भूमिका
सबको अपने -अपने कर्तव्य का पालन करना है। यह ठीक नहीं कि हम तुम्हारे और तुम हमारे आदर्श की कसौटी से जांचें जाओ ।परम लक्ष्य सबका हरि ही होगा मात्र कर्तव्यों में अंतर होता है। कर्तव्य का निर्धारण शास्त्र और संत संमत होना चाहिए ।मनमानी आचरण पतन का कारण बनता है।
मनुष्य जब स्व कर्तव्य कर्म में द्दढता से लगता है तो उसको सहायक मिल जाते हैं, युक्ति भी मिल जाती है और बुद्धि भी। अंतस्थ सर्वशक्तिमान ईश्वर से ही सब मिलता है। "परमात्मा कण -कण में व्याप्त है और शरणागत होने पर प्रत्यक्ष सहायता भी देता है"-यह सिद्धांत केवल सनातन हिंदू धर्म में ही है।
सद ग्रंथों ,श्रीमद्भागवत 11. 20.6 तथा अध्यात्म रामायण 7.7 .59 में मानव कल्याण के साधन के रुप में 3 मार्ग- कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग बताए गए हैं ।श्री गीता जी में भी तीनों योगमार्गों का वर्णन है ।उसी के आधार पर आगे कर्मयोग की चर्चा करेंगे। तीनों योगमार्गों में साधना का बहिरंगरूप भिन्न-भिन्न रहता है ,किंतु परम लक्ष्य सिद्ध होने पर साधक को एक ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। कर्मयोग क्रिया -शक्ति आधारित भौतिक साधना है।ज्ञानयोग ध्यान-शक्ति आधारित आध्यात्मिक साधना है ।और भक्तियोग इच्छाशक्ति आधारित आस्तिक साधना है ।कर्तव्य परायणता से योग, असंगता से बोध एवं समर्पण से प्रेम की प्राप्ति होती है ।योग,ज्ञान तथा प्रेम में विभाजन संभव नहीं है ।एक के सिद्ध होते ही शेष दोनों अपने आप प्रकट हो जाते हैं ।यह तीनों ही योग में परमात्मा प्राप्ति के स्वतंत्र साधन है । श्री गीता जी के मंत्र 18.56 में भगवान का स्पष्ट निर्देश है कि मेरे परायणहुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी ,मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।
संसार में धर्म एक ही है -हिंदू -सनातन- वैदिक, शेष संप्रदाय हैं ।जो हृदयस्थ( आनंद) आत्मा में स्थित करा दे वही धर्म है ।सत्ता के लिए हिंसात्मक कबीली संस्कृति वाला संगठन संप्रदाय होता है।
धर्म हमारे कर्मों का नियंता है ।वह वासना के पथ से हटाकर तथा मर्यादित भोग सिखाकर सभ्य नागरिक गढता है। धर्म का आधार शास्त्रीय आचार- विचार है। धर्म आध्यात्मिक विकास की नींव है ।सेकुलर शब्द के प्रयोग से जनता भ्रमित हुई और धर्मबिहीन(अधर्मी )हो गई। अब सर्वत्र आचरणहीनता दिखाई पड़ रही है।
हम जहां खडे हैं, वहीं से साधना की यात्रा आरंभ करनी होती है ।वास्तव में जो आभासी सांसारिक दूरी,हमारे और परमात्मा के बीच आकर खड़ी हो गई है, उसको एक छलांग में पार करने का विचार ठीक नहीं है। कर्म योग का साधक श्रंखलाबद्ध आध्यात्मिक विकास करके ,परम लक्ष्य को प्राप्त करता है ।पथ के विकास क्रम में,पहले धर्म में प्रवृत्त होना चाहिए।उसके आगे उपासना है। अगले चरण में योग (ध्यान )की साधना करनी होती है। योग से उपलब्ध सामर्थ्य और समाधि जनित प्रज्ञा की शांति में रमण न कर,वेदांत ज्ञान के लिए प्रयत्न करना कर्तव्य है। इस अवस्था में भगवत कृपा से अपरोक्ष अनुभूति हो जाती है । कुछ साधक आगे बढ़कर गीता 15. 19 तथा 18. 54 के अनुसार प्रेमानंद में डूब जाते हैं ।जहां नित नूतन भक्तिरस है।फिर प्रेमास्पद जैसा चाहता है करवाता है।
अपनी दृष्टि संसार से हटाकर परमात्मा में लगाने का नाम वैराग्य है ।लोक- परलोक के सुखों से वैराग्य होना चाहिए ।हर संत ने भोगों की आसक्ति को त्याज्य माना है। संपूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित,ममता रहित और अहंकार रहित होकर भगवान के शरणागत हो जाने से, जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है।
श्री गीता जी में कर्मियोग के लिए समत्वयोग व बुद्धियोग आदि अनेक शब्दों का प्रयोग होता है।कर्म ,ज्ञान तथा भक्ति किसी भी पथ से परम लक्ष्य की हो अग्रसर होने के लिए, युक्ति-युक्त चिंतन परम आवश्यक है ।श्री गीता जी ने में तो बुद्धि का विशेष आदर है ।किसी भी परिस्थिति में बुद्धि को डावँडोल नहीं होने देना है। बुद्धि जब निष्पक्ष (सम )होती है ,राग-द्वेष से मुक्त होती है,तो भगवान आपकी बुद्धि में प्रकट होकर ,अपना ज्ञान प्रदान कर देते हैं ।विचार करने की सुविधा के लिए, कर्मपथ को 7 सोपानों में विभक्त किया जा सकता है । यथा:- धर्म➡ वैराग्य➡सम्यक ज्ञान➡मोक्ष➡ब्रह्मज्ञान➡विज्ञान ➡ पराभक्ति।
बुद्धि के सम हुए बिना आत्मबोध नहीं हो सकता। द्वंदात्मक जगत से विरक्त बुद्धि में परमात्मा प्राप्ति का दृढ़ निश्चय होना चाहिए, तभी परमतत्व में स्थिति होती है।
(1)
धर्म
कर्मपथ का प्रारंभ भी धर्म आचरण से ही होता है।निष्काम कर्मयोगी सबसे पहले यह स्वीकार कर लेता है ,कि जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति उसे प्राप्त हुई है -वह उसके ही कर्म अर्थात प्रारब्ध का फल है ।योगी स्वार्थ और भोग वृत्तियों के वशीभूत हो ,प्राप्त परिस्थितियों से पलायन न कर ,जो कर्तव्य कर्म सामने होते हैं, उन्हें पूरी क्षमता और कुशलता से करने का प्रयास करता है ।कर्तव्य का निर्धारण शास्त्र व पूज्य लोगों की आज्ञा अनुसार करता है ,और सदा इन भावों से भावित रहता है कि हम कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए कर रहे हैं। निष्कामता का अर्थ निरर्थक पानी पीटना नहीं होता। प्रत्येक कर्म ,काम- संकल्प रहित, सप्रयोजन ,लोकोपकारी तथा विश्वात्मा भगवान की सेवा के लिए होता है।
कर्म योग के साधक को अपनी साधना का सिद्धांत स्पष्ट रहना चाहिए, जिसका निर्देश गीता जी के मंत्र 2.47 में दिया गया है। इसमें चार बातें हैं ।पहली यह की 84लाख योनियों में केवल मनुष्य को ही अपना कर्तव्य कर्म निर्धारण करने की स्वतंत्रता है ।दूसरी यह कि फल ईश्वर के अनुशासन में ,कर्मानुसार मिलेगा ही। तीसरा मनुष्य को कर्मफल का हेतु नहीं बनना है और चौथा यह की अकर्मण्यता में आसक्ति नहीं होनी चाहिए ।संक्षेप में कर्म योगी का धर्म है ,कि कर्म करते समय कर्माशक्ति ,फलाशक्ति ,कर्तृत्वतासक्ति तथा अकर्तृत्वतासक्ति से मुक्त रहे।
जीव और देह की मिथ्या ग्रन्थि दिखने पर देहात्म भाव मिटता है व आत्मबोध हो जाता है। आगे ब्रह्मनिष्ठा का व्यापार है। श्री गीता जी के मंत्र 6.20 के अनुसार मिथ्या ग्रंथि की अनुभूति की जा सकती है।
कर्म पथ के धर्म आचरण का निर्धारण गीता के मंत्र 18. 5व6 में सुलभ है। आसक्ति और फल की आशा त्याग कर यज्ञ ,दान तथा तप की भावना से भावित कर्तव्य कर्मों के साथ-साथ ,नित्य नैमित्तिक कर्म करते रहने से कर्म योग का धर्म व्यापार पूरा होता रहता है। निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करने पर किसी न किसी रूप में तीनों की पूर्ति अवश्य होती है। तप से अपना शरीर शुद्ध होता है ,दान समाज हित के लिए है और यज्ञ से समष्टि की शुद्धि और पुष्टि होती है।अतः योगी के कर्मों में यज्ञ ,दान तथा तप की वृत्ति का समावेश रहना चाहिए।
यज्ञरूपी-धर्म
यज्ञभावना, कर्म योगी के धर्म का अनिवार्य अंग है।गीता जी3. 10 के अनुसार,ब्रह्मा जी ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा ,कि यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और देवता लोग तुम्हारी सहायता करें।देवता सृष्टि में भगवान की दिव्य शक्तियों के वितरण केंद्र हैं ।यज्ञ द्वारा इन शक्तियों की पुष्टि की जाती है। यज्ञ की दृष्टि यह है कि परस्पर सहयोग की भावना से ,सृष्टि व्यापार चल रहा है ।पृथ्वीअन्न उत्पन्न कर सब का भरण पोषण कर रही है ,जल सब की प्यास बुझा रहा है,वायु सब में जीवन शक्ति का प्रवाह कर रही है,वृक्ष फल दे रहे हैं, गायें दूध दे रहीं हैं ,आदि-आदि। आत्म निरीक्षण करें कि हम मनुष्य होकर सृष्टि को क्या दे रहे हैं। यदि बिना कुछ दिए,हम सृष्टि से केवल ले रहे हैं, तो हम निश्चय ही चोर हैं ( गीता 3.12),पापी है (गीता 3.16)।इससे बचने के लिए यज्ञ भावना (कर्म फल वितरण)पूर्वक अपना कर्तव्य करना है। सृष्टि के पर्यावरण प्रदूषित करने के लिए, घड़ियाली आंसू बहाने से क्षमा ना मिलेगी। भगवदीय नियमों के उल्लंघन का फल मानव जाति भोग रही है- कैंसर - सुपरकैंसर।
सामान्यतया यज्ञ का अर्थ प्रज्ज्वलित अग्नि में हवि को होम करने तथा फल भगवान को अर्पण करने से होता है।किंतु गीता जी के मंत्र 3.14व15 के अनुसार,यज्ञ का वास्तविक अर्थ,कर्तव्य कर्म के बोध से है।गीता अध्याय 4 में 13 प्रकार के यज्ञ का वर्णन है,जहां प्रत्यक्ष अग्नि व हवि नहीं दिखाई देती।अपरोक्ष रूप में दोनों रहते हैं।गीता 4.32 के अनुसार ऐसे बहुत तरह के यज्ञ वेद में कहे गए हैं।यह सब यज्ञ मन ,वाणी व शरीर क्रियाओं द्वारा होते हैं।यदि यज्ञ से कर्म का मर्म जानकर, इन्हें लोक हितार्थ किया जाए,तो उसके परिणाम स्वरूप परम तत्व का बोध हो जाता है।गीता 4.23 से स्पष्ट है,कि जिस की आसक्ति सर्वथा मिट गई है, जो मुक्त हो गया है,जिसकी बुद्धि स्वरुप ज्ञान में स्थित है-ऐसे कर्म योगी के कर्म( क्रियमाण संचित, प्रारब्ध) विलीन हो जाते हैं।तीनों योगों के साधकों को,अंतःकरण शुद्धि के पश्चात, तत्वज्ञान के लिए,गीता 4.34के अनुसार, तत्वदर्शी महापुरुष के पास जाना ही पड़ता है।
दानरूपी धर्म
धर्मग्रंथों में दान का अत्यंत महत्व है ।भागवत जी के मंत्र 12.3.18 में कहे धर्म के चार चरणों में ,एक चरण दान का बताया गया है ।मनुस्मृति में मंत्र 1.86 के अनुसार कलयुग में धर्म एक ही चरण ,दान के सहारे खड़ा है ।श्री तुलसीदास जी का वही मत है -प्रगट चार पद धर्म के ,कलि मँहु एक प्रधान----। व्यक्ति के पास धन ,सामर्थ्य तथा ज्ञान आदि जो भी वस्तु देने के लिए उपलब्ध है ,उसे पर हित में सदुपयोग करना ,और बदले में किसी प्रकार के लाभ की इच्छा न रखना, दान है । दान रूपी परोपकार में ,अपना ही उपकार छिपा है ।यह एक साधन है ,जिससे हम पूर्ण से एकाकार होकर पूर्ण बन सकते हैं ।भिखारी को साक्षात नारायण मानकर कुछ देना चाहिए ,क्योंकि वह तुम्हें पूर्ण बनाने में सहायक है।
श्री गीता जी के मंत्रों 17,20 .21.22 में दान की चर्चा है ।सात्विक दान ही चित्त शुद्धि में हेतु है।सात्विक दान की कसौटी यह है ,कि दान देना अनिवार्य कर्तव्य समझकर, देशकाल एवं पात्र का विचार कर ,और बदले में अपने लाभ की इच्छा त्याग कर ,दिया जाना चाहिए । गंगा, जमुना तथा सरयू आदि पवित्र नदियाँ, प्रयाग तथा काशी आदि तीर्थ, दान के लिए उत्तम देश हैं।अमावस्या, पूर्णिमा तथा संक्रांति आदि पर्व काल में दान देना कर्तव्य है।स्वरुप में स्थित संत, वेदपाठी ब्राह्मण तथा सदाचारी विद्यार्थी आदि उत्तम पात्र हैं।अभावग्रस्त को अन्न, वस्त्र तथा औषधि आदि देना कर्तव्य है।आध्यात्मिक सहायता देना सबसे बड़ा दान है ।बौद्धिक विकास में सहायता करना भी श्रेष्ठदान है।यह भी स्मरण रखना चाहिए, कि मूर्ख व्यसनी ब्राह्मण तथा निठल्ले लोग, जिन्होंने दान लेना व्यवसाय बना रखा है- वे कुपात्र है ।इन्हें दान देना पाप है।
तप रूपी धर्म
यज्ञ व दान ही की तरह भगवान ने तप को भी कर्म योगी के लिए अनिवार्य बताया है।गीता 18.67 के अनुसार तप रहित व्यक्ति गीता ज्ञान का अधिकारी ही नहीं है। मनुस्मृति 11.238 के अनुसार तप बल के सहारे सब कुछ किया जा सकता है ।मानस 1.73.3,4 में तप बल की महिमा का सुंदर वर्णन है,यथा:-
तपबल रचई प्रपंच विधाता।
तपबल विष्णु सकल जग त्राता।।
तपबल शंभू करहिं संघारा ।
तपबल सेषु धरई महि भारा।।
जब तपबल की इतनी महिमा है ,तब उसे जीवन का अंग बनाना ही चाहिए। सब प्रकार की शक्तियों को बढ़ाने के लिए योजनाबद्ध विधि से परिश्रम करने को तप कहते हैं।जब कोई व्यक्ति, समाज या संस्था आलस्य और अज्ञान द्वारा क्षीण वीर्य हो जाए, तो संयम और विधि पूर्वक तप द्वारा सामर्थ्य बढ़ाना कर्तव्य है।
प्राप्त परिस्थितियों को स्वीकार करके ,स्वार्थ तथा भोग बुद्धि को त्यागकर ,उत्साह और प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों को पूरा करने से ,आवश्यक तप की पूर्ति होने लगती है ।तपस्या की आवश्यकता का विज्ञान यह है ,कि इस प्रकार के तप से विद्यमान राग की निवृत्ति होकर, चित्त शांत हो जाता है। चित्त शांत होते ही ,नैसर्गिक सृष्टि-निर्माण-शक्ति का प्रवाह बढ़ जाता है ,जिससे सब प्रकार की कार्यकुशलता बढ़ जाती है । तप का परिचय गीता 17.14 से19 में दिया गया है ।गुणों के संदर्भ से तप भी तीन प्रकार का होता है।सात्विक तप ही करनीय है ।रजोगुणी एवं तमोगुणी आसुरी तप त्याज्य है ।कर्म करने के 3 अभिव्यंजक संस्थान -शरीर, बानी व मन है। तीनों की चर्चा गीता अध्याय 17 के आधार पर आगे की जाएगी।
शारीरिक तप रूपी धर्म
श्री गीता जी के मंत्र 17.14 में देवता गुरु और प्राज्ञ का पूजन ,पवित्रता ,ब्रम्हचर्य और अहिंसा को शारीरिक तप कहा गया है :-
- देवता - परमात्मा की शक्ति के वितरण केंद्र हैं, जिनसे सृष्टि व्यापार चलता है ।यथास्थान शास्त्र सम्मत इनकी पूजा करने से शारीरिक ताप होता है ।
- गुरु - यह शब्द दीक्षा अथवा शिक्षा देने वाले के लिए प्रयोग होता है ।
- प्राज्ञ - उस व्यक्ति को कहते हैं जिसके पास आत्म विषयक ज्ञान से परिपूर्ण बुद्धि होती है।
- पवित्रता - देहकी जल ,मिट्टी तथा साबुन आदि से वाह्य प्रक्षालन तथा फलाहार उपवास आदि से आंतरिक स्वक्षता करना ।
- आर्जव - अभिमान से उत्पन्न ऐंठ व अकड के त्याग से उठने-बैठने आदि व्यावहारिक क्रियाओं में आने वाली सरलता आर्जव है।
- ब्रह्मचर्य - यहां ब्रह्मचर्य का आशय आठ प्रकार के मैथुनों के त्याग से है ।
- हिंसा - स्वार्थ,क्रोध,लोभ व मोह के कारण मन वाणी तथा कर्म से किसी को कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है ।आताताई को मार देना हिंसा नहीं है। उपरोक्त गुणों को जीवन में अपनाने से शारीरिक तप होता रहता है।
वाणी का तपरूपी धर्म
श्री गीता जी के मंत्र 17.15 में ,उद्वेग न करने वाला ,सत्य प्रिय ,हितकारक भाषण ,स्वाध्याय एवं जप के अभ्यास को वाणी संबंधी तप कहा गया है। जैसा पढ़ा ,सुना ,देखा और निश्चय किया गया है ,उसको स्वार्थ और अभिमान त्याग कर, दूसरों के हित के लिए कह देना सत्य है ।ऐसा यथार्थ जो सुनने में कटु और दूसरे के लिए उद्वेग कारक हो, न कहना अच्छा होता है ।पारमार्थिक उन्नति में सहायक वेद और वेद प्रमाणित ग्रंथों को पढ़ना और दूसरों को सुनाना भी वाणी का तप है। भगवान का नाम तथा मंत्र जाप वाणी के तप के अंतर्गत है । वाणी का तप करने वाले को दूसरों की निंदा करना ,व्यर्थ वचन बोलना तथा काम -क्रोध उत्पन्न करने वाले साहित्य को पढ़ना -देखना निषेध है।
मानसिक तप रूपी धर्म
श्री गीता जी के मंत्र 17.16 में मन की प्रसन्नता, शांत भाव,मौन, मन का निग्रह और भावशुद्धि को मन का तप कहा गया है :-
- मन की प्रसन्नता - मनुष्य की प्रसन्नता जब वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर करती है, तब उसके मन में सदैव हलचल( व्रत्ति) बनी रहती है और वह कभी प्रसन्न नहीं रह सकता।
- शांत भाव :-भगवान की सर्वज्ञता,सामर्थ्य, सर्वव्यापकता तथा दयालुता पर भरोसा कर शरणागत होने से शांति भाव बना रह सकता है अन्यथा नहीं।
- मौन - मन के मौन का अर्थ है ,मन की समता बना रहना। द्वंदात्मक जगत के संयोग-वियोग अनुकूलता- प्रतिकूलता, राग- द्वेष तथा सुख- दुख से मन की समता नहीं भंग होनी चाहिए।
- निग्रह - मन साधक के वश में रहना चाहिए। उसे जहां लगाना है ,लगा सके ,जहां से हटाना चाहे हटा सके।
- भाव संशुद्धि - भाव शुद्धि का मनका तप कहा गया है ।मानस रोग से मुक्त मन में परहित का भाव रहना भाव संशुद्धि है । निष्काम एवं शरणागत साधक मन को नियंत्रित करने में सफल होता है।
(2) वैराग्य
वैराग्य, धर्म आचरण से उत्पन्न आंतरिक अनुशासन है ,वाह्य आडंबर नहीं ।जिस कर्मयोगी साधक ने प्रथम सोपान में बताए गए धर्म का पालन किया है ,उसमें वैराग्य उत्पन्न होने लगता है और स्थितप्रज्ञता दृढ़ होने लगती है ।कर्मयोगी विषयों को स्वरूप से नहीं त्यागता ,वह कछुवे की तरह इंद्रियों से काम लेता रहता है ।किंतु उन्हें विषयासक्त होने का खतरा देखते ही, तुरंत विषयों से खींच लेताहै। विषय चिंतन से बचना अनिवार्य है ।कर्मयोगी नियंत्रित अंतकरण से विषयों में राग-द्वेष न कर आवश्यकतानुसार ऐसा व्यवहार करताहै,जिससे पूर्व की वासनाओं का क्षय होकर चित्त शुद्ध हो जाता है और वह भगवत ध्यान के योग्य हो जाता है।
कर्म योग का साधक मन में आयी, संपूर्ण वासनाओं को भली-भांति त्याग कर देता है ,और अपने आप में संतुष्ट रहता है ।विषय चिंतन से बचना अनिवार्य है। अन्यथा कर्मयोगी के पतन के दुष्परिणाम की श्रंखला गीता 2.62व 63 के अनुसार आरंभ हो जाती है यथा :
विषयासक्ति➡ कामना➡ क्रोध ➡सम्मोह( मूढभाव) ➡स्मृति नाश ➡विवेक नाश➡ मनुष्य की दुखद पतित अवस्था।
परंतु वशीभूत अंतःकरण वाला कर्मयोगी,राग द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा, धर्म सम्मत विषयों का सेवन करता हुआ,चित्त शुद्धि को प्राप्त करता है।शुद्ध व प्रसन्नचित साधक की बुद्धि निसंदेह शीघ्र ही परमात्मा प्राप्ति के लक्ष्य पर स्थिर हो जाती है। भगवान इस तथ्य को गीता के 3.6व 7 में स्पष्ट करते हैं ।जो मनुष्य व्यवहार में विषयों को त्यागकर ,उनका मन से स्मरण( चिंतन) करता रहता है ,वह मिथ्याचारी( दंभी) है ।लेकिन जो व्यक्ति अनासक्त भावों से ,कर्मेंद्रियों से कर्म करता है,वह संस्कार रूप में बैठी वासनाओं से मुक्त होकर श्रेष्ठ जीवन बिताता है।
वैराग्य रहित असंयमित इंद्रियों और मन वाले व्यक्ति की बुद्धि निश्चयात्मका नहीं होती ।अतः उनमें निष्काम भाव और कर्तव्य परायणता का भाव नहीं होता। इंद्रियां बलवान हैं।अपने विषय में विचरती हुई एक ही इंद्रिय भी मन को अपना अनुगामी बना लेती है और फिर बुद्धि का हरणकर विषयों में उसी प्रकार लगा लेती है,जैसे वायु पानी में पड़ी नौका को,अपनी दिशा की ओर बहा ले जाती है। गीता 2.60।व 67 । इसी सिद्धांत के अनुसार धर्म -अनभिज्ञ सेकुलर लोग ,मोबाइल व टीवी में नंग-नाच देखकर समाज में बलात्कार व नाना प्रकार के भ्रष्टाचार फैला रहे हैं।
हम सब सामान्य जीवन में अपनी अधिकांश जीवनशक्ति विषयों के भोगने में ही व्यय करते हैं।हमें इस अपव्यय को रोककर, मनोवृत्ति को भगवान के नाम-रूप से जोड़ना चाहिए । इंद्रियों को बलपूर्वक विषयों से हटाने पर ,विषय तो निवृत्त हो जाते हैं ,पर रस निवृत नहीं होता। भोगों के प्रति सूक्ष्म आसक्ति का नाम रस है।जब तक भोगका रस बना रहता है तब तक परमात्मा का अलौकिक रस(प्रेम) प्रकट नहीं होता ।यत्न करते हुए विद्वान मनुष्य को भी ,अहंता में रस बुद्धि का लेस रह जाने से ,प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां ,मन को बलपूर्वक हर लेती है।तत्व प्राप्ति के बाद आसक्ति रस सर्वथा नष्ट हो जाता है। गीता जी के मंत्र 6.24-27 में निर्देश है ,कि मनुष्य ,संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण कामनाओं को ,विशेषता से अर्थात वासना और आसक्ति सहित त्याग कर ,मन के द्वारा इंद्रियों को सब ओर से वश में करे।ऐसा करने से योगी ब्रह्मभूत होकर अति उत्तम आनंद प्राप्त करता है।
(3) सम्यक ज्ञान
कर्मयोग में सम्यक ज्ञान का अर्थ है -हर परिस्थिति में व्यवहार करते हुए अपने परम लक्ष्य पर बुद्धि का स्थिर बना रहना ।सृष्टि में विपरीत धर्मवाले जोड़ों से पाला पड़ता है ,जैसे सुख-दुख ,सर्दी-गर्मी व रात -दिन आदि। इनका स्पष्ट ज्ञान रहने पर ,बुद्धि इनसे निरपेक्ष होकर, अपने लक्ष्य पर स्थिर बनी रहती है ।गीता जी के मंत्र 2.14व15 का यही भाव है। द्वंद का विज्ञान यह है ,कि इंद्रियाँ जिसे सुखद और सुंदर बताती हैं ,बुद्धिज्ञान की कसौटी पर वह दुखद और असुंदर प्रतीत होती है ।इंद्रियों के ज्ञानप्रभाव से कामना और बुद्धिज्ञान के महत्व से जिज्ञासा का जन्म होता है ।यह सांसारिक कामनाओं और तत्व जिज्ञासा का द्वंद अंदर ही अंदर चलता रहता है ।इंद्रियों के ज्ञान का प्रभाव मिटते ही राग, वैराग्य में और भोग, योग में बदल जाता है ।ऐसी दशा में बुद्धिकी वस्तु,व्यक्ति और परिस्थिति से महत्त्व बुद्धि मिट जाती है, और बुद्धि सम होकर, स्वरुप में स्थित होने के योग्य हो जाती।
कर्मपथ की विकास श्रंखला में आगे बढ़ने पर बुद्धि को लक्ष्य पर द्दढ़ बनाए रखना अनिवार्य है ।कर्मपथ में इंद्रियों को विषयों से व्यवहार करना ही पड़ता है ,जिसके कारण लक्ष्य भगवान से हटकर सांसारिक हो जाने की संभावना बनी रहती है । बुद्धि का वोध इस प्रकार का होना चाहिए कि उसके लक्ष्य में स्थिरता ,समुद्र के समान स्थिर बनी रहे ।जिस प्रकार अचल रहने वाले समुद्र में अनेक नदियों का जल समा जाता है ,उसी प्रकार स्थिर बुद्धि वाले में सांसारिक प्रक्रियाएं तथा भोग, किसी प्रकार का क्षोभ उत्पन्न किए बिना समा जाना चाहिए । जो साधक संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममता ,अहंकार व आसक्ति रहित हो,संसार में वर्तता है ,वह लक्ष्य प्राप्त करता है ।गीता 2.71 ।
कर्मयोगी की सफलता में सबसे बड़ी बाधा सांसारिक कामनाएं हैं ।जो इंद्रियों ,मन और बुद्धि में रहती हैं ।इंद्रियों से मन, मन से बुद्धि, और बुद्धि से जीव(स्वयं )बलवान है। अतः क्रम क्रम से इन पर नियंत्रण करके, कामनाओं से मुक्त होकर ,कर्म योग के लिए आवश्यक स्थितप्रज्ञता को बनाए रखा जा सकता है । श्री गीता जी के मंत्र 4. 20-22 का आशय है कि कर्तृत्व अभिमान को त्याग कर ,कर्म करने वाला ,कर्म फल से बँधता नहीं है ।चेतन जीव ना कर्ता है ना भोक्ता है, ऐसा विचार दृढकर, स्वधर्म निर्धारित कर्मों से परमात्मा की पूजा करने वाले को ,परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।लक्ष्य का स्मरण बराबर बना रहना आवश्यक है।
कर्मयोग का साधक बुद्धि को लक्ष्य पर दृढ़ बनाए रखने के लिए, कर्तव्य कर्म करने में निम्न सावधानियां वर्तता है -
कर्म शास्त्रविधि पूर्वक नियत होता है तथा कर्तापन के अभिमान से रहित होता है। फल भगवान को समर्पित करना है,और करता को रागदेश से मुक्त रहना होता है l
साधक स्वयं आसक्ति रहित ,अहंकारी वचनों से मुक्त ,धैर्य और उत्साह से युक्त तथा हर्ष शोक से मुक्त रहता है ।
साधक ,प्रवृत्ति -निवृत्ति ,कर्तव्य-अकर्तव्य ,भय- अभय तथा बंधन- मोक्ष को तत्व से जानता है। ऐसा सावधान साधक अपने स्वाभाविक कर्मों से सर्वव्यापी परमात्मा की पूजा करते हुए परम सिद्धि की ओर अग्रसर हो जाता है।
(4) मोक्ष
आसक्ति, अहंता व ममता रहित कर्म योग का साधक ,स्वधर्म का पालन करते हुए, तीन सोपान पार करता है ,तो उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है ।अब वह ध्यान करने के योग्य है ।योगासन ,प्राणायाम, जप तथा ध्यान करने को ,कर्मयोग का अंग मानना कर्तव्य है, और उन्हें करना चाहिए ।संक्षेप में ध्यान की बिधि यह है कि इंद्रियां, मन तथा बुद्धि को नियंत्रण में रखकर-इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त साधक, सांसारिक विषयों का चिंतन छोड़ देता है ।वह अपनी दृष्टि को अंदर ही अंदर भृकुटी के बीच आज्ञा चक्र में स्थित करता है ।इस समय स्वाँस के दोनों स्वर सम रहना चाहिए ।धीरे-धीरे साधक को स्वता सिद्ध मोक्ष की अनुभूति होने लगती है ।अर्थात उसे जड़ चेतन की ग्रंथि के मिथ्यत्व का पता चलने लगता है।
ध्यान करते साधक को होने वाली प्रारंभिक अनुभूतियों का ब्योरा गीता के मंत्र 6.20 में मिलता है ।ध्यानाभ्यास से ,चित्त वृत्तिहीन (निरुद्ध) हो जाता है ।यह समाधि की अवस्था है। सतोगुण,निरुद्ध चित्त और जीव के संवित की अनुभूति आभासमय आत्मज्ञान(विवेक ख्याति)है, जो उत्थान अवस्था में नहीं रहता ।केवल उसकी स्मृति रह जाती है ।इसे समाधि प्रज्ञा भी कहते हैं। इस अनुभूति से आत्मबोध का भ्रम हो सकता है ।स्मरण रहे कि जड़ता( चित्त )से संबंध रहते हुए आत्मसाक्षात्कार नहीं हो सकता ।अतः यदि इस समय जीव, चित्त से तादात्म छोड़ देता है ,तो अपने उद्गम आत्मा को देख लेता है,जो आत्मसाक्षात्कार है ।इस घटना के घटते ही जीव अपनर्नवचनीय संतुष्टि का अनुभव अपने आप में करने लगता है ।उसे ऐसा लगता है की अभीष्ट सत्-चित्-आनंद की प्राप्ति हो गई है।
जिस आत्मा की अनुभूति बात पिछले सोपान में की गई, वह समष्टि व्यापक अपरछिन्न चेतन तत्व है ,लेकिन पूर्व अभ्यासवश साधक जीव को वह व्यष्टि परछिन्न प्रतीत होता है ।गीता के श्लोक 6:22 -28 में ध्यान के अभ्यास को सावधानीपूर्वक करते रहने की सलाह दी गई है ।इससे साधक गीता 6.29 के अनुसार ,समष्टि व्यापक चेतन आत्मा से एकत्व अनुभव करने लगता है ।वह सारी सृष्टि को अपनी आत्मा में ही स्फुरित होते देखने लगता है ,और सब में अपनी आत्मा को भी देखने लगता है ।इस अवस्था में जीव, जड़ता से पूरी तरह तादात्म्य समाप्त कर समष्टि आत्मा में स्थित हो जाता है ।यहीं पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ ,काम ,मोक्ष ) का मोक्ष है ,और परमार्थ मार्ग में प्रवेश है ,जिसकी चर्चा आगे की पोस्टों में की जाएगी।
(5) ब्रह्मज्ञान
प्रायः आत्मानंद( त्वं पदार्थ) अनुभव कर रहे कर्मयोगी पथिक को, इस पड़ाव में ब्रह्मबोध( तत् पदार्थ) की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है ।इसके लिए आत्मा व ब्रह्म के ऐक्य की अपरोक्ष अनुभूति चाहिए। यह गंभीर विषय है ।भगवान इसका स्वयं निरूपण न कर गीता 4.34 में निर्देश देते हैं ,कि उस तत्व ज्ञान के लिए तू तत्वदर्शी महापुरुष के पास जा ।वे महापुरुष परम तत्व का अनुभव कर चुके हों, शास्त्रों के ज्ञाता हों। उन्हें दंडवत प्रणाम करना, उनकी सेवा तथा आज्ञा पालन करना ,और सरल भाव से जिज्ञासा प्रकट करना। तब वे तत्व ज्ञान का उपदेश करेंगे। ब्रह्म जानने की यही सही रीति है । श्री भगवान ने गीता 4.38 में यह भी कहा है, कि जिसका कर्मयोग भली-भांति सिद्ध हो गया है, ऐसा कर्मयोगी समय पाकर,भगवत कृपा से उस तत्वज्ञान का अनुभव कर लेता है।यही ध्वनि गीता मंत्र 6.31 तथा 18.56 से भी निकलती है।
कर्मयोग पथ में उन्नत हुए जीन साधकों को ,ब्रह्म की अनुभूति हो जाती है ,उनका संसार के प्रति बदला हुआ दृष्टिकोण परिलक्षित होने लगता है। गीता 6.30 के अनुसार ,जो पुरुष सब में भगवान को व्यापक देखता है ,और सबको भगवान के अंतर्गत देखता है ,उसके लिए भगवान अदृश्य नहीं होते और वह भी भगवान के लिए अदृश्य नहीं होता। वह परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है। इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ, सब में आत्मरूप से स्थित भगवान को भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ भी ,भगवान में वर्तता है ,अर्थात योगी द्वारा जो कुछ भी व्यवहार होता है वह सब भगवान की आज्ञा अनुसार ही होता है ।इस प्रकार अभेद दृष्टि प्राप्त संत प्रत्येक व्यक्ति से भिन्न- भिन्न व्यवहार करते हुए की वास्तव में ,अपने को इस बात पर स्थिर रखता है,कि वह भगवान से ही व्यवहार कर रहा है।
जिज्ञासा हो सकती है कि ब्रह्म क्या है ,उसे कैसे पहचाने ?
ब्रह्म -इंद्रियों, मन अथवा बुद्धि से नहीं जाना जा सकता।वह अनर्वचनीय है, और केवल वेदांतवेद्यं वेद्य है।जैसा परिचय वेदांत( ब्रह्मसूत्र, उपनिषद आदि) से प्राप्त हुआ,वैसा अपरोक्ष हो जाए तो वोध हुआ, ऐसा मानना चाहिए। गीता जी में भी ब्रह्म का संकेत से परिचय है ,यथा गीता 9.16-19 और 13.13-17 आदि- आदि।गीता मंत्र 9.18 के अनुसार ब्रह्म-गति (लक्ष्य), भरण पोषण करने वाला, सबका स्वामी,शुभाशुभ को देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य,सुहृत, उत्पत्ति -प्रलय सबका आधार,प्रलयकाल में सब का लयस्थान, अविनाशी और सब का बीज है। दैवी प्रकृति के महात्माजन,इस प्रकार से सब भूतों के कारण का अनुभव कर, उसे भजते रहते हैं।
(6)
विज्ञान
ब्रह्म का विशिष्ट- ज्ञान, विज्ञान कहलाता है ।जीव तथा जगत -जगदीश्वर की शक्ति का अभिन्न अंग है ।अधिष्ठान में बैठे परमात्मा ,सारी सृष्टि से किस प्रकार संबंध रहित संबंध बनाए हुए हैं ,इसे जानना विज्ञान है ।श्री गीता जी के अध्याय 7व9 में विज्ञान सहित ज्ञान की मीमांसा है । श्री गीता 7.6 में भगवान स्पष्ट करते हैं,कि उनकी परा और अपरा प्रकृति के सहयोग से सारी सृष्टि उद्भूत है ,और भगवान स्वयं इन दोनों के माध्यम से संपूर्ण जगत के अधिष्ठान रूप में उत्पत्ति और लय स्थान हैं। आगे भगवान गीता 7: 7 में स्पष्ट करते हैं कि जैसे सूत की मणियँ सूत के धागे में पिरोए हुई होती हैं, वैसे ही संपूर्ण जगत मुझ में पिरोया है।भगवान का "वासुदेव:सर्वम् इति"(गीता 7.19)रूप से अपने में अपरोक्ष हो जाना विज्ञान है।
श्री गीता जी के तेरहवें अध्याय में ज्ञान- विज्ञान के एक प्रकरण में भगवान कहते हैं कि सभी क्षेत्रों तथा उनके क्षेत्रज्ञों को ,मुझसे अभिन्न जानो। स्पष्टत: 13.34 का आशय है कि-क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ तथा छेत्री को ज्ञान चक्षु से देखता हुआ,जो साधक परमात्मा में स्थित है,वह विज्ञानी है। श्री गीता जी के मंत्र 15.18 के अनुसार क्षर- पुरुष व अक्षर- पुरुष सहित पुरुषोत्तम तत्व की अनुभूति से भी विज्ञान की सिद्धि हो जाती है। भगवान क्षर से अतीत हैं और अक्षर से उत्तमहैं, इसीलिए लोक और वेद में पुरुषोत्तम कहे जाते हैं। तीनों तत्व मानव देह में हैं ।उनका अपरोक्ष कर लेने से विज्ञान हो जाता है।
श्री गीता जी के मंत्र 9. 7 व 8 से ज्ञात होता है ,कि भगवान से सृष्टि कैसे प्रकट होती है ।कल्प के अंत में सब भूत भगवान- अधिष्ठित प्रकृति में लय हो जाते हैं, जिन्हें कल्प के आदि में भगवान पुनः विसर्जित कर देते हैं ।जीव त्रिगुणात्मिका माया के परतंत्र रहते हैं,और भगवत कृपा प्राप्त होने तक,संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं । श्रीगीता 9.4व5 में भगवान कहते हैं,कि सारे भूत मुझ अव्यक्त परमात्मा से व्याप्त है ,और मेरे संकल्प मात्र से मुझ पर अधिष्ठित हैं,लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूं।अर्थात मेरी ओर से देखने पर जगत मुझ में स्थित नहीं है।मेरी योगमाया के प्रभाव से भूत प्राणियों को उत्पन्न तथा भरण पोषण करने वाली मेरी आत्मा भी उनमें स्थित नहीं है।उपरोक्त वर्णन के आधार पर,ज्ञानदृष्टि द्वारा जीव, जगत का जगदीश्वर से संबंध स्पष्ट हो सकता है ,जो विज्ञान है।
जीव, जगत तथा परमात्मा के परस्पर संबंध (विज्ञान )जानने की साधना के संकेत श्री गीता जी में दिए हुए हैं।चार सोपानों तक सफलतापूर्वक यात्रा कर चुका कर्मयोगी जीव अपने स्वरूप (आत्मा )में स्थित हो जाता है।जीव ,जिस आत्मा का लिंग शरीर में प्रतिबिंब है ,वह आत्मा अव्यक्त अक्षर पुरुष के नाम से भी जानी जाती है ।जीव,जड़ता से नाता तोड़कर उसमें स्थित होकर ,नैसर्गिक भजन करने की स्थिति में होता है। इस स्थिति को प्राप्त योगी ,यदि गीता 8.14 के अनुसार अनन्य चित्त से ,नित्य परब्रह्म का सतत् स्मरण करता है,तो उसे परमात्मा निरंतर सुलभ रहता है।यह सनातन अव्यक्त में स्थिति होती है(गीता 8.20)। इस योगी को जीव,जगत तथा जगदीश्वर के परस्पर संबंध का अपरोक्ष बोध बना रहता है ,जो विज्ञान है।
(7) पराभक्ति
छै सोपान पार कर चुके किन्ही- किन्ही कर्मयोगी साधकों में परा भक्ति का उदय देखा जाता है ।यह अवस्था अत्यंत दुर्लभ है। ऐसे भक्त अपने को भगवान का किंकर मानते हुए भजन करते रहते हैं ,और प्रभु की आज्ञा अनुसार साधकों की सहायता भी करते रहते हैं। ऐसे परम भक्तों में सर्व श्री शंकर जी,नारद जी, हनुमान जी,काग भुसुण्डीजी ,शुकदेव जी तथा दत्तात्रेय जी आदि को स्मरण किया जाता है। पराभक्ति में लीन भक्तों का परिचय,गीता 15.19 इस प्रकार है- जो मोह रहित मनुष्य, भगवान द्वारा बताए परिचय के अनुसार,उनको पुरुषोत्तम रूप से जानता है,वह सर्वज्ञ है।उसकी बुद्धि भगवान में लग जाती है।फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया में स्वत: भगवान का भजन होता है।शिवजी भी ऐसा ही कहते हैं -
उमा राम स्वभाव जेहिं जाना।
ताहि भजन तजि भाव न आना।।
श्री गीता जी में परा भक्ति की चर्चा की गई है यथा:-
श्रीगीता 6.31 के अनुसार एकी भाव में स्थित योगी, संपूर्ण भूतों में स्थित भगवान वासुदेव को भजता रहता है ।ऐसा योगी शास्त्र और वर्णाश्रम की मर्यादा अनुसार, खाते-पीते ,सोते -जागते, उठते -बैठते, सभी क्रियाएं करते हुए मेरे में ही वर्तता है । श्री गीता जी के मंत्र 11.54 के अनुसार परा- भक्त ही भगवान की तीनों रूपों सगुण-साकार, सगुण- निराकार तथा निराकार का साक्षात्कार कर सकता है । श्री गीता 18.54 के अनुसार एकीभाव में स्थित ब्रह्मज्ञानी ,न तो किसी के लिए शोक करता है ,और ना कुछ चाहता है ।संपूर्ण जीवों में समभाव हुआ प्रसन्नचित साधक ,पराभक्ति प्राप्त करता है।
श्री गीता जी के श्लोक 18.64 .65.66 में,भगवान अपने उद्बोधन का लक्ष्यार्थ बताते हैं ।उसकी ध्वनि यह है,कि सृष्टि के सुचारु रुप से चलने के लिए,आवश्यक है कि मनुष्य सहित सृष्टि के सभी अवयव ,अपने-अपने स्वधर्म का पालन करें। हम सब पर कृपा करने के लिए भगवान ने, मनुष्यों का स्वधर्म निर्धारण ,स्वयं कर दिया है। मानव देह के पांच मुख्य अवयव है-मन,बुद्धि, चित्त, अहं तथा जीव स्वयं ।मन का धर्म भगवान का चिंतन करना है।बुद्धि का धर्म विचार कर निश्चय करना है ,की सृष्टि और ब्रह्म, विभक्त नहीं है।चित्त का धर्म अर्चना द्वारा भगवत् लीला को अपने में अंकित करते रहना है।अहम का धर्म सदा भगवान के चरणों में अनन्य भाव से समर्पित रहना है।जीव का एकमात्र धर्म,सभी अनात्मा पदार्थों के धर्मों से तादात्म्य छोड़कर,शरणागत रहकर स्वरूप का स्मरण बनाए रखना है।
भगवान की आज्ञा पालन करने के लिए संतजन, अपरोक्षानुभूति तथा भरा भक्ति से युक्त रहते हुए,अपनी देह के सभी अंगो को अपने-अपने धर्म में लगा कर आनंदित रहते हैं।
उपसंहार
हिंदुत्व एक परिचय- त्रियोगों द्वारा संसार से मुक्ति बुद्ध मनुष्यों के जीवन का लक्ष्य संसार चक्र से निकलकर परम सत्य पर स्थित हो जाना रहता है।अतः संसार चक्र का परिचय बृहदारण्यक उपनिषद 6.2.8--12 तथा गीता 14.18 के आधार पर में दिया गया। उस चक्र से निकलने के उपाय रूप में श्रीमद् भागवत जी के श्लोक 11.20.6 को स्वीकार किया गया।यथा - अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य के लिए, मैंने तीन योग मार्ग बताए हैं -कर्म, ज्ञान और भक्ति।इनके सिवाय अन्य कोई कल्याण का मार्ग नहीं है। हिंदुओं को, जीवन का लक्ष्य और उसे पाने का मार्ग स्पष्ट रहना चाहिए।किसी एक मार्ग से लक्ष्य प्राप्त हो जाने पर ,जीवन में कर्म ,ज्ञान व भक्ति तीनों नैसर्गिक रूप से रहते हैं ।
********ऊँ तत्सत्*********
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