Friday, June 12, 2020

आनंदमयी अमरकथा - श्रीमद् भागवत महापुराण (उत्तरार्ध)


दशम स्कंध - उत्तरार्ध

  1. भागवत जी के दशम स्कंध का उत्तरार्ध 50 वें अध्याय में, जरासंध के आक्रमण से प्रारंभ होता है, जो सअभिप्राय है। 50 वर्ष की आयु,जरा( बुढ़ापा) का संधिकाल है।इस समय मथुरा रूपी देह पर बुढ़ापा का आक्रमण होता है, और मथुरा का गढ़ टूटने लगता है,अर्थात इंद्रियों की शक्ति जाती रहती है,और देह क्षीण होने लगती है।अतः विरक्त हो भजन करने में ही कल्याण है। कंस की मृत्यु के बाद उसकी पत्नियां अस्ति- प्राप्ति, अपने पिता जरासंध के पास जाकर,अपने पति के मरने की कथा बताती हैं।10.50.1।जरासंध 23 अक्षौहिणी सेना के साथ, 17 बार मथुरा पर आक्रमण करता है। हर बार सेना मारी जाती है।उसे बांधकर भी श्रीकृष्ण छोड़ देते हैं,जिससे वह और असुरों को लेकर आए।18वीं बार वह कालयवन के साथ आक्रमण की योजना बनाता है। पहले कालयवन अपनी सेना के साथ आकर, मथुरा को घेर लेता है। काल का ईश्वरी सृष्टि में महत्वपूर्ण स्थान है।वृद्धावस्था में जरा के साथ काल भी आक्रमण करता है।उसके बचने का उपाय ब्रह्मविद्या का ही सहारा लेना पड़ता है।अतः श्री कृष्ण भी मथुरा छोड़कर द्वारिका(ब्रह्मविद्या)चले जाते हैं कालयवन को वरदान प्राप्त था कि उसके सामने जो युद्ध के लिए आएगा, उसको भागना पड़ेगा ।श्री कृष्ण यह बात जानते थे,अतः जानबूझकर कालयवन के सामने आकर भागे। योजनानुसार कालयवन उनका पीछा करते हुए वहां पहुंच गया,जहां वरदान प्राप्त मुचकुंद सोए हुए थे।श्रीकृष्ण उन पर अपना पीला दुपट्टा डालकर,छिप गए। कालयवन ने आकर उन्हें कृष्ण समझ,एक लात मारी।मुचकुंद की नींद टूटी। उनकी पहली दृष्टि कालयवन पर पड़ी, और वरदान के प्रभाव से वह भस्म हो गया।तब श्रीकृष्ण मुचकुंद के सामने प्रकट हो गए ।
  2. राजा परीक्षित ने,श्री शुकदेव जी से मुचकुंद का परिचय पूछा?श्री शुकदेव जी बोले कि-मुचुकुंद इक्ष्वाकु कुल में मंधाता के पुत्र थे।वे इतने प्रतिभाशाली थे,कि देवता लोग अपनी रक्षा के लिए, उन्हें स्वर्ग ले गए।स्वामी कार्तिकेय के आ जाने पर मुचकुंद की छुट्टी हो गई। देवताओं ने उनसे वर मांगने को कहा!वर में उन्होंने निर्विघ्न नींद मांगी।देवताओं ने कहा तुम प्रवर्षन पर्वत की गुफा में जाकर सोवो! जो तुमको जगाएगा और पहले तुम्हारे सामने पड़ेगा,वह भस्म हो जाएगा! इसी कारण, कालयवन उनकी दृष्टि से भस्म हो गया। अब जब भगवान मुचकुंद के सामने आए, तो मुचकुंद ने,उनसे उनका परिचय पूछा? भगवान हंसने लगे, उन्होंने कहा-मेरे अनंत जन्म कर्म है,मेरा परिचय पाना असंभव है। इस समय मैं, ब्रह्मा की प्रार्थना पर, पृथ्वी का भार हरण करने के लिए,वसुदेव के घर में "वासुदेव" नाम से प्रकट हूं।तुम्हारे ऊपर अनुग्रह के लिए दर्शन दे रहा हूं,वर मांग लो! मुचकुंद बोले संसारचक्र में घूमते- घूमते थक गया हूं,अब मैं अपनी सब इच्छाओं को छोड़कर,आपका जो निरंजन, निर्गुण, अद्वय और ज्ञप्ति मात्र,स्वरूप है,उसकी शरण ग्रहण करता हूं । भगवान ने कहा,इस जन्म में वैसा बोध संभव नहीं है।अब तुम जाओ,और पृथ्वी में विचरण करो! तुमको मेरी निर्मल अनपायनी भक्ति प्राप्त रहेगी! जब तुम जन्मांतर में सबकी भलाई करने वाले ब्राह्मण बनोगे,तब मुझे प्राप्त हो जाओगे! कुछ लोग भक्तराज नरसिंह मेहता को उनका अवतार मानते हैं। भागवत 10.51.64।
  3. श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित! श्रीकृष्ण की अनुग्रह प्राप्त करके,मुचुकुंद गुफा के बाहर निकले। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्ण में लगा लिया। फिर गंधमादन पर्वत पर चले गए,और नर-नारायण आश्रम में सब द्वंद्वों को सहन करते हुए,तपस्या पूर्वक भगवान की आराधना करने लगे । भगवान श्री कृष्ण मथुरा की ओर लौटे, जो कालयवन की सेना से घिरी हुई थी, वहां उन्होंने म्लेच्छों का संघार कर दिया। इस बीच,जरासंध 18वीं बार 23 अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका।दोनों भाई योजना अनुसार,मथुरा छोड़कर द्वारिका के लिए भागे,और तभी से उनका नाम रणछोड़ पड़ गया। जब कालयवन ने मथुरा के घेरा था,तभी रातों-रात समुद्र के बीच दिव्य नगरी द्वारिका पुरी का निर्माण कर,योगमाया द्वारा, प्रिय प्रजा को वहां पहुंचा दिया गया था।भागवत 10.50 .49 से 58। भक्त लोगों को द्वारिकापुरी का पूरा परिचय जानने के लिए, ग्रंथ को देखना चाहिए। भागते समय दोनों भाईयों ने महात्माओं के आश्रम में भोजन किया,सत्संग किया, और वे गिरनार पहुंच गए।जरासंध उनका पीछा करता रहा।अंत में जब हुए प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गए, तब जरासंध ने उस पर्वत को चारों ओर से आग लगा दिया,और यह निश्चय करके कि अब वे मर गए होंगे,मगध लौट गया।भागवत 10.52.1।भगवान व बलराम जी उस 11 योजन (135कि.मी.)  ऊंचे पर्वत से नीचे, धरती पर कूदकर द्वारिका पहुंच गए ।
  4. अब, जब द्वारिका में सब व्यवस्था ठीक-ठाक हो गई, तब पहले बलराम जी का विवाह हुआ।कहा जाता है,कि आनंद देश के राजा रैवत,अपनी पुत्री रेवती के साथ ब्रह्मा जी के पास गए, और कहा कि आप की सृष्टि में जो सर्वश्रेष्ठ होगा ,उसी के साथ में अपनी कन्या का विवाह करूंगा । ब्रह्मा जी राजा की बात पर हंसने लगे,और बोले-कि मेरे यहां का तो 1 मिनट बीता है, लेकिन तुम्हारे तो युग के युग बीत गए।अब तो न तुम्हारी राजधानी है,और न वंशज।तुम द्वारिका जाकर,वहां अपनी कन्या रेवती का विवाह बलराम जी से कर दो।राजा रैवत ने द्वारिका जाकर विवाह कर दिया। बड़े भाई का विवाह हो जाने पर ,श्री कृष्ण के विवाह का नंबर आया।उनका सबसे पहला विवाह रुक्मिणी जी के साथ हुआ जो स्वर्णलक्ष्मी है। विदर्भ देश के राजा भीष्मक थे।उनके रुक्मी,रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली 5 पुत्र थे,और रुक्मिणी नाम की एक कन्या थी,जो साक्षात लक्ष्मी का ही स्वरूप थी । रुक्मिणी जी ने जब से श्री कृष्ण के गुणों का श्रवण किया,तभी से मन में श्रीकृष्ण के साथ विवाह करने का मन बना लिया रुक्मिणी का भाई रुक्मी, श्रीकृष्ण से द्वेष करता था।अतः भीष्मक के न चाहने पर भी, उसने रुक्मिणी जी का विवाह शिशुपाल के साथ निश्चित कर दिया और सब तैयारियां भी होने लगी।
  5. बहुत सोच-समझकर रुक्मिणी जी ने एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को,अपने संदेश के साथ श्री कृष्ण के पास भेज दिया। द्वारिका के महल में पहुंचते ही,श्रीकृष्ण ने उसे अपने सिंहासन पर बैठाकर, अर्ध्य- पाद्यादि से उसका सत्कार किया। फिर उससे पूछा?कि मैं आपकी क्या सेवा करूं!आप कृपया अपने आने का कारण बताइए! ब्राह्मण देवता ने कहा,महाराज !रुक्मिणी जी ने,आपके पास विवाह का संदेश भेजा है। रुक्मणी के पत्र का उल्लेख नहीं है,केवल संदेश का उल्लेख है:- हे श्यामसुंदर ! मैंने लोगों से आप के गुण, रूप, सौंदर्य, माधुर्य, और शील-स्वभाव आदि के संबंध में सुना है।जो लोग आपके गुणों का श्रवण करते हैं, उनके कानों के रास्ते से वे गुण हृदय में प्रवेश करके,उसके अंग-अंग का ताप शांत कर देते हैं।10. 52.37।मेरा चित्त निर्लज्ज होकर आप में प्रवेश कर रहा है।मैंने अपना शरीर आपको अर्पित कर दिया है,आगे की बात आप जाने। लंबा संदेश है,ग्रंथ में देखना चाहिए.....।आप विवाह के पहले पधारिये, और जब मैं कुल परंपरा के अनुसार, देवी की पूजा करने मंदिर जाऊं, तब मुझे वहां से हरण कर लीजिए । भगवान ने हंसते हुए उत्तर दिया,ब्राह्मण देवता ! आपसे क्या बताऊं,जैसे विदर्भ की राजकुमारी मुझे चाहती है,वैसे ही मेरा मन भी उन्हीं में लगा है।मुझको तो रात में नींद भी नहीं आती।मैं जानता हूं, कि रुक्मी मुझसे उसका विवाह नहीं होने देना चाहता। लेकिन मैं युद्ध में,उन सब को पराजित करके रुक्मिणी को ले आऊंगा ।10.53.2- 3।।
  6. श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!जब राजा लोग रुक्मिणी जी के अलौकिक प्रभाव से मुक्त हुए,तो उन्होंने श्रीकृष्ण का पीछा किया ,और युद्ध करने लगे।यदुवंशियों के सेनापतियों ने उनका सामना किया,तथा संकर्षण जी के नेतृत्व में,शत्रुओं की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। रुक्मिणी के भाई रुक्मी ने कहा कि मैं अपनी बहन को अकेले ही श्रीकृष्ण से छीन लूंगा,और यदि वहिन को लौटा नहीं सका,तो फिर इस नगर में नहीं लौटूंगा।वह अपनी सेना के साथ श्री कृष्ण के पास पहुंच गया। श्री कृष्णने थोड़ी सी लड़ाई के बाद उस पर अधिकार कर लिया,और उसे मारने के लिए तलवार उठाई।रुक्मिणी जी भयभीत हो, कांपते हुए, चरणों में पड़ी,और कहा इसको मत मारो!भगवान ने उनकी बात मान ली, किंतु आधी दाढ़ी-मूछ काटकर कुरूप किया, और उसी के दुपट्टे से बांधकर, रथ में डाल दिया। इस बीच बलरामजी शत्रु सेना का तहस-नहस कर वहां आ गए।उन्होंने बड़े भाई का दायित्व निभाते हुए,रुक्मी को छोड़ दिया,और श्रीकृष्ण से कहा-कोई सगा संबंधी कुछ गलती भी कर दे,तो उसे इस तरह अपमानित नहीं करना चाहिए। उन्होंने रुकमणी जी को शोकाकुल देखकर उन्हें उपदेश दिया। 10.54.49। वे एक बार श्रीकृष्ण को कुछ कहें,और दूसरी बार रुक्मिणी जी को।इस प्रकार रुक्मिणी का मन वैमनस्यसे मुक्त और पवित्र हो गया ।भगवान श्री कृष्ण रुक्मिणी जी के साथ द्वारिका आए।सगे-संबंधी जुड़े,ब्राह्मणों ने उनका विवाह शास्त्रों रीतिसे संपन्न करवाया। द्वारिकापुरी में आनंद छा गया।जगह-जगह रुक्मिणी हरण की गाथाएं गाई जाने लगी ।
  7. प्रद्युम्न जी के जन्म की कथा है।श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित!काम को शंकर जी के जला देने के बाद,उन्हीं के वरदान स्वरूप, वह श्री कृष्ण के द्वारा,रुक्मणी के गर्भ से प्रद्युम्न के रूप में प्रकट हुआ।प्रद्युम्न 10 दिन के थे, कि नारद का सिखाया शंबरासुर ने, उनको प्रसूतिका ग्रह से हर कर समुद्र में फेंक दिया।उसको मालूम हो गया था,कि यह मेरा भावी शत्रु है।शिशु प्रद्युम्न को मच्छ ने निगल लिया, जिसे मछुआरों ने पकड़कर शंबरासुर को भेंट कर दिया।उसने उसे रसोई घर भेज दिया।वहां नारद की शिक्षा से,काम की पत्नी रति पहले से ही मायावती के नाम से रह रही थी।जब मछली के पेट से बालक प्रद्युम्न निकले तो वह उसका लालन-पालन करने लगी। बालक प्रद्युम्न थोड़े दिनों में जवान हो गए, और मायावती उसके सामने पत्नी के हाव-भाव करने लगी।इस पर प्रद्युम्न ने कहा, कि तुम तो मेरी माता के समान हो,तुम यह क्या करती हो!रति ने उन्हें सब बात बताई, और कहा कि मैं तुम्हारी पत्नी रति हूं।यह शम्बासुर तुम्हारा शत्रु है,इसी ने तुम्हारा अपहरण किया था।यह बताकर मायावती ने प्रद्युम्न को महामाया नामक एक विद्या सिखा दी।उसकी सहायता से प्रद्युम्न ने शम्बरासुर का वध कर दिया । इसके बाद दोनों आकाश मार्ग से द्वारका पहुंच गए।उनका सौंदर्य देखकर लोग मुग्ध हो गए।वहां, श्रीकृष्ण के सिवाय और कोई उन्हें पहचानता नहीं था।अंत में नारद जी आए,और उन दोनों का परिचय कराया।फिर तो सबके आनंद की सीमा न रही।प्रद्युम्न अपनी पत्नी रति के साथ द्वारिका में निवास करने लगे।
  8. इसके आगे जाम्बवती और सत्यभामा के ,श्री कृष्ण के साथ विवाह की कथा है,जो स्यमंतक मणि से जुड़ी है। द्वारिका वासी सत्राजित सूर्य का भक्त था। सूर्य ने उसको स्यमंतक मणि दे दी।उस मणि से प्रतिदिन 8 भार सोने की प्राप्ति होती थी।श्री कृष्ण ने सत्रजीत को सलाह दी,कि ऐसी मूल्यवान वस्तु को राष्ट्रीय संपत्ति होना चाहिए,जिससे प्रजा का कल्याण होता रहे।अतः यह मणि राजा उग्रसेन को दे दो। लेकिन उसने श्रीकृष्ण की सलाह नहीं मानी। एक दिन  सत्राजित का भाई, प्रसेन मणि धारण कर,घोड़े पर चढ़ शिकार खेलने गया। वहां एक सिंह ने घोड़े सहित उसको मार डाला। फिर जाम्बवान ने उस सिंह को मारकर,मणि ले ली।किंतु जनता में यह भ्रम फैल गया, कि श्रीकृष्ण ही प्रसेन को मारकर, वह मणि ले ली होगी । कलंक निवारण के लिए,श्री कृष्ण कुछ लोगों के साथ, प्रसेन को खोजने जंगल गए। वहां पद चिन्हों के सहारे पता चला,कि सिंह ने प्रसेन को मारा है,और उस सिंह को किसी भालू ने मारा है।इस प्रकार वे लोग जाम्बवान की गुफा तक पहुंच गए।भगवान ने द्वारिका से आए साथ के लोगों को,गुफा के बाहर बैठाकर ,स्वयं अकेले गुफाके भीतर घुस गए। गुफा में जाम्बवान से श्री कृष्ण का आमना-सामना हुआ,और भयंकर युद्ध 28 दिनों तक चलता रहा। द्वारिका के लोग 12 दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद, निराश हो अपने घरों को लौट गए ।
  9. 28 दिन युद्ध चलने के बाद,भगवान के घूसों से जांबवान परास्त हो गए।तब उन्होंने भगवान को पहचान लिया,और कहा कि आप साक्षात भगवान रामचंद्र जी ही हैं।जाम्बवान जी ने मणि के साथ,अपनी कन्या जाम्बवती को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। इधर द्वारका में लौटे हुए लोगों की सूचना के आधार पर,श्री कृष्ण के लिए चिंता व्याप्त हो गई।सभी लोग सत्राजित को कोसने लगे, और श्रीकृष्ण के लौटने के लिए,महामाया दुर्गा देवी के मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे। देवी ने जिस समय आशीर्वाद दिया, उसी समय वहां मणी एवं नववधू जाम्बवती  के साथ श्री कृष्ण प्रकट हो गए।द्वारका में आनंद मंगल छा गया । श्री कृष्ण ने सत्राजित को बुलवाया,और उसे मणि दे दी।वह बहुत लज्जित हुआ।झूठा कलंक लगाने के दोष परिमार्जन के लिए,उसने अपनी कन्या सत्यभामा के साथ श्री कृष्ण का विवाह कर दिया,और मणि भी उनको दे दी।श्री कृष्ण ने उसी को फिर मणि लौटा दी,और कह दिया कि आप मणि अपने पास रखो,और पहले जैसी विधिवत पूजा करो। केवल उसका फल हमें दे दिया करना। 
  10. इसके बाद लाक्षागृह में, पांडवों के जल मरने की खबर पाकर,श्री कृष्ण और बलराम हस्तिनापुर गए। इधर शतधन्वा ने सत्राजित की हत्या करके, मणि का हरण कर लिया। पिता की मृत्यु से दुखित सत्यभामा हस्तिनापुर पहुंच गई।श्री कृष्ण-बलराम द्वारिका लौटे। शत- धन्वा भयभीत होकर, मणि अक्रूर जी के पास रखकर,बड़ी तेजी से भाग निकला।श्री कृष्ण और बलराम जी ने उसका पीछा किया। मिथिला के पास पहुंचते-पहुंचते श्री कृष्ण ने उसको मार गिराया।लेकिन मणि उसके पास नहीं निकली ।श्री कृष्ण ने बलराम जी को यह बात बताई,लेकिन पूरी तरह वे अस्वस्थ नहीं हुए,और वही से मिथिला नरेश से मिलने चले गए ।श्री कृष्ण द्वारका लौटकर आए।अक्रूर जी और कृतवर्मा द्वारका छोड़कर भाग गए। शतधन्वा को प्रेरित करने में उनका हाथ था। श्रीकृष्ण ने उनको बुलवाया,और उन्हें समझाया।उन्होंने कहा- अक्रूर जी मैं जानता हूं, कि भागते समय शतधन्वा ने मणि तुम्हारे पास रख दी थी, तो उसे अपने पास रखो। लेकिन मेरे सामने कठिनाई यह है, कि मेरे बड़े भाई,मणि के संबंध में मुझपर सम्यक विश्वास नहीं करते।10.57.38।इसलिए तुम सभा में,उसे एक बार सबको दिखा दो, जिससे मेरा कलंक मोचन हो जाए।अक्रूर जी ने सबके सामने वह मणि लाकर दिखा दी।लेकिन बाद में,श्रीकृष्ण ने वह मणि अक्रूर जी को ही लौटा दी।
  11. भगवान के अनेक विवाहों की कथा है।श्री रुक्मणी जी, जांबवतीजी, सत्यभामा जी,के बाद कालिंदी जी, मित्रविंदा,सत्यभामा, तथा लक्ष्मणा जी के साथ,श्री कृष्ण के विवाहों का वर्णन अध्याय 58 में है। जिन्हें क्रमशः 10.58. 29,31,47,56 तथा 57 में देखना चाहिए । इन विवाहों के बाद, भौमासुर द्वारा वंदनी बनाई गई 16100 कन्याओं के उद्धार का प्रसंग है।क्रूर शासक भौमासुर ने कन्याओं को बंदी बनाकर,उनकी संख्या एक लाख हो जाने पर,सबसे एक साथ विवाह करने की योजना बनाई,उसने अपने राजधानी प्राज्ञ ज्योतिषपुर (आज का गुवाहाटी) में सुरक्षा के बड़े-बड़े प्रबंध कर रखे थे। किंतु भगवान श्री कृष्ण ने सभी सुरक्षा प्रबंधों को ध्वस्त कर दिया,और उसका वध करके,उसके द्वारा वंदनी बनाई गई 16100 कन्याओं को मुक्त कर दिया। अब इन कन्याओं का क्या हो?उनको न तो कहीं आश्रय मिल सकता था,और न ही उनका विवाह हो सकता था। कन्याओं द्वारा भगवान के शरणागत होकर, निवेदन करने पर,करुणावरुणालय श्री कृष्ण उनको द्वारिका ले गए ,और उनसे विधिवत विवाह किया । सारे विवाहों का आध्यात्मिक भाव भी समझना चाहिए।मन सहित 16 प्रकृति- विकृतियों की हजारों वृत्तियां होती हैं। भगवान की अष्टधा प्रकृति है।परा-अपरा प्रकृति सहित,चराचर जगत के स्वामी श्री कृष्ण है।इसी की व्यावहारिक अभिव्यक्ति 16108 रानियों के पति होना है।अतः जीव को वास्तविकता स्वीकार करते हुए, देह सहित अपने को,भगवान की सेवा में समर्पित कर देना चाहिए, व्यक्ति की सभी व्रतियों के स्वामी भगवान ही रहे।
  12. अब भगवान के गृहस्थ जीवन के प्रसंग हैं।एक दिन की बात है,रुक्मिणी जी मान करके बैठ गई थी। भगवान को भी विनोद की सूझी, अतः उन्होंने कहा देखो रुक्मिणी!मैं तो अपने शत्रुओं को नीचा दिखाने के लिए,तुम को हर लाया था।वह प्रयोजन तो पूरा हो गया।मैं तो निर्गुण हूं,निर्धन हूं,मेरे पास कुछ है नहीं,तुमने मुझसे प्यार करके भूल की है।अब तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो,चाहे जहां चली जाओ,चाहे जिस से विवाह कर लो। इतना सुनना था,कि रुक्मिणी जी वाचिक वियोग के कारण मूर्छित होकर गिरने लगीं, लेकिन भगवान ने चतुर्भुज होकर,अंक में ले लिया।उन्हें समझाया कि यह तो गृहस्थ जीवन का रस बढ़ाने वाला हास-परिहास है। इसको गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, आनंदित होना चाहिए।यह कथा अध्याय 60 में है। संतति को लेकर भी एक विचित्र घटना घटी। रुक्मिणी नंदन प्रद्युम्न का विवाह उनके मामा रुक्मी की कन्या से हुआ।प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का दूसरा विवाह,भी रुक्मी की पौत्री से हुआ।उसी विवाह के अवसर पर रुक्मी और उसके साथी दुष्ट राजाओं नें बलराम जी के साथ जुआ खेलने का आयोजन किया। प्रयोजन बलराम जी को अपमानित करने का था।अतः वे लोग बलराम जी के साथ बेईमानी और उनका उपहास करने लगे।बलराम जी को क्रोध आया,और उन्होंने रुक्मी का बध कर दिया। रुक्मिणी जी बहुत नाराज हो गई। श्री कृष्ण के घर में कलह का वातावरण बन गया। भगवान चुप लगा गए, और सब लोग बहू को लेकर द्वारका लौट आए। सब शांति हो गई।यह कथा अध्याय 61 में है ।
  13. राजा परीक्षित ने श्री शुक जी से,उषा-अनिरुद्ध के विवाह समय, श्री कृष्ण और शंकर जी के बीच हुए युद्ध के बारे में, जिज्ञासा की! श्री शुकदेव जी ने कहा, परीक्षित!राजा बलि का जेष्ठ पुत्र बाणासुर भगवान शंकर का भक्त था।उसके हजार भुजाएं थी। उसने भगवान शंकर को प्रसन्न कर,वरदान मैं अपने नगर का पहरेदार बनना मांगलिया। एक दिन बाणासुर बल- पौरुष से मदमस्त हो,शंकर जी से कहा,मेरी भुजाओं में खुजली हो रही है, आइए आपसे से दो-दो हाथ हो जाए।शंकर जी ने एक ध्वजा दी,और कहा इसे अपने महल में टांग दो,जिस दिन यह गिर जाए,उस दिन समझ लेना,तुझसे लड़ने वाला आ गया। बाणासुर की पुत्री थी उषा।उसका स्वप्न में अनिरूद्ध के साथ सहवास हुआ,और उसने उसी पुरुष से विवाह करने का निश्चय किया। उसकी सखी योगिनी ने,चित्र बना-बनाकर उषा से पहचान करवाकर यह निश्चय कर दिया, कि यह पुरुष अनिरुद्ध ही है।योगिनी चित्रलेखा रात्रि में वैष्णव वेश बनाकर द्वारिका पहुंची,और सोते हुए अनिरुद्ध को पलंग सहित,उषा के पास उठा लाई । अनिरुद्ध उषा के महल में आनंद से रहने लगे, लेकिन यह बात गुप्त रही। सेवकों को शंका होने पर, उन्होंने बाणासुर को खबर दी। बाणासुर ने सैनिकों सहित आकर, अनिरुद्ध से युद्ध किया,और अंत में पकड़कर उन्हें बंदी गृह में डाल दिया। यह कथा 62 अध्याय की है।
  14. श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!अनिरुद्ध के लापता हुए कई महीने बीत गए,किसी को परवाह नहीं।एक दिन नारद जी भगवान के पास पहुंच गए,और उलाहना पूर्वक कहा,कि आप बाल- बच्चों की कोई खबर नहीं रखते! आपका पुत्र अनिरुद्ध ,बाणासुर के यहां कैद है। द्वारका में यह खबर फैलते ही,यदुवंशियों के क्रोध का पारावार नहीं रहा।उन्होंने 12 अक्षौहिणी सेना के साथ, श्री कृष्ण तथा बलराम जी के नेतृत्व में,बाणासुर पर चढ़ाई कर दी।बड़ा अद्भुत रोमहर्षक संग्राम हुआ। नगर के रक्षक शंकर जी थे, बाण की सेना भागने लगी।बाण सामने आया,भगवान ने उसके 500 हाथों में लिए सब धनुष,काट दिए और उसे भूमि पर गिरा दिया।इतने में बाण की धर्ममाता कोटरा नंग-धड़ंग होकर बीच में आ गई ।10.63.20। भगवान ने अपना मुंह फेर लिया,और बाण भागकर घर चला गया। अब भगवान शंकर का गण त्रिशिर-ज्वर दसों दिशाओं को जलाता हुआ सा,भगवान श्री कृष्ण की ओर दौड़ा।भगवान ने उसका मुकाबला करने के लिए अपना-ज्वर छोड़ दिया।वैष्णव और महेश्वर ज्वर आपस में लड़ने लगे।अंत में महेश्वर ज्वर पीड़ित होकर भगवान की शरण आया,और भगवान ने उसे क्षमा कर दिया। इसी बीच बाणासुर पुनः लड़ने के लिए आ गया।श्री कृष्ण ने उसकी भुजाओं की छटनी कर दी।भगवान शंकर प्रकट हुए,उन्होंने श्री कृष्ण की स्तुति की। उनके कहने से बाणासुर के चार भुजाएं छोड़ दी,और उसे अभयदान दे दिया। अंत में बाणासुर ने अनिरुद्ध के साथ, अपनी कन्या उषा का विवाह कर दिया और बहुत सा दान-दहेज देकर विदा किया। सर्वत्र मंगल हो गया।
  15. राजा नृग की कथा का प्रसंग है।एक दिन यदुवंशी राजकुमार घूमने- खेलने उपवन में गए। उन्होंने कुएं में,एक बड़ा भारी गिरगिट पड़ा हुआ देखा।उसे बाहर निकालने की कोशिश की,लेकिन वह नहीं निकला।अंत में जब श्रीकृष्ण आए,तब उनके स्पर्श मात्र से वह गिरगिट,देवता बन गया।भगवान के पूछने पर,उसने बताया- महाराज !मैं इक्ष्वाकु पुत्र राजा नृग हूं।मैंने अंगणित गौऐं दान दी थी,लेकिन एक बार एक ब्राह्मण को दान की हुई गाय,हमारी गायों में आकर मिल गई,और मैंने उसे दूसरे ब्राह्मणों को पुनः दान कर दिया।दोनों ब्राह्मण न्याय के लिए मेरे पास आए।मेरे न्याय से वे संतुष्ट नहीं हुए और वे चले गए । आयु पूरी होने पर जब मैं मरकर यमराज के पास पहुंचा तो, उन्होंने पूछा-कि पहले शुभ या अशुभ? मैंने कहा अशुभ !उसके अनुसार में गिरगिट होकर,कुएं में गिर पड़ा। वाल्मीकि रामायण के अनुसार-नृग का अपराध यह था, कि उन्होंने न्याय देने में बहुत विलंब किया।बेचारे दोनों ब्राह्मण उनके दरवाजे पर कई दिनों तक पड़े रहे,लेकिन वे उनसे मिले ही नहीं।जो सत्ताधारी न्याय को लटकाकर लोगों के हृदय में अशांति फैलाते हैं,वह ईश्वरीय न्याय से दंडित होते हैं । राजा नृग स्तुति कर, भगवान से आज्ञा लेकर, देवलोक चले गए । श्री कृष्ण ने वहां उपस्थित कुटुंबियों से कहा- कि तुम लोग कभी ब्राह्मण का धन न छीनना और न उनका अपमान करना।भागवत 10. 64.42।
  16. बलराम जी के ब्रज गमन का प्रसंग है।बलराम जी ब्रज आए,और वहां 2 महीने रहे।उन्होंने अपने सत्संग द्वारा, श्री कृष्ण विरह से संतप्त नंद बाबा,यशोदा मैया तथा समस्त ब्रजवासियों को सुख प्रदान करते रहे । एक बार ब्रज में रहते समय, बलराम जी के आह्वान को जमुना जी ने अनसुना कर दिया,तो वे अपने हल से उनके टुकड़े-टुकड़े करने को तैयार हो गए। यमुना जी को बलराम जी के पराक्रम और दैवी शक्ति का स्मरण हुआ,तब उन्होंने क्षमा याचना की।बाद में बलराम जी स्वच्छ जलधारा में गोपियों के साथ जल क्रीड़ा करते रहे ।10.65 । बलराम जी ब्रज में ही थे,तभी पौंड्रक जो काशी नरेश का मित्र था और वही रहता था, श्रीकृष्ण को कहला भेजा कि असली वासुदेव तो मैं हूं, तुम मेरी शरण आजाओ। उसने नकली हाथ लगाकर,चतुर्भुज भगवान का वेश बना रखा था।श्री कृष्ण वहां पहुंचे और साथियों सहित उसका उद्धार कर दिया। काशीराज के पुत्र सुदक्षिण ने, काशी के ब्राह्मणों द्वारा, कृष्ण पर कृत्या बनवाकर अभिचार करवाया। लेकिन भगवान के सुदर्शन चक्र ने अभिचार को व्यर्थ कर दिया। और कृत्या ने पलटकर सुदक्षिण और ब्राह्मणों को ही जला दिया ।10.66 । इसके बाद अद्भुतकर्मा बलराम जी ने,  द्विविद नामक शक्तिशाली वानर का रैवत पर्वत पर बध कर दिया।यह बानर अपने मित्र भौमासुर की ओर से,गांव में आग लगाता था, उनको पानी में डुबोता, ऋषि- मुनियों के आश्रमों को नष्ट-भ्रष्ट करता,और लोगों को गुफाओं में बंद कर देता था।भागवत 10.67।
  17. अब कथा जाम्बवती नंदन, साम्ब के, दुर्योधन कन्या लक्ष्मणा के साथ, ब्याह की है। साम्ब, लक्ष्मणा का हरण कर हस्तिनापुर से द्वारका आ रहे थे।कौरवों ने क्रुद्ध होकर, रास्ते में उन को बंदी बनाकर,कारागृह में डाल दिया। यह समाचार नारद जी द्वारा,यदुवंशियों को ज्ञात हुआ,तो वे कौरवों पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे। बलराम जी युद्ध नहीं चाहते थे,अतः यदुवंशियों को शांत कर, हस्तिनापुर गए, और कहा- कि साम्ब को मुक्त कर दो,और उसको,उसकी नवबधू के साथ द्वारका भेज दो। बलरामजी समझते थे- कि दुर्योधन ने उनसे गदा युद्ध सीखा है, अतः उनकी बात का आदर करेगा।लेकिन कौरवों ने इसे अपनी मान मर्यादा के विरुद्ध माना, और बलराम जी को दुर्वचन कहे। बलराम जी ने यह कहकर, कि मैं पृथ्वी को कौरवों से विहीन कर दूंगा, अपना हल उठाया और उसकी नोक से हस्तिनापुर को खींचकर गंगा जी में डुबोने लगे। वहां की धरती डगमगा उठी,और लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। कौरव घबराकर बलराम जी की शरण आ गए, और उन्होंने उनको अभयदान दे दिया । दुर्योधन ने अपनी प्रिय पुत्री लक्ष्मणा का विवाह साम्ब के साथ कर दिया और बहुत सा धन-दहेज देकर, बलराम जी के साथ विदा कर दिया।यह कथा अध्याय 10.68 की है ।
  18. श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित !नारद जी ने जब सुना, कि भगवान ने 16100 राजकुमारियों से विवाह कर लिया है,तो भगवान की दिनचर्या देखने के लिए द्वारिका पहुंचे।नारद जी सबसे पहले रुक्मिणी के महल में गए।वहां भगवान रुक्मिणी जी के साथ पलंग पर बैठे थे।नारद जी को देखते ही, भगवान पलंग से उठे, उनको प्रणाम किया,आसन देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना की। इसके बाद नारदजी दूसरे महल में गए,तो वहां देखा कि भगवान अपनी श्रीमती जी और अपने मित्र उद्धव के साथ चौसठ खेल रहे हैं । नारद जी वहां से चुपचाप उठकर, एक-एक करके सब महलों में गए।उन सब में- कहीं तो भगवान बालक खिला रहे हैं, कहीं स्नान कर रहे हैं,कहीं हवन कर रहे हैं, कहीं पंच महायज्ञ कर हैं,कहीं ब्राह्मण भोजन करा रहे हैं और उसके बाद स्वयं भोजन कर रहे हैं ,और कहीं हाथ में ढाल तलवार लेकर पैंतरे बदल रहे हैं ,कहीं अर्थ-काम का सेवन कर रहे हैं, कहीं धर्म का संपादन कर रहे हैं, कहीं परमात्मा का ध्यान कर रहे हैं, कहीं बड़ों की सेवा कर रहे हैं,कहीं युद्ध कौशल की चर्चा कर रहे हैं,कहीं कन्याओं का विवाह कर रहे हैं,कहीं उनकी विदाई कर रहे हैं,कहीं प्रस्थान के लिए वेश धारण कर रहे हैं, आदि-आदि । यह सब देखने के बाद,नारद जी ने योगेश्वर भगवान की स्तुति की ,और उनकी त्रिभुवन पावनी लीला का गान करते हुए लौट गए ।श्री शुकदेव जी कहते हैं, कि जो उनकी लीलाओं का श्रवण -गान करता है, उसे भगवान कृष्ण के चरणों में परमप्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है।भागवत 10 .69.45।
  19. अब श्री शुकदेव जी परीक्षित को,श्री कृष्ण की प्रेरणा प्रद दिनचर्या( 10.70) का श्रवण कराते हैं। आश्चर्य है-कि आज का मनुष्य,धन-यश या पद प्राप्त करते ही,सबसे पहले हिंदू शास्त्रोक्त दिनचर्या का उल्लंघन कर, अपने को विकासवादी सिद्ध करने लगता है। भगवान श्री कृष्ण ब्राह्ममुहूर्त में उठ जाते, फिर प्रसन्न चित्त परमात्मा का ध्यान करते। भागवत 10.70.5।परमात्मा का ध्यान क्या है?जो अन्वय-व्यतिरेक द्वारा सब में परिपूर्ण है।जिसके बिना कुछ नहीं,परंतु सबके बिना जो रहता है,वह परमात्मा है, उसमें स्थिति। ध्यान करने के बाद उठकर, स्नान आदि करते,वस्त्र धारण करते।बाद में संध्या वंदन करते,फिर मौन होकर जप करते।जप के बाद भगवान,सूर्योपस्थान करते। देव,ऋषि, पितरों का तर्पण करते।वृद्ध ब्राह्मणों का सेवन करते,फिर गोदान करते।गोदान करने में उनकी बड़ी रूचि थी।8। भगवान गाय,ब्राह्मण,देवता वृद्ध सब की भक्ति करते।भोजन करने के पहले वे बराबर इस बात का ध्यान रखते, कि पहले ब्राह्मणों,मित्रों,मंत्रियों तथा पत्नियों को भोजन मिल गया है,कि नहीं।पहले दूसरे को खिलाकर तब खाते। इसके बाद सारथी रथ लेकर आता, और भगवान को प्रणाम कर खड़ा हो जाता। भगवान रथ द्वारा सुधर्मा सभा पहुंचते,और राजकाज की व्यवस्था पर,अनुशासन करते।
  20. श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!एक दिन जब सुधर्मा- सभा का सत्र चल रहा था,तब जरासंध द्वारा बंदी बनाए गए 20000 राजाओं की ओर से, एक व्यक्ति आया।उसने राजाओं की व्यथा बताई,और कहा सारे राजा आपके शरणागत हैं,और प्रार्थना करते हैं,कि आप उनको क्लेसों से मुक्त कराएं।इस समस्या पर विचार चल ही रहा था,कि नारद जी सुधर्मा-सभा में आ गए।श्री कृष्ण ने सभी सदस्यों के सहित उनका यथा योग्य सत्कार किया। पूछने पर नारद जी ने बताया कि राजा युधिष्ठिर, राजसूय यज्ञ के द्वारा, आपकी आराधना करके,यश और ऐश्वर्य प्रकट करना चाहते हैं। इस प्रकार सभा के सामने एक साथ दो समस्याएं आ गईं, कि किधर चलना चाहिए। सभासदों में मतभेद था।भगवान ने इस विषय में उद्धव जी से सलाह मांगी।उद्धव जी ने सभासदों से विचार-विमर्श कर,उनका मत जान लिया,और फिर अपना निर्णय व्यक्त किया:- हम लोगों का कर्तव्य युधिष्ठिर की सहायता करना भी है,और राजाओं की रक्षा करना भी है।दोनों कामों की सफलता के लिए जरासंध को जीतना आवश्यक है। यह कठिन कार्य है,जरासंध के पास 10000 हाथियों का बल है,और सौ अक्षौहिणी सेना भी,जरासंध को द्वंदयुद्ध में केवल भीमसेन हरा सकते हैं।जरासंध ब्राह्मण भक्त है,और आतिथ्य के समय,उससे जो मांगता है नांहीं नहीं करता,दे देता है।इसलिए भीमसेन ब्राह्मण के वेश में जाएं और उससे युद्ध की भिक्षा मांगे।इसमें संदेह नहीं है कि यदि आप की उपस्थिति में भीमसेन और जरासंध का युद्ध हो,तो भीमसेन उसे मार डालेंगे।अतः पहले हमें युधिष्ठिर के यज्ञ में सम्मिलित होना चाहिए। श्री कृष्ण जी ने उद्धव की सलाह मान ली, और सबको इंद्रप्रस्थ चलने की आज्ञा दे दी। भागवत 10.71.12।
  21. भगवान श्री कृष्ण अपने दल-बल के साथ,इंद्रप्रस्थ पहुंचे। युधिष्ठिर ने अपने परिवारजनों के साथ, उनका बड़ा भारी स्वागत किया,और यथा योग्य सुंदर रहने के स्थान दिए। यज्ञ के पहले युधिष्ठिर ने,दिग्विजय का आदेश प्रदान किया!अन्य सब राजाओं ने अधीनता स्वीकार कर ली,किंतु जरासंध परास्त नहीं हुआ।युधिष्ठिर चिंतित हो गए। श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वस्त किया,और उद्धव जी का कहा उपाय बताया। योजना अनुसार भगवान श्रीकृष्ण,भीम, और अर्जुन ब्राह्मण वेश बनाकर जरासंध के यहां गए।यद्यपि उनके रंग ढंग देखकर वह पहचान गया,कि ये ब्राह्मण नहीं हो सकते, फिर भी आतिथ्य दृष्टि से उसने पूछा!कि तुम्हें क्या चाहिए! श्री कृष्ण ने कहा-हम लोग ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय हैं,इसलिए तुमसे युद्ध का आतिथ्य चाहते हैं।भगवान ने, जरासंध को अपना,भीमसेन का,और अर्जुन का,असली परिचय भी दे दिया। जरासंध विचलित नहीं हुआ,और कहा कि तुम जिस अभिप्राय से आए हो,वही मिलेगा। लेकिन कृष्ण तुम हारकर भाग गए थे, इसलिए तुम से नहीं लड़ेंगे।अर्जुन मुझसे उम्र में छोटा है,इसलिए मैं उससे भी नहीं लडूंगा। भीमसेन मेरी बराबरी का है,अतः उससे मेरा युद्ध होगा।
  22. आगे जरासंध के वध की कथा है।मल युद्ध की तैयारी हुई। स्वयं जरासंध ने ही भीमसेन को गदा दे दी। युद्ध प्रारंभ हुआ, 27 दिनों तक युद्ध चलता रहा,लेकिन हार जीत का कोई निर्णय नहीं हो पाया।दोनों दिन भर युद्ध करें,और रात में मित्र की तरह रहें । 28वें दिन भीमसेन ने,श्रीकृष्ण से न जीत पाने की निराशा व्यक्त की।भगवान जानते थे, कि दो टुकड़ों में जन्मे जरासंध को,  जरा राक्षसी ने दोनों भागों को जोड़कर जीवनदान दिया है ।अतः उन्होंने भीमसेन के शरीर में अपनी शक्ति का संचार किया,और एक वृक्ष की डाली को बीच से चीरकर इशारे से भीमसेन को जीत का मार्ग दिखाया। बलसाली भीमसेन ने,भगवान का अभिप्राय समझकर,जरासंध के पैर पकड़ कर उसे धरती पर दे मारा। फिर एक पैर अपने पैर से दबाकर,और दूसरे को हाथों से ऊपर खींचकर,गुदा की ओर से चीर डाला। जरासंध के दो टुकड़े हो गए- जिनमें एक -एक पैर,जांघ, अंडकोष,कमर,पीठ स्तन,कंधा,भुजा,नेत्र और कान आदि अलग-अलग थे। जरासंध की मृत्यु के पश्चात,श्री कृष्ण ने उसके पुत्र को, मगध राज्य का राजा बना दिया।बंदी राजाओं को जेल से मुक्त करवा दिया।श्री कृष्ण ने उनके बाल बनवाए,उनका वस्त्र भूषण बदलवाया,उन्हें रथ दिलवाए और राज्य संचालन के लिए,बहुत सारी धन-संपदा दिलवाई।फिर सब राजाओं को विदा किया।वे सब राजा,श्री कृष्ण के भक्त बनकर,युधिष्ठिर की यज्ञ में सम्मिलित हुए। भागवत 10.73.29। 
  23. जरासंध का वध करा श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन के साथ इंद्रप्रस्थ लौटे।उन विजयी वीरों ने इंद्रप्रस्थ के पास पहुंचकर,अपने-अपने दिव्य शंख बजाए।इंद्रप्रस्थ में हर्ष की लहर दौड़ गई।युधिष्ठिर तो इतने गदगद हो गए,कि कुछ बोल ही नहीं सके। स्वस्थ होने पर,धर्मराज युधिष्ठिर ने, श्रीकृष्ण की स्तुति की।यज्ञ का समय आने पर भगवान की अनुमति से, बड़े-बड़े महात्माओं को आमंत्रित किया।व्यास, भरद्वाज,गौतम,वशिष्ठ,कण्व, मैत्रेय, विश्वामित्र,वामदेव,जैमिन,पराशर,गर्ग, वैशम्पायन, परशुराम,शुक्राचार्य,आसुरि आदि सब बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आए।धर्मराज युधिष्ठिर ने सबका यथा योग्य वरण किया। युधिष्ठिर के बुलाने पर- द्रोणाचार्य,भीष्म पितामह,कृपाचार्य,धृतराष्ट्र,दुर्योधन,विदुर आदि सभी आए।चारों वर्णों और आश्रम के लोग भी आए।इंद्रादी लोकपाल,सिद्ध- गंधर्व, राजगंण, राजपत्नियां सब-के-सब आए।फिर विधिवत,राजसूय यज्ञ पूरा हुआ,समय पर सोमवल्ली रस (ताजारस) का पान हुआ। भागवत 10.74 .17। अब सभासद लोग,सदस्यों में अग्रपूजा के निर्धारण पर, विचार करने लगे।सहदेव ने अपने विचार रखे- श्रीकृष्ण ही अग्रपूजा के पात्र हैं,यह सारा विश्व श्री कृष्ण का रूप है। समस्त यज्ञ उन्हीं का स्वरूप है। श्रीकृष्ण एकरस अद्वितीय ब्रह्म है, जिसमें सजातीय, विजातीय,और स्वागत भेद नहीं है।इनकी पूजा से समस्त प्राणियों की,तथा अपनी भी पूजा हो जाती है।सर्व सम्मत से सहदेव का प्रस्ताव स्वीकार किया गया।राजा युधिष्ठिर ने प्रसन्नचित्त सपरिवार श्रीकृष्ण की विधिवत अग्रपूजा की।
  24. श्रीकृष्ण की अग्रपूजा से सब प्रसन्न थे।लेकिन शिशुपाल को बड़ा क्रोध आया,वह भरी सभा में उठकर श्रीकृष्ण को गाली देने लगा,वह बोला-कि जैसा मैं,वैसा ही यह है।मैं इसकी बुआ का ही लड़का हूं।यह तो मेरी मंगेतर को ही हर ले गया था।भला कोई गांव का ग्वाला, चरवाहा,कभी पूजा के योग्य हो सकता है? यह कर्म-धर्म से बहिष्कृत,गुणों से हीन है, पूजा के योग्य नहीं। कुछ राजा ऐसे थे,जो शिशुपाल को मारने के लिए तैयार हो गए।थोड़े से शिशुपाल के पक्षपाती भी थे।दो दल बन गए,युद्ध की स्थिति बन गई,जिससे यज्ञ में विघ्न हो सकता था। श्रीकृष्ण उसकी 100 गालियों तक कुछ नहीं बोले, क्योंकि उसके लिए उसकी मां को वचन दे चुके थे।लेकिन जब शिशुपाल का गाली देना चालू रहा तब श्रीकृष्ण ने अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उसके शरीर से एक ज्योति निकली,और वह श्रीकृष्ण में समा गई।वैरभाव से सही वह भगवान का 3 जन्मों से स्मरण कर रहा था, और उसके पहले जय नामक पार्षद था।अब सब लोगों ने कहा- कि श्रीकृष्ण तो साक्षात ईश्वर हैं। इसके पश्चात शांति पूर्वक अवभृत स्नान हुआ,उसका विस्तार से अद्भुत वर्णन भागवत 10.74 में है।युधिष्ठिर का सौभाग्य वर्धन हुआ।दुर्योधन को छोड़कर सभी यज्ञ से प्रसन्न हुए।
  25. राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा,महाराज! यज्ञ से केवल दुर्योधन ही अप्रसन्न क्यों हुआ? श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!दुष्ट का स्वभाव ही ऐसा होता है।तुम्हारे दादा युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ बहुत बड़ा यज्ञ था। बड़े कामों में सबका सहयोग जरूरी होता है। इसलिए उस यज्ञ में परिचर्या के अलग-अलग विभागकर उनमें सभी भाई बंधुओं को, नियुक्त कर दिया गया था। दुर्योधन को भी कोष का विभाग सौंपा गया था।राजसूय यज्ञ के बाद जिस प्रकार युधिष्ठिर का यश-वैभव- संपत्ति बढ़ी उसको देख-देख कर दुर्योधन के मन में डाह बढ़ने लगा । एक और अप्रिय घटना,अप्रसन्नता का कारण बनी ।श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के लिए इंद्रप्रस्थ में,मयदानव द्वारा एक सभा भवन बनवाया था।यह सभा भवन इतना विलक्षण था,कि उसमें जल,स्थल की तरह ;और स्थल, जल की तरह, दिखता था।उस सभा में धर्मराज युधिष्ठिर सुवर्ण सिंहासन पर बैठे थे। समस्त विभूतियां विराजमान थीं, बहुत से स्त्री-पुरुष भी बैठे थे।उसी समय दुर्योधन भी वहां आए।भ्रमवश उन्होंने स्थल की जगह जल समझकर,अपने कपड़े ऊपर उठा लिए, और जहां जल था, वहां स्थल समझकर, कपड़े पहने ही गिर पड़े और भीग गए। उसको देखकर द्रोपदी सहित,स्त्रियां हंस पड़ीं, भीमसेन भी हंस पड़े।युधिष्ठिर ने इस प्रकार हंसना ठीक नहीं समझा,उनको मना भी किया । भगवान श्री कृष्ण ने हंसने का मौन अनुमोदन किया,क्योंकि वह महाभारत युद्ध द्वारा,पृथ्वी का भार उतारकर,अपने अवतारी कर्तव्य को पूरा करना चाहते थे।
  26. श्रीकृष्ण- और बलराम जी अभी पांडवों के पास इंद्रप्रस्थ में ही थे,कि शिशुपाल के मित्र शाल्व ने तपस्या कर,भगवान शंकर की कृपा से, मय दानव द्वारा निर्मित एक दिव्य विशाल विमान प्राप्त कर लिया।यह विमान महल सरीखा था,और उसमें सेना के साथ युद्ध सामग्री भी रहती थी ,भगवान की अनुपस्थिति में शाल्व ने द्वारिका पर चढ़ाई कर दी।रुक्मणी नंदन प्रद्युम्न ने बहादुरी से मुकाबला किया,लेकिन शाल्व और उसका सेनापति बहुत बड़ा मायावी था,उसके प्रहार से प्रद्युम्न बेहोश हो गए।उसी समय भगवान श्रीकृष्ण-बलराम जी द्वारका पहुंच गए। उन्होंने 27 दिनों के भीषण युद्ध के बाद, मायावी शाल्व के विमान को तोड़ दिया,और शाल्व को मार दिया।भागवत 10.77.36। श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित! शिशुपाल,शाल्व और पौंड्रक का मित्र,मूर्ख दंतवक्त्र,उसी समय मित्रों का बदला लेने के लिए,श्रीकृष्ण से लड़ने के लिए आया। भगवान ने उसको भी मार दिया। शिशुपाल की तरह ही उसके शरीर से ज्योति निकलकर,भगवान में समा गई।वह पूर्व जन्म का पार्षद भी था तथा 3 जन्मों से वैराग्य द्वारा भगवान का स्मरण कर रहाथा। 10.78.10।उसी समय दंतवक्त्र का भाई विदूरथ भी लड़ने के लिए आया ,और श्रीकृष्ण द्वारा मारा गया। योगेश्वर एवं जगदीश्वर ने जीत के बाद द्वारकापुरी में प्रवेश किया।उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे।बड़े-बड़े ऋषि-मुनि,सिद्ध-गंधर्व,विद्याधर और वासुकी, अप्सराएं,पितर,यक्ष, किन्नर,तथा चारण आदि उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करते हुए, उनके विजय गीत गा रहे थे। 
  27. दुर्योधन ने कपट से पांडवों को द्यूत में हराया।बनवास के अंतिम समय,पांडवों ने विराट नगरी में अज्ञातवास किया।लौटने पर पांडव-कौरव में युद्ध की तैयारी होने लगी।बलराम जी इस युद्ध में तटस्थ रहना चाहते थे,अतः तीर्थ यात्रा के बहाने द्वारका छोड़ कर चले गए,वह यमुना-गंगा के तटवर्ती तीर्थों में भ्रमण करते हुए नैमिषारण्य क्षेत्र में पहुंचे। वहां देखा कि रोमहर्षण जी,सूत जाति के होकर भी, ब्राह्मणों से ऊंचे आसन पर बैठे हैं,और बलराम जी के पहुंचने पर भी,उनकी उपेक्षा कर रहे हैं।वर्ण व्यवस्था का उल्लंघन व उनकी उद्दंडता देख,बलराम जी को क्रोध आ गया,और उन्होंने कुश की नोक से प्रहार कर दिया।होनहार ऐसी!कि उतने से ही सूत जी मर गए।भागवत 10.78.28। यह देखकर ऋषि मुनि खिन्न होकर बोले- कि हम लोगों ने ही, उन्हें ब्राह्मणोचित आसन पर बैठाया था, इसलिए आपको इस हत्या का प्रायश्चित करना चाहिए!बलराम जी ने लोक -शिक्षा के लिए प्रायश्चित करना स्वीकार कर लिया।उन्होंने रामहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को,पिता के स्थान पर, पुराणों की कथा कहने के लिए प्रतिष्ठित किया,और दीर्घायुष्य भी प्रदान कर दिया।इस प्रकार कथा के क्षेत्र में,भागवत जी की शेष-परंपरा भी स्थापित हो गई ।उसके बाद बलराम जी ऋषियों के कहने पर बल्वल नामक दानव का वध करके,अन्य तीर्थों की ओर चले गए ।भागवत 10. 79।
  28. राजा परीक्षित कृष्ण की लीलाएं सुनने से तृप्त नहीं हो रहे थे,अतः उन्होंने श्री शुकदेव जी महाराज से भगवान की और कथाएं कहने का निवेदन किया।इस पर शुकदेव जी, सुदामा ब्राह्मण का चरित्र सुनाने लगे।श्री शुकदेव जी भागवत जी की कथा कहने के बीच,दो बार समाधिस्थ हुए हैं-एक बार श्री कृष्ण द्वारा,ब्रह्मा जी के अहम् निवारण के लिए भगवदीयमाया द्वारा गोप व बछड़ों की रचना के प्रसंग में,और दुबारा भगवान के द्वारा,सुदामा के मित्र-प्रेम की कथा प्रसंग में। भागवत जी में सुदामा को एक ब्रह्मज्ञानी, विरक्त,शांतचित्त, संतोषी,गरीब-ब्राह्मण के रूप में दिखाया गया है।उनमें विप्रत्व भी है, और ऋषित्व भी है।वह शिक्षाकाल के श्री कृष्ण के मित्र हैं और द्वारिका के पास ही निवास करते हैं।वह किसी से कुछ मांगते नहीं है,आकाशीय वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हैं।वह और उनकी पत्नी सुशीला, भरपेट भोजन के अभाव में,दुबले-पतले हैं, और फटे-पुराने कपड़ों से निर्वाह करते हैं। गरीबी से विवश होकर,एक दिन सुदामा की पत्नी ने,उनसे श्री कृष्ण के पास जाने की प्रार्थना की,जिससे खाने पीने की व्यवस्था तो हो जाए।सुदामा को यह बात जमी नहीं। वह सोचते हैं,भगवान सर्वज्ञ हैं,जिन परिस्थितियों में हमारा आध्यात्मिक विकास संभव है,वैसी ही उन्होंने प्रदान किया है।इस सोच के बीच यह विचार भी आया -कि मांगना लेना तो कुछ है नहीं,लेकिन द्वारका जाकर इस बहाने भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ उठाया जा सकता है।उन्होंने पत्नी की बात का आदर किया,और कहा कि श्री कृष्ण की भेंट के लिए कुछ दे दो।घर में तो कुछ था नहीं, अतः वह चार घरों से,चार मुट्ठी चिवाड़ा मांगकर, एक कपड़े की पोटली में बांधकर,श्री कृष्ण की भेंट सामग्री के रूप में, सुदामा जी को दे दिया।
  29. श्री कृष्ण- सुदामा के मित्र-प्रेम का प्रसंग है।सुदामा जी भगवान से मिलने का मनोरथ लिए,द्वारका पहुंचे।भगवान के महल तक पहुंचने में कड़ी सुरक्षात्मक व्यवस्था थी,लेकिन संत-ब्राह्मणों के लिए कोई रोक-टोक नहीं थी,अतः सुदामा तीन छावनी और चार द्वारों को पार कर,वहां तक पहुंच गए,जहां से श्रीकृष्ण उनको देख सकते थे।उस समय भगवान श्री कृष्ण, रुक्मणी जी के साथ पलंग पर विराजे थे। श्रीकृष्ण की उनपर दृष्टि पड़ते ही,वे पलंग छोड़ दौड़कर सुदामा जी को भुज-पाश में बांध लिया।भागवत 10.80.18।भगवान की आंखों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगी। श्री कृष्ण सुदामा जी को अपने महल के भीतर ले गए।उन्होंने उनको स्नान कराकर अपना पीतांबर पहनाया,स्वादिष्ट भोजन कराया,इसके बाद उनको अपने पलंग पर बैठाकर, समस्त पत्नियों सहित विधिवत पूजन किया। परीक्षित! इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़कर,गुरुकुल की आनंद भरी घटनाओं का स्मरण करने लगे। 27 ।भगवान ने कहा, सचमुच गुरुकुल में ही,द्विजातियों को अपने ज्ञातव्य -वस्तु का ज्ञान होता है।ब्राह्मन्! उस दिन की घटना याद है -जब हम लोगों को गुरुपत्नी ने ईंधन लाने के लिए,जंगल में भेजा था।बिना ऋतु के बड़ा भयंकर आंधी- पानी आ गया।हम लोगों को दिशा ज्ञान न रहा और आतुर हो जंगल में इधर-उधर भटकने लगे। गुरुदेव संदीपन को जब पता चला,तो दूसरे दिन प्रात,स्वयं जंगल जाकर,हमें ढूंढ निकाला।प्रसन्न होकर उन्होंने हम लोगों को आशीर्वाद दिया-कि तुम लोगों ने हमसे जो वेद अध्ययन किया है,वह तुम्हें सर्वदा कंठस्थ रहे,तथा कहीं भी निष्फल नाहो हो।भागवत 10.80 .42। 
  30. सुदामा चरित्र का प्रकरण चल रहा है।श्रीकृष्ण पूर्वोक्त  प्रकार से, बहुत देर बातचीत करने के बाद,अपने प्यारे सखा से मुस्कराकर विनोद करते हुए बोले, ब्राह्मन्! आप मेरे लिए क्या उपहार लाए हो?परीक्षित!भगवान के ऐसा कहने पर भी,संकोचवश ब्राह्मण देवता ने,लक्ष्मीपति को चार मुट्ठी चिवड़ा नहीं दिए,और पोटली,जिसमें उनकी गरीबी का इतिहास लिखाथा,कांख के नीचे दबा ली। अंतर्यामी श्रीकृष्ण से कुछ छुपा नहीं रहता। उन्होंने स्वयं ही पोटली छीन ली। उसमें से एक मुट्ठी चिवड़ा निकालकर,खा गए।जैसे ही दूसरी मुट्ठी भरी,लक्ष्मी स्वरूपिणी रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड़ लिया,और कहा-कि हम लोगों को क्या ब्राह्मण का प्रसाद नहीं मिलेगा? 10.81.10। वे जानती हैं, कि एक मुट्ठी चिवड़ा ग्रहण करने से ही,सुदामा को संसार की सारी संपदा मिल जाएगी।यदि दूसरी मुट्ठी भी खाली,तो हम सब को भी इनके घर जाकर, इनकी सेवा करनी पड़ेगी।परीक्षित!ब्राह्मण देवता, उस रात भगवान श्री कृष्ण के महल में ही रहे,और अनुभव किया,मानो बैकुंठ में पहुंच गए हों। दूसरे दिन भगवान श्रीकृष्ण के यहां से सुदामा खाली हाथ विदा हुए।वे श्री कृष्ण के दर्शन जनित आनंद में डूबते- उतराते अपने घर की ओर चल पड़े।वह सोचते जा रहे हैं-कहां मैं दरिद्र पापी !और कहां श्रीनिकेतन श्रीकृष्ण! फिर भी,उन्होंने मुझे एक ब्राह्मण समझकर अपनी बाहों में भर लिय,और हृदय से लगा लिया।16। देवताओं के आराध्य देव होकर भी,प्रभु ने मेरे पांव दबाकर ,अपने हाथों खिला पिलाकर,देवता जैसा सम्मान दे,मेरी पूजा की ।
  31. विप्र सुदामा की कथा चल रही है।श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित!पूर्वोत्तर प्रकार से मन-ही-मन विचार करते,ब्राह्मण देवता अपने घर के पास पहुंच गए।वे देखते हैं-कि सब-का-सब स्थान सूर्य,अग्नि और चंद्रमा के समान तेजस्वी रत्न निर्मित,महलों से घिरा हुआ है।ठौर-ठौर और चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं।वे सोचने लगे,मैं यह क्या देख रहा हूं?यह किसका स्थान है?वह इस प्रकार सोच ही रहे थे, कि सुंदर- सुंदर स्त्री-पुरुष, गाजे-बाजे के साथ उनकी अगवानी के लिए आए।साथ में उनकी पत्नी दासियों के बीच देवांगना के समान सुशोभित है।पतिदेव को देखते ही,पतिव्रता पत्नी के नेत्रों में,प्रेम के आंसू छलक आए। ब्राह्मणी ने प्रेमभाव से उन्हें नमस्कार किया, और मन-ही-मन आलिंगन भी। सुदामा जी ने अपनी पत्नी के साथ,अपने महल में प्रवेश किया।उनका महल क्या था- मानो देवराज इंद्र का निवास स्थान। वे मन ही मन कहने लगे- मैं तो जन्म से भाग्यहीन और दरिद्र हूं।मेरी संपत्ति-समृद्धि का कारण श्री कृष्ण की कृपा-कटाक्ष का परिणाम है। मुझे जन्म-जन्म उन्हीं का प्रेम,उन्हीं की हितैषिता,उन्हें की मित्रता,और उन्हीं की सेवा प्राप्त हो।परीक्षित!ब्राह्मण देवता त्याग पूर्वक, अनासक्त भाव से,अपनी पत्नी के साथ भगवत प्रसाद मानकर, विषयो का सेवन करने लगे। दिनों-दिन उनकी प्रेमा-भक्ति बढ़ने लगी।स्मरण और ध्यान के आवेग से उनकी अविद्या की गांठ कट गई,और थोड़े ही समय में,भगवान का धाम प्राप्त कर लिया।भागवत 10.81.40।
  32. श्रीशुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!एकबार सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा,और परंपरा अनुसार सारे भारत के लोग,समंतपंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आए। द्वारका और ब्रज के लोग भी वहां आए।वहां आकर लोगों ने दान-जप किया।रामहृद में स्नान किया,और सुहृद- संबंधियों से मिले। वहां जितने भी राजा,व अन्य लोग आए सबके-सब श्री कृष्ण के दर्शन करके,बड़े प्रसन्न हुए। भीष्म,द्रोण,विराट,भीष्मक, पुरु- जित्, द्रुपद,शल्य तथा काशीराज आदि सब, श्रीकृष्ण को देखकर आनंद में निमग्न हो गए। उनकी स्तुति करते हुए कहने लगे-कि इनकी कीर्ति,इनके चरणों का जल गंगा है, और इनका वचन वेद हैं, जो तीनों लोकों को पवित्र करते हैं। यदुवंशी; नंदबाबा व अन्य गोप-गोपियों से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। उन लोगों ने परस्पर गाड़ आलिंगन किया। उन सबको पुरानी बातें याद आने लगीं। श्रीकृष्ण और बलराम ने नंदबाबा और यशोदा मैया के चरणों में प्रणाम किया,वे उनके हृदय में लग गए,गला रूंध गया अतः कुछ बोल नहीं सके। नंद यशोदा का भी यही हाल रहा। उन्होंने दोनों भाइयों का प्रगाढ़ आलिंगन करके,अपनी गोद में बैठा लिया।उससे उनके ह्रदय में चिरकाल से न मिलने का जो दुख था,वह मिट गया। रोहणी और देवकी जी, यशोदा जी से मिलीं, तो उन्होंने उन्हें अपने अंक में भर लिया।वे कहने लगीं,ब्रजेश्वरी यशोदा रानी! आपने जो आत्मीयता भरा,मित्रता का व्यवहार किया है,उसे हम कभी नहीं भूल सकते। प्रेममयी गोपियां भी,बहुत दिनों बाद,अपने प्रियतम का दर्शन कर,मन-ही-मन उनका आलिंगन कर रही थीं। भगवान सब जानकर एकांत में उनसे मिले।कुशल मंगल के उपरांत हास्य विनोद करते,बातचीत करने लगे।10. 82.41।
  33. ब्रज छोड़ने के लंबे समय बाद, श्री कृष्ण -गोपियों के मिलन का प्रसंग है।श्री कृष्ण ने कहा, गोपियों! मिलना-बिछुड़ना ईश्वर के हाथ में है। वही कभी मिलाता है,कभी बिछुड़ा देता है।मेरे सामने बड़े-बड़े काम आ गए,जिनको पूरा करने के लिए,जाना पड़ा।गोपियों!जीवन में प्रेम भी चाहिए,कर्म भी चाहिए और ज्ञान भी चाहिए। मेरे प्रति तुम्हारी जो भक्ति है,उसी से मेरा-तुम्हारा मिलन हुआ। अब मैं तुम लोगों को,अपनी भक्ति का फल देता हूं:- संपूर्ण प्राणियों का आदि,अंत और अंतराल मैं ही हूं।जैसे घड़े में पहले मिट्टी,बीच में मिट्टी, बाद में मिट्टी होती है;जैसे पानी की बूंद में पहले पानी,बीच में पानी,बाद में पानी होता है -वैसे ही संपूर्ण विश्वप्रपंच के पहले, पीछे और बीच में मैं ही हूं।यह सारे भूत- आत्मा में फैले हुए हैं,आत्मा तथा भूत दोनों मुझ में है,और मैं दोनों से परे हूं ।भागवत 10.82.46 -47 । भगवान की वाणी से निकिली अध्यात्म शिक्षा के परिणाम स्वरूप, तत्काल ही गोपियों के जीवकोष ध्वंस हो गए,और उनको परमात्मा की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति हो गई,जिससे वे श्रीकृष्ण से एकत्व अनुभव करने लगीं।10.82.48। इसके बाद गोपियां बोली- ठीक है , आत्मदृष्टि से हम-आप एक हैं,किंतु हम चाहते हैं,कि जबतक हमारा शरीर है,तबतक हमारी मनोवृति,हमारा व्यक्तित्व और अंतःकरण हमेशा आपके चरणरविंद के चिंतन में लगा रहे।
  34. इसके आगे प्रसंग आता है,यादव और कौरव कुल की स्त्रियों के बीच संभाषण का।उनकी बातचीत का विषय श्रीकृष्ण ही थे।द्रोपदी जीने एक-एक कृष्ण पत्नी के नाम लेकर,निवेदन किया-कि आप लोग अपने अपने विवाह की कथा सुनाओ। रुक्मणी जी ने बताया-अधिकांश लोग चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो,लेकिन मैं तो श्रीकृष्ण को ही चाहती थी, उन्होंने सिंह की तरह मेरा हरण करके, मेरे साथ व्याह किया। सत्यभामा जी ने बताया-कि किस प्रकार उनके पिता सत्राजित ने, मुझे श्रीकृष्ण को दे दिया। जाम्बवती ने कहा-कि मेरे पिता जाम्बवान  जी ने,27 दिन तक युद्ध करने के बाद,उनके भगवान रूप को पहचाना,और तब मेरा ब्याह कर दिया। कालिंदी जी ने कहा-मुझे तो अर्जुन के साथ यमुना तट पर जाकर,मेरी भक्ति भावना का आदर कर,मुझे उठा लिया। मित्रविंदा ने कहा- कि मुझे स्वयंवर से बड़े-बड़े राजाओं को जीतकर उठा लिया। सत्या ने बताया-कि मेरे लिए उन्होंने अत्यंत बलशाली सात बैलों को एक साथ नाथ दिया,तब मेरा उनसे विवाह हुआ। भद्रा ने कहा-कि मेरे पिता श्रुत्कीर्ति ने, मेरा उनके प्रति प्रेम जानकर, मेरा विवाह ब्राह्म- विवाह रीति से कर दिया।  लक्ष्मणा ने कहा-कि मेरा विवाह तो आपकी तरह मत्स्य-भेद स्वयंवर से हुआ। उस स्वयंबर में अर्जुन सहित बड़े-बड़े राजे आए थे,लेकिन किसी से मत्स्यभेद नहीं हो सका।मेरे स्वयंवर के समय मत्स्य कपड़े से ढकी थी,और उसकी परछाई जल में दिख रही थी।अंत में 16000 पत्नियों में प्रमुख रोहणी जी ने बताया- कि श्रीकृष्ण कैसे भौमासुर को मारकर,हम सब को प्राप्त किया।हम सब कोई सांसारिक सुख नहीं चाहती,बस उनके चरणों की धूल चाहती हैं।हम वही चाहती हैं, जिसे ब्रज की स्त्रियां तथा वहां के तृण और गोप चाहते हैं।भागवत 10.83.43।श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित! श्री कृष्ण पत्नियों का यह वार्तालाप- कुंती, गंधारी, तथा सुभद्रा आदि मी सुन रही थीं। वह सब-की-सब अलौकिक पति प्रेम देखकर,मुग्ध हो गईं, और उनकी आंखों से प्रेमाश्रु भर आए।भागवत 10.84.1।
  35. आगे की कथा यह है, कि कुरुक्षेत्र में बलराम-श्रीकृष्ण से मिलने के लिए व्यास,नारद,च्यवन,देवल  तथा विश्वामित्र आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आए।उन सब को पांडवों और बलराम-कृष्ण आदि ने उठकर,नमस्कार किया,स्वागत सत्कार किया।श्रीकृष्ण उनकी स्तुति करने लगे:- आज हम लोगों को जीवन सफल हो गया। जिन महात्माओं का दर्शन दुर्लभ है,वह आज हमारे सामने हैं, केवल जलमय तीर्थ-ही- तीर्थ नहीं होते।मिट्टी पत्थर की प्रतिमा-ही- देवता नहीं होतीं।संत पुरुष ही तीर्थ और देवता हैं।इनकी सेवा करने से,सारे पाप-ताप मिट जाते हैं।जो लोग ज्ञान-दान करने वाले महात्माओं का आदर-सत्कार नहीं करते,वे मनुष्य होने पर भी,पशुओं के समान है । भगवान श्री कृष्ण के मुख से,संतों की ऐसी महिमा सुनकर,महात्मा लोग गदगद हो गए।उन्होंने आपस में कहा भगवान ने लोक शिक्षण के लिए ऐसा कहा है, जिससे लोगों की श्रद्धा संतों के प्रति बढ़े। इसके बाद महात्माओं ने श्रीकृष्ण की स्तुति की । महात्मा जन,युधिष्ठिर तथा धृतराष्ट्र आदि से विदा लेकर, जाने के लिए तैयार हुए।उसी बीच वसुदेव आ गए।उन्होंने महात्माओं को प्रणाम किया, और पूछा? कि आप लोग कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे कर्म बंधन से छुटकारा मिले। नारद जी ने कहा- भगवान स्वयं वसुदेव जी के बेटे हैं, फिर भी वसुदेव जी हम लोगों से साधन पूछते हैं।यह श्रीकृष्ण के मनुष्य मानने,और इनके बहुत पास रहने का फल है। आश्चर्य है! कि गंगातट पर रहने वाले लोग, पवित्र होने के लिए, दूसरे तीर्थों पर जाते हैं।
  36. महात्मा लोग,वसुदेव जी के पूछे प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं।महात्माओं ने कहा-कि वसुदेव जी!कर्मों से छूटने का उपाय यही है,कि अपने कर्मों और यज्ञ द्वारा भगवान की आराधना की जाए।आप ऋषि व पितरों के ऋण से उऋण है।अब यज्ञ द्वारा देव-ऋण भी चुका दीजिए। वसुदेव जी उन्हीं ऋषियों को ऋत्विज बनाकर,उनका वरण करके,बहुत बड़ा यज्ञ पूरा किया।वे उसमें अपनी 18 पत्नियों के साथ दीक्षित हुए।बड़ा भारी उत्सव हुआ- बाजे बजने लगे,नट-नर्तकी नाचने-गाने लगे, गंधर्व गान करने लगे ।यज्ञ संपन्न हुआ और अंत में अवभृथ- स्नान हुआ । वसुदेव जी ने सबको खूब दक्षिणा लुटाई। किसी को भी अतृप्त नहीं रखा।यहां तक कि स्वपचों से लेकर कुत्तों तक को,तृप्त किया। सभी महात्माओं का सत्कार पूजन कर,तथा सभी राजाओं-भीष्म पितामह,द्रोणाचार्य तथा भगवान व्यासदेव,युधिष्ठिर,धृतराष्ट्र आदि सभी को भेंट दे,सम्मान पूर्वक विदा किया । नंद जी अपने सखा वसुदेव जी को प्रसन्न करने के लिए,तथा बलराम-कृष्ण के प्रेम पास में बंधकर आज-कल करते-करते 3 महीने तक वहीं रहे।भागवत 10.84.66। बड़ा आनंद हुआ।यदुवंशियों ने,नंदबाबा व ब्रजवासियों को बहुमूल्य रत्न,आभूषण तथा नाना प्रकार की उत्तम सामग्री देकर खूब तृप्त किया।अंत में नंदबाबा अपने दल के साथ विदा होकर ब्रज लौटे,और श्रीकृष्ण का समस्त परिवार,द्वारका चला गया ।
  37. कुरुक्षेत्र से लौटने के बाद,अपने नित्य नियम अनुसार, जब एक दिन बलराम व श्रीकृष्ण,वसुदेव- देवकी को प्रणाम करने गए,तब महात्माओं द्वारा कही श्री कृष्ण की महिमा का स्मरण होने से,वसुदेव जी उनकी स्तुति करने लगे। बोले-तुम लोग प्रधान पुरुष हो,तुमसे यह सृष्टि हुई है।संसार में जो कुछ भी है,तुम्हारी सत्ता से है।तुम तो साक्षात परमब्रम्ह,परम- तत्व हो। श्री कृष्ण ने कहा, पिताजी!गुरुजन अपने बच्चों को "तत्व मसि"का उपदेश देते हैं,वैसे ही आप मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दे रहे हैं। भागवत 10.50.22। आपके अनुसार जैसा मैं ब्रह्म हूं,वैसे आप भी ब्रह्म है, ये बलराम जी भी ब्रह्म हैं, द्वारकावासी भी ब्रह्म हैं, और समस्त चराचर सृष्टि भी ब्रह्म है, क्योंकि एक ही तत्व,नाना रूपों में प्रकट हो रहा है।24। यह सुनकर,वसुदेव जी को लगा- उनकी नानत्व- बुद्धि नष्ट हो गई है ,और वे चुप हो गए। इसके बाद देवकी ने कहा, कि कृष्ण!मैंने सुना है कि तुम ने अपने गुरु के मरे हुए पुत्र को,यमपुरी से ले आए थे।मेरे भी छह बेटों को जिन्हें कंस ने मार दिया था,लौटा लाओ। श्री कृष्ण और बलराम दोनों बलि के सुतल लोक गए।बलि ने उनकी विधिवत पूजा और स्तुति की। भगवान ने बलि को बताया, कि देवकी जी के 6 पुत्र, जो आपके पास है,वह पहले मरीच के पुत्र थे।वे सभी देवता थे,ब्रह्मा जी के शाप से असुर योनि को प्राप्त हुए। हम उन्हें लेने आए हैं, बलि ने छहों पुत्र दे दिए।भगवान ने, पुत्रों को देवकी जी के पास ले आए। देवकी जी का वात्सल्य उमड़ा,उन्होंने उनको अपना स्तन पिलाया, जो भगवान के मुख लगने से प्रसादित था। बालकों को श्रीकृष्ण का स्पर्श भी मिला, अतः वे पूर्ववत देव होकर अपने लोक को चले गए।10.85. 55। 
  38. राजा परीक्षित ने अपनी दादी सुभद्राजी का अर्जुन के साथ विवाह की कथा जानने की इच्छा प्रकट की।श्रीशुकदेव जी ने कहा,परीक्षित! यह तो तुम जानते ही हो कि सुभद्राजी बलराम-श्रीकृष्ण की बहन थीं। बलराम जी चाहते थे,कि उनका विवाह दुर्योधन के साथ कर दिया जाए।इस बात पर वसुदेव जी और श्रीकृष्ण की सहमति नहीं थी।पांडव भी यह नहीं चाहते थे । योजनानुसार अर्जुन ने,त्रिदंडी संन्यासी का वेश धारण कर, द्वारका में चतुर्मासा किया। एक दिन बलराम जी ने साधु वेशधारी अर्जुन को भिक्षा के लिए,घर पर आमंत्रित किया। सुभद्रा जी व अर्जुन ने एक दूसरे को देखकर आपस में विवाह का संकल्प कर लिया।एक दिन जब सुभद्राजी देवी-पूजा के लिए मंदिर गईं, तब वहां से अर्जुन ने उन का हरण कर लिया । पता चलने पर बलरामजी क्रोधित हो गए, और कहा कि पांडवों पर चढ़ाई कर दो!श्री कृष्ण ने उनके पांव पकड़ लिए और कहा- कि सुभद्रा बहन है,विवाह के योग्य है,अर्जुन से प्रेम करती है,उन्हीं से विवाह कर देना उचित है। इस पर बलराम जी शांत हो गए, और वर-वधू के लिए बहुत सा दहेज (कन्याधन) भिजवा दिया। सब शांति हो गई। भागवत 10.86.12। 
  39. अब मिथिला नगर निवासी गृहस्थ ब्राह्मण श्रुतदेव और वहां के राजा बहुलाश्व की कथा है।दोनों ही भगवान श्री कृष्ण के बड़े भक्त थे।एक साधन संपन्न राजा थे,जो दूसरा पूर्ण मनोरथ, शांत,ज्ञानी,जीवन निर्वाह भर की संपत्ति वाला विरक्त ब्राह्मण। सामान्यतः भक्त भगवान से मिलने जाते हैं।लेकिन एक दिन भगवान कृपाबश श्रुतदेव और बहुलाश्व से मिलने विदेह देश की ओर चल पड़े।उन्होंने अपने साथ नारद,वामदेव अत्री,वेदव्यास,परशुराम,बृहस्पति,काण्व, मैत्रेय, च्यवन और मुझे( शुकदेव )भी ले लिया ।मार्ग में पड़ने वाले सब नगरों में भगवान की,तथा हम सब की सेवा-पूजा होती रही।उन सब को अभय दान करते हुए भगवान विदेह-देश पहुंच गए।वहां की सारी प्रजा उनके दर्शन के लिए टूट पड़ी।सबने श्री कृष्ण और ऋषियों को प्रणाम निवेदित किया।उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया । वहुलाश्व और श्रुतदेव ने सबको अपने- अपने घर आमंत्रित किया।श्री कृष्ण के संकल्प से स्वयं व साथी ऋषि-महर्षि सब के सब दो-दो हो गए।उनमें से एक दल श्रुतदेव के यहां गया और दूसरा बहुलाश्व के यहां गया।दोनों भक्तों ने अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार अत्यंत प्रेम और आदर से पूजा- सत्कार किया। दोनों ने बहुत सुंदर विस्तार से स्तुति की,जिसे अध्याय 86 में देखना होगा। भगवान ने दोनों को परम सत्य के साक्षात्कार का मार्ग बताया। शुकदेव जी कहते हैं- इस प्रकार प्रभु के आदेश से श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों को सद्गति प्राप्त हुई।भगवान दोनों भक्तों के पास रहे।उनके घरों से बाहर निकलने पर,दोनों दल एक होकर द्वारका चले गए।
  40. पिछले अध्याय में,श्रीकृष्ण द्वारा,ब्राह्मण श्रुतदेव तथा राजा बहुलाश्व को, श्री कृष्ण द्वारा उपदेश की बात सुनकर,राजा परीक्षित ने जिज्ञासा प्रकट की-कि ब्रह्म, कार्य और कारण से सर्वथा परे है। सत्व, रज और तम यह तीनों गुणों उसमें नहीं है।ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं?ब्रह्म को शब्द द्वारा कैसे समझाया जा सकता है? शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!श्रुतियाँ स्पष्टत: सगुण का ही निरूपण करती हैं,परंतु उनका लक्ष्यार्थ निर्गुण ही निकलता है।गुण का अध्यारोप,और गुण का अपवाद,यही स्वप्रकाश अधिष्ठान के निरूपण की प्रणाली है।भगवान ने जीवों के लिए, इंद्रियाँ,प्राण,मन तथा बुद्धि की सृष्टि की है, जिनके द्वारा धर्म, अर्थ,काम तथा मोक्ष की सिद्धि होती है।इन्हीं के द्वारा श्रवण,मनन, तथा बुद्धि द्वारा निश्चय करके,श्रुतियों के तात्पर्य-निर्गुण स्वरूप का, साक्षात्कार हो सकता है।भागवत10.87.2। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए, श्री शुकदेव जी ने एक उपाख्यान सुनाया।एक बार नारद जी श्वेतद्वीप में चले गए थे,उस समय जनलोक में एक ब्रह्मसत्र हुआ जिसमें सनकादि ने बताया-कि जैसे कोई राजा रात्रि में शयन करता है,और प्रातः काल होने पर बंदीजन उसके पास जाकर गुणगान कर जगाते हैं, वैसे ही भगवान महाप्रलय के समय अपनी योग निद्रा में शयन करते हैं, और श्रुतियां मंगल कान करके उनको जगाती हैं।राजा के जगने पर बंदीजन मौन हो जाते हैं,और राजा यथा ऐश्वर्य प्रकट हो जाता है।वैसे ही श्रुतियां भी संकेत से ब्रह्म का प्रतिपादन कर,मौन हो जाती हैं,और जीव की स्वरूप स्थिति हो जाती है।
  41. ब्रह्मसत्र में वेद स्तुति द्वारा,परब्रह्म के निरूपण का प्रसंग है।उसमें सनंदन जी ने बताया- कि श्रुतियाँ ब्रह्म का निरूपण कैसे करती हैं।उनको मूलग्रंथ के 10.87.14 से 41 तक में देखना कर्तव्य है।उसे मोबाइल की पोस्टों में दे पाना संभव नहीं है।बानगी के लिए अत्यंत अल्प मात्रा का  भाग दिया जा रहा है :- श्रुतियाँ ब्रह्म का गुणगान कर रही है- आप कहीं माया के साथ,और कहीं कर्म के साथ विहार करते हैं।नाम चाहे,अग्नि हो, इंद्र हो कुछ भी क्यों ना हो,हो अलग-अलग नाम होने पर भी,सब में आप ही हैं।जो लोग आपके व्यापक स्वरूप का ध्यान नहीं करते, भजन नहीं करते,वे संसार में भटक जाते हैं। अंत में वेद परमात्मा के अतिरिक्त जितनी भी वस्तुएं हैं,उन सब का निषेध कर देते हैं। परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने के बाद, वेद नहीं,रहते और अंततोगत्वा परमात्मा में उनका निधन हो जाता है।भगवान! विचारशील पुरुष,आपकी सगुण लीलाकथा में,अमृत सागर में,गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हैं ।16। कथा अमृत का समुद्र छोटा नहीं,बहुत विशाल है।जो इसमें डुबकी लगाता है उसके सब दुख छूट जाते हैं।दुख का हेतु पाप छूट जाता है। पाप का वासना छूट जाती है। वासना का हेतु कर्तृत्व भोगतृत्व छूट जाता है। और कर्तृत्व- भोगतृत्व का हेतु,अविद्या छूट जाती है।कथामृत में इतना सामर्थ्य है, कि स्वयं प्रकाश परमात्मा अनुभव में आ जाता है।भगवान की ओर चलने के लिए गुरचरणारविंद के आश्रय की आवश्यकता होती है।उसके बिना साधक की वही अवस्था हो जाती है,जो समुद्र में कर्णधार के बिना नाव की हो जाती है ।10.87.33।।
  42. राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव जी से पूछा कि व्यवहार में देखा जाता है, कि अवधूत शंकर जी का भजन करने वाले तो बड़े धनी हो जाते हैं,किंतु लक्ष्मीपति विष्णु का भजन करने वाले धनी नहीं होते।मुझे इस बारे में संशय है- कि त्यागी भगवान की उपासना करने से भोग,और लक्ष्मीपति की उपासना से त्याग, यह कैसे हो जाता है? श्री शुकदेव जी कहते हैं,परीक्षित!शिवजी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं।वे सत्व, रज और तम गुणों से युक्त तथा अहंकार के अधिष्ठाता हैं।किसी भी गुण के अधिष्ठाता देवता की उपासना से,समस्त ऐश्वयों की प्राप्ति हो जाती है,परंतु भगवान विष्णु प्रकृति से परे,पुरुषोत्तम हैं, जो उनका भजन करता है वह स्वयं गुणातीत हो जाता है,।अतः उसमें समय लगता है।बात यह है,कि श्रीमद् भागवत विष्णु पुराण है,इसमें भगवान विष्णु की महिमा का विशेषता से वर्णन है। इसी तरह शिव पुराण में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया जाता है।दोनों का अधिष्ठान एक परब्रह्म ही है,अतः इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । परीक्षित!तुम्हारे दादा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में,श्रीकृष्ण ने इस के संदर्भ में समझाया था-कि जिसके ऊपर में अनुग्रह करता हूं,। उसका धन धीरे-धीरे हरण कर लेता हूं। 10.88.8।मनुष्य के निर्धन हो जाने पर, स्वजन उसे छोड़ देते हैं ।तब वह धन के लिए पुनः उद्योग करने लगता है,तब उस प्रयास को भी मैं व्यर्थ कर देता हूं।अन्त में वह संतों की शरण में आता है,तब मेरी कृपा से स्वरूप में स्थिति हो आनंदित हो उठता है।मेरी आराधना कठिन है।शंकर जी के वरदान के संबंध में एक प्रसिद्ध इतिहास है ।
  43. श्रीशुकदेव जी,शंकर जी को औघड़दानी बताने वाली, वृकासुर के वरदान प्राप्त करने की कथा सुना रहे हैं।वृकासुर ने नारदजी से यह जानकर,कि भगवान शंकर जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं,उनकी तपस्या करने लगा।शिवजी को प्रसन्न करने के लिए अपना मांस काट- काट कर हवन करने लगा,जब वह सिर काटकर हवन करने के लिए उद्यत हुआ,तब शंकर जी प्रकट हुए और उसके सिर को ठीक करते हुए बोले-जो तेरी मौज हो मांग लो!इस पर वृकासुर ने यह वर मांगा-कि मैं जिसके सिर पर हाथ रखूँ, वह भस्म में हो जाए।शंकर जी ने भारी मन से वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त होते ही,बृकासुर गौरी जी के हरण की लालसा से,शंकर जी के सिर पर हाथ रखने के लिए बढा। शंकर जी ने भागना शुरु किया,और बैकुंठ धाम में प्रवेश किया, जहां साक्षात् नारायण निवास करते हैं। विष्णु भगवान झट ब्रह्मचारी का वेश बनाकर,बृकासुर के सामने आ गए ,और बोले-कि तू इस तरह बेतहाशा दौड़ रहा है, सांस धौंकनी की तरह चल रही है, क्या बात है?बृकासुर ने बताया- कि शंकर जी ने मुझे वर दिया है,और मैं गोरी को प्राप्त करने के लिए उनके सिर पर हाथ रखने के लिए उद्यत हूं। ब्रह्मचारी वेशथारी विष्णु ने कहा -अरे! उस पागल की बात पर विश्वास कैसे कर लिया? पहले वरदान की परीक्षा करके तो देख लो !तुम्हारे पास अपना सिर तो है ही, उसी पर हाथ रखकर परीक्षा करले !वैष्णवी माया के प्रभाव से,बृकासुर ने अपने सिर पर हाथ रख लिया और भस्म हो गया।सारे देवता प्रसन्न होकर जय-जय का करने लगे। विष्णु भगवान प्रकट होकर शंकर जी से मिले,और फिर दोनों अपने अपने लोक को चले गए। भागवत 10.88.37-38।।
  44. अब त्रिदेवों में सर्वश्रेष्ठता निर्धारण करने की कथा है।एक बार सरस्वती के तट पर महात्मा लोग यज्ञ करने के लिए इकट्ठा हुए।उनमें इस विषय पर चर्चा चल पड़ी-कि ब्रह्मा, शिव,व विष्णु में श्रेष्ठ कौन है? इसकी परीक्षा करने का दायित्व भृगु जी को सौंपा गया । भृगु जी सबसे पहले ब्रह्मा जी की सभा में पहुंचे।पुत्र को आया देखकर,ब्रह्माजी प्रसन्न होकर,उनसे मिलना चाहे,किंतु भृगुजी ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई,और अभिवादन तक नहीं किया।पुत्र के व्यवहार से ब्रह्माजी कुपित हुए,लेकिन पुत्र होने के नाते शाप नहीं दिया। इसके बाद भृगु जी पहुंचे शंकर जी के पास।भाई को आते देख शंकर जी आगे बढ़कर,गले लगाना चाहा। लेकिन भृगु जी ने कह दिया-तुम शमशान की भस्म लगाते हो, मुंडमाल पहनते हो,अपवित्र हो,मैं स्पर्श नहीं करूंगा!इस पर शंकर जी को क्रोध आया, और उन्होंने त्रिशूल उठा लिया, किंतु गौरी जी ने आकर भृगु को बचा लिया। भृगु जी वहां से वैकुंठ पहुंचे।वहां शेष शैया में शयन कर रहे, विष्णु भगवान की छाती पर लात मार दी।भगवान झट से उठे, और उनको सिर नवांकर नमस्कार किया, और बोले-आपका स्वागत है,थोड़ी देर बैठ जाइए,अगर मुझे पता होता आप आ रहे हैं, तो मैं आगे बढ़ कर स्वागत करता।आपके चरण तो बड़े कोमल हैं,आपके चरणों का जल तो तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाला है। 10.89.11।भृगु जी गदगद हो गए,उनका गला भर आया,और कुछ बोल नहीं सके । भृगु जी लौटकर, ब्राह्मणों की सभा में पहुंचे।सब हाल बताया,महात्माओं ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया, कि भगवान विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ हैं । श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित! महात्माओं को अपने लिए नहीं,संसार के मनुष्यों का संशय मिटाने के लिए ही-ब्रह्मा, शिव,और विष्णु की परीक्षा लेने का आयोजन किया, 10.89, 20।सभी का अधिष्ठान एक ही ब्रह्म होने पर भी,पूजा सतोगुण की प्रधानता से ही होती है-यही शिक्षा है। 
  45. अब एक द्वारिकावासी ब्राह्मण की कथा है।जिसके पुत्र हो-होकर मर जाते थे।एक-एक करके उसके 8 बेटे हुए और मर गए।वह हर मरे बेटे की लाश लेकर राजा उग्रसेन के द्वार पर आता और कहता, कि हमारे बेटों की अकाल मृत्यु का कारण राजा का कर्म दोष है।जो राजा हिंसा परायण,दु:शील और अजितेंद्रिय होता है,उसकी प्रजा दरिद्र होकर, दुख-पर-दुख भोगती रहती है।यह सब कहकर लड़के की लाश,राजमहल के दरवाजे पर डाल कर,चला जाता। नवें बालक के मरने पर,जब वह ब्राह्मण वहां आया,तो संयोग से अर्जुन भी वहां पर थे।उन्होंने कहा- कि ब्राह्मण देवता!अब मैं तुम्हारे अगले बेटे की रक्षा करूंगा! यहां बलराम जी हैं,प्रभु है,अनिरुद्ध है तो क्या हुआ ?यदि मैं तुम्हारे भावी पुत्र की रक्षा नहीं कर सका,तो चिता में जल कर मर जाऊंगा । दसवें बालक का प्रसव निकट आने पर, वह ब्राह्मण अर्जुन को बुला ले गया।अर्जुन ने जाकर गांडीव हाथ में लिया,दिव्यास्रों का आवाहन किया,और सूतिका ग्रह को चारों ओर से बांणो द्वारा सुरक्षित कर दिया।इसके बाद ब्राह्मणी के गर्भ से एक शिशु पैदा हुआ, जो रो रहा था,परंतु देखते-देखते वह सशरीर आकाश में गायब हो गया।भागवत 10. 89.39।अर्जुन ने यथाशक्ति यमपुरी आदि सभी लोकपालो की पुरियों में जाकर देख लिया,लेकिन बच्चे का कहीं पता नहीं चला। अंत में वे अपनी प्रतिज्ञानुसार चिता लगाकर, उसमें जलने को तैयार हो गए।
  46. द्वारकावासी ब्राह्मण के मृतक पुत्र के खोज की कथा चल रही है।अर्जुन जब चिता बनाकर जलने को तैयार थे,तब श्रीकृष्ण ने उन्हें जलने से रोक दिया,और कहा -हम लोग चलकर बच्चे की खोज करेंगे!भगवान अपने दिव्य रथ में अर्जुन के साथ आरूढ़ हो,पश्चिम दिशा में चले।रथ ;सात द्वीप, सात सिन्धु,सात गिरी, लोकालोक सबको लांघते, आगे बढ़ता रहा। जब भयंकर अंधकार में,घोड़े भी दिशाहीन हो भटकने लगे, तब भगवान ने अपने चक्र को आगे कर दिया,और वह अंधकार निवारण करता हुआ चलने लगा।अंत में वे शेषशायी भगवान के पास पहुंच गए। परीक्षित!भगवान श्री कृष्ण ने अपने ही अव्यक्त स्वरूप,श्री अनंत भगवान को प्रणाम किया।अर्जुन उनके दर्शन से कुछ भयभीत थे, फिर भी उन्होंने भूमा पुरुष को प्रणाम किया।पुरुषोत्तम भगवान ने मुस्कराते हुए कहा - श्रीकृष्ण और अर्जुन ! मैंने तुम लोगों को देखने के लिए ही,ब्राह्मण के बालकों को अपने पास मंगवा लिए थे।तुम लोगों ने धर्म की रक्षा के लिए,मेरी कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार लिया है।पृथ्वी के भार रूप दैत्यों का संघार करके शीघ्र ही मेरे पास लौट आओ!तुम लोग साक्षात नर-नारायण हो, पूर्ण काम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत की स्थिति और लोक संग्रह के लिए धर्म का आचरण करते रहो!10.89.59 ,60। श्री कृष्ण और अर्जुन ने भूमा पुरुष की आज्ञा स्वीकार कर ली,और ब्राह्मण के पुत्रों को लेकर द्वारका लौट आए।ब्राह्मण को उसके बालक दे दिए। वैष्णो-धाम का ऐश्वर्य और श्री कृष्ण की कृपा देखकर,अर्जुन चकित हो गये!!उन्होंने मान लिया कि श्रीकृष्ण का प्रभाव असाधारण है। 
  47. इस स्कंध के अंतिम 90 वें अध्याय में श्री कृष्ण की लीला बिहार का वर्णन है।श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित!भगवान श्री कृष्ण सत पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं।उन्होंने वेदोक्त धर्म का बार-बार आचरण करके,लोगों को दिखाया कि घर ही -धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष साधनों का केंद्र है। सनातन धर्म में चार वेदों के साथ-साथ उपवेद - आयुर्वेद,धनुर्वेद,स्थापत्य-वेद, अथर्ववेद,गंधर्व वेद आदि भी हैं।इनमें नृत्य है, संगीत है,अर्थात अलौकिक उन्नति के सारे उपाय हैं। परम-लक्ष्य प्राप्ति के लिए वेदांत दर्शन सर्वमान्य ग्रंथ है,तो दूसरी ओर काम सूत्र ,कौटिल्य अर्थशास्त्र, तथा नाट्यशास्त्र आदि लौकिक जीवन-उत्कर्ष के लिए मान्यता प्राप्त ग्रंथ भी है। द्वारका नगरी सब प्रकार की संपत्तियों से भरपूर थी, वहां की स्त्रियां सुंदर वेशभूषा से विभूषित थी।उनके अंग-अंग से जवानी की छटा छिटकती रहती थी।भगवान श्री कृष्ण की 16108 पत्नियों के अलग-अलग महल भी,परम ऐश्वर्य संपन्न थे।सभी पत्नियों के महलों में सुंदर-सुंदर कमल पुष्पों से युक्त सरोवर थे।भगवान उनमें पत्नियों के साथ जलविहार भी करते थे। श्री शुकदेव जी बिहार की यथा स्थिति बताने के लिए कहते हैं -कि जब श्रीकृष्ण अपनी पत्नियों के साथ विहार करते,तब एक दूसरे को पिचकारिओं की बौछार से भिगो देते।वस्त्र सबके भीग जाते,और पत्नियों के जांघ और वक्षस्थल खुल जाते,उनकी चोटियां खुल जाती।पिचकारी छीनने की लपटा- झपटी में श्रीकृष्ण की पत्नियां, उनको पकड़ कर हृदय से लगाने लगतीं। 10.90.10-11 ।इस निरोध स्कंद की मधुर लीलाओं की यही विशेषता है, कि हर स्तर की जीव का मन भगवान से जुड़ जाता है। जिससे उसकी चित्त- शुद्धि हो जाती है।जानी अजानी अग्नि जो छूवै, वह जारै पै जारै । 
  48. भगवान श्री कृष्ण की लीला-बिहार की कथा चल रही है। श्रीकृष्ण-लीला में प्रेम की तीन घाटियां दिखाई पड़ती हैं।एक रुक्मणी जी का प्रेम, दूसरा अन्यान्य पत्नियों का प्रेम,और तीसरा गोपियों का प्रेम। लक्ष्मी स्वरूपणी रुक्मणी जी को मानसिक बियोग का अनुभव कभी नहीं हुआ था।जैसे अध्याय 60 में बताया गया,कि एक बार उनके मान के समय, विनोद के लिए श्रीकृष्ण ने,उन्हें दूसरे से विवाह कर लेने की सलाह दी थी।उसका परिणाम यह हुआ,कि उनमें कुछ क्षणों के लिए वाचिक वियोग की भावना का उदय हो गया,और वे मूर्छित हो गईं। श्री कृष्ण की अन्य पत्नियों की प्रेम- मधुरता यह है,कि प्रेमाधिक्य के कारण उनको प्रेम-वैचित्य हो जाता था।संयोग में, वियोग देखतीं और,वियोग में संयोग देखतीं। श्री कृष्ण के पास होने पर भी,उनको ऐसा भान होने लगता-कि समुद्र श्रीकृष्ण के प्रेम में उछल रहा है,पर्वत उन्हीं के प्रेम में स्थिर है, कुररी पक्षी उन्हीं के विरह में विलाप कर रही है, आदि-आदि । गोपियां ऐसी थी की उनको वियोग का अनुभव नहीं होता था,इसलिए श्रीकृष्ण ने उनको तन से वियोग दिया और तब उनके हृदय में व्याकुलता उत्पन्न हो गई।इस व्याकुलता के बिना ,सच्चे प्रेम का अनुभव नहीं होता।जब उनमें योग्यता आ गई तब 82 वें अध्याय में उन्हें बोध करा दिया। श्री शुकदेव जी का कहना है- कि श्री कृष्ण इसलिए लीला करने आए थे,कि लोग उनकी लीला- कथाएं सुनें और चिंतन करें, फिर उसकी मधुरता में ऐसा डूब जाएं, कि उनको संसार का भान न रहे और मन पूरी तरह उनमें निबद्ध हो जाए।
  49. भगवान की लीलाएं अनंत है,और उनके गुण भी अनंत हैं। दशम स्कंध में अनेक लीलाओं का वर्णन किया गया।उन लीलाओं का चिंतन करने से मन उनमें लीन हो जाता है,तद्रुप हो जाता है, जिससे चित्त- शुद्धि हो जाती है। मुक्ति मन को मिलती है,आत्मा को नहीं, वह तो मुक्त है,ही।मन को संसार के विषयों की ओर से हटाकर,कृष्ण लीला में लगाना है। श्री कृष्ण लीला निरोध लीला है।मन का निरोध करना है।जगत का विस्मरण और भगवत् आसक्ति ही निरोध है।भागवत की कथा भूख प्यास और सांसारिक झंझटों को भुला देती है ।दशम स्कंध ,भगवान श्री कृष्ण का हृदय है।प्रत्येक जीव की किसी न किसी रस में रुचि होती है।इस कथा में हास्य,श्रृंगार,करुण भयानक,आदि सभी रस भरे हुए हैं।बाल- लीला हास्य रस है,रासलीला श्रंगार रस है।चाणूर, मुष्टिका, कंस आदि के बध में वीर रस है।जीव की चाहे जिस रस में रुचि हो, कृष्ण कथा सभी को आकर्षित कर लेती है। कन्हैया सभी को दसवां रस देता है-प्रेमरस। इस कृष्ण कथा में सर्वश्रेष्ठ है "प्रेमरस"।इस रस की उपलब्धि धीरे-धीरे ही होती है।इस रस का सही आस्वादन शंकर,शुकदेव योगी और ब्रज की गोपियों जैसे होकर ही हो पाता है। परीक्षित का प्रश्न था-आसन्न मृत्यु व्यक्ति का कर्तव्य क्या है ?श्री शुकदेव जी ने 7 दिन तक कृष्ण कथा में परीक्षित को तन्मय रखा, जिससे उनका संसार से, माया से,संबंध विक्षेद रहा और ब्रह्म चिंतन बना रहने से,वे ब्रह्मभूत हो गए।संतकृपा ने-उपाय को, व्यावहारिक रूप दे दिया। 
  50. श्रीमद्भागवत वेदांत का सार है।जो इसके रस अमृत से तृप्त है,उसकी अन्यत्र कहीं रति नहीं होती।जैसे नदियों में गंगा हैं,देवताओं में अच्चुत हैं, वैष्णो में शंकर हैं, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत है।जैसे क्षेत्रों में काशी सबसे श्रेष्ठ क्षेत्र है,वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत सबसे श्रेष्ठ पुराण है।श्रीमद्भागवत में अमल परमज्ञान का ज्ञान होता है।अमल परमज्ञान वही है,जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय का विभाग न हो । श्रीमद्भागवत की कथाशैली है-सिद्धांत में अद्वैत और साधन में भक्ति।भक्ति में श्रवण, मनन,निदिद्यासन का स्वत: समावेश है, जो वेदांत की अंतरंग साधना है।कथा भगवत्- वासना के अतिरिक्त अन्य वासनाओं को, निवृत्त कर देती है,और श्रवण,मनन और स्मरण में प्रवृत्त का भजनिया स्वरूप को स्पष्ट करती चलती है।अंततोगत्वा महावाक्य अर्थ का भी साक्षात्कार हो जाता है । यदि ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें आपकी समझ में ना आती हो, तो भी कथा सुनते रहिए, और श्रद्धा विश्वास पूर्वक नाम-जप का नियम ले लीजिए।भगवान का नाम एक ऐसा साधन है,जो नास्तिक को आस्तिक बना देता है,और बिछड़े हुए जीव को भगवान से मिला देता है।भगवान का नाम बहुत ही शुगम है,और जिह्वा अपने वश में है। नामजप के रूप में भगवान ने मनुष्य को, अपने साथ मिलाने के लिए,एक ऐसा निर्विघ्नं मार्ग दे दिया है,जिस पर चलकर वह उन तक अवश्य पहुंच जाता है।
  51. सूत जी कहते हैं, शौनकादि ऋषियों! भगवान पुरुषोत्तम कि यह कमनीय कीर्ति कथा,भवसागर में डूबने से बचाने वाली है।यह व्यासनंदन श्री शुकदेव के मुखारविंद से निकली सुरभिमयी,मधुमयी सुधाधार है।संसार चक्र में भटकने वाले जो बटोही,इसका निरंतर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट दूर हो जाती है,और भटकन समाप्त हो जाती है। श्री शुकदेव कहते हैं,परीक्षित!भगवान श्रीकृष्ण आदर्श महापुरुष का सा आचरण करते हुए,ब्राह्मण आदि समस्त प्रजा वर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये। उन्होंने बहुत से अधर्मी राजाओं को स्वयं मार डाला,और बहुतों को अर्जुन की द्वारा मरवा डाला। उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वी में धर्म मर्यादा की स्थापना करा दी। परीक्षित ! भगवान ही समस्त जीवो के आश्रय स्थान हैं।यद्यपि वे सदा-सर्वदा-सर्वत्र उपस्थित रहते हैं,फिर भी कहने के लिए उन्होंने देवकी के गर्भ से जन्म लिया है। उनका मंद-मंद मुस्कान से युक्त सुंदर मुखारविंद स्मरण-करता भक्त के हृदय में, प्रेमरस का संचार करता रहता है।इसलिए मनुष्य को उनकी लीला-कथाओं का सदा श्रवण करते रहना चाहिए।वास्तव में, सारे जगत पर वही विजयी हैं।उन्हीं की जय हो! जय हो ! 

मोबाइल धारकों को श्रीमद् भागवत कथासार से परिचित कराने का उद्देश्य इस ब्लॉग पोस्ट द्वारा सुलभ हुआ। इसमें मेरा कुछ नहीं है।यह भगवत् कृपाप्रसाद और अनेक संतों की जूठन है,मैं उन सब को दंडवत प्रणाम करता हूं।अभिव्यक्ति की त्रुटियों का उत्तरदायी मैं हूं।पोस्टों को मूल ग्रंथ के साथ- साथ पढ़ने में भागवत कथा का लाभ मिल सकेगा।सारी पोस्टों को एक साथ Chrome Apps में Spiritual Reality-अपना व हिंदुत्व का परिचय By durgashanker में देखा जा सकता है - https://durgashankerpandey.blogspot.com/2020/02/blog-post.html


********श्री हरि: शरणम********

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