Friday, March 8, 2019

कर्मफल




जीव अपने कर्मों के फल भोगने के लिए ही, संसार चक्र में भ्रमण कर रहा है।कर्म जड़ हैं, वे फल दे नहीं सकते।जीव कर्म फल के दुखद अंशको भोगना नहीं चाहता, अतः कर्मफल रूपी प्रारब्ध की नियंत्रक सत्ता कोई होनी चाहिए। कर्मफल भोगने की अपेक्षा से , कर्म तीन प्रकार के माने गए हैं संचित ,प्रारब्ध, क्रियमाण। शरणागत होकर तीनों योग मार्गों में से कोई एक अपनाने पर, संचित कर्म फल राशि भस्म हो जाती है तथा क्रियामाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात उनका संस्कार नहीं बनता।प्रारब्ध कर्म का फल देह और परिस्थितियां होती हैं ।उनको स्वीकार करना ही पड़ता है।शास्त्र व सत्संग के सहारे,साधक प्रारब्ध भोगते हुए तथा स्वधर्म पालनकर, परम लक्ष्य प्राप्त कर लेता है ।श्रीमद् गीता-18.56, 4.37 ,18.66। 


कर्मयोग बनाम प्रारब्ध 


कर्म फल तीन प्रकार के होते हैं - 

  • अभिमान पूर्वक वर्तमान में किए जाने वाले कर्म, क्रियमाण कर्म है, 
  • अनेक जन्मों से किए कर्मों के फल व संस्कार अंश, चित्तमें संग्रहित रहते हैं ,वे संचित कर्म हैं, 
  • संचित कर्म राशि का वह अंश जो विपाक क्रिया के फलस्वरूप ,फल देने के लिए उन्मुख है,उसे प्रारब्ध कहते हैं। 

कर्मयोग बनाम स्वभाव 


मनुष्य का जन्मजात स्वभाव,उसके प्रारब्ध कर्म फल के अनुसार होता है,जो तीनों गुणों(सत रज तम) के विभिन्न संयोगों से नियंत्रित रहता है।उसे बदलना कठिन है,यद्यपि उसके लिए तीन योग मार्ग हैं।स्वभाव के आगंतुक दोषों-काम, क्रोध,लोभ तथा मोह आदि को सदग्रंथ व सत्संग के सहारे मिटाया जा सकता है। भगवान के शरणागत हो, जन्मजात स्वभाव के अनुसार स्वधर्म पालन करने से ,परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। गीता , 18.45। 

कर्मयोग बनाम मोक्ष 


कर्म निर्धारण में प्रारब्ध की प्रधानता होती है,या पुरुषार्थ की, यह जटिल प्रश्न है।पुरुषार्थ 4 हैं धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष। अर्थ और काम में प्रारब्ध प्रबल है,और कर्म (प्रयत्न) गौढहै।धर्म और मोक्ष में कर्म प्रबल है, और प्रारब्ध गौढ रहता है। यह दोनों नए पुरुषार्थ हैं और मनुष्य योनि मुख्य रूप से इन्हीं को सिद्ध करने के लिए है मानव देह सुख -दुख भोगने के लिए नहीं है, वह प्रारब्ध के फल हैं।सुख भोगने का स्थान स्वर्ग है ,और देह- देवादि उत्तम योनियाँ हैं। वैसे ही दुख भोगने का स्थान नर्क है,और उसके लिए कीट- पतंग आदि अधम योनियाँ भी हैं। मनुष्य योनि तो सुख-दुख से ऊपर उठकर मोक्ष पाने के लिए है, इसलिए उसे साधन-धाम कहा जाता है। स्मरण रहे परमार्थ इन चारों से भिन्न है।उसमें स्वरूप का साक्षात्कार और परा-भक्ति आते हैं, मुक्त- पुरुष के लिए वह शरणागत और कृपा साध्य है।

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