जीन्हें जीने की कला ज्ञात रहती है, उनका मरण स्वत सिद्ध हो जाता है।अन्यथा मरने की कला सीखकर, भी काम चलाया जा सकता है।मरने की कला का विज्ञान चार चरणों में प्रस्तुत है:-
प्रथम चरण में देह त्यागते हुए जीव के स्वरूप का चित्र
चित्र में काले रंग का केंद्र बिंदु जीव है जो विभिन्न अवरणों से लिपटा हुआ है । उसकी पहली सफेद पर्त चित्त मंडल की है । उसके ऊपर नीला मंडल अहंकार तत्व है । उसके बाद लाल आवरण उदान प्राण का मंडल है । उसके ऊपर पीली पर्त बुद्धि तत्व है । उसके ऊपर नीली धारियों वाले मन का आवरण है । उसके ऊपर वाले मंडल में पांच लाल रंग की ज्ञानेंद्रियां एवं पांच नीले रंग की कर्मेंद्रियां हैं। सबके ऊपर लाल पीली धारियों वाला पंच तन्मात्राओं का मंडल है। पूरा संघात लिंग शरीर कहलाता है। अज्ञानी जीव लिंग शरीर के साथ देह से उत्क्रमण करता है और प्रारब्ध अनुसार लोक-लोकांतर को गमन करता है [ गीता १५ .८ ] । उसे अधिष्ठान रूप में परम सत्य सदैव, सर्वत्र उपलब्ध रहता है। जीवनकाल में उसके स्मरण का अभ्यास करते रहने से अंत काल में भी स्मरण बना रहता है , जो जीवन व मरण की सफलता है ।
दूसरा चरण
जीव प्राणी भी कहा जाता है और मृत्यु के लिए "प्राण पखेरु उड़ने " का भी संबोधन किया जाता है। इस से स्पष्ट है कि प्राणों का मृत्यु से घनिष्ठ संबंध है और उसे समझना हमारा कर्तव्य है । वैसे भी प्राणायाम कोश अन्नमय कोष एवं मनोमय कोष के बीच की महत्वपूर्ण पर्त है । मनोभाव इसी पर्त के माध्यम से प्रवाहित होकर देह व्यापार को संचालित करते हैं । प्राण परम पुरुष और परम प्रकृति की योगावस्था से उद्भुत है । यह चेतन शक्ति का ही एक रूप है । इसकी दो प्रकार की वृत्तियां हैं । एक समष्टि प्राण जो भेदहीन हैं और जीवन शक्ति [कॉस्मिक एनर्जी ] के रूप में सर्वत्र फैला है । दूसरा व्यष्टि प्राण है जो प्राण, अपान, व्यान ,समान तथा उदान भेद से हम सबकी देह में कार्यरत है (छा० उ० 3•13•1से 5 )। दोनों प्रकार के प्राणों में सामंजस्य (हारमोनी ) स्थापित करना ही प्राणायाम है । जिस प्रकार मोबाइल के कार्य करते रहने के लिए उसे बार-बार चार्ज करना आवश्यक है ,उसी प्रकार देह व्यापार को सुचारु रुप से चलाने के लिए नित्य प्राणायाम द्वारा व्यष्टि प्राण को सबल बनाए रखना अनिवार्य है। भारतीय जीवनशैली में संध्या के माध्यम से इसका प्रचलन रहा है। किंतु धर्मनिरपेक्षता की भ्रमपूर्ण धारणा से यह सब दैनिक आचरण से समाप्त हो चुका है । यही नहीं आचार हीनता के साथ-साथ TV और स्मार्ट मोबाइल के अधिक प्रचलन से उस समय भी श्वास-प्रश्वास रुक सा जाता है, और 72000 नाड़ियों वाला प्राणायाम कोष देहमल (मारविड मैटर) से भरता रहता है ,परिणाम स्वरुप शरीर और मन विकार युक्त हो जाते हैं । ऐसी दशा में मरण काल के अवसर पर आवश्यक प्राण व्यापार उपलब्ध नहीं हो पाता और प्राणी की अधोगति हो जाती है । अतः फलाहार और उपवास के सही प्रयोग से देह की आंतरिक धुलाई करते रहना कर्तव्य है ।
तीसरा चरण
जीवन शक्ति के रूप में प्राप्त परमात्मा का प्रसाद हृदयगुहा द्वारा गृहीत होकर पूरे देह में पंच प्राण के रूप में सदा वितरित होता रहता है ।यह परिवर्तन व्यापार रुकते ही मृत्यु हो जाती है ।मृत्यु काल के समय हृदय से लगातार प्रवाहित होने वाली जीवन शक्ति बाधित होने लगती है ,और व्यष्टि प्राण, समष्टि प्राण से शक्ति पाने के लिए हृदयगुहा की ओर दौड़ते हैं ,किंतु इस समय हृदय के छिदृ ( पंचसुषि छा० उ०) देह मल से आक्रांत होने के कारण बंद होने लगते हैं और धीरे-धीरे दोनों प्रकार के प्राणों का परस्पर संपर्क टूट जाता है। यही मृत्यु है ,और तब अज्ञानी जीव लिंग शरीर के साथ उदान प्राण पर सवार होकर अगली यात्रा के लिए चल पड़ता है ।अन्तिम अवस्था में जब जीव स्वास लेने के लिए संघर्ष करता है ,तो इसका आशय यह है कि उस व्यक्ति को अपनी देह का भान नहीं है और अन्य देह से तादात्म्य की प्रक्रिया चल रही है तथा जीव दुविधा में फंसकर इधर से उधर झूल रहा है ।हाँफते हुए सांस चलने के मध्य सांस लेने में कष्ट बढ़ता जाता है तथा उसी अनुपात में वर्तमान स्थूल देह के प्रति मोह भी भंग होता रहता है और अंत में जीव हार कर वर्तमान शरीर को छोड़ देता है ।
चतुर्थ अंतिम चरण
मरण काल की सफलता की कसौटी यह है कि उस समय ह्रदय के छिद्र( पंच सुषी) खुले रहे जिससे जीव और प्राण देह के 10 द्वारों से न निकल कर हृदय में प्रवेश कर अपने मूल (ओरिजिन) से मिल जाए। यदि जीवन काल में मंत्र अथवा नाम के जप का अभ्यास किया जाता है तो अंत काल में भी उनका स्मरण होता रहता है, जिसके फलस्वरुप पंच सुषी खुले रहते हैं और अभिष्ट की प्राप्ति हो जाती है। आत्मसमर्पण अथवा आत्म विचार करने वालों के भी पंच सुषी खुले रहते हैं और मुक्ति प्राप्त हो जाती है । अंत काल में ब्रम्हनिष्ट संत की उपस्थिति से भी हृदय की अभीष्ट दशा प्राप्त हो सकती है ।श्री रमण महर्षि अपनी मां की मृत्यु के समय प्रातः 8:00 बजे से रात्रि 8:00 बजे तक उनके समीप बैठे रहे । पूरे समय वे एक हाथ से मां का सिर पकड़े रहे तथा दूसरा हाथ मां के वक्ष पर रखे रहे ,जब तक उनकी प्राण हृदय में प्रवेश न करगए। इसका अभिप्राय था कि श्री महर्षि का स्पर्श एक प्रकार की विद्युत शक्ति का प्रवाह उत्पन्न करता रहा जब तक जीव हृदय में प्रवेश नकर गया । इसके विपरीत जब महर्षि पलनी स्वामी को उनकी मृत्यु शैया पर संभाल रहे थे और उनके वक्षस्थल पर हाथ रखे हुए थे, तभी संयोगवश पलनी स्वामी ने प्राणों के हृदय प्रवेश की संवेदना से पीड़ित हो कर हाथ हटाने का संकेत दिया, जिससे महर्षि ने अपना हाथ हटा लिया। परिणाम स्वरुप तत्काल पलनी स्वामी के नेत्र स्थाई रूप से खुले रह गए । जिसका अभिप्राय हुआ कि जीवात्मा नेत्रों द्वारा बाहर निकल गया । यह उच्चतर पुनर्जन्म का द्योतक तो है किंतु मोक्ष का नहीं । दोनों घटनाओं से पता चलता है कि संत की उपस्थिति से प्राण व्यापार प्रभावित होता है और मरण सुधर जाता है । स्मरण रखना कर्तव्य है कि सहज समाधि में जीवन जीने वाले महापुरुष का कहीं आना-जाना नहीं होता।
**** हरि ऊँ तत्सत्****