भूमिका
हिंदू धर्म की मान्यता है, कि सारी सृष्टि सर्वव्यापक परंब्रह्म पर अधीष्ठित और उन्हीं की शक्ति से संचालित है ।अतः जड़- चेतन सबके साथ, सह अस्तित्व की भावना बनाए रखना है । हिंदू सभ्यता में कृतघ्नता नहीं है। जिनका हम पर उपकार है, उनकी पूजा करने से, प्रति -उपकार करने से, हिंदू धर्म की हानि नहीं होती। सारी सृष्टि परंब्रह्म की अभिव्यक्ति है ,अतः उसकी हिंसा नहीं करनी है । पितरों की पूजा करनी चाहिए। पितृपक्ष में पुत्रादि प्रदत्त ,जल -अन्नादि सूर्य और चंद्रमा की किरणों से समाकृष्ट होकर ,सकल विश्व ब्यापक सोमतत्व से संयुक्त होकर ,उसी क्षण उन- उन पितरों को प्राप्त हो जाता है, जिनके लिए दिया जाता है- वे चाहे जहां ,चाहे जिस योनि में हो। अस्तु जिनके के अंश से हमारी देह बनी है ,उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है।
मृत्यु उपरांत ,बद्ध जीव सूक्ष्म पंचतत्व से बने लिंग शरीर को धारण किए रहते हैं ।ये जीव अपनी -अपनी योग्यता और मान्यता के अनुरूप, देवयान अथवा पितृयान अथवा अर्चिआदि या धूमादि मार्गों से सूर्य आदि, चंद्रादि अथवा पितृलोक को जाते हैं । आगे केवल मन प्रधान पितरों की,जो सोम प्रधान समष्टि चंद्र को जाते हैं,उन्हीं की चर्चा होगी।चंद्रलोक , स्वसमसष्टि सोम के चारों तरफ पितृ लोक स्थित है।पितृ पक्ष में यह लोक पृथ्वी के निकट आ जाता है।जो लोग नित्य पितृ तर्पण नहीं करते,वे इस पक्ष में तर्पण और श्राद्ध करते हैं ।
विशेष समय में,विशेष स्थान में,पितरों का उद्देश्य करके विधिपूर्वक जो हविष वा सामग्री अग्नि,गायों,ब्राह्मणों तथा अतिथियों को दिया जाता है,उसे श्राद्ध कहते हैं।
पितृगण श्राद्ध में पुत्र आदि प्रदत अन्नादि प्राप्त करते हैं। विश्व व्यापत वायु, सूर्य और चंद्रमा की किरणों से समाकृष्ट होकर श्राद्ध अन्न तत्-तत् पितरों को उसी क्षण पहुंच जाता है ।वायु के द्वारा उपनीत श्राद्धीय जन्य सोमरस तत् नाम गोत्रो उच्चारण पूर्वक ,पुत्र आदि प्रदत्त अखिल अन्न व तिलांजलि सद्यः सोमरस तत्वभूत होकर,सकल विश्व व्यापक सोमतत्व से संपृक्त, विद्युत तरंगधारा की तरह तत्काल उन-उन पितरों को प्राप्त हो जाता है ।अस्तु श्रद्धा विश्वास पूर्वक श्राद्ध कर्म करना कर्तव्य है।
श्राद्ध करने में हेतु क्या है ?
जब जीवात्मा अपने स्थूल शरीर को छोड़ देता है, तो उसके पास सूक्ष्म लिंग शरीर बचा रहता है ,जिसके साथ वह लोक -लोकांतर में गमन करता है। समय के साथ इस शरीर का ह्रास होता रहता है ।जिसकी पूर्ति करने में पितृ गण तब तक असमर्थ रहते हैं,जब तक दूसरी देह न मिल जाए। ह्रास पूर्ति और तृप्ति के लिए वह अपने पुत्र-पौत्रादि से अन्न, तिलांजलि आदि की अपेक्षा करते हैं। अतः पुत्र- पौत्रादि का कर्तव्य है ,कि पिंड ,दान आदि तथा ब्राह्मण भोजन द्वारा उनकी क्षतिपूर्ति कर, उन्हें तृप्त करें और उनका आशीर्वाद लें।
पितर पांच प्रकार के होते हैं।अग्निष्वात, वर्हिषद, सोमप, आज्यप और ऊष्मय। इनमें पहले तीन नित्य मुक्त होते हैं। उनका सोम क्षीण नहीं होता और वे नित्य सोम पीने वाले होते हैं।अतः वे अपने वंशजों से प्रदत्त श्राद्धादि की इच्छा नहीं करते। शेष दो आज्यप और ऊष्मय पितर पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य पितृ लोक में रहते हैं। उनको श्राद्ध की आवश्यकता होती है।
पितृगण अपने अपने कर्माशय के अनुसार -चाहे जहां, चाहे जिस लोक में, चाहे जिस योनि में पुनर्जन्म ले चुके हो --उनको श्रद्धा से किया गया हवन, दान हव्य एवं कव्य का फल, सूर्य किरण पहुंचा देती हैं।देवल स्मृति के अनुसार ,यदि शुभ कर्मों के कारण पितृ देवता हो जाते हैं तो श्राद्धान्न- उनको अमृत रूप में प्राप्त होता है ,गंधर्व होने पर भोग्य रूप में ,पशु होने पर तृण रूप में, सर्प आदि होने पर वायु रूप में,यक्ष होने पर पान रूप में, राक्षस होने पर आमिष रूप में, दानव होने पर मदिरा रूप में, प्रेत होने पर रुधिर और अशौच जल के रूप में तथा मनुष्य होने पर पान आदि नाना भोग रस के रूप में प्राप्त होता है ।अत: श्राद्ध कर्म कभी निष्फल नहीं जाता।
पितरों का श्राद्ध करता के साथ क्या संबंध है, यह समझ लेना कर्तव्य है। सभी पुरुषों में अपने अपने पिता, पितामहादि के अंश होते हैं। 84 अंश लेकर ही जीव जन्म प्राप्त करता है। उनमें 28 अंशों को तो अपने पूर्व जन्म वाले ही ले आता है,शेष 56 अंशों में पिता,पितामह,प्रपितामह,बृद्धप्रपितामह,ब्रद्बतर पितामह,बृद्धतम पितामह के क्रमशः 21,15, 10,6, 3 तथा 1 अंश समाहित रहते हैं ।इस प्रकार स्वकीय वीर्य में अपने साथ साथ 6 पूर्वजों का भी अंश रहता है।ऐसे शुक्र को अपनी भार्या में ही उपयोग करना चाहिए,जिस किसी स्त्री में नहीं। अन्यथा वर्णसंकरता हो जाएगी।जीव का आवागमन, सद्गति अथवा दुर्गति ईश्वरी संविधान के अनुसार ही चलती रहेगी। एससी द्वारा प्रदत पर पुरुष संबंध की स्वतंत्रता से ईश्वरी संविधान अप्रभावित रहेगा। देहात्मभाव केंद्रित भोगवादी संविधान के दुष्परिणाम भुगतने के लिए,मानव जाति को तैयार रहना चाहिए।
पूर्वजों की तरह ही मनुष्य के शुक्रांश का संबंध आगे उत्पन्न होने वाली संतानों के साथ भी रहता है ।अपने पुत्र के 21 अंश,पौत्र में 15,प्रपौत्र में 10 ,तत्पुत्र में 6,तत् पुत्र में 3 ,और तत् पुत्र में 1 अंश होता है ।जिसमें, जिसके अंश का संबंध होता है, उसी के द्वारा दिया गया जलादी उनके पिता -पितामहा आदि के समीप में ,सूर्य, अग्नि ,सोम तथा वायु आदि ले जाते हैं। पितर का भी स्व -स्व स्थान में स्थित होकर उसे ग्रहण करते हैं, प्रसन्न होते हैं ,और अपनी संतति को आशीर्वाद देते हैं। उपरोक्त संबंध के कारण ही वेद में कहा गया है कि, यह पिंड( देह) सप्त पौरुषिक है ।यदि वीर्यांश में किसी प्रकार से व्युत्क्रम होता है ,तब समस्त 13 पुरुष व्याप्त शुक्र संबंध चक्र अस्त-व्यस्त एवं विच्छिन्न हो जाता है। इससे पिंडोदक क्रियाएं लुप्त हो जाती है और पारिवारिक धर्म, परंपराएं तथा मर्यादाऐं भी लुप्त हो जाती है ।इसी संबंध के कारण ही जन्म और मरण अशौच( सूतक) भी सात पीढ़ियों तक सीमित रहता है।
श्री गीता जी के मंत्रों 1.42,43, 44 व 3.24 में वर्णसंकरता कि ओर संकेत किया गया है ।स्त्रियों के दूषित होने पर उस कुल के पूर्वज पितर भी नरक में गिरते हैं। दूषित कुलों में उत्पन्न वर्णसंकरी पुत्र -पौत्र आदि से प्रदत्त तर्पणजल व पिंड दान आदि उनके पितर नहीं प्राप्त कर पाते ।दूसरे के अंश से उत्पन्न होने के कारण ,तद्-दत्त -पिंड,तिल संयुक्त जल ,उनकी पितरों के समीप चंद्र- सूर्य-अग्नि के द्वारा पहुँचाये जाने पर भी ,हेय होने से उनकी पितर नहीं पाते। पितरगण, जिस आदमी में उनका अंश होता है, उसी के हाथ से दिया गया अथवा अधिकृत ब्राह्मण द्वारा, स्वनाम निर्देश पूर्वक दिया गया यत किंचित जलादि- पिंडादि को ही ग्रहण करते हैं, जिस किसी के हाथ से नहीं। अप्राकृतिक व शास्त्र विरुद्ध धर्मों के मिश्रण द्वारा जो बनता है, उसको संकर कहते हैं ।जब कर्तव्य का, स्वधर्म का पालन नहीं होता ,तब धर्म संकर, वर्णसंकर ,कुलसंकर तथा आहारसंकर आदि अनेक संकर दोष उत्पन्न होते हैं।आसुरी प्रकृति वालों से, भारत को वर्ण संकरी देश बनाने की कूटनीति जोरों पर है।
देह त्याग के बाद जो तपस्वी या सन्यासी हैं ,उनके अंदर सूर्यअंश अधिक होने से ,सूर्य लोक तक देवयान मार्ग से स्वत: खींचे चले जाते हैं ।ऐसे महापुरुषों के लिए श्राद्ध कर्म की अनिवार्यता नहीं रहती।
मैकाले पद्धति से उपजे अविद्या के विद्वानों की बाढ़ से अथवा स्वाभाविक परिवारिक दशा के कारण, भविष्य में जिनके श्राद्धकर्म होने की संभावना न हो, उनका कर्तव्य है कि वे जीवन मुक्तता के लिए प्रयास करें ।अन्यथा कम से कम तपस्या और संयम से अपना तेज तत्व बढ़ा लें। इससे भविष्य में उनके लिए श्राद्ध कर्म की अनिवार्यता न रह जाएगी। हरि ओम तत्सत्।
गंगातीरे ,मातृनवमी 23.9.2019, वंश ,परंपरागत श्राद्धकर्म ।हिंदू धर्म के दैनिक आचरण में ही- मानवता, जीवन-विकास तथा हिंदुत्व का रहस्य पिरोया हुआ है। उसका निर्वाह करते रहना हमारा कर्तव्य है:-
भूमिका
हिंदू धर्म की मान्यता है, कि सारी सृष्टि सर्वव्यापक परंब्रह्म पर अधीष्ठित और उन्हीं की शक्ति से संचालित है ।अतः जड़- चेतन सबके साथ, सह अस्तित्व की भावना बनाए रखना है । हिंदू सभ्यता में कृतघ्नता नहीं है। जिनका हम पर उपकार है, उनकी पूजा करने से, प्रति -उपकार करने से, हिंदू धर्म की हानि नहीं होती। सारी सृष्टि परंब्रह्म की अभिव्यक्ति है ,अतः उसकी हिंसा नहीं करनी है । पितरों की पूजा करनी चाहिए। पितृपक्ष में पुत्रादि प्रदत्त ,जल -अन्नादि सूर्य और चंद्रमा की किरणों से समाकृष्ट होकर ,सकल विश्व ब्यापक सोमतत्व से संयुक्त होकर ,उसी क्षण उन- उन पितरों को प्राप्त हो जाता है, जिनके लिए दिया जाता है- वे चाहे जहां ,चाहे जिस योनि में हो। अस्तु जिनके के अंश से हमारी देह बनी है ,उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है।
मृत्यु उपरांत ,बद्ध जीव सूक्ष्म पंचतत्व से बने लिंग शरीर को धारण किए रहते हैं ।ये जीव अपनी -अपनी योग्यता और मान्यता के अनुरूप, देवयान अथवा पितृयान अथवा अर्चिआदि या धूमादि मार्गों से सूर्य आदि, चंद्रादि अथवा पितृलोक को जाते हैं । आगे केवल मन प्रधान पितरों की,जो सोम प्रधान समष्टि चंद्र को जाते हैं,उन्हीं की चर्चा होगी।चंद्रलोक , स्वसमसष्टि सोम के चारों तरफ पितृ लोक स्थित है।पितृ पक्ष में यह लोक पृथ्वी के निकट आ जाता है।जो लोग नित्य पितृ तर्पण नहीं करते,वे इस पक्ष में तर्पण और श्राद्ध करते हैं ।
विशेष समय में,विशेष स्थान में,पितरों का उद्देश्य करके विधिपूर्वक जो हविष वा सामग्री अग्नि,गायों,ब्राह्मणों तथा अतिथियों को दिया जाता है,उसे श्राद्ध कहते हैं।
पितृगण श्राद्ध में पुत्र आदि प्रदत अन्नादि प्राप्त करते हैं। विश्व व्यापत वायु, सूर्य और चंद्रमा की किरणों से समाकृष्ट होकर श्राद्ध अन्न तत्-तत् पितरों को उसी क्षण पहुंच जाता है ।वायु के द्वारा उपनीत श्राद्धीय जन्य सोमरस तत् नाम गोत्रो उच्चारण पूर्वक ,पुत्र आदि प्रदत्त अखिल अन्न व तिलांजलि सद्यः सोमरस तत्वभूत होकर,सकल विश्व व्यापक सोमतत्व से संपृक्त, विद्युत तरंगधारा की तरह तत्काल उन-उन पितरों को प्राप्त हो जाता है ।अस्तु श्रद्धा विश्वास पूर्वक श्राद्ध कर्म करना कर्तव्य है।
श्राद्ध करने में हेतु क्या है ?
जब जीवात्मा अपने स्थूल शरीर को छोड़ देता है, तो उसके पास सूक्ष्म लिंग शरीर बचा रहता है ,जिसके साथ वह लोक -लोकांतर में गमन करता है। समय के साथ इस शरीर का ह्रास होता रहता है ।जिसकी पूर्ति करने में पितृ गण तब तक असमर्थ रहते हैं,जब तक दूसरी देह न मिल जाए। ह्रास पूर्ति और तृप्ति के लिए वह अपने पुत्र-पौत्रादि से अन्न, तिलांजलि आदि की अपेक्षा करते हैं। अतः पुत्र- पौत्रादि का कर्तव्य है ,कि पिंड ,दान आदि तथा ब्राह्मण भोजन द्वारा उनकी क्षतिपूर्ति कर, उन्हें तृप्त करें और उनका आशीर्वाद लें।
पितर पांच प्रकार के होते हैं।अग्निष्वात, वर्हिषद, सोमप, आज्यप और ऊष्मय। इनमें पहले तीन नित्य मुक्त होते हैं। उनका सोम क्षीण नहीं होता और वे नित्य सोम पीने वाले होते हैं।अतः वे अपने वंशजों से प्रदत्त श्राद्धादि की इच्छा नहीं करते। शेष दो आज्यप और ऊष्मय पितर पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य पितृ लोक में रहते हैं। उनको श्राद्ध की आवश्यकता होती है।
पितृगण अपने अपने कर्माशय के अनुसार -चाहे जहां, चाहे जिस लोक में, चाहे जिस योनि में पुनर्जन्म ले चुके हो --उनको श्रद्धा से किया गया हवन, दान हव्य एवं कव्य का फल, सूर्य किरण पहुंचा देती हैं।देवल स्मृति के अनुसार ,यदि शुभ कर्मों के कारण पितृ देवता हो जाते हैं तो श्राद्धान्न- उनको अमृत रूप में प्राप्त होता है ,गंधर्व होने पर भोग्य रूप में ,पशु होने पर तृण रूप में, सर्प आदि होने पर वायु रूप में,यक्ष होने पर पान रूप में, राक्षस होने पर आमिष रूप में, दानव होने पर मदिरा रूप में, प्रेत होने पर रुधिर और अशौच जल के रूप में तथा मनुष्य होने पर पान आदि नाना भोग रस के रूप में प्राप्त होता है ।अत: श्राद्ध कर्म कभी निष्फल नहीं जाता।
पितरों का श्राद्ध करता के साथ क्या संबंध है, यह समझ लेना कर्तव्य है। सभी पुरुषों में अपने अपने पिता, पितामहादि के अंश होते हैं। 84 अंश लेकर ही जीव जन्म प्राप्त करता है। उनमें 28 अंशों को तो अपने पूर्व जन्म वाले ही ले आता है,शेष 56 अंशों में पिता,पितामह,प्रपितामह,बृद्धप्रपितामह,ब्रद्बतर पितामह,बृद्धतम पितामह के क्रमशः 21,15, 10,6, 3 तथा 1 अंश समाहित रहते हैं ।इस प्रकार स्वकीय वीर्य में अपने साथ साथ 6 पूर्वजों का भी अंश रहता है।ऐसे शुक्र को अपनी भार्या में ही उपयोग करना चाहिए,जिस किसी स्त्री में नहीं। अन्यथा वर्णसंकरता हो जाएगी।जीव का आवागमन, सद्गति अथवा दुर्गति ईश्वरी संविधान के अनुसार ही चलती रहेगी। एससी द्वारा प्रदत पर पुरुष संबंध की स्वतंत्रता से ईश्वरी संविधान अप्रभावित रहेगा। देहात्मभाव केंद्रित भोगवादी संविधान के दुष्परिणाम भुगतने के लिए,मानव जाति को तैयार रहना चाहिए।
पूर्वजों की तरह ही मनुष्य के शुक्रांश का संबंध आगे उत्पन्न होने वाली संतानों के साथ भी रहता है ।अपने पुत्र के 21 अंश,पौत्र में 15,प्रपौत्र में 10 ,तत्पुत्र में 6,तत् पुत्र में 3 ,और तत् पुत्र में 1 अंश होता है ।जिसमें, जिसके अंश का संबंध होता है, उसी के द्वारा दिया गया जलादी उनके पिता -पितामहा आदि के समीप में ,सूर्य, अग्नि ,सोम तथा वायु आदि ले जाते हैं। पितर का भी स्व -स्व स्थान में स्थित होकर उसे ग्रहण करते हैं, प्रसन्न होते हैं ,और अपनी संतति को आशीर्वाद देते हैं। उपरोक्त संबंध के कारण ही वेद में कहा गया है कि, यह पिंड( देह) सप्त पौरुषिक है ।यदि वीर्यांश में किसी प्रकार से व्युत्क्रम होता है ,तब समस्त 13 पुरुष व्याप्त शुक्र संबंध चक्र अस्त-व्यस्त एवं विच्छिन्न हो जाता है। इससे पिंडोदक क्रियाएं लुप्त हो जाती है और पारिवारिक धर्म, परंपराएं तथा मर्यादाऐं भी लुप्त हो जाती है ।इसी संबंध के कारण ही जन्म और मरण अशौच( सूतक) भी सात पीढ़ियों तक सीमित रहता है।
श्री गीता जी के मंत्रों 1.42,43, 44 व 3.24 में वर्णसंकरता कि ओर संकेत किया गया है ।स्त्रियों के दूषित होने पर उस कुल के पूर्वज पितर भी नरक में गिरते हैं। दूषित कुलों में उत्पन्न वर्णसंकरी पुत्र -पौत्र आदि से प्रदत्त तर्पणजल व पिंड दान आदि उनके पितर नहीं प्राप्त कर पाते ।दूसरे के अंश से उत्पन्न होने के कारण ,तद्-दत्त -पिंड,तिल संयुक्त जल ,उनकी पितरों के समीप चंद्र- सूर्य-अग्नि के द्वारा पहुँचाये जाने पर भी ,हेय होने से उनकी पितर नहीं पाते। पितरगण, जिस आदमी में उनका अंश होता है, उसी के हाथ से दिया गया अथवा अधिकृत ब्राह्मण द्वारा, स्वनाम निर्देश पूर्वक दिया गया यत किंचित जलादि- पिंडादि को ही ग्रहण करते हैं, जिस किसी के हाथ से नहीं। अप्राकृतिक व शास्त्र विरुद्ध धर्मों के मिश्रण द्वारा जो बनता है, उसको संकर कहते हैं ।जब कर्तव्य का, स्वधर्म का पालन नहीं होता ,तब धर्म संकर, वर्णसंकर ,कुलसंकर तथा आहारसंकर आदि अनेक संकर दोष उत्पन्न होते हैं।आसुरी प्रकृति वालों से, भारत को वर्ण संकरी देश बनाने की कूटनीति जोरों पर है।
देह त्याग के बाद जो तपस्वी या सन्यासी हैं ,उनके अंदर सूर्यअंश अधिक होने से ,सूर्य लोक तक देवयान मार्ग से स्वत: खींचे चले जाते हैं ।ऐसे महापुरुषों के लिए श्राद्ध कर्म की अनिवार्यता नहीं रहती।
मैकाले पद्धति से उपजे अविद्या के विद्वानों की बाढ़ से अथवा स्वाभाविक परिवारिक दशा के कारण, भविष्य में जिनके श्राद्धकर्म होने की संभावना न हो, उनका कर्तव्य है कि वे जीवन मुक्तता के लिए प्रयास करें ।अन्यथा कम से कम तपस्या और संयम से अपना तेज तत्व बढ़ा लें। इससे भविष्य में उनके लिए श्राद्ध कर्म की अनिवार्यता न रह जाएगी। हरि ओम तत्सत्।
गंगातीरे ,मातृनवमी 23.9.2019, वंश ,परंपरागत श्राद्धकर्म ।हिंदू धर्म के दैनिक आचरण में ही- मानवता, जीवन-विकास तथा हिंदुत्व का रहस्य पिरोया हुआ है। उसका निर्वाह करते रहना हमारा कर्तव्य है:-
No comments:
Post a Comment
Thank you for taking the time out to read this blog. If you liked it, share and subscribe.