Wednesday, January 29, 2020

मरने की कला

जीन्हें जीने की कला ज्ञात रहती है, उनका मरण स्वत सिद्ध हो जाता है।अन्यथा मरने की कला सीखकर, भी काम चलाया जा सकता है।मरने की कला का विज्ञान चार चरणों में प्रस्तुत है:-


 प्रथम चरण में देह त्यागते हुए जीव के स्वरूप का चित्र

चित्र में काले रंग का केंद्र बिंदु जीव है जो विभिन्न अवरणों से लिपटा हुआ है । उसकी पहली सफेद पर्त चित्त मंडल की है । उसके ऊपर नीला मंडल अहंकार तत्व है । उसके बाद लाल आवरण उदान प्राण का मंडल है । उसके ऊपर पीली पर्त बुद्धि तत्व है । उसके ऊपर नीली धारियों वाले मन का आवरण है । उसके ऊपर वाले मंडल में पांच लाल रंग की ज्ञानेंद्रियां एवं पांच नीले रंग की कर्मेंद्रियां हैं। सबके ऊपर लाल पीली धारियों वाला पंच तन्मात्राओं का मंडल है। पूरा संघात लिंग शरीर कहलाता है। अज्ञानी जीव लिंग शरीर के साथ देह से उत्क्रमण करता है और प्रारब्ध अनुसार लोक-लोकांतर को गमन करता है [ गीता १५ .८ ] । उसे अधिष्ठान रूप में परम सत्य सदैव, सर्वत्र उपलब्ध रहता है। जीवनकाल में उसके स्मरण का अभ्यास करते रहने से अंत काल में भी स्मरण बना रहता है , जो जीवन व मरण की सफलता है ।

 दूसरा चरण

जीव प्राणी भी कहा जाता है और मृत्यु के लिए "प्राण  पखेरु उड़ने " का भी संबोधन किया जाता है। इस से स्पष्ट है कि प्राणों का मृत्यु से घनिष्ठ संबंध है और उसे समझना हमारा कर्तव्य है । वैसे भी प्राणायाम कोश अन्नमय कोष एवं मनोमय कोष के बीच की महत्वपूर्ण पर्त है । मनोभाव इसी पर्त  के माध्यम से प्रवाहित होकर देह व्यापार को संचालित करते हैं । प्राण परम पुरुष और परम प्रकृति की योगावस्था से उद्भुत है । यह चेतन शक्ति का ही एक रूप है । इसकी दो प्रकार की वृत्तियां हैं । एक समष्टि प्राण जो भेदहीन हैं और जीवन शक्ति [कॉस्मिक एनर्जी ]  के रूप में सर्वत्र फैला है । दूसरा व्यष्टि प्राण है जो प्राण, अपान, व्यान ,समान तथा उदान भेद से हम सबकी देह में कार्यरत है (छा० उ० 3•13•1से 5 )। दोनों प्रकार के प्राणों में सामंजस्य (हारमोनी ) स्थापित करना ही प्राणायाम है । जिस प्रकार मोबाइल के कार्य करते रहने के लिए उसे बार-बार चार्ज करना आवश्यक है ,उसी प्रकार देह व्यापार को सुचारु रुप से चलाने के लिए नित्य प्राणायाम द्वारा व्यष्टि प्राण को सबल बनाए रखना अनिवार्य है। भारतीय जीवनशैली में संध्या के माध्यम से इसका प्रचलन रहा है। किंतु धर्मनिरपेक्षता की भ्रमपूर्ण धारणा से यह सब दैनिक आचरण से समाप्त हो चुका है । यही नहीं आचार हीनता के साथ-साथ TV और स्मार्ट मोबाइल के अधिक प्रचलन से उस समय भी श्वास-प्रश्वास रुक सा जाता है, और 72000 नाड़ियों वाला प्राणायाम कोष देहमल (मारविड मैटर) से भरता रहता है ,परिणाम स्वरुप शरीर और मन विकार युक्त हो जाते हैं । ऐसी दशा में मरण काल के अवसर पर आवश्यक प्राण व्यापार उपलब्ध नहीं हो पाता और प्राणी की अधोगति हो जाती है । अतः फलाहार और उपवास के सही प्रयोग से देह की आंतरिक धुलाई करते रहना कर्तव्य है ।

 तीसरा चरण

जीवन शक्ति के रूप में प्राप्त परमात्मा का प्रसाद  हृदयगुहा द्वारा गृहीत होकर पूरे देह में पंच प्राण के रूप में सदा वितरित होता रहता है ।यह परिवर्तन व्यापार रुकते ही मृत्यु हो जाती है ।मृत्यु काल के समय हृदय से लगातार प्रवाहित होने वाली जीवन शक्ति बाधित होने लगती है ,और व्यष्टि प्राण, समष्टि प्राण से शक्ति पाने के लिए हृदयगुहा की ओर दौड़ते हैं ,किंतु इस समय हृदय के छिदृ ( पंचसुषि छा० उ०) देह मल से  आक्रांत होने के कारण बंद होने लगते हैं और धीरे-धीरे दोनों प्रकार के प्राणों का परस्पर संपर्क टूट जाता है। यही मृत्यु है ,और तब अज्ञानी जीव लिंग शरीर के साथ उदान प्राण पर सवार होकर अगली यात्रा के लिए चल पड़ता है ।अन्तिम अवस्था में जब जीव स्वास लेने के लिए संघर्ष करता है ,तो इसका आशय यह है कि उस व्यक्ति को अपनी देह का भान नहीं है और अन्य देह से तादात्म्य की प्रक्रिया चल रही है तथा जीव दुविधा में फंसकर इधर से उधर झूल रहा है ।हाँफते हुए सांस चलने के मध्य सांस लेने में कष्ट बढ़ता जाता है तथा उसी अनुपात में वर्तमान स्थूल देह के प्रति मोह भी भंग होता रहता है और अंत में जीव हार कर वर्तमान शरीर को छोड़ देता है । 

 चतुर्थ अंतिम चरण

मरण काल की सफलता की कसौटी यह है कि उस समय ह्रदय के छिद्र( पंच सुषी) खुले रहे जिससे जीव और प्राण देह के 10 द्वारों से न निकल कर हृदय में प्रवेश कर अपने मूल (ओरिजिन) से मिल जाए। यदि जीवन काल में मंत्र अथवा नाम के जप का अभ्यास किया जाता है तो अंत काल में भी उनका स्मरण होता रहता है, जिसके फलस्वरुप पंच सुषी खुले रहते हैं और अभिष्ट की प्राप्ति हो जाती है। आत्मसमर्पण अथवा आत्म विचार करने वालों के भी पंच सुषी खुले रहते हैं और मुक्ति प्राप्त हो जाती है । अंत काल में ब्रम्हनिष्ट संत की उपस्थिति से भी हृदय की अभीष्ट दशा प्राप्त हो सकती है ।श्री रमण महर्षि अपनी मां की मृत्यु के समय प्रातः 8:00 बजे से रात्रि 8:00 बजे तक उनके समीप बैठे रहे । पूरे समय वे एक हाथ से मां का सिर पकड़े रहे तथा दूसरा हाथ मां के वक्ष पर रखे रहे ,जब तक उनकी प्राण हृदय में प्रवेश न करगए। इसका अभिप्राय था कि श्री महर्षि का स्पर्श एक प्रकार की विद्युत शक्ति का प्रवाह उत्पन्न करता रहा जब तक जीव हृदय में प्रवेश नकर गया । इसके विपरीत जब महर्षि पलनी स्वामी को उनकी मृत्यु शैया पर संभाल रहे थे और उनके वक्षस्थल पर हाथ रखे हुए थे, तभी संयोगवश पलनी स्वामी ने प्राणों के हृदय प्रवेश की संवेदना से पीड़ित हो कर हाथ हटाने का संकेत दिया, जिससे महर्षि ने अपना हाथ हटा लिया। परिणाम स्वरुप तत्काल पलनी स्वामी के नेत्र स्थाई रूप से खुले रह गए । जिसका अभिप्राय  हुआ कि जीवात्मा नेत्रों द्वारा बाहर निकल गया । यह उच्चतर पुनर्जन्म का द्योतक तो है किंतु मोक्ष का नहीं । दोनों घटनाओं से पता चलता है  कि संत की उपस्थिति से प्राण व्यापार प्रभावित होता है और मरण सुधर जाता है । स्मरण रखना कर्तव्य है कि सहज समाधि में जीवन जीने वाले महापुरुष का कहीं आना-जाना नहीं होता।



**** हरि ऊँ तत्सत्****

             

Friday, January 10, 2020

राष्ट्रधर्म

2019 का सेकुलर भारत

श्रीमद् भगवत गीता- जीव, जगत ,जगदीश्वर में पूर्ण सामंजस्य रखते हुए, मनुष्य को परम लक्ष्य प्राप्त कराने वाला, देश-काल-सीमा रहित शाश्वत ईश्वरी संविधान है।  

श्री गीता जी की उपेक्षा कर, मैकाले की कुटिल नीतियों को कार्यान्वित करने वाले, चार्वाक-सिद्धांत देहात्मभाव आधारित,दिशाहीन संविधान पर,राष्ट्र की गतिविधियां चल रही हैं। तदनुसार शिक्षा पद्धति से केवल अविद्या के विद्वान पैदा हो रहे हैं।परिणाम स्वरूप पंचभूत प्रदूषित हो गए, और सारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार व अक्षमता से ग्रस्त हो गया है।धर्मनिरपेक्ष भारत का किंकर्तव्यविमूढ़ नागरिक दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से पीड़ित है, और आनंद की प्यास बुझाने के लिए मांस-मदिरा भक्षण, समलैंगिकता व वृद्धाश्रम की मृगतृष्णा में भटक रहा है--वह भी विकास आधुनिकता तथा उदारता के नाम पर। सत्ता की शक्ति पर कभी भी नरपिशाच-संगठन का कब्जा हो सकता है।

राष्ट्रभक्तों का धर्म है- वर्तमान शिक्षा पद्धति में ही ईशावास्योपनिषद के अनुसार "विद्या" का समावेश हो तथा संविधान श्री गीता जी में बताए गए जीवन-दर्शन के अनुकूल हो। पिशाच धर्म मानने वालों से,बचने के कुछ उपाय हो रहे हैं,लेकिन वे पर्याप्त नहीं है।


 2020 का शिव संकल्प

हिंदुओं को विशेष रूप से संगठित रहने की आवश्यकता है। आसुरी प्रवृत्ति वाले राष्ट्र के पुनः विभाजन करने की योजना रखते हैं। चूके तो धर्म-कर्म सब मिट्टी में मिल जाएगा ।अच्छा हो नीचे दिया संकल्प दोहराने और स्वधर्म पालन करते हुए संगठित रहें। 




साधना की अनिवार्यता


सृष्टि में नाना प्रकार के शरीरधारी हैं, जैसे पेड़ - पौधे ,पशु-पक्षी आदि ।

जीव को मानव देह तो साधना द्वारा भगवत प्राप्ति के लिए है- जैसा मानस में कहा है 

" साधन धाम मोक्ष कर द्वारा"।

किसी अन्य प्रकार की देह द्वारा पूर्णता के पथ पर साधन द्वारा अग्रसर होना संभव नहीं है।

सब भोग योनियाँ हैं।

दैवी संपदा मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बंधन के लिए मानी गई है।

 -गीता 16 • 5

रजोगुण और तमोगुण की प्रधानता ही असुरी प्रकृति का आधार है और सत्वगुण की प्रधानता ही दैवी प्रकृति का हेतु है।


अतः साधना का उद्देश्य साधक की आसुरी व्रत्तियों को समाप्त कर दैवीगुणो को प्रकाशित करना होता है अर्थात सत्व गुण की वृद्धि करना होता है ।

गुणों का बढ़ना और घटना 10 तत्वों पर निर्भर करता है। 

यथा भोजन ,शास्त्र ,जल, देश, काल ,कर्म ,जन्म, ध्यान,मंत्र और संस्कार। 

इनमें आहार मुख्य है।

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धि। 

-(छा 0 उ0  7• 26 •2 )

कुछ अपवादों को छोड़कर फल, सब्जियां साक, मेवा और देशी गाय का दूध सात्विक आहार है।

भारत में आसुरी प्रकृति वालों की बहुत वृद्धि हुई है।

राष्ट्र भक्तों को चाहिए कि वह दैवी प्रकृति के मनुष्य की वृद्धि का प्रयास करें।

Thursday, January 9, 2020

संत तुलसी का अंतिम उद्बोधन


भक्तों के निवेदन पर,देह शांत होने के पहले,संत तुलसी ने अपने जीवन के अनुभव का सार, इस प्रकार व्यक्त किया:-


अलप तो अवधि तामें जीव बहु सोच पोच,

करिबे को बहुत है कहा कहा कीजिए । 


ग्रन्थन को अन्त नाहिं काव्य की कला अनन्त,

राग है रसीलो रस कहाँ कहाँ पीजिए । 


वेदन को पार न पुरानन को भेद बहु,

वाणी है अनेक चित कहाँ कहाँ दीजिए । 


लाखन में एक बात तुलसी बताए जात,

जन्म जो सुधारा चाहो रामनाम लीजिए ।

ईश्वर दर्शन

प्रश्न है, कि क्या कलयुग में ईश्वर दर्शन हो सकता है?

ईश्वर दर्शन युग निरपेक्ष है, कलियुग में भी ईश्वर दर्शन होता रहता है ।

मन जब भी अन्य सब व्रत्तियों से रहित होकर भगवत स्वरुप में स्थित होगा, ईश्वर दर्शन हो जाएगा।

संकल्पात्मक मन को वृतिशून्य करना कठिन है, किंतु असंभव नहीं।

इसके लिए 5 युक्तियां है - अध्यात्म विद्या का अभ्यास, मन के मूल की खोज, साधु संगम, वासना त्याग और प्राणायाम।

इनमें से वासना त्याग सबसे कठिन है।

परमब्रह्म को जीवन का लक्ष्य रखकर, शास्त्र और गुरुवचनों पर निष्ठा रखने से क्रमशः कर्तव्य परायणता, विवेक, वैराग्य और चित्त शुद्धि से अपना बोध हो जाता है।

आगे का विकास स्वतः होने लगता है और अपरोक्षानुभूति तथा प्रेमानंद प्राप्त होने पर, परम लक्ष्य की प्राप्ति भी हो जाती है।

साधन पथ



परमलक्ष्य-मार्ग का चुनाव


ज्ञानयोग - अध्यात्म क्षेत्र में अपने को जानना ही सबसे कठिन,किंतु अनिवार्य आवश्यकता है। अपने को जाने बिना,मान्यता के आधार पर, कुछ स्वीकार करते रहने से,मिथ्या अभिमान में जीव बंधता रहता है।अपने को ब्रह्म भी मान लिया जाए, तो सत्य होते हुए भी, वह मिथ्या अभिमान ही होगा।
     
कर्मयोग -
की साधना तुलनात्मक दृष्टि से सरल है ।प्राप्त परिस्थितियों के अनुसार,शास्त्र निर्धारित स्वकर्तव्य को पूरी क्षमता और कुशलता से करना है,और किसी से कुछ अपेक्षा नहीं करनी है।इतने से ही,कर्मयोग सिद्ध हो जाएगा और जीवन आनंदमय हो उठेगा।
   
भक्तियोग -
अलौकिक साधना है, जो भगवान के बल पर संपादित होती है।एक बार भगवान को अपना तथा अपने को भगवान का मानकर,सर्वभावेन भगवान को समर्पित हो जाए,तो भक्तियोग प्रारंभ हो जाता है। सर्वरूप विराट भगवान की सेवा चलते रहने पर,भगवान की कृपा से अपरोक्षानुभूति और परा भक्ति की प्राप्ति भी हो जाती है।
किसी एक मार्ग का चुनाव करने के लिए आप स्वतंत्र हैं।

साधक को अहंता ममता से बचना होगा



साधन- पंथ का विज्ञान



परम लक्ष्य



ज्ञान बनाम भक्ति



मन



सावधान


हिंदुओं को राजनीतिक निर्णय लेते समय, अपने अस्तित्व पर विचार कर लेना चाहिए।

जो उदारता अपने अस्तित्व और आदर्श को विलुप्त करें, वह मूर्खता है:-





धोखा




Tuesday, January 7, 2020

मन का नियंत्रण


निसंदेह मन चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है।

- गीता 6. 35

मन है क्या ?

विषयों से उद्वेलित चेतन की वृत्ति ही मन है ।

वास्तव में सबिषय चेतन को ही मन कहते हैं ।

यह एक अमूर्त पदार्थ है।

मन नाम का कोई प्रथक तत्व नहीं है।

जैसे ही हम विषय चिंतन करते हैं, तो मन उसी का आकार लेकर प्रकट हो जाता है।

अगर हमारा मन" कार" का चिंतन कर रहा है तो वह" कार" के रूप का हो जाएगा।

यदि हम अपनी पत्नी का चिंतन कर रहे हैं, तो वह पत्नी के रूप में मिलेगा।

यदि हम पुत्र का चिंतन कर रहे होंगे, तो पुत्र के रूप में मिलेगा।

मन के उपरोक्त स्वभाव में, उसको वश में करने का सूत्र छिपा है।

आप अपना कोई इष्ट( श्री राम ,कृष्ण )चुन ले और उस के रूप में तन्मय हो जाए, तो मन भगवान के उसी रूप के आकार का हो जाएगा।

भगवान के रूप के प्रभाव से उसका मल भस्म होगा और वह शुद्ध हो जाएगा।

इष्ट का चित्र सामने रखकर उसके रूप अथवा स्वरूप का निरूपण करते हुए, नाम जपने का अभ्यास मन नियंत्रण का सरल उपाय है।

आचरण-निर्धारण



कर्मयोग बनाम प्रारब्ध



विकासवाद का स्वरूप ‼




सावधान




गोमाता को जानिये

गौ रक्षा मानव समाज का परम धर्म है।
भारतीय गाय सूर्य से विकिरण होने वाली ऊर्जा को ग्रहण कर, पंचगव्य( दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर) द्वारा ,सृष्टि को वितरित करती रहती है ।
इस महान यज्ञ करने वाली गौ माता की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।
यज्ञाचरण के बिना ,संसार- चक्र पर्यावरण प्रदूषण के कारण ,सुचारू रूप से नहीं चल सकता।
गौ की बिना किसी प्रकार का यज्ञ नहीं हो सकता। सारी सृष्टि, देवता तथा मनुष्य गौ के द्वारा ही पुष्ट होते हैं।
खेती में शक्ति के लिए बैलों की उपेक्षा कर, केवल पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भर करना ,अकाल को निमंत्रण देना है ।
गोबर,गोमूत्र  के अभाव में पृथ्वी मां,अन्न देना बंद कर देंगी।
विद्या विहीन मैकाले -पद्धति प्रदत्त,अविद्या- विद्वानों के मूर्खतापूर्ण रसायनिक पांडित्य से, पांचों तत्व- भूमि जल तेज वायु तथा आकाश  प्रदूषित हो रहे हैं और जीव दैहिक, दैविक ,भौतिक तापों से पीड़ित है ।
इतने पर भी आसुरी प्रकृति वाले गौ मांस भक्षण जैसे महापाप में जुटे हैं ।
यह लोग श्री गीता मंत्र 16 .19 के अनुसार दंडित तो होंगे ही ,लेकिन दैवी प्रकृति वाले इस जघन्य अपराध के प्रतिकार करने के, दायित्व से बच नहीं सकते।

हिंदूधर्म



जय श्रीराम



"धर्म" और" परमधर्म"

 

चार नीतिवचन

 

  • धर्म - दया धर्म का मूल है। 

  • अर्थ - किसी पर अंधविश्वास मत करो।वित्त मंत्री भी धन चुरा सकता है। 

  • काम - स्त्रियों के साथ मृदुता का व्यवहार करना चाहिए । 

  • आयुर्वेद - किए हुए भोजन के गुण दोष पचने के बाद ही,अगला भोजन करना चाहिए।

मानव जन्म की दुर्लभता तथा सार्थकता

बड़े भाग मानुष तन पावा।

 सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।

कबहुँक करि करुणा नर देही।

 देत ईस विनु हेतु सनेही।।

 नर तनु भव बारिधि को बेरो।

 सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।

 कर्णधार सद्गुरु दृढ नावा।

 दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।। 

-मानस 7.43,44

चित्त-शुद्धि



सनातन( हिंदू) धर्म - परिचय

(See post from April 2020 for more details on Mukti Marg)

आधारशिला- अपौरूषेय स्वरूप। सारी सृष्टि, एक शक्ति संपन्न परम सत्य पर अधिष्ठित और उसी से संचालित है। उस व्यवस्था का अपौरूषेय ज्ञान वेद में है। उसकी रक्षा का जो भार हिंदुओं के सिर पर है, उसका निर्वाह करना चाहिए:-


अंतरंग स्वरूप ।कर्तव्य और अकर्तव्य निर्धारण में,शास्त्र ही प्रमाण है।गीता 16.24 ।अस्तु सत्संग व सदग्रंथों का पठन-पाठन चालू रखना, हम सब का कर्तव्य है:-


वहिरंग स्वरूप। लंबे समय की परतंत्रता एवं बाद में वैदिक धर्म विरोधी शासन तंत्र के कारण, हिंदूधर्म  कुरूप हो गया है। अस्तित्व रक्षा के लिए राजनीतिक मोर्चे पर संगठित रहकर,वाह्यरूप को भी सजाना, संवारना है:-



लौकिक स्वरूप, हिंदू-धर्म मंदिर, का चौथा स्तंभ है।हिंदू धर्म अनुयाई अपने परम लक्ष्य( स्वरूप स्थिति) पर दृढ़ रहते हुए, परिवर्तनशील दैवी प्रकृति को स्वीकार करता है:-



गुंबद रूपी यह पोस्ट रखने से, सनातन धर्म मंदिर तैयार हो जाता है। इसकी क्षत्रछाया में उपासना से भगवत प्राप्ति हो जाएगी:-



हिंदुओं को, संक्षेप में स्वधर्म से परिचय के लिए, यह मंदिर है।
जो इसमें वर्णित सदग्रंथों का स्वाध्याय,मनन व निदिद्ध्यासन करेगा, उसका कल्याण सुनिश्चित है:-

निष्कर्ष



जय सियाराम- जय जय हनुमान



मानव-जीवन की सार्थकता



जीवन का लक्ष्य निर्धारण



अहम का त्याग



भक्ति



भक्ति -साधना और सिद्धि



अद्भुत न्याय- प्रणाली


मूर्ति पूजा



पूजा



वैराग्य बनाम राग



वैराग्य



आदर्श वैराग्य



ग्रहण बनाम त्याग



परमार्थ माने जीवन का परम प्रयोजन