चुनाव के परिणाम राष्ट्र हित और विचार की भूमि में निराशाजनक हैं।
जनता विवेकहीनता, मानसिक- गुलामी और लोभ के वशीभूत दिखाई दे रही है।
शासन तंत्र को भी विचार करना चाहिए।
सरकारी कार्यालयों के कुप्रबंध और रिश्वतखोरी के चलते, विकास का राग जनता को लुभा न सका।
मंदिर और गोबध की उदासीनता हिंदुओं को नहीं भाई।
वोट बैंक के भय से सभी दलों के नेता न्याय की बात नहीं कर पा रहे इसलिए राष्ट्र सम्मानीय नेता विहीन हो गया है; फिर भी अन्याय के लिए बेजा उत्साह नहीं दिखाया जाना चाहिए ।
हिंदुओं ने भी अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारी है।
उनके दैनिक आचरण में यदि हिंदुत्व, राजनीतिक-जागृति तथा संगठन का अभाव बना रहा और वे शठ- गठबंधन द्वारा उदारता तथा सेकुलरिज्म के बुने जाल में इसी तरह फंसते चले गए, तब उन्हें भविष्य के लिए रहने का स्थान ढूंढना शुरू कर देना चाहिए।
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