीं मिला,उन्हें श्रीकृष्ण के विरह जन्य तापसे, ऐसा दुख हुआ, कि उनके सब बंधन क्षींण हो गए, और उन्हें भगवान की प्राप्ति हो गई। जब भगवान ने देखा, कि सब-कुछ छोड़कर गोपियां, उनके पास आ गई, तो वह पूर्व मीमांसा की रीति से धर्म का प्रतिपादन करने लगे - तुम्हारा स्वागत है, पर इस समय भयंकर रात में घर छोड़कर बन में क्यों आई हो, आदि-आदि......। इस प्रकार से गोपियों के अभिमान का निशेष्य किया।
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रासलीला प्रसंग।श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं,परीक्षित! गोपियां ,गोविंद की अप्रिय बातें सुनकर, विषाद ग्रस्त हो गई।उनकी आशा टूट गई, और वह चिंता ग्रस्त हो गई।फिर प्रणयकोप के कारण वे गदगद वाणी में उत्तर देने लगी।यह सारगर्भित प्रसंग, विस्तार भय से मोबाइल पोस्ट में देना संभव नहीं है।ग्रंथ में ही 10.29 .31 से 40 तक देखना चाहिए । सार बात यह है,कि गोपियां "स्वधर्में निधनं श्रेया:" के स्थान पर "सर्व धर्मान परित्यज्य" की अधिकारिणी हो गई। इसी से वे शास्त्रज्ञ- आज्ञा और भगवद-आज्ञा से भी ऊपर उठ गई।उन्होंने उपनिषद के आधार पर उत्तर मीमांसा के अनुसार, भगवान के पूर्व मीमांसा के सिद्धान्त का खंडन कर दिया। अंत में भगवान ने गोपियों के त्याग-वैराग्य को स्वीकार कर लिया,और आत्माराम होने पर भी उनके साथ रासलीला करने लगे।उन्होंने ऐसी व्यवस्था की,कि सब गोपियां एक साथ उनकी क्रीड़ा का स्वाद लें और अपनी कामनाओं की तुष्टि का अनुभव करें।भागवत 10.29. 46। क्रीडा करते-करते गोपियों को अहं हो गया,कि हमारे सौंदर्य-माधुरी की विशेषताओं पर श्री कृष्ण मुग्ध है। परमात्मा को छोड़कर अहं और इदं पर दृष्टि डालना भगवत प्रेम में बाधक है, ऐसे में भगवान का दिखना बंद हो जाता है ।अस्तु जब गोपियां अपने आप (अहम्) को देखने लगी, तब भगवान अंतर्धान हो गए।
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रासलीला का प्रसंग चल रहा है।भगवान श्री कृष्ण के अंतर्धान होने पर, गोपियां व्याकुल होकर, पहले वृक्ष वनस्पतियों आदि से उनके बारे में पूछती हैं, फिर पागलों की तरह, श्रीकृष्ण की लीलाओं की नकल करने लगती हैं। कोई गोपी पूतना बन गई।कोई नन्हा सा बालक बनकर घुटनों के बल चलने लगी।एक गोपी ने कपड़े का गोवर्धन बनाकर,उठा लिया और बोली-आ जाओ इसके नीचे!एक गोपी ने, दूसरी गोपी के सिर पर पांव रख दिया, और बोली-अरे ओ कालिया ! भाग जा यहां से! एक गोपी ने दूसरी गोपी को उखल बना लिया,और उसमें कृष्ण बनी गोपी को बांध दिया।इस प्रकार गोपियां, श्री कृष्ण की अनेक लीलाओं में तन्मय हो गई । असली भक्तों के मन में, ईश्वर के संयोग की भावना से, सुख होता है,और वियोग की भावना से दुख होता है। ईश्वर के लिए उत्पन्न वियोग की पीड़ा से भक्त गोपियां विक्षिप्त हो रही है। श्री कृष्ण को ढूंढते-ढूंढते,अकस्मात उनके चरण दिखे, और उनके पास किसी गोपी के चरण चिन्ह भी।गोपियों के मन में, इन प्रेमी युगल के बारे में, जो विचित्र-विचित्र भाव बने, वे उन्हें प्रकट करती हैं। बाद में कुछ ऐसे चिन्ह दिखे, मानो भगवान उस गोपी को भी छोड़ कर चले गए हैं।अतः कुछ सखियां ढूंढती-ढूंढती उस तक पहुंच गई। अब गोपियों के मन में, भगवान के अंधेरे में छिपने के लिए भटकन से, होनेवाले कष्टों की कल्पना से व्यथा हुई। अतः वे सब खोज बंद कर, यमुना के तट पर बैठकर,हृदय के मधुर उद्गार प्रकट करने लगी।
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अध्याय 29 व 30 में कही गई,रासलीला के आध्यात्मिक भाव पर,थोड़ा विचार कर लेना कर्तव्य है। वेदांत मार्ग में तो,साधक को साधना स्वयं करनी पड़ती है,किंतु शरणागत भक्त की साधना,तो भगवान स्वयं करते- करवाते हैं।सगुण के साथ जो संबंध होता है, वह भावनात्मक होता है;और निर्गुण के साथ तो ऐक्य होता है, वह बोधात्मक होता है। सामान्य जन के लिए, रास-पंचाध्यायी शंकाएं उत्पन्न करती है, विशेषकर श्लोक 10.29.46।किंतु जिन्हें साधना मार्ग का ज्ञान है- कि भगवान आत्माराम है,अपने आप में रमण करते हैं ,वे इस लीला को केवल गोपियों में दिव्यरस-संचार का निमित्त मात्र मानते हैं।नैसर्गिक रूप से, गोपियों के बाहु,ऊरु, तथा स्तन आदि में प्राकृत काम रहता ही है,और यहां तो कामदेव स्वयं भगवान से युद्ध के लिए,उन्हें दुर्ग बनाकर ,उनमें छुप कर बैठा है ।अतः भगवान ने पहले गोपांगनाओं के उन अंग रूपी दुर्गों को स्पर्श करके,कंदर्प को निकाला, और आनंदात्मक रस की स्थापना की।अब जब भगवान अंतर्धान हो गए,तो गोपियां वियोग के आनंद का अनुभव करने लगी। पारंपरिक साधना- विधि में, साधक को परम प्रेम तक पहुंचाने के लिए, पहले ब्रह्म के संस्पर्श का क्षणिक सुख देकर,वियोग कराया जाता है। गोपियों के अंतःकरण रूपी लाख को प्रणयाग्नि में पिघलाकर,जब काम, क्रोध,तथा लोभ आदि को निकाल दिया गया, तब उसमें श्याम रंग डालने से,अंतःकरण प्रियतम के रंग से रंग गया। परम भक्त नारद, अपनी आत्मकथा द्वारा,पहले ही भागवत 1.6. 22 व 23 में इस विधा को स्पष्ट कर चुके हैं।
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अब गोपी गीत (10.31.1 से 19)का प्रसंग है। श्री कृष्ण की भावना में डूबी हुई गोपियां,यमुना जी के पावन पुलिन रमणरेती पर में लौट आई,और एक साथ मिलकर, श्री कृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। गोपी गीत को ,प्रणय गीत भी कहते हैं।जिसका अर्थ है -प्रणयन- गीत ,जो हृदय को भगवान के योग्य बना देता है। गीतका छंद, कनक- मंजरी है।कनक माने, धतूरा अथवा सोना।नशा केवल धतूरे में ही नहीं होता,सोने में भी होता है।जैसे धतूरे की मंजूरी खाने पर,नशा हो जाता है, वैसे ही, इस गीत के गाने से, मनुष्य का मन संसार से विरक्त होकर,भगवान के नशे में हो जाता है।पूरा आनंद लेने केलिए ग्रंथ देखना चाहिए।कुछ भाव दिए जा रहे हैं-गोपियां कहती हैं - प्यारे श्री कृष्ण !तुम्हारे प्रकट होने से ब्रज की महिमा बढी है।तुमने अनेक-अनेक भयों से हमारी रक्षा की है।लेकिन आज हमारा वध करने पर क्यों तुले हो?मरने के पहले तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूं।तुम साक्षात अंतर्यामी परमात्मा हो, अपने चरण- बिंदु से हमारा स्पर्श करो ! सिर पर हाथ रखो !अपने अधरामृत का पान कराओ! तुम्हारे बिना हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती ।तुम्हारी प्रेम भरी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मीठी-मीठी वाणी, हमें मुग्ध कर रही है। हमें दुख इस बात का है -कि तुम अंधेरे में छिप रहे हो, कहीं कांटा-कुश न लग जाए ।तुम ही हमारे जीवन हो, प्राण हो,ऐसा विलाप करते हुए, गोपियां फूट-फूट कर रोने लगी।तब श्रीकृष्ण प्रकट हो गए।
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रासलीला का प्रसंग चल रहा है।श्री कृष्ण के प्रकट होने पर,गोपियों ने अपने प्रियतम का बड़ा भारी स्वागत किया।यमुना तट पर अपनी-अपनी ओढनी बिछा कर,आसन बनाया,और उस पर श्रीकृष्ण को बैठाया।फिर उनसे प्रेम संबंधी बातचीत करने लगी। जैसे विद्या-सीखने में जिज्ञासा का महत्व है,वैसे ही रस- विद्या में भी है।गोपियों ने पूछा - प्यारे श्याम सुंदर!कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वाले से प्रेम करते हैं-कुछ लोग ऐसे होते हैं,जो प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं- और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो दोनों से प्रेम नहीं करते, बताओ!इनमे श्रेष्ठतम कौन है? श्री कृष्ण ने उत्तर दिया -गोपियों!जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं,वे संसारी हैं, व्यापारी हैं। जो प्रेम न करने वाले से प्रेम करते हैं,वे होते हैं करुणा के वशीभूत माता-पिता और संत।दोनों से प्रेम न करने वाले चार प्रकार के होते हैं:- १आत्माराम,उनको पता ही नहीं होता, कि उनसे कौन प्रेम करता है -कौन नहीं करता २ दूसरे समाधि में रहने वाले होते हैं, जिनको सब में परमात्मा दिखता रहता है३तीसरे अग्य होते हैं,एक प्रकार से पागल ४चौथे भयंकर अपराधी, केवल स्वार्थी होते हैं । गोपियां एक दूसरे को प्रश्न भरी निगाह से देखती हुई, आपस में कहती हैं-हमारे ये श्यामसुंदर इनमें से कौन है? स्वयं ही व्यंग भरा उत्तर भी देती हैं- क्या यह चौथी प्रकार के भयंकर अपराधी हैं! जो हमारे प्रेम करने पर भी हम से प्रेम नहीं करते ?
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भगवान और गोपियों के बीच प्रेमरस- विद्या के अंतर्गत बातचीत चल रही है।भगवान कहते हैं- गोपियों!हमारे बारे में कुछ निर्णय लेने के पहले,हमारी बात तो सुन लो! गोपियों !मैं ऐसा नहीं हूं,जैसा तुम समझती हो ।मैं प्रेम करने वालों से इसलिए प्रेम नहीं करता, जिससे उनका प्रेम, केवल बाहर-ही-बाहर न रहे किंतु,उनके हृदय में, रोम- रोम में व्याप्त होकर अंतरंग हो जाए। निर्धन व्यक्ति को,जब एकाएक धन मिल जाता है,तो वह अत्यंत प्रसन्न होता है।अब यदि उसका धन चला जाए, तो वह उसके लिए अत्यंत व्याकुल हो उठता है। उसी प्रकार मैं भक्तों से एक बार मिलकर,बिछुड़ जाता हूं, तो वह मेरे लिए व्याकुल होता है। जिससे उसका अंतःकरण शुद्ध होता है,और वह मुझे हृदय में स्थाईरूप से अनुभव करने लगता है। प्यारी गोपियों! तुमने मेरे लिए लोक छोड़ा, परलोक सुख छोड़ा, अपना सब कुछ छोड़कर,संत की तरह मुझ से प्रेम किया है।अतः तुम्हारे प्रेम को परिपक्व करने के लिए, तुमको वियोग दिया,क्योंकि बिना वियोग के संयोग की पुष्टि नहीं होती । रही बात मेरी, तो मैं तुम्हारा ऋणी हूं।गोपियों यदि मैं ब्रह्मा की तथा अपनी ईश्वरी-आयु द्वारा,अनंत काल तक भी, तुम लोगों के ऋण को उतारने का प्रयास करूं,तो भी उऋण नहीं हो सकता । श्रीकृष्ण के मुंह से ऐसा सुनने पर,उन लोगों की सारी विरह व्यथा दूर हो गई, और वे सब रास-नृत्य के योग्य हो गई।
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अब महारास का प्रसंग है।देहाध्यास नष्ट होने पर ही,प्रभु की चिन्मयी लीला में प्रवेश मिलता है। श्रीकृष्ण स्वयं रस स्वरूप हैं।वियोगाग्नी में गोपियों के पंच भौतिक शरीर जल गए।अब ब्रह्मभूत हुई गोपियों का, रसात्मक परमात्मा से,प्रकट मिलन की लीला है । रास नृत्य आरंभ हुआ।ध्यान में रासलीला देखने की तीन प्रणाली मानी जाती हैं।पहली में:-एक श्री कृष्ण हैं, और सहस्त्रों गोपियां हैं।नटवर कृष्ण ऐसी स्फूर्ति से नृत्य करते हैं, कि सब गोपियों को, उनके सानिध्य का अनुभव होता है।दूसरी प्रणाली में:- दो-दो गोपियां हैं,और उनके मध्य एक-एक श्री कृष्ण हैं।प्रत्येक गोपी के कंधे पर उनका हाथ है।तीसरी प्रणाली के ध्यान में:- जितनी गोपियां है, उतने ही श्रीकृष्ण है,क्योंकि वह अपने योग बल से उतने ही रूप धारण कर लेते हैं। रासलीला आरंभ होते ही,आकाश देवताओं के विमानों से भर गया, रासलीला देखकर, देवताओं और उनकी पत्नियों के मन, अपहृत हो गए।पुष्प वर्षा होने लगी। गंधर्व गान करने लगे। नूपुर, किंकणी आदि के शब्द होने लगे। गोपियों के पास भगवान की बड़ी भारी शोभा हुई ,वैसे ही शोभा जैसे स्वर्ण मणियों के बीच में कोई स्यामंतक मणि हो।
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महारास की कीड़ा चल रही है।यमुना जी की रमणरेती पर,व्रज सुंदरियों के साथ,भगवान श्री कृष्ण की बड़ी शोभा हो रही है । नृत्य के समय गोपियां तरह-तरह से ठुमक-ठुमक कर अपने पांव, कभी आगे बढ़ाती हैं, और कभी पीछे हटा लेती हैं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्कुराती हैं, तो कभी भौहें मटकाती हैं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी,मानव टूट गई हो। भागवत 10.33.8। झुकने, बैठने ,उठने और चलने की फुर्ती से,उनके स्तन हिल रहे थे, तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे।कानों के कुंडल हिल-हिल कर, कपोलों पर आ जाते थे।नाचने के परिश्रम मुंह पर पसीने की बूंदें झलकने लगी थी।केशों की चोटियां कुछ ढीली पड़ गई थी ,नीवी की गांठे खुली जा रही थी। इस प्रकार नटवर नंदलाल की परं प्रेयसी गोपियां,उनके साथ गा-गा कर नाच रही थी। एक गोपी नृत्य कर रही थी।नाचने के कारण उसके कुंडल हिल रहे थे,उनकी छटा से,उसके कपोल और भी चमक रहे थे।उसने अपने कपोलों को भगवान श्री कृष्ण के कपोल से सटा दिया,और भगवान ने उसके मुंह में अपना चबाया पान दे दिया।कोई गोपी नाचते-गाते बहुत थक गई, तब उसने अपने बगल में ही खड़े श्याम सुंदर के शीतल कर कमलों को अपने दोनों स्तनों पर रख लिया। भागवत 10.33 .14।
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महारास का प्रकरण चल रहा है।शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मी जी से भी बढ़कर है।जैसे नन्हा सा शिशु,निर्विकार भाव से,अपनी परछाईं के साथ खेलता है,वैसे ही रमारमण भगवान,कभी गोपियों को अपने हृदय से लगाते हैं, कभी हाथ से उनके अंग स्पर्श करते,कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते,तो कभी लीला से उन्मुक्त हंसी हंसने लगते। भागवत 10.33 .17। भगवान के अंगो का संस्पर्श प्राप्त करके,गोपियों की इंद्रियां,प्रेम और आनंद से विह्वल हो उठीं।उनके केश बिखर गए।फूलों के हार टूट गए और गहने अस्त-व्यस्त हो गए।भगवान श्री कृष्ण की रासलीला देखकर,स्वर्ग की देवांगनाएँ भी,मिलन की कामना से मोहित हो गई,और समस्त तारों के साथ चंद्रमा चकित-विस्मित हो गया। जब बहुत देर तक,गान और नृत्य आदि विहार करने के कारण, गोपियां थक गई, तब करुणामय भगवान श्री कृष्ण ने, बड़े प्रेम से स्वयं अपने सुखद कर कमलों के द्वारा उनके मुंह पोंछे।भगवान के कर कमलों और नख स्पर्श से, गोपियों को बड़ा आनंद हुआ।उन्होंने प्रेम भरी चितवन और मुस्कान से, श्री कृष्ण का सम्मान किया,और प्रभु की परम पवित्र लीलाओं का गान करने लगीं। भागवत 10 .33.22।
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महारास का प्रकरण चल रहा है।नृत्य करने के बाद,जैसे थका हुआ गजराज, किनारों को तोड़ता हुआ,हथिनियों के साथ,जल में घुसकर क्रीड़ा करता है, वैसे ही भगवान ने अपनी थकान दूर करने के लिए,गोपियों के साथ जल क्रीड़ा करने के उद्देश्य से, यमुना के जल में प्रवेश किया। यमुना जल में,गोपियों ने प्रेम भरी चितवन से, भगवान की ओर देख-देख कर,तथा हंस-हंसकर,उन पर इधर-उधर से जल की खूब बौछारें डालीं। विमानों पर चढ़े हुए देवता, पुष्पों की वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे।इस प्रकार यमुना जल में स्वयं आत्माराम भगवान ने जलविहार किया । इसके बाद भगवान, ब्रज युवतियों और भौरों की भीड़ से घिरे हुए,यमुना तट के उपवन में गए। वह बड़ा रमणीक था।उसमें सुंदर सुगंध वाले फूल खिले थे और उनकी सुबास लेकर मंद-मंद वायु चल रही थी । परीक्षित ! शरद कि वह रात्रि, जिस के रूप में अनेक रात्रियां( छह मास) पूंजी भूत हो गई थी,बहुत सुंदर थी। राम जन्मोत्सव के समय भी ,एक दिन -"मास दिवस का दिवस भा.......( मानस 1.195 )"बड़ा हो गया था,अतः इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। काव्य में शरद ऋतु की जिन रस-सामग्रियों का वर्णन मिलता है,उन सभी से वह युक्त थी। उसमें भगवान श्री कृष्ण ने अपनी प्रेयसी गोपियों के साथ, यमुना के पुलिन और उनके उपवन में विहार किया।यह बात स्मरण रखनी चाहिए, कि भगवान सत्य संकल्प है, यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मय लीला है। भागवत 10.33.26 ।
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महारास प्रकरण चल रहा है।महारास की दिव्य ब्रह्मरात बीत गई,और ब्रह्ममुहूर्त आ गया ।भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा से, सब गोपियां अपने-अपने घर लौट गई ।बृजवासी गोपों ने भगवान में, तनिक भी दोष बुद्धि नहीं कि। वह भगवान की योग माया से मोहित होकर, ऐसा समझ रहे थे,कि हमारी पत्नियां हमारे पास हैं। रासलीला,दिव्य आनंदमय ,रसमय राज्य की चमत्कारी लीला है,जिसे अधिकारी भक्त ही समझते हैं। फिर भी राजा परीक्षित ने, हम लोगों की शंका समाधान के लिए कुछ प्रश्न किए हैं, उनका उत्तर अध्याय 29 के श्लोक 13 से 16 तक और अध्याय 33 में श्लोक 30 से 37 तक श्री शुकदेव जी ने दिया है।शंकालुओं को उन्हें ग्रंथ में देखना चाहिए ।10.33. 39। मुख्य बात यह है-कि जैसे, मानव-धर्म,देव-धर्म और पशु-धर्म पृथक-पृथक होते हैं ,वैसे ही भगवत-धर्म भी बिल्कुल पृथक होता है। भगवान के चरित्र का परीक्षण उनकी ही धर्म-कसौटी पर होना चाहिए। भगवान का एकमात्र धर्म है- प्रेम परवशता, दया परवशता, और भक्तों की अभिलाषा की पूर्ति। मनुष्य में भागवत-धर्म पालन करने का सामर्थ्य नहीं होता,अतः यदि भूलवश भी, किसी मनुष्य को इस लीला का अनुकरण नहीं करना चाहिए। यदि शंकर जी के अतिरिक्त अन्य कोई, विषपान करेगा तो वह मर जाएगा।
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भक्तों को महारास का प्रयोजन स्पष्ट रहना चाहिए।यह कोई स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं है।यह जीव और ईश्वर का मिलन है, ब्रह्म का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है।सारी कीड़ा बिंब-प्रतिबिंब-न्याय से हो रही है।यहां काम की तो कोई गंध ही नहीं है।यह तो इंद्रियों द्वारा भगवत रसपान करने की,अद्भुत लीला है। रासलीला में--वृंदावन, पुष्प,शरदरात्रि,मन आदि कुछ भी प्राकृत नहीं है।श्री कृष्ण योगेश्वरेश्वर हैं,आत्माराम है। जैसे कोई बालक अपने प्रतिबिंब से कीड़ा कर रहा हो, वैसे ही स्वयं में स्वयं से स्वयं क्रीड़ा कर रहे हैं।चाहे जलविहार हो,वनविहार हो,स्थलबिहार हो,सब श्री कृष्ण का अपना स्वरूप है।अतः इस लीला का प्रयोजन श्रवण- कथन के द्वारा काम निवृत्ति में है। सबको संसार की ओर से आकृष्ट करके,अपने प्रेम में मग्न करने के लिए ही,भगवान का अवतार होता है, इसलिए यदि जीवन मुक्त से लेकर,कामी से कामी जीव उनकी ओर आकृष्ट न हो जाए,तो उनकी लीला का रस- रहस्य क्या रहेगा ? अंत में श्री शुकदेव जी,रासलीला की फलश्रुति कहते हैं- कि जो ब्रज-बधुओं के साथ, श्री कृष्ण की इस क्रीड़ा का श्रवण-वर्णन श्रद्धा पूर्वक करता है,इसको सत्य समझ कर, आस्तिक्य बुद्धि से ग्रहण करता है,उसकी कामाक्रान्त वृत्ति का, निवारण हो जाता है,और उसे परा भक्ति की प्राप्ति होती है। भागवत 10.33. 40।जिज्ञासु भक्त को 15 पोस्टों में वर्णित,पूरी रासलीला प्रसंग मूलग्रंथ के साथ-साथ पढ़ना चाहिए।
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रास-पंचाध्यायी एक अलौकिक लीला है,जो नंद बाबा के ब्रह्मदर्शन (अध्याय 10.28) तथा अजगर द्वारा गृहीत नंदबाबा की मुक्ति-लीला (अध्याय 10.34) के बीच संपुटित है। हुआ यह की शिवरात्रि के अवसर पर नंदबाबा ,ग्वाल बाल व गोपियाँ, अवंती देवी के दर्शन और पशुपति नाथ की पूजा के लिए अंबिका बन गए।रात में सब लोग सरस्वती नदी के तट पर रहे।वहां एक बहुत बड़ा अजगर रहता था। उसने सोते हुए नंद बाबा को पकड़ लिया, उन्होंने बचाव के लिए कृष्ण की गुहार लगाई।सभी गोप लाठी-डंडे तथा लुकाठी आदि से अजगर को मारें, लेकिन उसने नंद बाबा को नहीं छोड़ा। भगवान श्री कृष्ण ने आकर जैसे ही उसके चरण छुआया, वैसे ही वह तेज युक्त विद्याधर रूप में प्रकट हुआ।उसने बताया कि वह सुदर्शन नामक विद्याधर है। अंगिरा ऋषि के शापवश मुझे यह अजगर शरीर मिल गया था।उनकी अनुग्रह के फलस्वरूप मुझे आपके चरणों का स्पर्श मिल गया।उसने भगवान की वंदना और परिक्रमा किया तथा अपने लोक को चला गया। इसके बाद शंखचूड़ नामक यक्ष के वध की कथा है। एक बार श्री कृष्ण और बलराम,गोपियों के साथ बिहार कर रहे थे।इसको बसंत ऋतु की रास बोलते हैं। सुंदर रात में चांदनी छिटकी हुई थी।कुबेर का अनुचर शंखचूड़ नामक यक्ष आया,और गोपियों को लेकर भागा। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा कर,एक घूंसे से ही उसकी सिर गर्दन से अलग कर दिया,उसका चूड़ामणि निकालकर बलराम जी को दे दिया।
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भक्तों की रहनी -संयोग अथवा वियोग में कैसी होनी चाहिए,यह गोपियों के चरित्र से सीखा जा सकता है।गोपियां रात में तो श्रीकृष्ण के साथ नाचती- गाती रहती हैं और दिन में जब भगवान गोपियों को छोड़कर वन में चले जाते हैं,तब उनके आचरण का वर्णन- श्रवण कर उनका स्मरण करती हैं।गोपियों की परस्पर जो बातचीत होती है,वह 35 वें अध्याय में 25 श्लोकों में दी गई है;जिसे युगल-गीत कहते हैं । जब श्री कृष्ण वन में चले जाते हैं,तब गोपियों का चित्त भी उनके साथ चला जाता है,और वह वाणी से उनकी लीलाओं का वर्णन करती हैं।यह ध्यान की लीला है, ऐतिहासिक अनुसंधान कि नहीं।आज भी भक्त भाव राज्य में तदाकार चित्तवृत्ति कर,लीला का रसास्वादन कर सकते हैं।उनकी बातचीत का वर्णन इस प्रकार है :- जब श्री कृष्ण वंशी बजाकर, गिरिराज की तलहटी में चरती गायों को बुलाते हैं, तब बन की लताएं और वृक्ष, फल-फूलों से लद जाते हैं।एक प्रकार से कहते हैं-कि ये साक्षात विष्णु हैं, और हमारे हृदय में विराजते हैं।वे मधुधारा का क्षरण करने लगते हैं। गोपियां कहती हैं- कि हम सब तो उनकी चलन, चितवन,और वंशीध्वनि से, बिल्कुल वृक्ष की तरह स्तब्ध हो जाती हैं।हमें अपने शरीर तथा वस्त्रों का भी स्मरण नहीं रहता । अरी सखियों,देखो ! वे आ रहे हैं।उनकी आंखें मद विघूर्णित हैं, वे सुहृदों को आनंद दे रहे हैं। वह संध्या समय मुस्कराते हुए आ रहे हैं, जिससे ब्रज की गाओं का ताप दूर हो।हम भी ब्रज की गौएँ ही हैं,अब हमारा ताप भी दूर करेंगे ।
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अब अरिष्ठासुर के उद्धार की कथा है।वह वृषभ का रूप धारण करके आया।वैसे वृषभ धर्म का प्रतीक है,धर्म मनुष्य की कामना पूर्ति के लिए होता है, परंतु जब उसमें असुर भाव का आवेश हो जाता है,तब वह भगवान व भक्तों को मारने को तैयार हो जाता है । तो अरिष्ट नाम का असुर( असुराक्रांत धर्म)वृषभ बनकर आया। वह जोर-जोर से दहाड़े और खुर से मिट्टी पीछे फेंके।वह समस्त सनातन मर्यादाओं को तोड़ता हुआ आया।उसकी भयंकर आवाज से, स्त्रियों का गर्भस्त्राव होने लगे।सारे गोपी-गोप त्रस्त होकर भगवान की शरण आए।भगवान सामने आए ,उसको पीछे ढकेला,और अंततोगत्वा उसका वध कर दिया । श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं- परीक्षित ! तुम जानते हो कि नारद जी भगवत परायण हैं, और जीवों के कल्याण के लिए भगवान की योजनाओं को,व्यवहारिक जामा पहनाते रहते हैं।अरिष्ठासुर के बध-उपरांत,वे कंस के पास पहुंच गए और उससे कहा- कि जो कन्या तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी, वह नंद-यशोदा की कन्या थी।वसुदेव देवकी के पुत्र तो बलराम-कृष्ण हैं, उन्होंने ही असुरों का वध किया है।यह कहकर नारद जी चले गए । इसके बाद कंस ने देवकी- वसुदेव को तो हथकड़ी- बेड़ी लगाकर ,जेल में डाल दिया, और केशी को बुलाया और कहा, कि तुम ब्रज जाकर कृष्ण-बलराम को मार डालो।
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केशी असुर का उद्धार।जब लोग शास्त्र के अर्थ में परिवर्तन करने लगते हैं, जो शास्त्र में असुर का प्रवेश हो जाता है,वही असुराक्रांत शास्त्र केशी है।वह पृथ्वी को क्षत-विक्षप्त करता हुआ ब्रज पहुंचा।उसने अपनी हिनहिनाहट से सब को भयभीत कर दिया। वह अपने वेग से,बादलों को छिन्न-भिन्न करता हुआ, सिंह के समान गर्जना करने लगा । भगवान सामने आकर, पैर पकड़ कर दूर फेंक दिया। जब उठ कर फिर लड़ने आया, तो भगवान ने उसके मुंह में अपनी बाहँ घुसेड़ दी। उसके दांत टूट गए और प्राणवायु रुकने से केशी का शरीर फट गया।देवता लोग भगवान पर पुष्प वर्षा करने लगे । इधर कंस ने मुसष्टिका, चाणूर, शल आदि को बुलाया, आमत्यों और हस्तियों को भी बुलाया और बोला -कि हमारे दुश्मन का पता लग गया है, वह नंद के यहां है ।हमने यहां एक दंगल व धनुषयज्ञ का आयोजन किया है, उसमें नागरिकों और जनपदके, शहरी और देहाती सब लोगों को बुलाओ, कुबलयापीड़ हाथी को दरवाजे पर खड़ा कर दो,उसी के द्वारा हमारे शत्रु को मरवाओ। इसके बाद कंस ने अक्रूर जी को बुलवाया। मित्रता का भाव दर्शाते हुए उनसे कहा, कि तुम ब्रज में जाओ, और वहां से मेरे शत्रु बलराम- कृष्ण को मथुरा बुला लाओ।मैं उनको कुवलयापीड़ से अथवा चाणूर-मुष्टिक से मरवा डालना चाहता हूं।कंस ने अक्रूर जी तथा मंत्रियों को विदा किया,और अपने महल चला गया।
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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित ,कंस को समझा-बुझाकर ,नारद श्री कृष्ण जी के पास आ गए,और एकांत में अद्भुत कर्म करता भगवान की स्तुति की। उसी में स्तुति के बहाने भगवान को भावी ईश्वरीय कार्यों की याद दिला दी । आप अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर,मुष्टिक, कंस आदि को मरते देखना चाहते हैं। उसके बाद आप बड़ी बड़ी लीलाएं करेंगे।शाल्व, कालयवन, मुर और नरकासुर को मारेंगे।स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाएंगे, वीर कन्याओं से विवाह करेंगे और द्वारिका में निवास करेंगे। भार्या सहित स्मन्तक मणि लाएंगे ब्राह्मण के मृत पुत्र को लाकर देंगे,पौण्ड्रक को मारेंगे तथा दंतवत्र का उद्धार करेंगे।आप यज्ञ में शिशुपाल का वध करेंगे आदि आदि । इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए काल रूप होकर अर्जुन के सारथी बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संघार करेंगे।प्रभु और विशुद्ध विज्ञान घन हैं आप के स्वरूप में और किसी का अस्तित्व ही नहीं है।नारद इस प्रकार स्तुति करके और उनकी अनुज्ञा लेकर, चले गए । इधर भगवान नित्य की तरह, गाय चराने के लिए वन में जाने लगे। भगवान बिल्कुल सहज हैं। और वह ग्वालवालों के साथ आनंदमई क्रीड़ाओं में व्यस्त हैं।एक दिन ग्वालबालक का वेश बनाकर माया पुत्र,व्योमासुर आया, जो आध्यात्मिक दृष्टि से असुर अक्रांत समाधि अर्थात जड़ता में,शून्य में समाधि का रूप है।वह खेल खेल में ग्वाल बालों को चुरा कर बेहोश कर गुफा में छिपाने लगा।भगवान को उसकी करतूत समझ में आई, और उसका गला घोंट कर मार डाला भागवत10. 37.33।
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भगवान ने ब्रज छोड़ने के पहले,तीन असुरों- केशी,वृषभासुर तथा व्योमासुर को क्यों मारा? इसका आध्यात्मिक भाव समझ लेना कर्तव्य है।भगवान जानते हैं,कि मथुरा छोड़ने के बाद ब्रज वासियों को वियोग दुख सहना पड़ेगा।ऐसे में,उन्हें असुरभाव वाले भक्ति के नाम पर बहकाकर,भक्त विरोधी साधन में फंसा सकते हैं।उसका निवारण करने के लिए यह लीला की। केशी - हयग्रीव दैत्य का दूसरा रूप है।इसने पहले वेद की चोरी की थी, हिनहिनाहट में वेद को छिपा चुका है। यह वेद के नाम पर,भक्ति-विरोधी असुरभाव का विस्तार कर सकता था, अतः मारना पड़ा। बृषभ धर्म का रूप होता है।भक्त उसके लुभावने रूप में फंस सकता है।भगवान विरोधी,भक्ति विरोधी धर्माभास में असुर का निवास होता है।वही वृषभासुर के रूप में आया,और भगवान ने उसका नाश कर दिया। तीसरा असुर,व्योमासुर योगाभ्यास रूप धारण कर आता है।जो भक्तों को हृदयाकाश रूप समाधि-गुहा में प्रतिष्ठित करा देता है, जिससे आभासमय आत्मज्ञान (विवेक ख्याति) का भ्रम हो जाता है और वह भक्त,बोध व भगवत प्रेम से विमुख हो जाता है। वर्तमान में इस योग- रोग का बहुत प्रचार-प्रसार है।अतः भगवान ने व्योमासुर का गला घोट कर उसे मार दिया । स्पष्ट है कि पहली दो असुरी बृत्तियाँ वहिर्मुखता के द्वारा, एवं अंतिम अंतर्मुखता के द्वारा, भगवान से विमुख करती है।भगवान ने ब्रजवासियों को पाखंड में न फंसने का उपाय कर दिया। आजकल धर्म के नाम पर पाखंड फैला हुआ है,अतः साधकों के लिए यह पोस्ट महत्वपूर्ण है।
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अब अक्रूर जी की ब्रज गमन की कथा है।अक्रूर सदगुण-संपन्न, भगवत- भक्त एवं श्री कृष्ण के विश्वासपात्र हैं।वे वसुदेव जी के चचेरे भाई हैं।भगवान की प्रेरणा से ही नीतिनिपुण कंस ने उन्हें ब्रज भेजा है।ब्रज की ओर मुंह करते ही,उनके ह्रदय में स्थित भक्ति का,समुद्र उमड़ पड़ा।वे मनो राज्य में मग्न हो गए।मार्ग में अक्रूर की जो मन: स्थिति रही, श्री शुकदेव जी ने उसको जीवन की सफलता कहा है। अक्रूर जी सोच रहे हैं - आज मैं भगवान के उन चरणकमलों का प्रत्यक्ष दर्शन करके,नमस्कार करूंगा, जिनका बड़े-बड़े योगी केवल ध्यान करते हैं।जिनके नख मंडल की क्रांति से बड़े-बड़े महात्मा तर गए।जिन चरणों की उपासना ब्रह्मा,शंकर और अन्य देवता व श्रीदेवी करती हैं,उन चरणों को आज मैं देखूंगा। आज मैं देखूंगा भगवान का सुंदर कपोल, नाशिका युक्त मुखारविंद, जिसमें मुस्कान है,प्रेम भरी चितवन है,घुंघराले बाल लटक रहे हैं,और उसमें लाल कमल के सदृश आंखें हैं। अक्रूर जी मथुरा से चले सवेरे और ब्रज में पहुंचे शाम को। वायुवेग से चलने वाले रथ को ठीक से हांकने की ओर ध्यान ही नहीं गया। ब्रज पहुंचते ही अक्रूर को, बलराम -कृष्ण के गो- दोहन स्थल पर ही दर्शन हो गए।अक्रूर जी अपने मनो राज्य के अनुसार, रथ से कूद पड़े और रामकृष्ण के चरणों में, धरती पर लोटपोट हो गए। उनके आंखों में आंसू आ गए।उनका शरीर रोमांचित और हृदय प्रेम से गदगद हो गया।अनन्य प्रेमरस की अनुभूति हुई।
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दंडवत करते देख.श्री कृष्ण ने अक्रूर को उठाकर,हृदय से लगा लिया।बलराम जी ने भी उनको गले से लगाया,और दोनों भाई,उनकी दोनों हाथ पकड़कर, उन्हें घर ले गए । घर पर नंदबाबा ने अक्रूर का बड़ा भारी स्वागत किया। कुशल-मंगल के पश्चात,शास्त्र विधि से,उनके सामने एक गाय लाकर खड़ी की गई।अतिथि सत्कार में गाय का निवेदन आवश्यक है।इसके बाद अक्रूर के पैर दबा कर उनकी थकावट दूर की गई,और उनको सुस्वाद भोजन कराया गया।भागवत 10.38.39। इस प्रकार सेवा- सत्कार के पश्चात जब सब लोग इधर-उधर हो गए, तब राम-कृष्ण अक्रूर के पास गए। अक्रूर ने उनको मथुरा की सब कथा कह सुनाई,और कंस की गुप्त योजना भी बता दी। रामकृष्ण हंसने लगे, फिर बोले कि यह बातें अन्य लोगों को मालूम न हो,आप तो यही कहिए कि मथुरा में धनुष यज्ञ हो रहा है,और बड़ा भारी दंगल होने वाला है।उसको देखने के लिए कंस ने आप सब को आमंत्रित किया है। नंदबाबा ने डुग्गी पिटवा कर सारे गांव को सूचना दे दी, और कहला दिया कि कल प्रातः दूध-दही लेकर मथुरा चलना है । जब गोपियों ने राम-कृष्ण के मथुरा जाने की बात सुनी, तब वे वियोग की कल्पना से विव्हल हो गई।उन्होंने कहा,विधाता हम जानते हैं,कि जो कुछ हो रहा है,इसमें अक्रूर का कोई दोष नहीं है।यह तो केवल तुम्हारी क्रूरता है। तुम ही अपनी दी हुई आंखें, हमसे छीन रहे हो! तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए!भागवत 10.39.21 गोपियां व्याकुल हो गई -" हे गोविंद हे, दामोदर,हे माधव" पुकार- पुकार रोने लगीं। रोते-रोते सारी रात बीत गई।
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ब्रजलीला को विराम देने का समय आ गया।दूसरे दिन प्रात काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर, अक्रूर जी ने अपना रथ तैयार कर दिया। राम-कृष्ण, यशोदा मैया तथा गोपियों को ,विरहाकुल दशा में रोती बिलखती छोड़कर,रथ में ऐसा बैठ गए,जैसे कोई तमाशा देखने जा रहे हो।रथ के पीछे नंदबाबा तथा गोप भी अपने-अपने छकड़ों पर दूध दही आदि लादकर,चलपड़े। यह लोग सीधे मथुरा की ओर गए, और रथ यमुना तट की ओर मुड़ गया। मार्ग में अक्रूर जी को आत्म ग्लानि हुई ,कि वह बालकों को हत्यारे कंस के पास ले जा रहे हैं।भगवान उनके मनोभावों को जान गए।अतः जब अक्रूर जी ने स्नान के लिए यमुना जी में डुबकी लगाई,तब उनको अपने शेषषायी नारायण स्वरूप का दर्शन करा दिया। अक्रूर ने उनकी स्तुति की। मैं तो माया मोहित हूं ,सभी शास्त्र आपकी आराधना के लिए हैं,आपने अनेक अवतार धारण किए हैं आदि-आदि । जब स्नानादि से निवृत्त हो, राम-कृष्ण रथ द्वारा मथुरा पहुंचे,तब उन्होंने देखा-नंदबाबा और गोप पहले ही पहुंचकर,अपना डेरा लगा चुके हैं।श्री कृष्ण ने अक्रूर जी से कहा,चाचा जी! आप अपने घर जाएं।अक्रूर जी उन्हें अपने घर ले जाना चाहते थे,लेकिन कृष्ण के मना करने पर,अनमने होकर चले गए। उन्होंने कंस को बलराम- कृष्ण के मथुरा आने का समाचार सुना दिया।भागवत 10.41.18 ।
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श्री कृष्ण की मथुरा लीला प्रारंभ होते समय,आयु 11 वर्ष की है।श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित !भगवान श्री कृष्ण, बलराम जी और ग्वाल वालों के साथ तीसरे पहर मथुरा में प्रविष्ट हुए। भागवत 10. 41.24।मथुरा उस समय एक आदर्श नगरी के रूप में प्रतिष्ठित थी, उसे ग्रंथ में देखना चाहिए । नगर की नारियां बड़ी उत्सुकता से, उन्हें देखने के लिए, झटपट अटारियों पर चढ़ गई।मथुरा की स्त्रियां बहुत दिनों से भगवान श्री कृष्ण की अद्भुत लीलाएं सुनती आ रही थी ,आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान ने भी अपनी प्रेम भरी चितवन, और मुस्कान की सुधा से, सींचकर उनका सम्मान किया। ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों ने, स्थान- स्थान पर दही, अक्षत, जल से भरे पात्र, फूलों, चंदन आदि से दोनों भाइयों की पूजा की। 10.41. 30। इतने में राजा के कपड़े धोने का ठेकेदार धोबी मिला। मांगने पर भी वस्त्र न देने पर, और अपमानजनक बातें कहने पर,भगवान ने एक चांटे से ही उसका काम तमाम कर दिया,और उसके साथी भाग गए। बलराम ,कृष्ण और ग्वालवाले शहरी कपड़े पहने, तो फिट न आवें। इतने में स्वयं एक दर्जी ने आकर कपड़ों को काट-कूटकर सबके पहनने योग्य बना दिया।भगवान ने उसे लक्ष्मी का दान दिया।इसके बाद भगवान सुदामा माली के घर में स्वयं घुस गए।उसने पूजा की और सबका फूलों से श्रृंगार किया। सेवा के बदले भक्ति मिली,और साथ में भौतिक संपत्ति भी ।
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भगवान कृष्ण की मथुरा-दर्शन लीला चल रही है। सुदामा माली के घर से निकल कर,जैसे ही भगवान आगे बढ़े, तो कुब्जा मिली,जो चंदन आदि लेकर कंस की सेवा करने जा रही थी।उसका मुंह तो सुंदर था, परंतु शरीर से कुबड़ी थी।कुब्जा पर कृपा करने के लिए भगवान ने कहा!सुंदरी तुम कौन हो?या उत्तम चंदन अंगराग मुझे भी दे दो!उसने कहा, मेरा नाम त्रिबक्रा है।मैं भोजराज कंस के लिए इसे ले जा रही हूं।श्री कृष्ण के सौंदर्य से प्रभावित हो,उसने दोनों भाइयों को अंगराग दे दिया। भगवान ने कुब्जा को सीधी करने की सोची,और अपने चरणों से कुब्जा के पंजों को दबाया और ठोड़ी पकड़ कर उसे सीधी कर दिया। भगवान के स्पर्श से वह तत्काल विशाल नितंब तथा पीन पयोधर से युक्त, एक युवती बन गई।कुब्जा ने सबके सामने ही, कृष्ण का उत्तरीय पकड़ लिया,और बोली, आइए घर चलें! अब मैं आपको यहां नहीं छोड़ सकती!पुरुषोत्तम,आप मुझ दासी पर प्रसन्न होइए ।10.42.10।भगवान ने हंसते हुए मीठी- मीठी बातें कर,आश्वासन देकर, जान छुड़ाई । इसके बाद श्री कृष्ण और बलराम जी धनुषयज्ञ स्थल पर पहुंच गए, और खेल खेल में धनुष तोड़ दिया,जिसके भयंकर शब्द से मथुरा नगरी गूंज गई। दोनों भाइयों ने टूटे हुए धनुष का एक-एक टुकड़ा लिया, और 14000 रक्षकों को मार दिया ।यह सुनकर कंस का दिल धड़कने लगा ,और उसे अनेक अपशकुन होने लगे। रात होते-होते राम-कृष्ण, नंदबाबा के पास डेरे में चले आए,क्षीर आदि पदार्थों का भोजन किया, और रात्रि में निर्भय होकर शयन किया।
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कंस का उद्धार।दूसरे दिन कंस की योजना अनुसार,रंगभूमि की खूब सजावट हुई।राजे तथा अन्य सब लोग यथा स्थान बैठ गए।कंस भी राजमंच पर आकर बैठ गया।कंस ने नंदबाबा आदि को बुलवाया,और वे सब लोग भी मंच पर यथा स्थान बैठ गए। दंगल प्रारंभ होने के नगाड़े बजने लगे,तब बलराम- श्रीकृष्ण भी रंग द्वार पर पहुंच गए।द्वार पर,धरती को हिला देने वाला,कुबलयापीड़ हाथी राह छेंक कर खड़ा था। श्रीकृष्ण ने हाथी को मार दिया।हाथी का दांत निकालकर एक अपने पास रख लिया,और दूसरा बलराम जी को दे दिया,और उसी वेश में शरीर पर पड़े हुए खून के छींटों सहित,रंग स्थल के भीतर घुस गये। वहां रंग स्थल में जितने भी स्त्री-पुरुष थे,सब ने अपनी- अपनी भावना के अनुसार,बलराम जी और श्री कृष्ण के दर्शन किए। उसके बाद मलयुद्ध प्रारंभ हुआ, और उसमें चाणूर, मुष्टिक आदि सभी मारे गए।मथुरा के लोग,श्री कृष्ण का शौर्य देखकर मुग्ध हो गये।लेकिन कंस जो अपने सामंतों के साथ बड़े ऊंचे आसन पर बैठा था, क्रुद्ध होकर बड़बड़ाने लगा-पकड़ो!इन दोनों बालकों को मार डालो । इतने में श्रीकृष्ण उछलकर उसके मंच पर चढ़ गए।कंस खड़ा हुआ और उसने अपनी तलवार निकाल ली,लेकिन श्रीकृष्ण ने उसकी चोटी पकड़ ली, और धक्का देकर मंच से गिराया, और साथ-साथ कूदकर उसकी छाती पर चढ़ गए।बिना किसी प्रहार के, डर के मारे,उसकी हृदय गति रुक गई, और वह श्रीकृष्ण को प्राप्त हो गया ।भागवत 10. 44.39 ।
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उग्रसेन का राज्याभिषेक। कंस के न रहने पर उसके भाई-बंधुओं ने संघर्ष करने का प्रयास किया,परंतु बलराम जी ने सब को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। भगवान विलखती मामियों के पास गए,उनको समझाया- बुझाया,और कंस की अंत्येष्टि क्रिया करवाई । इसके बाद भगवान जेल पहुंचकर,अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से मुक्त करवाया,और उनके चरणों में अपना सिर रखा।माता-पिता को उनके चतुर्भुज रूप का स्मरण हो आया,अतः उन्होंने बलराम श्रीकृष्ण को गले से नहीं लगाया। भगवान ने अपनी माया को प्रेरा,और बोले माताजी! पिताजी !हमसे बड़ा अपराध हो गया ,जो हमने आपकी सेवा नहीं की।जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा नहीं करता,वह कभी कल्याण भजन नहीं हो सकता। वसुदेव-देवकी का हृदय भर गया और पुत्रभाव उत्पन्न हो गया।उन्होंने बलराम-कृष्ण को अपनी गोद में बैठा लिया,और अपने आंसुओं से उनका अभिषेक करने लगे। प्रेम विव्हल होने के कारण उनका गला रूंध गया,और वे कुछ बोल नहीं सके । इसके बाद श्री कृष्ण ने, उग्रसेन को जेल से छुड़ाया और उन्हें फिर से राजा बनाया। उग्रसेन का राज्य पुनः स्थापित होने से मथुरा के लोग प्रसन्न और सुखी हो गए। मथुरा में सभी सौंदर्य माधुर्य प्रगट हो गए, चारों ओर श्री समृद्धि छा गई ।भागवत 10.45.19 ।
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नंदबाबा का ब्रज लौटने का प्रसंग।श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!अब श्री कृष्ण और बलराम दोनों ही नंद बाबा के पास आए,और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे- पिता जी आपने और मां यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से,हमारा लालन-पालन किया है। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण त्याग हो जाता है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान प्यार से पालते हैं,वही वास्तव में उनके मां-बाप हैं। पिताजी अब आप लोग ब्रज को जाइए।इसमें संदेह नहीं है कि हमारे बिना,वात्सल्य-स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुख होगा।लेकिन कर्तव्यवश हमें यहां रुकना पड़ेगा।यहां के सुहृद संबंधियों को सुखी करके, हम आप लोगों से मिलने के लिए आएंगे। भगवान ने नंदबाबा और ब्रजवासियों को बड़ी सांत्वना दी,और भांति-भांति की वस्तुओं का उपहार देकर, बड़ा आदर सत्कार किया । भगवान की बात सुनकर नंदबाबा,प्रेम से अधीर होकर, दोनों भाइयों को गले लगा लिया।और फिर नेत्रों में आंसू भरकर गोपों के साथ ब्रज के लिए प्रस्थान किया । इसके बाद ब्रज पहुंचने पर क्या हुआ- यशोदा मां व गोपियों पर क्या बीती, इस पर श्री शुकदेव जी महाराज ने सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा है। मौन कृपा के अधीन रहकर ही ,"उसे "हम सब अनुभव कर सकते हैं ।
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लोकशिक्षा के लिए भगवान का द्विजत्व संस्कार और शिक्षा-दीक्षा हुई। जब वसुदेव जी सामान्य हुए, तो उन्होंने अपने बेटों का,गर्गाचार्य जी से विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार करवाया।और उसके बाद वसुदेव जी ने बलराम-कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा के लिए संदीपनी मुनि के आश्रम उज्जैन भेज दिया । जब राम-कृष्ण गुरु आश्रम आए,तो गुरु जी ने सब विद्या पढ़ायीं -वेद,धर्मशास्त्र,मीमांसा,तर्क विद्या और षडंविधि राजनीति -सब का उपदेश किया।रामकृष्ण तो संपूर्ण विद्याओं के प्रवर्तक हैं,इसलिए उन्होंने 64 दिन-रात में 64 कलाओं को ग्रहण कर लिया।64 कलाओं के नाम गूगल में देखे जा सकतें है। घर लौटने के समय आचार्य के पास जाकर ,गुरु दक्षिणा के लिए निवेदन किया।उन्होंने पत्नी से परामर्श करके कहा-कि हमारा बालक प्रभास क्षेत्र के समुद्र में डूब कर मर गया था, उसको वापस ला दो।भगवान वहां गए और पहले समुद्र में रहने वाले पंचजन्य असुर को मारकर, उसके आवरण को पंचजन्य शंख का रूप दिया।बालक वहां न मिलने पर भगवान,यमपुरी गए।भगवान वहां से गुरु के मृतपुत्र को वापस लाकर, गुरुजी के सामने खड़ा कर दिया ,गुरु प्रसन्न हुए। गुरु ने घर वापस जाने की आज्ञा और आशीर्वाद दिया- तुम्हारी कीर्ति पावनी हो, और वेद सदा- सर्वदा तुम्हारे अनुगत बने रहें, कभी विस्मृत न हों। राम कृष्ण मथुरा लौट आए,और वहां के लोग बहुत दिनों बाद उनका दर्शन प्राप्त करके,परम आनंद में मग्न हो गए।भागवत .10.45. 50।
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अब उद्धव जी के ब्रज गमन का प्रसंग आता हैउद्धव जी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है।वे बृहस्पति जी के शिष्य ,और परम बुद्धिमान हैं।वे भगवान श्री कृष्ण के प्यारे सखा और सलाहकार भी हैं।हरिवंश पुराण के अनुसार,वसुदेव के एक भाई देवभाग के पुत्र हैं। भगवान ने सोचा- कि उद्धव जी को गोपियों से प्रेम- भक्ति सीखने के लिए वृंदावन भेजा जाए।इससे ब्रज वासियों के लिए अद्वय ज्ञान प्राप्त करने का अवसर भी बन जाएगा। एक दिन, श्री कृष्ण ने उद्धव जी से कहा- कि तुम ब्रज जाओ! वहां हमारे माता-पिता हैं,गोपी-गोपी हैं ,उनको मेरे वियोग का बड़ा भारी दुख है। उनको मेरा संदेश देकर, उनके दुख को मिटाओ। यह सेवा प्राप्त करके उद्धव जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे रथ द्वारा सायंकाल ब्रज पहुंचे।वहां जाकर देखा, कि ब्रज में तो बड़ा आनंद है।घर-घर में देवता और पितरों की पूजा हो रही है।सब की दिनचर्या समान रूप से चल रही है।गाय और बछड़े भी मस्त हैं,और गोपियां गा रही हैं।फिर यहां श्री कृष्ण के वियोग का दुख किसको है? बात यह थी -कि सबके मन में श्रीकृष्ण के लौटने की आशा है। आने पर सब को अस्वस्थ और दुखी देखकर भगवान को दुख होगा।इसलिए उनको सुखी रखने के लिए,सब सुखी रहने का नाटक कर रहे थे। परंतु सबके भीतर श्रीकृष्ण के विरह की ज्वाला जल रही थी।
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उद्धव जी के ब्रज गमन का प्रसंग चल रहा है।नंदबाबा,उद्धव जी के देखकर प्रसन्न हुए।आगे बढ़ कर गले लगा लिया,खूब सत्कार किया,बढ़िया भोजन कराया,अच्छे पलंग पर आसन दिया। तत्पश्चात पूछा ! कि हमारे सखा वसुदेव जी सुखी हैं न, कंस मारा गया ,अच्छा हुआ!हमारे कृष्ण कन्हैया कैसे हैं? वह कभी हम लोगों की याद करते हैं?क्या वे कभी यहां आएंगे ? देखो उद्धव! कृष्ण ने अनेक-अनेक संकटों से हम को बचाया है ।उनका पराक्रम,चरित्र,हास्य,संभाषण का स्मरण करके, हमारे सब क्रियाकलाप शिथिल हो जाते हैं। यह जो नदी-यमुना,पर्वत-गिरिराज,वृंदावन इन सबमें जो उनके खेल के स्थान हैं,उनको देखकर के,हमारा मन तदात्मक हो जाता है।इतना कहने के बाद,नंदबाबा श्री कृष्ण के स्मरण में डूब गए,और मुंह से उनके उद्गार निकलने लगे- आओ प्राणनाथ!आओ प्यारे कन्हैया!अब तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं कटता ! यशोदा मैया भी उनके पास ही बैठी रही,उन्होंने एक भी शब्द नहीं कहा।उनकी आंखों में आंसुओं की,और स्तनों से दूध की धारा बहती रही।भा०10.46.28 । उद्धव जी बोले-तुम लोग जिससे इतना प्रेम करते हो, वे तो साक्षात जगदीश्वर हैं। तुम उनसे प्रेम करके,कृतकृत्य हो गए।उनमें अपने -पराए का,प्रिय- प्रिय का,कोई भेद नहीं है।उनके न तो माता-पिता हैं और न जन्म- मरण है, फिर भी उनका आविर्भाव -प्रदुर्भाव प्राणियों के कल्याण के लिए होता रहता है।वे तो निर्गुण है,वे केवल तुम्हारे ही पुत्र नहीं सब के पुत्र हैं । असल में उद्धव जी बृहस्पति जी से पढ़े हैं, सर्वशास्त्र विशारद हैं,इसलिए शास्त्र की बात दोहरा दिया करते थे। किंतु एक भगवत-प्रेमी के सामने कोरा-वेदांत प्रभावशाली नहीं होता।प्रेमी के पास हृदय है,और शास्त्र ज्ञानी के पास शब्द की संपत्ति।पांडित्य, सहृदयता से होता है,इसलिए जब उद्धवजी ने कहा -कि श्रीकृष्ण के सिवाय जगत में और कुछ है ही नहीं,तब नंदबाबा कुछ नहीं बोले।
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उद्धव जी के ब्रजबास की कथा है।दूसरे दिन प्रात:काल हुआ,गोपियों की विधिवत मंगलमयी दिनचर्या प्रारंभ हुई।गोपियों ने देखा कि रात से आए नवागत की, वेशभूषा श्री कृष्ण जैसी है।गोपियों ने उद्धव जी को घेर लिया।उनका आदर-सत्कार किया,फिर कहा कि हम तुम्हें पहचान गई-तुम यदुपति के पार्षद हो,उनका संदेश लाए हो,और कई प्रकार से उलाहना दिया। तभी एक गोपी ऐसी भाव मग्न हो गई-कि उसने उड़ते भवँरे को भगवान का दूत मानकर,अपने उद्गार प्रकट करने लगी।उसी को भ्रमरगीत कहते हैं।भागवत के 10 श्लोकों(10.47.12 से 21) में उन सुंदर भावों को देखा जा सकता है यथा:- गोपी कहती है, कि अरे ओ छलिया के मित्र!हमारे सामने मत खेल!अनुनय-विनय मत कर!तू स्वयं भी तो किसी से प्रेम नहीं करता।यहां से वहां उड़ा करता है।12। ऐ!छय पैर वाले( ड़्योढे पशु)! हमारे सामने यदुओं के अधिपति का बहुत गुणगान न कर!उनकी मथुरा की नई सखियों के पास जाकर गा!क्योंकि उन्होंने उनकी छाती का दर्द दूर किया है,वे धनाढ्य है, तुम्हें इनाम देंगी। 14 । भ्रमरगीत में प्रेम है ,प्रणय है,स्नेह है,मान है,अनुराग है, भाव है,महाभाव है,मादन है,मोदन है - ग्रंथ में देखना पड़ेगा! नंददास, सूरदास तथा दूसरे कवियों ने बड़े विस्तार से उसका वर्णन किया है ।
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गोपियों का भाव देखकर उद्धव जी मुग्ध हो गए।वह कहने लगे,कि अहो गोपियों,तुम धन्य हो! तुम्हारा प्रेम धन्य है !संसार में दान, व्रत,तप,होम आदि विविध साधनों द्वारा भक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है, किंतु भक्ति धर्म नहीं है।भक्ति तो धर्म का फल है,भगवान का स्वरूप है। तुमने अनुत्तम भक्ति का प्रवर्तन किया है।अब श्रीकृष्ण ने तुमको जो संदेश दिया है उसे सुनो:- भगवान ने कहा है, कि अरी गोपियों ! मेरे साथ तुम्हारा वियोग कहां है ?क्योंकि मैं तो सबका आत्मा हूं, और क्या अपनी आत्मा से किसी का वियोग होता है? मैं तो सबका परम प्रेमास्पद हूं ।जैसे उपादान कारण कार्य में रहता है,वैसे ही मैं तुम्हारे रोम-रोम में व्याप्त हूं। मुझ में ही सारी सृष्टि है।यह जो इंद्रियों के विषय दिख रहे हैं,वे तो कुछ है ही नहीं,मिथ्या है। जैसे नदी का अंत समुद्र में है,और सब साधनों का अंत परमात्मा में है,वैसे ही तुम्हारे मन का संगम मुझ में है। तुम्हारी आंखों से दूर इसलिए हूं,क्योंकि दूर रहने पर प्रियतम में जैसा मन लगता है,वैसा पास रहने पर नहीं लगता।तुम लोग अपने मन से अन्य वृत्तियों को निकाल कर केवल मुझ में अपना मन लगाना,और जल्दी आकर मुझे प्राप्त होना। सब-की-सब गोपियाँ उद्धव जी द्वारा संदेश श्रवण करके,श्री कृष्ण की स्मृति में मग्न हो गई(भागवत 10.47. 38 )और कहने लगी - हे नाथ तुम्हारा यह सारा ब्रज तुम्हारे वियोग के अथाह सागर में डूब रहा है,आओ इसे बचाओ!
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अब गोपियों ने उद्धव जी को,अपने परम प्रेमास्पद श्री कृष्ण के रूप में मानकर, उनकी पूजा की। महीनों तक उद्धवजी वहां रहे।नित्य श्री कृष्ण की चर्चा चलती,दिन-रात क्षण के समान प्रतीत होते।वहां नदी तट पर,बन में,पहाड़ की तलहटी में,और फूले हुए वृक्षों की छाया में - हरिदास उद्धव, ब्रज वासियों को,श्रीकृष्ण का स्मरण दिलाती कथा सुनाते।उन्होंने कृष्ण की एक-एक लीला स्थली भी देखी। उद्बव जी ने, गोपियों को भक्ति संप्रदाय की आचार्या, गुरु मान लिया। देखो! इन गोपियों का सर्वस्य सारभाव श्री कृष्ण में ही लगा रहता है।यदि भगवान की कथा में रस आ गया,तो ब्रह्म होकर क्या करोगे?और यदि कथा में रस न आया तो ब्रह्म होने से भी क्या लाभ? श्री कृष्ण के प्रेम में, ज्ञान की जरूरत नहीं है। भागवत 10.47. 59। अंत में उद्धव जी कहते हैं - कि मैं तो वृंदावन की कोई झाड़ी बनूं और उस पर गोपियों के चरणों की धूल पड़े। क्योंकि इन गोपियों ने,श्री कृष्ण के चरणविंद को अपने हृदय में रखा है। मैं तो वंदना करता हूं नंद बाबा के ब्रज की,गोपियों की चरणों की,जिनके कृष्णलीला का गीत तीनों लोगों को पवित्र करता है। 63।
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श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!अब उद्धव जी मथुरा लौटने के लिए तैयार हुए।ब्रजवासियों ने उनको तरह-तरह की भेंट-पूजा लाकर दी,और कहा - उद्धवजी हमें कृष्ण की अपेक्षा उनकी प्रसन्नता की अधिक आवश्यकता है,उनको जहां सुख मिलता है,वहां रहें। हम अपने लिए यही चाहते हैं - कि हमारे मन की वृत्तियां,श्री कृष्ण चरणारविंद का आश्रय ग्रहण करें,हमारी वाणी उनके नाम का उच्चारण करती रहे।उद्धवजी हम नहीं जानते - कि दूसरों का ईश्वर कौन है, कैसा है? शगुन है,निर्गुण है? निराकार है या साकार है? हमारा ईश्वर तो श्रीकृष्ण है,इसलिए हमारा मन उन्ही में लगा रहे।भागवत 10 .47.67। उद्धव जी ब्रज से लौटकर,मथुरा आए।उन्होंने श्रीकृष्ण को उलाहना दिया -भगवान मैंने व्रज में जाकर आंखों से देखा है ,और हृदय से अनुभव किया है, कि वहां के लोग आपसे कितना प्यार करते हैं। फिर भी आप उन प्रेमियों को छोड़कर, यहां आ गए।इसके बाद श्री कृष्ण ने उद्धव जी को दिखाया - की गोपियां जिस प्रकार मेरा ध्यान और स्मरण करती हैं,उसी प्रकार मेरा रोम-रोम भी गोपीमय हो गया है,मैं कृतघ्न नहीं हूं ।
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अब भगवान मथुरा लीला के अंतर्गत, अपने वादे के अनुसार,कुब्जा की इच्छा पूरा करने के लिए, उद्धव के साथ,उसके घर गए।कुब्जा का घर बहुमूल्य सामग्रियों से संपन्न था।भगवान की आता देख, कुब्जा हड़बड़ा कर उठी,और सखियों सहित बढ़कर विधिपूर्वक भगवान का स्वागत सत्कार किया,आसन दिया।भगवान तो उसके बहुमूल्य सेज पर ही बैठ गए, किंतु परम भक्त उद्धव जी ने,आसन को छूकर सम्मान दिया,किंतु धरती पर बैठे। कुब्जा खुब सज-धज कर, लीलामई-लजीली-मुस्कान तथा मायावी-हावभाव के साथ,भगवान के पास आई। उसने मायापति श्री कृष्ण के चरणों को,अपने हृदय में लगाकर,अपनी सारी आधिव्याधि शांत कर ली।भागवत 10.48.6-7। श्री शुकदेव जी कहते हैं - कि कैवल्य मोक्ष के अधीश्वर भगवान को प्राप्त करके भी,"दुर्भगा", ब्रज गोपियों की भांति,अपना जीवन संभाल न सकी।परीक्षित! भगवान सबका मान वह इच्छा रखने वाले सर्वेश्वर हैं।कुब्जा की पूजा स्वीकार कर,उद्धव जी के साथ अपने घर लौट गए। उसके बाद श्री कृष्ण,बलराम जी और उद्धव जी के साथ अक्रूर के घर गए।अक्रूर जी ने उनकी अगवानी की,फिर दोनों भाइयों को नमस्कार किया। दोनों भाइयों ने भी अपने चाचा अक्रूर को नमस्कार किया। अक्रूर जी ने विधिवत पूजा हुआ स्तुति की।उन्होंने कहा कि आप लोगों के पधारने से हमारा घर, धन्य व पवित्र हो गया। श्री कृष्ण ने उनसे निवेदन किया- कि चाचा जी आप एकबार हस्तिनापुर जाइए, और वहां से हमारे सुहृद पांडवों का समाचार ले आइए, फिर ऐसा उपाय करूंगा जिससे उन सुहृदों को सुख मिले ।
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अक्रूर जी, भगवान की आज्ञा अनुसार, हस्तिनापुर गए, और वहां कुछ दिन रहकर,कौरवों और पांडवों दोनों की परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त की,जब वे पांडव माता, कुंती के पास गए, तब कुंती उनको देखकर रोने लगी,उन्होंने कहा - कि अक्रूर जी! मैं शत्रुओं के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूं। इस समय कुंती को ऐसा भास हुआ, कि श्री कृष्ण उनके सामने ही खड़े हैं, और वे अपने भाव व्यक्त करने लगीं:- हे श्री कृष्ण ! आप महायोगी हैं, विश्वात्मा हैं ,विश्व के जीवन दाता हैं।हे गोविंद! मैं अपने बच्चों के साथ दुख पर दुख भोग रही हूं,तुम्हारी शरण में आई हूं ,मेरी रक्षा करो!भागवत 10.49 .11।अक्रूर जी ने कुंती को सांत्वना देते हुए कहा-"आपके पुत्र अधर्म का नाश करने के लिए पैदा हुए हैं,चिंता मत करो।" जब अक्रूर जी मथुरा लौटने लगे तब धृतराष्ट्र से मिले। उनसे कहा - आप अपने पुत्रों और पांडवों के साथ समानता का व्यवहार कीजिए ,इससे आपको लोक- परलोक में यश एवं सद्गति प्राप्त होगी।राजा धृतराष्ट्र को अक्रूरजी की नेक-सलाह समझ में नहीं आई,और उन्होंने कहा -मैंने सुना है कि सर्वशक्तिमान भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं, इसलिए उनकी जैसी इच्छा होगी, वैसा ही होगा। अक्रूर जी; धृतराष्ट्र की अभिप्राय समझ गए,और मथुरा लौटकर उन्होंने भगवान श्री कृष्ण तथा बलराम जी के सामने सारा समाचार कह सुनाया। यहां 49 वां अध्याय और दशम स्कंध का पूर्वार्ध पूरा होता है। इस समय श्रीकृष्ण की आयु 25 वर्ष की।
श्री कृष्ण कथा के संबंध में परीक्षित के उद्गार सुनकर शुकदेव जी ने कथन का अभिनंदन किया, और कहा, राजन !जब कोई भगवान के चरित्र के संबंध में प्रश्न करता है, तब प्रश्न कर्ता, उत्तर दाता ,और अन्य श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं। इसके बाद, शुकदेव जी ने भगवान के चरित्र का वर्णन प्रारंभ कर दिया। भगवान अवतरण की भूमिका:- जब पृथ्वी पर आसुरी प्रकृति के लोग अनाचार करने लगते हैं, तो भूदेवी कष्टित् हो जाती हैं । कष्ट किसको होता है? पृथ्वी में उसका एक अधिदेवता रहता है। प्रत्येक पदार्थ में चैतन्य शक्ति भरपूर है ,और वही वस्तु -अवछिन्न शक्ति अपना काम करती है, जो उस वस्तु की देवता कहलाती है। भूदेवी बैकुंठ जाने के लिए उद्यत हुई, और साथ में ब्रह्मा जी को लेने के लिए उनके पास गई। ब्रह्मा जी ने उनके दुख को समझ लिया। वह स्वयं रजोगुण के देवता हैं ,उन्हें ने तमोगुण के अधिष्ठाता देवता रुद्र को ,तथा अन्य सात्विक देवताओं को साथ ले लिया। ये सब लोग मिलकर ,पृथ्वी के साथ छीर सागर के तट पर गए। वहां उन सबने पुरुष- सूक्त से, नारायण भगवान की प्रार्थना की।
भूदेवी के साथ, सब मिलकर पुरुषसूक्त से नारायण की स्तुति कर रहे हैं। पुरुषसूक्त में वर्णन यह है -कि समग्र सृष्टि भगवान का विराट रूप है, और इसके भीतर नारायण भगवान भरे हैं ।इसमें जो कुछ भी है वह सब भगवान का विस्तार है । भगवान की स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी की समाधि लग गई ।उनके हृदय -आकाश में भगवान प्रकट हुए। उन्होंने कहा -कि तुम लोग भूदेवी का दुख बताने के लिए आए हो, मुझे पहले से ही सब कुछ मालूम है ,उपाय करूंगा । ब्रह्मा जी की समाधि टूटी। उन्होंने देवताओं से कहा कि भगवान आने वाले हैं, तुम सब लोग ब्रज में चलकर यदुवंश में प्रकट हो जाओ! थोड़े दिनों में भगवान आएंगे, और वसुदेव के घर में अवतरित होकर ,धरती के भार का हरण करेंगे । ब्रह्मा जी ने कहा कि नारायण के साथ-साथ संकर्षण भी आएंगे। अबकी बार बड़े भाई बलराम बनकर आएंगे। संकर्षण के साथ-साथ भगवान की सेवा के लिए, योग- माया भी आएंगी। ब्रह्मा जी की बात सुनकर देवता लोग प्रसन्न हो गए, और लौट गए।
इधर मथुरा में भी भगवान के अवतरण की स्थिति बनने लगी। ब्रज में वसुदेव जी का विवाह देवकी जी से हुआ। देवकी की विदाई के समय,मथुरा के तत्कालीन राजा उग्रसेन का बेटा कंस,अपनी चचेरी बहन देवकी और बहनोई वासुदेव को प्रसन्न करने के लिए, उनके रथ की बागडोर पकड़कर चला। उसके पीछे-पीछे सैकड़ों सुनहले रथ चल रहे थे। देवताओं ने यह दृश्य देखकर विचार किया,कि यदि कंस देवकी-वसुदेव का ऐसा भक्त हो गया, तो भगवान इसे कैसे मारेंगे ?अस्तु आकाशवाणी की-" अरे ओ नासमझ कंस !इस देवकी के आठवें गर्व से तेरी मौत होने वाली है।"
आकाशवाणी सुनते ही, कंस ने रथ की बागडोर छोड़ दी। देवकी की चोटी पकड़ कर उसको सड़क पर खींच लिया, तथा हाथ में तलवार लेकर मारने को तैयार हो गया।"
खल की प्रीति यथा थिर नाही।"
वसुदेव ने विवेक के आधार पर समझाया- बुझाया, देवकी को बचाने का प्रयत्न करते रहे, किंतु कंस नहीं माना । अंत में वसुदेव ने प्रतिज्ञा पूर्वक कहा- कि खतरा देवकी से नहीं, उसके पुत्र से है, अतः उससे होने वाले पुत्रों को लाकर तुम्हें दे दिया करेंगे । वसुदेव जी इतने सत्यवादी थे, कि उनकी बात का कंस जैसे क्रूर के हृदय में भी विश्वास हो गया, और उसने देवकी को छोड़ दिया।
अवतरण-कथा प्रसंग में, विदाई के घटनाक्रम के बाद, वसुदेव- देवकी अपने घर चले आए। समय आने पर देवकी के गर्भ रहा। पहला बच्चा हुआ, तो वसुदेव जी उसे ले जाकर, कंस के हाथों में दे दिया। इससे वसुदेव जी को कष्ट तो हुआ, लेकिन उन्होंने दिए गए वचनों की रक्षा की। वसुदेव जी की सत्य निष्ठा देखकर, कंस को बड़ा संतोष हुआ। उसने कहा कि इस बच्चे को ले जाओ !जब आठवां गर्भ आएगा तब देखेंगे। वसुदेव वापस घर चले गए । इस बीच में नारद जी वहां आ गए। उन्होंने यह सोचा- कि कंस धर्मात्मा बन जाएगा, तो भगवान इसका जल्दी उधार नहीं करेंगे। यह सोचकर नारद जी ने, कंस को बताया,- कि ब्रज में जितने गोप है, वसुदेवादि वृष्णि वंशी है, देवकी आदि यदुवंशी स्त्रियां है, ये सब की सब देवता हैं। दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है ,इसलिए देवताओं की ओर से उनके वध का उद्यम हो रहा है । यह कहकर देवर्षि नारद चले गए।उनके जाने पर, कंस ने यह निश्चय कर लिया, कि अवश्य ही विष्णु हमारे वध के लिए आ रहे हैं। अतः उसने वसुदेव-देवकी को हथकड़ी लगाकर जेल खाने में डाल दिया, और उनकी संतानों को, विष्णु होने की आशंका से मारने लगा।
अवतार की पृष्ठभूमि में,कंस का परिचय भी आवश्यक है।कंस जानता था- कि मैं पूर्व जन्म में कालिनेम था, विष्णु ने मुझे मारा था, इसलिए वह यदुवंशियों को सुर मानकर उनका विरोध करने लगा । कंस ने अपनी पुलिस से कहा- कि तुम हमारे पिता राजा उग्रसेन को, गिरफ्तार कर लो।लेकिन पुलिस ने ऐसा करने से मना कर दिया। फिर कंस ने फौज को कहा, तो उसने भी मना कर दिया। फिर वह स्वयं हथकड़ी- बेड़ी लेकर अपने पिता के पास पहुंचा। भागवत 10.1. 69 ।उसने यदु ,भोज और अंधक वंश के स्वामी उग्रसेन को,स्वयं पकड़कर, हथकड़ी- बेड़ी लगाकर जेल में डाल दिया,और स्वयं राजा बन बैठा। इसके बाद उसने असुरों का संगठन प्रारंभ किया। जरासंध ने तो अपनी बेटियों से, कंस का विवाह कर दिया। उसके साथ प्रलंभ, बक, चाणूर, तृणावर्त,मुष्टिक, द्विविद, पूतना,केशी, और धेनुका आदि थे। बाणासुर व भौमासुर भी उसके सहायक थे। सबको साथ लेकर वह यदुवंशियों को दुख देने लगा। अच्छे लोग मथुरा छोड़कर भाग गए ।जो बचे, वे जी-हजूरी करके जान बचाए रहे।
अवतार का प्रसंग चल रहा है। जब देवकी के छह बेटे मार दिए गए, तब सातवें गर्भ में श्रीशेष जी जिन्हें अनंत भी कहते हैं, पधारे। इधर भगवान ने अपनी योग माया से कहा, कि बलराम जी ने स्थान की शुद्धि कर दी है। इनको उठा कर आप रोहणी जी के पेट में रख दो, और उसके बाद मैं देवकी के गर्भ में आता हूं। तुम नंद पत्नी यशोदा से प्रकट होना। योग माया ने आज्ञा शिरोधार्य किया, और धरती पर जाकर उसका पालन किया ।लोगों के बीच यह खबर फैल गई, कि देवकी का सातवां गर्भ अपने आप गिर गया है। अब भगवान का गर्भ में प्रकट्य हुआ।पहले वसुदेव का मन, भगवान के चिंतन से भर गया। भगवान रहते सब जगह हैं, परंतु चिंतन से प्रकट हो जाते हैं,वैसे नहीं। जैसे दिए की लौ से, दूसरी लौ प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही वसुदेव के मन से देवकी का मन भगवद् चिंतन से चमक उठा ।वसुदेव के हृदय के भगवान, देवकी के हृदय में क्रियाशील हो गए,मानो मानसी दीक्षा हो गई हो । गर्भ धारण की हुई देवकी को देखकर, कंस के मन में भी हर्ष हो गया ,और उसकी बुद्धि थोड़ी देर के लिए सद्भाव युक्त हो गई। इसके बाद कंस प्रतीक्षा करने लगा, कि इसका जन्म कब हो। भले ही कंस की कृष्ण के प्रति द्वेष बुद्धि थी, किंतु उसका जीवन कृष्ण स्मरण से भर गया।
अवतार प्रसंग। ब्रह्मा, रूद्र, इंद्र आदि सब देवता कंस के कारागार में गर्भस्थ भगवान की स्तुति के लिए आए। जगत के अभिन्न निमित्तोत्पादन कारण के रूप में, भगवान की स्तुति की गई। देवताओं ने कहा, कि प्रभो!आपका व्रत सत्य है तीनों लोकों में आप ही सत्य हैं। आप -पृथ्वी, जल,अग्नि, वायु तथा आकाश की योनि है, और इन्हीं पंचतत्वों में रहते भी हैं। यह सब सत्य हैं, परंतु आप सत्य के भी सत्य अर्थात परमार्थिक सत्य हैं। हम आपकी शरण में आए हैं। देवताओं ने आगे कहा, कि प्रभो! आप अवतार इसलिए लेते हैं कि आप की साकार मूर्ति लोगों को मिले, और वे आपकी पूजा कर सकें, आपका स्मरण कर सकें। अवतार भगवान का एक विनोद है। इसके बिना उनका वास्तविक विज्ञान प्राप्त करना कठिन है। इसी प्रसंग से भगवान की भगवता प्रमाणित होती है। ब्रह्मा, शंकर आदि की स्तुति का यही अभिप्राय है। यह कितने आनंद की बात है कि जीव के सखा, भगवान अपने सख्य का निर्वाह करने के लिए गर्भस्थ भी होते हैं। देवताओं ने देवकी माता की भी स्तुति की और कहा- कि माता जी! आपकी कोख में भगवान पधार चुके हैं। कंस ,चंद दिनों का मेहमान है। आपके पुत्र यदुवंश की रक्षा करेंगे। इसके बाद सब देवता यथा स्थान चले गए।
अवतार प्रसंग। जब सगुण साकार रूप में, भगवान प्रकट होते हैं, तब समग्र सृष्टि में ,प्रकृति में, एक विलक्षणता आ जाती है, वैसे ही -जैसे जब कोई साधक, अपने हृदय में भगवान का आविर्भाव चाहता है, तो उसे भूत शुद्धि और चित्त शुद्धि करनी होती है । भगवान के प्राकट्य समय, काल के अंतरंग-बहिरंग, अंग -प्रत्यंग सुहावने गुणयुक्त एवं शांत हो गए। दिशाएं निर्मल हो गई, नीले आकाश ने तारे- हीरे छिटका दिए, वायु शीतल, मंद, सुगंध बहने लगी, अग्नि निर्धूम ,नदी जल निर्मल, एवं पृथ्वी मंगलमय हो गई। मन प्रसन्न एवं ऋषि, देवता; श्री कृष्ण के दर्शन के लिए उत्सुक हो गए ।रोहणी नक्षत्र,भद्र मास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि,रात्रि के मध्य भाग,बुध दिन, वृष लग्न में -अंधकार को चीरकर महान प्रकाश का उदय हुआ । भगवान के प्रकट होने पर, अद्भुत असाधारण बालक की ओर, सबसे पहले वसुदेव जी की दृष्टि गई ।बालक में आश्चर्यों का निवास था- चारभुजा, चार आयुध, कमल सी उत्फुल्लदृष्टि ,वस्त्रालंकार युक्त ।वसुदेव जी ने जब अद्भुत बालक का रूप देखा, तब उनका सिर नैसर्गिक रूप से झुक गया ,उनके हाथ जुड़ गए, और उन्होंने यह निश्चय करके कि ये साक्षात भगवान हैं, उनकी स्तुति की।
बालक रूप में जन्मे, भगवान के अद्भुत दर्शन कर, वसुदेव जी स्तुति करने लगे- महाराज ! मैंने आपको पहचान लिया, आप साक्षात जगत के कारण है। केवल बनाने वाले ही नहीं,बनने वाले भी आप ही हैं।बनने वाले की विशेषता यह होती है, कि वह अपने कार्य में विद्यमान रहता है। इसलिए कण-कण में भगवान भरपूर है।बनाने वाला है "चित्" और बनने वाला है "सत्" और उसका अविनाशी रूप है" आनंदघन "अर्थात सच्चिदानंद परमात्मा । जब वसुदेव जी ने स्तुति कर ली, तब देवकी की आंखें खुली, और उसने भी साक्षात् नारायण के दर्शन किए। फिर देवकी ने उनकी स्तुति करते हुए कहा! कि हमारे हृदय में रहकर ,अध्यात्म दीप प्रकाशित करने वाले, साक्षात ब्रह्म तुम ही हो। भगवान ने स्वयं ,उन्हें पूर्व जन्म की तपस्या-वरदान का स्मरण दिलाया- पहले तुम दोनों प्रश्नि-सुतमा थे, और मेरा नाम प्रश्निगर्भ पड़ा। फिर दूसरे जन्म में, तुम दोनों अदिति- कश्यप हुए और मेरा नाम बामन पड़ा।इस तीसरे जन्म में तुम लोग देवकी- वसुदेव हुए और मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। भगवान ने आदेश दिया- कि तुम लोग! मुझे अपना पुत्र भी समझना, और ब्रह्मभाव भी रखना। इसलिए देवकी-वसुदेव में मिश्र भक्ति है, किंतु यशोदा- नंद की भक्ति में विशुद्ध वात्सल्य है। भगवान ने कहा, मुझे अब गोकुल ले चलो, और तुरंत प्राकृत शिशु के समान बन गए।
भगवान की प्रेरणा से ,वसुदेव जी ने भगवान को गोकुल पहुंचाने का संकल्प किया। भगवान के गोकुल गमन में, हिंदू धर्म के दर्शन का विज्ञान है ।निर्गुण से सगुण होना,निराकार से साकार होना, अंतरंग से बहिरंग होना और हृदय से गोकुल में आना,यह भगवान का साधारणीकरण है। आत्मा के रूप में रहें,ज्ञान ध्यान में रहें, मंदिर में रहें ,यह एक बात है।परंतु गोकुल में ,अर्थात इंद्रियों के समूह में आना-अपने गंध ,रस, रुप, स्पर्श एवं शब्दों से तथा विभिन्न चेष्टाओं से जीवो को अपनी ओर आकर्षित कर देना ,यही कृष्ण का गोकुल में आगमन है। संकल्प होते ही वसुदेव जी की हथकड़ी- बेड़ियां खुल गई, और जैसे ही वे सूतिका ग्रह से चले ,उसी समय योग माया ने अपना चमत्कार दिखाया ।मथुरा के सब नागरिकों और द्वारपालों को सुला दिया। सभी कारागार के बंद दरवाजे अपने आप खुल गए। मेघ वर्षा करने लगे और शेष अपने फणों से छाया कर, जल निवारण करते चले ।वर्षा होने के कारण यमुना जी में बड़ी भारी बाढ़ आ गई ।भागवत 10 .3.50 ।यमुना जी ने चरण स्पर्श कर, भगवान की भगवता का अभिनंदन किया और मार्ग दे दिया।
वसुदेव जी आराम से यमुना पार चले गए। जब वे गोकुल पहुंचे, तब वहां भगवान की स्वजन मोहिनी माया ने, अपनी लीला रची ।सारे गोकुलवासी निद्रा ग्रस्त हो गए ,नंद भवन के सारे किवाड़ खुल गए, यशोदा मैया सो गई । वसुदेव जी ने, अपने पुत्र भगवान को ,यशोदा मैया की शैया पर सुला दिया ,और उनकी जो बेटी हुई थी, उसको अपनी गोद में उठाकर मथुरा लौट आए। मथुरा पहुंचकर, वसुदेव जी ने लड़की को देवकी की गोद में रख दिया। और फिर से उनकी हथकड़ी-बेड़ी लग गई, और जेल के दरवाजे पहले की तरह बंद हो गए। भगवान के संयोग- वियोग की यही महिमा है। अब माया देवी रोने लगीं, पहरेदार जग गए, उन्होंने तत्काल कंस को सूचना दी। कंस तो जग- जग कर प्रतीक्षा कर ही रहा था, कि कब कृष्णावतार हो। भागवत 10.4.2। वह जल्दी से जल्दी जेल खाने में पहुंचा। देवकी ने उससे अनुनय विनय की, यह तो बेचारी लड़की है, इसे मत मारो! लेकिन वह नहीं माना। कंस ने देवकी के हाथों से बच्ची छीन ली, और उसको पत्थर पर पटकने का प्रयास किया। वह तो देवी थीं, आकाश में उड़ गई। उन्होंने कहा अरे मंद कंस तेरा मारने वाला पूर्व शत्रु पैदा हो चुका है। बाद में यही देवी विंध्यवासिनीं के नाम से प्रसिद्ध हुई।
देवी के आकाश में चले जाने पर कंस भयभीत हो गया। वह देवकी और वसुदेव के पास आकर, पहले तो असुर वेदांत बोलने लगा और फिर क्षमा मांगी। उसने वसुदेव-देवकी को कारागार से मुक्त कर दिया। कंस जब तक देवकी- वसुदेव के पास था,सत्संग के प्रभाव से उसकी बुद्धि ठीक रही। जब वहां से घर लौटा और कुटिल मंत्रियों का कुसंग मिला तो उसकी बुद्धि फिर बदल गई । मंत्रियों ने कहा, भोजराज! हम आज ही नगरों, गांवों, वस्तियों के सब बच्चों को मार डालेंगे।देवता लोग हमारा क्या करेंगे !देवताओं के मूल हैं विष्णु, और विष्णु वहां रहते हैं जहां सनातन धर्म रहता है। सनातन धर्म वहां रहता है, जहां ब्राम्हण, वेद, गाय, तपस्या और दक्षिणा सहित यज्ञ रहते हैं ।भागवत 10,4,41 । असुरों की सलाह की- यदि ऋषि, महात्माओं को नष्ट कर दिया जाए ,तो विष्णु कहां रहेंगे? कंस ने उनकी सलाह मान ली, और आज्ञा दे दी -की असुर सब जगह जाएं और बच्चों व ब्राह्मण -साधुओं को मारना शुरू करें। श्री शुकदेव जी कहते हैं, कि परीक्षित! संत से विद्वेष करना, मौत को पास बुलाना है।यदि कोई महापुरुष का अतिक्रमण करता है, तो उसकी आयु, लक्ष्मी , यश, धर्म, लोक, आशीष, और सारे श्रेय नष्ट हो जाते हैं।भागवत
10.4.45, 46।
मथुरा में जन्माष्टमी कैसे मनी, यह पिछली पोस्ट में लिखा गया। इधर गोकुल में, नंद बाबा के घर का हाल देखा जाए। योगमाया ने यशोदा जी को अचेत कर दिया था। उन्हें यह तो आभास हुआ, कि संतान हुई है,पर यह न जान सकीं, कि पुत्र है या पुत्री! बालक के रोने की आवाज से सचेत हुई, झट से दास- दासिया आ गई । बालक को देखा !और आनंद विभोर हो गई !उनके मुंह से निकलने लगा- नंद के आनंद भयो-नंद के आनंद भयो।ब्रज में खबर तेजी से फैल गई । शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित! नंद बाबा बड़े मनस्वी और उदार हैं। पुत्र का जन्म होने पर, उनका हृदय विलक्षण आनंद से भर गया। असल बात यह है, कि भगवान अपने को न किसी का बाप मानते हैं, और न बेटा। वे अपनी महिमा मैं ही स्थित रहेते है।परंतु जो दृढता से उनको अपना बेटा मानता है ,उसके बेटे हो जाते हैं, नंद बाबा और यशोदा जी ने, भगवान का चतुर्भुज रूप न देखा,और न ब्रह्म माना। यही कारण है कि यशोदा- नंद बाबा का पुत्रभाव जितना प्रौढ़- प्रबल था, उतना देवकी- वसुदेव का नहीं । भगवान जब महात्माओं से मिलते हैं, तब उनकी आत्मा तो होते हैं ,लेकिन आत्मज नहीं होते ।यह तो यशोदा -नंद की महिमा है, कि उनके पास आत्मज होकर आए हैं।
जब गोकुल का
उत्सव संपन्न हो गया, तब
नंदबाबा का, कर चुकाने की
ओर ध्यान गया। इसके लिए वे मथुरा गए,
और वहां डेरा डालकर कई दिनों तक
रहे।उन्होंने कंस को वार्षिक कर
चुका दिया।उसके बाद वसुदेव जी उनसे मिलने
के लिए डेरे पर आए ।
नंदबाबा और वसुदेव ऐसे
मिले, मानो प्राण से प्राण मिल
रहे हों। उनके मिलन की बातचीत शिक्षाप्रद
है।किसी से मिले -तो
अपनी ही नहीं हाँकनी
चाहिए ,बल्कि सामने वाले के सुख-दुख
परिस्थिति का ध्यान रखना
चाहिए । वसुदेव
जी ने कहा! आप
की अवस्था बड़ी हो गई थी,
संतान की कोई आशा
नहीं थी, भगवत कृपा से पुत्र हो
गया ।दैवयोग से यह संभव
नहीं हो पाया, कि
हम लोग आपके साथ रहकर ,आपके सुख में सुख मनाते। गोकुल में लोगों के खाने-पीने
का प्रबंध ठीक है न ?आपके
पास हमारा बेटा बलराम रहता है, वह आपको ही
अपना पिता मानता है ,वह आनंद में
है न? नंदबाबा कहते
हैं ,वसुदेव जी !बड़े दुख का विषय है,
कि कंस ने तुम्हारे बच्चों
को मार दिया। एक लड़की बची
थी वह भी स्वर्ग
चली गई ।जीवन का
रहस्य अदृश्य है। अदृश्य के आश्रय में
ही सब कुछ हो
रहा है। वसुदेवजी ने कहा, ठीक
है नंद जी! आपने तो कर दे
ही दिया है। यहां अब आप को
नहीं रहना चाहिए। गोकुल में बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं
।भागवत 10 .5.31।
सत्य निष्ठ व्यक्ति के मुख से,अनजान में कोई बात निकल जाए, तो वह सच हो जाती है।इसलिए वसुदेव जी की बात सुनकर, नंदबाबा ने विलंब नहीं किया। तुरंत छकड़े जोड़े गए, और साथ के सब ग्वालों सहित,नंदबाबा गोकुल के लिए चल पड़े । नंद बाबा के हृदय में, सत्यवादी वसुदेव के वचन पर-की गोकुल में उत्पात हो रहे हैं, पूर्ण विश्वास है। इसलिए उन्होंने मन- ही -मन भगवान की शरण ग्रहण की। सत्पुरुष विपत्ति के समय, भगवान का ही पल्ला पकड़ते हैं।विघ्न- बाधा -असुर का प्रभाव वहीं प्रकट हो सकता है, जहां भगवान का श्रवण- कीर्तन आदि न हो। इधर ब्रज की स्थिति यह थी- कि वहां कंस की प्रेरणा से पूतना पहुंच चुकी थी। श्री वल्लभाचार्य जी ने पूतना को अविद्या माना है। पूतना शब्द का अर्थ यह भी मान्य है- कि वह अविद्या रूप होने के कारण, बड़े-बड़े पूतात्मा अर्थात पवित्रात्माओं को भी अभिमान के वश में करके, उड़ा ले जाती है । पूतना उद्धार लीला के द्वारा, भगवान के वीर्य का निरूपण है। जैसे व्रत्यारूढ ज्ञान, अविद्या को निवृत्त करता है, वैसे ही अवतीर्ण भगवान, प्रकट अविद्या पूतना का नाश करते हैं। दुष्ट का निरोध होता है, दुष्ट को भी सद्गति मिलती है। बालकों की रक्षा होती है। पूतना की मृत्यु से भक्तों के वाह्य भय का निवारण होता है।भगवान की लीलाएं अनेक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए होती हैं।
पूतना उद्धार। पूतना जन्म से राक्षसी थी। वह खून पीने वाली बालघातिनी,कंस की प्रेरणा से गोकुल आई थी।उसने बड़ा सुंदर वेश बनाया -जैसे साक्षात लक्ष्मी हो, बालों में मालती के फूल लगे हुए थे ,हाथ में कमल लिए हुए थी। भगवान ने सोचा- कि कहीं दूसरे के घर जाकर, अन्य बालकों को न मारे, अतः प्रेरणा की कि वह सीधे मेरे पास आ जाए ।उसको देखकर लोग मुग्ध हो गए, और नंद बाबा के घर जाने में किसी ने रुकावट नहीं डाली। नंद- महल में जाकर पूतना ने देखा कि, नन्हे से श्यामसुंदर पलंग पर लेटे हुए हैं। एक और रोहणी मैया बैठी हैं, दूसरी ओर यशोदा मैया है। उस मायावी ने कहा- कि तुम लोगों के यहां कोई बच्चा नहीं हुआ क्या? यह बच्चा भूखा- प्यासा और तुम लोग चुपचाप देख रही हो। यह कहकर पूतना ने भगवान को गोद में उठा लिया। तब उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली। भगवान ने अपनी आंखें क्यों बंद की, इसका विचार भक्तों के लिए चर्चा और अत्यंत आनंद का विषय है। श्री हरिसूरि, श्री वल्लभाचार्य जी ने, तथा जीव गोस्वामी आदि महात्माओं ने :20- 25 प्रकार की उत्प्रेक्षाए की है, उनका आनंद तो कथा श्रवण में ही लिया जा सकता है ,मोबाइल पोस्ट में नहीं।
पूतना उद्धार। गोद में लेकर, पूतना ने अपना विष लगा स्तन,भगवान के मुंह में डाल दिया। वे बलवत् सहज स्वभाव से, स्तनपान करने लगे।जब योगी कृष्ण ! दूध के साथ,उसके प्राणों को भी खींचने लगे, तो वह बहुत व्याकुल हुई ,और" मुच्च- मुच्च"( छोड़ो-छोड़ो) चिल्लाते हुए भागी। पूतना एक ग्रह है, जो बच्चों को लगता है। झाड़ने वाले "पूतने मुच्च मुच्च" मंत्र कहकर ही इस रोग को दूर करते हैं। यहां उल्टा हुआ- बालक ही पूतना को लग गया, और वह स्वयं मंत्र बोलने लगी ।भगवान ने कहा जिसको मैं पकड़ता हूं उसको मैं कभी छोड़ता नहीं हूं। इसके बाद पूतना मर कर गिर पड़ी ।कथावाचक उसके शरीर की विशालता का वर्णन करते हुए कहते हैं- जहां उसका हाथ गिरा, वह हाथरस हो गया ;जहां उसकी अलकें गिरी, वह अलीगढ़ हो गया ;और जहां उसका गरल गिरा,वह आगरा हो गया। गोपियों ने देखा- कि विशालकाय पूतना धरती पर गिरी पड़ी है ,और लाला उसकी छाती पर खेल रहा है। वे तुरंत लाला को उठा लाई, उन्होंने अपने ढंग से लाला की रक्षा का उपचार शुरू कर दिया। गाय के खुर की धूल लगाई गई, गोमूत्र से स्नान कराया गया, फिर गोबर का तिलक लगाकर, गाय की पूंछ से झाड़ा गया। अब उनको याद आया- कि वे स्वयं मुर्दा छूकर आई है, अपवित्र है,अत: उपचार बेकार हो गया। इसलिए उन्होंने अपने को स्नान कर ,कवच आदि का पाठ कर पवित्र किया ,और पुनः लाला की रक्षा के उपचार दोहराए गये।
पूतना उद्धार। राक्षसी पूतना के शरीर को देखकर, यशोदा मैया बहुत डर गई। उनको अपने लाला के जिंदा होने का, विश्वास ही नहीं रहा। उनकी अवस्था देखकर, गोपियों ने लाला को उनकी गोद में दे दिया। बालक के स्वास्थ्य की परीक्षा के लिए ,उन्होंने लाला के मुख में स्तन दिया। जब वह स्वस्थ बालक की तरह दूध पीने लगा तो वे सामान्य हुई। भागवत 10 .6.30। इसी बीच मथुरा से नंद आदि आगए। उन्होंने पूतना का मृत शरीर देखा, तो उन्हें बड़ा भारी आश्चर्य हुआ।बोले वसुदेव जी ऋषि हैं, जो कुछ कहा ठीक निकला।गोपों ने पूतना के शरीर को, फरसे से काट- काट कर टुकड़े किए, और लकड़ी के ढेर के अंदर रखकर, जला दिया।जलते समय, पूतना के शव से सुगंध निकली। यद्यपि पूतना बालघातिनी थी, जाति से राक्षसी थी, नियत से मारने की इच्छा वाली थी, फिर भी श्रीकृष्ण ने अपना मुंह लगाकर उसके स्तन के दूध का भोग लगाया था, इसलिए सद्गति को प्राप्त हो गई। इस प्रसंग से अनुमान लगाया जा सकता है, कि श्री कृष्ण के पीछे दौड़ने वाली, और उनको अपना सर्वस्य मानने वाली, ब्रज की गोपियों और गौवों की क्या मिलेगा? यशोदा जी की सद्गति कल्पना अतीत है। शुकदेव जी, यशोदा मैया को वात्सल्य के साम्राज्य- सिंहासन पर अभिषेक करके, दंडवत करते हैं।
अविद्या का कार्य है ,जड़ता। अविद्या रूप पूतना नष्ट हो गई। अब जड़वाद- ध्वंस लीला प्रारंभ हो रही है । भगवान 3 महीने की हुए, करवट बदली।उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। अभिषेक हुआ, ब्राह्मणों को अन्नदान -गोदान हुआ।लाला को एक शकट( छकड़ा) के नीचे सुला कर ,मैया स्वयं मेहमानों के स्वागत सत्कार में लग गई । चेतन के ऊपर जड़ छकड़े की स्थापना हुई, और उस पर दूध, दही,मक्खन तथा घी से भरे पात्र रख दिए गए, मानो भगवान से भी बड़ा कोई रस है। भगवान मां का दूध पीने के लिए रोने लगे।मां स्वागत-सत्कार में इस प्रकार तनमय हो गई ,कि लाला का रोना भी नहीं सुनाई पड़ा ।श्री कृष्ण रोते-रोते अपने पांव उछालते-पटकते चरणों से छकड़े को छू दिया ।छकड़ा उलट गया,और उस पर रखा गया सारा दूध -दही धरती पर बिखर गया। वास्तव में गाड़ी पर पूतना का भाई,शकटासुर मुक्त होने के लिए आ बैठा था। वह लोमस ऋषि केशाप से देह रहित था तथा चरण स्पर्श से मुक्त हो गया । अब सभी का ध्यान लाला व छकड़े की तरफ गया।यही निरोध लीला है,जिसके लिए भगवान ने अवतार लिया है।आसपास के खड़े ग्वाल बालों ने कहा ,कि लाला ने पांव से छकड़े को उलट दिया है।लोगों ने इसे नहीं माना। वे तो प्रमाण शास्त्र से बंधे हुए हैं ,जबकि भगवान अप्रमेय हैं।
एक दिन की बात है,यशोदा मैया लाला को गोद में लिए बैठी हैं। कृष्ण ने देखा कि कंस का भेजा हुआ तृणावर्त आकाश में आया है। मैया के पास से उड़ा ले जाएगा, तो लीला बिगड़ जाएगी। अतः भगवान ने "गरिमा" सिद्धि से अपना भार बढ़ा लिया। मैया अपने लाला का भार नहीं संभाल सकीं, अतः धरती पर बैठाकर अपने काम में लग गई। उसी समय एक बड़ा भारी वातचक्र अथवा बवंडर आया, और वह लाला को आसमान में उड़ा ले गया। तृणावर्त ने गोकुल को धूल( राजस) और अंधकार(तमस) से ढक दिया ,और गोकुल वासियों को आत्मा- परमात्मा का दर्शन विलुप्त हो गया। भागवत 10 .7.22।आसमान में,तृणावर्त लाला को कंस के पास ले जाना चाहे, तो उधर न जाएं। अब भगवान ने तृणावर्त का गला पकड़ा और उसके सहारे ही नीचे लटक गए। वह नंद बाबा के पूर्व द्वार की ओर, पड़े हुए पत्थर पर गिरकर मर गया,और श्रीकृष्ण उसकी छाती पर खेलने लगे। गोपियों ने दौड़कर बालक को उठा लिया, और समझा, कि ब्राह्मणों के आशीर्वाद से हमारे लाला की रक्षा हुई है। पापी अपने पाप से मर गया। भागवत 10.7.31। तृणावर्त रूपी रजोगुण,मन में घुसते ही, बुद्धि ईश्वर विमुख हो जाती है। काम ,क्रोध ही उसके पुत्र हैं। उनकी आंधी जीव को संसार के चक्रवात में डाल देती है। आत्म निरीक्षण करते रहना कर्तव्य है।
भगवान भक्तों के घर स्वत: पहुंच जाएं, तो भी उसे भक्तों को भगवान के रूप और नाम की महिमा का पता होना ही चाहिए। इसके लिए भगवान ने, एक लीला की। यशोदा मैया, एक दिन अपने लाला को गोद में लेकर, दूध पिला रही थी। उनके ध्यान में आया, कि वह पर्याप्त दूध पी चुका है। अधिक पीने से इसे अपच न हो जाए, इसलिए मैया ने उस समय,उसे दूध पीना छुड़ाना चाहा। जब बच्चा दूध पी रहा हो, तो उसको बिना रुलाए, दूध पीने से अलग करना -एक समस्या है । यशोदा जी मुस्कुरा- मुस्कुरा कर लाला की ओर देखें, और उसका मुंह चूम ले। भगवान ने जान लिया मैया अब दूध नहीं पिलाना चाहती। इतने में भगवान ने जमांही ली। मैया ने खुले मुख में देखा, कि वहां तो तीनों लोक हैं!वह चकरा गई !भगवान मानो बता रहे हैं- तू अकेली मेरी मैया नहीं है ,देख !!मेरे साथ, सारा विश्व तेरा दूध पी रहा है। ऐसे में अपच का कोई डर नहीं। जब यशोदा मैया ना देखा, कि नन्हे से बच्चे के मुख में पहाड़, नदी, सूर्य, चंद्रमा आदि लोक सभी स्थित हैं, तो पहले होश उड़ गए! बाद में मैया ने अपना समाधान कर लिया, कि यह ईश्वर की सृष्टि नहीं मेरी दृष्टि का दोष है। मेरी निगोड़ी निगाहें, ही लाला में न जाने क्या-क्या गड़बड़झाला देखती रहती हैं। यह सोचने के बाद मैया ने अपनी आंखें बंद कर ली। भागवत 10.7. 36,37।
नाम रूप दुइ ईश उपाधि..। मुख में अलौकिक रूप प्रकट करने के बाद, भगवान के नाम प्राकट्य का प्रसंग आया। श्री शुकदेव जी ने कहा!परीक्षित गर्गाचार्य जी बड़े तपस्वी थे। वे वसुदेव की प्रेरणा से ब्रजमें ,नंद बाबा के यहां आए। उन्होंने उनका बड़ा भारी स्वागत सत्कार किया, फिर बोले कि महाराज आप तो ब्रह्मविद संत हैं,हमारे पुत्रोंका नामकरण कर दीजिए । गर्गाचार्य ने कहा ,देखो नंद जी! मैं यदुवंशियों का पुरोहित हूं ,यदि धूमधाम से नामकरण संस्कार होगा, तो पापी कंस के मन में, पुत्रों के वसुदेव का बेटा होने की शंका होगी, और वह अनर्थ करेगा। नंद बाबा ने कहा कि इसके लिए, हमारा तीर्थरूप गोष्ट सर्वथा उपयुक्त रहेगा ,अतः सब लोग गोष्ट में पहुंच गए। यशोदा मैया बलराम को ,और रोहिणी मैया श्री कृष्ण को, अपनी- अपनी गोद में लेकर बैठ गई। आचार्य जी ने, यशोदा मैया की गोद के बालक की ओर इशारा करके कहा- यह रोहिणी पुत्र है,सुहृदों को रमण कराने के कारण, इसका नाम राम है। बलाधिक्य से इसका नाम बल है-बलराम और यदुवंशियों में मेल- मिलाप कराने के कारण नाम संकर्षण भी है । नंद जी! यह जो तुम्हारा सांवरा, सलोना नंदन रोहणी की गोद में विद्यमान है, इसकी तीन रंग -श्वेत ,रक्त और पीत पहले युग में रह चुके हैं। अबकी यह कृष्ण वर्ण हुआ है, इसलिए इसका नाम कृष्ण होगा। यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी, वसुदेव जी के घर भी पैदा हुआ था, इसलिए इसे वासुदेव भी कहेंगे।तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत से नाम- रूप हैं ।यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा। नंद जी तुम्हारे इस पुत्र में नारायण के समान गुण हैं। तुम इनका एकाग्रता से गोपन करो। भागवत 10.8.19 ।
नंदबाबा के घर में आनंद ही आनंद छा गया। थोड़े दिन में दोनों भैया घुटनों के बल बकैंयाँ चलने लगे ।भगवान धरती का दुख दूर करने के लिए आए हैं। उनके पांव से धरती का जन्म हुआ है।पांव धरती का बीज है,और हाथ धरती की रक्षा के लिए क्षत्रिय वीज है। भगवान पांव और हाथ से दोनों से चलकर -मानव पृथ्वी को बता रहे हैं, कि पांव के रूप में पिता तुम्हारे पास है, हाथ के रूप से रक्षक भी तुम्हारे पास है। दोनों भैया गाय-गोष्ठ में घुस जाएं, और उसमें खेलने लगे।वहां से निकलने पर, गोबर-गोमूत्र से सने, माताओं के पास चले आए। माताएं प्रसन्न चित्त, उसी अवस्था में, उन को गोद में लेकर दूध पिलाने लगें।वात्सल्य कहते ही इसी को है,जो अपने आश्रितजन के दोषों को अपनी प्रसन्नता का साधन बना ले। भगवान नाना प्रकार की दर्शनीय बाल लीलाएं करते हैं-कभी कहते हैं कि हमको तो चंद्रमा दे दो, कभी खड़ा होने की कोशिश करते हैं और गिर पड़ते हैं,कभी रेंगते हुए बैठे बछड़ों के पास पहुंचकर, उनकी पूंछ आपस में बांध देते हैं।कभी उनकी पूंछ पकड़कर खड़े हो जाते हैं,बछड़े भागते हैं,तो श्री कृष्ण भी खींचे चले जाते हैं। गोपियां यह सब देखकर हंसती हैं,और परमानंद अनुभव करती हैं।गोपियों का अपना घर-द्वार छूट गया है, मानो कर्माधिकार की समाप्ति हो गई है,और वह वेदांत प्रतिपाद्य का दर्शन करने लगी।
भगवान की बाल लीलाएं- एक दिन घर में नई -नई ब्यायी गाय आई। नए बछड़े को गाय चाट रही थी, वे धीरे-धीरे उसके पास पहुंच गए। गाय के गले में दोनों हाथ डालकर लटक गए, गोपियां दौड़ी कहीं नयी ब्यायी गाय सींग न मार दे।एक दिन सुनार घर आकर कुछ जेवर बनाने लगा, तो उसकी आग फूकने वाली नली उठाकर,आग फूकने लगे। जब चिंगारी उड़कर शरीर में लगी तब बलराम व श्रीकृष्ण,चिल्लाने लगे मैया-मैया। एक दिन घर में वानर आया, उसको रोटी खिलाने पास गए।वह उनकी गोद में बैठ गया, और वे हाथ से उसे रोटी खिलाने लगे, मैया दौड़ी कहीं वह काट न ले।एक दिन वे दोनों, पानी के हौज में कूदकर डूबने लगे,मैया- मैया बचाओ, कहकर चिल्लाने लगे ,मैया दौड़ी।एक दिन घर में मोर आया, उसको अपने हाथ से रोटी खिलाने लगे, और अवसर पाकर उसकी पीठ पर सवार हो गए।मोर उड़ा ,मैया दौड़ी, कहीं कांटो में न गिरा दे। मैया के सामने समस्या है- घर के काम भी करना आवश्यक है, और दोनों भाइयों की देखभाल भी। योगी लोग समाज में अपने मन की स्थिरता को भले ही श्रेष्ठ मानते हों, किंतु वहां रस रूप श्री कृष्ण प्रकट नहीं रहते। योगियों के मन स्थिरता से मैया की चंचलता भली, जहां साक्षात भगवान का प्रेमरूपी रस रहता है। वही रस, कथा सुनते भक्तों का ,आज भी अवलंबन है।
भगवान अब घुटनों का सहारा लिए बिना, चलने लगे, बाहर भी जाने लगे, और गोप बालकों के साथ ऐसी- ऐसी क्रीड़ा करने लगे, कि आसपास के लोग भी आनंदित होने लगे। गोपियां अंदर से चाहती हैं -कि भगवान हमारे घर आकर लीलाएं करें। फिर भी वह नंद भवन पहुंचकर, यशोदा मैया को उलाहना दें, कि तुम्हारा लाला, यह करता है, वह करता है। एक और वे उलाहना देती हैं,और दूसरी ओर प्रेम भरी दृष्टि से श्रीकृष्ण को देखती भी जाती है। यशोदा मैया गोपियों का यह हाल देखतीं, असलियत समझती ,और हंस देती।भागवत 10.8.28,29 । गोपियों के उलहाने तो बहाने मात्र हैं,जैसे- लाला असमय ही बछड़ों को छोड़ देता है, वे गाय का दूध पी जाते हैं ,जिससे हानि होती है। तुम्हारा लाला चोरी से, हमारे घर का स्वादिष्ट दही खा लेता है।दुनिया में अष्टांग योग आदि हैं, किंतु इस लाला ने तो नए स्तेय-योग का आविर्भाव किया है ।यह बंदरों को, दूध- दही- मक्खन परस देता है ।यदि किसी के यहां का दही, बंदर नहीं खाते, तो उसके बर्तन फोड़ देता है।कहता है कि इस बर्तन के कारण दही बिगड़ गया है। चलते- चलते बच्चों की चिकोटी काट लेता है। दो बच्चे एक साथ सोते हैं, तो उनकी चोटी बांध देता है, आदि -आदि ।
एक दिन श्रीकृष्ण ने माटी खा ली।ग्वाल -वालों ने ,यशोदा मैया से उसकी शिकायत कर दी।यशोदा मैया ने अपने बाएं हाथ से, श्री कृष्ण का दाहिना हाथ पकड़ा, और दाएं हाथ में छड़ी लेकर कहने लगी- क्यों रे लाला !तू ने माटी खाई है? श्री कृष्ण ने कहा- मैंने माटी नहीं खाई। मैया बोली, तेरे सखा- संघाती तथा दाऊ दादा भी ऐसा कहते है। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि सब के सब झूठे हैं। यदि उनकी बात सच्ची मानती हो, तो स्वयं मेरा मुख देख लो ! भागवत 10.8.34, 35 । अब जब श्री कृष्ण ने मुंह खोला, तो उसमें मैया को संपूर्ण विश्व दिखाई पड़ा, मैया अपने हाथ की साँटी फेंक कर कहने लगी ,अरे ! देखो तो सही, हमारे लाला के मुंह में यह सब क्या है? मैं कोई सपना तो नहीं देख रही हूँ।यह कोई माया है, अथवा क्या हमारा लाला ही ईश्वर है? श्री कृष्ण सोचा- कहीं मैया ईश्वर रूप में पहचान जाएंगी, तो वात्सल्य लीला भंग हो जाएगी। अतः मुंह बंद कर कहने लगी तू मेरी मैया है, कि नहीं? मैया ने कहा हां तू मेरा बेटा है ,और झट गोद में उठा लिया। श्री शुक कहते हैं, परीक्षित! यशोदा मैया का सौभाग्य देखो ! जिसकी वेद उपनिषद महिमा गाते हैं, उसे वे अपना लाला मानकर लाड़ लड़ाती हैं, और प्यार करती हैं। भागवत 10. 8.45।
भगवान की लीलाओं को देखकर, परीक्षित ने प्रश्न कर दिया, महाराज ! यह तो बताइए कि नंद- यशोदा को इतना बड़ा सौभाग्य कैसे प्राप्त हो गया? उन्होंने ऐसा कौन सा व्रत और तप किया, जिसके करने से साक्षात भगवान, ऐसे लाला के रूप में प्राप्त हो गए। श्री शुकदेव महाराज कहते हैं ! कि जब ब्रह्मा जी के आदेश से, द्रोण वसु अपनी पत्नी धरा के साथ, इस सृष्टि में आने लगे, तब उन्होंने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की,कि महाराज ! हमारा जन्म मनुष्य रूप में भले ही हो, लेकिन हमारे हृदय में भगवान की भक्ति बनी रहे, और हमें उनसे प्यार करने का अवसर मिलता रहे। उन्हें वरदान मिला। वही द्रोण- धरा दोनों ,नंद- यशोदा के रूप में अवतरित हुए । यद्यपि वे नित्य लोक में रागात्मिका भक्ति के रूप में रहते हैं ,फिर भी भगवान प्रकटरूप धारण करने पर भी, उनका प्रेम स्वीकार करते हैं। नंद- जसोदा को किसी व्रत, तपस्या या धर्म अनुष्ठान से, भगवान की प्राप्ति नहीं हुई। बल्कि ईश्वरकोटि के महापुरुष द्वारा आशीर्वाद से हुई। शुकदेव जी महाराज कहते हैं, कि भगवान की प्राप्ति में जप -तप -व्रत की अपेक्षा महात्माओं का आशीर्वाद अधिक प्रभावशाली है ।
श्री शुकदेव जी महाराज, उखल-बंधन लीला सुना रहे हैं।यशोदा मैया ने, एक दिन, सब दास- दासियों को, इंद्र पूजा की तैयारी में लगा दिया, और स्वयं लाला के लिए मक्खन निकालने को दही मथने लगीं ।दही मथते समय, मैया श्री कृष्ण द्वारा की गई विभिन्न लीलाओं का स्मरण कर,गुनगुनाती हैं।यह स्मृति ही साधना है। श्री शुकदेव जी,मैया की दही-मंथन करने की दिव्य झांकी का वर्णन करते हैं - मैया के शरीर पर रेशमी वस्त्र हैं, उनकी कमर में डोरी बंधी है, सामने मटका-मथानी है, और वह दही मथ रही हैं।परिश्रम करने के कारण उनके जुड़े से, मालती के फूल गिर रहे हैं और चेहरे पर पसीना आ रहा है। श्री शुकदेव जी कहते हैं -कि एक ओर पलंग पर भगवान सो रहे थे।जागे! तो देखा रोज की तरह मैया बगल में नहीं है,पुकारा, मैया ओ मैया ! अंगड़ाई ली, आंख मली, काजल मुंह पर फैल गया, चारों तरफ देखा, तो मैया दही मथती दिखाई पड़ी। पलंग पर से उतर कर वहीं आए ,और दूध पीने की जिद करते-करते धरती पर लोट गए। मैया ने दही मथना छोड़ दिया, और गोद में लेकर दूध पिलाने लगीं। इतने में देखा तो आग पर चढ़ा हुआ दूध,उफलाने लगा। यह भगवान के पिलाने वाला, पद्मगंधा गाय का विशिष्ट दूध था। अतः लाला को एक और बैठा कर,दूध बचाने चली गई। दूध को ठीक कर लौटी, तो देखा,कृष्ण वहां नहीं है ,जहां छोड़ गई थीं ।
उखल-बंधन लीला का प्रसंग चल रहा है। मैया जब कृष्ण को दूध- पीते से छोड़कर चली गई, तो उन्हें क्रोध आ गया,और उन्होंने यशोदा मैया के, ददिया-सास के जमाने से चले आ रहे मटके को, लोढे से फोड़ दिया।बहुत सारा दूध नंद भवन में फैल कर क्षीरसागर का दृश्य उत्पन्न करने लगा।भगवान स्वयं उल्टे हुए उखल पर बैठकर, बासी मक्खन खाने लगे और साथ-साथ इकट्ठा हुए बहुत सारे वानरों को बांटने लगे । मैया लौटने पर ,यह दृश्य देखकर, आश्चर्यचकित हो गई, कि मेरा लाला चोर-विद्या में निपुण हो गया। इसका नियंत्रण करना चाहिए। मैया एक छोटी से छड़ी लेकर धीरे-धीरे उसकी ओर बढीं। लाला डरकर ऊखल से कूदकर भगे, मैया ने उनका पीछा किया। आगे-आगे कृष्ण और पीछे-पीछे मैया।दृश्य बड़ा लुभावना है। अंत में भगवान ने देखा भैया बहुत थक गई है,तो करुणा कर अपनी पकड़ाई दे दी। भगवान यशोदा मैया के हाथों में छड़ी देखकर डर गए, और उसे फेंकने का आग्रह करने लगे, और कहने लगी अब ऐसा नहीं करूंगा। छड़ी फेंककर, मैया ने उन्हें ऊखल से बांधना चाहा। बांधते-बांधते भैया थक गई, और घर की सारी रसियाँ लगाई ,पर वे बार-बार दो अंगुल छोटी पड़ जाए।मैया थक गई ,चेहरे पर पसीना आ गया, तब भगवान कृपा के वशीभूत हो बंध भी गए।भागवत 10-9-18।
भगवान की लीलाओं के रहस्य का विचार करने पर, मन का निरोध होता है।मोबाइल पोस्ट में विस्तारपूर्वक लिखना संभव नहीं है, सिर्फ लीलाओं की ओर संकेत मात्र किया जा रहा है। फिर भी बानगी के तौर पर, उखल-बंधन लीला के तत्वार्थ पर विचार करते हैं, जिससे तदनुसार, भक्त लोग सभी लीलाओं पर भी स्वयं विचार कर आनंदित हो सकेंगे । जगत प्रपंच का विस्मरण और भगवान में तन्मयता- यही लीला का प्रयोजन है। यहां आनंद यह है, कि भगवान स्वयं लीलाधारी है, हीरो है। अतः बुद्धि पर अधिक जोर नहीं देना पड़ता। उल्लसित रस का नाम लीला है।जिन्हें पढ़ने- सुनने से,अंतःकरण का संबंध भगवान से होता है, और मन में भक्ति रस का प्रवाह स्वत: होने लगता है। माता जसोदा का कर्म दधि-मंथन कृष्ण की प्रसन्नता के लिए है। हृदय में स्मरण नटखट कृष्ण की अन्य बाल लीलाओं का है। वही स्मरण वाणी से भी प्रस्फुटित हो रहा है। अस्तु कर्म, मन,वाणी कृष्ण के लिए है। भक्ति का यही स्वरूप है- कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिए हो,स्मरण का विषय भगवान हो, वाणी के शब्द भगवान संबंधी हों, जो कीर्तन है।यशोदा जी मूर्ति मती भक्ति हो रही है। उन्हें अपने शरीर और श्रृंगार का विस्मरण है। मुख पर स्वेद झलकता है, मालती के पुष्प जुड़े से झडकर पांव में गिर रहे हैं। लीला के स्मरण मात्र से, परबस हो, शुकदेव जी हृदय से इस झांकी का वर्णन कर रहे हैं ।
उखल-बंधन लीला की मीमांसा करने का प्रयास चल रहा है । भक्त ह्रदय श्री हरिसूरी ने कहा है- की मृदभक्षण लीला के मध्य, मुख में रूपात्मक प्रपंच का दर्शन हो जाने पर, भगवत सेवा के कार्य में भक्तों की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। जो कर्म अनुष्ठान के समय भी,भगवत स्मरण करता है, उसे भगवान सुलभ होते हैं ।यशोदा मैया के वस्त्र- आभूषण के वर्णन से यह सिद्ध होता है, कि जो भगवान का श्रवण-वर्णन, ध्यान- गान एवं सेवा-स्नेह में संलग्न है, उसको संसार त्याग की आवश्यकता नहीं है। वह अपने विहित, वैराग्ययुक्त, सांसारिक विषय भोगों के साथ भी, भगवान को प्राप्त कर सकता है। भगवान ह्रदय के स्तन द्वारा छलकते हुए प्रेम रस को देखते हैं ,और उसका पान करने भाग कर आते है। वाह्य नैवेद्य- मक्खन की ओर नहीं देखते । भगवान के आने पर भी, यशोदा जी दही माथे जा रही हैं ।आचार्यों का मानना है, कि मैया की तत्परता देखकर मुक्त पुरुषों के ह्रदय में क्षोभ होता है। यशोदा जी के सिर से मालती (सिद्ध पुरुष) गिर रहे हैं। माता का जूड़ा सिद्ध स्थान है, वहां मालती अर्थात ब्रह्मविद्या की स्थिति है। मालती- (मा➕ अलम) अर्थात लक्ष्मी से परिपूर्ण जगत मालम है, और उसका अतिक्रमण करके जो रहे, सो मालती (ब्रह्मविद्या) है । भगवान के आने पर भी, जब मैया ने दूध नहीं पिलाया, तो कृष्ण धरती पर लोट गए ।अब यशोदा ने सारे कर्म छोड़ दिए, वे सुंदर अभीष्ट मुख का पान करने लगीं, और श्रीकृष्ण दूध का।
उखल-बंधन लीला का हर प्रकरण, शिक्षाप्रद और भक्ति रस से सराबोर है।लीला में ध्यान देने योग्य यह है- कि सबसे पहले श्रीकृष्ण के मन में स्तनपान की कामना हुई। स्तन्य भोग में अतृप्ति हुई -यह लोभ है। लोभ में बाधा पड़ने से-क्रोध हुआ।दही का मटका भंजन क्रिया-हिंसा हुई। झूठे आंसू दंभ आने का सूचक है। बासी माखन की चोरी- तृष्णाधिक्य है।भय, पलायन और बंधन उसके उत्तर भावी परिणाम है।कामना से बंधन-पर्यंत ईश्वर की लीला है।जीव के लिए सावधान रहने की शिक्षा है। भगवत धाम के जड़वत प्रतीयमान पदार्थ भी,चेतन ही होते हैं।ब्रज के भूमि, लता,वृक्ष,सव भाव रूप से अभिव्यक्त "सद" ब्रह्म है ।पशु,पक्षी, गाय ,गोपाल, रूप में "चिद्" ब्रह्म है।आलंबन विभव यशोदा, कृष्ण, श्रीदामा आदि सखा, गोपी"आनंद" ब्रह्म है । दूध में उफान क्यों आया ?अग्नि पर संतप्त होता हुआ दुग्ध, भाव-संवृत चेतन है। वह अनेक जन्मों में तप करता हुआ,भगवत भोग्य दूध के रूप में परिणित हुआ है। अभी भी तप कर रहा है।सामने स्वामी हैं, पर अभी भी नहीं मिल पा रहा।जिनके नाम स्मरण से ही, जीवो का पाप- ताप भस्म हो जाता है, मैं अभागा उनके सामने होने पर भी संतप्त हो रहा हूं ,मुझे धिक्कार है! अब मैं आग में कूदकर आत्महत्या कर लूंगा।
उखल-बंधन लीला की मीमांसा चल रही है।एक जिज्ञासा का उदय होता है- श्री कृष्ण हृदय-स्नेह-रस का पान कर रहे थे और यशोदा दर्शन रस का। फिर वे उन्हें छोड़कर क्यों चली गई? इसके समाधान में भक्त लोग प्रेम की विचित्र परिपाटी बताते हैं।अपने प्रियतम के भक्ष्य,पेय आदि उपयोग की वस्तुओं में, कोई ऐसी अपेक्षा होती है,जिसके कारण कभी-कभी प्रियतम उपेक्षा का पात्र हो जाता है। दूसरी बात यह है- कि यशोदा माता परम भागवत हैं। उनकी करुणा पूर्ण दृष्टि से ही, दूध भगवत-भोग्य एवं भगवत- तादात्म्यापन्न हो सकता है।ऐसे अवसरों पर भगवान को एक ओर रखकर, भक्तों की ओर देखना पड़ता है। माता के चले जाने पर, श्री कृष्ण के मन में कोप का संचार हुआ।माता छोड़कर चली जाए, और बालक असंग उदासीन रहे, उपेक्षा कर दे, तो उसके हृदय में माता के प्रति प्रेम की न्युनता ही कही जाएगी। माता दूध के लोभ में मुझे छोड़ कर गई हैं, तो स्वाभाविक बालरोष के कारण, उससे कहीं अधिक दूध- दही की हानि उठानी पड़ी ।यज्ञ आयुध लोढे से भागवत यज्ञ में बाधक,भांड- असुर को फोड़ दिया गया।परंतु भगवान का क्रोध और उनके आंसू मिथ्या हैं,क्योंकि वे तत्काल एकांत में जाकर नवनीत का आस्वादन करने लगते हैं। असली क्रोध और आंसू के साथ, भोजन का मेल संभव नहीं है। वे अपना विनोद भी प्रकट कर रहे हैं- बालकों और बंदरों को भोजन देने के ब्याज से ,माता को उलाहना भी दे रहे हैं ।
ऊखल- बंधन- लीला पर विचार चल रहा है । माता ने शांति से दूध को परिपक्व करके,भगवत भोग्य बना दिया।भागवत का काम पूरा हुआ।लौट कर आई, देखा मटका फूटा हुआ है। अपने पुत्र का कर्म है,हंसी आ गई।थोड़े की रक्षा के लिए गई, और बड़ी हानि हुई।हंसने का अर्थ क्या है -कि श्री कृष्ण डरकर कहीं भाग न जायँ। भगवान उल्टे रखे ऊखल पर बैठे हैं ।स्वयं और मर्कटो को वासी मक्खन खा-खिला रहे हैं। श्री हरिसूरि जी कहते हैं -कि यह उलूखल नहीं खल है। मां ने मन में विचार किया, कि शिशु की खल- संगति ठीक नहीं, अतः गाय हाँकने वाली छड़ी लेकर, दौड़ी ।श्री कृष्ण ने मन में कहा- जिसमें क्रोध है, जो जड़ता पकड़े हैं, मैं उसको मिल नहीं सकता ।अतः भागना प्रारंभ किया। श्री कृष्ण के पीछे- पीछे दौड़ने में भी माता की विशेष शोभा है, एक पूजनीय गति है ।भगवान के पीछे दौड़ने मात्र से ही, केश( जुड़े )के बंधन टूट गए। अंतःकरण की शुद्धि हो गई। मां ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया।
उखल- बंधन-लीला की मीमांसा चल रही है ।कृष्ण का हाथ पकड़कर मां ने पीटा नहीं, धमकाया -मनचले!क्रोधी!लोभी! चंचल ,चोर नए-नए नाम रख दिए।ऐसे बांधकर रख दूंगी! कि बाहर न जा सकेगा !माखन न खा सकेगा !शाखाओं से मिल न सकेगा! श्री कृष्ण ने विचार किया- कि संतों ने मेरा नाम की महिमा का संगीत गाया है- कि श्री कृष्ण नाम षड्- रिपुओं का नाशक है ।क्रोध का अवरोधक में !सम्मुख खड़ा हूं! और मां के हृदय में रोष का संचार हो रहा है !कृष्ण स्नेह की प्रबलता से ही, ऐसा है। स्नेह पर स्नेह ही सफल होता है ।रोदन ही शिशु का बल है। श्री कृष्ण के नेत्र भय-विह्वल हो गए, और वे अपने हाथों से काजल लगे नेत्र मलने लगे।यशोदा माता के हृदय में वात्सल्य उल्लसित हुआ,और उन्होंने अपने हाथ से बछड़े को डराने वाली छड़ी फेंक दी। श्री कृष्ण का हाथ भी पकड़ना ,और अपने हाथ में जड़ता की प्रतीक छड़ी को रखना- एक साथ संभव नहीं है। माता के मन में ,भगवान को बांधने की इच्छा उदित हुई, ऐसा क्यों हुआ ?क्या यशोदा भगवान के सामर्थ्य से अपरिचित हैं ?पूतना ,तृणावर्त आदि का वध देख चुकी है, क्या तब भी उनकी भगवता से अपरिचित हैं? सुखदेव जी कहते हैं, कि हां अपरिचित है !यह प्रेम का सामर्थ्य है, कि वह प्रियतम के माधुर्य को पहचानता है ,ऐश्वर्य को नहीं। भागवत 10. 9 .12।
उखल-बंधन- लीला पर विचार चल रहा है। कन्हैया के साथी गोपाल, अपने- अपने घरों में जाकर कहते हैं- कि यशोदा जी ,कन्हैया को बांधकर मारने जा रही हैं !गोपियां दौड़ती हुई यशोदा जी के यहां इकट्ठा हुई और उन्हें समझाने लगी -लाला हमारे यहां आकर रोज मटकी फोड़ता है ,दही लुटाता है, लेकिन हमने कभी उसे बांधने की नहीं सोची ,तुम उसे छोड़ दो ! यशोदा जी ने तो लाला को सुधारने की ठान ली है। उसे ऊखल से बांधने लगी ।आश्चर्य यह है कि रस्सी हमेशा दो अंगुल भर छोटी रह जाती है ! एक के साथ दूसरी ,दूसरी के साथ तीसरी डोरियां जोड़ी जाए, लेकिन गाँठ देते समय दो अंगुल छोटी ही रह जाए। वास्तव में बंधने का न कारण एक जीव का अहम होता है, और दूसरा भगवान की कृपा का अभाव ।यशोदा जी आश्चर्य में डूब गई और गोपियां हास्य में! भागवत 10 9 16 । वात्सल्य शक्ति बांधने चली है -ऐश्वर्य शक्ति अपने पति को बँधन में देख नहीं सकती! ऐश्वर्य और वात्सल्य का यह मीठा झगड़ा है !प्रभु ने ऐश्वर्य शक्ति से कहा कि गोकुल में प्रेम का प्राधान्य है, द्वारिका में तेरा प्रभाव रहेगा, तू यहां से चली जा ! गोकुल लीला में वात्सल्य भाव है ,तो पौगंड्र लीला में सख्य भाव प्रधान है ।गोपी लीला में माधुर्य भाव मुख्य है। श्री कृष्ण ने देखा कि माता थककर, पसीना- पसीना हो रही है ,तो दयावश होकर बंधन में बंध गए ।भगवान कहते हैं -जब मैं कृपा करता हूं ,तभी बँधता हूं।भागवत 10-9-18 से 20।
आगे यमलार्जुन वृक्षों के उद्धार की कथा है।जब मैया ने श्रीकृष्ण को बांध लिया,तब उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ा, उन्होंने सोचा लाला ने सवेरे से कुछ खाया- पिया नहीं है। यह सोचकर मैया ताजी मक्खन- रोटी तैयार करने चली गयीं। इधर बंधे-बंधे ही श्रीकृष्ण की दृष्टि यमलार्जुन पर पड़ी, जो पूर्व जन्म में कुबेर के पुत्र नलकूवर व मणिग्रीव नामक पुत्र थे,और नारद जी के श्राप से जड़ वृक्ष हो गए थे।भगवान स्वयं कितने ही कष्ट में हों, अपने भगवदीय कर्तव्य को नहीं भूलते।उन्होंने सोचा मैं तो भक्त नारद के वचन से बंधा हूं,मेरे द्वारा इन वृक्षों का उद्धार होना है। परीक्षित के, नारद द्वारा दिए श्राप का कारण पूछने पर, शुकदेव महाराज कहते हैं- कि कुबेर पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव अपने श्रीमद से अंधे हो रहे थे।वे पर स्त्री,जुंआँ और शराब में डूबे रहते थे।वह नंगे होकर शंकर जी के कैलाश पर्वत के पास, विहार कर रहे थे।नारद जी के वहां पहुंचने पर भी, वे दिगंबर ही रहे।नारद जी ने सोचा -इन श्री मदान्धों को मार्गदर्शन कराना चाहिए।यह सोचकर नारद जी ने कहा कि ये वृक्ष-योनि में जाने योग्य हैं,जहां इनकी दिगंबर रहने की वासना पूरी हो जाएगी। इन्हें जब तक भगवान श्री कृष्ण की प्राप्ति न हो, और इनके भीतर भगवत भक्ति ना आए, तब तक ये जड़ वृक्ष बनकर गोकुल में रहें।
यमलार्जुन वृक्षों के उद्धार की कथा चल रही है। उखल से बंधे श्री कृष्ण, धीरे-धीरे खिसककर, दोनों वृक्षों के बीच से घुसकर, दूसरी ओर निकल गए। किंतु उखल टेढ़ा होकर, अटक गया।दामोदर भगवान ने कमर की बंधी रस्सी में जरा जोर लगाया,दोनों वृक्ष तड़तड़ा कर गिर पड़े ।माया ने उनकी ध्वनि वही अवरुद्ध कर दी, जिससे लीला में विघ्न न पड़े।उनमें से दो देवता निकले ,उन्होंने भगवान की सुंदर स्तुति की,जिसे भागवत 10.10 .29 से 38 तक, ग्रंथ में देखना चाहिए । इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना कर जब नलकूवर और मणिग्रीव अपने लोक को चले गए, तब वृक्षों की ध्वनि गोकुल में फैल गई।नंदबाबा आदि सभी ग्वाल- बाल दौड़ पड़े ।इतने में नंद बाबा की दृष्टि श्री कृष्ण के बंधन पर पड़ी। उन्होंने कहा कि अरे! मेरा बेटा तो बन्धा हुआ है! उन्होंने झट जाकर बंधन खोला ,और श्रीकृष्ण को गोद में उठा लिया । मैया ने बंधन लगाया, नंद बाबा ने उसे खोल दिया,उन्हें मुक्ति दे दी।वस्तुतः भगवान के स्वरुप में, न तो कोई बंधन है, और न मुक्ति है ।अध्यारोप से ही बंधन और मुक्ति की सिद्धि होती है ।भगवान स्वयं ,बंधन में पड़े हुए जीवो को मुक्त करते हैं। मुक्ति केवल नलकूवर-मणिग्रीव की ही नहीं होती,उन सब की होती है -जो इस लीलाकथा को पढ़ते- लिखते और सुनते -सुनाते हैं ।
भगवान कृष्ण थोड़ा बड़े हुए, तो उनकी बाल लीलाओं का विस्तार हुआ,जो यशोदा-नंद के आंगन में तथा बाल-गोपालों के साथ पड़ोस में चल रही है। भगवान गोपियों के फुसलाने से, साधारण बालक की तरह नाचने लगते हैं। उनके कहने पर गाने भी लगते हैं। यशोदा मैया के कहने पर पीढा उठाकर ले आते हैं, कुछ तौलने के लिए बटखरे ले आते हैं ।नंदबाबा के कहने से खड़ाऊँ भी ले आते हैं ।यहां भगवान और भक्तों के बीच एकांगी प्रेम नहीं है ,परस्पर का प्रेम है। एक दिन एक फल बेचने वाली गोपी आई ,श्री कृष्ण फल खरीदने के लिए ,छोटी सी अंजुली में अनाज लेकर दौड़े।आनाज तो रास्ते में ही बिखर गया,पर गोपी ने उनके हाथ फलों से भर दिए।इस पर भगवान ने उसकी टोकरी रत्नों से भर दी। भागवत 10 .11.11। यह ठीक है कि परमब्रह्म, अविद्या निवृत्ति होने पर, केवल ज्ञान से ही मिलता है। किंतु यहां सगुण साकार भगवान नंदनंदन ,अपनी बाल लीलाओं से गोकुल वासियों के साथ-साथ संपूर्ण देवताओं को आनंदित कर रहे हैं। एक दिन नंदबाबा और बड़े-बूढ़ों ने मिलकर विचार किया -कि गोकुल महाबन में, बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं। हमारा लाला- पूतना से बचा,बवंडर से बचा, तृणावर्त से बचा, तथा पेड़ों के गिरने से बचा।अतः दूसरे उत्पात आएं, इसके पहले ही गोकुल छोड़ देना चाहिए।दूसरा प्रस्ताव यह भी था ,कि हमें वृंदावन में रहना चाहिए।वह स्थान पवित्र पर्वत, धास और लता वनस्पतियों से भरपूर है।अतः पशुओं सहित हम सबके लिए सुविधाजनक है। भागवत 10 .11.28 ।
गोपों के वृंदावन में, बसने की कथा प्रारंभ हो रही है। एक बालक के प्रेम और उसकी सुरक्षा की दृष्टि से, पूरे गोकुल वासियों को घर- बार तथा खेती- बारी का मोह त्याग कर,नए स्थान में बसने का निर्णय, भगवत प्रेम का आदर्श नमूना है । शुकदेव जी महाराज कहते हैं, परीक्षित! ब्रज वासियों ने झुंड की झुंड अपनी गायों को इकट्ठा किया। छकड़ों में बूढ़ों,बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्री चढ़ाकर, वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। स्वयं सुरक्षा की सब व्यवस्था कर, सावधानीपूर्वक, पीछे-पीछे चलने लगे।वृंदावन में प्रवेश कर ;ग्वाल वालों ने, वृंदावन - गोवर्धन पर्वत, गोवर्धन - बरसाने, और बरसाने - नंद गांव तक; अर्धचंद्राकार वस्ती बसा दी। गोधन के रहने योग्य स्थान भी बना दिया। भागवत 10 11 .35 । वृंदावन का हरा- भरा बन, मनोहर गोवर्धन पर्वत तथा यमुना जी की सुंदर पुलिनों को देखकर, श्री कृष्ण और बलराम के हृदय में उत्तम प्रीति का उदय हुआ।वेदांत में प्रश्न उठाकर,कि वह "बन" कौन सा है- जिसकी पृष्ठभूमि में विश्वकर्मा ने इस विश्व का निर्माण किया?उत्तर दिया गया -"ब्रह्म ही वह बन है"। केनोपनिषद ४.6। तात्पर्य है कि वृंदावन प्रकट ब्रह्मात्मक है। राम और श्याम अपनी तोतली- बोली और बाल- लीलाओं से पूर्ववत ब्रजवासियों को आनंद देने लगे।
थोड़े ही दिनों में राम और श्याम इस योग्य हो गए, कि वे ग्वालबालों के साथ,गायों और बछड़ों को चराने के लिए, आसपास के जंगलों में जाने लगे।वे कहीं बांसुरी बजाए, कहीं ढोलक पीटें, कहीं पांव के नूपुरों से ध्वनि करें,कहीं गाय- बैल बनकर क्रीड़ा करें। इस प्रकार उनका समय बड़े आनंद से बीतने लगा। एक दिन वत्सासुर, आक्रमण करने के लिए, बछड़े का रूप बनाकर आया।वत्सासुर ममत्व का रुप है।श्री कृष्ण की पैनी नजर,धोखा नहीं खाई।उन्होंने दाऊ दादा को बता दिया-यह नया बछड़ा असुर है।देखते-देखते उसके पास पहुंच गए।दोनों पैर पकड़कर, घुमाकर कैथ के पेंड़ में पटक दिया।उसका प्रणान्त हो गया,और असल रूप प्रकट हो गया।ग्वालबालों ने श्रीकृष्ण को अपनी बाहों में भर लिया,और उछल कूद मचाने लगे। एक दिन, बन में ,किसी जलाशय के पास पहुंचे।उसके पास सफेद विशालकाय बगुला बैठा था।बगुला दंभ का प्रतीक होता है। जैसे ही कृष्ण उसके पास पहुंचे उसने झपट कर उनको निगल लिया, उसका मुंह जलने लगा, मानो उसने आग निगल ली हो।उसने श्रीकृष्ण को उगल दिया।भगवान ने उसके चोंच के दोनों हिस्से पकड़कर चीर दिए।दंभ को मरते देख,देवताओं ने उन पर पुष्प वृष्टि कर, जयकारा लगाया।
एक दिन की बात है,कि श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ बिना दाऊदादा के ही बछड़ों को चराने के लिए बन में गए। बलराम जी का जन्मदिन होने के कारण वे नहीं गए। उस दिन बन में कंस का भेजा हुआ पूतना (अविद्या)तथा बकासुर (दंभ) का भाई अघासुर आया। उसने अपनी माया फैलाई, तथा अपने मुंह को विशाल रूप से ऐसा फैलाया, कि वह सुंदर गुफा की तरह दिखाई देने लगा। भगवान कृष्ण थोड़ी दूर पर थे, अतः ग्वाल बालों ने उस गुफा को वृंदावन की शोभा माना, और उसमें बछड़ों के साथ घुस गए। अधासुर तो कृष्ण को मारना चाहता था,अतः उनकी भी आने की प्रतीक्षा करने लगा। भगवान ने जब अपने भक्तों को पाप के मुंह में प्रवेश करते देखा, तो विचार किया, कि हमारा निवास तो भक्तों का ह्रदय ही है। अतः अव्यक्त रूप से तो हम वहां पहुंच ही गए। अब सशरीर, भक्तों को बचाने के लिए, वहां जाना ही होगा। इसलिए भगवान भी अघासुर के मुंह में प्रवेश कर गए। अघासुर तो इसकी प्रतीक्षा ही कर रहा था, अतः उसने मुंह बंद कर लिया। भगवान तुरंत उसके प्राणों के सहारे ब्रह्मरंध्र में पहुंचे, और उसे फाड़ दिया। श्री कृष्ण ग्वाल- वालों तथा बछड़ों के साथ बाहर निकल आए। अघासुर की ज्योति निकलकर, श्री कृष्ण में समा गई।यह आश्चर्य देख देवता लोग जयकारा लगाकर महोत्सव मनाने लगे ।
अघासुर उद्धार की तात्विक मीमांसा महत्वपूर्ण है। भगवान प्रातः सींग- ध्वनि से ग्वालवालों को जगाते हैं। मानो अनाहत ध्वनि से, प्रलय निद्रा में सोते जीवो को, जगाया।स्वयं उनके साथ संसार- बन में प्रवेश करते हैं। श्रुतियों में यही सृष्टि क्रम है। उन्हीं प्रभु के साथ, अंगणित जीव ,अपने-अपने प्रारब्ध कर्म के अनुसार, विभिन्न प्रकार के भोग के पदार्थ लेकर, प्रपंच-विपिन में प्रवेश करते हैं ।उनके आगे-आगे इंद्रिय-गोवत्स चल रहे हैं। कोई भगवान के दर्शन की होड़ लगाते हैं, कोई भगवान को भूलकर ,तीन गुणों वाली भोग वस्तुओं में, फंस जाते हैं। जीव जब भगवान से समानता करने लगता है, और स्वच्छंद चेष्टा करता है, तब जीवन में अघासुर आ जाता है। पाप का मुंह बहुत बड़ा है। जीवो के लिए उसको पहचानना बहुत कठिन है। वे अनजान में ही उसके मुंह में घुस जाते हैं। जीवों के शरीर में अनुप्रविष्ट भगवान भी वहां पहुंच ही जाते हैं। भक्तों के उद्धार के लिए भगवान को सशरीर वहां जाना पड़ता है। तब अघासुर अपना मुंह बंद कर लेता है ।उसके प्राणों से मिलकर ग्वाल वालों सहित भगवान बाहर निकल आए। अघासुर की आत्मज्योति श्री कृष्ण से मिल गई। अघासुर की आत्मा, व श्रीकृष्ण की आत्मा एक है, यह ब्रह्मा जी के लिए भी आश्चर्य है, और बिना भोग किए पाप का नाश,एक पहेली है ।इसी को समझने के लिए आगे की लीला है ।
जब ब्रह्मा जी ने, देवताओं द्वारा मनाए जा रहे महोत्सव की ध्वनि सुनी, तो वे ब्रजभूमि पहुंचे। महोत्सव का कारण जाना, तो पता चला कि अघासुर की मुक्ति, पाप भोगे बिना ही, हो गई! उन्होंने सोचा यह तो वेद -पुराण- शास्त्र विरुद्ध है! केवल अद्वय परमात्मा ही ऐसा कर सकता है ।अतः उस परमात्मा की अन्य लीला देखने के लिए, श्री कृष्ण के पास पहुंच गये। वहां अघासुर मुंह से निकलने के बाद, ग्वाल वालों सहित श्री कृष्ण का बन- भोज, जमुना के किनारे चल रहा था। बीच में श्रीकृष्ण बैठे हैं, चारों तरफ कई गोलाकार मंडलों में ग्वाल बाल बैठे हैं। उनके पास न थाली है, न पत्तल है। श्री कृष्ण की झांकी बड़ी लुभावनी है- उनके बाएं हाथ में दही चावल है, दाहिने हाथ से खा रहे हैं जिसकी उंगलियों के बीच में कई प्रकार के आचार फसा रखे हैं। वेंणु को कमर के फेटे में लगा रखा है। श्री कृष्ण के साथ भोजन करते हुए, ग्वाल बाल बड़े आनंदित हैं। वहां जाति- पाति, पवित्रता आदि का कोई विचार नहीं है। ब्रह्मा जी को आश्चर्य हो रहा है! कि परमात्मा इस प्रकार वेद विरुद्ध आचरण में कैसे संलग्न है? इसी बीच, सब बछड़े हरी घास के लोभ से, जंगल में घुस गए और आंख से ओझल हो गए। ग्वाल बालों का ध्यान उधर गया, और वे भोजन छोड़कर ढूंढने के लिए उठे। श्री कृष्ण ने कहा तुम लोग भोजन करो, मैं उन्हें ढूंढ कर लाता हूं। भगवान जब बछड़े ढूंढने गए, तो वे मिले नहीं। लौट कर आए, तो ग्वाल बाल भी गायब थे!ध्यान में देखा, तो पता चला कि यह सब ब्रह्मा जी की करतूत है।
ब्रह्मा-मोह की कथा चल रही है। यह कथा 3, अध्याय 12, 13, 14 में है, जिसे कुछ संप्रदाय के लोग प्रक्षिप्त मानते हैं। किंतु कथा प्राचीन समय से चली आ रही है, अस्तु सभी का उसके प्रति आदर भाव है, और उस कथा को विस्तार से कहते हैं । भगवान ने जान लिया- कि ब्रह्मा जी मेरी लीला देखना चाहते हैं ।अतः लीला का विषय सृष्टि चुना,जिसमें ब्रह्मा जी अपने को निपुण मानते हैं। वास्तव में ब्रह्मा जी सृष्टि उत्पन्न नहीं करते,संयोजन करते हैं।जीव,प्रकृति, पंचभूत,अंत:करण ,कर्मवासना तथा प्रारब्ध पहले से रहते हैं ,ब्रह्मा जी उनका सुंदर संयोजन करके, ऐसा शरीर प्रदान कर देते हैं, जिससे जीव अपनी वासनाओं को पूरा करते हुए भी ,भगवान की ओर अग्रसर रहें । भगवान ने ऐसी लीला की-कि बिना अंतः करण संस्कार के होते हुए ,सारे खोए हुए ग्वाल बाल ,तथा पशुओं को उनकी व्यक्तिगत वस्तुओं -छड़ी, वेंणु, छींके, कपड़े ,आभूषणों के सहित प्रकट कर दिया ।यह सब वस्तुएं परमात्म तत्व से बनी होने के कारण ,माता-पिता तथा गायों आदि के लिए, विशेष आकर्षण का केंद्र बन गई ।बलराम जी को यह सब कौतुक देखकर ,जब संदेह हुआ तब श्रीकृष्ण ने संक्षेप में सब घटनाओं को बता दी। ब्रह्मा जी बच्चों और ग्वाल बालों को छिपाकर, अपने लोक गए। तब वहां पहले से ही एक-दूसरे ईश्वरीमाया कृत ब्रह्मा आ गए थे, अतः द्वारपालों ने उनका तिरस्कार किया, और उनको भीतर घुसने नहीं दिया। अस्तु वहां से पुनः ब्रज में आ गए। ब्रह्मा जी के कालमान से आधा क्षण का समय बीता था, लेकिन मनुष्यों के कालमान से 1 वर्ष बीत गए थे।
ब्रह्मा जी, जब ब्रज लौटकर आए, तो देखते हैं, कि उनके छिपाए ग्वाल- बाल और बछड़े यथा स्थान पर अचेत पड़े हैं। दूसरी ओर भगवान कृष्ण भी ठीक उसी प्रकार के ग्वाल-बाल तथा बछड़ों के साथ पूर्ववत् क्रीड़ा कर रहे हैं ।ब्रह्मा जी आश्चर्यचकित हो गए, गौर से देखने पर, उसी क्षण सब ग्वाल-बाल व, बछड़े श्री कृष्ण के रूप में दिखाई देने लगी । उन्होंने देखा- कि अणिमा- महिमा आदि सिद्धियां, माया- विद्या आदि विभूतियां, और महत्व आदि चौबीसों तत्व, सभी चारों ओर भगवान को घेरे खड़े हैं। भागवत 10. 13.52। ब्रह्माजी काष्ट मौन हो गए। उनकी ग्यारहों इंद्रियां, क्षुब्ध और स्तब्ध हो गयीं। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गए, मानो ब्रज के अधिष्ठाता देवता के पास,एक पुतली खड़ी है। भागवत 10 .13.56। ब्रह्मा की ऐसी दशा देखकर, भगवान ने तुरंत अपनी माया का पर्दा हटा लिया ।इससे ब्रह्मा जी को ब्रह्मज्ञान हुआ और स्वस्थ हो गए। ब्रह्मा जी भगवान के चरणों में दंड की भांति गिर पड़े। उनकी आंखों से प्रेम अश्रु निकल रहे थे। वे उठे और नम्रता से,अंजलि बांधकर,गदगद वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे।सुंदर स्तुति भागवत 10.14 में दी गई है। विस्तृत होने के कारण पोस्ट में देना संभव नहीं है।
ब्रह्मा-मोह का तात्विक विवेचन आनंद प्रद है। वास्तव में ब्रह्मा जी, श्री कृष्ण की मंजुल-मंजुल भगवदीय लीला देखना चाहते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वे परम ब्रह्म के अवतार हैं। भगवान ने लीला का विषय सृष्टि चुना- जिसमें ब्रह्मा जी को निपुणता प्राप्त है । ब्रह्माजी सृष्टि कैसे बनाते हैं? पहले से ही जीव है, अंतःकरण है ,वासना है ,कर्म है- उसके अनुसार देह दे दिया, मानो विभिन्न अवयवों को लेकर, एक यंत्र का संयोजन कर दिया गया ।और भगवान की सृष्टि की विशेषता क्या थी?पहले से- न जीव है,न प्रकृति है,न अंतःकरण है, न वासना है, न कर्म -लेकिन ग्वाल-बाल- बछड़े की सृष्टि वैसे ही बन गई, जैसे ब्रह्मा जी ने बनाई थी। इससे सिद्ध होता है, कि सृष्टि के भगवान अभिन्न निमित्तोपादान कारण है।भगवान की कृपा से, ब्रह्मा जी ने सभी ग्वाल- बाल -पशुओं को श्रीकृष्ण रूप में देखा। ब्रह्मा जी की स्तुति में, यह अभिप्राय स्पष्ट हो गया, कि न बंधन है न मोक्ष!तत्व के अज्ञान से ही, सब कुछ प्रतीत हो रहा है। सूर्य सर्वदा एक सा है, वहां दिन-रात नहीं है। अपनी स्थिति के कारण हमारे लिए दिन-रात सच है । वृंदावन और वहां के निवासियों की महिमा, का वर्णन ब्रह्मा जी तो करते ही हैं, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी अनेक प्रसंगों में पुनः पुनः करते हैं। भगवान के सानिध्य के लिए, पुण्य की कमाई और भगवत कृपा चाहिए।
धेनुकासुर का उद्धार। राम-श्याम की आयु( 6 वर्ष) इस योग्य हो गई, कि उनको गाय चराने की अनुमति मिल गई ।दोनों भाई अपने साथी ग्वाल-बालों के साथ, गायों को चराने वन में जाते हैं, और वहां की निराली शोभा देखकर हर्षित होते हैं । एक दिन श्रीदामा नामक सखा ने कहा- बलराम भैया, कृष्ण भैया! यहां से थोड़ी दूर पर ताड़ का एक विशाल बन है, उसमें मीठे मीठे फल पक कर गिरते रहते हैं। लेकिन धेनुकासुर किसी को फल खाने नहीं देता, आप हम लोगों के साथ चलकर फल खिलाओ। दोनों लोग, ग्वाल वालों को साथ लेकर, ताल-बन गए। बलराम जी ने ताल वृक्षों को हिला- हिला कर फल गिरा दिए और ग्वाल- बाल खाने लगे। इतने में गधे के रूप में रहने वाला धनुकासुर दौड़ता आया, और बलराम जी पर आक्रमण कर दिया। बलराम जी ने, उसके पीछे के पैर पकड़ कर घुमाया और ऐसा पटका कि उसके प्राण निकल गए। तात्विक बात यह है, कि भगवत रसास्वादन में, देहा- ध्यास अर्थात धेनुकासुर बड़ी बाधा है। यह दोष चिरकाल से अनुवृत है ,जिसकी निवृत्ति योगाभ्यास से होती है। योगाभ्यास के आचार्य बलराम जी ने, धेनुकासुर के बध से प्रणव नाद को मुक्त किया और वह सुलभ हो गया।
कालिय नाग दमन लीला। एक दिन बलराम जी घर पर ही रह गए। श्री कृष्ण ग्वाल-बालों और गायों के साथ यमुना तट पर,उस स्थान पर चले गए,जहां कालिय नाग रहता था।वहां का जल विषैला रहता था, लेकिन गाय और ग्वाल बाल उसे पी गए। विषैला पानी पीने से सबके सब मर गए, लेकिन भगवान ने अपनी अमृतवर्षिणी दृष्टि से, सब को जीवित कर दिया । भगवान ने कालिया नाग को वहां से हटाने के लिए, यमुना जल में कूद पड़े ।कालिया नाग और कृष्ण में युद्ध हुआ।एक बार तो कालिय नाग ने, कृष्ण को नागपाश में जकड़ भी लिया,डस भी दिया और क्षण भर के लिए श्री कृष्ण निश्चेष्ट भी हुए।ब्रज में हाहाकार मच गया। लेकिन भगवान शरीर को फैलाकर,नागपास से निकलकर,नाग के शौ-फण वाले सिर पर तांडव नृत्य करने लगे।उनका नृत्य देखने के लिए, गंधर्व,अप्सराएं, देवता,ब्रह्मा और शंकर आदि आए।उनके नृत्य से कालिय के फण छिन्न-भिन्न हो गए ,और उसे खून की उल्टियां हुई ।भागवत 10. 16.30। कालिय शरणागत हुआ, नाग पत्नियों ने स्तुति की। भगवान ने उसे समझाया- कि तुम्हारा यहां रहना ठीक नहीं है। मेरी यह लीला स्थली है। मेरे पैर के चिन्ह तुम्हारे सिर पर होने से, अब गरुण से तुम्हें भय नहीं रहेगा। तुम अपने स्थान रमण द्वीप चले जाओ। कालिय दमन के पश्चात, श्री कृष्ण कुंड से बाहर आए। ब्रज वासियों ने उन्हें गले लगाया। नंद बाबा ने ब्राह्मणों को बड़े-बड़े दान दिए। सूर्य अस्त हो गया था। तन मन से थके बृजवासी, वहीं यमुना तट पर सो गए।
कालिय- दमन लीला का तत्वार्थ भी जानना चाहिए। यमुना जी की महिमा सर्वविदित है। यह ब्रज एवं द्वारिका दोनों स्थानों में, भगवान की लीला- सहचरी हैं । यह भौतिक रूप में जल है, किंतु आधिदैविक रूप में सूर्यपुत्री कालिंदी है। इसके अंदर कालिय नाग का निवास उचित नहीं था। कालिय नाग हम सब की इंद्रियां हैं, उनके सहस्त्र- सहस्त्र फन हैं। उनका विषय संपर्क ही विष है। जब तक भगवान, अंतःकरण वृत्तिरूप यमुना में प्रवेश नहीं करेंगे, तब तक यह विषय-संपर्क रूप काम, निवृत्त नहीं हो सकता और तब भक्तों को, आगे की चीरहरण लीला और रासलीला भी समझ में नहीं आएगी। श्री कृष्ण के यमुना के उदर में निवास करने के कारण, कालिय का वध न कर, उसके स्थान रमणीक द्वीप में भेज दिया। इस लीला प्रसंग में ,एक लाभ और हुआ। ब्रज वासियों को, विशेषकर गोपियों को, बन से आते- जाते समय, श्री कृष्ण-दर्शन में जो आनंद आता था, उस रूपरस संभोग की रस वृद्धि के लिए, वियोग आवश्यक था।थोड़ी देर ही सही, कालिय-दह में अदृश्य रहने के कारण, ब्रज वासियों को जो वियोग- दुख हुआ, वह उनके हृदय के गुप्त एवं सुप्त प्रेम को जगाने में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ।
क्रोधाग्नि लीला का प्रसंग आता है।भक्तों की लोभाग्नि धेनुका-वध लीला में, और कामाग्नि कालिय-दमन लीला में शांत करने के बाद,भक्तों की क्रोधाग्नि भी शांत करना है । दावानल दो प्रकार का होता है- एक देवता दूसरा दैत्य, भगवान ने दोनों का शमन किया है।कालिया नाग दमन के पश्चात, भूखे प्यासे बृजवासी,गौएँ,गोप-सब रात्रि के समय वही कालियदह पर सो गए।अग्नि देवता( देव- दावानल)ने सोचा, कि प्रातः काल यह लोग उठकर, आसपास के फल-फूल, घास-पात का उपयोग करेंगे,जो नाग के विष से दूषित है,अतः इन्हें जला देना चाहिए, और उन्होंने वैसा ही किया।भगवान ने प्रसन्न होकर अग्नि देवता को पी लिया। विराट पुरुष के मुख से अग्नि की उत्पत्ति होती है-कार्य कारण में लीन हो गया। दूसरे प्रसंग (दैत्य दावानल) में,गौएँ चरती- चरती बहुत बड़े सरकंडे के गहन बन में घुस गई। श्री कृष्ण-बलराम तथा ग्वाल-बाल उनके पैर के चिन्हों के सहारे ,ढूंढते-ढूंढते वहां पहुंचे।तभी अकस्मात दावाग्नि लग गई और साथ में आंधी भी चलने लगी। गायें डर के मारे,डकारने लगीं और ग्वालवाल भी सहायता के लिए, श्रीकृष्ण को पुकारने लगे। श्री कृष्ण ने ढाँढस बंधाते हुए उन सब को आंख बंद करने को कहा, और योगशक्ति से दावानल पी गए।इस प्रकार भक्तों का भय-कष्ट दूर हो गया ।
इसके बाद वर्षा और शरद ऋतु में वृंदावन की शोभा का वर्णन है।वृंदावन चीन्मय भूमि होने के कारण,वहां की प्रकृति वर्णन अत्यंत विलक्षण है।इसमें एक ओर आध्यात्मिक दृष्टांत है, और दूसरी ओर प्रकृति के रूपों का वर्णन है। इसका विस्तार से वर्णन भागवत- 10.20 में है ,उसे ग्रंथ में देखना होगा । वृंदावन का स्वरूप क्या है? एक तो यहां गिरिराज है, दूसरी बहती हुई नदी है, और तीसरा निर्मल सरोवर है। निर्मल सरोवर भक्तों के हृदय हैं, नदी भगवान की ओर प्रवाहित होने वाली वृत्ति है,और गिरिराज पर्वत दृढ़ निष्ठा है । वृंदावन ध्येय भूमि के कारण, चिन्मय है, भगवत रस की अभिव्यक्ति है। सत् की प्रधानता से आकृतियां है चित्त की प्रधानता से, वृत्तियां है और आनंद की प्रधानता से सुख का उल्लास होता है।वृतियों में सुख की झलक ही, प्रेम संज्ञा धारण करती है । वृंदावन में भगवत प्रेम कण -कण में प्रकट हो रहा है। जीव जब निस्साधन एवं कुसाधन हो जाता है,तब स्वयं भगवान अपनी ओर से लीला प्रकट करके,जीवो को आलिंगन देते हैं और अपने में मिला लेते हैं।अस्तु वृंदावन भगवान की अनुग्रह एवं भक्तों के प्रेम का मिलन स्थान है।
शरद ऋतु में,दिव्य शोभा युक्त वृंदावन में, भगवान की वेणुगीत लीला हुई है ।श्री वल्लभाचार्य के मत में,श्री कृष्ण का यह वृंदावन धाम में प्रवेश, सरित-सरोवर में स्थित आधिदैविक शक्ति के साथ रमण है।भगवत् सम्मिलन के लिए केवल ब्रजआंगनायें ही नहीं,परा-अपरा प्रकृति, सब लालायित है।उसी रमण के लिए वेंणुकूजन द्वारा भगवान ने बन देवताओं को उद्बोधन किया है। वेंणुकूजन नाद( दिव्य शब्द शक्ति) कि यह महिमा है, कि जिससे यह संबंधित हो जाए, उसे भगवान का बना दे। कूजन में अर्थहीन केवल ध्वनि होती है, परंतु गीत सार्थक अर्थ युक्त होता है । पहले भगवान ने वेंणु कूजन कर। सबको सावधान किया। वेणुकूजन श्रवण से, ब्रज गोपिकायें मूर्छित हो गई। उनमें से कुछ को ,श्रीकृष्ण के अनुग्रह विशेष से,सावधानता प्राप्त हुई। जब वे सावधान हो गयीं, तब श्रीकृष्ण ने वेणु द्वारा गीत गाया,जो स्पष्टार्थक था ।भगवान की लीला विशिष्ट द्वारा,तत्कालिक स्वरूप का निर्देश,इस वेणु गीत से हुआ। जिन्होंने उसे सुना, उनके अंतःकरण में भगवत- स्वरूप व्यक्त हुआ। जब वेणु गीत द्वारा,भगवान की अधर सुधा से,गोपियों का रोम-रोम भरपूर हो गया ,तो गोपियों के अधर पल्लवों से भी" वरहा पीडं नटवर बपु" इत्यादि वेणु गीत रूप में अभिव्यक्त हो उठा। इसीलिए गीत उस अनुभूत तत्व का उद्गार है, वर्णन नहीं।
वेणुगीत का प्रकरण चल रहा है।वृंदावन चिन्मय है।वहां के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, धूलकण सब चिनमय है।गोपियां घर में बैठी हैं, और देख रहे हैं बन में श्रीकृष्ण व उनकी लीला को। गोपियां एक जगह बैठकर जो देख रहीं हैं, वे उद्गार होंठों से 15 गीतों के रूप में छलकने लगे:- वृंदावन के जड़ - चेतन सब, वंशी ध्वनि सुनकर, प्रेम मग्न है।ब्रज के वृक्ष और लताएं, भगवद्- रस प्रकट करती हैं। वृंदावन के पशु-पक्षी, प्रपंच दर्शन से विमुख होकर, श्री कृष्ण के प्रेम में मग्न है।हरिणियाँ प्रेमभरी दृष्टि से उन्हें देखती है, और श्रीकृष्ण उनके नेत्र से नेत्र मिलाते हैं।वन देवियां मुग्ध है।गाय-बछड़ों के शरीर में,रोमांच है,नेत्रों में आंसू हैं, भोग का विस्मरण है। पक्षी खुली आंखों से देखते हैं,मौन रहकर वंशी ध्वनि सुनते हैं।नदियां मिलन की लालसा से, स्थिर हो जाती हैं, और चरणों पर कमल चढ़ाती हैं।मेघ छाया करते हैं, और कृष्ण पर फुहारों द्वारा प्रेम रस की वर्षा करते हैं।बन की भीलनें भी,घास-पात पर भगवान के चरणों का लगा सिंदूर, लगाकर तृप्त हो रही है। गिरिराज भी अनेक प्रकार से सेवा कर रहे हैं।वृक्षों से मधुधारा का क्षरण हो रहा है। चर,अचर और अचर,चर हो रहा है। भागवत 10. 21. 5 से 19।
अब हेमंत ऋतु आई, जिसमें चीरहरण लीला का प्रसंग है। चीरहरण माने- आवरण भंग।ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार, बीच के आवरण भंग होने पर ही होता है। मार्गशीर्ष महीने में, गोपियां हविष्यान्न का भोजन करती हुई, दुर्गा की उपासना करने लगीं। गोपियां प्रातः काल जाकर कालिंदी में स्नान करें, किनारे पर देवी की बालू से मूर्ति बनाकर, गंध-माल्य-सूरभि आदि से पूजा करें ,और मंत्र जपें। इस प्रकार उन्होंने एक महीने तक अनुष्ठान क्रिया और भद्रकाली की पूजा की । गोपियों की दिनचर्या प्रारंभ होती थी- प्रातः काल उठकर,आपस में गलबहियाँ डालकर, कृष्ण-कृष्ण का गान करती हुई, जमुना किनारे जाकर, अपने कपड़े अलग रखकर ,निर्वस्त्र हो जल में बिहार करने से। श्री यमुना में स्नान करते ही, प्राणी को श्रीकृष्ण सम्मिलन की योग्यता प्राप्त हो जाती है। पर यहां साधन में 2 दोष हैं -वस्त्र का त्याग और मौन का त्याग। एक दिन योगेश्वर भगवान का ध्यान, साधना के दोषों की ओर गया, और उनके परिहार के लिए साथियों को लेकर, गोपियों के पास पहुंचे ।भगवान श्री कृष्ण गोपियों के उतारे कपड़े लेकर, कदंब पर चढ़ गए। कुछ हंसी- विनोद की बातचीत के बाद, सब गोपियां बाहर निकली। भगवान ने उनको दिव्य दृष्टि से देखा, और उनके अंदर जो लज्जा, शंका, कुल, जाति, शील आदि का बंधन था, वह सब छिन्न-भिन्न कर दिया। उनसे हाथ जोड़कर सूर्य भगवान को नमस्कार करवाकर, साधनागत दोषों का भी परिहार करा दिया। भगवान ने गोपियों को,वस्त्र के माध्यम से, स्पर्शी दीक्षा देकर, कह दिया कि जाओ! तुम सिद्ध हो गई।
चीरहरण, रासलीला आदि कुछ ऐसी कथाएं हैं,जिन पर अविवेकी जनों द्वारा, अनेक शंकाएं की जाती हैं।अतः चीर हरण लीला पर,कुछ विचार कर लेना चाहिए।ब्रज कुमारीकायें श्री कृष्णचंद को वर रूप में प्राप्त करने के लिए, भगवती कात्यायनी की अर्चना में लगी है।इन सब के पास, पूर्वजन्म की कमाई है।वह पूर्व जन्म में कृष्ण के दर्शन का वरदान प्राप्त कर चुकी है,कि अगले जन्म में ब्रजकुमारी के बनने पर,रमण(तादात्म्येन सम्मिलन)संभव होगा। वेदांत में जीव को, स्वयं ज्ञान प्राप्त करके,आवरण भंग करना पड़ता है।किंतु भक्ति सिद्धांत में, भगवान स्वयं आकर,आवरण भंग करते हैं।वही प्रक्रिया चीरहरण लीला द्वारा संपन्न हुई है । लीला में,श्री कृष्ण ने वस्त्रों के माध्यम से- आवरण, लज्जा, अहंकार,आदि सब कुछ लेकर ,उसे अपने से संबंधित करके, फिर ब्रजांगनाओं को दे दिया।प्रसाद रूप आवरण,लज्जा और अहंकार सब सरस हो गए। उन वस्त्रों को धारण करने से ब्रजांगनाओं को, श्री कृष्ण के संस्पर्श का सुख मिला और उनके अंग-अंग,रोम-रोम इंद्रिय-प्राण,अंतः करण, अंतरात्मा सब में कृष्णरस का संचार हुआ । श्रीकृष्ण ने वस्त्र और अपने को तो दे दिया, परंतु गोपियों के मन को चुरा लिया। अतः वे ब्रज नहीं लौटना चाहती।अस्तु कृष्ण को कहना पड़ा-आप लोग ब्रज जाएं। जिस उद्देश्य से आप लोगों ने देवी की अर्चना की है,वह आगे रात्रि (रासलीला) में सफल होगी । भगवान का रमण आत्मा में ही होता है। ब्रजांगनाओं को पूर्ण पात्र बनाने के लिए, सम्मिलन की उत्कट उत्कंठा पूर्वक प्रतीक्षा की आवश्यकता है, अतः भगवान का ऐसा निर्देश हुआ।
ब्राह्मण पत्नियों पर कृपा।एक दिन राम- श्याम, ग्वालबालों के साथ मथुरा की ओर, काफी दूर तक निकल गए। गर्मी के दिन थे,फिर भी वृक्ष उन पर छाया किए हुए थे। भगवान ने ग्वालवालों से कहा-वृक्ष अपने पत्र-पुष्प, फल, छाया, मूल,वल्कल, लकड़ी, गंध, गोद तथा अंकुर आदि से सब जीवों की सेवा करते हैं।उनके जीवन में परार्थ है, जो एक प्रकार की भक्ति है । इस प्रकार की बातें करते हुए, सभी यमुना जी का सुस्वाद जल पीकर ,तट पर बैठ गए। ग्वाल-बालों ने भूख लगने की बात कहकर ,कुछ खिलाने को कहा।भगवान कृष्ण ने कहा- थोड़ी दूर पर मथुरा के ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं, वहां जाकर दाऊ दादा और मेरा नाम लेकर भोजन सामग्री मांग लो! ग्वाल वालों के वहां जाने पर ब्राह्मणों ने हां -ना कुछ नहीं कहा। ग्वाल- बाल निराश होकर, लौट आए ।वास्तव में यह ब्राह्मण ज्ञानशून्य कर्मठ है। दो साधन मार्ग हैं -भक्ति व ज्ञान ।या तो सर्व को भगवत रूप मानकर ,सेवा भाव से, हां कर देना चाहिए था या नेति- नेति सिद्धांत से ना कर देना चाहिए था। श्री कृष्ण ने सब सुनकर कहा -कि अब ब्राह्मण पत्नियों के पास जाओ, और उनसे हमारा नाम लेकर भोजन सामग्री मांगो! ग्वाल-बाल जाकर जब ब्राह्मण पत्नियों से मिले ,तो उनकी बात सुनते ही वह प्रेम से भर गई, और तुरंत सब प्रकार की भोजन सामग्री लेकर श्री कृष्ण के पास पहुंच गई।
ब्राह्मण पत्नियों को भगवान का ऐसा दिव्य दर्शन हुआ, कि उसका वर्णन सुनकर चैतन्य महाप्रभु, मूर्छित हो जाया करते थे:- यज्ञ पत्नियों ने देखा- कि श्रीकृष्ण के सांवले शरीर पर, सुनहला पीतांबर झिलमिला रहा है।गले में वनमाला है, मस्तक पर मोरमुकुट है।उन्होंने नए-नए कोपलों के गुच्छे शरीर में लटकाकर,नटवर का- सा वेष बना रखा है। उनका एक हाथ सखा के कंधे पर है,और उनके दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है।कानो में पुष्पों का कुंडल है, कपोलों पर घूंघराली अल्कें लटक रही हैं, और उनके मुख कमल पर मंद-मंद मुस्कुराहट है । ऐसा दिव्य दर्शन पाकर, यज्ञ पत्नियां अत्यंत मुग्ध हो गई।उन्होंने श्री कृष्ण-बलराम और ग्वाल-बालों को भोजन कराया,फिर उनका अनुग्रह प्राप्त कर यज्ञ स्थल पर लौट गई । इन लीलाओं का शिक्षार्थ क्या है? कर्मकांडी ब्राम्हणों से परोपकारी वृक्ष उत्तम है, वृक्षों से ब्राह्मण पत्नियां उत्तम है, और उनसे भी गोपियां उत्तम है। ब्राह्मण अभक्त कोरे कर्मकांडी हैं,ब्राह्मण पत्नियों का भक्त मिश्रित धर्म अनुष्ठान है, और गोपियों की शुद्ध पराभक्ति है।
श्री गिरिराज गोवर्धन, भगवान के भक्तों में श्रेष्ठ हैं।भक्त गिरिराज की पूजा हो,या इंद्र की-यह प्रसंग है।भक्ति में दो ही की पूजा चल सकती है -भगवान की या भक्तों की। ब्रज में परंपरागत चली आ रही, इंद्रपूजा की तैयारियां चल रही थी। श्रीकृष्ण ने बाबा से पूछा- कि इतनी सब तैयारियां किस लिए हो रही हैं। नंदबाबा ने कहा कि बेटा! इन दिनों इंद्र देवता की पूजा होती है।यह हमारी कुल परंपरा से चली आ रही है।हमारा विश्वास है, कि इंद्र की कृपा से ही वर्षा होती है, अन्न होता है।इसलिए हम लोग इंद्र की पूजा करते हैं । कृष्ण ने कहा- सब लोग कर्मफल के अनुसार पैदा व मरते हैं। कर्म से गुण बनते हैं-तदानुसार सृष्टि बनती है, और शरीर प्राप्त होते हैं। समष्टि के मनुष्यों के कर्मानुसार बादल बनते हैं, और वर्षा करते हैं, उसी से सृष्टि का व्यापार चलता है। हमारे पास न तो राज्य है,और न कोई नगर-गांव है, बनवासी हैं, और गिरिराज की तलहटी में रहते हैं, इन्हीं से हमें अन्न- फल आदि मिलता है, और उसी से हमारी गौएँ पलती हैं। हमारे पूजा के योग्य तो गाय, ब्राह्मण व पर्वत हैं। जिसके द्वारा मनुष्य की जीवन सुगमता से चलता है, वही उसका इष्टदेव है ।भागवत 10.24. 18। नंदबाबा व सभी गोपों ने, श्रीकृष्ण की बात मान ली।इंद्र-पूजा के लिए जो सामग्री इकट्ठा की गई थी, उसी से गिरिराज की पूजा हुई ।
गोवर्धन पूजन।कन्हैया ने सबको समझाया-गोवर्धन तो हमारा प्रत्यक्ष देव है।जो पर्वत दिखाई दे रहा है, यह तो उसका आधिभौतिक स्वरूप है, उसका आधिदैविक स्वरूप तो और ही है-सूक्ष्म है।कन्हैया ने अपना एक स्वरुप नंदबाबा के पास रखा, और दूसरे से गिरिराज में प्रवेश किया । भगवान ने गोवर्धन पूजा के लिए दीपावली का दिन तय किया।सभी ब्रजवासी गाड़ियाँ भर-भर के खाद सामग्री लेकर गिरिराज के पास आए।ब्राह्मण वेदोच्चार करने लगे,और कन्हैया अभिषेक।कन्हैया आज अपनी ही पूजा कर रहे हैं,सारे बृजवासी सहभागी हो रहे हैं। भोग का अवसर आया।खाद्य सामग्री प्रकोष्ठ में रखी गई, ऊपर तुलसी दल लगाकर,भोग करने के लिए प्रार्थना की गई।गायों को चारा खिलाया गया।सभी ने प्रसाद ग्रहण किया,यहां तक की चांडाल,पतित,तथा कुत्तों तक यथा योग्य वस्तुएं दी गई।भागवत 10.24. 28। इसके बाद ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त कर ,नंदबाबा सहित सभी गोप, गिरिराज का परिक्रमा करने लगे। गोपियों ने भी भली-भांति श्रंगार कर,छकड़ों में सवार होकर,श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते हुए,परिक्रमा की!
गोवर्धन धारण।इंद्र को पता चला, कि उनकी पूजा न होकर,गोवर्धन की पूजा हुई है।इंद्र क्रोध वश होकर,असुर भाव को प्राप्त हो गए।उन्होंने प्रलयकारी मेघों को आज्ञा दे दी-कि भीषण वर्षा से,ब्रज में जितने पशु,गौएँ हैं ,सब का नाश कर दो । मेघों ने ब्रज पर मूसलाधार वृष्टि प्रारंभ की।बिजलियां चमकने लगी,बड़े-बड़े ओले गिरने लगे,आंधी का वेग प्रचंड हो गया,ब्रज वासियों में हाहाकार मच गया।सब श्रीकृष्ण की शरण में आए।भगवान ने एक हाथ से गिरिराज को उखाड़ कर उठा लिया,वैसे ही,जैसे बालक छत्रक पुष्प को उखाड़ लेते हैं।भागवत 10.25.19। भगवान बोले-कि सब लोग पर्वत के नीचे बन गए गड्ढे में आ जाओ। भगवान श्री कृष्ण ने,अपने बाएं हाथ की उंगली पर, जरा कमर टेढ़ी करके,एक ही पांव पर,अपने मुंह पर बांसुरी लगाए, 7 दिन तक गोवर्धन धारण किए रहे। जब ग्वालवालों ने,सहानुभूति दिखाते हुए आराम देने को कहा,तो श्रीकृष्ण ने हंसकर कहा-कि तुम लोग भी अपनी-अपनी लाठियों से टेक देकर सहारा दे दो । यह सब देखकर, इंद्र अत्यंत विस्मित हो गया।स्वयं मेघों को वर्षा बंद करने की आज्ञा दी। श्री कृष्ण के कहने पर सभी ब्रजवासी, अपने छकड़े, सामान और परिवार लेकर, बाहर निकल आए।भगवान ने बड़े आदर, शांति के साथ।गोवर्धन को यथा स्थान जमा दिया ।
जब इंद्र का मान मर्दन हो गया,तब वे और कामधेनु अलग-अलग,श्री कृष्ण के पास आए।इंद्र ने स्तुति की- जिसे ग्रंथ 10.27 में देखना चाहिए ।उन्होंने क्षमा मांगते हुए कहा- आप ही मेरे स्वामी है ,गुरु हैं, आत्मा है ,मैं आपकी शरण में हूं ।इस प्रकार इंद्र का अनुशासन हो गया । अब कामधेनु सामने आई, और कहा आज से हमारे इंद्र आप हैं, आप ही गोविंद, गोपाल हैं।यह कहकर कामधेनु ने अपने दूध से, भगवान का अभिषेक किया।तब इंद्र ने भी तुरंत आकाशगंगा का जल मंगवाया, और देवताओं तथा ऋषि यों के साथ,भगवान श्री कृष्ण का अभिषेक किया । इस बीच श्री कृष्ण की, अलौकिक महिमा प्रकट करने वाला,वरुण लोक जाने का प्रसंग उपस्थित हो गया।नंद बाबा ने एकादशी का व्रत किया, द्वादशी रात्रि में लग गई, अतः आधी रात के बाद, नंदबाबा स्नान के लिए यमुना जल में प्रवेश किया।सामान्यता स्नान के लिए, यह आसुरी बेला (11:00 से 3:30)मानी जाती है। वरुण दूत नंद बाबा को पकड़कर वरुण के पास ले गए,बृजवासी नंद बाबा को डूबा मान कर रोने लगे।भगवान सब जानते थे, वे तुरंत जल में कूदकर वरुण लोक पहुंच गए।वरुण ने उनका बड़ा सम्मान किया।पूजा-अर्चना की,क्षमा प्रार्थना की, नंद बाबा आश्चर्यचकित हो सब देखते रहे।श्री कृष्ण नंद बाबा को लेकर ब्रज लौट आए।
गोपों को कृष्ण की प्रभुता-दर्शन।नंदबाबा वरुण लोक की लीला देखकर,चकित थे।उन्होंने गांव के लोगों को, सब कुछ बताया।अब तो गोप श्रीकृष्ण से कहने लगे-कि जो नंदबाबा को दिखाया हम को भी दिखाओ! भगवान ने देखा -कि सबके मन में चमत्कार देखने की इच्छा हो गई है। भगवान ने सोचा संसार के जीव अविद्या ग्रस्त होते हैं,सांसारिक कामनाओं के वशीभूत,नीची-ऊंची गतियों में जाते रहते हैं,अपने वास्तविक गति को नहीं जानते।करुणा के वशीभूत होकर भगवान ने गोपों को "दर्शायामास लोकं स्वयं" ।भागवत 10.28 .14 । भगवान, गोपों को ब्रह्महृद जलाशय में ले गए, जहां अक्रूर को भगवान ने अपना स्वरूप दिखलाया था। भागवत 10. 28.16।वहां उन लोगों नें डुबकी लगाई,फिर भगवान ने उनको वहां से निकाल लिया,और तब वे परम धाम का दर्शन करने लगे। लोगों ने देखा -कि वहां श्रीकृष्ण सिंहासन पर बैठे हैं। चारों वेद मूर्तिमान होकर,भगवान की स्तुति कर रहे हैं।वहां उन लोगों ने शंकर जी, ब्रह्मा जी,अंबिका जी,आदि सबको देखा। गोपों ने लोगों से पूछा- कि गोवर्धन पर्वत कहां है, यमुना जी कहां है, कृष्ण की बांसुरी कहां है ,उनका मोर मुकुट भी नहीं है ! मुझे कृष्ण के पास ले चलो! सब का नकारात्मक उत्तर मिला। तब वे बोले- हमारे लिए ब्रज ही ठीक है, और श्रीकृष्ण के साथ ब्रज लौट आए।
श्री रासलीला की भूमिका। आचार्यों का ऐसा मत है,कि श्रीमद् भागवत भगवान की वांग्मय विग्रह है। दशम स्कंध उसका हृदय है। जिसमें रास पंचाध्यायी (अध्याय 29 से 33) उसके प्राण है । रासलीला कोई सामान्य लौकिक लीला नहीं है।जीव- आत्मा-परमात्मा का मिलन है। गोपियां सामान्य स्त्रियां नहीं है,उनके जीवन में पूर्व जन्म के साधना की कमाई है। गोपियों के दो भेद हैं -नित्यसिद्धा और साधनसिद्धा।साधन सिद्धा गोपियों के कई भेद हैं- श्रुति रूपा,ऋषि रूपा,संकीर्ण रूपा,अन्यपूर्वा,अनन्यपूर्वा आदि। ध्यान यह भी रहे,कि परमात्मा कृष्ण की आयु,रासलीला के समय मात्र 9 वर्ष की है। जिन जीवों में अनन्य भगवत प्रेम होता है, उन के ब्रह्म के साथ तादात्म्य के लिए,आवश्यक भूतशुद्धि, चित्तशुद्धि तथा आवरण भंग आदि की योग्यताएं, भगवान स्वयं आधान कर देते हैं, यथा:- पूतनालीला से अविद्या का नाश किया, शकटासुर, तृणावर्त तथा माखनचोरी आदि से, तीनों गुणों का शोधन किया। और फिर संसाराशक्ति रूपी मटका फोड़कर, दामोदर लीला कर ,जीव के प्रेम- पाश में बंध गए।इसके बाद जीवो के अंतः करण शुद्धि के लिए -धनुकासुर, अघासुर आदि को मारकर, कालिया दमन से चित्त की असद वासनाओं का क्षय कर दिया । इसके बाद वेणुगीत से नादब्रह्म की उपासना पूरी कर, चीरहरण लीला से निरावरण कर दिया।गोवर्धन लीला से इंद्रियों को पुष्ट कर, वरुणलोक तथा वैकुंठलोक लीला से, ब्रह्म मिलन की उत्कंठा तीब्र करदी।अगली 14 पोस्टों में रासलीला है।
श्री रासलीला की तैयारी का प्रसंग चल रहा है।भगवान ने रासलीला के अनुकूल सारी पृष्ठभूमि तैयार कर ली। ब्राह्मणिंयाँ भी कृष्ण को भगवान मानकर उनकी पूजा के लिए दौड़ी आई, गोवर्धन उठाने से गोपों ने उनकी अलौकिकता स्वीकार की, इंद्र, कामधेनु, देवताओं, तथा वरुण ने उनका अभिषेक किया। इस प्रकार भगवान ने नंदबाबा, सारे बृजवासी,यज्ञ- ब्राह्मण, तथा देवता सब की अनुकूलता तथा सब पर अपना प्रभाव स्थापित कर दिया। अब दिव्य रहस्यमई रासलीला का कोई प्रतिबंधक नहीं रहा। रासलीला स्वरूप साक्षात्कार की लीला है।ब्रज में एक कहावत प्रसिद्ध है-" छठी भावना राशि की"। पहली पांच भावनाओं को क्रमशः पार कर लेने पर ही, रास दर्शन का अधिकार प्राप्त होता है।पांचवी भावना में देह सुधि भूल जाती है-" पाँचे भूले देह सुधि", अर्थात इस भावना में ब्राह्मीस्थिति हो जाती है।ऐसी स्थिति हुए बिना रासदर्शन का अधिकारी नहीं होता। अतः पूर्व में भगवान ने विविध लीलाओं- अघासुर वध, कालिया मर्दन, गोवर्धन धारण, तथा वरुणलोक के ईश्वर दर्शन से, ब्रज वासियों को पहली चार भावनाओं से ऊपर उठा दिया। ब्रह्महद में डुबकी लगवाकर निर्विशेष स्वरूप का दर्शन कराया, और फिर वैकुण्ठ लोक में ले जाकर, अपने सगुण स्वरूप का दर्शन भी कराया, जिससे पांचवी भावना की सिद्धि हो गई। चीरहरण लीला से, गोपियों का आवरंण भंगकर,वस्त्र के माध्यम से स्पर्शी दीक्षा भी दे दी। तब से भगवान के स्मरण में डूबी हुई गोपियां, भी रासलीला के लिये तैयार हैं ।
रासलीला प्रसंग। भगवान ने चीरहरण के समय, गोपियों को जिन रात्रियों (भागवत 10.22.27) का संकेत किया था,वे सब-की-सब पुंजीभूत होकर एक ही रात के रूप में, उल्लसित हो रही थी।भगवान ने उन्हें देखकर दिव्य बनाया । शरद पूर्णिमा में, चंद्रमा अपनी दिव्य किरणों से,बन की शोभा बढ़ा रहा था।भगवान ने बांसुरी पर, गोपियों के मन को हरण करने वाले काम बीज "क्लिं" की मधुर तान छोड़ दी। उसे सुनकर गोपियों के मन की सब वृत्तियां- भय,संकोच,धैर्य, मर्यादा आदि समाप्त हो गई, और वह घर-द्वार, सब-कुछ छोड़ कर, भगवान से मिलने के लिए दौड़ पड़ी।एक तरह से धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष सब का परित्याग कर दिया।सब ने अपने अपने कामकाज जहां-के-तहां छोड़ दिए,और श्री कृष्ण के पास पहुंच गई। जिन गोपियों को घर से निकलने का अवसर नहीं मिला,उन्हें श्रीकृष्ण के विरह जन्य तापसे, ऐसा दुख हुआ, कि उनके सब बंधन क्षींण हो गए, और उन्हें भगवान की प्राप्ति हो गई। जब भगवान ने देखा, कि सब-कुछ छोड़कर गोपियां, उनके पास आ गई, तो वह पूर्व मीमांसा की रीति से धर्म का प्रतिपादन करने लगे - तुम्हारा स्वागत है, पर इस समय भयंकर रात में घर छोड़कर बन में क्यों आई हो, आदि-आदि......। इस प्रकार से गोपियों के अभिमान का निशेष्य किया।
रासलीला प्रसंग।श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं,परीक्षित! गोपियां ,गोविंद की अप्रिय बातें सुनकर, विषाद ग्रस्त हो गई।उनकी आशा टूट गई, और वह चिंता ग्रस्त हो गई।फिर प्रणयकोप के कारण वे गदगद वाणी में उत्तर देने लगी।यह सारगर्भित प्रसंग, विस्तार भय से मोबाइल पोस्ट में देना संभव नहीं है।ग्रंथ में ही 10.29 .31 से 40 तक देखना चाहिए । सार बात यह है,कि गोपियां "स्वधर्में निधनं श्रेया:" के स्थान पर "सर्व धर्मान परित्यज्य" की अधिकारिणी हो गई। इसी से वे शास्त्रज्ञ- आज्ञा और भगवद-आज्ञा से भी ऊपर उठ गई।उन्होंने उपनिषद के आधार पर उत्तर मीमांसा के अनुसार, भगवान के पूर्व मीमांसा के सिद्धान्त का खंडन कर दिया। अंत में भगवान ने गोपियों के त्याग-वैराग्य को स्वीकार कर लिया,और आत्माराम होने पर भी उनके साथ रासलीला करने लगे।उन्होंने ऐसी व्यवस्था की,कि सब गोपियां एक साथ उनकी क्रीड़ा का स्वाद लें और अपनी कामनाओं की तुष्टि का अनुभव करें।भागवत 10.29. 46। क्रीडा करते-करते गोपियों को अहं हो गया,कि हमारे सौंदर्य-माधुरी की विशेषताओं पर श्री कृष्ण मुग्ध है। परमात्मा को छोड़कर अहं और इदं पर दृष्टि डालना भगवत प्रेम में बाधक है, ऐसे में भगवान का दिखना बंद हो जाता है ।अस्तु जब गोपियां अपने आप (अहम्) को देखने लगी, तब भगवान अंतर्धान हो गए।
रासलीला का प्रसंग चल रहा है।भगवान श्री कृष्ण के अंतर्धान होने पर, गोपियां व्याकुल होकर, पहले वृक्ष वनस्पतियों आदि से उनके बारे में पूछती हैं, फिर पागलों की तरह, श्रीकृष्ण की लीलाओं की नकल करने लगती हैं। कोई गोपी पूतना बन गई।कोई नन्हा सा बालक बनकर घुटनों के बल चलने लगी।एक गोपी ने कपड़े का गोवर्धन बनाकर,उठा लिया और बोली-आ जाओ इसके नीचे!एक गोपी ने, दूसरी गोपी के सिर पर पांव रख दिया, और बोली-अरे ओ कालिया ! भाग जा यहां से! एक गोपी ने दूसरी गोपी को उखल बना लिया,और उसमें कृष्ण बनी गोपी को बांध दिया।इस प्रकार गोपियां, श्री कृष्ण की अनेक लीलाओं में तन्मय हो गई । असली भक्तों के मन में, ईश्वर के संयोग की भावना से, सुख होता है,और वियोग की भावना से दुख होता है। ईश्वर के लिए उत्पन्न वियोग की पीड़ा से भक्त गोपियां विक्षिप्त हो रही है। श्री कृष्ण को ढूंढते-ढूंढते,अकस्मात उनके चरण दिखे, और उनके पास किसी गोपी के चरण चिन्ह भी।गोपियों के मन में, इन प्रेमी युगल के बारे में, जो विचित्र-विचित्र भाव बने, वे उन्हें प्रकट करती हैं। बाद में कुछ ऐसे चिन्ह दिखे, मानो भगवान उस गोपी को भी छोड़ कर चले गए हैं।अतः कुछ सखियां ढूंढती-ढूंढती उस तक पहुंच गई। अब गोपियों के मन में, भगवान के अंधेरे में छिपने के लिए भटकन से, होनेवाले कष्टों की कल्पना से व्यथा हुई। अतः वे सब खोज बंद कर, यमुना के तट पर बैठकर,हृदय के मधुर उद्गार प्रकट करने लगी।
अध्याय 29 व 30 में कही गई,रासलीला के आध्यात्मिक भाव पर,थोड़ा विचार कर लेना कर्तव्य है। वेदांत मार्ग में तो,साधक को साधना स्वयं करनी पड़ती है,किंतु शरणागत भक्त की साधना,तो भगवान स्वयं करते- करवाते हैं।सगुण के साथ जो संबंध होता है, वह भावनात्मक होता है;और निर्गुण के साथ तो ऐक्य होता है, वह बोधात्मक होता है। सामान्य जन के लिए, रास-पंचाध्यायी शंकाएं उत्पन्न करती है, विशेषकर श्लोक 10.29.46।किंतु जिन्हें साधना मार्ग का ज्ञान है- कि भगवान आत्माराम है,अपने आप में रमण करते हैं ,वे इस लीला को केवल गोपियों में दिव्यरस-संचार का निमित्त मात्र मानते हैं।नैसर्गिक रूप से, गोपियों के बाहु,ऊरु, तथा स्तन आदि में प्राकृत काम रहता ही है,और यहां तो कामदेव स्वयं भगवान से युद्ध के लिए,उन्हें दुर्ग बनाकर ,उनमें छुप कर बैठा है ।अतः भगवान ने पहले गोपांगनाओं के उन अंग रूपी दुर्गों को स्पर्श करके,कंदर्प को निकाला, और आनंदात्मक रस की स्थापना की।अब जब भगवान अंतर्धान हो गए,तो गोपियां वियोग के आनंद का अनुभव करने लगी। पारंपरिक साधना- विधि में, साधक को परम प्रेम तक पहुंचाने के लिए, पहले ब्रह्म के संस्पर्श का क्षणिक सुख देकर,वियोग कराया जाता है। गोपियों के अंतःकरण रूपी लाख को प्रणयाग्नि में पिघलाकर,जब काम, क्रोध,तथा लोभ आदि को निकाल दिया गया, तब उसमें श्याम रंग डालने से,अंतःकरण प्रियतम के रंग से रंग गया। परम भक्त नारद, अपनी आत्मकथा द्वारा,पहले ही भागवत 1.6. 22 व 23 में इस विधा को स्पष्ट कर चुके हैं।
अब गोपी गीत (10.31.1 से 19)का प्रसंग है। श्री कृष्ण की भावना में डूबी हुई गोपियां,यमुना जी के पावन पुलिन रमणरेती पर में लौट आई,और एक साथ मिलकर, श्री कृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। गोपी गीत को ,प्रणय गीत भी कहते हैं।जिसका अर्थ है -प्रणयन- गीत ,जो हृदय को भगवान के योग्य बना देता है। गीतका छंद, कनक- मंजरी है।कनक माने, धतूरा अथवा सोना।नशा केवल धतूरे में ही नहीं होता,सोने में भी होता है।जैसे धतूरे की मंजूरी खाने पर,नशा हो जाता है, वैसे ही, इस गीत के गाने से, मनुष्य का मन संसार से विरक्त होकर,भगवान के नशे में हो जाता है।पूरा आनंद लेने केलिए ग्रंथ देखना चाहिए।कुछ भाव दिए जा रहे हैं-गोपियां कहती हैं - प्यारे श्री कृष्ण !तुम्हारे प्रकट होने से ब्रज की महिमा बढी है।तुमने अनेक-अनेक भयों से हमारी रक्षा की है।लेकिन आज हमारा वध करने पर क्यों तुले हो?मरने के पहले तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूं।तुम साक्षात अंतर्यामी परमात्मा हो, अपने चरण- बिंदु से हमारा स्पर्श करो ! सिर पर हाथ रखो !अपने अधरामृत का पान कराओ! तुम्हारे बिना हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती ।तुम्हारी प्रेम भरी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मीठी-मीठी वाणी, हमें मुग्ध कर रही है। हमें दुख इस बात का है -कि तुम अंधेरे में छिप रहे हो, कहीं कांटा-कुश न लग जाए ।तुम ही हमारे जीवन हो, प्राण हो,ऐसा विलाप करते हुए, गोपियां फूट-फूट कर रोने लगी।तब श्रीकृष्ण प्रकट हो गए।
रासलीला का प्रसंग चल रहा है।श्री कृष्ण के प्रकट होने पर,गोपियों ने अपने प्रियतम का बड़ा भारी स्वागत किया।यमुना तट पर अपनी-अपनी ओढनी बिछा कर,आसन बनाया,और उस पर श्रीकृष्ण को बैठाया।फिर उनसे प्रेम संबंधी बातचीत करने लगी। जैसे विद्या-सीखने में जिज्ञासा का महत्व है,वैसे ही रस- विद्या में भी है।गोपियों ने पूछा - प्यारे श्याम सुंदर!कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वाले से प्रेम करते हैं-कुछ लोग ऐसे होते हैं,जो प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं- और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो दोनों से प्रेम नहीं करते, बताओ!इनमे श्रेष्ठतम कौन है? श्री कृष्ण ने उत्तर दिया -गोपियों!जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं,वे संसारी हैं, व्यापारी हैं। जो प्रेम न करने वाले से प्रेम करते हैं,वे होते हैं करुणा के वशीभूत माता-पिता और संत।दोनों से प्रेम न करने वाले चार प्रकार के होते हैं:- १आत्माराम,उनको पता ही नहीं होता, कि उनसे कौन प्रेम करता है -कौन नहीं करता २ दूसरे समाधि में रहने वाले होते हैं, जिनको सब में परमात्मा दिखता रहता है३तीसरे अग्य होते हैं,एक प्रकार से पागल ४चौथे भयंकर अपराधी, केवल स्वार्थी होते हैं । गोपियां एक दूसरे को प्रश्न भरी निगाह से देखती हुई, आपस में कहती हैं-हमारे ये श्यामसुंदर इनमें से कौन है? स्वयं ही व्यंग भरा उत्तर भी देती हैं- क्या यह चौथी प्रकार के भयंकर अपराधी हैं! जो हमारे प्रेम करने पर भी हम से प्रेम नहीं करते ?
भगवान और गोपियों के बीच प्रेमरस- विद्या के अंतर्गत बातचीत चल रही है।भगवान कहते हैं- गोपियों!हमारे बारे में कुछ निर्णय लेने के पहले,हमारी बात तो सुन लो! गोपियों !मैं ऐसा नहीं हूं,जैसा तुम समझती हो ।मैं प्रेम करने वालों से इसलिए प्रेम नहीं करता, जिससे उनका प्रेम, केवल बाहर-ही-बाहर न रहे किंतु,उनके हृदय में, रोम- रोम में व्याप्त होकर अंतरंग हो जाए। निर्धन व्यक्ति को,जब एकाएक धन मिल जाता है,तो वह अत्यंत प्रसन्न होता है।अब यदि उसका धन चला जाए, तो वह उसके लिए अत्यंत व्याकुल हो उठता है। उसी प्रकार मैं भक्तों से एक बार मिलकर,बिछुड़ जाता हूं, तो वह मेरे लिए व्याकुल होता है। जिससे उसका अंतःकरण शुद्ध होता है,और वह मुझे हृदय में स्थाईरूप से अनुभव करने लगता है। प्यारी गोपियों! तुमने मेरे लिए लोक छोड़ा, परलोक सुख छोड़ा, अपना सब कुछ छोड़कर,संत की तरह मुझ से प्रेम किया है।अतः तुम्हारे प्रेम को परिपक्व करने के लिए, तुमको वियोग दिया,क्योंकि बिना वियोग के संयोग की पुष्टि नहीं होती । रही बात मेरी, तो मैं तुम्हारा ऋणी हूं।गोपियों यदि मैं ब्रह्मा की तथा अपनी ईश्वरी-आयु द्वारा,अनंत काल तक भी, तुम लोगों के ऋण को उतारने का प्रयास करूं,तो भी उऋण नहीं हो सकता । श्रीकृष्ण के मुंह से ऐसा सुनने पर,उन लोगों की सारी विरह व्यथा दूर हो गई, और वे सब रास-नृत्य के योग्य हो गई।
अब महारास का प्रसंग है।देहाध्यास नष्ट होने पर ही,प्रभु की चिन्मयी लीला में प्रवेश मिलता है। श्रीकृष्ण स्वयं रस स्वरूप हैं।वियोगाग्नी में गोपियों के पंच भौतिक शरीर जल गए।अब ब्रह्मभूत हुई गोपियों का, रसात्मक परमात्मा से,प्रकट मिलन की लीला है । रास नृत्य आरंभ हुआ।ध्यान में रासलीला देखने की तीन प्रणाली मानी जाती हैं।पहली में:-एक श्री कृष्ण हैं, और सहस्त्रों गोपियां हैं।नटवर कृष्ण ऐसी स्फूर्ति से नृत्य करते हैं, कि सब गोपियों को, उनके सानिध्य का अनुभव होता है।दूसरी प्रणाली में:- दो-दो गोपियां हैं,और उनके मध्य एक-एक श्री कृष्ण हैं।प्रत्येक गोपी के कंधे पर उनका हाथ है।तीसरी प्रणाली के ध्यान में:- जितनी गोपियां है, उतने ही श्रीकृष्ण है,क्योंकि वह अपने योग बल से उतने ही रूप धारण कर लेते हैं। रासलीला आरंभ होते ही,आकाश देवताओं के विमानों से भर गया, रासलीला देखकर, देवताओं और उनकी पत्नियों के मन, अपहृत हो गए।पुष्प वर्षा होने लगी। गंधर्व गान करने लगे। नूपुर, किंकणी आदि के शब्द होने लगे। गोपियों के पास भगवान की बड़ी भारी शोभा हुई ,वैसे ही शोभा जैसे स्वर्ण मणियों के बीच में कोई स्यामंतक मणि हो।
महारास की कीड़ा चल रही है।यमुना जी की रमणरेती पर,व्रज सुंदरियों के साथ,भगवान श्री कृष्ण की बड़ी शोभा हो रही है । नृत्य के समय गोपियां तरह-तरह से ठुमक-ठुमक कर अपने पांव, कभी आगे बढ़ाती हैं, और कभी पीछे हटा लेती हैं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्कुराती हैं, तो कभी भौहें मटकाती हैं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी,मानव टूट गई हो। भागवत 10.33.8। झुकने, बैठने ,उठने और चलने की फुर्ती से,उनके स्तन हिल रहे थे, तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे।कानों के कुंडल हिल-हिल कर, कपोलों पर आ जाते थे।नाचने के परिश्रम मुंह पर पसीने की बूंदें झलकने लगी थी।केशों की चोटियां कुछ ढीली पड़ गई थी ,नीवी की गांठे खुली जा रही थी। इस प्रकार नटवर नंदलाल की परं प्रेयसी गोपियां,उनके साथ गा-गा कर नाच रही थी। एक गोपी नृत्य कर रही थी।नाचने के कारण उसके कुंडल हिल रहे थे,उनकी छटा से,उसके कपोल और भी चमक रहे थे।उसने अपने कपोलों को भगवान श्री कृष्ण के कपोल से सटा दिया,और भगवान ने उसके मुंह में अपना चबाया पान दे दिया।कोई गोपी नाचते-गाते बहुत थक गई, तब उसने अपने बगल में ही खड़े श्याम सुंदर के शीतल कर कमलों को अपने दोनों स्तनों पर रख लिया। भागवत 10.33 .14।
महारास का प्रकरण चल रहा है।शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मी जी से भी बढ़कर है।जैसे नन्हा सा शिशु,निर्विकार भाव से,अपनी परछाईं के साथ खेलता है,वैसे ही रमारमण भगवान,कभी गोपियों को अपने हृदय से लगाते हैं, कभी हाथ से उनके अंग स्पर्श करते,कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते,तो कभी लीला से उन्मुक्त हंसी हंसने लगते। भागवत 10.33 .17। भगवान के अंगो का संस्पर्श प्राप्त करके,गोपियों की इंद्रियां,प्रेम और आनंद से विह्वल हो उठीं।उनके केश बिखर गए।फूलों के हार टूट गए और गहने अस्त-व्यस्त हो गए।भगवान श्री कृष्ण की रासलीला देखकर,स्वर्ग की देवांगनाएँ भी,मिलन की कामना से मोहित हो गई,और समस्त तारों के साथ चंद्रमा चकित-विस्मित हो गया। जब बहुत देर तक,गान और नृत्य आदि विहार करने के कारण, गोपियां थक गई, तब करुणामय भगवान श्री कृष्ण ने, बड़े प्रेम से स्वयं अपने सुखद कर कमलों के द्वारा उनके मुंह पोंछे।भगवान के कर कमलों और नख स्पर्श से, गोपियों को बड़ा आनंद हुआ।उन्होंने प्रेम भरी चितवन और मुस्कान से, श्री कृष्ण का सम्मान किया,और प्रभु की परम पवित्र लीलाओं का गान करने लगीं। भागवत 10 .33.22।
महारास का प्रकरण चल रहा है।नृत्य करने के बाद,जैसे थका हुआ गजराज, किनारों को तोड़ता हुआ,हथिनियों के साथ,जल में घुसकर क्रीड़ा करता है, वैसे ही भगवान ने अपनी थकान दूर करने के लिए,गोपियों के साथ जल क्रीड़ा करने के उद्देश्य से, यमुना के जल में प्रवेश किया। यमुना जल में,गोपियों ने प्रेम भरी चितवन से, भगवान की ओर देख-देख कर,तथा हंस-हंसकर,उन पर इधर-उधर से जल की खूब बौछारें डालीं। विमानों पर चढ़े हुए देवता, पुष्पों की वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे।इस प्रकार यमुना जल में स्वयं आत्माराम भगवान ने जलविहार किया । इसके बाद भगवान, ब्रज युवतियों और भौरों की भीड़ से घिरे हुए,यमुना तट के उपवन में गए। वह बड़ा रमणीक था।उसमें सुंदर सुगंध वाले फूल खिले थे और उनकी सुबास लेकर मंद-मंद वायु चल रही थी । परीक्षित ! शरद कि वह रात्रि, जिस के रूप में अनेक रात्रियां( छह मास) पूंजी भूत हो गई थी,बहुत सुंदर थी। राम जन्मोत्सव के समय भी ,एक दिन -"मास दिवस का दिवस भा.......( मानस 1.195 )"बड़ा हो गया था,अतः इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। काव्य में शरद ऋतु की जिन रस-सामग्रियों का वर्णन मिलता है,उन सभी से वह युक्त थी। उसमें भगवान श्री कृष्ण ने अपनी प्रेयसी गोपियों के साथ, यमुना के पुलिन और उनके उपवन में विहार किया।यह बात स्मरण रखनी चाहिए, कि भगवान सत्य संकल्प है, यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मय लीला है। भागवत 10.33.26 ।
महारास प्रकरण चल रहा है।महारास की दिव्य ब्रह्मरात बीत गई,और ब्रह्ममुहूर्त आ गया ।भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा से, सब गोपियां अपने-अपने घर लौट गई ।बृजवासी गोपों ने भगवान में, तनिक भी दोष बुद्धि नहीं कि। वह भगवान की योग माया से मोहित होकर, ऐसा समझ रहे थे,कि हमारी पत्नियां हमारे पास हैं। रासलीला,दिव्य आनंदमय ,रसमय राज्य की चमत्कारी लीला है,जिसे अधिकारी भक्त ही समझते हैं। फिर भी राजा परीक्षित ने, हम लोगों की शंका समाधान के लिए कुछ प्रश्न किए हैं, उनका उत्तर अध्याय 29 के श्लोक 13 से 16 तक और अध्याय 33 में श्लोक 30 से 37 तक श्री शुकदेव जी ने दिया है।शंकालुओं को उन्हें ग्रंथ में देखना चाहिए ।10.33. 39। मुख्य बात यह है-कि जैसे, मानव-धर्म,देव-धर्म और पशु-धर्म पृथक-पृथक होते हैं ,वैसे ही भगवत-धर्म भी बिल्कुल पृथक होता है। भगवान के चरित्र का परीक्षण उनकी ही धर्म-कसौटी पर होना चाहिए। भगवान का एकमात्र धर्म है- प्रेम परवशता, दया परवशता, और भक्तों की अभिलाषा की पूर्ति। मनुष्य में भागवत-धर्म पालन करने का सामर्थ्य नहीं होता,अतः यदि भूलवश भी, किसी मनुष्य को इस लीला का अनुकरण नहीं करना चाहिए। यदि शंकर जी के अतिरिक्त अन्य कोई, विषपान करेगा तो वह मर जाएगा।
भक्तों को महारास का प्रयोजन स्पष्ट रहना चाहिए।यह कोई स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं है।यह जीव और ईश्वर का मिलन है, ब्रह्म का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है।सारी कीड़ा बिंब-प्रतिबिंब-न्याय से हो रही है।यहां काम की तो कोई गंध ही नहीं है।यह तो इंद्रियों द्वारा भगवत रसपान करने की,अद्भुत लीला है। रासलीला में--वृंदावन, पुष्प,शरदरात्रि,मन आदि कुछ भी प्राकृत नहीं है।श्री कृष्ण योगेश्वरेश्वर हैं,आत्माराम है। जैसे कोई बालक अपने प्रतिबिंब से कीड़ा कर रहा हो, वैसे ही स्वयं में स्वयं से स्वयं क्रीड़ा कर रहे हैं।चाहे जलविहार हो,वनविहार हो,स्थलबिहार हो,सब श्री कृष्ण का अपना स्वरूप है।अतः इस लीला का प्रयोजन श्रवण- कथन के द्वारा काम निवृत्ति में है। सबको संसार की ओर से आकृष्ट करके,अपने प्रेम में मग्न करने के लिए ही,भगवान का अवतार होता है, इसलिए यदि जीवन मुक्त से लेकर,कामी से कामी जीव उनकी ओर आकृष्ट न हो जाए,तो उनकी लीला का रस- रहस्य क्या रहेगा ? अंत में श्री शुकदेव जी,रासलीला की फलश्रुति कहते हैं- कि जो ब्रज-बधुओं के साथ, श्री कृष्ण की इस क्रीड़ा का श्रवण-वर्णन श्रद्धा पूर्वक करता है,इसको सत्य समझ कर, आस्तिक्य बुद्धि से ग्रहण करता है,उसकी कामाक्रान्त वृत्ति का, निवारण हो जाता है,और उसे परा भक्ति की प्राप्ति होती है। भागवत 10.33. 40।जिज्ञासु भक्त को 15 पोस्टों में वर्णित,पूरी रासलीला प्रसंग मूलग्रंथ के साथ-साथ पढ़ना चाहिए।
रास-पंचाध्यायी एक अलौकिक लीला है,जो नंद बाबा के ब्रह्मदर्शन (अध्याय 10.28) तथा अजगर द्वारा गृहीत नंदबाबा की मुक्ति-लीला (अध्याय 10.34) के बीच संपुटित है। हुआ यह की शिवरात्रि के अवसर पर नंदबाबा ,ग्वाल बाल व गोपियाँ, अवंती देवी के दर्शन और पशुपति नाथ की पूजा के लिए अंबिका बन गए।रात में सब लोग सरस्वती नदी के तट पर रहे।वहां एक बहुत बड़ा अजगर रहता था। उसने सोते हुए नंद बाबा को पकड़ लिया, उन्होंने बचाव के लिए कृष्ण की गुहार लगाई।सभी गोप लाठी-डंडे तथा लुकाठी आदि से अजगर को मारें, लेकिन उसने नंद बाबा को नहीं छोड़ा। भगवान श्री कृष्ण ने आकर जैसे ही उसके चरण छुआया, वैसे ही वह तेज युक्त विद्याधर रूप में प्रकट हुआ।उसने बताया कि वह सुदर्शन नामक विद्याधर है। अंगिरा ऋषि के शापवश मुझे यह अजगर शरीर मिल गया था।उनकी अनुग्रह के फलस्वरूप मुझे आपके चरणों का स्पर्श मिल गया।उसने भगवान की वंदना और परिक्रमा किया तथा अपने लोक को चला गया। इसके बाद शंखचूड़ नामक यक्ष के वध की कथा है। एक बार श्री कृष्ण और बलराम,गोपियों के साथ बिहार कर रहे थे।इसको बसंत ऋतु की रास बोलते हैं। सुंदर रात में चांदनी छिटकी हुई थी।कुबेर का अनुचर शंखचूड़ नामक यक्ष आया,और गोपियों को लेकर भागा। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा कर,एक घूंसे से ही उसकी सिर गर्दन से अलग कर दिया,उसका चूड़ामणि निकालकर बलराम जी को दे दिया।
भक्तों की रहनी -संयोग अथवा वियोग में कैसी होनी चाहिए,यह गोपियों के चरित्र से सीखा जा सकता है।गोपियां रात में तो श्रीकृष्ण के साथ नाचती- गाती रहती हैं और दिन में जब भगवान गोपियों को छोड़कर वन में चले जाते हैं,तब उनके आचरण का वर्णन- श्रवण कर उनका स्मरण करती हैं।गोपियों की परस्पर जो बातचीत होती है,वह 35 वें अध्याय में 25 श्लोकों में दी गई है;जिसे युगल-गीत कहते हैं । जब श्री कृष्ण वन में चले जाते हैं,तब गोपियों का चित्त भी उनके साथ चला जाता है,और वह वाणी से उनकी लीलाओं का वर्णन करती हैं।यह ध्यान की लीला है, ऐतिहासिक अनुसंधान कि नहीं।आज भी भक्त भाव राज्य में तदाकार चित्तवृत्ति कर,लीला का रसास्वादन कर सकते हैं।उनकी बातचीत का वर्णन इस प्रकार है :- जब श्री कृष्ण वंशी बजाकर, गिरिराज की तलहटी में चरती गायों को बुलाते हैं, तब बन की लताएं और वृक्ष, फल-फूलों से लद जाते हैं।एक प्रकार से कहते हैं-कि ये साक्षात विष्णु हैं, और हमारे हृदय में विराजते हैं।वे मधुधारा का क्षरण करने लगते हैं। गोपियां कहती हैं- कि हम सब तो उनकी चलन, चितवन,और वंशीध्वनि से, बिल्कुल वृक्ष की तरह स्तब्ध हो जाती हैं।हमें अपने शरीर तथा वस्त्रों का भी स्मरण नहीं रहता । अरी सखियों,देखो ! वे आ रहे हैं।उनकी आंखें मद विघूर्णित हैं, वे सुहृदों को आनंद दे रहे हैं। वह संध्या समय मुस्कराते हुए आ रहे हैं, जिससे ब्रज की गाओं का ताप दूर हो।हम भी ब्रज की गौएँ ही हैं,अब हमारा ताप भी दूर करेंगे ।
अब अरिष्ठासुर के उद्धार की कथा है।वह वृषभ का रूप धारण करके आया।वैसे वृषभ धर्म का प्रतीक है,धर्म मनुष्य की कामना पूर्ति के लिए होता है, परंतु जब उसमें असुर भाव का आवेश हो जाता है,तब वह भगवान व भक्तों को मारने को तैयार हो जाता है । तो अरिष्ट नाम का असुर( असुराक्रांत धर्म)वृषभ बनकर आया। वह जोर-जोर से दहाड़े और खुर से मिट्टी पीछे फेंके।वह समस्त सनातन मर्यादाओं को तोड़ता हुआ आया।उसकी भयंकर आवाज से, स्त्रियों का गर्भस्त्राव होने लगे।सारे गोपी-गोप त्रस्त होकर भगवान की शरण आए।भगवान सामने आए ,उसको पीछे ढकेला,और अंततोगत्वा उसका वध कर दिया । श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं- परीक्षित ! तुम जानते हो कि नारद जी भगवत परायण हैं, और जीवों के कल्याण के लिए भगवान की योजनाओं को,व्यवहारिक जामा पहनाते रहते हैं।अरिष्ठासुर के बध-उपरांत,वे कंस के पास पहुंच गए और उससे कहा- कि जो कन्या तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी, वह नंद-यशोदा की कन्या थी।वसुदेव देवकी के पुत्र तो बलराम-कृष्ण हैं, उन्होंने ही असुरों का वध किया है।यह कहकर नारद जी चले गए । इसके बाद कंस ने देवकी- वसुदेव को तो हथकड़ी- बेड़ी लगाकर ,जेल में डाल दिया, और केशी को बुलाया और कहा, कि तुम ब्रज जाकर कृष्ण-बलराम को मार डालो।
केशी असुर का उद्धार।जब लोग शास्त्र के अर्थ में परिवर्तन करने लगते हैं, जो शास्त्र में असुर का प्रवेश हो जाता है,वही असुराक्रांत शास्त्र केशी है।वह पृथ्वी को क्षत-विक्षप्त करता हुआ ब्रज पहुंचा।उसने अपनी हिनहिनाहट से सब को भयभीत कर दिया। वह अपने वेग से,बादलों को छिन्न-भिन्न करता हुआ, सिंह के समान गर्जना करने लगा । भगवान सामने आकर, पैर पकड़ कर दूर फेंक दिया। जब उठ कर फिर लड़ने आया, तो भगवान ने उसके मुंह में अपनी बाहँ घुसेड़ दी। उसके दांत टूट गए और प्राणवायु रुकने से केशी का शरीर फट गया।देवता लोग भगवान पर पुष्प वर्षा करने लगे । इधर कंस ने मुसष्टिका, चाणूर, शल आदि को बुलाया, आमत्यों और हस्तियों को भी बुलाया और बोला -कि हमारे दुश्मन का पता लग गया है, वह नंद के यहां है ।हमने यहां एक दंगल व धनुषयज्ञ का आयोजन किया है, उसमें नागरिकों और जनपदके, शहरी और देहाती सब लोगों को बुलाओ, कुबलयापीड़ हाथी को दरवाजे पर खड़ा कर दो,उसी के द्वारा हमारे शत्रु को मरवाओ। इसके बाद कंस ने अक्रूर जी को बुलवाया। मित्रता का भाव दर्शाते हुए उनसे कहा, कि तुम ब्रज में जाओ, और वहां से मेरे शत्रु बलराम- कृष्ण को मथुरा बुला लाओ।मैं उनको कुवलयापीड़ से अथवा चाणूर-मुष्टिक से मरवा डालना चाहता हूं।कंस ने अक्रूर जी तथा मंत्रियों को विदा किया,और अपने महल चला गया।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित ,कंस को समझा-बुझाकर ,नारद श्री कृष्ण जी के पास आ गए,और एकांत में अद्भुत कर्म करता भगवान की स्तुति की। उसी में स्तुति के बहाने भगवान को भावी ईश्वरीय कार्यों की याद दिला दी । आप अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर,मुष्टिक, कंस आदि को मरते देखना चाहते हैं। उसके बाद आप बड़ी बड़ी लीलाएं करेंगे।शाल्व, कालयवन, मुर और नरकासुर को मारेंगे।स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाएंगे, वीर कन्याओं से विवाह करेंगे और द्वारिका में निवास करेंगे। भार्या सहित स्मन्तक मणि लाएंगे ब्राह्मण के मृत पुत्र को लाकर देंगे,पौण्ड्रक को मारेंगे तथा दंतवत्र का उद्धार करेंगे।आप यज्ञ में शिशुपाल का वध करेंगे आदि आदि । इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए काल रूप होकर अर्जुन के सारथी बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संघार करेंगे।प्रभु और विशुद्ध विज्ञान घन हैं आप के स्वरूप में और किसी का अस्तित्व ही नहीं है।नारद इस प्रकार स्तुति करके और उनकी अनुज्ञा लेकर, चले गए । इधर भगवान नित्य की तरह, गाय चराने के लिए वन में जाने लगे। भगवान बिल्कुल सहज हैं। और वह ग्वालवालों के साथ आनंदमई क्रीड़ाओं में व्यस्त हैं।एक दिन ग्वालबालक का वेश बनाकर माया पुत्र,व्योमासुर आया, जो आध्यात्मिक दृष्टि से असुर अक्रांत समाधि अर्थात जड़ता में,शून्य में समाधि का रूप है।वह खेल खेल में ग्वाल बालों को चुरा कर बेहोश कर गुफा में छिपाने लगा।भगवान को उसकी करतूत समझ में आई, और उसका गला घोंट कर मार डाला भागवत10. 37.33।
भगवान ने ब्रज छोड़ने के पहले,तीन असुरों- केशी,वृषभासुर तथा व्योमासुर को क्यों मारा? इसका आध्यात्मिक भाव समझ लेना कर्तव्य है।भगवान जानते हैं,कि मथुरा छोड़ने के बाद ब्रज वासियों को वियोग दुख सहना पड़ेगा।ऐसे में,उन्हें असुरभाव वाले भक्ति के नाम पर बहकाकर,भक्त विरोधी साधन में फंसा सकते हैं।उसका निवारण करने के लिए यह लीला की। केशी - हयग्रीव दैत्य का दूसरा रूप है।इसने पहले वेद की चोरी की थी, हिनहिनाहट में वेद को छिपा चुका है। यह वेद के नाम पर,भक्ति-विरोधी असुरभाव का विस्तार कर सकता था, अतः मारना पड़ा। बृषभ धर्म का रूप होता है।भक्त उसके लुभावने रूप में फंस सकता है।भगवान विरोधी,भक्ति विरोधी धर्माभास में असुर का निवास होता है।वही वृषभासुर के रूप में आया,और भगवान ने उसका नाश कर दिया। तीसरा असुर,व्योमासुर योगाभ्यास रूप धारण कर आता है।जो भक्तों को हृदयाकाश रूप समाधि-गुहा में प्रतिष्ठित करा देता है, जिससे आभासमय आत्मज्ञान (विवेक ख्याति) का भ्रम हो जाता है और वह भक्त,बोध व भगवत प्रेम से विमुख हो जाता है। वर्तमान में इस योग- रोग का बहुत प्रचार-प्रसार है।अतः भगवान ने व्योमासुर का गला घोट कर उसे मार दिया । स्पष्ट है कि पहली दो असुरी बृत्तियाँ वहिर्मुखता के द्वारा, एवं अंतिम अंतर्मुखता के द्वारा, भगवान से विमुख करती है।भगवान ने ब्रजवासियों को पाखंड में न फंसने का उपाय कर दिया। आजकल धर्म के नाम पर पाखंड फैला हुआ है,अतः साधकों के लिए यह पोस्ट महत्वपूर्ण है।
अब अक्रूर जी की ब्रज गमन की कथा है।अक्रूर सदगुण-संपन्न, भगवत- भक्त एवं श्री कृष्ण के विश्वासपात्र हैं।वे वसुदेव जी के चचेरे भाई हैं।भगवान की प्रेरणा से ही नीतिनिपुण कंस ने उन्हें ब्रज भेजा है।ब्रज की ओर मुंह करते ही,उनके ह्रदय में स्थित भक्ति का,समुद्र उमड़ पड़ा।वे मनो राज्य में मग्न हो गए।मार्ग में अक्रूर की जो मन: स्थिति रही, श्री शुकदेव जी ने उसको जीवन की सफलता कहा है। अक्रूर जी सोच रहे हैं - आज मैं भगवान के उन चरणकमलों का प्रत्यक्ष दर्शन करके,नमस्कार करूंगा, जिनका बड़े-बड़े योगी केवल ध्यान करते हैं।जिनके नख मंडल की क्रांति से बड़े-बड़े महात्मा तर गए।जिन चरणों की उपासना ब्रह्मा,शंकर और अन्य देवता व श्रीदेवी करती हैं,उन चरणों को आज मैं देखूंगा। आज मैं देखूंगा भगवान का सुंदर कपोल, नाशिका युक्त मुखारविंद, जिसमें मुस्कान है,प्रेम भरी चितवन है,घुंघराले बाल लटक रहे हैं,और उसमें लाल कमल के सदृश आंखें हैं। अक्रूर जी मथुरा से चले सवेरे और ब्रज में पहुंचे शाम को। वायुवेग से चलने वाले रथ को ठीक से हांकने की ओर ध्यान ही नहीं गया। ब्रज पहुंचते ही अक्रूर को, बलराम -कृष्ण के गो- दोहन स्थल पर ही दर्शन हो गए।अक्रूर जी अपने मनो राज्य के अनुसार, रथ से कूद पड़े और रामकृष्ण के चरणों में, धरती पर लोटपोट हो गए। उनके आंखों में आंसू आ गए।उनका शरीर रोमांचित और हृदय प्रेम से गदगद हो गया।अनन्य प्रेमरस की अनुभूति हुई।
दंडवत करते देख.श्री कृष्ण ने अक्रूर को उठाकर,हृदय से लगा लिया।बलराम जी ने भी उनको गले से लगाया,और दोनों भाई,उनकी दोनों हाथ पकड़कर, उन्हें घर ले गए । घर पर नंदबाबा ने अक्रूर का बड़ा भारी स्वागत किया। कुशल-मंगल के पश्चात,शास्त्र विधि से,उनके सामने एक गाय लाकर खड़ी की गई।अतिथि सत्कार में गाय का निवेदन आवश्यक है।इसके बाद अक्रूर के पैर दबा कर उनकी थकावट दूर की गई,और उनको सुस्वाद भोजन कराया गया।भागवत 10.38.39। इस प्रकार सेवा- सत्कार के पश्चात जब सब लोग इधर-उधर हो गए, तब राम-कृष्ण अक्रूर के पास गए। अक्रूर ने उनको मथुरा की सब कथा कह सुनाई,और कंस की गुप्त योजना भी बता दी। रामकृष्ण हंसने लगे, फिर बोले कि यह बातें अन्य लोगों को मालूम न हो,आप तो यही कहिए कि मथुरा में धनुष यज्ञ हो रहा है,और बड़ा भारी दंगल होने वाला है।उसको देखने के लिए कंस ने आप सब को आमंत्रित किया है। नंदबाबा ने डुग्गी पिटवा कर सारे गांव को सूचना दे दी, और कहला दिया कि कल प्रातः दूध-दही लेकर मथुरा चलना है । जब गोपियों ने राम-कृष्ण के मथुरा जाने की बात सुनी, तब वे वियोग की कल्पना से विव्हल हो गई।उन्होंने कहा,विधाता हम जानते हैं,कि जो कुछ हो रहा है,इसमें अक्रूर का कोई दोष नहीं है।यह तो केवल तुम्हारी क्रूरता है। तुम ही अपनी दी हुई आंखें, हमसे छीन रहे हो! तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए!भागवत 10.39.21 गोपियां व्याकुल हो गई -" हे गोविंद हे, दामोदर,हे माधव" पुकार- पुकार रोने लगीं। रोते-रोते सारी रात बीत गई।
ब्रजलीला को विराम देने का समय आ गया।दूसरे दिन प्रात काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर, अक्रूर जी ने अपना रथ तैयार कर दिया। राम-कृष्ण, यशोदा मैया तथा गोपियों को ,विरहाकुल दशा में रोती बिलखती छोड़कर,रथ में ऐसा बैठ गए,जैसे कोई तमाशा देखने जा रहे हो।रथ के पीछे नंदबाबा तथा गोप भी अपने-अपने छकड़ों पर दूध दही आदि लादकर,चलपड़े। यह लोग सीधे मथुरा की ओर गए, और रथ यमुना तट की ओर मुड़ गया। मार्ग में अक्रूर जी को आत्म ग्लानि हुई ,कि वह बालकों को हत्यारे कंस के पास ले जा रहे हैं।भगवान उनके मनोभावों को जान गए।अतः जब अक्रूर जी ने स्नान के लिए यमुना जी में डुबकी लगाई,तब उनको अपने शेषषायी नारायण स्वरूप का दर्शन करा दिया। अक्रूर ने उनकी स्तुति की। मैं तो माया मोहित हूं ,सभी शास्त्र आपकी आराधना के लिए हैं,आपने अनेक अवतार धारण किए हैं आदि-आदि । जब स्नानादि से निवृत्त हो, राम-कृष्ण रथ द्वारा मथुरा पहुंचे,तब उन्होंने देखा-नंदबाबा और गोप पहले ही पहुंचकर,अपना डेरा लगा चुके हैं।श्री कृष्ण ने अक्रूर जी से कहा,चाचा जी! आप अपने घर जाएं।अक्रूर जी उन्हें अपने घर ले जाना चाहते थे,लेकिन कृष्ण के मना करने पर,अनमने होकर चले गए। उन्होंने कंस को बलराम- कृष्ण के मथुरा आने का समाचार सुना दिया।भागवत 10.41.18 ।
श्री कृष्ण की मथुरा लीला प्रारंभ होते समय,आयु 11 वर्ष की है।श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित !भगवान श्री कृष्ण, बलराम जी और ग्वाल वालों के साथ तीसरे पहर मथुरा में प्रविष्ट हुए। भागवत 10. 41.24।मथुरा उस समय एक आदर्श नगरी के रूप में प्रतिष्ठित थी, उसे ग्रंथ में देखना चाहिए । नगर की नारियां बड़ी उत्सुकता से, उन्हें देखने के लिए, झटपट अटारियों पर चढ़ गई।मथुरा की स्त्रियां बहुत दिनों से भगवान श्री कृष्ण की अद्भुत लीलाएं सुनती आ रही थी ,आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान ने भी अपनी प्रेम भरी चितवन, और मुस्कान की सुधा से, सींचकर उनका सम्मान किया। ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों ने, स्थान- स्थान पर दही, अक्षत, जल से भरे पात्र, फूलों, चंदन आदि से दोनों भाइयों की पूजा की। 10.41. 30। इतने में राजा के कपड़े धोने का ठेकेदार धोबी मिला। मांगने पर भी वस्त्र न देने पर, और अपमानजनक बातें कहने पर,भगवान ने एक चांटे से ही उसका काम तमाम कर दिया,और उसके साथी भाग गए। बलराम ,कृष्ण और ग्वालवाले शहरी कपड़े पहने, तो फिट न आवें। इतने में स्वयं एक दर्जी ने आकर कपड़ों को काट-कूटकर सबके पहनने योग्य बना दिया।भगवान ने उसे लक्ष्मी का दान दिया।इसके बाद भगवान सुदामा माली के घर में स्वयं घुस गए।उसने पूजा की और सबका फूलों से श्रृंगार किया। सेवा के बदले भक्ति मिली,और साथ में भौतिक संपत्ति भी ।
भगवान कृष्ण की मथुरा-दर्शन लीला चल रही है। सुदामा माली के घर से निकल कर,जैसे ही भगवान आगे बढ़े, तो कुब्जा मिली,जो चंदन आदि लेकर कंस की सेवा करने जा रही थी।उसका मुंह तो सुंदर था, परंतु शरीर से कुबड़ी थी।कुब्जा पर कृपा करने के लिए भगवान ने कहा!सुंदरी तुम कौन हो?या उत्तम चंदन अंगराग मुझे भी दे दो!उसने कहा, मेरा नाम त्रिबक्रा है।मैं भोजराज कंस के लिए इसे ले जा रही हूं।श्री कृष्ण के सौंदर्य से प्रभावित हो,उसने दोनों भाइयों को अंगराग दे दिया। भगवान ने कुब्जा को सीधी करने की सोची,और अपने चरणों से कुब्जा के पंजों को दबाया और ठोड़ी पकड़ कर उसे सीधी कर दिया। भगवान के स्पर्श से वह तत्काल विशाल नितंब तथा पीन पयोधर से युक्त, एक युवती बन गई।कुब्जा ने सबके सामने ही, कृष्ण का उत्तरीय पकड़ लिया,और बोली, आइए घर चलें! अब मैं आपको यहां नहीं छोड़ सकती!पुरुषोत्तम,आप मुझ दासी पर प्रसन्न होइए ।10.42.10।भगवान ने हंसते हुए मीठी- मीठी बातें कर,आश्वासन देकर, जान छुड़ाई । इसके बाद श्री कृष्ण और बलराम जी धनुषयज्ञ स्थल पर पहुंच गए, और खेल खेल में धनुष तोड़ दिया,जिसके भयंकर शब्द से मथुरा नगरी गूंज गई। दोनों भाइयों ने टूटे हुए धनुष का एक-एक टुकड़ा लिया, और 14000 रक्षकों को मार दिया ।यह सुनकर कंस का दिल धड़कने लगा ,और उसे अनेक अपशकुन होने लगे। रात होते-होते राम-कृष्ण, नंदबाबा के पास डेरे में चले आए,क्षीर आदि पदार्थों का भोजन किया, और रात्रि में निर्भय होकर शयन किया।
कंस का उद्धार।दूसरे दिन कंस की योजना अनुसार,रंगभूमि की खूब सजावट हुई।राजे तथा अन्य सब लोग यथा स्थान बैठ गए।कंस भी राजमंच पर आकर बैठ गया।कंस ने नंदबाबा आदि को बुलवाया,और वे सब लोग भी मंच पर यथा स्थान बैठ गए। दंगल प्रारंभ होने के नगाड़े बजने लगे,तब बलराम- श्रीकृष्ण भी रंग द्वार पर पहुंच गए।द्वार पर,धरती को हिला देने वाला,कुबलयापीड़ हाथी राह छेंक कर खड़ा था। श्रीकृष्ण ने हाथी को मार दिया।हाथी का दांत निकालकर एक अपने पास रख लिया,और दूसरा बलराम जी को दे दिया,और उसी वेश में शरीर पर पड़े हुए खून के छींटों सहित,रंग स्थल के भीतर घुस गये। वहां रंग स्थल में जितने भी स्त्री-पुरुष थे,सब ने अपनी- अपनी भावना के अनुसार,बलराम जी और श्री कृष्ण के दर्शन किए। उसके बाद मलयुद्ध प्रारंभ हुआ, और उसमें चाणूर, मुष्टिक आदि सभी मारे गए।मथुरा के लोग,श्री कृष्ण का शौर्य देखकर मुग्ध हो गये।लेकिन कंस जो अपने सामंतों के साथ बड़े ऊंचे आसन पर बैठा था, क्रुद्ध होकर बड़बड़ाने लगा-पकड़ो!इन दोनों बालकों को मार डालो । इतने में श्रीकृष्ण उछलकर उसके मंच पर चढ़ गए।कंस खड़ा हुआ और उसने अपनी तलवार निकाल ली,लेकिन श्रीकृष्ण ने उसकी चोटी पकड़ ली, और धक्का देकर मंच से गिराया, और साथ-साथ कूदकर उसकी छाती पर चढ़ गए।बिना किसी प्रहार के, डर के मारे,उसकी हृदय गति रुक गई, और वह श्रीकृष्ण को प्राप्त हो गया ।भागवत 10. 44.39 ।
उग्रसेन का राज्याभिषेक। कंस के न रहने पर उसके भाई-बंधुओं ने संघर्ष करने का प्रयास किया,परंतु बलराम जी ने सब को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। भगवान विलखती मामियों के पास गए,उनको समझाया- बुझाया,और कंस की अंत्येष्टि क्रिया करवाई । इसके बाद भगवान जेल पहुंचकर,अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से मुक्त करवाया,और उनके चरणों में अपना सिर रखा।माता-पिता को उनके चतुर्भुज रूप का स्मरण हो आया,अतः उन्होंने बलराम श्रीकृष्ण को गले से नहीं लगाया। भगवान ने अपनी माया को प्रेरा,और बोले माताजी! पिताजी !हमसे बड़ा अपराध हो गया ,जो हमने आपकी सेवा नहीं की।जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा नहीं करता,वह कभी कल्याण भजन नहीं हो सकता। वसुदेव-देवकी का हृदय भर गया और पुत्रभाव उत्पन्न हो गया।उन्होंने बलराम-कृष्ण को अपनी गोद में बैठा लिया,और अपने आंसुओं से उनका अभिषेक करने लगे। प्रेम विव्हल होने के कारण उनका गला रूंध गया,और वे कुछ बोल नहीं सके । इसके बाद श्री कृष्ण ने, उग्रसेन को जेल से छुड़ाया और उन्हें फिर से राजा बनाया। उग्रसेन का राज्य पुनः स्थापित होने से मथुरा के लोग प्रसन्न और सुखी हो गए। मथुरा में सभी सौंदर्य माधुर्य प्रगट हो गए, चारों ओर श्री समृद्धि छा गई ।भागवत 10.45.19 ।
नंदबाबा का ब्रज लौटने का प्रसंग।श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!अब श्री कृष्ण और बलराम दोनों ही नंद बाबा के पास आए,और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे- पिता जी आपने और मां यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से,हमारा लालन-पालन किया है। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण त्याग हो जाता है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान प्यार से पालते हैं,वही वास्तव में उनके मां-बाप हैं। पिताजी अब आप लोग ब्रज को जाइए।इसमें संदेह नहीं है कि हमारे बिना,वात्सल्य-स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुख होगा।लेकिन कर्तव्यवश हमें यहां रुकना पड़ेगा।यहां के सुहृद संबंधियों को सुखी करके, हम आप लोगों से मिलने के लिए आएंगे। भगवान ने नंदबाबा और ब्रजवासियों को बड़ी सांत्वना दी,और भांति-भांति की वस्तुओं का उपहार देकर, बड़ा आदर सत्कार किया । भगवान की बात सुनकर नंदबाबा,प्रेम से अधीर होकर, दोनों भाइयों को गले लगा लिया।और फिर नेत्रों में आंसू भरकर गोपों के साथ ब्रज के लिए प्रस्थान किया । इसके बाद ब्रज पहुंचने पर क्या हुआ- यशोदा मां व गोपियों पर क्या बीती, इस पर श्री शुकदेव जी महाराज ने सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा है। मौन कृपा के अधीन रहकर ही ,"उसे "हम सब अनुभव कर सकते हैं ।
लोकशिक्षा के लिए भगवान का द्विजत्व संस्कार और शिक्षा-दीक्षा हुई। जब वसुदेव जी सामान्य हुए, तो उन्होंने अपने बेटों का,गर्गाचार्य जी से विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार करवाया।और उसके बाद वसुदेव जी ने बलराम-कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा के लिए संदीपनी मुनि के आश्रम उज्जैन भेज दिया । जब राम-कृष्ण गुरु आश्रम आए,तो गुरु जी ने सब विद्या पढ़ायीं -वेद,धर्मशास्त्र,मीमांसा,तर्क विद्या और षडंविधि राजनीति -सब का उपदेश किया।रामकृष्ण तो संपूर्ण विद्याओं के प्रवर्तक हैं,इसलिए उन्होंने 64 दिन-रात में 64 कलाओं को ग्रहण कर लिया।64 कलाओं के नाम गूगल में देखे जा सकतें है। घर लौटने के समय आचार्य के पास जाकर ,गुरु दक्षिणा के लिए निवेदन किया।उन्होंने पत्नी से परामर्श करके कहा-कि हमारा बालक प्रभास क्षेत्र के समुद्र में डूब कर मर गया था, उसको वापस ला दो।भगवान वहां गए और पहले समुद्र में रहने वाले पंचजन्य असुर को मारकर, उसके आवरण को पंचजन्य शंख का रूप दिया।बालक वहां न मिलने पर भगवान,यमपुरी गए।भगवान वहां से गुरु के मृतपुत्र को वापस लाकर, गुरुजी के सामने खड़ा कर दिया ,गुरु प्रसन्न हुए। गुरु ने घर वापस जाने की आज्ञा और आशीर्वाद दिया- तुम्हारी कीर्ति पावनी हो, और वेद सदा- सर्वदा तुम्हारे अनुगत बने रहें, कभी विस्मृत न हों। राम कृष्ण मथुरा लौट आए,और वहां के लोग बहुत दिनों बाद उनका दर्शन प्राप्त करके,परम आनंद में मग्न हो गए।भागवत .10.45. 50।
अब उद्धव जी के ब्रज गमन का प्रसंग आता हैउद्धव जी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है।वे बृहस्पति जी के शिष्य ,और परम बुद्धिमान हैं।वे भगवान श्री कृष्ण के प्यारे सखा और सलाहकार भी हैं।हरिवंश पुराण के अनुसार,वसुदेव के एक भाई देवभाग के पुत्र हैं। भगवान ने सोचा- कि उद्धव जी को गोपियों से प्रेम- भक्ति सीखने के लिए वृंदावन भेजा जाए।इससे ब्रज वासियों के लिए अद्वय ज्ञान प्राप्त करने का अवसर भी बन जाएगा। एक दिन, श्री कृष्ण ने उद्धव जी से कहा- कि तुम ब्रज जाओ! वहां हमारे माता-पिता हैं,गोपी-गोपी हैं ,उनको मेरे वियोग का बड़ा भारी दुख है। उनको मेरा संदेश देकर, उनके दुख को मिटाओ। यह सेवा प्राप्त करके उद्धव जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे रथ द्वारा सायंकाल ब्रज पहुंचे।वहां जाकर देखा, कि ब्रज में तो बड़ा आनंद है।घर-घर में देवता और पितरों की पूजा हो रही है।सब की दिनचर्या समान रूप से चल रही है।गाय और बछड़े भी मस्त हैं,और गोपियां गा रही हैं।फिर यहां श्री कृष्ण के वियोग का दुख किसको है? बात यह थी -कि सबके मन में श्रीकृष्ण के लौटने की आशा है। आने पर सब को अस्वस्थ और दुखी देखकर भगवान को दुख होगा।इसलिए उनको सुखी रखने के लिए,सब सुखी रहने का नाटक कर रहे थे। परंतु सबके भीतर श्रीकृष्ण के विरह की ज्वाला जल रही थी।
उद्धव जी के ब्रज गमन का प्रसंग चल रहा है।नंदबाबा,उद्धव जी के देखकर प्रसन्न हुए।आगे बढ़ कर गले लगा लिया,खूब सत्कार किया,बढ़िया भोजन कराया,अच्छे पलंग पर आसन दिया। तत्पश्चात पूछा ! कि हमारे सखा वसुदेव जी सुखी हैं न, कंस मारा गया ,अच्छा हुआ!हमारे कृष्ण कन्हैया कैसे हैं? वह कभी हम लोगों की याद करते हैं?क्या वे कभी यहां आएंगे ? देखो उद्धव! कृष्ण ने अनेक-अनेक संकटों से हम को बचाया है ।उनका पराक्रम,चरित्र,हास्य,संभाषण का स्मरण करके, हमारे सब क्रियाकलाप शिथिल हो जाते हैं। यह जो नदी-यमुना,पर्वत-गिरिराज,वृंदावन इन सबमें जो उनके खेल के स्थान हैं,उनको देखकर के,हमारा मन तदात्मक हो जाता है।इतना कहने के बाद,नंदबाबा श्री कृष्ण के स्मरण में डूब गए,और मुंह से उनके उद्गार निकलने लगे- आओ प्राणनाथ!आओ प्यारे कन्हैया!अब तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं कटता ! यशोदा मैया भी उनके पास ही बैठी रही,उन्होंने एक भी शब्द नहीं कहा।उनकी आंखों में आंसुओं की,और स्तनों से दूध की धारा बहती रही।भा०10.46.28 । उद्धव जी बोले-तुम लोग जिससे इतना प्रेम करते हो, वे तो साक्षात जगदीश्वर हैं। तुम उनसे प्रेम करके,कृतकृत्य हो गए।उनमें अपने -पराए का,प्रिय- प्रिय का,कोई भेद नहीं है।उनके न तो माता-पिता हैं और न जन्म- मरण है, फिर भी उनका आविर्भाव -प्रदुर्भाव प्राणियों के कल्याण के लिए होता रहता है।वे तो निर्गुण है,वे केवल तुम्हारे ही पुत्र नहीं सब के पुत्र हैं । असल में उद्धव जी बृहस्पति जी से पढ़े हैं, सर्वशास्त्र विशारद हैं,इसलिए शास्त्र की बात दोहरा दिया करते थे। किंतु एक भगवत-प्रेमी के सामने कोरा-वेदांत प्रभावशाली नहीं होता।प्रेमी के पास हृदय है,और शास्त्र ज्ञानी के पास शब्द की संपत्ति।पांडित्य, सहृदयता से होता है,इसलिए जब उद्धवजी ने कहा -कि श्रीकृष्ण के सिवाय जगत में और कुछ है ही नहीं,तब नंदबाबा कुछ नहीं बोले।
उद्धव जी के ब्रजबास की कथा है।दूसरे दिन प्रात:काल हुआ,गोपियों की विधिवत मंगलमयी दिनचर्या प्रारंभ हुई।गोपियों ने देखा कि रात से आए नवागत की, वेशभूषा श्री कृष्ण जैसी है।गोपियों ने उद्धव जी को घेर लिया।उनका आदर-सत्कार किया,फिर कहा कि हम तुम्हें पहचान गई-तुम यदुपति के पार्षद हो,उनका संदेश लाए हो,और कई प्रकार से उलाहना दिया। तभी एक गोपी ऐसी भाव मग्न हो गई-कि उसने उड़ते भवँरे को भगवान का दूत मानकर,अपने उद्गार प्रकट करने लगी।उसी को भ्रमरगीत कहते हैं।भागवत के 10 श्लोकों(10.47.12 से 21) में उन सुंदर भावों को देखा जा सकता है यथा:- गोपी कहती है, कि अरे ओ छलिया के मित्र!हमारे सामने मत खेल!अनुनय-विनय मत कर!तू स्वयं भी तो किसी से प्रेम नहीं करता।यहां से वहां उड़ा करता है।12। ऐ!छय पैर वाले( ड़्योढे पशु)! हमारे सामने यदुओं के अधिपति का बहुत गुणगान न कर!उनकी मथुरा की नई सखियों के पास जाकर गा!क्योंकि उन्होंने उनकी छाती का दर्द दूर किया है,वे धनाढ्य है, तुम्हें इनाम देंगी। 14 । भ्रमरगीत में प्रेम है ,प्रणय है,स्नेह है,मान है,अनुराग है, भाव है,महाभाव है,मादन है,मोदन है - ग्रंथ में देखना पड़ेगा! नंददास, सूरदास तथा दूसरे कवियों ने बड़े विस्तार से उसका वर्णन किया है ।
गोपियों का भाव देखकर उद्धव जी मुग्ध हो गए।वह कहने लगे,कि अहो गोपियों,तुम धन्य हो! तुम्हारा प्रेम धन्य है !संसार में दान, व्रत,तप,होम आदि विविध साधनों द्वारा भक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है, किंतु भक्ति धर्म नहीं है।भक्ति तो धर्म का फल है,भगवान का स्वरूप है। तुमने अनुत्तम भक्ति का प्रवर्तन किया है।अब श्रीकृष्ण ने तुमको जो संदेश दिया है उसे सुनो:- भगवान ने कहा है, कि अरी गोपियों ! मेरे साथ तुम्हारा वियोग कहां है ?क्योंकि मैं तो सबका आत्मा हूं, और क्या अपनी आत्मा से किसी का वियोग होता है? मैं तो सबका परम प्रेमास्पद हूं ।जैसे उपादान कारण कार्य में रहता है,वैसे ही मैं तुम्हारे रोम-रोम में व्याप्त हूं। मुझ में ही सारी सृष्टि है।यह जो इंद्रियों के विषय दिख रहे हैं,वे तो कुछ है ही नहीं,मिथ्या है। जैसे नदी का अंत समुद्र में है,और सब साधनों का अंत परमात्मा में है,वैसे ही तुम्हारे मन का संगम मुझ में है। तुम्हारी आंखों से दूर इसलिए हूं,क्योंकि दूर रहने पर प्रियतम में जैसा मन लगता है,वैसा पास रहने पर नहीं लगता।तुम लोग अपने मन से अन्य वृत्तियों को निकाल कर केवल मुझ में अपना मन लगाना,और जल्दी आकर मुझे प्राप्त होना। सब-की-सब गोपियाँ उद्धव जी द्वारा संदेश श्रवण करके,श्री कृष्ण की स्मृति में मग्न हो गई(भागवत 10.47. 38 )और कहने लगी - हे नाथ तुम्हारा यह सारा ब्रज तुम्हारे वियोग के अथाह सागर में डूब रहा है,आओ इसे बचाओ!
अब गोपियों ने उद्धव जी को,अपने परम प्रेमास्पद श्री कृष्ण के रूप में मानकर, उनकी पूजा की। महीनों तक उद्धवजी वहां रहे।नित्य श्री कृष्ण की चर्चा चलती,दिन-रात क्षण के समान प्रतीत होते।वहां नदी तट पर,बन में,पहाड़ की तलहटी में,और फूले हुए वृक्षों की छाया में - हरिदास उद्धव, ब्रज वासियों को,श्रीकृष्ण का स्मरण दिलाती कथा सुनाते।उन्होंने कृष्ण की एक-एक लीला स्थली भी देखी। उद्बव जी ने, गोपियों को भक्ति संप्रदाय की आचार्या, गुरु मान लिया। देखो! इन गोपियों का सर्वस्य सारभाव श्री कृष्ण में ही लगा रहता है।यदि भगवान की कथा में रस आ गया,तो ब्रह्म होकर क्या करोगे?और यदि कथा में रस न आया तो ब्रह्म होने से भी क्या लाभ? श्री कृष्ण के प्रेम में, ज्ञान की जरूरत नहीं है। भागवत 10.47. 59। अंत में उद्धव जी कहते हैं - कि मैं तो वृंदावन की कोई झाड़ी बनूं और उस पर गोपियों के चरणों की धूल पड़े। क्योंकि इन गोपियों ने,श्री कृष्ण के चरणविंद को अपने हृदय में रखा है। मैं तो वंदना करता हूं नंद बाबा के ब्रज की,गोपियों की चरणों की,जिनके कृष्णलीला का गीत तीनों लोगों को पवित्र करता है। 63।
श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!अब उद्धव जी मथुरा लौटने के लिए तैयार हुए।ब्रजवासियों ने उनको तरह-तरह की भेंट-पूजा लाकर दी,और कहा - उद्धवजी हमें कृष्ण की अपेक्षा उनकी प्रसन्नता की अधिक आवश्यकता है,उनको जहां सुख मिलता है,वहां रहें। हम अपने लिए यही चाहते हैं - कि हमारे मन की वृत्तियां,श्री कृष्ण चरणारविंद का आश्रय ग्रहण करें,हमारी वाणी उनके नाम का उच्चारण करती रहे।उद्धवजी हम नहीं जानते - कि दूसरों का ईश्वर कौन है, कैसा है? शगुन है,निर्गुण है? निराकार है या साकार है? हमारा ईश्वर तो श्रीकृष्ण है,इसलिए हमारा मन उन्ही में लगा रहे।भागवत 10 .47.67। उद्धव जी ब्रज से लौटकर,मथुरा आए।उन्होंने श्रीकृष्ण को उलाहना दिया -भगवान मैंने व्रज में जाकर आंखों से देखा है ,और हृदय से अनुभव किया है, कि वहां के लोग आपसे कितना प्यार करते हैं। फिर भी आप उन प्रेमियों को छोड़कर, यहां आ गए।इसके बाद श्री कृष्ण ने उद्धव जी को दिखाया - की गोपियां जिस प्रकार मेरा ध्यान और स्मरण करती हैं,उसी प्रकार मेरा रोम-रोम भी गोपीमय हो गया है,मैं कृतघ्न नहीं हूं ।
अब भगवान मथुरा लीला के अंतर्गत, अपने वादे के अनुसार,कुब्जा की इच्छा पूरा करने के लिए, उद्धव के साथ,उसके घर गए।कुब्जा का घर बहुमूल्य सामग्रियों से संपन्न था।भगवान की आता देख, कुब्जा हड़बड़ा कर उठी,और सखियों सहित बढ़कर विधिपूर्वक भगवान का स्वागत सत्कार किया,आसन दिया।भगवान तो उसके बहुमूल्य सेज पर ही बैठ गए, किंतु परम भक्त उद्धव जी ने,आसन को छूकर सम्मान दिया,किंतु धरती पर बैठे। कुब्जा खुब सज-धज कर, लीलामई-लजीली-मुस्कान तथा मायावी-हावभाव के साथ,भगवान के पास आई। उसने मायापति श्री कृष्ण के चरणों को,अपने हृदय में लगाकर,अपनी सारी आधिव्याधि शांत कर ली।भागवत 10.48.6-7। श्री शुकदेव जी कहते हैं - कि कैवल्य मोक्ष के अधीश्वर भगवान को प्राप्त करके भी,"दुर्भगा", ब्रज गोपियों की भांति,अपना जीवन संभाल न सकी।परीक्षित! भगवान सबका मान वह इच्छा रखने वाले सर्वेश्वर हैं।कुब्जा की पूजा स्वीकार कर,उद्धव जी के साथ अपने घर लौट गए। उसके बाद श्री कृष्ण,बलराम जी और उद्धव जी के साथ अक्रूर के घर गए।अक्रूर जी ने उनकी अगवानी की,फिर दोनों भाइयों को नमस्कार किया। दोनों भाइयों ने भी अपने चाचा अक्रूर को नमस्कार किया। अक्रूर जी ने विधिवत पूजा हुआ स्तुति की।उन्होंने कहा कि आप लोगों के पधारने से हमारा घर, धन्य व पवित्र हो गया। श्री कृष्ण ने उनसे निवेदन किया- कि चाचा जी आप एकबार हस्तिनापुर जाइए, और वहां से हमारे सुहृद पांडवों का समाचार ले आइए, फिर ऐसा उपाय करूंगा जिससे उन सुहृदों को सुख मिले ।
अक्रूर जी, भगवान की आज्ञा अनुसार, हस्तिनापुर गए, और वहां कुछ दिन रहकर,कौरवों और पांडवों दोनों की परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त की,जब वे पांडव माता, कुंती के पास गए, तब कुंती उनको देखकर रोने लगी,उन्होंने कहा - कि अक्रूर जी! मैं शत्रुओं के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूं। इस समय कुंती को ऐसा भास हुआ, कि श्री कृष्ण उनके सामने ही खड़े हैं, और वे अपने भाव व्यक्त करने लगीं:- हे श्री कृष्ण ! आप महायोगी हैं, विश्वात्मा हैं ,विश्व के जीवन दाता हैं।हे गोविंद! मैं अपने बच्चों के साथ दुख पर दुख भोग रही हूं,तुम्हारी शरण में आई हूं ,मेरी रक्षा करो!भागवत 10.49 .11।अक्रूर जी ने कुंती को सांत्वना देते हुए कहा-"आपके पुत्र अधर्म का नाश करने के लिए पैदा हुए हैं,चिंता मत करो।" जब अक्रूर जी मथुरा लौटने लगे तब धृतराष्ट्र से मिले। उनसे कहा - आप अपने पुत्रों और पांडवों के साथ समानता का व्यवहार कीजिए ,इससे आपको लोक- परलोक में यश एवं सद्गति प्राप्त होगी।राजा धृतराष्ट्र को अक्रूरजी की नेक-सलाह समझ में नहीं आई,और उन्होंने कहा -मैंने सुना है कि सर्वशक्तिमान भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं, इसलिए उनकी जैसी इच्छा होगी, वैसा ही होगा। अक्रूर जी; धृतराष्ट्र की अभिप्राय समझ गए,और मथुरा लौटकर उन्होंने भगवान श्री कृष्ण तथा बलराम जी के सामने सारा समाचार कह सुनाया। यहां 49 वां अध्याय और दशम स्कंध का पूर्वार्ध पूरा होता है। इस समय श्रीकृष्ण की आयु 25 वर्ष की।
आनन्दमयी भगवत कथा दशम स्कंद का उत्तरार्ध भाग इसी Blog पृष्ट के अधोलिखित लिंक में प्रस्तुत है - https://durgashankerpandey.blogspot.com/2020/06/blog-post.html
*****सत्यं परं धीमहि*****
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