अयोध्याकाण्ड
अयोध्याकाण्ड
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड,श्री राम जी की विवाह के बाद अयोध्या का जनजीवन:-तुलसीदास
ग्रंथ के प्रारंभ में गुरुपद-रज की वंदना करते हैं और इस कांड में पुनः उसकी वंदना
करते हैं,फिर नहीं करते।प्रारंभ में भागवत चरित्र अगम समझकर गुरु पद रज का आश्रय लेते
हैं ।इस कांड में भक्त शिरोमणि भरत चरित्र है,जो और भी अधिक अगम लगा,अतः मन को
संभालने के लिए पुनः गुरुपद-रज का आश्रय लेना पड़ा। जब से रामचंद्र जी का ब्याह
हुआ है,अवध में मंगल,आनंद छाया हुआ है। ऐसा जान पड़ता है की रिद्धि-सिद्धि की
नदियां उमड़ कर अवध में आ गई हैं।माताएं और नगर के पुण्यात्मा लोग,भौतिक सुख
संपदा के साथ,भगवान के मुख चंद्र का दर्शन कर अध्यात्मिक सुख का अनुभव भी करते रहते
हैं।राजा दशरथ पुत्र में राज्य शासन की योग्यता देखकर विशेष प्रमुदित हैं।सबके मन
में गुप्त अभिलाषा है,कि श्री राम जी को राजा,जीते जी युवराज(भविष्य के
राजा पद का अधिकारी पुत्र) पद दे दें:- श्रीगुरु सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥ जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल
मोद बधाए॥ भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥ रिधि सिधि संपति नदीं
सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥ मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब
भाँती॥ कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग
सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ
बेली॥ राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥ दो0-सब कें उर
अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु। आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥ टिप्पणी:-एक
बार(राम विवाह के 12 वर्ष बाद) राजसभा में दशरथ जी आनंद से बैठे हुए थे।यहां पर
राजा के वैभव और उपलब्धियों का सुंदर वर्णन इस तरह किया गया है, मानो वे चरम पर
पहुंचकर पूर्ण हो गई हों। सभा में बैठे राजा दशरथ ने,सहज ही पास में रखे दर्पण
को उठाकर देखा, तो मुकुट बाईं ओर झुका हुआ था,उसे ठीक किया। कानों के पास
सफेद बालों पर भी ध्यान गया,तो ऐसा विचार उठा की मेरा बुढापा (आयु 60000 वर्ष) आ गया है,अच्छा हो जीते
जी इसका लाभ उठाकर,राम जी को युवराज बना दिया जाए। अपने विचार को दृढ़ कर,अच्छा दिन और
मुहूर्त देखकर,राजा गुरु के पास गए।वहां उन्होंने राम जी के गुणों की
प्रशंसा करते हुए कहा,कि प्रजा, परिवार,विप्र, ऋषि-मुनि सब आपकी तरह श्री राम जी को प्यार करते हैं।मेरा
अनुभव है,कि गुरुपद की राज जो सिर पर लगाते हैं,उनके सब मनोरथ हमारी तरह अवश्य पूरे हो जाते
हैं।वशिष्ठ जी समझ गए - राजा जी किसी महत्वपूर्ण बात पर हमारा अनुमोदन चाहते
हैं।अतः चक्रवर्ती सम्राट को आदर देते हुए कहा- राजन आप अपनी अभिलाषा व्यक्त करें,
वह तो फल की
अनुगामिनी ही होती है अर्थात उसके पूरे होने की व्यवस्था समष्टि में पहले ही हो
चुकी होती है:- एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥ सकल सुकृत मूरति
नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥ नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं
प्रीति रुख राखें॥ तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥ मंगलमूल
रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥ रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु
बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥ श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥ नृप
जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥ दो0-यह बिचारु उर आनि नृप
सुदिनु सुअवसरु पाइ। प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥ कहइ भुआलु
सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥ सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि
मित्र उदासी॥ सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥ बिप्र
सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥ जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु
सकल बिभव बस करहीं॥ मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥ अब
अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥ मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ
नरेस रजायसु देहू॥ दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार। फल अनुगामी महिप मनि मन
अभिलाषु तुम्हार॥3।। [20/12, 18:02]
- मानस आधारित श्री राम कथा,
अयोध्याकांड,वशिष्ठजी की
अनुमति से राज्याभिषेक की तैयारी:-गुरु जी को प्रसन्न देखकर राजा दशरथ ने श्री राम
जी को युवराज बनाने की अपनी अभिलाषा व्यक्त कर दी।वशिष्ठ जी ने उनके विचार की
प्रशंसा की,और शीघ्र ही उसे कार्य रूप में परिवर्तित करने को कहा।वशिष्ठ जी त्रिकालज्ञ
हैं,जानते हैं कि कार्य संपन्न नहीं होगा,अतः दो -अर्थक भाषा बोलते हैं- " वही दिन
मंगलकारी होगा,जिस दिन राम युवराज होंगे"। महापुरुष भगवदीय व्यवस्था
को सुचारू रूप से चलने देते हैं।अवतार का मुख्य प्रयोजन असुरों को समाप्त करना है:-
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥ नाथ रामु करिअहिं
जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥ मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन
लाहू॥ प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥ पुनि न सोच तनु रहउ कि
जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥ सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥ भयउ तुम्हार तनय सोइ
स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥ दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु। सुदिन
सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥ टिप्पणी :-राजा प्रसन्न चित्त राजभवन आये और
नीति कुशलता के साथ -सुमंत्र,मंत्रियों,तथा सेवकों को गुरु जी की आज्ञा और अपनी अभिलाषा बता कर,उनके विचारों
को जानना चाहा।सब ने शालीनता और आदर पूर्वक गुरु जी की आज्ञा का अनुमोदन किया।
दशरथ जीने मुनिराज के अनुशासन में शीघ्र ही श्रीराम के युवराज पद पर अभिषेक की
तैयारी करने की राज-आज्ञा दे दी। सब अपने अपने कार्य में प्रसन्नता पूर्वक लग गए।
अति शीघ्रता का कारण रहस्यमय है,जिसका समाधान मानस में नहीं दिखाई पड़ता।वाल्मीकि रामायण के
अनुसार राजा को इस समय बहुत अशकुन और बुरे स्वप्न हो रहे थे।उनका जन्म नक्षत्र
सूर्य,मंगल,और राहु जैसे दारुण ग्रहों से आक्रांत था।गुरुजी से चर्चा के बाद राज्याभिषेक
के लिए शुभ मुहूर्त अगले ही दिन था,अतः राजा शीघ्रता चाहते थे । कुछ लोग सत्योपाख्यान और गर्ग
संहिता के आधार पर यह कहते हैं,कि राजा दशरथ ने केकय राज को प्रतिज्ञा पत्र दे चुके थे,कि कैकेयी का
पुत्र राज्य का अधिकारी होगा।किंतु तुलसीकृत मानस में किसी भी पात्र ने ऐसी चर्चा
नहीं की है।अतः शीघ्रता आदि को इससे नहीं जोड़ा जा सकता। मुनिराज वशिष्ट जी ने
राज्य अभिषेक की विस्तार से पूरी व्यवस्था के लिए निर्देश दे दिया और सब अपने-अपने
काम में लग गए :- मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥ कहि जयजीव सीस
तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥ जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि
टीका॥ मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥ बिनती सचिव करहि
कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥ जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ
बारा॥ नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥ दो0-कहेउ भूप
मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ। राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥ हरषि मुनीस
कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥ औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल
नाना॥ चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥ मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो
जग जोगु भूप अभिषेका॥ बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥ सफल
रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥ रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु
बनावन बेगि बजारू॥ पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥ दो0-ध्वज पताक तोरन
कलस सजहु तुरग रथ नाग। सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,
अयोध्या कांड,श्री राम जी के
राज्याभिषेक की तैयारियां पूर्ण:-वशिष्ठ जी की आज्ञा अनुसार राज्याभिषेक की
तैयारियां पूरी कर ली गईं।राजा दशरथ जी मंगल कामना पूरी होने के लिए ब्राह्मण,
साधु और
देवताओं का पूजन कर रहे हैं। श्री सीता-राम जी के तन में शुभ शकुन प्रकट हो रहे
हैं।वे लोग इसे भरत मिलन का संकेत मान रहे हैं।उपहार पाने की होड़ में सेवक
-सेविकायें रनिवास में समाचार पहुंचा रहे हैं।सब प्रसन्न हैं, और रानियाँ
अपने-अपने ढंग से प्रसन्नता प्रकट कर रही हैं।गुरु जी की आज्ञा अनुसार,सुंदर मांगलिक
मणियों से अनेक चौके पूरी जा रही हैं, और उन पर सजे सजाए मंगल कलश रखें जा रहे
हैं।सुमित्रा जी मंगल रचना की आचार्य हैं। चौक पूरने में इन से अधिक निपुण और कोई
नहीं है। कौशल्या जी भी आनंद मग्न हो कर दान दे रही हैं, देवी देवताओं की पूजा भी कर
रही हैं और कार्य पूरा होने पर विशेष पूजा की मनौती भी मान रही है।सर्वत्र मंगल
गानों की धूम मची हुई है और मंगल सूचक सजावट में सारी जनता व्यस्त है। आश्चर्य है
कि कैकेयी जी इस सबसे अनभिज्ञ हैं। यदि सामान्य जन अपने से दूर हो रहा हो,तो समय रहते
आत्म निरीक्षण कर,अपना सुधार कर लेना चाहिए,अन्यथा किसी मंथरा के चक्कर
में फस कर पतन सुनिश्चित है:- जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु
कीन्हा॥ बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥ सुनत राम अभिषेक
सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥ राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥ पुलकि
सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥ भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति
भेंट प्रिय केरी॥ भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥ रामहि
बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥ दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि
रहँसेउ रनिवासु। सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥ प्रथम जाइ
जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥ प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस
सजन सब लागीं॥ चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥ आनँद मगन
राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥ पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन
बलिभागा॥ जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥ गावहिं मंगल
कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥ दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि। लगे
सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8 टिप्पणी:-दशरथ जी ने कुल आचार्य वशिष्ठ जी को
रामधाम(कनक भवन) में सामायिक शिक्षा देने के लिए भेजा।सूचना मिलते ही राम जी द्वार
पर आए, दंड प्रणाम कर,अर्ध्य देते हुए,गुरु जी को अंदर ले गए और सीता जी सहित 16
प्रकार से पूजा
की।रामजी ने गुरु जी के चरण पकड़ कर गूढ प्रार्थना करी है-"स्वामी का आना
मंगलो का मूल है,मेरे लिए यही उचित था कि गुरुजी बुलाकर हमें जो कार्य करना
"असुरों का नाश" है,उसी की आज्ञा देते।प्रेम से सने वचन सुनकर वशिष्ठ जी ने
कहा- तुम सूर्यवंश के भूषण हो,ऐसे ही वचनों की तुम से अपेक्षा है।ऐसा कह गुरुजी अत्यंत
प्रफुल्लित हो उठे:- तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥ गुर आगमनु
सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥ सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि
सनमाने॥ गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥ सेवक सदन स्वामि आगमनू।
मंगल मूल अमंगल दमनू॥ तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥ प्रभुता
तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥ आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ
स्वामि सेवकाई॥ दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस। राम कस न तुम्ह
कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9
- मानस आधारित श्रीराम कथा,अयोध्या कांड ,राम जी के
युवराज बनने की तैयारी पूरी हुई, तो दूसरी ओर देवताओं द्वारा विघ्नों की योजना भी
पूर्ण:-वशिष्ठ मुनि ने राम जी की प्रशंसा की,और बताया कि राजा ने कल
तुम्हारे युवराज बनने का प्रबंध कर दिया है।तुम्हें उसके लिए आवश्यक संयम करना है,जिससे विधाता
कुशल से कार्य निर्वाह कर दे।संयम की शिक्षा देकर गुरुजी चले गए। राम जी सोचते हैं
कि हम सब भाई साथ जन्मे,खेलकूद तथा छेदन, जनेऊ व विवाह आदि संस्कार भी साथ-साथ हुए।लेकिन
यह विमल सूर्यवंशी की अनुचित परंपरा है, कि राज्य पद में बड़े भाई का ही अभिषेक किया
जाता है।अच्छा हो प्रभु का यह प्रेम भरा पछतावा,भक्तों की स्वार्थ भावना को
नष्ट करने का आधार बने।नगर के लोग प्रसन्नता पूर्वक श्री सीताराम जी के अभिषेक
होने के लिए कल की प्रतीक्षा करने लगे:- बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम
पुलकि मुनिराऊ॥ भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥ राम करहु सब संजम
आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥ गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ
भयऊ॥ जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥ करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब
भए उछाहा॥ बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥ प्रभु सप्रेम
पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥ दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम
आनंद। सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥ बाजहिं बाजने बिबिध
बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥ भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु
पावहिं॥ हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥ कालि लगन भलि केतिक बारा।
पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥ कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥ टिप्पणी:-अयोध्या
वासियों का उत्सव देवताओं को अच्छा नहीं लग रहा।वे तो अभिषेक में विघ्न डालकर अपने
स्वार्थ सिद्ध के लिए रामजी का बन गमन चाहते हैं।उपाय रूप में सरस्वती जी का आवाहन
कर,बार-बार उनके पैरों पड़ते हैं और विनती करते हैं,की मां तू अयोध्या जाकर ऐसी
देव माया फैलाओ ,कि राम जी अभिषेक छोड़कर बन चले जाएं।सरस्वती जी पछताती हैं,
की व्यर्थ के
विरोधाभास में हम फँस गए हैं-एक और राम जी को कष्ट देकर,अयोध्या वासियों की
प्रसन्नता नष्ट करना है,अन्यथा देवताओं का कार्य करने से मुंह मोड़ना है।देवता फिर
से पैरों पडते हैं और विनती करते हैं कि श्री राम जी ब्रम्हांड के राजा हैं,
अयोध्या का
राज्य मिलने न मिलने से,उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा,आप देवहित करें।सरस्वती जी
अयोध्या के लिए चल तो पड़ीं, पर सोचती जा रही हैं कि देवताओं का निवास उच्च है लेकिन
करनी स्वार्थ भरी है।वे दुखदाई ग्रह के रूप में दशरथ जी की पुरी में पहुंच गईं।
वहां कैकेयी की दासी कुटिल बुद्धि वाली मंथरा को अपने कार्य प्रयोजन सिद्धि के लिए
चुना,और उसके विचारों को ऐसा प्रदूषित कर दिया,जिससे देवताओं का प्रयोजन
सफल हो जाए:- सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥ तिन्हहि सोहाइ न
अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥ सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै
परहीं॥ दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु। रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल
सुरकाजु॥11॥ सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥ देखि देव पुनि कहहिं
निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥ बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम
प्रभाऊ॥ जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥ बार बार गहि चरन सँकोचौ।
चली बिचारि बिबुध मति पोची॥ ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥ हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु
ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥ दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि। अजस पेटारी ताहि करि गई
गिरा मति फेरि॥1
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड,मलिन अंतःकरण में आधारहीन मनोविकारों का उद्दीपन,और उनका घातक
परिणाम:-एक ही दिन में अयोध्या नगरी सज-धज कर तैयार हो गई और जगह-जगह मंगलमय बधावे
बजने लगे।मंथरा ने लोगों से पूछा? यह कैसा उत्सव है?लोगों ने अगले दिन होने वाले राजतिलक की बात बता
दी ।मलिन बुद्धि मंथरा में प्रबल द्वेष वृत्ति जागृत हुई और उसने तुरंत उत्सव भंग
करने की योजना बना डाली।बनावटी उदासी का नाटक कर,कैकेई जी के पास
पहुंची।रानी ने हंसकर पूछा-क्या हुआ,क्यों उदास है?वह उत्तर नहीं देती,और
त्रियाचरित्र कर आंसू बहाते हुए लंबी लंबी सांसे लेने लगी।रानी ने फिर कहा,बड़बोली है ना,लगता है
लक्ष्मण ने डांट लगाई है।अब भी पॉपीन दासी कोई जवाब नहीं देती,और ऐसी लंबी
सांसे छोड़ती है,मानो काली नागिन फुफकार रही हो।किसी अशुभ शंका से रानी ने
डरकर पूछा? बताती क्यों नहीं?श्री राम,राजा जी,लक्ष्मण,भरत व शत्रुघ्न कुशल से तो हैं?राम जी का नाम पहले लेने से
मंथरा के मन की पीड़ा बढ़ गई। मूर्ख,मलिनबुद्धि स्त्रियां अपनी द्वेष-वृत्ति की
संतुष्टि के लिए,अकारण ही लोगों से द्वेष मान लेती हैं,जैसा कि मंथरा
श्री राम और कौशल्या जी के प्रति द्वेष बुद्धि रखने के कारण,अकारण दुखी हो रही है।
मंथरा ने विष उगलना शुरू किया - मैं किस के बल पर गाल फुलाऊँगी?रामचंद्र को
छोड़कर अब किसकी कुशल है,जिन्हें राजा युवराज पद दे रहे हैं! कौशल्या के विधाता
अनुकूल है,वो गर्व से फूली नहीं समा रही हैं!तुम स्वयं छत से जाकर नगर की शोभा देखो!जिसे
देख कर हमारे मन में क्षोभ हुआ है।तुम्हारा पुत्र विदेश में है,तुम्हें उसकी
कोई चिंता नहीं है,बस इतने में ही संतुष्ट हो कि राजा हमारे बस में
हैं।तुम्हें तो केवल सेज और गुलगुले गद्दे से प्रियता है।राजा की कपट भरी चतुराई
को नहीं भाँप पा रही हो। कैकेई जी ने मंथरा से प्रिय समाचार सुना और उसे मलिन
बुद्धि वाली मानकर,क्रुद्ध होकर डांटा !बस अब चुप हो जा ! घरफोरी कहीं की!यदि
अब जवान चली तो उसे पकड़कर निकलवा दूंगी?सही कहावत है कि काने,लंगड़े और कुबड़े -कुचाली
होते हैं,खासकर स्त्री और फिर दासी।कुछ हो भरत की माता हैं-अतः डांटकर भी मुस्कुरा
दीं:- दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥ पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम
तिलकु सुनि भा उर दाहू॥ करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥ भरत मातु पहिं गइ
बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥ ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ
आँसू॥ हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥ तबहुँ न बोल चेरि
बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥ दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल
रामु महिपालु। लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥ कत सिख देइ हमहि कोउ माई।
गालु करब केहि कर बलु पाई॥ रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥ देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो
अवलोकि मोर मनु छोभा॥ पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥ नीद
बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥ सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी
रानि अब रहु अरगानी॥ पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥ दो0-काने खोरे
कूबरे कुटिल कुचाली जानि। तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥
टिप्पणी:-कैकेई जी कहती हैं- शुभ समाचार देने वाली तुझ पर क्रोध नहीं है, केवल शिक्षा
देने के लिए ऐसा कहा है।सुंदर,मंगलदायक शुभदिन वही होगा,जब रामतिलक होगा।सूर्यवंश
कि यह सुंदर रीति है,कि बड़ा भाई राजा और छोटा भाई सेवक होता है।यदि वास्तव में
कल राम का तिलक है,तो मुझ से मुंह-मांगा इनाम ले ले!राम जी सभी माताओं को
कौशल्या जी की तरह ही प्रेम करते हैं ,लेकिन हम से विशेष प्रेम करते हैं,इसकी हमने
परीक्षा कर ली है।विधाता हमें अगला जन्म दे,तो राम पुत्र और सीता बहू
हो। राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं,उनके तिलक पर तुझे क्षोभ
कैसा? सच-सच बता!हर्ष के समय तू विषाद क्यों कर रही है? प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ
तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥ सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन
होई॥ जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥ राम तिलकु जौं साँचेहुँ
काली। देउँ मागु मन भावत आली॥ कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥ मो
पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥ जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू।
होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥ प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु
कस तोरें॥ दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ। हरष समय बिसमउ
करसि कारन मोहि सुनाउ॥15।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,
अयोध्याकांड,मलिन अंताकरण
वाले के कुसंग का मनोविज्ञान और उसके दुष्परिणाम-1:-कैकेई जी, मंथरा से कपट
छोड़कर स्पष्ट बोलने को कहती हैं। वह कैकेयी जी के उठाए प्रत्येक प्रश्न का उत्तर
देती है,किंतु कपट को अत्यंत गूढ़ बनाकर और उसपर कृत्रिम प्रेम का आवरण भी चढ़ा देती
है।कैकेई और मंथरा के बीच बातचीत का मनोविज्ञान समझने लायक है। मूर्ख,मलिन स्त्रियां
अपने लिए, अकारण ही राग द्वेष का पात्र चुन लेती हैं,और उसे नीचा दिखाने के लिए,सहयोगी ढूंढती
रहती हैं।मंथरा के द्वेष के पात्र राम जी और कौशल्या जी हैं। वह राम का राजतिलक
नहीं चाहती और उसमें सहयोग के लिए कैकेई जी को चुनती है।कैकेई को राजा से प्राप्त
दो वरदानों के माध्यम से ही,वह अपना लक्ष्य साधना चाहती है।लेकिन उसे तब तक प्रकट नहीं
करती,जब तक कैकेई की मानसिकता इस हद तक मलिन न हो जाए,कि उसकी योजना अनुसार वरदान
मांगे। अस्तु वह कैकेई जी में नैसर्गिक सौतियाडाह का उद्दीपन इस हद तक करती है,कि उनका राम और
राजा के प्रति प्रेम भरा आदर भाव नष्ट हो जाता है और वह रानी होकर,चेरी की इच्छा
अनुसार व्यवहार करने लगती है। कुसंग के प्रभाव का यह अच्छा उदाहरण है।कैकेई जी व मंथरा
के बीच पूरे संवाद को इसी दृष्टि से देखना कर्तव्य है:- एकहिं बार आस सब पूजी। अब
कछु कहब जीभ करि दूजी॥ फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥ कहहिं
झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥ हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती।
नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥ करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो
दीन्हा॥ कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥ जारै जोगु सुभाउ
हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥ तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक
हमारी॥ दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि। सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि
पतिआनि॥16॥ सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥ तसि मति फिरी अहइ जसि
भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥ तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी
नाऊँ॥ टिप्पणी:-ज्योतिष के अनुसार शनिग्रह की 7•5 वर्ष या माह या दिन की दशा
को साढ़ेसाती कहते हैं,जिसका फल बुरा होता है।कैकेई जी,मंथरा का मार्गदर्शन
स्वीकार करने के,7•5 दिन के भीतर विधवा हो जाएंगी:- सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि
छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥ प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो
फुरि बानी॥ रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥ भानु कमल कुल
पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥ जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि
उपाउ बर बारी॥ दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ। मन मलीन मुह मीठ
नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥ चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥ पठए
भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥ सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित
भरत मातु बल पी कें॥ सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥ राजहि
तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥ रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम
तिलक हित लगन धराई॥ यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥ आगिलि
बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥ दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन
कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥ कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18।।
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-८,कैकेई जी का मन्थरा के साथ कुसंग-2 :-राम जी के
प्रस्तावित राजतिलक को लेकर,कैकेई और मंथरा में चर्चा चल रही है।मंथरा ने सौवतों की कथा
इस ढंग से सुनाई की कैकेई को विश्वास हो गया,कि कौशल्या से खतरा है ।अब
कैकेयी शपथ देकर पूछती हैं, की अगली घटना (18 8 )कौन सी है जिससे तुम डरती
हो? द्वेषभाव को बढ़ाती हुई मंथरा उत्तर देती है- 15 दिन से राम तिलक की तैयारी
चल रही है,तुम्हें किसी ने नहीं बताया।राम तिलक होने के बाद तुम दूध में पड़ी मक्खी की
तरह फेक दी जाओगी। अगर विनता की तरह सौवत (कौशल्या)की सेवा करोगी,तभी घर में रह
पाओगी।भरत जेल में डाल दिए जाएंगे और लक्ष्मण,राम जी के नायब बन
जाएंगे।कद्रु(नाग माता)और विनता(गरुड़ माता )दोनों कश्यप ऋषि की पत्नियां हैं।उनकी
सौतियाडाह की कथा लंबी है।उसी कथा से वह अपने कथन की पुष्टि करती है। भविष्य की
कल्पना मात्र से कैकेई पसीना- पसीना हो गईं और उनके सर्वांग कांपने लगे। अनिष्ट की
संभावना से मंथरा ने दांतो तले जीभ दवाई और स्थिति संभालते हुए धीरज बंधाया।ऐसी
कपट कहानियां सुनाई ,कि कैकेई,कुकाठ की तरह तीनों (राम,राजा,कौशिल्या)कि इतनी विरोधी हो
गई की उसे अब झुकाया नहीं जा सकता।वे कुचाली मंथरा रूपी बगुली को, हंसिनी मानकर,उसकी सराहना
करने लगी:- भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥ का पूछहुँ तुम्ह
अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥ भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि
मोहि सन आजू॥ खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥ जौं असत्य
कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥ रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति
बीजु बिधि बयऊ॥ रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥ जौं सुत सहित
करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥ दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥ कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि
सुखानी॥ तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥ कहि कहि कोटिक कपट
कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥ फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि
मराली॥ टिप्पणी:-कैकेयी, दीनों की तरह है गिड़- गिड़ाने लगी और पूरी तरह मंथरा के बस
में हो गई।कुबड़ी को अवसर मिला और अपनी योजना को
सुदृढ करने के लिए मंथरा ने त्रिया चरित्र फैलाना शुरू किया।कैकेई से कहती है कि
तुम घबराओ मत, तुम्हारा सुख-सुहाग दूना होगा।जिन्होंने तुम्हारा अनभल सोचा
है वे ही उल्टा फल पावेंगे।मैंने ज्योतिषियों से पूछा है ,उन्होंने बताया कि भरत राजा
होंगे। और तब बाजी पलट जाएगी। अपनी भावी योजना को पक्का करने के लिए रानी से
कहती है कि - समस्या का उपाय मैं बता सकती हूं,यदि तुम उसे पूरा करने को
कहो!रानी बोली तू मेरे हित की बात कह रही है,अतः मैं उसे अवश्य
मानूंगी।तुम्हारे कहने पर मैं कुएं में कूद सकती हूं,अपने पुत्र और पति का भी
त्याग कर सकती हूं:- सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥ दिन
प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥ काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन
बाम न जानउँ काऊ॥ दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह। केहिं अघ एकहि बार
मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥ नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥ अरि बस
दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥ दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं
तियमाया ठानी॥ अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥ जेहिं
राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥ जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि।
भूख न बासर नींद न जामिनि॥ पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह
साँची॥ भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥ दो0-परउँ कूप तुअ
बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि। कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-९, कैकेई जी का मन्थरा के साथ कुसंग प्रकरण-3:-भविष्य की
कल्पनिक दुर्दशा से बचने के उपाय रूप में,कैकेई ने बलिपशु बनना स्वीकार कर लिया।कसाइन
कुबरी,कपटवाणी रूपी छूरी को अपने कठोर हृदय रूपी सिल्लीपर तेज कर रही है,किंतु बलिपशु
को अपना विनाश नहीं दिखाई पड़ रहा है। कुबरी भयंकर परिणाम वाली मधुर वाणी का ऐसा
प्रयोग करती है,जैसे शहद में विष मिला कर दे रही हो।कहती है - रानी आपके दो
वरदान धरोहर रूप में राजा के पास हैं,एक से पुत्र भरत का राज्य और दूसरे से राम को
वनवास मांगकर,शौत का सारा आनंद छीन लो।जब राजा,राम की सौगंध खा लें, तभी बर मांगना।अब तुम
कोपग्रह में जाओ! आज की रात महत्वपूर्ण है। राजा की प्रेम भरी बातों में न
फँसना।सजग होकर वरदान प्राप्त कर लेना। कोपग्रह:-राज महलों में शयनागार के पास एक
कोठरी होती थी।रानियां रूठने पर अथवा मनोरथ सिद्धि के लिए,इस कोठरी में चली जाती
थी।कोप प्रकट करने वाले रूप की साज-सामग्री इस कोठरी में हमेशा रहती थी:- कुबरी
करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥ लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन
बलिपसु जैसें॥ सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥ कहइ चेरि सुधि
अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥ दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु
जुड़ावहु छाती॥ सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥ भूपति राम सपथ
जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥ होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु
जी तें॥ दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु। काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि
पतिआहु॥22॥ टिप्पणी:-कुबरी ,अब रानी जी को प्राणों के समान प्रिय हो गई।उस को सम्मान
दिया और उसकी प्रशंसा की।कोप भवन के अनुकूल सज-धज कर कैकेई उसमें चली गई । राजमहल
और नगर में पूर्ववत धूम-धाम चलती रही। वहां के लोग इस षड्यंत्र से अनभिज्ञ हैं।राम
जी के बाल सखा उनको बधाई देने के लिए,उनसे मिलने के लिए,आ-जा रहे हैं।राम जी उन
सबकी प्रेम भावना का सम्मान करते हैं। अयोध्या वासी प्रसन्नता पूर्वक प्रार्थना
करते हैं, कि जब-जब हमारा जन्म हो रामजी हमारे राजा बने और हम सब उनके सेवक।दूसरी ओर
कैकेयी के हृदय में, राम जी के राजा होने से अत्यंत जलन हो रही है। कुसंगति से
मति भ्रष्ट हो जाती है,और उसके दुष्परिणाम भोगने पढ़ते हैं। संध्या समय आनंद से
भरे राजा दशरथ,कैकेई के महल में गए।ऐसा लगता है मानो साक्षात स्नेह ही देह
धरकर, निष्ठुरता के पास पहुंच गया हो:- कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि
बुद्धि बखानी॥ तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥ जौं बिधि पुरब
मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥ बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि
कैकेई॥ बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥ पाइ कपट जलु अंकुर
जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥ कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति
बिगोई॥ राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥ दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब
सजहिं सुमंगलचार। एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥ बाल सखा सुन
हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥ प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं
कुसल खेम मृदु बानी॥ फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥ को रघुबीर
सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा। जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ
ईसु देउ यह हमहीं॥ सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥ अस अभिलाषु नगर
सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥ को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
दो0-साँझ समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ। गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेह।
24
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-10 राजा दशरथ और कैकई संवाद-1:- कैकेयी के महल
में पहुंचकर, राजा जी को सेविकाओं से पता चला, कि रानी कोपभवन में है।राजा जी स्तब्ध रह गए।काम
का स्वाभाविक प्रभाव है, कि बड़े-बड़े योद्धा कामदेव के पुष्प बाणों से मूर्छित हो
जाते हैं।राजा दशरथ का भी यही हाल हो रहा है। राजा कैकेई के पास जाकर उनकी दशा
देखी - पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए, भूमि पर लेटी हैं।आभूषण पास में बिखरे पड़े हैं।
दुर्बुद्धि कैकेई विधवा वेष में ऐसी सुंदर लग रही हैं, मानो भविष्य के अशुभ का
संकेत हो। राजा,रानी को मनाते हुए कहते हैं - क्यों रूठी हुई हो,और उस पर प्रेम
भरा हाथ भी रखते हैं। कैकेई ने उनके हाथ को झिटक दिया।क्रोध भरी निगाह से उन्हें
ऐसा देखती है,मानो नागिन डसने के लिए मर्म स्थान(अवसर) देख रही हो।दोनों वरदान की वासनाएं
नागिन की जीभ(दो भागों में बटी हुई)हो और दोनों वरदान दो दांत हैं। होतब्यतवश दशरथ
जी इसे मानिनी नायिका की काम क्रीड़ा मान रहे हैं:- कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस
अगहुड़ परइ न पाऊ॥ सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥ सो सुनि
तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥ सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ
सुमन सर मारे॥ सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥ भूमि सयन पटु
मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥ कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु
भाबी॥ जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥ छं0-केहि हेतु रानि
रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई। मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥ दोउ
बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई। तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
टिप्पणी:-राजा बार-बार कह रहे हैं - हे सुमुखी! हे सुलोचनि!हे कोकिलबयनी!हे
गजगामिनी!अपने कोप का कारण मुझे बताओ !राजा कैकेई की प्रसन्नता के लिए,असंभव को भी
संभव कर देने की बात कहते हैं।फिर कुछ व्यावहारिक सत्य बात भी कहते हैं - हे
बरोरू( सुंदर जंघाओं वाली)!मेरा मन तेरे मुखचंद्र का चकोर है।मेरा सब कुछ - प्राण,
पुत्र,परिजन तथा
प्रजा आदि तेरे लिए हैं।मैं कपट से कुछ नहीं कह रहा हूं, हे भामिनी मुझे राम जी की
सौवार सौगंध है।तुम्हें जो चाहिए मांग लो।हे प्रिये! कुबेष छोड़कर शरीर पर आभूषण
सजाओ । आपेक्षित कसम सुनकर मंदबुद्धि कैकेई हंसती हुई,भूमि से कुछ आभूषण उठाकर
ऐसे धारण करने लगी,मानो भीलनी मृग को फसतें देख,फंदा संभाल रही हो:- सो0-बार बार कह राउ
सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि। कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥ अनहित तोर
प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥ कहु केहि रंकहि करौ नरेसू।
कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥ सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥ प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें।
परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥ जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥ घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि
प्रिया परिहरहि कुबेषू॥ दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद। भूषन सजति
बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥ टिप्पणी:- राजा ने कैकेयी को सामान्य मानकर, प्रेम भरी
मंजुल वाणी में,रामतिलक की सूचना दे दी और कहा - जैसा तुमने चाहा था,वैसा मैंने कर
दिया,कल राम तिलक है।अब तुम मंगल साज सजो। इस बात से उसका कठोर हृदय मानो फट गया हो
और उसे पका बरतोड़ दुखने जैसा कष्ट हुआ।उसने इस पीड़ा की भाव भंगिमा को चेहरे पर
नहीं आने दिया,जैसे चोरी से व्यभिचार करने वाली परकीया नायिका,अपने उपनायक के
मर जाने पर भी सबके सामने नहीं रोती। वैसे तो राजा नीति निपुण है,लेकिन स्त्री
का चरित्र अथाह समुद्र है,वे उसकी थाह नहीं पा सके।कैकेई तिरछी चितवन कर,बिलासपूर्ण
हावभाव से बोली- हे प्रियतम ! आप मांगु- मांगु तो कहते रहते हैं पर कभी देते-लेते
नहीं।अपने दो बर देने को कहा था, उनके पाने में भी मुझे संदेह है:- पुनि कह राउ सुह्रद जियँ
जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥ भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥ दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू।
जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥ ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥ जद्यपि नीति निपुन नरनाहू।
नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥ कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥ दो0-मागु मागु पै
कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु। देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-11,राजा दशरथ- कैकेई संवाद-2, कैकेई ने दशरथ
जी द्वारा पूर्व में दिए वरदान का स्मरण कराया। राजा दशरथ ने कहा - अब समझ में आया
,रूठना तुम्हारा स्वभाव है।तुमने अपनी धरोहर कभी मांगी नहीं,और भुलक्कड़
स्वभाव के कारण,मैं भी भूल गया।इसके लिए हमें दोषी मत ठहराव।हमारी नियत साफ
है,2 की जगह है चार वरदान मांग लो।रघुकुल की रीति है,की दिए वचन की रक्षा होती
हैंं। भले ही उसके लिए प्राण देना पड़े। सारे पुण्य कर्मों की जड़ सत्य है।उस पर
भी हमने राम की शपथ ले ली है,जो पुण्य और प्रेम की सीमा है। दुर्बुद्धि कैकेई बात पक्की
करा कर प्रसन्न हुई,और राजा के मनोरथ रूपी सुंदरबन, जहां सुख रूप पक्षियों का
समाज है, में ,विषाक्त वाणी रूपी भयंकर बाज की आंखों से टोपी हटाकर छोड़ दिया।वह हंसकर बोली
- हे प्राण प्यारे ! मेरे जी को भाने वाले वर सुनो ! एक में "भरत को राज
तिलक"दीजिए !दूसरा वर मैं हाथ जोड़कर मांगती हूं !तपस्वी भेष में उदासियों की
भांति "राम 14 वर्ष तक वन में निवास करें !:- जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई।
तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥ थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥ रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥ नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक
गुंजा॥ सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥ तेहि पर राम सपथ करि आई।
सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥ बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु। भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु
बाजु॥28॥ सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥ मागउँ दूसर बर कर
जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥ तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
टिप्पणी:-छल भरे मीठे वचनों को सुन,राजा को ऐसा शोक हुआ,जैसे चकवे को चंद्रकिरण के
स्पर्श से होता है।राजा वैसे ही सहमें,मानो बटेर पक्षी पर बाज टूट पड़ा हो।राजा
श्रीहीन हो गए,मानो ताड़ के वृक्ष पर बिजली गिर गई हो।इस प्रकार मन
शोकातुर हो गया,वाणीं बंद हो गई,और देह निढाल हो गई।अर्थात राजा मन से,बचन से तथा
शरीर से बेहाल हो गए। वे माथे पर हाथ रख,आंखें बंदकर ऐसे सोच में डूबे मानो शोक की
साक्षात मूर्ति हों। वे सोचते हैं मेरा मनोरथ(रामतिलक)रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था,
फल लगने के
पहले कैकेई रूपी हथिनी ने उसे जड़ सहित उखाड़ दिया।उसने अवध को उजाड़ दिया और दुख
की पक्की नींव डाल दी।क्या अवसर था,उसमें क्या हो गया?स्त्री पर विश्वास करने से मैं मारा गया!योग(यम,नियम,आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि)से
प्राप्त सिद्धिकाल को माया रूपी स्त्री ने नष्ट कर दिया। राजा मन-ही-मन पछता रहे
थे,जिसे भाँफकर दुर्बुद्धि कैकेई कुपित हो उठी:- सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥ गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥ माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु
धरि सोचु लाग जनु सोचन॥ मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥ अवध
उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥ दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ
नारि बिस्वास। जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥ एहि बिधि राउ मनहिं मन
झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥ टिप्पणी:-कुपित कैकेयी बोली - क्या भरत आपके
पुत्र नहीं हैं?क्या मुझे दाम देकर मोल लाए थे? मेरी बात आपको बाण सी क्यों
लगी?बचन संभाल कर क्यों नहीं बोले?"हां" या "ना" में उत्तर
दीजिए!ध्यान रहे!आप रघुकुल के सत्यवादी हैं। सत्य की प्रशंसा करके वर देने को
कहा था। समझते थे की चबेना मांग लेगी।राजा शिवि, बलि, दधीच ने जो कुछ कहा,उन्होंने उस
वचन की रक्षा की, भले ही तन,धन का त्याग करना पड़ा हो! ऐसे कटु वचन कहकर केकई ने जले पर
नमक छिड़का। धर्मिष्ठ राजा ने धीरज धरकर नेत्र खोले, माथा पीटकर आह भरी,और सोचने लगे
इसने मर्म स्थान पर तलवार मारी है:- भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि
कि मोही॥ जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥ देहु उतरु अनु
करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥ देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ
सत्य जग अपजसु लेहू॥ सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥ सिबि
दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥ अति कटु बचन कहति कैकेई।
मानहुँ लोन जरे पर देई॥ दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ। सिरु धुनि लीन्हि उसास
असि मारेसि मोहि कुठायँ॥
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-12 राजा दशरथ कैकई संवाद- 3:- राजा दशरथ ने
सचेत होकर आंख खोली,तो सामने क्रोध से भरी कैकेयी को रोष रूपी नंगी तलवार के
रूप में देखा।जिसकी मूठ कुबुद्धि है, धार निष्ठुरता है,जिसको मंथरा रूपी यंत्र
द्वारा तेज किया गया है।राजा सोचते हैं - जान पड़ता है कि यह मेरा जीवन समाप्त
करेगी! धर्मिष्ठ राजा ने धैर्य धारण कर - साम,दाम,विभेद तथा दंड नीति का
सहारा लेना प्रारंभ किया।वे बहुत नम्र और प्रार्थना से भरी वाणी में बोले - हे
अकारण भयभीत प्रिये ! विश्वास और प्रेम की हत्या करने वाली कैसी अशोभनीय वाणी बोल
रही हो? मैं शंकर जी की साक्षी देकर कहता हूं।कि भरत और राम दोनों ही मेरी आंखें हैं
अर्थात मुझे समान प्रिय हैं।मैं सवेरे ही दूत अवश्य भेज दूंगा। दोनों भाई भरत व
शत्रुघ्न शीर्घ आ जाएंगे।शुभ मुहूर्त में धूमधाम से भरत को राज्य दे दूंगा।राम को
राज्य का लोभ नहीं है,अतः वे भरत को राज्य देना स्वीकार कर लेंगे।मैं ही राजा का
कर्तव्य निर्वाह के लिए छोटे-बड़े का विचार कर, राम को राज्य दे रहा था।मैं
राम की सौ शपथ करके कहता हूं,कौशल्या ने तिलक के विषय में कुछ नहीं कहा। दशरथ अब तक समझ
चुके थे- की राम,कौशल्या और मुझ पर संदेह होने से सब गड़बड़ी हुई है। अतः
तीनों के लिए सफाई दे दी:- आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥ मूठि
कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥ लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु
लेइहि मोरा॥ बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥ प्रिया बचन कस कहसि
कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥ मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि
संकरू साखी॥ अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥ सुदिन सोधि
सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥ दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत
भरत पर प्रीति। मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥ राम सपथ सत
कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥ टिप्पणी:-राजा ने पहला वरदान देकर,"दाम-नीति"
का प्रयोग कर दिया और बोले - मैंने तुम से सलाह लिए बिना सब किया,इसी से मेरा
मनोरथ निष्फल हुआ।अब क्रोध छोड़ो!मंगल साज-सजो! कुछ समय में ही भरत युवराज हो
जाएंगे! अब राजा दूसरे वरदान, जिसके कारण वे अत्यंत दुखी हैं,के पुनर्विचार के लिए कैकेई
को प्रेरित कर रहे हैं।वे कैकेई से पूछते हैं - की यह मांग क्रोध यह परिहास के
कारण की गई है,या वास्तविक है?राम का अपराध तो बताओ?जिसके लिए उसे वनवास दिया
जाए?राम को सभी लोग सज्जन कहते हैं, और प्रेम करते हैं।तुम भी उनकी सराहना करती रही
हो।जो दुश्मन का भी हित चाहता हो,वह भला माता के प्रतिकूल कैसे हो सकता है? दूसरा वरदान
चाहे हंसी के लिए हो!अथवा क्षणिक क्रोध के लिए हो!उसे छोड़कर उसके स्थान पर
विवेकपूर्ण दूसरा वरदान मांग लो,जिससे हम जिंदा बचे रहें और भरत का राजतिलक देख सकें। हे
प्रवीण प्रिये ! मेरा जीवन राम दर्शन के आधीन है,उसके अभाव में मेरा मरना
सुनिश्चित है।इस प्रकार राजा ने कैकेई की काल्पनिक और द्वेषभाव से दूर करने की
"विभेद-नीति" का भी प्रयोग कर दिया:- मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें।
तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥ रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥ अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस
परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥ कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥ जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो
किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥ दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु। जेहिं देखाँ अब
नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥ जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥ समुझि देखु जियँ प्रिया
प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥ टिप्पणी:- उपरोक्त सुंदर वचन सुनकर कैकेई कुढ रही
है,मानो अग्नि में आहुति पड़ रही हो।वह बोली - आप कितने ही उपाय करो ! आप की
चालबाजी नहीं चलेगी ! वरदान दीजिए ! अन्यथा मना कर अपयश लीजिए ! मुझे व्यर्थ की
बातचीत अच्छी नहीं लगती! राम,तुम और रामकीमाता सब पक्के साधु हैं।कौशल्या ने जैसे हमारा
हित करने की योजना बनाई थी,वैसा ही उनका हित करने मैं जा रही हूं,जो उन्हें
हमेशा याद रहेगा। हे नृप ! सवेरा होते ही,मुनि वेश धारण करके,यदि राम वन को न गए,तो मैं
आत्महत्या कर लूंगी ! और आपका अपयश सुनिश्चित है:- सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई।
मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥ कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं। रामु साधु तुम्ह साधु
सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥ जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि
साका॥ दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन
माहिं॥33।।
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-13, राजा दशरथ-कैकेयी के जीवन का अंतिम संवाद -4:-कैकेयी,
अपने मांगे हुए
दूसरे वरदान के लिए निश्चयात्मक मत स्पष्ट कर खड़ी हो गई।वह कुटिल कैकेई ऐसी लगती
है - मानो क्रोधजल से भरी नदी पाप के पहाड़ से निकली है।दोनों वरदान उस नदी के
दोनों किनारे हैं ।कठिन हठ ही उसकी धारा है,जिसमें कुबरी की प्रेरणा ही
भंवर है।यह नदी (स्वयं कैकेयी) दशरथ रूपी वृक्ष को ढहाती हुई विपत्ति रूपी समुद्र
की ओर जा रही है। राजा समझ गए कि दूसरा वरदान भी सोच समझकर मांगा गया है।अस्तु
उन्हें स्त्री के बहाने से मृत्यु सिर पर मंडराती दिखाई देने लगी। तदान्तर राजा ने
कैकेई के चरण पकड़कर उसे बिठाकर विनती की - की सूर्यवंश के लिए कुल्हाड़ी मत बन!
राम बियोग में मुझे मत मार, चाहे तो सीधे-सीधे सिर काट ले!जैसे तैसे राम को रख ले,नहीं तो जन्म
भर तेरी छाती जलती रहेगी। राजा ने देखा रोग असाध्य है,माथा पीटकर पृथ्वी पर गिर
पड़े और आर्त स्वर में "राम -राम- रघुनाथ" कहने लगे। राजा व्याकुल हो
गए।उनका शरीर शिथिल पड़ गया,मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष उखाड़ डाला हो।गला सूख गया। मुख से
वचन नहीं निकलते:- अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥ पाप पहार
प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥ दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन
प्रचारा॥ ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥ लखी नरेस बात फुरि
साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥ गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि
कुठारी॥ मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥ राखु राम कहुँ जेहि
तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥ दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ
धरनि धुनि माथ। कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥ ब्याकुल राउ सिथिल सब
गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥ कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु
पानी॥ टिप्पणी :-इतने पर भी कैकेयी फिर कड़वे वचन बोलती है मानो घाव पर जहर भरा
फाहा रख रही हो। वह कहती है- यदि अंत में यह सब करना था, तो किस बल पर मांगो मांगो
कहा था।हे राजा!क्या दो विरुद्ध बातें एक साथ हो सकती हैं-ठहाका मारकर हंसना और
गाल फुलाना ?दानी कहाना और कंजूसी करना?क्षेम-कुशलता और युद्ध?या तो प्रतिज्ञा ही छोड़
दीजिए!या धैर्य धारण कीजिए! स्त्रियों की तरह बिलाप न कीजिए!सत्यवादी के लिए शरीर,स्त्री,पुत्र, घर,धन और पृथ्वी
तिनके के समान कहे गए हैं:- पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥ दुइ कि होइ एक समय
भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥ दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥ तनु तिय तनय धामु धनु धरनी।
सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥ टिप्पणी:-मर्मभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा-जो चाहे कह
!तेरा दोष नहीं है!मेरा काल पिशाच बनकर तुझ में प्रवेश कर गया है। भरत राजपद भूलकर
भी नहीं चाहते।विधिवश तेरे अंदर कुबुद्धि बसी है।यह सब मेरे पाप ( शब्दभेदी बाण से
ब्राह्मण पुत्र की हत्या) का फल है,जिससे विधाता बेमौके उल्टा हो गया है। अयोध्या फिर से
सुहावनी होकर बसेगी।समस्त गुणों के धाम राम उसके राजा होंगे।सभी भाई उनकी सेवा
करेंगे।तीनों लोकों में राम जी की बड़ाई होगी।परंतु तेरा कलंक अमर हो जाएगा और मेरा
पछतावा (राम तिलक न कर पाने का) मरने पर भी मेरे अंदर बना रहेगा। " अब तुझे
जो अच्छा लगे वो कर "।एक तरह से राजा ने अपरोक्ष रूप से दूसरे वरदान की भी
स्वीकृति दे दी।तीनों नीतियों - साम,दाम,बिभेद के असफल हो जाने से,राजा ने चौथी दंड नीति का
प्रयोग भी कर दिया -"अब दूर हट जा, मुंह न दिखा! मैं हाथ जोड़कर कहता हूं, कि जब तक जिऔं
तब तक कुछ मत कहना!अरी अभागिनी !अंत में तुझे पछताना ही होगा! तूने ताँत( जड़
राज्य) के लिए गाय (पति) की हत्या कर दी। स्त्रैंण(मेहर गुलम्मा) व्यक्ति इस
प्रकार से दंड नीति का प्रयोग नहीं कर सकता। राजा अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर कि
मेरा अंत क्यों करती है,पृथ्वी पर गिर पड़े।कपट से भरी चतुर कैकेई चुपचाप बैठ गई,मानो मसान जगा
रही हो।मसान जगाने वाला यदि भूत प्रेत कि विनय पर बोल दे,तो विघ्न हो जाता है।कैकेई
अब रात भर चुपचाप बैठी रहेगी।प्रातः लक्ष्य सिद्ध करने के लिए सुमंत्र और राम जी
से ही बोलेगी:- दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर। लागेउ तोहि पिसाच
जिमि कालु कहावत मोर॥35॥ चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥ सो
सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥ सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब
गुन धाम राम प्रभुताई॥ करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥ तोर
कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥ अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट
बैठु मुहु गोई॥ जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥ फिरि
पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥ दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि
काहे करसि निदानु। कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36।।
- मानस आधारित श्री राम कथा
अयोध्या कांड -14 ,सुमंत्र और राम जी का कोप ग्रह में जाना:-राजा, रातभर व्याकुल
दशा में राम- राम रटते रहे और उनका मन समस्या समाधान की अनेक असंभव कल्पनायें करता
रहा।राजा प्रीति की ,और कैकेई निष्ठुरता की सीमा है। राजा के विलाप करते-करते
सवेरा हो गया।राज्य की सामान्य दिनचर्या के अनुसार, द्वार पर वीणा, बांसुरी,
शंख की ध्वनि
होने लगी।भाट विरुदावली पढ़ने लगे,गवैया गुणगान करने लगे।यह ध्वनियां राजा को बाण जैसी चोट
पहुंचाने लगीं। द्वार पर सेवक, मंत्री आदि की भीड़ इकट्ठा हो गई।सूर्योदय हो गया लेकिन
नित्य ब्रह्म मुहूर्त में दर्शन देने वाले राजा जी आज अभी तक क्यों नहीं आए,
इससे सभी
चिंतित हो गए ।सबने सुमंत्र जी को राज महल के अंदर जाने को कहा,क्योंकि इसके
लिए वे ही अधिकृत है।आज राज तिलक का दिन है, सभी राजाज्ञा की प्रतीक्षा
में है । राज महल श्री हीन हो गया था।इसमें अनेक भवन हैं,राजा कहां हैं,यह ढूंढने में
सुमंत्र जी को कठिनाई हुई ।अंततः वे कोप भवन तक पहुंच गए। राजा की दशा देख वे सूख
गए।जय जीव कह सिर झुकाकर बैठ गए।मंत्री डर के मारे कुछ पूछ नहीं रहे हैं।तब अशुभ
से भरी कैकेई बोली - राजा को रात में नींद नहीं पड़ी,राम-राम रटकर सवेरा कर दिया
है,कारण कुछ नहीं बताया।राम जी को शीघ्र बुला लाओ,तब समाचार पूछना? कुटिलता से भरी
रानी अपने लक्ष्य को पाने के लिए अभी भी सजग है और झूठ बोल रही है :- राम राम रट
बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥ हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै
जनि कोई॥ उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥ भूप प्रीति कैकइ
कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥ बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि
द्वारा॥ पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥ मंगल सकल
सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥ तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस
लालसा उछाहू॥ दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि। जागेउ अजहुँ न
अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥ पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥ जाहु
सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥ गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन
जात डेराहीं॥ धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥ पूछें कोउ न ऊतरु
देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥ कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥ सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी।
बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥ दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु। रामु रामु रटि भोरु
किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥ आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
टिप्पणी:-राजा जी की सहमति देख, सुमंत्र जी राम जी को बुलाने के लिए चल पड़े। कोपग्रह में
राजा-रानी की उपस्थिति और राजा की दुर्दशा देख सुमंत्र ताड़ गए कि रानी ने कुछ
कुचाल की है। भविष्य के बारे में चिंता से उनके पैर लड़खड़ाने लगे।संभलकर द्वार पर
पहुंचे,तो लोगों ने राजा के बारे में जानना चाहा।सुमंत जी ने सब का समाधान किया और
राम जी के पास पहुंच गए।रामजी उनसे मिले और उन्होंने पिता के समान उनका सम्मान
किया।सुमंत्र ने राजा की आज्ञा बताई और साथ लेकर राजा की ओर चल दिए।जनता राम जी को
मंत्री के साथ,राजकुमार की वेशभूषा में न देख कर,साधारण मनुष्य की तरह जाते
देखा,तो चिंतित हो उठी। रघुकुल मणि ने कोप भवन में जाकर देखा कि राजा अस्तव्यस्त
दशा में पृथ्वी पर पड़े हुए हैं।ऐसा लगता था जैसे सिंहनी को देख, बूड़ा गजराज
सहमकर गिर पड़ा हो:- चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥ सोच
बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥ उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं
सकल देखि मनु मारें॥ समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥ रामु
सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥ निरखि बदनु कहि भूप रजाई।
रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥ रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥ सहमि परेउ लखि सिंहिनिहि मनहुँ बृद्ध
गजराजु।।39।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,
अयोध्या कांड -15,श्री
रामजी-कैकेई संवाद:- रामजी ने कोपभवन में जाकर देखा- कि राजा भूमि पर अस्त-व्यस्त
पड़े हैं,उनके ओठ सूख रहे हैं,देह गर्म है।पास में रोष से भरी कैकेई ऐसे दिखाई पड़ रही है,मानो दशरथ जी
की मौत की प्रतीक्षा कर रही हो।कोमल, करुणामय राम जी ने ऐसा दुःखपूर्ण दृश्य,पहली बार देखा,वह भी पिताश्री
का।उन्होंने सोचा यह समय पिताजी की सहायता करने का है।अतः धैर्य धारण कर माता
कैकेई से मधुर वचनों में पूछा -" पिताजी के दुख का कारण मुझसे बताओ,जिससे उसका
निवारण करूं"! कैकेई बोली ! कारण तो राजा का तुम पर अत्यंत प्रेम होना
है।मुझे दो वरदान देने को कहा था,वे मैंने मांगे।उसी के सोच में ब्याकुल हो गए, क्योंकि
तुम्हारे संकोच के कारण,दिए वचनों की रक्षा नहीं नहीं कर पा रहे हैं।इस तरह पूछे गए
दोनों प्रश्नों का उत्तर,अपरोक्ष रूप से दे दिया गया कि- शोक का कारण भी तुम ही हो,और निवारण का
उपाय भी तुम्हारे हाथ में है। वह कह रही है - राजा, पुत्र-स्नेह और वचनबद्धता
के द्वन्द में फँस गए हैं।आज्ञा शिरोधार्य कर तुम उनके क्लेश को मिटा सकते हो।
कैकेई के कहे वचन (वनवास) इतने स्वार्थ पूर्ण और रामजी के लिए कठोर है,की कठोरता भी
व्याकुल उठी।किंतु निर्लज्ज कैकेयी बिना संकोच के सब कुछ कहे जा रही है । कुटिल,निष्ठुरता की
मूर्ति बनी कैकेई ने राजा के वरदान देने की पूरी कथा से लेकर, मांगे गए दोनों
वरदान के स्वरूप को स्पष्ट कर दिया, और कह दिया कि यदि आज्ञा शिरोधार्य करो,तो राजा का
क्लेश मिट सकता है।एक प्रकार से कैकेई ने अपरोक्ष रूप से,वनवास के आज्ञा की सूचना दे
दी :- सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥ सरुष समीप दीखि कैकेई।
मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥ करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥ मोहि कहु मातु तात दुख कारन।
करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥ सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥ देन
कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना। सो सुनि भयउ भूप उर सोचू।
छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥ दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु। सकहु न आयसु धरहु सिर
मेटहु कठिन कलेसु॥40॥ निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥ जीभ
कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥ जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ
धनुषबिद्या बर बीरू॥ सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
टिप्पणी:-आनंद स्वरूप श्री राम जी,मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं।वे कोमल, निर्मल,दूषण रहित वचन
बोले - माताजी ! वह पुत्र भाग्यवान है,जो पिता- माता की आज्ञा का आदर करता है और माता-
पिता को संतुष्ट रखता है।वनवास से मुझे मुनि गणों का सत्संग( मोक्ष), पिता की आज्ञा
पालन (धर्म), माता की संतुष्टि( काम सिद्धि),और प्रिय भरत को राज्य की प्राप्ति( अर्थ सिद्धि) यह चार
लाभ प्राप्त होंगे,अर्थात हमें पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि हो जाएगी। यदि ऐसे
लाभों के लिए मैं बन न गया तो समाज के लोग मुझे मूढ़ समझेंगे।माताजी! विचार कर
देखिए !जो लोग कल्पतरु के फल (निवृत्ति मार्ग काफल मोक्ष), छोड़कर ऐरेंड के विषाक्त फल
(प्रवृति मार्ग के फल भोग) का सेवन करते हैं,वे भी ऐसे अवसर का लाभ
उठाएंगे,चूकेंगे नहीं।एक प्रकार से रामजी ने वन गमन की स्वीकृति दे दी। वे बोले!हे
माता जी ! एक बात मेरी समझ के परे है,कि मेरे पिताजी जो गुणों के अथाह समुद्र हैं,वे मेरे बनगमन
जैसी छोटी बात से इतना कैसे दीन- हीन और अस्त- व्यस्त हो रहे हैं, जिसे देखकर
मुझे अत्यंत कष्ट हो रहा है।अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हुआ है,जिसे न कह सकने
के कारण वे इतना दुखी हो रहे हैं। तुम्हें !मेरी सौगंध है, सच-सच मेरा वह अपराध बता दो
! ये सब श्री राम जी के सरल हृदय से निकले स्वाभाविक वचन हैं।लेकिन कुटिल कैकेई को
उसमें भी चालाकी युक्त नीति दिखाई पड़ रही है:- मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज
आनंद निधानू॥ बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥ सुनु जननी सोइ
सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥ तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि
सकल संसारा॥ दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर। तेहि महँ पितु
आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥ भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख
आजु। जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥ सेवहिं अरँडु कलपतरु
त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥ तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु
मन माहीं॥ अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥ थोरिहिं बात पितहि
दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥ राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु
बड़ अपराधू॥ जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥ दो0-सहज सरल रघुबर
बचन कुमति कुटिल करि जान। चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42।।
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड -16, कोपभवन में दशरथ - राम मिलन :- रानी अपनी कुटिल
योजना के विषय में, राम जी का सकारात्मक विचार देखकर प्रसन्न हुई, और कपट पूर्ण
स्नेह दिखाती हुई बोली! तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध।राजा की इस दशा का अन्य कारण
मुझे नहीं मालूम है।फिर राम जी की प्रशंसा करते हुए कुटिल नीति युक्त वचन कहती है
-मैं बलिहारी जाती हूं ! तुम पिता को समझा कर यही बातें कहो ! जिससे बुढ़ापे में
उन्हें अपयश न लगे ।श्री राम ने माता के बचन सहर्ष स्वीकार कर लिए:- रहसी रानि राम
रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥ सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥ राम सत्य सबु जो कछु कहहू।
तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥ पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न
होई॥ तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥ लागहिं कुमुख
बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥ रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल
सुहाए॥ टिप्पणी:-दशरथ जी की चेतना जागी,राम नाम लेकर करवट बदली।सुमंत्र जी ने विनीत
शब्दों में, राम जी के आने की सूचना दी।राजा जी ने आंख खोली,तो सचिव ने सहारा देकर
उन्हें उठाकर बैठाया।दशरथ जी ने देखा कि राम उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम कर
रहे हैं।उन्होंने राम को हृदय से लगाया।वे एकटक राम जी को देखे जा रहे हैं,और आंखों से
प्रेमाश्रु गिर रहे हैं वे बार-बार राम जी को हृदय से लगाते हैं,किंतु बोल नहीं
पा रहे।उनका मन अनेक प्रकार की कल्पनाएं- राम को बनवास से रोकने के लिए किए जा रहा
है।राम जी पिताजी की आंतरिक दशा समझ गए।ऐसी दशा में माता जी के कटु बचनों की
संभावना भी हो गई।अतः बिना राजा जी की आज्ञा लिए ही बोले! पिताजी क्षमा करिएगा !
लड़कपन के कारण,आपको कुछ सलाह देकर अनुचित कार्य कर रहा हूं ! मैंने आपको
अस्वस्थ देखकर माताजी से कारण पूछा,तो उन्होंने दोनों वरदानों का पूरा ब्योवरा बता दिया
है।"भरत का राजतिलक" और "मेरा बनवास" दोनों मेरे लिए मंगलकारी
और हर्ष का विषय है।छोटी सी बात के लिए आप इतना दुखी न हों! हर्षित होकर राज आज्ञा
दें ! यह कहकर रामजी आंतरिक प्रसन्नता से आल्हादित हो उठे:- दो0-गइ मुरुछा
रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह। सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥ अवनिप अकनि
रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥ सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप
रामु निहारे॥ लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥ रामहि चितइ रहेउ
नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥ सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं
बारा॥ बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥ सुमिरि महेसहि कहइ
निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥ आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु
जानी॥ दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु। बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि
सीलु सनेहु॥44॥ अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥ सब दुख दुसह सहावहु मोही।
लोचन ओट रामु जनि होंही॥ अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥ देस काल अवसर अनुसारी।
बोले बचन बिनीत बिचारी॥ तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥ अति
लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥ देखि गोसाइँहि पूँछिउँ
माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥ दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात। आयसु देइअ
हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45।।
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-17, राम वनवास के समाचार से अयोध्या वासियों का
विरह- विषाद-१:- राम जी ने, दशरथ जी को दोनों वरदान के सहर्ष स्वीकार कर लेने को कह
दिया,और स्पष्ट करते हुए कहा - कि माता-पिता की आज्ञा पालन से पुत्र के चारों
पुरुषार्थ - धर्म,अर्थ ,काम तथा मोक्ष सिद्ध हो जाते हैं .अतः आप निश्चिंत होकर
कैकेई जी को वरदान दें ।मैं माता कौशल्या जी से विदा लेकर,आपका आशीर्वाद पाकर,
वन चला जाऊंगा।
पुत्र स्नेह से शोकाकुल राजा कोई उत्तर न दे सके। सुमंत्र के साथ राम जी के द्वार
पर आते ही, वनवास का समाचार तेजी से नगर में फैल गया। स्त्री-पुरुष सब अत्यंत व्याकुल हो
गए।सबके मुंह सूख रहे हैं,आंखों से अश्रु-पात हो रहा है,शोक हृदय में नहीं समाता।
ऐसा लगता है- की करुणा रस की सेना ने डंके की चोट पर,अयोध्या पर कब्जा कर लिया
है। पुरजन कैकेयी और स्त्री जाति को गालियां देकर अपना क्रोध निकाल रहे हैं। उसे
ग्रंथ में ही पढ़ना ठीक रहेगा। लोग वरदान देने की औचित्य पर भी भिन्न-भिन्न मत
प्रकट कर रहे हैं।कुछ लोग इस षड्यंत्र में भरत जी के हाथ होने की भी संभावना की
बात कहते हैं,तो दूसरे इसकी घोर विरोधी हैं।वे स्पष्ट कहते हैं- कि चंद्रमा अग्नि उगल सकता
है,अमृत बिष जैसा मारक प्रभाव वाला हो सकता है,किंतु भरत जी राम जी के
प्रतिकूल कुछ नहीं करेंगे। उनको राम जी प्राण प्रिय हैं :- धन्य जनमु जगतीतल तासू।
पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥ चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम
जाकें॥ आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥ बिदा मातु सन आवउँ मागी।
चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥ अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न
दीन्हा॥ नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥ सुनि भए बिकल सकल नर
नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥ जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं
धीरजु होई॥ दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ। मनहुँ ०करुन
रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥ मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥ निज कर नयन काढ़ि चह दीखा।
डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥ कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥ सदा रामु एहि प्रान
समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥ सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध
दुराऊ॥ निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥ दो0-काह न पावकु
जारि सक का न समुद्र समाइ। का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥ का सुनाइ
बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥ एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि
नहिं कुमतिहि दीन्हा॥ जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥ एक
धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥ सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक
सन कहहिं बखानी॥ एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥ कान मूदि कर रद
गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥ सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ
प्रानपिआरे॥ दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल। सपनेहुँ कबहुँ न
करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥
- 1️⃣4️⃣3️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड -18 ,राम -बनवास के समाचार से अयोध्यावासियों का
विरह- विषाद-२:- पुरवासी अपने-अपने सोच के अनुसार, वनवास पर चर्चा कर रहे
हैं।भाग्यवादी कहते हैं ,सब विधि का करा कराया है,जिसने अमृत (राम तिलक)
दिखाकर उसके स्थान पर विष (राम वनवास) दे दिया है। ब्राह्मणी और कुल की मान्य
बृद्धायें, बिगड़ी बात संभालने के लिए, कैकेयी के सील की सराहना करके,उसे समझाने का प्रयास करती
हैं।प्रायः वही बातें दोहरातीं हैं,जो दशरथ जी पहले कह चुके हैं। अनर्थ की ओर भी कैकई का ध्यान
खींचती हैं - न सीता,लक्ष्मण यहां रहेंगे, न भरत राज्य स्वीकार करेंगे
और ना राजा जिएंगे।मात्र,तुम कलंक की कोठी बनकर रह जाओगी। भरत को युवराज पद देना
चाहती हो,वह दे दो! लेकिन दूसरा वरदान,राजा से ऐसा लो,कि राम जी घर छोड़कर गुरु के घर रहें! राम सरीखा
पुत्र क्या बन के रहने योग्य है?तुरंत यह उपाय करो!जिससे नगरभर का शोक और तुम्हारा कलंक मिट
जाए! राम को हठकर के रखो!इस समय दूसरी कोई बात न चलाओ!जैसे दिन के स्वामी सूर्य,तनके स्वामी
प्राण और रात्रि के स्वामी चंद्र है, वैसे ही अवध के स्वामी राम हैं, उनके बिना अवध
मृतक समान है। सखियों ने सुंदर सीख दी, जो अत्यंत हितकर है ,किंतु कैकेई ने जरा भी
ध्यान नहीं दिया।वह मारे क्रोध के बेमुरव्वत हो रही है। सखियों को ऐसे देख रही
है-मानो भूखी बाघिन हिरनियों को देख रही हो।ऐसे में उन्होंने रोग को असाध्य माना,और वे कैकेई को
मंदबुद्धि,अभागिनी कहती हुई चली गईं। नगर के स्त्री-पुरुष बिलाप कर रहे हैं ,और कुचालिनी
कैकेई को करोड़ों गालियां दे रहे हैं। पुरवासी विषम ज्वर से जल रहे हैं,उल्टी सांसे
जोर से ले रहे हैं,कहते हैं- राम बिना जीने का क्या प्रयोजन है?भारी बियोग
समझकर प्रजा वैसे ही व्याकुल हो रही है,जैसे जलचर समूह जल को सूखता देख,छटपटाता है।
राम जी को ,राजतिलक की बेड़ी पड़ते देख,कुछ विषाद हुआ था,वह कैकेई की आज्ञा और राजा की उसकी मौन सम्मति
देख,मिट गया।वे प्रसन्न चित्त माता कौशल्या के पास गए। श्री रामजी का मन नए पकड़े
हाथी के समान है, और राजतिलक अलान( हाथी के पैर में डालने वाली लोहे की
कांटेदार बेंडी)के समान था।अब वनगमन के समाचार से उनका मन उस हाथी के समान है,जो उस बेंड़ी से
मुक्त होकर जंगल भाग रहा हो:- एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु
जेहीं॥ खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥ बिप्रबधू कुलमान्य
जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥ लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥ करहु राम पर सहज सनेहू।
केहिं अपराध आजु बनु देहू॥ कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु
देसू॥ कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥ दो0-सीय कि पिय
सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम। राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु
राम॥49॥ अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥ भरतहि अवसि देहु
जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥ नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥ जौं नहिं लगिहहु कहें
हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥ जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट
जनावहु सोई॥ राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥ उठहु बेगि
सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥ छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ
उपाय करि कुल पालही। हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥ जिमि भानु बिनु
दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी। तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि
धौं जियँ भामिनी॥ सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित। तेइँ कछु कान न
कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50 उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥ राजु करत यह दैअँ बिगोई।
कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥ एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक
गारीं॥ जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा॥ बिपुल बियोग प्रजा
अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥ अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु
गोसाई॥ मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥ दो-नव गयंदु रघुबीर
मनु राजु अलान समान। छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥
- 1️⃣4️⃣4️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड -19, वन गमन के पहले श्री राम- कौशल्या संवाद-१:-
रामजी ने कौशल्या मां के पास पहुंचकर,हाथ जोड़ माता के चरणों में सिर नवाया।माता ने
हृदय से लगाकर आशीर्वाद दिया, और भूषण तथा कपड़े न्यौछावर किया।कौशल्या जी के प्रेम
-प्रमोद का वर्णन कठिन है - नेत्रों में प्रेम जल भरा है,शरीर पुलकित है,गोद में बैठाकर
हृदय से लगा लिया है,और प्रेम के अतिरेक में उनके स्तनों से दूध टपक रहा है। ऐसा
लगता है मानो किसी दरिद्र को कुबेर की पदवी मिल गई हो। वे बोली,हे तात ! माता
बलिहारी जाती है, वह लगन कब है,जो सबके लिए आनंदमय और मंगलकारी है।तुम जल्दी से
नहाओ और जो अच्छा लगे वह कुछ फलाहार कर लो! तब पिताजी के पास जाना,उत्सव में देर
हो जाएगी। माता के अत्यंत कृपायुक्त बचन,जो स्नेह रूपी कल्पवृक्ष के फूल जैसे थे,सुनकर
धर्मात्मा राम धर्म पथ से विचलित नहीं हुए।वे कोमल बाणी में बोले!माताजी, पिता ने मुझे
बन का राज्य दे दिया है,वहां मेरे कुछ कर्तव्य शेष हैं।आप प्रसन्न मन से आज्ञा
दीजिए,जिससे सब आनंद-मंगल रहे।14 वर्ष वन में रहकर ,पिता की आज्ञा पूरी कर, फिर लौटकर आपके चरणों का
दर्शन करूंगा।आप डरो नहीं!और अपने मन को किसी प्रकार से दुखी न करो!:- रघुकुलतिलक
जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥ दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन
निछावरि कीन्हे॥ बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥ गोद राखि पुनि
हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए॥ प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद
पदबी जनु पाई॥ सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥ कहहु तात जननी
बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥ सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि
अघाई॥ दो0- जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति। जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद
रितु स्वाति॥52॥ तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥ पितु
समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥ मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह
सुरतरु के फूला॥ सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला॥ धरम धुरीन
धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥ पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब
भाँति मोर बड़ काजू॥ आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥ जनि सनेह
बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥ दो0-बरष चारिदस बिपिन बसि करि
पितु बचन प्रमान। आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥53॥ टिप्पणी:- रघुवर के नम्र
और मीठे वचन,माता के हृदय में बाण जैसे लगे और पीड़ा देने लगे।वे व्याकुल हो उठीं, जैसे सिंह के
गरजने से हिरणी हो जाती है।उनके नेत्रों में जल भर आया,और वे थरथर कांपने लगीं।
धीरज धरकर, पुत्र के मुख को देखती हुईं, लड़खड़ाती वाणी में बोली, हे तात !तुम तो पिता के
प्राण प्रिय हो! राज्य देने को कहा था ,अब किस अपराध के लिए बन जाने को कहां है?
मुझे इसका कारण
बताओ ?सूर्यवंश के लिए कौन अग्नि हुआ ? मर्यादा पुरुषोत्तम राम ,माता कैकेई कि कुचाल- कथा
कैसे कहते?अतः मंत्री के पुत्र 'अभिनंदन' जो साथ में था,उसको उत्तर देने के लिए इशारा कर
दिया।मंत्रीपुत्र ने सॉरी घटना विस्तार से सुना दी। पूरा वृत्तांत सुनकर,कौशल्या जी
स्तब्ध रह गई! उसका वर्णन कठिन है:- बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर
करके॥ सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥ कहि न जाइ कछु हृदय
बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥ नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु
मापी॥ धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी॥ तात पितहि तुम्ह
प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥ राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥ तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल
भयउ कृसानू॥ दो0-निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ। सुनि प्रसंगु रहि
मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥
- 1️⃣4️⃣5️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-20, बनगमन के पहले,श्री राम- कौशल्या संवाद-2:-
बनवास संबंधी
पूरा ब्यौरा सुनते ही,कौशल्या जी स्तब्ध रह गईं,और उनके अंदर अंतर्द्वंद का
तूफान खड़ा हो गया-घर में रखने से धर्म की हानि है,और बन जाने की आज्ञा में
स्नेह की हानि हो रही है। धर्म और प्रेम दोनों ने कौशल्या जी की बुद्धि को घेर
लिया।उनकी दशा सांप-छछूंदर के समान हो गई। सांप के धोखे से छछूंदर को पकड़ने पर
यदि उसे निगल जाए तो मर जाता है,यदि उगल देता है तो अंधा हो जाता है । अंततः बुद्धिमती
कौशल्या जी ने पत्नी धर्म की रक्षा करते,हुए राम व भरत को समान मानते हुए बोलीं ! मैं
बलिहारी जाती हूं(अपने को न्योछावर करती हूं) ! तुमने अच्छा किया! पिता की आज्ञा
पालन सब धर्मों में श्रेष्ठ है । राज्य देने को कह, राजा ने बन दे दिया इसका
मुझे दुख नहीं है।पर तुम्हारे बिना भरत को,राजा को,और प्रजा को बड़ा कष्ट होगा।इसका मुझे अत्यंत
दुख है:- राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥ लिखत सुधाकर गा
लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥ धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप
छुछुंदरि केरी॥ राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥ कहउँ जान बन
तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी॥ बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ
सुत सम जानी॥ सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥ तात जाउँ बलि कीन्हेहु
नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥ दो0-राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु। तुम्ह बिनु
भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥55॥ टिप्पणी:- यदि केवल पिता की आज्ञा होती,तो एक बार मैं
बन जाने से रोक सकती थीं( हिंदुओं में माता को पिता की अपेक्षा 10 गुना गौरव
प्राप्त है)। किंतु यहां तो माता-पिता दोनों की आज्ञा है, अस्तु तुम जाओ ! वन के देवी
देवता माता-पिता बन कर,तुम्हारी रक्षा करें! इस समय तो तुम्हारे राजतिलक त्यागने
से हम ही,नहीं सारा अवध ही अभागा हो रहा है और बन बड़ा भाग्यवान है। तुम सबके प्राण
प्यारे हो,जीव के जीवन हो,मेरा तो दुर्भाग्य है,की तुम मुझसे कह रहे हो की
माता मैं बन जा रहा हूं,और मैं बैठी पछता रही हूं।मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूं,मेरी सुध ना
भुला देना! हे गोसाईं !देवता !पितर! सब तुम्हारी रक्षा करें! तुम्हें नयन मानकर,पलकों की तरह
सुरक्षित रखें! आप दृढ़ निश्चय करो,कि 14 वर्ष बाद लौटकर हम सबको जीते जी आकर मिलोगे ! मैं बलिहारी जाती
हूं! तुम सेवकों, परिवार,और नगरभर को अनाथ करके,सुख पूर्वक बन को जाओ!हम
सबका पुण्य क्षीण हो चुका है।अनेक भावों से दुखी माता, बिलाप के अतिरेक में श्री
राम के चरणों से लिपट गईं। असह भयंकर दाह उनके हृदय में व्याप्त हो गया।श्री राम
जी ने माता को उठाकर,हृदय से लगाकर, कोमल वचनों से पुनः समझाया है। सारे समाचार
सुनकर सीताजी घबड़ा उठीं, और सास के पास आकर,उनके दोनों चरण कमलों को प्रणाम कर,सिर नीचा करके
बैठ गयीं:- जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥ जौं पितु मातु
कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना॥ पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह
सेवी॥ अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥ बड़भागी बनु अवध
अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥ जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ
संदेहू॥ पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥ ते तुम्ह कहहु
मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ दो0-यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ
सनेहु बढ़ाइ। मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥ देव पितर सब तुन्हहि
गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई॥ अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम
धुरीना॥ अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई॥ जाहु सुखेन बनहि
बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥ सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु
बिपरीता॥ बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥ दारुन दुसह दाहु उर
ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥ राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि
समुझाई॥ दो0-समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ। जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु
नाइ॥57॥
- 1️⃣4️⃣6️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-21,वन गमन के पहले श्री राम- कौशल्या- सीता संवाद-3:-
श्री सीता जी,
अभिवादन करके
बैठ गईं, तब कौशल्या जी ने आशीर्वाद दिया और उसकी दशा पर विचार कर व्याकुल हो उठीं।
सुकुमारी सीता जी मुंह झुकाकर विचारमग्न बैठी हैं।चरणों के नाखूनों से धरती कुदेर
रही हैं।वनवास में साथ चलने न चलने की चिंता से व्याकुल हैं।आंखों से जल बह रहा
है। सहृदय कौशल्या जी ,सीता जी की यह दशा देखकर,अपना दुख भूल गईं, और उसके वन गमन
के लिए चिंतित हो उठीं। वे रामजी से कहती हैं-हे तात ! सीता अत्यंत सुकुमारी हैं,सास,ससुर और कुटुंब
जनों को अति प्रिय है।वे सीता के ऐश्वर्य, वैभव पूर्ण जीवन,अति- सुकुमारता और
प्रेमपूर्ण लालन-पालन का वर्णन करती है,जिसे ग्रंथ में देखना चाहिए।वे कहती है, कि ऐसी सीता
तुम्हारे साथ बन को चलना चाहती हैं,तुम्हारा क्या विचार है?:- दीन्ह असीस सासु मृदु बानी।
अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥ बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥
चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू॥ की तनु प्रान कि केवल प्राना।
बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥ चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥ मनहुँ
प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥ मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली
देखि राम महतारी॥ तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी॥ दो0-पिता जनक भूपाल
मनि ससुर भानुकुल भानु। पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥ मैं पुनि
पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥ नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ
प्रान जानिकिहिं लाई॥ कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥ फूलत
फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥ पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न
दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥ जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥ सोइ
सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा। टिप्पणी:-दूसरी ओर कौशल्या जी बन के
कठोर तपोमय जीवन की झांकी भी प्रस्तुत करती हैं- हाथी ,सिंह ,निशाचर तथा
खूंखार जीव-जंतु बन में विचारते रहते हैं। वहां का कठोर जीवन तो तपस्विनी तथा
कोल-किरात की स्त्रियां ही जी सकती हैं ।सीता जी तो चित्र में भी बंदर को देख कर
डर जाती हैं।हंस कुमारी क्या पानी भरे गड्ढे में जीवित रह सकेगी ? यह सब विचार कर
जैसा तुम कहो !उसी दिशा में हम सीता जी को शिक्षा दे दें! साथ में यह भी जोड़ देती
हैं,कि यदि वह घर में रुक जाँय, तो हमारे लिए बड़ा सहारा हो जाएगा। अमृत से सनी माता जी की
वाणी सुनकर,रामजी ने विवेक भरे वचन कहकर,माता को संतुष्ट किया। फिर बन-जीवन की कठिनाइयाँ प्रकट कर
जानकी जी को समझाने लगे:- चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥ दो0-करि केहरि
निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि। बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥ बन हित कोल
किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥ पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि
कलेसु न कानन काऊ॥ कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥ सिय बन बसिहि
तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥ सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु
कि हंसकुमारी॥ अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥ जौं सिय भवन रहै
कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥ सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ
जनु सानी॥ दो0-कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष। लगे प्रबोधन
जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥
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मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-22, वन गमन के पहले श्री राम- कौशल्या -सीता संवाद-4
मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम माताजी के सामने कभी सीता जी से बोले नहीं हैं। "आपत्ति
काले मर्यादा नास्ति" अस्तु संकोच सहित बोले,राजकुमारी ! यदि अपना और
मेरा भला चाहती हो,तो हमारा वचन मानकर घर में रहो! आदर सहित सास-ससुर के चरणों
की पूजा से बढ़कर,दूसरा धर्म नहीं है।मैं शपथ पूर्वक कहता हूं कि मैं तुम्हें
माता के सेवा के लिए घर पर रहने को कह रहा हूं।गुरु और वेद सम्मत धर्म मानने से
सहज ही कल्याण हो जाता है ।हठवश मनमानी करने से गालव मुनि और राजा नहुष को बड़े
संकठ उठाने पड़े हैं:- मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥
राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥ आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु
हमार मानि गृह रहहू॥ आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥ एहि ते अधिक
धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥ जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम
बिकल मति भोरी॥ तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥ कहउँ
सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥ दो0-गुर श्रुति संमत धरम फलु
पाइअ बिनहिं कलेस। हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥ टिप्पणी :-श्री राम जी कह
रहे हैं - वन का जीवन अत्यंत कठिन है।भूमि कुस, कांटे युक्त कंकरीली होती
है,जल के स्रोत नदी ,नद, नाले अगाध- अथाह होते हैं।आकाश भी दुर्गम पहाड़ों से घिरा
होता है,जिनमें हिंसक पशुओं को रहने वाली खोह, कंदराएं होती हैं ।रीछ ,बाघ, भेड़िए,सिंह तथा हाथी
ऐसी गर्जना करते हैं,की धैर्य छूट जाता है।पृथ्वी पर सोना होता है।वल्कल वस्त्र
और कंद, फल,मूल का आहार होता है,और उन सब का मिलना भी अनिश्चित रहता है:- मैं पुनि करि
प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥ दिवस जात नहिं लागिहि बारा।
सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥ जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब
परिनामा॥ काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥ कुस कंटक मग काँकर
नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥ चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर
भारे॥ कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥ भालु बाघ बृक केहरि नागा।
करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥ दो0-भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल। ते कि सदा सब दिन
मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल॥62।। टिप्पणी:-श्री राम जी कह रहे हैं- कि बनमें मनुष्यों को
खाने वाले निशाचर रहते हैं,वे कपट वेश धारण करने में कुशल होते हैं।वहां नर-नारियों को
चुराने वाले भयंकर राक्षस झुंड के झुंड रहते हैं। वन जीवन का स्मरण आते ही,धैर्यवान पुरुष
भी डर जाते हैं, फिर तुम तो स्वभाव से भीरु हो।राज महल में सुख पूर्वक रहने
वाली और पाँवड़ों पर चलने वाली तुमको हम बन साथ लेकर गए,तो लोग मुझे अपयश देंगे।हे
हंसगामिनी! मानसरोवर के अमृत जल में पली,मोती चुगने वाली,कमल पर चलने वाली हंसिनी,समुद्र के खारे
पानी में नहीं जी सकती।हे चंद्रमुखी ! ऐसा विचार कर घर पर ही रहो ! जो लोग सुहृद,
गुरु और स्वामी
की हितकारी शिक्षा को नहीं मानते,उन्हें बाद में पछताना पड़ता है:- नर अहार रजनीचर चरहीं।
कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥ लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥
ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥ डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ।
मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥ हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि
लोगू॥ मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥ नव रसाल बन बिहरनसीला।
सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥ रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥ दो0-सहज सुह्द गुर
स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि॥ सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥
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मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड -23,वनगमन के पहले, श्री राम- कौशल्या - सीता
संवाद -5:- श्री राम जी के कोमल और मनोहर उपदेश में सीता जी को वन गमन में साथ न ले चलने
की ध्वनि थी।उसका प्रभाव श्री सीताजी पर वैसा ही दाहक पड़ा,जैसा शरद ऋतु की शीतल
चांदनी रात का चकवी पर पड़ता है।सीता जी आंखों में जल भर आया। वे सास जी के पैर
छूकर,उनके सामने पति से बोलने की ढिठाई के लिए क्षमा मांगते हुए ,बोलीं!
प्राणपति ने वनवास के कष्टों को उजागर कर,मेरे कल्याण की शिक्षा दी है,वह ठीक
है।लेकिन मेरे लिए पति के वियोग के समान कोई दुख नहीं है। हे रघुकुल रूपी
कुमुदिनीबन को प्रफुल्लित करने वाले चंद्रमा ! आपके बिना मेरे लिए स्वर्ग भी नरक
के समान है । माता-पिता,भाई ,बहन, पुत्र तथा गुरुजन आदि सभी नाते-रिश्ते जो सामान्यतः सुखदाई
होते हैं, वे सब पति के बिना सूर्य से भी अधिक ताप देने वाले हो जाते हैं। धन-धाम तथा
राज्य सुख आदि सब पति के बिना,शोक-समाज की तरह हो जाते हैं। भोग,रोग लगने लगते हैं तथा
सांसारिक सुख यम यातना जैसे हो जाते हैं।हे प्राणनाथ ! जैसे बिना जीव के देह तथा
बिना जलके नदी हो जाती है,वैसे ही बिना पुरुष के स्त्री हो जाती है।आपके साथ रहने पर,आपका चंद्रमा
के समान विमल मुख देखने से,मुझे सब सुख प्राप्त होते रहेंगे:- सुनि मृदु बचन मनोहर पिय
के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥ सीतल सिख दाहक भइ कैंसें। चकइहि सरद चंद निसि
जैंसें॥ उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥ बरबस रोकि बिलोचन
बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥ लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय
मोरी॥ दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥ मैं पुनि समुझि
दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥ दो0- प्राननाथ करुनायतन सुंदर
सुखद सुजान। तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥ मातु पिता
भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई॥ सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर
सुसील सुखदाई॥ जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥ तनु धनु
धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥ भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस
संसारू॥ प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥ जिय बिनु
देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥ नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद
बिमल बिधु बदनु निहारें॥ टिप्पणी:-श्री राम जी ने वन के - जल ,थल,नभ में मिलने
वाले अनेक कष्ट गिनाए थे।श्री सीता जी सबका स्मरण करते हुए कहती हैं,हे कृपानिधान!
उनसे प्राप्त कष्ट, भय तथा विषाद मिलाकर भी आपके वियोग दुख के लवलेश समान भी
नहीं ठहरते।इसके विपरीत बन में आपके साथ रहते, क्षण-क्षण ,पल-पल पर आपके
चरण कमलों को देखकर,मैं ऐसी प्रसन्न रहूंगी,जैसे दिनमें चकवी हर्षित
रहती है। हे करुणामय! अंतर्यामी!!सुजान शिरोमणि!!!मैं बहुत विनती क्या करूं,मुझे संघ लीजिए,छोड़िए नहीं!
हे दीनबंधु ! यदि आपने 14 वर्ष तक मुझे अयोध्या में छोड़ दिया,तो निश्चय जानिए की प्राण
शरीर छोड़ देंगे:- दो0-खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल। नाथ साथ सुरसदन सम
परनसाल सुख मूल॥65॥ बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥ कुस
किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥ कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत
सरिस पहारू॥ छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥ बन दुख
नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥ प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं
न कृपानिधाना॥ अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥ बिनती बहुत
करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥ दो0-राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान।66।
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मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड -24,श्री सीता जी को बन साथ चलने की अनुमति और
कौशल्या जी से श्री राम- सीता का विदा होना:-श्री राम जी ने बन की अनेक ऐसी
कठिनाइयां बतायीं हैं, जिनका सहन करना सीता जी के लिए असंभव है ।सीता जी एक-एक को
गिना-गिना कर,उनके प्रतिकार का उपाय बता रही हैं।सारे कष्टों के समाधान के उपाय रूप में-
"प्रभु के चरणों और मुख चंद्र का दर्शन करते हुए सर्वभाव से उनकी सेवा मैं रत
रहना बताया !ऐसे में अपने दुख की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं रहता !" आप कह
रहे हैं कि -" मैं सुकुमारी हूं, और नाथ बन के योग्य हैं !आपको तपस्या उचित है,और मुझको विषय
भोग !"ऐसे कठोर वचन सुनकर मेरा हृदय फट जाना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं, इससे ऐसा
प्रतीत होता है, कि मेरे पामर प्राण बियोग का दुख सहेंगे।बियोग की इस कल्पना
मात्र से,सीता जी अत्यंत व्याकुल हो गई, बोलना बंद हो गया। उनकी दशा देखकर,रघुनाथ जी समझ गए कि हठ
करके ,यदि हमने अयोध्या में इन्हें छोड़ दिया, तो यह प्राण त्याग देंगी।
कृपाल,सूर्यकुल के स्वामी श्रीराम जी ने कहा- कि अब सोच छोड़कर मेरे साथ चलो ! तुरंत
वन गमन की तैयारी करो!:- मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥ पाय पखारी बैठि तरु
छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥ श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ
प्रानपति पेखें॥ सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि दासी॥ बारबार मृदु
मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही। को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि
जिमि ससक सिआरा॥ मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥ दो0-ऐसेउ बचन कठोर
सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान। तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥67॥ अस कहि सीय
बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥ देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें
नहिं राखिहि प्राना॥ कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥ नहिं
बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥ टिप्पणी:-श्री राम जी ने इसके बाद,माता जी के पैर
स्पर्श कर,आशीर्वाद लिया।माता बोलीं- बेटा! जल्दी लौटकर प्रजा का दुख मिटाना!परिस्थिति
वश हमें निष्ठुर होना पड़ रहा है, इस कारण हमें भूल ना जाना!क्या मेरे अच्छे दिन लौटेंगे?इस मनोहर जोड़ी
को पुनः देख पाऊंगी?हे पुत्र!वह शुभ घड़ी कब आएगी,जब तुम्हारा मुख चंद्र
देखकर और तुम्हें वत्स!लाल!!रघुपति!!!रघुवर!!!! पुकार कर हृदय से लगाऊंगी! इतना
कहते-कहते माता अधीर हो गई,और मुंह से वचन निकलना बंद हो गया। श्री राम जी ने उन्हें
अनेक प्रकार से समझाया।उस दशा और स्नेह का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता ।
अवसर देख जानकी जी ने सास के पाँव स्पर्श किए और बोलीं- हे माता! मैं बड़ी अभागिनी
हूं, आपकी सेवा करने के समय,दैव ने वनवास दे दिया,कर्मों की गति कठिन है,मैं विवश
हूं।आप क्षोभ त्याग दें,परंतु कृपा पूर्ण स्नेह न छोड़ दीजिएगा । सीता जी के वचन
सुनकर कौशल्या जी अत्यंत व्याकुल हो गई।अवसर अनुसार धीरज रख कर आशीष दिया -
"जब तक गंगा जी और यमुना जी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग आंचल
रहे"!जाते-जाते उन्होंने अनेक प्रकार की शिक्षाएं दी, आशीर्वाद दिया ,और सीता जी ने
बार-बार प्रेम और आदर के साथ उनके चरण कमलों में सिर नवाकर चल दीं :– कहि प्रिय
बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥ बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर
बिसरि जनि जाई॥ फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी॥ सुदिन
सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥ दो0-बहुरि बच्छ कहि लालु कहि
रघुपति रघुबर तात। कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥ लखि सनेह
कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥ राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न
जाइ बखाना॥ तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥ सेवा समय दैअँ बनु
दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥ तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न
मोहू॥ सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥ बारहि बार लाइ उर
लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥ अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥ दो0-सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार। चली नाइ पद पदुम
सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
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मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्या कांड-25, वन गमन के पहले श्री राम लक्ष्मण संवाद:-लक्ष्मण
जी को समाचार मिला, कि राम-सीता जी बन जाने के लिए,कौशल्या जी से अनुमति लेकर,उनके महल से
बाहर आ गए हैं। वे तुरंत उनके पास आकर, प्रेम से व्याकुल हो, उनके पैर पकड़ लिए।आठ
सात्विक भावों में से, सात का उनमें प्राकट्य हो गया - उदास मुख है, काँप रहे हैं,रोएं खड़े हैं,नेत्रों में
अश्रु हैं,स्तंभित हैं, बोल नहीं पा रहे हैं,केवल भगवान की ओर देख रहे
हैं, कि मेरे लिए वह क्या आज्ञा देते हैं। श्री राम जी ने देखा- कि भाई शरीर,घर तथा सभी
नातों से मुंह मोड़कर मेरे सामने हाथ जोड़कर मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा
है।उन्होंने अयोध्या तथा वहां की प्रजा की वर्तमान परिस्थिति का वर्णन करते हुए,नीति,शील, स्नेह,सरलता और
स्वधर्म में युक्त कराने वाला उपदेश दिया,और कहा कि जो लोग माता,पिता,गुरु तथा स्वामी की शिक्षा
शिरोधार्य करते हैं,उनका जीवन सहज ही सफल हो जाता है।इस समय मेरी यही शिक्षा
है- की माता-पिता की सेवा करो! जिस राज्य की प्रजा दुखी रहती है,वहां का
शासनाध्यक्ष निस्संदेह नरक का अधिकारी होता है।अयोध्या की सुव्यवस्था के लिए इस
समय तुम्हारा यहां रहना आवश्यक है :- समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि
धाए॥ कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥ कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े।
मीनु दीन जनु जल तें काढ़े॥ सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान
हमारा॥ मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥ राम बिलोकि बंधु कर
जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें॥ बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥ दो0-मातु पिता गुरु स्वामि सिख
सिर धरि करहि सुभायँ। लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥ अस जियँ जानि
सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥ भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम
दुखु मन माहीं॥ मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥ गुरु पितु
मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥ रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु
तात होइहि बड़ दोषू॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥
टिप्पणी:-भागवत धर्म के परम अधिकारी लक्ष्मण जी,श्री राम जी का नीति युक्त
उपदेश सुनकर, वैसे ही कुम्हिलाकर व्याकुल हो उठे,जैसे पाला पड़ने से कमल कुम्हिला जाता है
।लक्ष्मण जी ने घबड़ाकर राम जी के चरण पकड़ लिए,और बोले हे स्वामी! आप
त्याग दें,तो मेरा क्या वश है! मैं आपकी शरणागति छोड़कर दूसरा धर्म नहीं जानता।धर्म ,नीति के वे
श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी होते हैं,जिन्हें कीर्ति ,ऐश्वर्य तथा सद्गति प्यारी होती है।मैं तो केवल
आपके चरणों से प्रेम करता हूं।मेरे माता- पिता-गुरु सब आप ही हैं । श्री राम जी ने
भाई के कोमल, विनीत वचन सुनकर ,और उसे डरा हुआ देखकर,उसे हृदय से लगाया और
समझाया कि हमने तुम्हें त्यागा नहीं है, माता-पिता की सेवा के लिए यहां रखना चाहते
थे।अच्छा ,अब चलो ! मैं यहीं खड़ा हूं, तुम शीघ्र ही माताजी से विदा मांग कर आओ !ऐसी वाणी सुनकर
लक्ष्मण जी आनंदित हो उठे:- रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी॥
सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥ दो0-उतरु न आवत प्रेम बस गहे
चरन अकुलाइ। नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥ दीन्हि मोहि सिख नीकि
गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥ नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥ गुर पितु मातु न
जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥ जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम
निजु गाई॥ मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥ धरम नीति उपदेसिअ
ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥ मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि
सोई॥ दो0-करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत। समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ
सभीत॥72।। मागहु विदा मातु सन जाई।आवहु बेगि चलो बन भाई ।।मुदित भए सुनि रघुवर
बानी।भयउ लाभ बड़ गई बड़ि हानी।।
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मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-26,श्री सुमित्रा माता की, लक्ष्मण जी को प्रपन्न
भक्ति की शिक्षा और उन्हें बन जाने की आज्ञा:-राम जी की सुमित्रा जी से विदा लेने
की आज्ञा पाकर ,लक्ष्मण जी तुरंत माता जी के पास जाकर माता जी के चरणों में
माथा टेका,लेकिन उनका मन श्री राम-सीता जी के पास ही रहा।माता ने चेहरे की उदासी युक्त
घबराहट का कारण पूछा?लक्ष्मण जी ने सारी कथा विस्तार से बता दी।वे अभी तक सारी
घटना से अनभिज्ञ थीं। ऐसी कठोर घटना सुनकर सुमित्रा जी अत्यंत भयभीत हो गईं,
मानो मृगी
चारों ओर से दावाग्नि के बीच घिर गई हो।लक्ष्मण जी उनकी दशा का सही मूल्यांकन नहीं
कर सके,और उन्हें लगा कि वे हमारे स्नेह में फँस रही हैं,अतः भय और संकोच वस विदा
मांगने की बात भूल गए। सुमित्रा जी श्री राम-सीता के शील-स्वभाव और उन पर राजाजी
के स्नेह का स्मरण कर सोच रही हैं,कि पापिन कैकेई ने घातक प्रहार कर दिया है, राजाजी बचेंगे
नहीं। कुअवसर देख धीरज रख कर,लक्ष्मण जी को प्रपन्न धर्म का उपदेश करने लगीं - तुम्हारी
माता वैदेही जी हैं और पिता राम जी हैं ।जहां राम जी हों वही अवध है,यदि रामजी बन
जा रहे हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है।इसमें संदेह नहीं,कि गुरु,
पिता,माता,भाई,देवता और
स्वामी की सेवा अपने प्राण की तरह करनी चाहिए, लेकिन रामजी तो इनके
प्राणों के प्राण (परमब्रह्म) हैं,अतः इन सब की पूजा तो उन्हीं का स्वरूप मानकर की जाती है।
अब इनकी सेवा का मोह त्याग,राम जी की साक्षात सेवा करने के लिए बन जाओ और अपने जीवन को
सफल करो! मेरे समेत तुम बड़े भाग्यवान हो,अतः मैं अपने को ही निछावर करती हूं,क्योंकि तुमने
सब प्रपंचों से मन को हटा कर,उसे राम जी के चरणों में लगा दिया है :- हरषित ह्दयँ मातु
पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए। जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि
साथा॥ पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी॥ गई सहमि सुनि बचन कठोरा।
मृगी देखि दव जनु चहु ओरा॥ लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब अकाजू॥ मागत
बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही॥ दो0-समुझि सुमित्राँ राम सिय
रूप सुसीलु सुभाउ। नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥ धीरजु धरेउ
कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु बानी॥ तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब
भाँति सनेही॥ अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥ जौ पै सीय
रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं॥ गुर पितु मातु बंधु सुर साई। सेइअहिं
सकल प्रान की नाईं॥ रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही कै॥ पूजनीय
प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥ अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु
तात जग जीवन लाहू॥ दो0-भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ। जौं तुम्हरें मन
छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥ टिप्पणी:-सुमित्रा जी बोलीं ! पुत्रवती कहलाने का अधिकार
तो उसी महिला को है,जिसका पुत्र राम जी का भक्त हो।राम विमुख पुत्र जनने से तो
बांझ रहना अच्छा है।पुण्य उदय होने पर ही श्री सीता- राम की सेवा का अवसर मिलता
है। राग,रोष, ईर्ष्या,घमंड और मोह ये मानसिक विकार सेवा में बाधक होते हैं।इनसे दूर रहकर मन-
कर्म-वचन से श्री सीताराम जी की सेवा करना!तुम्हारे संग पिता-माता श्री राम-सीता
जी हैं अतः सब प्रकार से निश्चिंत रहना! हे पुत्र ! तुम वही करना, जिससे श्री
राम-जानकी वन में सुख पावें!यही मेरा उपदेश है!उन्हें इतना सुख मिलना चाहिए कि
अयोध्या के सुख की याद ना आए!माताजी ने लक्ष्मण को प्रपन्न भक्ति की शिक्षा दी,बन जाने की
आज्ञा दी,और फिर आशीर्वाद दिया कि श्री सिय-रघुवीर चरणों में नित्य नया अविरल अनुराग
बना रहे। श्री लक्ष्मण जी माता के चरणों में माथा नवाकर, अति शीघ्रता से राम जी के
पास ऐसा भागे, जैसे सौभाग्य वस हिरण जाल के फंदे (मात्तृ स्नेह)से बचकर
भाग निकला हो:- पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥ नतरु बाँझ भलि
बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥ तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु
तात कछु नाहीं॥ सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥ राग रोषु इरिषा
मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥ सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन
करेहु सेवकाई॥ तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥ जेहिं
न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥ छं0-उपदेसु यहु जेहिं तात
तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं। पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई। रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद
नित नित नई॥ सो0-मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ। बागुर बिषम तोराइ
मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
- 1️⃣5️⃣2️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा अयोध्याकांड-27, श्री दशरथ- कैकेयी से श्री राम- जानकी- लक्ष्मण का विदा
होना:- लक्ष्मण जी के, श्री राम-जानकी के पास आते ही,तीनो लोग चले और राजा दशरथ
जी के पास आए।राजा के द्वार पर बड़ी भीड़ है। इन तीनों को जाते देख,सब आपस में
बातें करने लगे,कि विधाता ने राजतिलक की तैयारी हो चुकने पर वनवास दे
दिया।सभीअत्यंत दुखी हैं,उदास और व्याकुल है, जैसे शहद की मक्खियों से
शहद छीन लिया गया हो।सिर धुनकर पछताते हैं। विशाद अपार है,वर्णन नहीं करते बनता ।
सुमंत्र जी ने यह कहकर, कि श्री राम जी आए हैं, राजा को उठाकर बैठाया।सीता
सहित दोनों बेटों को देखकर,राजा बहुत व्याकुल हुए और स्नेह के मारे बार-बार उन्हें
हृदय से लगाते हैं।शोक से व्याकुल है गला रूंध हुआ है,बोल नहीं पा रहे हैं। तब
श्री राम जी ने चरणों में सिर नवाकर विदा मांगी,पिताजी ! मुझे आज्ञा और
आशीर्वाद दें,हर्ष (प्रतिज्ञा सत्य होने की और केकई से उऋण होने की) के समय आप शोक क्यों कर
रहे हैं?प्रेम वश कर्तव्य में चूक होने से संसार से यश जाता रहेगा और निंदा होगी। राजा
दशरथ जी अभी भी,राम जी के रोकने का प्रयास कर रहे हैं।सिथिल राजा प्रेमवश
खड़े होकर श्री राम जी को, बाहु पकड़कर बैठाया और बोले, हे तात ! मुनि लोग आपको
ईश्वर होना बताते हैं। ईश्वर तो कर्मानुसार फल दाता है,न कि फल भोक्ता। अपराध करे
कोई(मंथरा,कैकई,राजा)और दूसरा (चारों भाई,बहुएं'प्रजा आदि) फल भोगे, यह तो ईश्वरी न्याय नहीं हो
सकता? राजा ने श्री राम जी को रोकने के प्रयास किये, लेकिन धर्म धुरंधर ,
बुद्धिमान राम
जी के रुख में कोई परिवर्तन नहीं हुआ:- गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ
प्रिय साथू॥ बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥ कहहिं परसपर पुर नर
नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥ तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु
छीने॥ कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं॥ भइ बड़ि भीर भूप
दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥ सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु
धारे॥ सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥ दो0-सीय सहित सुत
सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ। बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥76॥ सकइ न बोलि
बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥ नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा
तब मागा॥ पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥ तात किएँ प्रिय प्रेम
प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥ सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि
बाहाँ॥ सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥ सुभ अरु असुभ करम
अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी॥ करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु
कोई॥ दो0–औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु। अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥77॥ रायँ राम
राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥ लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर
सयाने॥ टिप्पणी :-राजा ने,सीता जी को हृदय से लगा लिया,और बड़े प्रेम से बनके दुख
समझाकर, अनेक प्रकार से रोकने का प्रयत्न किया।वहां उपस्थित सुमंत-पत्नी,श्री अरुन्धती
जी,तथा कुल वृद्धाओं आदि ने भी,सीता जी को अनेक प्रकार से समझाया और कहा ! कि तुम्हें तो
बनवास की आज्ञा नहीं हुई है ,तुम सास-ससुर तथा गुरु की आज्ञा का पालन करो !उसी में सब का
हित है! इस समय सीता जी को किसी की शिक्षा अच्छी नहीं लग रही है,किंतु वह सब के
सम्मान में चुप हैं। यह सब देख,कैकेयी क्रोध के आवेश में तम-तमा उठी और मुनियों के वस्त्र,माला-मेखला तथा
कमंडलु आदि लाकर, राम जी के सामने रख दिया और बोली,हे रघुवीर ! तुम राजा के
प्राण प्रिय हो! प्रेम -भीरु लोग, शील-सनेह नहीं छोड़ सकते!भीड़ भी शील-स्नेह का दिखावा करती
रहेगी। पुण्य, सुंदर-यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाए, पर वे कभी तुम्हें बन जाने
को ना कहेंगे!ऐसा विचारकर,जो तुम्हें अच्छा लगे वह करो ! लोग अत्यंत व्याकुल हो
उठे!राजा पुनः मूर्छित हो गए! किसी को कुछ सूझता नहीं क्या करें? श्री रामचंद्र
जी,माता की शिक्षा से सुखी हुए। तुरंत मुनि वेश बनाकर माता-पिता को सिर झुका कर
प्रणामकर चल दिए। बनका सब साज-समाज धारण कर,स्त्री और भाई सहित,
प्रभु रामचंद्र
जी ब्राह्मणों और गुरु चरणों की बंदना करके,वनगमन के लिए निकल पड़े:-
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥ कहि बन के दुख दुसह
सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥ सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु
बिषमु न लागा॥ औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥ सचिव नारि गुर
नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥ तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो
कहहिं ससुर गुर सासू॥ दो0–सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि। सरद चंद
चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥ सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥ मुनि पट
भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥ नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील
सनेह न छाड़िहि भीरा॥ सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥ अस
बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥ भूपहि बचन बानसम लागे।
करहिं न प्रान पयान अभागे॥ लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥ दो0-सजि बन साजु समाजु सबु
बनिता बंधु समेत। बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥
- 1️⃣5️⃣3️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड -28 ,श्री राम -जानकी -लखन की अयोध्या वासियों से
विदाई:-श्री रामजी ने राज महल छोड़ दिया और वशिष्ठ जी के द्वार पर आकर खड़े हो
गए।उन्होंने देखा, जनता विरह अग्नि से तप्त हो रही है अतः प्रिय वचन कह कर
सबको समझाया।रामजी ने ब्रह्म मंडली को बुलाया,उनका आदर किया,विनती की,और वर्षभर भोजन
के लिए अन्न दान का संकल्प कर दिया। वशिष्ट जी अयोध्या के धर्म मंत्रिमंडल के
प्रधान हैं, सब उनकी सम्मति व अनुमति से हो रहा है।राम जी ने ब्राह्मणों,भृत्यों,भिक्षुकों तथा
सुहृदों आदि सबको यथायोग्य आदर व दान दिया तथा विनती की।रामजी ने हाथ जोड़कर
वशिष्ठ जी से प्रार्थना की कि उनसे जुड़े दास- दासियों को आप संरक्षण देते रहें,उनके साथ
सौतेला व्यवहार न होने पाए। श्री राम जी ने हाथ जोड़कर पुरवासियों से निवेदन किया,
कि मेरा सच्चा
हितेषी वही है,जो राजा और माताओं को प्रसन्न रखे ,और उन्हें मेरे विरह कादुख
न होनेपाए। गुरुजी के चरण कमलों में माथा नवाया।श्री गणेश जी,पार्वती जी,शिवजी की
प्रार्थना करके गुरुजी से प्रत्यक्ष और देवताओं से परोक्ष आशीर्वाद लेकर रघुनाथ जी
चल पड़े। जनता में अत्यंत विषाद है और उनका आर्तनाद सुना नहीं जाता।लंका में
अपसगुन और अवध में शोक छा गया।देवलोक हर्ष और विषाद दोनों की लपेट में आ गया:
निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥ कहि प्रिय बचन सकल समुझाए।
बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥ गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥ जाचक
दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥ दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि
बोले कर जोरी॥ सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई॥ बारहिं बार जोरि जुग
पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥ सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल
सुखारी॥ दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन। सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन
परम प्रबीन॥80॥ एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा। गनपती गौरि गिरीसु
मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥ राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥ टिप्पणी:-राजा जी की मूर्छा
दूर हुई, सचेत हुए, और सुमंत्र जी को बुलाया। वे बोले ! राम जी चले गए,प्राण नही
निकले, पता नहीं इससे भी बड़ा क्या दुख मिलेगा, जब ये देह को छोड़ेंगे?धैर्य रखकर
बोले,हे सखा ! तुम स्वयं रथ लेकर साथ जाओ,दोनों कुमार अत्यंत कोमल हैं और जानकी जी भी
अत्यंत सुकुमारी हैं,रथ में चढ़ाकर वन दिखलाकर कुछ समय बीतने पर लौटाल लाना। अगर
सत्य प्रतिज्ञ और दृढ़ब्रती दोनों भाई न लौटें, तो सीता जी को लौटआने का
मेरा संदेश कहना, पुत्री ! बन में बहुत कष्ट है,लौटकर तुम मईके- ससुरे जहां
अच्छा लगे रहकर,समय व्यतीत करना। सुमंत्र ! अवसर के अनुसार कुशलता से
लौटाने के अनेक उपाय करना।यदि सीता जी लौटीं, तू मेरे प्राणों को अवलंब
मिल सकता है, अन्यथा विधाता के विपरीत होने पर अपने हाथ में कुछ नहीं रह जाता। ऐसा कहकर
राजा मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़े,उनके मुंह से निकल रहा है राम-लक्ष्मण-सीता को
लाकर दिखाओ। राज-आज्ञा पाकर सुमंत्र जी तुरंत शीग्रगामी रथ को लेकर,नगर के बाहर,जहां श्री राम-
सीता- लक्ष्मण जी थे, वहाँ पहुंच गए:- गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु
कहन अस लागे॥ रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं। एहि तें कवन
ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना॥ पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग
सखा तुम्ह जाहू॥ दो0–सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि। रथ चढ़ाइ देखराइ
बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥ जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥ तौ
तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥ जब सिय कानन देखि डेराई।
कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥ सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥ एहि बिधि करेहु उपाय
कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥ नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि
बामा॥ अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥ दो0–पाइ रजायसु नाइ
सिरु रथु अति बेग बनाइ। गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ।।82।
- 1️⃣5️⃣4️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-29 ,श्री राम वनगमन के प्रथम दिन की यात्रा:-श्री
दशरथ जी की आज्ञा अनुसार सुमंत्र जी ,राम जी के पास पहुंचकर राजा का संदेश सुनाया और
विनती कर तीनों को रथ पर चढ़ा लिया। श्री राम जी ने सप्त पुरियों की सिरमौर,
अयोध्या जी को
प्रणाम किया और यात्रा प्रारंभ कर दी।अयोध्या वासी भी साथ चलने लगे। श्री राम जी
के समझाने पर अयोध्या की ओर थोड़ा चलते हैं,और फिर प्रेमवश लौट आते
हैं।जैसे उनको अवध डरावना लगने लगा हो,उन्हें अपना घर मरघट और कुटुंबी भूत जैसे लगने
लगे।पुत्र, नातेदार तथा मित्र यमदूत जैसे डरावने हो गए। सर्वव्यापक परमात्मा श्री राम के
वियोग का प्रभाव केवल जंगम पर ही नहीं,स्थावर और पशु -पक्षियों पर भी पड़ गया।बागों
में वृक्ष व बेलें कुम्हला गईं, नदी और तालाब श्री हीन हो गए। घोड़े,हाथी,गाय,बैल,चातक,मोर,कोयल,तोता तथा मैना
आदि ब्याकुल और मौन हो काठवत शांत हो गए । बिधाता ने कैकेई को किरातिन बनाकर बिरह
रूपी दावाग्नि ऐसी लगा दी, कि सब विकल हो गए और लोग व्याकुल होकर राम जी के पीछे भागे
चल रहे हैं।जिन्हें भगवान राम के चरणों में प्रीति हो जाती है,वे विषय भोग के
वश में नहीं होते।वृद्ध और बालक घर में छूट गए,और स्वस्थ लोग पहले दिन रात
होते-होते तमसा नदी के किनारे तक (अयोध्या से लगभग 20 किलोमीटर) पहुंच गए। प्रजा
को प्रेमवश देख कर श्री राम जी को बड़ा दुख हुआ ।उन्होंने सुंदर कोमल वचनों में
समझाया, बहुत धर्म के उपदेश दिए,लेकिन लोग लौटने को तैयार नहीं ।शील और स्नेहबस रघुनाथ जी
दुविधा में फँस गए :- तब सुमंत्र नृप वचन सुनाए। करि विनती रथ रामु चढ़ाए।। चढि रथ
सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥ चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब
लागे साथा॥ कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥ लागति
अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥ घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि
एक निहारी॥ घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥ बागन्ह बिटप बेलि
कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥ दो0-हय गय कोटिन्ह केलिमृग
पुरपसु चातक मोर। पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥ राम बियोग बिकल सब ठाढ़े।
जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥ नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर
नारी॥ बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥ सहि न सके
रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥ सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय
बिनु सुखु नाहीं॥ जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥ चले साथ
अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥ राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय
भोग बस करहिं कि तिन्हही॥ दो0-बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ। तमसा तीर निवासु किय
प्रथम दिवस रघुनाथ॥84॥ रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥ कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए।
बहुबिधि राम लोग समुझाए॥ किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥ सीलु
सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई॥ टिप्पणी :- लोग शोक और थकावट के कारण
गहरी नींद में सो गए।कुछ देव माया का भी प्रभाव पड़ा।ज्यों ही दो पहर रात बीती,
श्री राम जी ने
सुमंत्र से कहा ,हे तात ! खोज मारकर रथ से निकल चलने में ही भलाई है। श्री
शंकर जी को माथा नवाकर श्री राम,लक्ष्मण और सीता जी रथ पर चढ़ गए।मंत्री ने तुरंत खोज मारकर
रथ चलाया। लीक मारकर रथ चलाना एक कला है, जिसमें पहियों के चिन्हों की ऐसी भूल-भुलैया बना
दी जाती है कि,रथ का पीछा नहीं किया जा सकता:- लोग सोक श्रम बस गए सोई।
कछुक देवमायाँ मति मोई॥ जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥ खोज
मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥ दो0-राम लखन सिय जान चढ़ि संभु
चरन सिरु नाइ॥ सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85
- 1️⃣5️⃣5️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-30, श्री राम वन गमन की दूसरे दिन की यात्रा :-
सवेरा होने पर ,सब लोग जागे!रघुनाथ जी चले गए ,इसका शोर मच गया! राम -राम
कहकर लीक के सहारे,चारों ओर लोग दौड़ते हैं, लेकिन रथ किधर गया,इसका पता नहीं
चलता है। आपस में चर्चा करते हैं,कि राम जी ने हमारे कष्टों पर विचारकर हमें छोड़ दिया है।
राम जी के बिना हमारे जीवन को धिक्कार है।इस प्रकार अनेक प्रलाप करते हैं, दुख और दाह से
भरे अयोध्या लौट आते हैं। 14 वर्ष की अवधि के बाद राम दर्शन की आशा रखकर,उसके लिए नियम
व्रत धारण कर लिया। वे लोग वैसे ही दुखी हैं,जैसे चकवा-चकवी और कमल
सूर्य के बिना दीन दुखी रहते हैं । उधर श्री राम- लक्ष्मण-सीता तथा मंत्री रथ के
द्वारा लगभग 125 किलोमीटर की यात्रा करके गंगा जी के किनारे,श्रृंगवेरपुर
पहुंच गए। गंगा जी की दंडवत प्रणाम कर,सभी आनंदित हुए।आज भी वह स्थान सिंगरौरा ग्राम
के निकट रामचौरा नाम से जाना जाता है।वहां पर दो शीशम के व्रक्ष भी हैं,जिन्हें उसी
वृक्ष की संतान माना जाता है,जिसके नीचे राम जी ने रात्रि विश्राम किया था। गंगा जी सारे
आनंद मंगल की मूल हैं। श्री राम जी ने मंत्री,भाई और प्रिय पत्नी को
देवनदी की महिमा सुनाई और स्नान किया।पवित्र जल पीने से सबके मन प्रसन्न हो गये।
सत,चित्, आनंद स्वरूप राम जी, सामान्य मनुष्यों की तरह ही चरित्र करते हैं,जिसकी कथा
सुनकर जीव भवसागर से पार होते रहते हैं :- जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ
अति सोरू॥ रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिं॥ मनहुँ
बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥ एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम
जानि कलेसू॥ निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥ जौं पै प्रिय
बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥ एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए
अवध भरे परितापा॥ बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥ दो0-राम दरस हित
नेम ब्रत लगे करन नर नारि। मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥86॥ सीता सचिव
सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥ उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु
बिसेषी॥ लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥ गंग सकल मुद मंगल
मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥ कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग
तरंगा॥ सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥ मज्जनु कीन्ह पंथ
श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥ सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह
लौकिक ब्यवहारू॥ दो0-सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु। चरित करत नर अनुहरत
संसृति सागर सेतु॥87॥ टिप्पणी:-निषादराज गुह को राम जी के आने का समाचार
मिला।जाति भाइयों के साथ वह हर्ष पूर्वक राम जी के पास आकर,उनके सामने कंदमूल फल से
भरी काँवरें भेंट रूप में रख, दंडवत प्रणाम कर,अत्यंत अनुराग से उनका दर्शन- लाभ उठाने लगा।
सहज कृपालु राम जी ने निकट बैठा कर कुशलता पूँछी ?वह बोला, हे नाथ ! आपके
चरण कमलों के दर्शन से सब कुशल हो गई।अब मैं भाग्यशाली लोगों की गिनती में आ
गया।हे देव!यह पृथ्वी,धन,घर सब आपका है,मैं परिवार सहित आपका घरेलू नौकर हूं।कृपा कर
नगर चलकर इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइये, जिससे लोग मेरे भाग्य को सिहावें। श्री राम जी
ने कहा, हे सखा! तुमने सब ठीक ही कहा है,किंतु मेरे लिए पिताजी की आज्ञा कुछ और ही है।14
वर्ष वन में
निवास,मुनियों के व्रत, वेष और भोजन की आज्ञा है।अतऐव गांव में ठहरना उचित नहीं
है।इस प्रकार के कष्टमय जीवन की कल्पना से गुहको अत्यंत दुख हुआ:- यह सुधि गुहँ
निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥ लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ
हिँयँ हरषु अपारा॥ करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें॥ सहज
सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥ नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन
जन लेखें॥ देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥ कृपा करिअ पुर
धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥ कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु
आयसु आना॥ दो0-बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु। ग्राम बासु नहिं
उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
- 1️⃣5️⃣6️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्या कांड -31, श्री लक्ष्मणगीता की भूमिका रूप में ,निषादराज का
विषाद योग:- निषाद राज के साथ आए पुरवासियों ने, श्री राम -लखन- जानकी जी के
रूप और कोमलता पर मोहित हो, आपस में चर्चा करते हैं, कि वे माता-पिता कैसे हैं
जिन्होंने इतने सुकुमार बालकों को बन में भेज दिया।कुछ ऐसा भी कहते हैं की,
भाग्य वश हम
लोगों के दर्शन लाभ के लिए, यह घटना घटी है। निषादराज ने रात्रि विश्राम के लिए शिशुपा
( अशोक या शीशम )वृक्ष कि नीचे का स्थान उपयुक्त मानकर,राम जी से उसके लिये आज्ञा
ले ली।पुरवासी जोहार कर ,अपने-अपने घर लौट गए और श्री राम जी संध्या करने लगे । इस
बीच गुह ने कुशों के ऊपर कोमल पत्ते बिछाकर सुंदर साथरी सजा कर बिछा दी।पास ही
दोनों में भरकर पवित्र, मीठे फल-कंद व जल रख दिया । श्रीसीता जी सुमंत्र जी और भाई
लक्ष्मण सहित कंद फल खाकर ,रघुकुल मणि राम जी लेट गए। लक्ष्मण जी पैर दबाने लगे। प्रभु
को सोते जान लक्ष्मण जी उठे कोमल वाणी में सुमंत्र जी को भी सोने के लिए कह
दिया।हम सब के लिये शिक्षाप्रद है कि अयोध्या के राज महल के सुखमय सेज पर सोने
वाले,साथरी पर शीघ्र ही गाढ निद्रा में सो गए।हर परिस्थिति को स्वीकार कर लेना
बड़प्पन है।इन लोगों ने पिछली रात फलाहार भी नहीं किया था और रात्रि में सोए भी
नहीं थे । लक्ष्मण जी कुछ दूरी पर धनुष बाण सजाकर पहरा देने लगे।गुह ने
विश्वासपात्र पहरुओं को नाकों पर नियुक्त कर दिया और स्वयं कमर में भाथी( छोटा
तरकस)बांधकर तथा धनुषबाण चढ़ाकर लक्ष्मण जी के पास जाकर बैठ गया:- राम लखन रूप
निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥ ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन
बालक ऐसे॥ एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥ तब निषादपति उर
अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥ लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति
सुहावा॥ पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥ गुहँ सँवारि साँथरी
डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥ सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि
पानी॥ दो0-सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ। सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥89॥ उठे लखनु
प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥ कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे
बैठि बीरासन॥ गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती॥ आपु लखन पहिं
बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥ टिप्पणी :- प्रभु को भूमि पर सोते देख,प्रेमवस निषाद
विषाद ग्रस्त हो गया।उसके आंखों से प्रेमाश्रु वह रहे हैं और उसका गला रुँधा हुआ
है। वह लक्ष्मण जी से,महाराज दशरथ के सुखसुविधा पूर्ण,अलौकिक दिव्य महल का वर्णन
करने लगा। जिसे ग्रंथ में पढ़ना कर्तव्य है।वहां के सुंदर पलँग और निर्मल कोमल
बिछौनों में सोते हुए श्री सीता-राम जी की दिव्य शोभा के सामने रति- कामदेव की
शोभा अत्यंत फीकी समझ में आने लगती थी।ऐसे श्री रामचंद्र जी और जानकीजी आज घास-फूस
की साथरी पर बिना ओढ़ने - बिछाने कि सो रहे हैं।विधाता किसी के भी बिपरीत हो सकता
है।लोगों ने सही कहा है कि विश्वरचना में कर्म प्रधान होता है:- सोवत प्रभुहि
निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू॥ तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम
लखन सन कहई॥ भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा॥ मनिमय रचित चारु
चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥ दो0-सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास। पलँग
मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥90॥ बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद
सुहाई॥ तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥ ते सिय रामु
साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥ मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास
अरु दासी॥ जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥ पिता जनक जग
बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥ रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न
केही॥ सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥ दो0-कैकयनंदिनि
मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह। जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
- 1️⃣5️⃣7️⃣
मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्या कांड- 32, श्री लक्ष्मणगीता के अंतर्गत, गुह को ज्ञान,वैराग्य तथा
भक्ति युक्त उपदेश:- अत्यंत विशाद- युक्त निषादराज ,श्री राम सीता को भूमि पर
सोते देख कहता है,कि कुटिल, मंदमति कैकेयी के कारण, संसार दुखी हो रहा है।श्री
लक्ष्मण जी गुह को समझाना चाहते हैं, कि सर्वगत परमात्मा के शासन और शक्ति द्वारा,
जगत की सब
घटनाएं होती रहती हैं।अहंतावश हम अपने या दूसरे को उसका कारण मानकर,सुखी-दुखी होते
रहते हैं।शरणागत रहते हुए, उन घटनाओं में शास्त्र सम्मत अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए,
भगवान की सेवा
करने और निरद्वंद रहने में ही हमारी भलाई है । श्री लक्ष्मण जी सरल और मधुर वाणी
में निषादराज से कहते, हैं कि संसार में सुख-दुख का दाता और कोई अन्य न होकर,हमारा
मोह(विपरीत ज्ञान)है। द्वंदात्मक संसार में संयोग-वियोग,सुख- दुख,भला-बुरा,शत्रु-मित्र-मध्यस्थ
तथा जन्म-मरण का व्यापार चलता रहेगा।जहां तक संसार का पसारा है, वह सब भ्रम का
फंदा अर्थात मिथ्या है। पृथ्वी,घर,धन,ऐश्वर्य ,कुटुंब,स्वर्ग-नरक जहां तक सांसारिक व्यवहार है,सब के मूल में
मोह( भ्रम वश उस से अपना संबंध मानना) है।सांसारिक सफलता से परमात्मा का बोध नहीं
होता।जगत की उपलब्धियां स्वप्नवत है। स्वप्न में राजा अपने को भिखारी देखे या रंक
अपने को राजा के रूप में देखे, जगने पर जो है,वही रहेगा।जीव सत-चित- आनंद का अंश है,किंतु मायाजाल
में फँसकर, जड़ता से संबंध बनाकर, व्यर्थ में सुखी- दुखी हो रहा है:- भई दिनकर कुल बिटप
कुठारी।कुमति कीन्ह सब विश्व दुखारी।। भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन
निहारी॥ बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥ काहु न कोउ सुख दुख
कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥ जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम
भ्रम फंदा॥ जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु कालू॥ धरनि धामु धनु
पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥ देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल
परमारथु नाहीं॥ दो0-सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ। जागें लाभु न हानि
कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥ टिप्पणी :-जगत को स्वपनवत् जानकर, किसी को व्यर्थ में दोष न
दीजिए! न क्रोध कीजिए ! लोग अविद्या ग्रस्त होकर, तीनों गुणों के सेवन में
तन्मय हो,और अनेक प्रकार की मिथ्या कल्पनाएं कर, सुखी-दुखी हो रहे हैं।योगी
व भक्त लोग सब विषयों (शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध) से विरक्त हो जीवन के परम प्रयोजन-" स्वरूप
स्थिति" को प्राप्त कर लेते हैं । जब जड़-चेतन का स्पष्ट
बोध(आत्मसाक्षात्कार) हो जाता है,तब भगवान के चरणों में नैसर्गिक प्रीति पैदा होती
है।मन-कर्म-वचन से परमात्मा के शरणागत हो जाना ही,जीवन का परम प्रयोजन है।
श्रीराम जी उसी अव्यक्त परम ब्रह्म का प्रकट रूप हैं।वेद व्यतिरेक विधि से अर्थात
सारे प्रपंच का निषेध कर,शेष बचे तत्व के रूप में ही परमब्रह्म का परिचय देते
हैं।समस्त सृष्टि उन्हें में स्थित है, उसका संपूर्णता से वर्णन नहीं किया जा सकता। इस
समय वही परमात्मा,श्री रामजी -भक्त,पृथ्वी, ब्राह्मण,गऊ और देवताओं का हित करने
के लिए मनुष्य रूप से अनेक लीलाएं कर रहे हैं।जिन की कथा सुनकर,जीवों का उधर
हो रहा है और होता रहेगा। हे सखा ! ऐसा समझकर व्यर्थ का प्रपंच छोड़कर श्री
सीताराम जी के चरणों से प्रेम करो!:- अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न
देइअ दोसू॥ मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥ एहिं जग जामिनि
जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥ जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास
बिरागा॥ होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥ सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू॥ राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥ सकल
बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा। दो0-भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर
हित लागि कृपाल। करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल॥93॥ सखा समुझि अस परिहरि
मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
- श्री लक्ष्मण जी और निषादराज का पहरा देते हुए, सत्संग चलता रहा और रात बीत
गई। प्रातःकाल होते ही राम जी जगे और लक्ष्मण जी उनकी सेवा में लग गए ।रामजी ने
नित्य शौच कर्म से निवृत्त हो,स्नान किया। बरगद का दूध मंगाया और भाई सहित सिर पर जटाएं
बना लीं। चक्रवर्ती राजा के बाल नहीं काटे जाते। वन जीवन में केसों की देखभाल नहीं
हो पाती, अतः जटा बना लिए और इस प्रकार मुनि वेष भी पूरा हो गया। यह वेष देखकर सुमंत्र
जी के हृदय में अत्यंत वेदना हुई और वे उदास हो गए।अत्यंत दीन भाव से बोले !
अयोध्या नाथ ने हमें आज्ञा दी है,कि रथ लेकर साथ में जाओ।वन दिखाकर,गंगा स्नान कराकर लक्ष्मण
-राम -सीता को लौटा लाओ। धर्म संबंधी उनकी शंकाओं का समाधान कर देना।राजा की
ऐसीआज्ञा है,अब गोसाईं जैसा आप कहें? मैं अपने को निछावर करता हूं।मंत्री ऐसी विनती कर,राम जी के
चरणों में गिर गए और बालक की तरह रोने लगे। हे तात ! कृपा करके वही कीजिए जिससे
अवध अनाथ न हो:- कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥ सकल सोच करि राम
नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥ अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल
छाए॥ हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना॥ नाथ कहेउ अस कोसलनाथा।
लै रथु जाहु राम कें साथा॥ बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥ दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ
करौं बलि सोइ। करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥94॥ तात कृपा करि कीजिअ सोई।
जातें अवध अनाथ न होई॥ टिप्पणी:-श्री राम जी ने मंत्री को उठाकर,सम्मान देते
हुए,समझाया, हे तात! तुमने धर्म के सिद्धांत को भली-भांति समझा है।राजर्षि शिविजी,दधीचि जी,हरिश्चंद्र जी,रांतिदेव जी और
दैत्यसराज बलि ने धर्म के लिए अनेक कष्ट सहे हैं।" सत्य के समान दूसरा धर्म
नहीं है" ऐसा शास्त्र, वेद और पुराणों में कहा है। पिता के वचन सत्य करना सब
धर्मों में श्रेष्ठ है,जो मुझे सहज ही प्राप्त हो गया है। उस धर्म को छोड़ने से
तीनों लोकों में अपकीर्ति फैलेगी।प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश करोड़ों मृत्यु के
समान संताप देता है। हे तात! पिता जी के चरण पकड़ कर,मेरी ओर से करोड़ों नमस्कार
के साथ,हाथ जोड़कर विनती करिएगा,की आप मेरी किसी बात की चिंता ना करें ! आप हमारे पिता समान
हितकारी हैं,आपसे विनती है कि आप वही सब करें, जिससे पिताजी हम लोगों के सोच में दुख ना पावे!
यह सब दृश्य इतना करुणामय था कि वहां उपस्थित निषादराज सपरिवार व्याकुल हो उठा।
तदुपरांत लखन जी ने पिताजी के लिए कुछ कटु वचन कहे,प्रभु जी ने उन्हें ऐसा
करनेसे रोका। और अपनी सौगंध दिलाकर,सुमंत्र जी को मना किया कि लक्ष्मण का यह संदेश पिताजी से न
कहना । श्री राम -लक्ष्मण के लौटने की संभावना समाप्त होते देख,सुमंत्र जी ने
राजा का अगला संदेश कहा! सीता जी बनके क्लेश नहीं सह पाएंगी, अतः राम जी और
तुमको वह सब उपाय करने हैं की सीता जी अयोध्या लौट आएँ,अन्यथा हमारे लिए जीने का
कोई अवलंब ना रहेगा और उसी प्रकार समाप्त हो जाएगे, जैसे मछली बिना जल के नहीं
जी पाती। सीता जी के मायके और ससुराल में सब सुख हैं। विपत्ति काल समाप्त होने तक,जहां जी चाहे
वहां रहकर समय बिता दें।:- मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥ रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु
धरेउ सहि संकट नाना॥ धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥ मैं सोइ धरमु
सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥ संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम
दारुन दाहू॥ तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥ दो0-पितु पद गहि
कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि। चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥ तुम्ह पुनि
पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥ सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें।
दुख न पाव पितु सोच हमारें॥ सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥ सकुचि राम निज सपथ देवाई।
लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥ कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय
बिपिन कलेसू॥ जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥ नतरु निपट
अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥ दो0-मइकें ससरें सकल सुख जबहिं
जहाँ मनु मान॥ तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96
- सुमंत जी ने स्पष्ट किया, कि राजा जी ने जिस दुःख, दीनता और प्रीति से भरी
विनती की है,उसका वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता। इस पर श्री राम जी ने पुनः सीता जी से
लौटने का आग्रह किया, और कहा ! कि तुम्हारे लौटने से सास-ससुर, गुरु, परिवार तथा
जनता में जो दुःख की खलबली मची हुई है, वह शांत हो जाएगी।सीता जी कहती हैं, प्राणपति ! आप
परम विवेकी है ।क्या केवल छाया को शरीर से अलग कर उसे रोका जा सकता है ? क्या सूर्य
प्रकाश का सूर्य के बिना,और चांदनी का चंद्रमा के बिना अस्तित्व संभव है? :- बिनती भूप
कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥ पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि
दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥ सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥ प्रभु करुनामय परम बिबेकी।
तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी॥ प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि
जाई॥ पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥ तुम्ह पितु ससुर सरिस
हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥ टिप्पणी:- इसके बाद सामने होकर उत्तर देने
के लिए क्षमा मांगते हुए,श्री सीता जी ने सुमंत्र जी से कहा, हे तात ! सारे नाते
(सास-ससुर देवर आदि) पति से नाता जुड़ने के बाद ही बनते हैं।अतः पति के अभाव में
सब प्रभाव हीन हो जाते हैं।पिता के ऐश्वर्य की शोभा, मैंने देखी है।बड़े-बड़े
राजे- महाराजे उनके चरणों में शीश झुकाते थे।ससुर चक्रवर्ती सम्राट हैं,जिनका प्रभाव 14 भुवनों में
है। इंद्रदेव आगे आकर उनकी अगवानी करते हैं,और आधे सिंहासन पर बैठाते
हैं।परंतु श्री रघुनाथ जी के चरणों की धूल के अभाव में,कहीं का भी सुख स्वप्न में
भी हमारे लिए सुखद नहीं है।इसके विपरीत कठोर परिस्थितियों के कारण,दिखने वाले बन
के सारे कष्ट,प्राणपति श्रीराम के साथ हमारे लिए सुखकारी रहेंगे!सास-ससुर से,मेरी ओर से
पांव पड़कर विनती कीजिएगा!कि मेरे लिए वे चिंतित ना हों! धनुष और तरकश से सुसज्जित
पति और देवर के साथ वन में हम सुरक्षित और सुखी रहेगी:- दो0-आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न
मानब तात। आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥97॥ पितु बैभव बिलास मैं
डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥ सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव
न भोरें॥ ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥ आगें होइ जेहि सुरपति
लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥ ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥ अगम पंथ बनभूमि पहारा।
करि केहरि सर सरित अपारा॥ कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥ दो0-सासु ससुर सन
मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ॥ मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥ प्राननाथ
प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥ नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें।
मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥ टिप्पणी:-श्री सीता जी की शीतल वाणी सुनकर, सुमंत्र जी ऐसे
विकल हुए,जैसे सर्प मणि खोजाने से व्याकुल होता है।उन्हें व्याकुलतावरश नेत्रों से
दिखाई नहीं पड़ता,कानों से सुनाई नहीं पड़ता। इसके बाद भी लौटाने के लिए
उन्होंने अनेक उपाय कहे (बाल्मी० 2.52) पर राम जी ने सब का उचित उत्तर दे दिया। ईश्वर
राम जी की आज्ञा का उल्लंघन संभव नहीं है।अतः सुमंत्र जी श्री राम-लक्ष्मण-सीता जी
के चरणों में मस्तक नवाकर लौटे,जैसे बनिया जमा पूंजी गांवाकर लौट रहा हो।सुमंत्र जी ने रथ
हांकने का प्रयत्न किया।घोड़े श्री राम जी की और देख- देखकर हिनाहिनाते हैं।यह सब
दशा देख कर कठोर हृदय निषाद लोग,दुःखबश सिर पीटते हैं, और पछताते हैं।वे सोच रहे
हैं,कि जिनके वियोग में पशु ऐसे व्याकुल हैं,उनके वियोग में प्रजा और
माता-पिता कैसे जीवित रहेंगे?:- सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥ राम प्रबोधु कीन्ह बहु
भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥ जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन
दीन्हे॥ मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई॥ राम लखन सिय पद सिरु
नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥ दो0–रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं। देखि
निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं॥99॥ जासु बियोग विकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु
जिइहहिं कैसे।।
- मानस आधारित
श्री राम कथा, अयोध्याकांड-35, नाविक-केवट की प्रपत्ति-भक्ति का प्रसंग ;-
श्री राम जी ने
हठात सुमंत्र को लौटाया और स्वयं गंगा तट पर आए।केवट से नाव मांगी,वह न लाया और
कहने लगा कि मैंने आपका मर्म (तात्विक ज्ञान) जान लिया है।आपके चरणों की रज के
बारे में जनश्रुति है,कि उसमें मानव निर्माण का जादू छिपा है।जब उसके स्पर्श से
शिला,सुंदर स्त्री (अहिल्या जी) हो गई, तो मेरी नाव की लकड़ी, पत्थर की अपेक्षा अत्यंत
कोमल है अतः निश्चय ही वह किसी मुनि की पत्नी बन, आकाश मार्ग से उसके पास चली
जाएगी।इस प्रकार मेरी जीविका समाप्त हो जाएगी, जिससे मेरा सारा कुटुंब
पलता है।मैं दूसरा कोई धंधा नहीं जानता।यदि आप पार जाना चाहते हैं,तो मुझे पांव
पखारने की कहें ! मैं आपके चरणों की धूल धोकर तुरंत नाव पर चढ़ा लूंगा,मुझे उतराई
नहीं चाहिए।मैं आपकी और आपके पिताजी की सौगंध खाकर सत्य प्रतिज्ञा करता हूं,कि बिना पद
पखारे गंगा पार नहीं करवाऊँगा,भले ही लखन जी बाणों से हमपर प्रहार करें। प्रेमाभक्ति से
लपेटी अनोखी वाणी सुनकर श्रीराम जी मुस्कराते हुए, श्री जानकी व लक्ष्मण जी की
तरफ देखने लगे। मानो कह रहे हों, कि जिन चरणों की सेवा पर तुम अपना अधिकार मानते हो,उन पर केवट
इतनी सरलता से अधिकार किए ले रहा है:- बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब
आए॥ मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥ चरन कमल रज कहुँ सबु कहई।
मानुष करनि मूरि कछु अहई॥ छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥ तरनिउ
मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥ एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं
जानउँ कछु अउर कबारू॥ जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥ छं0-पद कमल धोइ
चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥ बरु तीर
मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु
उतारिहौं॥ सो0-सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुनाऐन चितइ
जानकी लखन तन॥ टिप्पणी :- कृपासिंधु राम मुस्कुरा कर बोले, वही कर, जिससे तेरी नाव
न जाए ! जल्दी कर ,जल लाकर पैर पखारकर ,शीघ्र पर उतार दे ! जिसके
नाम के प्रभाव से पापी मनुष्य भी संसार-सागर से पार हो जाते हैं ,और जो दो ही
पगों से तीनों-लोकों को पार कर जाता है,वह कृपावश, नदी पार करने के लिए ,भक्त केवट से
विनय कर रहा है। अपने उद्गम स्थान भगवान के चरण-नख को देखकर,गंगा जी अत्यंत प्रसन्न
हुईं, और केवट व भगवान के संवाद को सुन चरण स्पर्श होने का निश्चय भी हो गया।श्री
राम जी की आज्ञा पाकर, केवट कठौता में पानी ले आया और प्रेम की उमंग से ओतप्रोत
होकर पैर पखारने लगा।देवता लोग यह देख,पुष्प वर्षा कर उसके अति पुण्यवान होने की,
ईर्ष्या -पूर्ण
प्रशंसा करने लगे। केवट सपरिवार चरणोंदक पीकर स्वयं पितरों सहित, भवसागर से तर
गया और फिर प्रसन्नता पूर्वक प्रभु को गंगा पार ले गया:- कृपासिंधु बोले मुसुकाई।
सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई॥ वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥ जासु
नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥ सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु
किय तिहु पगहु ते थोरा॥ पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥ अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज
पखारन लागा॥ बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥ दो0-पद पखारि जलु
पान करि आपु सहित परिवार। पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥ टिप्पणी:-
निषादराज, लक्ष्मण जी, सीता जी, और श्री रामचंद्र जी नाव से उतरकर गंगा जी की रेती पर खड़े
हो गए।नाविक केवट ने नाव में लंगर डाल दिया।,और तब प्रभु के पास आकर
सादर दंडवत किया।प्रभु के हृदय में उतराई देने की चिंता हुई, सीता जी जान
गईं, और उतराई देने के लिए मणि की अंगूठी उतार ली।प्रभु जी ने केवट से उतराई लेने
को कहा !वह व्याकुल हो उठा !और श्री राम जी के चरणों पर गिरकर कहने लगा - कि मुझे
आज सब कुछ मिल गया है।मेरा पाप रूपी कर्ज उतर जाने से,दोष, दुख और दरिद्रता रूपी
दावाग्नि शांत हो गई है।बहुत समय से मजदूरी कर रहा था,आज विधाता ने अच्छी और
भरपूर मजदूरी दे दी है।हे नाथ ! हे दीनदयाल ! आपकी अनुग्रह हो जाने से अब हमें कुछ
नहीं चाहिए। आपकी कृपा होने से अब कोई वासना शेष नहीं रही।उतराई न लेने का अहंकार
भी समर्पित करने के लिए वह कहता है, कि लौटते समय जो भी प्रसाद देंगे, उसे सिर पर
धारण कर स्वीकार करूँगा। प्रभु ने,लक्ष्मण जी ने ,श्री सीता जी ने उतराई देने के बहुत प्रयत्न किए
,लेकिन केवट ने कुछ नहीं लिया।करुणा सागर श्री राम ने उसे विशुद्ध अविरल भक्ति
देकर विदा कर दिया। जीवो के आचार्य लक्ष्मण जी और भगवान की अंतरंग शक्ति श्रीजी की
प्रसन्नता के बिना ऐसी अनपायनी भक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती;- उतरि ठाड़ भए
सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता॥ केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि
नहिं कछु दीन्हा॥ पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥ कहेउ कृपाल
लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥ नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख
दारिद दावा॥ बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥ अब कछु नाथ
न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें॥ फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं
सिर धरि लेबा॥ दो0- बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ। बिदा कीन्ह
करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-36,तीसरे दिन की यात्रा-"सुरसरि उतरि निवास प्रयागा" प्रकरण-1:- नाविक-केवट को विदा करके, श्री राम जी ने स्नान किया।शिव जी का पार्थिव पूजन किया। श्री सीता जी ने गंगा जी से प्रार्थना की, हे माता ! मेरा मनोरथ पूरा कीजिए," जिससे स्वामी और देवर के साथ कुशलता से लौटकर फिर आपकी पूजा करूं।" प्रार्थना सुनकर,जल से श्रेष्ठ वाणी हुई, हे विदेह नंदनी! सुनो !आपका प्रभाव सर्वविदित है।आपकी कृपा दृष्टि से लोकपाल बनते हैं,सिद्धियां हाथ जोड़ आपकी सेवा करती हैं।आपने हमें बड़ाई देने मात्र के लिए विनती की है।फिर भी अपनी वाणी को सिद्ध करने के लिए,मैं आशीर्वाद देती हूं,"प्राण पति व देवर सहित कुशल पूर्वक, अवध लौटो!आपके सब मनोरथ पूरे होंगे!जगत में सुंदर यश रहेगा !" यह मांगलिक वचन सुनकर,श्री सीता जी, देवनदी की आपने ऊपर अनुकूलता देख,प्रसन्न हुईं। तब प्रभु राम ने गुह से घर लौटने को कहा!वह अत्यंत उदास हो गया और उसे आंतरिक वेदना हुई। वह हाथ जोड़कर दीनभाव से बोला, हे रघुकुल मणि ! मेरी विनती सुनो ! हम स्वामी के साथ 4 दिन रहकर, चरणों की सेवा करना चाहता हूं।हे रघुराई ! जिस बन में आप जाकर रहेंगे,वहां पर्णकुटी बना दूंगा।आप की कसम खाकर प्रतिज्ञा करता हूं,तब आप जैसी आज्ञा देंगे,वह शिरोधार्य करूंगा । यद्यपि गुह ने 4 दिन की संख्या मुहावरे के रूप में कहां है,लेकिन भगवान उसी आधार पर चार दिन बाद ही उसे लौटा देंगे। स्वाभाविक भक्ति देख ,रामजी ने साथ चलने की अनुमति दे दी।वह अत्यंत प्रसन्न हुआ, और अपने जाति के लोगों का समझा-बुझाकर लौटने की आज्ञा दे दी। तब प्रभु राम जी ने गणेश जी व शिवजी का स्मरण किया,और गंगा जी को सिर झुकाकर प्रणाम किया तथा सखा ,भाई,व श्रीसीता जी सहित आगे की यात्रा पर चल दिए। आज श्री सीता जी का पैदल चलने का पहला दिन है।ऐसा जान पड़ता है कि ये लोग प्रयाग क्षेत्र में गंगा जी के किनारे-किनारे बनमार्ग से,संगम की ओर चले हैं जो यहां से लगभग 35 किलोमीटर पर है।जो भी हो रात में सब लोग किसी पेड़ के नीचे ठहरे,जहां लक्ष्मण जी वह निषाद ने बन में रहने योग्य सुख-सुविधा जूटा दी :- तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥ सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥ पति देवर संग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥ सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥ सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही॥ लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥ तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥ तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होपन हित निज बागीसा॥ दो0-प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ। पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥ गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकुला॥ तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥ दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥ नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥ जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥ तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥ सहज सनेह राम लखि तासु। संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू॥ पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥ दो0- तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ। सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ॥104॥ तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥ टिप्पणी :- प्रातः काल उठकर नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो,सब लोग तीर्थराज के दर्शन करते हुए, संगम तट की ओर चले।प्रयागराज 3.5 कोटी तीर्थों के राजा हैं।राजा के 7 प्रधान अंग होते हैं,यहां उनका पांच अन्य अंगों के साथ वर्णन किया गया है। तीर्थराज का मंत्री सत्य है,श्रद्धा उनकी प्यारी स्त्री है,बेनी माधव मित्र हैं।चारों पदार्थ(धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष )से भंडार भरा पूरा है।पुण्यक्षेत्र ही राजधानी और सुंदर मजबूत किला है,इसे शत्रु (पाप) स्वप्न में भी नहीं पा सकते।सारे तीर्थ ही श्रेष्ठ वीरों की सेना है,जो पाप की सेना को नष्ट करने में सक्षम है।गंगा- जमुना-सरस्वती का संगम स्थान ही शोभायमान सिंहासन है और अक्षयवट क्षत्र है। यमुना जी व गंगा जी की तरंगे(श्याम-श्वत)चँवर है, जिसे देखने मात्र से,दुख-दरिद्र नष्ट हो जाते हैं। पुण्यात्मा और पवित्र साधु उनकी सेवा करते रहते हैं और वेतन रूप में उनकी सारी मनोकामना की पूर्ति होती रहती है।समस्त वेद-पुराण उनके दरबारी भाट जैसे हैं,जो उनका निर्मल यश गाते रहते हैं:- प्रात प्रातकृत करि रधुसाई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥ सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी॥ चारि पदारथ भरा भँडारु। पुन्य प्रदेस देस अति चारु॥ छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा॥ सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥ संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा॥ चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥ दो0- सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम। बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥105
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-37, चौथे दिन की यात्रा-" सुरसरि उतरि निवास प्रयागा" प्रकरण -२:- तीर्थपति प्रयागराज का प्रभाव अनंत है,जिससे सुख-सागर श्री रामजी को भी सुख की अनुभूति होने लगी। तीर्थ पहुंचने पर उसका महात्म्य सुनने की परंपरा है।साथ में कथा कहने वाला न होने से,भगवान राम जी ने स्वयं तीर्थराज के अद्भुत महात्म्य को, श्री सीता,लक्ष्मण जी और सखा को सुनाते हुए तीर्थराज को प्रणाम किया,और वहां के बन-बाग देखते हुए, त्रिवेणी अर्थात गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम स्थल पर पहुंच गए। आनंद पूर्वक संगम स्नान करके,शिव जी का और तीर्थ देवताओं का विधिपूर्वक पूजन किया। पूजन से निवृत हो,प्रभु मुनि भरद्वाज जी के पास आये।श्री राम जी जैसे ही दंडवत प्रणाम करने को झुके,मुनि ने उन्हें पकड़कर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद भी दिया।मुनि के हृदय में भगवान के प्रति ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों भाव हैं। ऐश्वर्य भाव होने से दंडवत पूरी नहीं होने दिया,और माधुर्य भाव के वशीभूत होने से आशीर्वाद दिया। मुनि के मन में अपार आनंद हो रहा है,मानो ब्रह्मानंद की राशि मिल गई है।वे ऐसा अनुभव कर रहे हैं मानो उनके पुण्य(धर्म,उपासना,ज्ञान)का फल श्री लक्ष्मण जी व श्री सीता-राम जी का साकार रूप धर, प्रकट हो गया है :- को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥ कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई॥ करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥ एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी॥ मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पुजि जथाबिधि तीरथ देवा॥ तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए॥ मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥ दो0- दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि। लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥106॥ टिप्पणी :-भरद्वाज जी अलौकिक अतिथि पाकर उसकी सेवा में लग गए।स्वयं आसन लाकर बिछाया,उनको बैठाकर विधिवत पूजन किया।भोग में अच्छे-अच्छे कंद,मूल,फल और अंकुर निवेदित किया। श्री राम जी ने, निषादराज तथा श्री लक्ष्मण व श्री सीता सहित,स्वाद पूर्वक अमृत सरीखे सुंदर फल खाए।थकावट दूर होने से श्री राम जी सुखी हुए तब मुनि प्रार्थना करने लगे। मुनि बोले ! मेरी कर्मयोग(जप, तप), ज्ञानयोग (तीर्थसेवन व योग )तथा भक्तियोग (आसक्ति त्याग व शरणागति) की साधना सफल हो गई। सारी साधनाओं का प्राप्तव्य आपका दर्शन (साक्षात्कार) है,वह हो गया।प्रार्थना कर वरदान में पराभक्ति (चरणों में सहज प्रेम)मांगा ! मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अवतार छिपाने के लिए वरदान नहीं दे पा रहे हैं। किंतु परोक्ष रूप में परा भक्ति के घनीभूत स्वरूप भरत जी का दर्शन करा कर (देखें 2. 210 .4,5 ),एक तरह से वरदान दे भी दिया । मुनि कह रहे हैं -जीव जब तक, मन-बाणी-कर्म से छल छोड़कर,आपकी अनन्य शरणागति नहीं लेता,तब तक वह अन्य किसी उपाय से सुखी नहीं हो सकता। मुनि द्वारा भगवता प्रकट करने से श्रीरामजी संकोच में पड़ गए ? अतः ऐश्वर्या छिपाने के लिए मुनिका सुयश कहने लगे, हे मुनिराज ! वही बड़ा है, जिसे आप आदर दें। भगवान और भक्त परस्पर एक-दूसरे के उपासक व प्रशंसक बन गए।प्रशंसा करते-करते दोनों परानंद में निमग्न हो गए,जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । तब तक श्रीराम जी के आने की सूचना तीर्थ वासी- ब्रह्मचारी,तपस्वी,मुनि,सिद्ध और उदासी सभी को मिल गई ।वे दर्शन करने के लिए आश्रम आए।श्रीराम जी ने सब को प्रणाम किया।सभी दिव्य दर्शन पाकर आनंदित हो उठे और परमसुख पाकर आशीर्वाद देने लगे। श्री सीता-राम-लक्ष्मण का अद्भुत सौंदर्य सराहते हुए सब लौट गए। श्रीराम जी ने रात्रि विश्राम किया।प्रातः उठकर नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो,संगम स्नान किया और विदा लेने के लिए मुनि के पास पहुंच गए:- कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥ कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥ सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥ भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरव्दाज मृदु बचन उचारे॥ आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥ सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥ लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हारें दरस आस सब पूजी॥ अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥ दो0-करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार। तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥107॥ सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥ तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥ सो बड सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू॥ मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥ यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी॥ भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए॥ राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोयन लाहू॥ देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥ दो0-राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ। चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ॥108।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-38 ,प्रयाग- चित्रकूट यात्रा प्रकरण-१:- पांचवें दिन सुबह, श्री राम जी ने मुनि भरद्वाज जी को प्रणाम कर,आगे जाने का मार्ग पूछा ?मुनि ने मुस्कुराकर चित्रकूट में रहने का परामर्श दिया,और वहां जाने का मार्ग बताया,और कहा कि आपके लिए सब मार्ग सुगम हैं।मुनि के मुस्कुराने का अभिप्राय है, की मार्गों( त्रियोगों) का पता चारों वेदों से चलता है,जो आप से ही उद्भुत है ।लोक शिक्षा के लिए ही आप हमें आदर देने के लिए पूछ रहे हैं।श्री गीताजी 43.4 में भी तत्वज्ञ से मार्ग जानने को कहा गया है ।मुनि ने चार बटुक (वेदरूप )मार्ग बताने के लिए साथ कर दिए।आज्ञा पाकर श्री राम जी,मुनि को प्रणाम का प्रसन्न चित्त आगे की वन यात्रा के लिए चल दिए। रास्ते में पड़ने वाले गांव के लोग,सुंदर यात्रियों को देखने के लिए,आते-जाते हैं और प्रसन्न होते हैं। जब यमुना के किनारे-किनारे चलने का मार्ग प्रशस्त हो गया,तो रामजी ने विनयकर ब्रह्मचारियों को लौटा दिया।यमुना पारकर नियमानुसार स्नान किया।पास के रहने वाले अपना-अपना काम छोड़कर दर्शन के लिए आते हैं,और बटोहियों की सुंदरता देखकर मुग्ध हो, उनका परिचय जानना चाहते हैं, लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती। उनमें कुछ बुद्धिमान वृद्ध हैं,और अयोध्या की घटना सुन चुके हैं।उन्होंने अनुमान से रामजी को पहचान लिया और ग्राम वासियों को वनवास प्रसंग बताकर कहा कि यह लोग बनवास के लिए जा रहे हैं ।यह सुनकर सब पछताते हैं,की रानी-राजा ने ठीक नहीं किया:- राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥ मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥ साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए॥ सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहि मगु दीख हमारा॥ मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे। जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे॥ करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥ ग्राम निकट जब निकसहि जाई। देखहि दरसु नारि नर धाई॥ होहि सनाथ जनम फलु पाई। फिरहि दुखित मनु संग पठाई॥ दो0-बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम। उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥109॥ सुनत तीरवासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥ लखन राम सिय सुन्दरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥ अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥ जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥ सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई॥ सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥ टिप्पणी :-इस समय एक तेजवान, छोटी अवस्था का तपस्वी आया।कवि तुलसी उसका परिचय न देने के लिए मजबूर हैं। वह विरक्त है और मन- वचन-कर्म से रामजी का प्रेमी है।अपने इष्टदेव को पहचान कर ,उसकी आंखों में जल भर आया, शरीर मैं पुलकावली छा गई ,और उसने राम जी को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया।उसकी दशा का यथार्थ वर्णन संभव नहीं है। श्री रामजी ने प्रेम पूर्वक,पुलकित हो उसे हृदय से लगा लिया,मानो महा दरिद्री को पारस मिल गया हो।ऐसा लगता है,जैसे प्रेम और परमार्थ शरीर धारण कर मिल रहे हों। फिर तपसीने लक्ष्मण जी के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया,लक्ष्मण जी ने अनुराग पूर्वक उठा लिया। फिर उसने श्रीसीता जी के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया।माता ने बालक जानकर उसे आशीर्वाद दिया।निषादराज ने तपस्वी को दंडवत प्रणाम किया,और राम प्रेमी जान आनंदित हो उससे मिले।तपस्वी श्री राम जी के रूपामृत का पान ऐसे कर रहा था,मानो किसी अत्यंत भूखे को सुंदर उत्तम भोजन मिल गया हो। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि यह सब दैहिक मिलन न होकर तुलसी के मनो राज्य में घटित होने वाली घटना है। दोहा 110 .7,8 से 111. 6 तक का प्रकरण अत्यंत रहस्यमय है। तापस कौन है,कहा नहीं जा सकता।इस प्रकरण के बारे में,मानस के विद्वानों में मतभेद है।यमुना किनारे राम जी जहां इस समय है, वह तुलसी की जन्मभूमि राजापुर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर है।राम जी के उस क्षेत्र में पहुंचने पर तुलसी भावावेश में अपने लिंग शरीर से भगवान का स्वागत करने लगे,जिससे उनका लेखन कार्य बंद हो गया।मानस लिखते समय उनके साथ, श्री शिव जी व हनुमान जी की अव्यक्त दिव्य शक्तियां रहती थीं। उन्होंने तुलसी के अव्यक्त शरीर के क्रियाकलाप देखकर उन्हें लिख दिया । सामान्य होने पर,तुलसी ने उस कृति को प्रसाद मानकर,अपने ग्रंथ की मूल में जोड़ लिया। दोहा 109 से 123 तक के काव्यरचना में,संत तुलसी का जन्मस्थान-प्रेम स्पष्ट है। स्वस्थ मानसिक दशा प्राप्त होते ही,तुलसी ने जहां प्रसंग छोड़ा था,वही के आगे का वर्णन प्रारंभ कर दिया - दर्शन के लिए आई ग्राम्य स्त्रियाँ आपस में बातें कर रही हैं, कि हे सखी ! वे माता-पिता कैसे हैं,जिन्होंने ऐसे सुंदर सुकुमार बालकों को बन भेज दिया है।ऐसी बातें करते-करते ग्रामवासी स्नेह के मारे ब्याकुल हो जाते हैं। रघुवीर श्रीराम ने सखा गुह को अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर अपने घर लौटने को कहा।श्री राम जी की आज्ञा शिरोधार्य कर वह श्रृंगवेरपुर लौट गया:- तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥ कवि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥ दो0-सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि। परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110॥ राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥ मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरे तन कह सबु कोऊ॥ बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥ पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥ कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥ पिअत नयन पुट रूपु पियूषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥ ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥ राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥ दो0-तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह। राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह॥111 ।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,अयोध्या कांड-38, प्रयाग-चित्रकूट यात्रा प्रकरण-२:- श्री राम-सीता-लक्ष्मण जी यमुना जी को प्रणाम कर, आगे की यात्रा पर चल पड़े। रास्ते में अनेक यात्री मिलते हैं।तीनों अलौकिक पथिकों को देखकर, आश्चर्य में पड़कर, सम्मान पूर्वक उनको गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाने का प्रस्ताव करते हैं। कृपासिंधु श्री राम जी विनम्रता पूर्वक उन्हें लौटा देते हैं। अवतारी राम के चरण जिन-जिन गांवों, पुरवों में पड़ जाते हैं,वे देवताओं के नगरों से अधिक सम्मानीय हो जाते हैं।मार्ग के समीप बसने वाले उनका दर्शन करके पुण्य आत्मा हो जाने से, देवताओं के ईर्ष्या पात्र बन जाते हैं।नदियां,सरोवर जिनको श्री रामजी का स्पर्श मिल जाता है,वे देव सरोवर और नदियों से श्रेष्ठ मान्य हो जाते हैं।रास्ते को सुखद बनाने के लिए,बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते हैं। तीनों पथिक जिस गांव से निकलते हैं,वहां के बालक,बूढ़े,स्त्री-पुरुष सब कामकाज छोड़ उनके दर्शन के लिए दौड़ पड़ते हैं।उनकी दिव्यता के प्रभाव से सब अत्यंत आनंदित हो उठते हैं।कुछ लोग साथ चलकर दर्शन का लाभ उठाते हैं,तो कुछ हृदय में इन लोगों की छवि को बैठाकर, मानसिक आनंद की अनुभूति करते हैं। पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥ चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥ पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥ राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥ मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥ अगमु पंथ गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥ करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहि जो आयसु होई॥ जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥ दो0-एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन। कृपासिंधु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥112॥ जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥ केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥ जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावति नाहीं॥ पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥ जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि। सीता लखन सहित घनस्यामहि॥ जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥ जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥ परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥ दो0-छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं। देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥113॥ सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥ सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृहकाजु बिसारी॥ राम लखन सिय रूप निहारी। पाइ नयनफलु होहिं सुखारी॥ सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥ बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी। लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी॥ एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥ रामहि देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे॥ एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥ टिप्पणी:-कुछ लोग सेवा भाव से वट वृक्ष के नीचे घास पत्ते बिछाकर,घड़ी भर के लिए थकावट दूर कर लेने का निवेदन करते हैं।कुछ जल लाकर आचमन कर लेने को कहते हैं।कृपालु राम,सीता जी को श्रमिक देख ,और लोगों पर कृपा करने के लिए ,बरगद की छांव में बैठ जाते हैं।सब एकटक देखते हुए इन बटोहियों की सुंदरता,कोमलता और ईश्वरता पर मुग्ध है।दोनों भाइयों के सिरों पर जटा के मुकुट हैं,वक्षःस्थल,भुजा और नेत्र विशाल है, और मुख पर पसीने की बूंदें छलक रही हैं।श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी की सुंदरता को सब लोग मन -बुद्धि को एकाग्र कर देख रहे हैं। गांव की सरल हृदय स्त्रियां,श्री सीता जी के अलौकिक आकर्षण में खींची हुई उनके पास पहुंचकर ,कुछ बातचीत कर, अपने को संतुष्ट करना चाहती हैं। दो0-एक देखिं बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात। कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात॥114॥ एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥ सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥ जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं॥ मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा॥ एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुख चंद चकोरा॥ तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा॥ दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के॥ मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा॥ दो0-जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल। सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥115॥ बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥ राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥ थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से॥ सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -39, प्रयाग- चित्रकूट यात्रा प्रकरण- 3 :-विश्राम करते समय ग्राम्यस्त्रियां सीता जी के पास आकर, बार-बार उनके पैरों पड़ती हैं, और कहती हैं, हे रानी! हे मलकिन !हम गांव की गवाँरियों की ढिठाई को छमा करना।स्त्री स्वभाव (परिचय बढ़ाने की इच्छा) के कारण हम जानना चाहती हैं, कि किशोरवय वाले सांवरे और गोरे राजकुमार,जो अत्यंत कोमल, दिव्य तेज युक्त और परम सुंदर हैं, इनका तुम्हारा क्या संबंध है? प्रेमयुक्त स्वाभाविक वाणी सुनकर,सीताजी संकोच में पड़ गईं। उनके लिए अज्ञात लोगों से इस प्रकार की चर्चा का पहला अवसर है।मृगनयनी सीता जी सकुचाकर,प्रेमभरी मधुर वाणी से बोलीं! जो सुंदर गोरे शरीर के हैं, ये हमारे छोटे देवर हैं,उनका नाम लक्ष्मण है।फिर सीता जी ने अपने चंद्रमुख पर घूंघट डालकर उसके अंदर से टेढी भौहेंकर श्री राम जी की ओर देखते हुए,नेत्रों के इशारे से कहा!ये मेरे पति हैं।इस दिव्य दृश्य को देख और अपना उत्तर पाकर, सभी स्त्रियां ऐसी आनंदित हुई,मानो कंगलों ने धनराशि लूट ली है। वह सीताजी के पैरों पड़ती हैं, साथ में आशीर्वाद भी देती हैं, सदा सुहागिन बनी रहो !और पार्वती जी की तरह प्रिय अर्धांगिनी बनी रहो ! वे विनती करती हैं, हे देवी ! हमपर कृपा बनाए रखना।श्री सीताजी ने उन्हें प्रेम पियासी जान, अपने मधुर वचनों और दिव्य दृष्टि से संतुष्ट कर दिया। इस बीच श्री राम जी से चलने का इशारा पाकर, लक्ष्मण जी ने लोगों से आगे (संभवत बाल्मीकि आश्रम )जाने का मार्ग पूछा? उन्होंने दुखी मन से सुगम, सरल और सीधा मार्ग बता दिया।श्री राम जी ने प्रियवचन कहकर,सब स्त्री पुरुषों को संतुष्ट किया और लक्ष्मण व जानकी सहित यात्रा पर चल पड़े :- बार बार सब लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ॥ राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं। स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवाँरी॥ राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥ दो0-स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन। सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥ कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥ सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥ तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी॥ सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥ सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे॥ बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥ खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥ भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥ दो0-अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस। सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥117॥ पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥ पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥ दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी॥ मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥ तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी॥ सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥ मिटा मोदु मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥ समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥ दो0-लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ। फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥ टिप्पणी :-वापस लौटते समय नर-नारियां आपस में बातें करते हैं,कि विधि को बिल्कुल निरंकुश निर्दय और निडर है। वे नगर की सुख-सुविधाओं और भोग-विलासों की तुलना,बनजीवन की कठिनाइयों से करते हुए कहते हैं,कि जब इन सुकुमार पथिकों को ये सुख नहीं प्राप्त होना है,तो विधि ने उन्हें क्यों ,और किसके लिए बनाया है?ऐसा जान पड़ता है,कि यह तीनों उनकी सृष्टि के बने हुए नहीं हैं,अतः दैव उनके प्रति ईर्ष्यालु है। कुछ लोग सरलता से कहते हैं -कुछ हो,हम भाग्यशाली हैं जो इनका दर्शन कर रहे हैं।वे सब भी पुण्यवान है,जिन्होंने इनको देखा है,देखरहे हैं और आगे देखेंगे। यह सोच-सोच कर कि ये सुकुमार शरीर धारी दुर्गम मार्गों में कैसे चलेंगे,उनकी आंखों में प्रेमाश्रु भर आए हैं:- फिरत नारि नर अति पछिताहीं। देअहि दोषु देहिं मन माहीं॥ सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥ निपट निरंकुस निठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू॥ रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥ जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥ ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥ ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥ तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥ दो0-जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार। बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥119॥ जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं॥ एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥ जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी॥ देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥ इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा॥ कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥ एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं॥ ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥ दो0-एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर। किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥120॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-40, प्रयाग-चित्रकूट यात्रा प्रकरण-4 :-घड़ी भर विश्राम कर, दिव्य पथिक फिर चल पड़े। ग्रामवासी स्त्री-पुरुष इन लोगों के विषय में तरह-तरह की कल्पनाएं करते हुए घर लौटे।जो लोग इनके दर्शन करने नहीं जा पाए थे, वे उनके अलौकिक सौंदर्य की बातें सुनकर दौड़कर उन्हें जाकर देखते हैं,और आनंदित होते हैं। बच्चे,बूढ़े तथा गर्भवती स्त्रियां आदि, दर्शन न पा पाने के लिए पछताते हैं।जिस-जिस गांव से ये लोग निकलते हैं,वहां आनंद छा जाता है।दशरथ- कैकेयी और ब्रह्मा जी को लेकर ग्रामवासी आपस में अनेक काल्पनिक चर्चाएं करते हैं।पथिक श्री राम-सीता-लक्ष्मण वन देखते और लोगों को सुख देते हुए चले जा रहे हैं। उनकी सुंदर कथा सारे मार्ग और जंगल में छाती जा रही है:- नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकई साँझ समय जनु सोहीं॥ मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥ परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥ जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥ जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं॥ जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥ सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥ समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥ दो0-अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं॥ होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥121॥ गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥ जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥ कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू॥ कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं॥ ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए॥ धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥ सुख पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही॥ राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥ दो0-एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत। जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥122॥ टिप्पणी :-अवतार की लीलाएं साधकों के लिए सर्वकालिक शिक्षा के लिए होती हैं।पथिक लक्ष्मण ➡सीता➡राम की झांकी, ज्ञानयोगी साधक के लिए ऐसे हैं,जैसे अंतरंग शक्ति( सीता जी) जीव (लक्ष्मण) को सहज प्रेमवस ब्रह्म (राम) से जोड़े हुए हैं।वही झांकी कर्मयोगी साधक के लिए रामजी की अनुगामिनी श्रीसीता जी माया शक्ति हैं, जीव लक्ष्मण दोनों का अनुगामी है।जैसे वसंत ,रति और कामदेव दोनों का सेवक है।वही झांकी भक्तयोगी साधक के लिए,शरणागत भक्त श्रीलक्ष्मण पर, परमात्मा श्रीराम की कृपाशक्ति सीताजी द्वारा कृपा की सहज वर्षा हो रही है।चंद्रमा श्री तारा का पुत्र है,लेकिन रोहणी जी अपना पुत्र मानती हैं। लक्ष्मणजी को सीताजी ने पुत्रवत मानती हैं,यद्यपि वे सुमित्रा जी के पुत्र हैं।भगवतकृपा केवल शरणागति देखती है। श्री राम-लक्ष्मण-सीता की सुंदर परस्पर प्रीति बचन-इंद्रियों का विषय नहीं है ।श्रीराम बटोही की अलौकिक छवि ने पशु-पक्षियों तक के चित्त को आकर्षित कर लिया है। जिन भक्तों के हृदय में बटोही श्री राम-सीता- लक्ष्मण की छवि का स्मरण बना रहता है,उनको संसार के आवागमन से छुटकारा मिल जाता है। श्रीराम जी ने श्रीसीता जी को थकी जानकर,और पास में वट वृक्ष और शीतल जल की सुविधा देख, रात्रि-विश्राम के लिए वहीं ठहर गए।सब ने कंद-मूल-फल का आहार किया और शयन किया।फिर प्रातः काल उठकर नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो,आगे की यात्रा पर चल पड़े। शीघ्र ही सुंदर बन,तालाब तथा पर्वत देखते हुए, तीनों पथिक ,चारों तरफ से दिव्य प्राकृतिक संपदा और दृश्यों से घिरे वाल्मीकि आश्रम पहुंच गए । रघुश्रेष्ठ श्री राम जी का आगमन सुनकर मुनि बालमीक जी उन्हें लेने के लिए आगे आए:- आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥ उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे॥ बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥ उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥ प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥ सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥ राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई॥ खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥ दो0-जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ। भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥123॥ अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥ राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई॥ तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी॥ तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥ देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥ राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥ सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥ खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥ दो0-सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन। सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥124
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -41, ऋषि बालमीक -श्रीराम मिलन और श्रीराम जी का आध्यात्मिक स्वरूप:-मुनि के मिलते ही श्रीराम ने उनको दंडवत किया।बिप्रश्रेष्ठ वाल्मीकि जी ने आशीर्वाद दिया और आदर सत्कार के साथ आश्रम ले आए ।मुनिवर ने प्रांणप्रिय अतिथियों को उत्तम कंद-मूल-फल का भोग लगाया और फिर आश्रम में विश्राम स्थान दिया। बाल्मीकि जी श्री राम जी के दर्शन से ब्रह्मानंद में मग्न है।रामजी हाथ जोड़कर उनसे बोले, हे मुनिनाथ !आप त्रिकालज्ञ हैं।आप सारे जगत को हाथ पर रखे बेर के समान अच्छी तरह जानते हैं। और फिर अपने बनवास की पूरी कथा विस्तार से सुनाई,साथ में अपने लिए घटना से होने वाले लाभ भी बताए- इससे पिता की आज्ञा का पालन हुआ, माता की इच्छा पूरी हुई, प्रिय भाई राजा बना और मुझको आप का सत्संग मिला,जो मेरे पुण्य का फल है। हे मुनिराज ! आपके दर्शन से हमारे सुकृत सफल हो गए।अब आप मुझे ऐसा स्थान बताएं जहां पर्णकुटी बना कर कुछ काल तक निवास करूं। वहां मेरे रहने से,किसी मुनि व तपस्वी को उद्वेग नहीं पहुंचना चाहिए। मुनि बोले ,साधु !साधु! हे रघुवंश की ध्वजा!ऐसा सकारात्मक सोच आप के योग्य ही है।आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन करने वाले हैं:- मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥ मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए॥ सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥ बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥ तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥ तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा॥ अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥ दो0-तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ। मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥125॥ देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥ अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥ मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥ मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥ अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥ तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला॥ सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥ कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥ टिप्पणी:-इसके बाद मुनिराज बालमीक जी ने, श्रीराम को उत्तर देने के बहाने से, हम सब जीवो के कल्याण हेतु,परमात्मा की आध्यात्मिक,आधि दैविक और आधिभौतिक रूप का परिचय देना प्रारंभ किया। पहले परमात्मा के आध्यात्मिक स्वरूप (परमार्थिक सत्य) का निरूपण करते हुए,मुनि बोले,हे श्रीराम ! आप वेद के रक्षक हैं,जगत के स्वामी हैं।श्री जानकी जी आपकी आदि शक्ति हैं, जो आपका संकेत पाकर जगत की उत्पत्ति,पालन और संहार करती हैं। चराचर के स्वामी लक्ष्मण जी,पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग (समष्टि आत्मा) के अवतार हैं।देवताओं के कार्य सिद्धि के लिए मानव रूप धरकर आप दुष्ट निशाचरों का नाश करने चले हैं। हे राम ! आप का निवास स्थान वाणी का विषय नहीं है बुद्धिसे परे अविगत अकल्पनीय और अपार है।वेद व्यक्त सृष्टि का निषेध करके( व्यतिरेक बिधि) ही आप का वर्णन कर पाते हैं। जगत कठपुतली का नाच है। आप द्रष्टा हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश नचाने वाले हैं।लेकिन वे भी आपको पूरी तरह नहीं जानते।आपको जानते ही स्वरूप स्थिति हो जाती है।आपकी कृपा से ही भक्त आपको जान पाता है। आपकी देह सत- चित -आनंद मय तत्व से बनी है,विनाश रहित है,इसे अधिकारी ही जान पाते हैं।देवताओं और संतों के काम के लिए,मानव शरीर धारण किया है।इसलिए मानव-राजा की तरह बातें और व्यवहार करते हैं।तुम्हारे चरित्र को देख-सुन आसुरी प्रकृति वाले मोहित हो जाते हैं और देवी प्रकृति वाले सुखी हो जाते हैं।जैसा भेष बनावे तदानुकूल अभिनय करना ही उचित है। आपने निसंकोच पूछ लिया "मैं कहां रहूं", लेकिन मुझे पूछने में संकोच हो रहा है कि "आप कहां नहीं है"। यदि ऐसा कोई स्थान हो, तो वही आपके रहने योग्य है:- छं0-श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी। जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की॥ जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी। सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥ सो0-राम सरुप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर। अबिगत अकथ अपार नेति नित निगम कह॥126॥ जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥ तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥ सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥ तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥ चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥ नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥ राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥ तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥ दो0-पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ। जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥127।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-42, ऋषिवाल्मिक- श्रीराम मिलन व श्री रामजी का आधिदैविक स्वरूप:-श्रीबाल्मीकि के वचन सुन ,श्रीराम जी मन ही मन में मुस्कुराए- की ऋषि हमारे अवतार का रहस्य खोले दे रहे, जबकि हम उसे गुप्त रखना चाहते हैं।वाल्मीकि जी अब श्री राम जी के आधिदैविक स्वरूप का बोध कराने लगे।वे भगवान को रहने के लिए 14 अव्यक्त स्थान बताते हैं। ये स्थान और कुछ न होकर भक्तों की हृदय हैं।यदि उनके द्वारा बताए गुणों के लिए साधक साधना करें,तो क्रमिक आध्यात्मिक विकास होता जाएगा और जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाएगी।यदि प्रसंग में कहे, दो-दो स्थानों के गुणों को मिलाकर विचार करें,तो भक्तिपंथ साधना में विकास की क्रमवृद्ध श्रंखला के सात सोपान बन जाते हैं।यथा:-धर्म➡ वैराग्य➡विवेक (नवधाभक्ति)➡मोक्ष➡ ब्रह्मबोध➡विज्ञान➡पराभक्ति।इन्हीं को मानस के सातों सोपानो (कांडों )में कथा के माध्यम से समझाया गया है।एक प्रकार से मुनिका कथन, अर्द्धाली- एहि मँह रुचिर सप्त सोपाना। रघुवर भगति केर पंथाना।। 7.129.3।। का तत्वार्थ है। 1️⃣धर्म-पहले सोपान बालकांड में कथाश्रवण एवं रूपाशक्ति द्वारा प्रपन्न भक्तों की भूत शुद्धि हो जाती है।यही, भक्तों -भरद्वाज,उमा, मनु-सतरूपा, जनक, व जनकपुर वासियों के चरित्र में दिखाया गया है :- सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥ बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥ सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥ जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥ भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे॥ लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥ निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥ तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥ 2️⃣वैराग्य:-दूसरे सोपान अयोध्या कांड में,भक्त रसना-इंद्रिय से भगवान के गुणों का कीर्तन करता है।प्रभु की दिव्य गुण - धैर्य, गंभीरता,उदारता, सुशीलता, वात्सल्य,करुणा आदि अनंत है।चौथी प्रकार के भक्तों में पूजाशक्ति व अर्चना-भक्ति देखी जाती है,जो भक्तों के मन और बची हुई 7 इन्द्रियों- नासिका,त्वचा,मुख,सिर,हाथों व पैरों को भगवान की सेवा में लगाए रखती है।यही निष्काम योगी होते हैं।इन्हें संसार से वैराग्य रहता है।दूसरे अयोध्याकांड में चक्रवर्ती जी,अयोध्यावासी एवं श्रीभरत जी इस श्रेणी के भक्त हैं:- दो0-जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु। मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥128॥ प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥ तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥ सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥ कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा॥ चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥ 3️⃣विवेक:- तीसरे सोपान अरण्यकांड में पहुंचे भक्त, वे होते हैं जिनकी पहले भूत-शुद्धि और चित्त-शुद्धि हो चुकी होती है।और उन्हें जड़-चेतन का विवेक होता है,अतः वे अपने को जप,पितृकर्म व देवकर्म मैं लगाए रखते हैं।काम,क्रोध, मद,लोभ,मान, मोह,भय से ऊपर उठे रहते हैं,इस कांड में श्री रामजी ने, लक्ष्मणजी को पूरे भक्ति पथ का और शबरी माता को नवधा भक्ति का उपदेश दिया है।अत्रि आदि ऋषिगण पांचवें और नारद जी छठे प्रकार के भक्त हैं।इसी कांड में शरभंग जी,जटायु जी तथा शबरी माता ने जड़ शरीर को त्याग कर,चेतन से संबंध जोड़ा है:- मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥ तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥ तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥ दो0-सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ। तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥129॥ काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥ जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥ 4️⃣मोक्ष:- चौथे सोपान किष्किंधा में आरूढ़ विवेकी भक्त, जड़ता से तादात्म्य छोड़,समष्टि आत्मा से एकता का अनुभव कर,मुक्त हो जाता है, और अनन्य शरण गत हो जाता है।उनको संसार से कुछ नहीं चाहिए ।वे सबको अपनी आत्मा में ही स्फुरित जान,उनके सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानते हैं।चौथे किष्किंधा कांड में, संत हनुमान जी के सत्संग से सुग्रीव जी का भगवान से मिलन हो जाता है और उन्हें राज्य की भी प्राप्ति होती है।शरीर छोड़ते समय बालि को अपनी भूल का अनुभव होता है और वह शरणागत हो मुक्त हो जाता है:- सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥ कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥ तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥ जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥ जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥ जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥ 5️⃣ब्रह्मबोध:- पांचवें सोपान सुंदरकांड में आरूढ़ आत्मज्ञानी भक्त, सांसारिक मोह तथा सारे अभिमान का त्याग कर, भगवान की आंतरिक शक्ति के आशीर्वाद से परमब्रह्म में स्थित हो जाता है।हनुमान जी ने प्राणों की परवाह न कर, समुद्र लांघकर गो-ब्राह्मण के हत्यारे राक्षसों को मार, अपने इष्ट की सेवा की और श्रीराम की अंतरंग शक्ति सीता जी की खोज कर ,उनके आशीर्वाद से श्री रामजी से पराभक्ति का वरदान पाया।संत हनुमान के सत्संग से विभीषण जी,ब्रह्म राम के शरणागत हो गए:- दो0-स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात। मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥130॥ अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥ नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥ 6️⃣विज्ञानयुक्त ज्ञान:- छठे सोपान लंकाकांड के अनुसार जीव को ब्रह्म,मायाशक्ति(समष्टि आत्मा), तथा दृश्यजगत के परस्पर संबंध को जान,विज्ञान युक्त हो, प्रेमभाव से भजन करना है।आसुरी संबंध छोड़,शरणागत हुए बिभीषण कोलंका का राजा बनाने के लिए,स्वयं भगवान रामजी ने सारी आसुरी शक्तियों का विनाश किया।वानर वीरों द्वारा देह- प्राण का मोह छोड़,भगवान की सेवा करने के लिए,उन्हें कैवल्य पद मिल गया।समष्टि का ठीक- ठीक बोध होने से ही,परमात्मा के अतिरिक्त सारे जगत-संबंध का त्याग संभव हो पाता है:- गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥ राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥ जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥ सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥ 7️⃣पराभक्ति:- सातवें सोपान उत्तरकांड पर आरूढ़ साधक, भक्त के परम लक्ष्यपरा भक्ति को प्राप्त कर लेता है।वह अनन्य शरणागत हो संसार का पूरी तरह विस्मरण कर,भगवान श्री राम जी का स्मरण और भजन करता रहता है।भरत जी ने 14 वर्ष की तपस्या और जपयज्ञ द्वारा अयोध्या (ह्रदय)में रामराज्य स्थापित कर लिया।काक- भुसुंडि की आत्मकथा पराभक्ति प्राप्त करने का मार्ग है:- सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥ करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥ दो0-जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥131।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-43 ऋषि बाल्मीकि-रामजी का मिलन और व्यावहारिक निवास स्थान का निर्धारण :-ऋषि बाल्मीकि बोले हे सूर्यकुल के स्वामी ! अब जैसा रूप आपने धारण किया हुआ है,चलो उसके रहने के अनुकूल सुखद स्थान दिखाएं। ऐसा कह, बाल्मीकि जी मुनि मंडली के साथ रामजी को लेकर चित्रकूट (कामदगिरि) के पास मंदाकिनी नदी के घाट के लिए चले।रास्ते में उन्होंने नदी और चित्रकूट गिरी की महिमा बता दी, और कहा कि यहां अत्रि आदि श्रेष्ठ मुनि रहते हैं। सब की तपस्या को सफल कीजिए और कामदगिरि पर रहकर उसे गौरव प्रदान कीजिए। अत्रि और उनकी पत्नी अनुसुइया जी के तप से प्रसन्न हो,गंगा जी मंदाकिनी धारा के रूप में अनुसूया आश्रम में एक कुंड से प्रकट होती हैं,और वही से निकलकर, कामदगिरि के पास से होती हुई,यमुना नदी में मिल जाती हैं।अब राम जी से मुनि विदा हो गए,लेकिन यह प्रसंग मानस में नहीं है :- कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥ चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥ सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥ नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तपबल आनी॥ सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥ अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥ चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥ दो0-चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ। आए नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥132॥ टिप्पणी:- दोनों भाइयों ने श्रेष्ठ नदी में स्नान किया। श्री रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा घाट अच्छा है, यहां रहने का प्रबंध किया जाए।लक्ष्मण जी ने देखा,मंदाकिनी की उत्तर तट में धनुष के आकार का नाला (बरसाती जल के लिए) है जिसकी प्रत्यंचा स्वरूप मंदाकिनी है।नाले को पयस्वनी नदी कहा जाता है,जो सामान्यतया सूखा रहता है ,बरसात में जल भर जाता है।यह कामदगिरि के मूल से निकलकर जिस स्थान पर मंदाकिनी से संगम करता है,उसे राघव-प्रयाग या रामघाट कहा जाता है।लक्ष्मण जी ने इस स्थान को दिखाया,जो श्री रामजी को भी अच्छा लगा।देवताओं को पता चल गया कि राम जी को इस स्थान भा गया है अतः वे तुरंत विश्वकर्मा की सहित कोल किरात के वेश में आकर,पत्तों और तृण से दो सुंदर कुटियाँ (एक बड़ी एक छोटी) बना दीं। पर्णकुटी में श्री लक्ष्मण, जानकीजी सहित श्री राम जी विराजमान हो गए:- रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥ लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥ नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना॥ चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥ अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥ रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना॥ कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥ बरनि न जाहि मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥ दो0-लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत। सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥133॥ टिप्पणी:- देवता,नाग, किन्नर,दिगपाल आदि देव शरीरधारी,उस समय चित्रकूट आए।श्री रामजी ने मानव शरीर धारण करने के नाते, उनको प्रणाम किया,और उन्होंने राम जी के सनमान में फूल बरसाए और विनती कर कहा, की हेप्रभु ! हम सब अनाथों की तरह राक्षसों द्वारा दिए दुख सह रहे थे। आपके आने से हम सब सनाथ हो गए।देवता लोग विनती कर,प्रसन्न चित्त यथा स्थान लौट गये। चित्रकूट में रहने वाले मुनियों को पता चला,कि राम जी यहां रहने लगे है,अतः प्रसन्न चित्त झुंड के झुंड वे आए।श्री रामजी ने उनके सम्मान में दंडवत किया।मुनियों ने हृदय से लगा कर आशीर्वाद दिया- कि आपको राक्षसों का सफाया करने के लक्ष्य में सफलता मिले।प्रभु ने मुनि वृंद का यथा योग्य सम्मान करके विदा किया।वे सब लौट कर निश्चिंत हो, अपने-अपने आश्रमों में जप, तप तथा योग आदि की साधना करने लगे:- अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥ राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥ बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥ करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥ चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥ आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥ मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं॥ सिय सौमित्र राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥ दो0-जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद। करहि जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥134।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-44 ,श्रीराम -लक्ष्मण -सीता जी का चित्रकूट में निवास:-बनवासी कोल-भीलों को खबर लग गई कि रघुनाथ जी चित्रकूट में आकर बस गए हैं। वे इतने प्रसन्न हैं, मानों नौ निधियां -पद्म, महापद्म, मकर,कच्छप, मुकुंद,नंदक, नील, शंख और खर्व, घर बैठे उनके पास आ गई हों। वे सब भेंट के लिए,दोनों में कंद-मूल-फल लेकर राम जी के पास ऐसे चले हैं,मानो सोना लूटने जा रहे हों। रास्ते में भगवान की अलौकिक सुंदरता की चर्चा करते हैं।वहां पहुंचकर भेंट को आगे रखकर प्रणाम करते हैं और प्रभु को प्रेम मग्न हो देखते हुए काष्ठ- मौन हो,चित्र-लिखे से इधर-उधर खड़े हो जाते हैं।भगवान ने उनके प्रेम को देख, प्रिय वचन कहकर सम्मान दिया।वे प्रभु को बार-बार प्रणाम कर कहते हैं, हे कोशलराज ! आपका यहां आना,हमारे भाग्य से हुआ है,अब हम सनाथ हो गए।वे कहते हैं, हे नाथ ! आपके पैर जहां पड़ते हैं वह भूमि धन्य हो जाती है। जिसको आपका दर्शन हो जाता है,उसका जन्म सफल हो जाता है।आपने रहने का यह स्थल ठीक चुना है,यह हर ऋतु के लिए सुहावना है। हम सब कुटुंब सहित आपके सेवक हैं,आप आज्ञा देने में संकोच न करिएगा।यहां के चप्पे-चप्पे की जानकारी हमें है, यदि आप आखेट खेलेंगे,तो हमसब हकवारे बनकर आपकी सेवा में रहेंगे।जिन भगवान की महिमा अपरंपार है,वे करुणानिधान भीलों की बातों में ऐसे रुचि ले रहे हैं,जैसे पिता अपने पुत्र की तोतली बोली में लेता है:- यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥ कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥ तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहि मगु जाता॥ कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥ करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥ चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥ राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥ प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥ दो0-अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय। भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय॥135॥ धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥ धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥ हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥ कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥ हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥ बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥ तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥ हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥ दो0-बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन। बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥136॥ टिप्पणी:-हर श्रेणी की साधक को जान लेना चाहिए, कि प्रभु को केवल प्रेम प्रिय है,अतः प्रत्येक साधना का प्रेम युक्त रहना अनिवार्य है। बनवासी कोल-भीलों को मधुर वचनों से संतुष्ट कर उन्हें विदा कर दिया।वे सब माथा नवाकर, प्रभु के गुणें को आपस में कहते-सुनते घर लौट गए। इस प्रकार सुर-मुनि सबको सुख देते हुए,दोनों भाई श्रीसीता सहित वन में रहने लगे। प्रभु सर्वव्यापक हैं,अतः चित्रकूट की सारी प्रकृति ,पंचभूतों,पेड़-पौधों,पशु-पक्षियों सभी में रामजी के दिव्य प्रभाव से उल्लास व्याप्त हो गया। नीलकंठ,कोयल,तोते,पपीहे तथा चकोर आदि पक्षी, तरह-तरह की चित्त को चुराने वाली बोलियां बोलकर अपने हर्ष को व्यक्त करने लगे।भगवान रामजी के अलौकिक प्रभाव से चित्रकूट की सारी सृष्टि तथा जीव जंतु आनंदित और श्रेष्ठतम हो उठी। हाथी,सिंह,बंदर,शूकर तथा हिरन आदि स्वाभाविक वैरभाव भूल गए।संसार भर के सारे देवताओं के बन, चित्रकूट के बन की ईर्ष्यापूर्ण श्रेष्ठता स्वीकार करते हैं।अनेक तालाब,समुद्र,श्रेष्ठ नदियां - गंगा,जमुना',नर्मदा आदि सभी मंदाकिनी की बड़ाई करती हैं।कैलाश,मंदराचल,सुमेर तथा हिमाचल आदि जितने श्रेष्ठ पर्वत हैं,सब चित्रकूट का यश गाते हैं।विंध्याचल अत्यंत प्रसन्न है,क्योंकि उसकी एक छोटी श्रृंग की श्रेष्ठता सबको स्वीकार है। चित्रकूट के पंछी, पशु,बेलें, वृक्ष तथा तिनके आदि सभी पुण्यवान और धन्य हैं, ऐसा देवता लोग दिन-रात कहते रहते हैं:- रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा॥ राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥ बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥ एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥ जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥ फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना॥मंजु बलित बर बेलि बिताना॥ सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥ गंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥ दो0-नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर। भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥137॥ केरि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥ फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबंद बिसेषी॥ बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बनु सकल सिहाहीं॥ सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥ सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥ उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥ सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥ बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥ दो0-चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति। पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥138।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-45,श्रीराम -लक्ष्मण -सीता जी के वनवास का वातावरण पर प्रभाव और उनकी दिनचर्या:-जो जीव रघुनाथ जी के दर्शन पा जाते हैं, वे आवागमन की चिंता से मुक्त हो जाते हैं। जो (पृथ्वी,पर्वत,वृक्ष) उनके चरणों की धूल का स्पर्श पा जाते हैं,वे परमपद के अधिकारी हो जाते हैं। जहां भगवान ने निवास किया, वे बन तथा पर्वत सहज ही सुहावने, मंगलप्रद तथा पवित्र करने वाले हो जाते हैं।श्रीसीता-राम-लक्ष्मण जी का क्षीरसागर व अवध छोड़कर,बन में आकर रहना, वहां के लिए बड़ी उपलब्धि है।ऐसे बन की महिमा का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता,जहां सुखसागर राम जी निवास करने लगे हों:- नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥ परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥ सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन॥ महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥ पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥ कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होंहिं सहसानन॥ सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥ टिप्पणी:-श्री सीतारामजी की, श्री लक्ष्मणजी मन- कर्म-वचन से सेवा करते हैं।उनके चरणों को देखकर,और अपने ऊपर उनका वात्सल्य प्रेम का अनुभवकर, वे अयोध्या की व माता-पिता की और घर की याद नहीं करते। श्री सीताजी,अवधनगर, कुटुंबियों और घर की याद भूलकर, श्री राम जी के साथ सुख से रहने लगीं। स्वामी का प्रेम अपने ऊपर नित्य प्रति बढ़ता देख,ऐसी प्रसन्न है, जैसे चकवी दिन में चकवे के साथ प्रसन्न रहती है।बन उनको हजारों अवध के समान प्रिय लगने लगा। पर्णकुटी प्यारी लगने लगी। हिरण और पंछी प्यारे कुटुंबी हो गए।मुनि और उनकी पत्नियां ससुर-सास के समान हैं,और कंदमूल का भोजन अमृत के समान प्रिय हो गया। स्वामी के साथ कुश और नवीन पत्तों से बनी साथरी अत्यंत सुख देने वाली हो गई।जिनकी कृपा कटाक्ष से, जीव इंद्र और लोकपाल बन जाते हैं, उसके लिए सांसारिक भोग विलास तुच्छ हैं।श्री रामजी का स्मरण करने से भक्तों के लिए विषय- विलास तिनके की समान त्याज्य हो जाते हैं ,फिर श्री सीताजी तो राम जी की प्रिय पत्नी है और जगत माता हैं,उनके लिए ऐसा जीवन कोई आश्चर्य की बात नहीं है। श्री राम भी वही करते और कहते हैं,जिससे श्री सीता-लक्ष्मण जी सुखी हों। कभी-कभी वे माता-पिता, कुटुम्बी तथा भाई भरत के प्रेम की याद करते हैं,तो नेत्रों में जल भर आता है।उन्हें देखकर श्री सीता-लक्ष्मण जी भी व्याकुल हो जाते हैं, वैसे ही जैसे परछाहीं अपने बिंब का अनुकरण करती है।तब कुसमय समझ, श्री रामजी धैर्य धारण कर कुछ पवित्र कथाएं कहने लगते हैं,जिन्हें सुनकर श्री लक्ष्मण-सीता जी सुख पाते हैं। श्री लक्ष्मणजी और श्री सीताजी सहित श्री राम जी पर्णकुटी में ऐसे शोभित हो रहे हैं,जैसे जयंत और इंद्राणी सहीत इंद्र अमरावती में शोभित होते हैं ।श्री रामजी, श्री सीता-लक्ष्मण जी की वैसे ही रक्षा करते हैं,जैसे नेत्रों की पलकें गोलक की रक्षा करती है ।श्री लक्ष्मण जी, श्री सीताराम जी की ऐसी सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी जन अपने शरीर की रक्षा करते हैं।प्रभु सब को सुख देते हुए बन में आनंद पूर्वक बास करने लगे। वनगमन का प्रसंग कहकर संत तुलसी अब सुमंत्र व अवध की व्यथा कहने लगे:- सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥ दो0–छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु। करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥139॥ राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥ छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी॥ नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥ सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥ परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥ सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥ नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥ लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥ दो0–सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु। रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥140॥ सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहि सोइ कहहीं॥ कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी। जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥ सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥ कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥ लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥ प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥ लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥ दो0-रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥141॥ जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥ सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥ एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥ कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-46, निषाद का श्रृंगवेरपुर लौटना और सुमंत्र का विषाद:- निषाद जमुनापार तक प्रभु को पहुंचाकर श्रृंगवेरपुर लौटा, तो उसने सुमंत्र और रथ को वहीं पाया,जहां 4 दिन पहले छोड़कर गया था।निषाद को अकेला और अपने लिए कोई सकारात्मक संदेश न पा सुमंत्रजी तीव्र विशाद से भर गए और राम, राम, राम -सिया- लखन कहकर भूमि पर गिर पड़े। घोड़े दक्षिण दिशा (जिधर राम जी गए थे) की ओर देखकर हिहिनाते हैं ।न घास चरते हैं,न पानी पीते हैं,नेत्रों से जल गिरा रहे हैं।घोड़ों की यह दशा देखकर सारे निषाद व्याकुल हो गए। धैर्य धारण कर ,निषादराज बोले ! सुमंत्रजी अब शोक छोड़ो,जो होना था हो गया।तुम पंडित हो, परमार्थ जानने वाले हो।विधाता को प्रतिकूल जानकर धीरज धरो।इस बीच वह मीठी वाणी में, पिछले ढाई दिनों की घटी घटनाओं की कथा भी सुनाता रहा।जब बात नहीं बनी,तो उसने सहारा देकर सुमंत्र जी को रथ पर बिठाया।शोक के मारे उनके अंग शिथिल पड़ गए हैं, रथ हाँकने की स्थिति में नहीं है।घोड़े भी छटपटाते हैं,चलते नहीं अड़ जाते हैं, मानो जंगली घोड़े बिना ट्रेनिंग के रथ में जोत दिए गए हैं,जबकि ये अयोध्या राज्य के तीव्रगामी सर्वश्रेष्ठ घोड़े हैं।राम जी के वियोग में घोड़े व्याकुल हैं।यदि कोई राम,लक्ष्मण,वैदेही का नाम ले लेता है,तो उसकी और प्रेम से कराह- कराह कर देखने लगते हैं।घोड़ों की दशा वैसी ही हो रही है, जैसे मणि छिन जाने पर सर्प व्याकुल हो जाता है । मंत्री और घोड़ों की दशा देखकर निषादराज दुख से भर गए।उन्होने चार उत्तम सेवक सुमंत्र जी के साथ कर दिए ,जो चारों घोड़ों की लगाम पकड़े अवध की ओर चल दिए।घोड़ों की दशा देखकर वे भी दुखी हो रहे हैं:- कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥ फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥ मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥ राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥ देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥ दो0-नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि। ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥142॥ धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥ तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥ सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥ चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥ अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥ जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥ बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती॥ दो0-भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग। बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥143॥ गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥ चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहि छनहिं छन मगन बिषादा॥ टिप्पणी :- शोकाकुल सुमंत्रजी, मानसिक संकल्प विकल्प में उलझे हुए,अत्यंत दीन-हीन हो रहे हैं। सोचते हैं, श्री राम के बिना अधम शरीर छूट जाना चाहिए था,लेकिन नहीं छूटा। प्राण ही देह छोड़ देते, पता नहीं वे किस मोह में फंसे हैं।अंतःकरण विदीर्ण हो जाता तो भी दारुण दुख में जीवन समाप्त हो जाता,वह भी नहीं हुआ।आत्मग्लानि बस ऐसे पछता रहे हैं, जैसे कोई कंजूस अपना सारा धन गवा बैठा हो और श्रेष्ठ योद्धा युद्ध भूमि से बिना लड़े ही भाग चला हो।सुमंत्र जी ब्राह्मण हैं, विवेकी हैं, वेद विद हैं, संतो द्वारा मान्य हैं, उच्च पद पर प्रतिष्ठित हैं। लेकिन पांचों योग्यताएं उस समय व्यर्थ हो गईं, जब रामसनेह-सुरा के प्रभाव में श्री राम-सीता-लक्ष्मण जी को जनता से अलग कर, रथ द्वारा गंगा तट तक पहुंचा दिया,लेकिन श्री सीता जी को लौटा लाने की दशरथ जी की इच्छा पूरी न कर सके। अब श्री राम जी के बिना अयोध्या में वैसे ही रहना होगा, जैसे पतिव्रता स्त्री विवशता में पति से अलग होकर, मइके में जीवन काटती है:- सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥ रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥ भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥ अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥ मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहँ कृपन धन रासि गवाँई॥ बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥ दो0-बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति। जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥144॥ जिमि कुलीन तिय साधु सयानी।पतिदेवता करम मन बानी।। रहे करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड- 47, दुखित सुमंत्र का लौटकर अवध पहुंचना:- रथ पर बैठे सुमंत्र जी अवध लौट रहे हैं।उनके लिंगशरीर के अभिव्यंजक-संस्थान स्थूल शरीर पर भी,आंतरिक दुख के लक्षण प्रकट हो रहे हैं।आंखों-कानों से कम दिखाई-सुनाई पड़ रहा है।होंठ सूख रहे हैं, मुंह में लाटी लग गई है, बुद्धि ठिकाने नहीं है। वैसे तो यह प्राणान्त के लक्षण हैं,किंतु ह्रदय गुहा के किवाँड़े 14 वर्ष के लिए बंद है,अतः निकल नहीं पा रहे हैं। सुमंत्र जी का शरीर पीला पड़ गया है,और भविष्य में आने वाली दुखद परिस्थितियों की वैसे ही चिंता कर रहे हैं,जैसे पापी जीव नरक जाते समय रास्ते में याद करता है।वे सोचते हैं- नगर के लोग दौड़कर, श्री राम जी के बारे में पूछेंगे,तो हृदय पर पत्थर रखकर उत्तर तो देना ही पड़ेगा! सब मातायें( 700 )पूछेगी,तो हे भगवान ! क्या उत्तर देंगे? सुमित्रा जी के लिए मेरे पास कौन सा सुखद संदेश है?कौशल्या माता नई ब्याई गाय के समान अपने बछड़े( श्री राम )को देखने दौड़ेगी,तो उनसे क्या कहेंगे ?जो-जो भी पूछेगा,सबके लिए एक ही उत्तर है - श्री राम-लखन-वैदेही बन को चले गए। राजा दशरथ पूछेंगे! तो कहना पड़ेगा !मैं राजकुमारों को कुशलता से बन छोड़ आया हूं! लखन -सीता -राम जी का संदेश सुनते ही राजा तृणवत शरीर छोड़ देंगे।मेरा हृदय तो नीच-कीचड़ से भी नीच हो गया है, जो कम से कम अपने प्रियतम पानी के उड़ जाने से फट जाता है।मैं जानता हूं की विधाता ने मुझे यातना शरीर दिया है, जो नरक में जीवो को भीषण यातना भोगने के लिए मिलता है।उसकी विशेषता है,की दारुण कष्टों की अनुभूति सो जीव को कराता रहता है,लेकिन स्वयं नष्ट नहीं होता:- लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥ सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥ बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥ हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥ बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥ राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥ दो0–धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि। उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥145॥ पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता॥ पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥ राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥ पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥ जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥ पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥ देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥ सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥ दो0–ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु॥ जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु॥146॥ टिप्पणी:-रास्ते में सुमंत्र जी पश्चाताप कर रहे हैं। इतने में तमसा किनारे रथ पहुंच गया।उन्होंने विनती कर निषादों को विदा किया।वे पैरों-पड़ , दुख से व्याकुल,लौटे। नगर में घुसते हुए सुमंत्र जी को ऐसी आत्मग्लानि हो रही है,जैसे उन्होंने गुरु, ब्राह्मण और गऊ की हत्या कर दी हो। जनता से बचने के लिए उन्होंने पेड़ के नीचे रुककर दिन बिताया,और अंधेरा होते ही अयोध्या में प्रवेश किया।वे चुपके से रथ को दरवाजे पर छोड़, महल में घुस गये। जिन लोगों को यह समाचार मिला वे दौड़कर रथ देखने आते हैं,घोड़ों को व्याकुल दशा में पाते हैं।उनके देह से ऐसा पसीना बह रहा है, जैसे ताप पाकर ओले गल रहे हों। नगर के स्त्री- पुरुष भी ऐसे व्याकुल हो उठे, जैसे मछलियां जल सूखने से होने लगती हैं। मंत्री का आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो उठा।राजभवन कि श्री खो गई,और भूतों का डेरा सा लगने लगा।रानियां आर्त होकर पूछ रही हैं, लेकिन सुमंत्र विकल हैं,उत्तर नहीं निकलता,ठीक से सुनाई नहीं पड़ रहा,आखो से कुछ सूझ नहीं रहा।राजा को वे कैकेयी के महल में छोड़ गए थे, अतः वही उन्हें ढूंढ रहे हैं।दासियों ने मंत्री की व्याकुल दशा देख,उन्हें कौशल्या के महल में ले गईं, जहां राजा जी हैं।वाल्मीकीय से स्पष्ट है,कि राम जी के जाते ही,राजा दशरथ विक्षिप्त अवस्था में कैकेई के महल से नीचे आकर,राम जी को देखने के लिए दौड़े और व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े।उसके बाद अपने वचन- "लोचन ओट बैठ मुंह गोई "की रक्षा करते हुए, कैकेई को त्याग कर, कौशल्या माता के महल में चले गए:- एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा॥ बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥ पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई॥ बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा॥ अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें॥ जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए॥ रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे॥ नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें। निघटत नीर मीनगन जैंसें॥ दो0–सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु। भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु॥147॥ अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी॥ सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा॥ दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गईं लवाई।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-48,लौटकर आने पर सुमंत्र-दशरथ जी का संवाद :- कौशल्या जी के महल में पहुंच कर सुमंत्र जी ने देखा - कि राजा दशरथ भूमि पर पड़े हैं, वे श्रीहीन है ,आसन ,शैया, आभूषण रहित, मलिन वेश में उदास है।वे वैसे ही सोचवश हैं, जैसे राजा ययाति स्वर्ग से ,और संपाती पंख जलने से, जमीन पर गिरकर सोचवश हो गए थे ।राजा बार-बार राम ,राम, राम-लखन-वैदेही कह रहे हैं। मंत्री ने पहुंच कर जय जीव कह कर दंडवत प्रणाम किया।राजा व्याकुल हो उठे और बोले, सुमंत ! राम कहां हैं ? राजा ने सुमंत्र को छाती से लगा लिया,मानो डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया हो।प्रेम सहित पास बिठाकर पूछते हैं,हे सखा ! राम का कुशल समाचार कहो!रघुनाथ, लक्ष्मण और वैदेही कहां है ?लौटे या बन को चले गए? मंत्री ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से निहारा, मानो सब का उत्तर दे दिया हो। राजा समझ गए वह नहीं लौटे,अतः विकल हो पूछते हैं !नहीं लौटे! तो कुछ कहा तो होगा!वही कहो! राजा जी सोच रहे हैं- राज्याभिषेक सुनाकर वनवास दिया, तब भी रामजी के मन में न हर्ष हुआ न शोक। ऐसे पुत्र के भी बिछुड़ने पर प्राण न निकले,यह मेरे बड़े पापी होने का प्रमाण है ।वे बोले,मैं सत्य कहता हूं ! जहां राम-सीता-लक्ष्मण है, वहां पहुंचाओ ! नहीं तो अब प्राण चलना चाहते हैं - जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा॥ आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥ लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥ लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती॥ राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही॥ दो0-देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु। सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥148॥ भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥ सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥ राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥ आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥ सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू॥ राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥ राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥ सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥ दो0-सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ। नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥ टिप्पणी :-राजा बार-बार प्रिय पुत्र के बारे में पूछते हैं।हे सखा ! वह उपाय तुरंत करो! जिससे राम- लक्ष्मण- सीता को देखूँ। मंत्री स्वयं विकल थे, लेकिन राजा की दशा देखकर,धैर्य धारण कर बोले, महाराज !आप तो ज्ञानी है, वीर हैं,धीरों में भी श्रेष्ठ हैं, देवताओं व साधुओं के साथ सत्संग किया है।आप जानते हैं, जन्म-मृत्यु,सुख-दुख, हानि-लाभ, मिलना-बिछुड़ना यह सब काल-कर्म के आधीन आते-जाते रहते हैं।धैर्यवान दोनों दशाओं को समान मानकर, धैर्य धारण करते हैं। हे गोसाईं! सब के हितैषी !सोच छोड़ो! सुमंत्र कहने लगे - श्री राम का पहला निवास तमसा पर हुआ ,दूसरा गंगा तटपर।श्री सीता सहित दोनों भाइयों ने उस दिन स्नान कर,जल पीकर रहे।केवट ने बहुत सेवा की।वह रात श्रृंगवेरपुर में विताई।सवेरा होते ही,श्रीराम ने बरगद का दूध मंगाया और जटा बना ली।निषादराज ने नाव मंगाई।श्री रघुनाथ उस पर प्रिया को चढ़ा, स्वयं चढ़े ।लक्ष्मण जी ने धनुष-बाण संभाल कर रखे, और प्रभु की आज्ञा लेकर स्वयं भी नाव पर चढ़े:- पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥ करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥ सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥ बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥ जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा॥ काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥ सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥ धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥ दो0-प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर। न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर।150। केवट कीन्ह बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥ होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥ राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई॥ लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -49, सुमंत्र द्वारा दशरथ जी को राम जी का संदेश सुनाना :-सुमंत्र जी कहते हैं, की नाव पर बैठने के बाद रामजी ने मुझे विकल दशा में देखा।वे मधुर वचन में बोले,हे तात! पिताजी के कमल चरणों को पकड़ कर,उन्हें मेरी ओर से प्रणाम करना।फिर पांव पकड़कर विनती करना, हे तात !मेरी चिंता न कीजिए! आपकी कृपा अनुग्रह और पुण्य के प्रभाव से मेरी बन यात्रा में सब कुशल मंगल है।आपकी कृपा से बन में सब सुख रहेंगे।आज्ञा की पूर्तिकर कुशल पूर्वक लौटकर आपके चरणों का दर्शन करूंगा। फिर सब माताओं के पैर पड़, संतुष्ट करके, मेरी ओर से विनती करना, की वह सब वही करें,जिससे कोशलनरेश कुशलता से रहें। बारंबार गुरु जी के चरण कमल पकड़कर, मेरा संदेश कहना कि पिताजी को वही उपदेश दें, जिससे अवधेश महाराज मेरा सोच ना करें:- विकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥ तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू॥ करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी॥ बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥ छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं। प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥ जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी। तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी॥ सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि। करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥ टिप्पणी:-रामजी, सुमंत्र जी से कह रहे हैं,हे तात! पुरवासियों और कुटुम्बियों से मेरी विनती कहना, कि वे वही करें, जिससे राजा सुखी रहें।भरत के आने पर उन्हें मेरा संदेश देना, की राजपद पाकर नीति न छोड़ दें।कर्म- मन-वचन से प्रजा का पालन और उनकी सेवा करें।सब माताओं को समान मानकर सब की सेवा करें।माता-पिता तथा सभी सुजनों की सेवाकरते, अंत तक भाईपना निर्वाहना है।हे तात! आप भी वही सब करना जिससे राजा मेरी चिंता न करें। इसके बाद लक्ष्मण जी ने कुछ कठोर वचन कहे। रामजी ने उन्हें रोका,और मुझसे अपनी कसम देकर निवेदन किया, कि लखन का लड़कपन पिताजी से ना कहें!सीता जी ने प्रणाम कर कुछ कहना चाहा,पर स्नेहवस शिथिल हो गईं, बाणी रुक गई,नेत्र आंसुओं से भर गए,देह प्रफुल्लित हो गई,लेकिन बोल नहीं सकीं:- पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥ सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥ कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥ पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥ ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥ तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥ लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥ बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई॥ दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह। थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥ टिप्पणी:-उस समय रघुवर का रुख पाकर,केवट ने पार के लिए नाव चला दी। मैं अपना क्लेश कैसे कहूं,जो छाती पर बज्र रखकर, श्री राम जी का संदेश लेकर जीता हुआ लौटा। मंत्री के वचन सुनकर, राजा पृथ्वी पर गिर पड़े।अत्यंत व्याकुल हो तड़पने लगे, जैसे मछली वर्षा का पहला जल पी जाने से तड़पने लगती है।सारी रानियां रुदन करती हुई विलाप करने लगीं। विपत्ति का बखान नहीं किया जा सकता है।महल के रूदन भरे विलाप के शोर की प्रतिक्रिया, पूरे अवध में फैल गई और भीषण रुदन भरा शोर सर्वत्र होने लगा। कोलाहल ऐसा लगता था,मानो पक्षियों से भरे बड़ेबन में,रात्रि के समय भीषण वज्रपात हो गया हो:- तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥ रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥ मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥ अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥ सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥ तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥ करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥ सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥ दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु। बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-50,सुमंत्र से श्रीराम का संदेश सुनकर राजा का व्याकुल होना,पृथ्वी पर गिरना, और राम-राम रटते देह त्याग करना:- राजा दशरथ व्याकुल हैं, प्राण समिट रहे हैं ।वे ऐसे दिख रहे हैं, मोनो मणि छिन जाने से, सर्प व्याकुल हो रहा हो। इंद्रियां ऐसी विकल हैं,मानो सरोवर का कमलबन जल के अभाव में कुम्हिला गया हो। कौशल्या जी को आभास हो गया कि सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो रहा है।श्री रामजी की माताजी धीरजधर कर,समयानुकूल बोलीं, हे नाथ ! थोड़ा विचार करें ! अवध रूपी जहाज पर आपकी प्रिय प्रजा सवार है,जो राम बिरह के अपार समुद्र में फंसा है।आप ही उसके खेवनहार हैं,यदि धीरज रखेंगे तभी सब पर हो पाएंगे,अन्यथा सारे डूब जाएंगे।अगर आप हमारी विनती मानेंगे,तो राम- लखन -सीता से मिलने का अवसर भी उपस्थित हो जाएगा। प्रिय पत्नी के अमृत वचन सुनकर राजा जी ने आंखें खोली,मानो तड़पती मछली को ठंडे पानी का छींटा मिल गया हो।राजाजी की अंत समय वाली चेतना जागी,और वे उठ बैठे तथा बोले,सुमंत्र कहो ! दयालु राम कहां है ?लक्ष्मण कहां है?प्यारी बहू कहां है?राजाजी ब्याकुल है,बहुत तरह से विलाप कर रहे हैं।उन्हें अंधे तपस्वी के शॉप( तुम पुत्र शोक से मरोगे)का स्मरण हो आया।उन्होंने कौशल्या जी को पूरी कथा सुनाई।कथा सुनाते- सुनाते व्याकुल हो उठे,और बोले राम के बिना जीवन की आशा को धिक्कार है।हा जानकी! हा लक्ष्मण!हा रघुवर !हा पिता के चित्त रूपी चातक को तृप्त करने वाले मेघ!तुम्हारे बिना जीते हुए बहुत दिन (6 दिन) बीत गए। राम -राम- राम कहकर ,पुनः राम -राम -राम कहकर राजाजी देह त्यागकर देवलोक चले गए :- प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥ इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥ कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना। उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥ नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥ करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥ धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू॥ जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥ दो0–प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि। तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥ धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥ कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥ बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥ तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥ भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥ सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा॥ हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥ हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर। दो0-राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम। तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥ टिप्पणी :-श्री दशरथ जी जीव कोटि के नहीं हैं, ईश्वर कोटि के हैं।मनु महाराज 24 अवतारों में से एक हैं।वे कोई भी देह धारण कर,कहीं भी रह सकते हैं।वे दशरथ रूप से अवध में रहे।अब स्वर्ग में रहकर रामराज्य देखेंगे,और प्रभु के साथ परमधाम जाएंगे। जीने-मरने का फल तो श्री दशरथ जी ने ही पाया है ।उनका निर्मल यश अनेक ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी श्री राम जी का मुखचंद्र देखते रहे,और राम वियोग में देह त्यागकर मरण संभाल लिया। सब रानियां शोक के मारे व्याकुल हो रही हैं।राजा के रूप,शील,स्वभाव,बल और तेजप्रताप का बखानकर,विलाप कर रही हैं।दास -दासी व्याकुल हो रहे हैं।घर-घर पुरबासी रो रहे हैं।सब कहते हैं, आज धर्म की सीमा और गुणरूपी खजाना, सूर्य कुल का सूर्य अस्त हो गया।इस तरह विलाप करते- करते रात बीत गई।अवध के सब ज्ञानी मुनि आए। वशिष्ठ मुनि ने समय अनुकूल अनेक कथाएं कहकर और अपने ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से सब का शोक दूर कर दिया:- जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥ जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥ सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी॥ करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा॥ बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥ अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥ गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥ एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥ दो0-तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास। सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड- 51,भरतजी का नाना के यहां से आगमन और कैकेयी के महल में प्रवेश:- राजा दशरथ का शरीर, नाव में तेल भरकर उस समय के विज्ञान अनुसार सुरक्षित किया गया।फिर वशिष्ठ जी की आज्ञानुसार दूतों को भेजकर अति शीघ्र भरत को बुलवाया गया।दूतों को राजा के समाचार को गुप्त रखने का सख्त निर्देश दे दिया गया।भरत के आने तक,अवध की राजगद्दी राजा विहीन रही। लेकिन वशिष्ठ जीके विवेक और प्रभाव के कारण उसको हथियाने का किसी ने भी साहस नहीं किया। अवध में जब से अनर्थ आरंभ हुए, नाना के यहां रहते भरतजी को, तब से अनेक प्रकार के अपशकुन हो रहे थे।रात में भयानक स्वप्न देखते, शांति के लिए नित्यप्रति ब्राह्मणों को भोजन करा कर दान देते।शिवजी का अभिषेक करते,और उनसे माता-पिता, कुटुंबीयों और भाइयों की कुशलता के लिए प्रार्थना करते। इस प्रकार की दिनचर्या चलते,अवध के दूत वहां पहुंच गए।उन्होंने गुरु की आज्ञा सुनाई-कि छोटे भाई सहित,बिना कुछ सोचे-विचारे,अयोध्या के लिए तुरंत चल दें।दोनों भाई पवनवेगी घोड़ों को हांकते हुए विकट नदियों, पर्वतों और जंगलों को लाँघते हुए सातवें दिन अयोध्या नगर के निकट पहुंच गए। नगर में प्रवेश करते समय,अपशकुन हो रहे हैं। काले कौवे कुठौर में बैठकर कांव-कांव की रट लगा रहे हैं।गधे-गीदड़ अपशकुन सूचक बोली बोल रहे हैं।यह सब सुन-देख भरतजी के मन में पीड़ा हो रही है।नगर के तालाब-नदी,वन-बाग सब शोभा हीन हो रहे हैं। पशु-पक्षी'घोड़े-हाथी सब राम-वियोग में दीन-हीन दिखाई देते हैं।नगर के स्त्री- पुरुष अत्यंत दुखी हो रहे हैं,जैसे उनकी सारी संपत्ति छीन ली गई हो। पुरवासी मिलते,हैं तो उपेक्षा भाव से जोहार कर, चुपके से चलते बनते हैं।भरत के मन में भी यह सब देखकर दुख हो रहा है, इसलिए उनसे कुशल नहीं पूछते।बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते,मानो नगर दसों दिशाओं से दावाग्नि से घिर गया हो:- तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥ धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥ एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई॥ सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥ अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥ देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥ बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥ मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥ दो0-एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ। गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ॥157॥ चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥ हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥ एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥ असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥ खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥ श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥ खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥ नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥ दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं। भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥ हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥ टिप्पणी:-बेटे को आता सुनकर, सूर्यकुल रूपी कमल के लिए,चांदनीरूपा कैकेई प्रसन्न होकर, आरती सजा, दौड़ीं। द्वारपर ही आरती उतारकर अपने महल में लिवालाँई। आरती उतारने में कोई साथ नहीं दे रहा था, क्योंकि राजा का मृतक शरीर रखा हुआ है,सूतक चल रहा है,ऐसे में कैसी आरती ? भरत जी चकित हैं,की महल में उपस्थित लोग ऐसे दुखी हो रहे हैं,मानो कमल बन को पाला मार गया हो।लेकिन कैकेई मां ऐसे हर्षित हैं मानो भीलनी वन में दावाग्नि लगाकर प्रसन्न हो।पुत्र को सोचयुक्त व उदास देखकर, कैकेयी पूछती हैं-कि हमारे नैहर में कुशल तो है? भरत ने कहा तुम्हारे मईके में सब कुशल है, हमारे कुल की कुशलता बताओ?पिताजी व कौशल्या जी सहित सभी माताएँ, मेरे बाहर से आने पर,प्रायः यहीं मिल जाते थे,वे कहां हैं?श्री सीता- राम -लक्ष्मण जी तुरंत दौड़कर आ जाते थे,वे सब लोग कहां हैं? पुत्र के सहज प्रेम भरे वचन सुनकर,कैकेयी आंखों में कपट के आंसू भरकर,भारत के कानों और मन को वज्र के समान पीड़ा देने वाले वचन बोली, हे तात ! मैंने सारी बात(तुम्हारा बंदीगृह में रहना और मेरा कौशल्या की दासी बनकर रहना) बना ली है,बिचारी मंथरा इसमें सहायक हुई,पर विधाता ने बीच में थोड़ी बात बिगाड़ दी है-कि राजा देवलोक चले गए:- आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥ सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥ भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥ कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥ सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥ सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥ कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥ दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन। भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥ तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥ कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-52,कैकेयी जी से अयोध्या का घटनाक्रम जानकर, श्रीभरतजी की विव्हलता और आत्मग्लानि:- पिताश्री का स्वर्ग गमन सुनकर श्री भरतजी दुख से बेबस हो गए, मानो सिंह की गरज सुनकर हाथी सहम गया हो।तात!तात!हातात ! पुकारते हुए वे व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े और कहते हैं-हा तात! मैं आपको अंत समय देख न सका और न आपने मुझे श्री राम जी को सौंपा। फिर संभल कर उठे और बोले, हे महतारी!पिता के मरने का कारण क्या हुआ? उत्तर में कैकेयी ऐसी बात कहती हैं,मानो मर्म में चीरा लगाकर उसने विष भर रही हों। कैकेई अपने द्वारा रचे कुचक्र में अपना बड़प्पन देख रही हैं,अतः अपनी कुटिल कठोर करनी का विस्तार से वर्णन किया है। भरतजी रामवनगमन सुनते ही, पिता का मरण- दुख भूल गए और बनगमन में अपना कारण देखकर स्तंभित हो मौन रह गए । पुत्र को व्याकुल देख, कैकेई समझाने का ऐसा प्रयास करती है,मानो जले घाव पर नमक छिड़क रही हो ।हे तात! राजा सोच करने के योग्य नहीं है। उन्होंने पुण्य और यश कमा कर जीवन के लक्ष्य सांसारिक भोगों को भोगा और अंत समय इंद्रलोक चले गए।ऐसा विचार कर सोच छोड़ो, और अंग सहित प्राप्त राज्य का भोग करो :- सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥ तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥ चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥ बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥ सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥ आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥ दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु। हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥ बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥ तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥ जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए॥ अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥ टिप्पणी:-भरतजी, मां से ऐसे वचन सुनकर,सहम गए।मानो पके घाव पर चिंगारी रख दी गई हो। सांस रुकने लगी,धीरज धर कर गहरी सांस लेते हुए वह बोले,अरे पापिनी ! तूने सारे कुल का नाश कर डाला !जब तेरे ऐसे नीच विचार थे,तो जन्म लेते ही तूने मुझे क्यों न मार डाला ?पेड़ की जड़ काटकर उसके पत्तों को सींचकर हरा रखना चाहती है ?मछली को डूबने से बचाने के लिए पानी उलच कर उसे जिंदा रखना चाहती है ? भरत जी कहते हैं- सूर्यवंश जैसे उत्तम कुल में मेरा जन्म हुआ।दशरथ जैसे विवेकी नृप पिता रूप में मिले।श्री राम-लक्ष्मण जैसे भाई मिले।हे जननी! लेकिन दुर्भाग्य से,तेरी जैसी माता की कोख से मेरा जन्म हुआ। विधाता के विधान के सामने हम सब विवश हैं।हे दुर्बुद्धिनी ! जब तेरे मन में ऐसा बुरा विचार उठा तो तेरे हृदय की टुकड़े क्यों ना हो गए ?वर मांगते समय मन में पीड़ा न हुई,न जवान गली ?मुंह में कीड़े क्यों न पड़ गए? राजा जी ने तुझ पर विश्वास कैसे कर लिया ?जान पड़ता है, मरण काल आ जाने से बुद्धि नष्ट हो गई थी। ब्रह्मा जी भी स्त्रियों के कपट पूर्ण और चालाकी भरे व्यवहार को नहीं समझ पाते,तो भला सीधे-साधे, सुशील और धर्म परायण राजा जी, स्त्री स्वभाव को कैसे समझ पाते ? संसार में ऐसा कौन जीव-जंतु है,जिसे रघुनाथ जी प्राणों से प्यारे न हो! वे रामजी भी तुझे शत्रु लगे? सच-सच बता छद्म स्त्री वेष में तू कौन है?तू ,जो हो !सो हो !अब मुंह में कालिख पोत मेरी आंखों से ओझल हो जा! तुझे दोष देना भी व्यर्थ है!मेरे पापों का ही परिणाम है,कि ब्रह्मा जी ने,तुझ जैसी हृदय में श्री राम जी से शत्रुता भाव रखने वाली से, मुझे पैदा किया।इस प्रकार भरत जी आत्मग्लानि से व्याकुल हो उठे:- सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥ धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा॥ जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥ पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥ दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ। जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥161॥ जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ॥ बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा॥ भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥ बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥ सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥ अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥ भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही॥ जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई॥ दो0-राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि। मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥162।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-53,भरत का कौशल्या जी की शरण में जाना और उनसे संवाद :-माता की कुटिलता सुनकर, शत्रुघ्न जी का शरीर क्रोध से जलने लगा,लेकिन कुछ भी करना वश में नहीं था। तब तक कुबरी खुब सज- धज कर आ गई।उसने कैकेई से इनाम में प्राप्त,राजसी वस्त्र और आभूषण पहन रखे थे,जिन्हें पहनना महल में दासियों के लिए वर्जित होता है।उसे देखते ही शत्रुघ्न जी का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने उसके कूवर पर लात मारी।वह मुंह के बल गिर पड़ी और दांत टूट गए।उसके कूबर, सिर और मुंह से खून निकलने लगा ।वह चिल्लाई- हाय दैव, मैंने क्या बिगाड़ा है,जो भला करने पर भी,बुरा फल मिला! शत्रुघ्न ने उसकी वाणी सुनकर, माना कि यह नख से शिख तक खोटी है,अतः उसका झोंटा पकड़कर घसीटने लगे।दयालु भरत ने उसको छुड़ा दिया, और शत्रुघ्न जी को समझाया कि स्त्री सबके लिए अबध्य है।यदि राम जी ,कुबरी का मारा जाना सुनेंगे,तो वह हम दोनों से बोलना बंद कर देंगे। तुरंत दोनों भाई वहां से कौशल्या जी के महल में चले गए।उन्होंने देखा कौशल्या जी के वस्त्र मैले हैं, शरीर दुर्बल हो गया है,उनका रंग बदल गया है, और द्युति हीन हो रही है।मानो बन में सुंदर कल्प लता को पाला मार गया हो।भरत को देख माता उठकर दौड़ीं, लेकिन चक्कर खाकर गिर पड़ीं। यह देख भरत विकल होकर उनके चरणों पर गिर पड़े:- सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥ तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥ लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई॥ हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा॥ कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥ आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥ सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥ भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥ दो0-मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार। कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥163॥ भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई॥ देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥ टिप्पणी:-भरत जी कहते हैं- हे माता ! पिता जी कहां हैं? मुझे दिखाओ! श्री सीता-राम-लक्ष्मण कहां है? कैकेई का संसार में जन्म क्यों हुआ? जन्मी ही थीं तो बाँझ क्यों न हुई? तब कुल को कलंकित करने वाला, अपयश का पात्र,प्रिय लोगों को द्रोही,मुझे जैसा पुत्र न पैदा हुआ होता।तीनों लोकों में मेरे समान भाग्यहीन कौन होगा?जिसके कारण हे माता !तेरी ऐसी दशा हुई है!पिताजी स्वर्ग को और श्रीरामजी वन को गए, इन सब का कारण "केतु रूप" मैं हूं।मुझे धिक्कार है। मैं बांस की जंगल की अग्नि (बांस की रगड़ से उत्पन्न स्वयंभू अग्नि) समान हूं,जो सब अपनों के लिए ही दाह, दुख और दोषों का कारण बना। श्रीकौशल्याजी ,श्रीराम की मां है ! भरत की दशा देख ,अपना दुख भूल, संभल कर बैठ गईं। भरत को हृदय से लगा लिया।आंखों से प्रेमाश्रु गिर रहे हैं। वे भरत जी को,वैसे ही प्रेम से छाती से लगाए हैं,मानो राम जी बन से लौट आए हो। फिर शत्रुघ्न जी को हृदय से लगाया ।शोक और स्नेह हृदय से छलककर, अश्रु रूप मैं बाहर आ रहा है। श्रीकौशल्या जी ने भरत को गोद में बैठाकर आंसू पोंछे और बोली, हे वत्स! बलिहारी जाती हूं !इतना सब होने पर भी धीरज धरो !काल व कर्म जीवन को प्रभावित करते ही हैं।हे तात !किसी अन्य को दोषी मत ठहरावो !विधाता सब प्रकार से मेरे ही विपरीत है, जो इतना दुख होने पर मुझे जिलाये हुए है, पता नहीं आगे उसकी क्या योजना है? हे तात!पिता की आज्ञा से रामजी ने,सारे राजसी वस्त्र व आभूषण त्यागकर वल्कल वस्त्र धारण कर लिए।उनके मन में कुछ भी हर्ष विषाद नहीं था। प्रसन्न चित्त किसी पर ममत्त्व और क्रोध न कर, सबको संतुष्ट करते हुए, बन को चले गए:- मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥ कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥ कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥ को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥ पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु॥ धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥ दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि॥ लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥164॥ सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥ भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥ देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥ माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे॥ अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥ जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि॥ काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥ जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥ दो0-पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर। बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-54, श्री कौशल्या जी का, श्रीराम वन-गमन-वर्णन और भरत जी का उनसे अपनी अंतरवेदना की अभिव्यक्ति:-श्री कौशल्या जी, भरत जी को बन जाते समय राम जी के व्यवहार को, बता रही हैं।।श्री राम जी ने वल्कल वस्त्र पहन लिए,, उन्हें कुछ हर्ष-विषाद न हुआ। प्रसन्न मुख रहते,न किसी से ममत्त्व ,न किसी पर क्रोध,सब प्रकार से सबका संतोष करते हुए बन को चल दिए।बन जाने की बात सुन,सीता जी भी साथ चल दीं। यह जान लक्ष्मण जी भी साथ हो लिए।रघुनाथ जी ने इन दोनों को रोकने के बहुत उपाय किए,पर वे किसी प्रकार नहीं रुके।तब दोनों को साथ लेकर, सबको माथा नवाकर,श्रीराम वन को चले गए। यह सब मेरे सामने होता रहा,लेकिन न तो मैं साथ गई,न उनके साथ प्राण भेजे। अपना प्रेम देखकर मुझे लज्जा भी नहीं आती,अतः रामजी जैसे पुत्र के लिए मैं माता होने के योग्य नहीं हूं।जीने और मरने का रहस्य जो राजा जी ने ही जाना है।मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्र के समान कठोर है। कौशल्या जी के मार्मिक वचन सुनकर भारत सहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा।ऐसा लगने लगा की कौशिल्या-महल शोक का निवास स्थान है । श्रीभरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयों को व्याकुल होकर रोते देख ,कौशल्या जी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। विवेकमय वचनों से भरत जी को समझाया। भरत जी भी संभलकर सारी माताओं को, श्रुति पुराण की कथाओं के सहारे समझाने लगे:- मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥ चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥ सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥ तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई॥ रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए॥ यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें॥ मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी॥ जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना॥ दो0- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास। ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु॥166॥ बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥ भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥ भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं॥ टिप्पणी:-भरत जी हाथ जोड़कर,अपनी अंतर वेदना व्यक्त करने लगे - कि यदि इस घटना से मेरी कोई सहमति हो, तो मुझे वह सब जघन्य पापों का फल मिले,जो सनातन धर्म में मान्य है।जो पाप माता, पिता और पुत्र को मारने से तथा गौशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं,जो पाप स्त्री और बालक का वध करने से तथा मित्र और राजा को विष देने से होते हैं।उन सबका तथा मन- वचन- कर्म से होने वाले छोटे बड़े सभी मान्य पापों का फल विधाता मुझे दे, यदि इस घटना में मेरी कोई सम्मति हो। जो दुर्गति हरिचरण छोड़कर, भूत-प्रेतों को भजने वालों की होती है ।जो गति वेद बेचने वालों,धर्म दुह लेने वालों, चुगलखोरों तथा परनिंदकों की होती है ,जो गति कपट ,कुटिल ,झगड़ालू,क्रोधी, वेदनिंदक,संसार भर के शत्रु की होती है।जो गति लालची, कामी,परधन -हन्ता, तथा पर स्त्री-लोलुप की होती है ,हे माता! इन सब की होने वाली भयंकर गति मैं पाऊं ,यदि इस घटना में मेरी कोई सम्मति हो। जिनका साधु संगति से प्रेम नहीं है ,जो अभागे परमार्थपथ से विमुख हैं, जो मनुष्य शरीर पाकर भगवान का भजन नहीं करते, जिनकी हरिहर का सुयश नहीं अच्छा लगता, जो वेद मार्ग छोड़कर वाममार्गी हैं, जो ठग हैं तथा कपट वेश धारण कर सबको छलते हैं, हे माता !मुझे शंकर जी उनकी जैसी गति देवें यदि मैं घटित हुए कुचक्र का भेद जानता होऊँ। भरत जी के सच्चे, स्वाभाविक और छल रहित वचन सुनकर माता कौशल्या कहती हैं, हे तात !तुम सदा मन -वचन -तन से रामचंद्र जी के प्रिय हो। राम जी तुम्हारे प्राणों के भी प्राण हैं ,और तुम भी राम जी को प्राणों से अधिक प्रिय हो:- छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी॥ जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥ जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥ जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं॥ ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता॥ दो0-जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर। तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥167॥ बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥ कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥ लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा॥ पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा॥ जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे॥ जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥ तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं॥ तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥ दो0-मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ। कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥168॥ राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-55,राजा दशरथ के अंतिम क्रिया- संस्कार और उसके बाद अवध की प्रथम सभा:- माता कौशल्या जी कह रही हैं, कि भरत तुम सदा मन -वचन -तन से रामचंद्र जी को प्रिय हो।चाहे चंद्रमा विष टपकावे, पाला अग्नि गिरावे, चाहे मछली जल से प्रेम करना छोड़ दे, भले ही ज्ञान होने पर भी मोह न मिटे, पर तुम रामजी के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते।अर्थात विश्व प्रपंच नैसर्गिक मर्यादायें छोड़ सकता है,किंतु परम भागवत,भगवान की विरुद्ध नहीं जा सकता। संसारी लोग जो वनवास में तुम्हारी सम्मति कहते हैं या कहेंगे,वे सुख और सद्गति से वंचित रहेंगे। ऐसा कहकर माता ने भरत जी को हृदय से लगा लिया।प्रेम के अतिरेक के कारण माता कौशल्या जी के स्तनों से वात्सल्यरस-दूध और आंखों से प्रेमाश्रु टपक रहे थे।इस प्रकार विलाप करते -करते सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत गई। प्रातःकाल बामदेव जी और वशिष्ठ जी आए और सब मंत्रियों तथा नगर के महापुरुषों को बुलाया गया।मुनि जी ने देशकाल अनुसार भरत जी को,नीति और परमार्थ का उपदेश देकर कहा, हे तात! धीरज धरकर सबसे पहले इस अवसर के अनुकूल कर्तव्य कर्मों को विधि पूर्वक संपन्न करो! भरत जी ने तुरंत आज्ञा शिरोधार्य कर आवश्यक कार्यों में लग गये:- राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥ बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥ भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥ मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥ अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए॥ करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती॥ बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥ मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥ दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु। उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥169॥ टिप्पणी:- वेद की आज्ञानुसार राजा के शरीर को स्नान करवाया गया।परम विचित्र विमान बनाया गया।भरत जी ने सब माताओं के चरण पकड़कर सती होने से रोका।सभी के अंदर रामदर्शन की तीव्र अभिलाषा थी। सरयू के किनारे चक्रवर्ती सम्राट के अनुकूल दिव्य चिता बनाई गई।उसमें चंदन,अगर,गूग्गल, केसर कस्तूरी तथा कपूर आदि अनेक सुगंधित द्रव्यों को बहुत अधिक मात्रा में प्रयोग किया गया।दाह आदि सभी क्रियायें संपन्न कर सब ने विधिपूर्वक तिलांजलि दी। स्मृति वेद पुराणों के अनुसार भरत जी ने दशगात्र आदि सभी क्रियाओं को संपन्न किया।मुनि श्रेष्ठ के अनुशासन में भरत जी ने पूरे मनोयोग से सारी क्रियाओं को किया। शुद्ध होने के बाद भरत जी ने चक्रवर्ती सम्राट के ऐश्वर्य अनुरूप सिंहासन,हाथी,घोड़े,वस्त्र,आभूषण आदि अनेक सामग्री को दान देकर पूरी तरह ब्राह्मणों को संतुष्ट किया।उसका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता:- नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥ गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥ चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए॥ सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥ एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥ सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥ जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा॥ भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥ दो0-सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम। दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥170॥ पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥ टिप्पणी:- सारे संस्कार संपन्न होने के बाद, अच्छा दिन देखकर ,वशिष्ठ जी ने अवध के प्रथम दरबार का आयोजन किया ।सभी सचिव ,महाजन तथा सभासद आए।तब वशिष्ठ जी ने भरत जी व शत्रुघ्न जी को बुलवाया। उन्होंने भरत जी को अपने पास बैठा कर नीति और धर्म मय उद्बोधन किया।वशिष्ठ जी ने अयोध्या में होने वाली सारी घटनाओं को विस्तार से वर्णन किया। राजा के सत्य पालन और प्रेम की सराहना करते हुए कहा कि रामप्रेम की रक्षा के लिए उन्होंने देह तक का त्याग कर दिया। वन गमन के अवसर पर राम जी के दिव्य गुणों से भरे व्यवहार की सराहना करते-करते मुनि जी भाउक हो उठे ।श्री सीताजी व लक्ष्मणजी का प्रेम के वश हो,स्वेच्छा से वनवास स्वीकार करना विस्तार से बताते-बताते मुनि जी बिलखकर रोने लगे और बोले ! हरि इच्छा प्रेरित भावी प्रबल होती है। हानि -लाभ ,जीना -मरना तथा यश -अपयश विधि के विधान अनुसार जीवन में प्राप्त ही होते हैं। अर्थात इन 6 विधि-विधानों को स्वीकार कर ही जीवन जीना पड़ता है ।ऐसा विचार कर किसी पर दोषारोपण करना और किसी पर क्रोध करना व्यर्थ है:- सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥ बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई॥ भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥ प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी॥ भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥ कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥ बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥ दो0-सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥ अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू।।
- मानस आधारित श्री राम कथा अयोध्याकांड -56 मुनि वशिष्ठ जी द्वारा भरत को उपदेश :-गुरु वशिष्ट जी भरत का शोक दूर करते हुए कह रहे हैं, की महान व्यक्तित्व संपन्न पिता दशरथ के, वचन पालन ही तुम्हारा कर्तव्य है। वशिष्ट जी संक्षेप में वर्णाश्रम धर्म को बताते हुए कहते हैं, कि तदनुसार आचरण करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ होता है, वह सोचनीय नहीं होता ,उसके वचनों का पालन करना चाहिए। वशिष्ट जी बोले हे तात ! दशरथ सोच करने योग्य नहीं है।वह ब्राह्मण सोचनीय है, जो वेद न जानता हो और अपना धर्म छोड़कर भोग विलास में आसक्त हो। वह राजा सोचनीय है, जो राजनीति न जानता हो और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी न हो। वह वैश्य सोचनीय है जो धनवान होकर कंजूस हो तथा अतिथिसत्कार और शिवभक्ति से मुंह मोड़ता हो।ब्राह्मण का अपमान करने वाला, वकवादी,मान चाहने वाला और ज्ञान का गुमानी शूद्र सोचने योग्य है।पति से छल करने वाली कुटिला, झगड़ालू और स्वेच्छाचारी स्त्री भी सोचनीय है। वह ब्रह्मचारी सोचनीय है, जिसका कोई व्रत न हो और जो गुरु का आज्ञाकारी न हो।वह ग्रहस्थ सोचनीय है जो कर्ममार्ग छोड़कर जीविका विहीन हो।माया से लिप्त ज्ञान-वैराग्य-विहीन सन्यासी सोचने योग्य है ।तपस्या छोड़कर जिसे विषयभोग- विलास अच्छा लगे, वह बानप्रस्थी सोचनीय है। चुगलखोर,अकारण क्रोधी, माता-पिता-गुरु और भाई-बंधु द्रोही व्यक्ति सोच करने योग्य है। दूसरे को हानि पहुंचाने वाला स्वार्थी तथा कठोर हृदय वाला सब प्रकार सोचने योग्य है। छल छोड़कर जो हरिभक्ति नहीं करता,वह अत्यंत निंदनीय है। श्री कोशलराज दशरथ जी किसी भी दृष्टिकोण से सोचनीय नहीं है।चौदह लोकों में उनका प्रभाव प्रकट है।तुम्हारे पिता जैसा न,हुआ है,न है,और न होगा।बिधि- हर-हर,इन्द्र और लोकपाल सभी दशरथ जी के गुणों का वर्णन करते हैं।हे तात ! तुम ही बताओ, उसके गुणों की प्रशंसा किस प्रकार की जा सकती है,जिसके राम,लक्ष्मण,तुम और शत्रुघ्न सरीखे चार पुत्रों हो :- तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥ सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥ सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥ सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥ सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥ सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी॥ सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥ दो0-सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग। सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥ बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥ सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥ सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥ सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥ सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥ भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥ बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥ दो0-कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु। राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥173॥ टिप्पणी:-राजा सब तरह से बड़े भाग्यवान थे, उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। सब सोच छोड़कर, राजा की आज्ञा शिरोधार्य करना कर्तव्य है ।राजा ने तुमको राजपद दिया है। पिता के उस वचन को सत्य करना चाहिए,जिसके लिए उन्हें श्री रामजी का त्याग करना पड़ा और उनके बिरह में अपनी देह का भी त्याग कर दिया।राजा को वचन प्रिय थे,प्राण प्रिय नहीं थे।अतः ऐसा पिता के वचनों को प्रमाणित करो,जिससे वह सत्य प्रतिज्ञों में प्रमाण माने जाएं। राजा की आज्ञा शिरोधार्य करने में ही सब प्रकार से तुम्हारा कल्याण है।परसुराम तथा ययाति के पुत्र को अनुचित कार्यों के लिए भी पाप और अपयश नहीं मिला क्योंकि वे कार्य उन्होंने पिता की आज्ञा पालन के लिए किए थे । उचित-अनुचित का विचार छोड़ जो पिता की आज्ञा शिरोधार्य करते हैं, वे लोक में सुख और यश के पात्र होते हैं,तथा अंत में इंद्रपुर में बसते हैं:- सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥ यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥ राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥ तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥ नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना॥ करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥ परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥ तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥ दो0-अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन। ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -57, गुरु वशिष्ठ द्वारा भरत को दिया जा रहा उपदेश पूरा, और सचिव मंडल व माता कौशल्या जी द्वारा उसका अनुमोदन:- वशिष्ठ जी भरत जी से कह रहे हैं,की राजा के वरदान रूप में दिए वचन को अवश्य सत्य करो !प्रजा का पालन करो !शोक को छोड़ो !राजाजी स्वर्ग में संतुष्ट और प्रसन्न होंगे! तुमको पुण्य और सुंदर यश मिलेगा !वेद,स्मृतियां और पुराण आदि सब का मत है, कि जिसको पिता राज्य देता है, वही उसका उत्तराधिकारी होता है ।ग्लानि छोड़कर राज्य करो। मेरे ये वचन सब के लिए हितकारी हैं। यह व्यवस्था सुनकर श्री राम-जानकी जी भी सुख पावेंगे।कोई भी बुद्धिमान, विद्वान इसे अनुचित न कहेगा।जो तुम्हारे और श्री राम जी के प्रेम भरे संबंध (प्रेमाभक्ति) को जानते हैं,वे सब प्रकार से तुम्हारे हितैषी बने रहेंगे। श्री राम के आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और स्नेह सहित उनकी सेवा करना। मंत्री हाथ जोड़कर कथन का अनुमोदन करते कहते हैं ,कि गुरु की आज्ञा का पालन कीजिए और रघुनाथ जी के आने पर,उस समय जैसा उचित रहे,वैसा करिएगा।रजोगुण स्वभाव वश, मंत्रियों ने अनुमोदन में थोड़ी चिकनी-चुपड़ी बात भी जोड़ दी । श्री कौशल्या जी भी,वशिष्ठ जी के कथन का अनुमोदन करती हैं।बेटा! गुरु की आज्ञा पथ्य है, उसको हितकर मानकर पालन करो !समय प्रतिकूल जानकर शोक छोड़ो! श्री रघुनाथ जी बन में है,राजा जी देवलोक में है,और हे बेटा ! तुम इस प्रकार हिचकिचा रहे हो ! इस समय सब माताओं, कुटुम्बियों प्रजा तथा मंत्रियों, सभी के लिए तुम्ही एक मात्र सहारा हो । विधाता की प्रतिकूलता और काल की कठोरगति पहचान कर,धीरज धरो ! माता तुम्हारी बलैयाँ लेती है !गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर उसका अनुसरण करो ! प्रजा का पालन और कुटुंब का दुख हरो! भरत जी ने गुरु उपदेश और मंत्रियों द्वारा उसका अनुमोदन सुनकर संतोष अनुभव किया।फिर माता जी की शील-सनेह-सरल वाणी,जो छल रहित प्रेम से भरी थी,सुनकर अत्यंत व्याकुल हो उठे।उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी,जिससे उनकी राम- विरह -वेदना ,हरी-भरी हो उठी।उनकी दशा देखकर,सभा में उपस्थित सभी लोगों को देह की सुध-बुध भूल गई और वे श्री भरत के स्वाभाविक प्रेम की आदर पूर्ण सराहना करने लगे। धैर्यवान और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भरत जी ने हाथ जोड़कर,मधुर अमृत सरीखी वाणी से बोलना प्रारंभ किया:- अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥ सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू॥ बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥ करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥ सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं॥ कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥ परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि॥ सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥ दो0-कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि। रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175॥ कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥ सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥ बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥ परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा॥ लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई॥ सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू॥ गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु॥ सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥ छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए। लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥ सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की। तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥ सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि। बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि॥176।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-58 भरत, जी द्वारा राजाभिषेक प्रस्ताव को सादर मना करना और श्रीरामशरण जाने का प्रस्ताव रखना-1:- भरत जी बोले ➡गुरु जी ने मुझे हितकारी उपदेश दिया है, जो प्रजा व मंत्रियों द्वारा अनुमोदित है।माता जी ने भी उसे ही उचित मानकर ,वही आज्ञा दे दी।मैं भी उसका सादर पालन करना चाहता हूं ,क्योंकि माता-पिता-मित्र की बात प्रसन्न मन से करना कर्तव्य है।उस पर उचित- अनुचित का विचार करने से धर्म नष्ट हो जाता है, और सिर पर पाप का बोझ लदता है। मैं समझता हूं,कि आप लोग जो मुझसे करने को कह रहे हैं, उसमें मेरी भलाई देख रहे हैं।लेकिन जाने क्यों मुझे उसमें संतोष नहीं हो रहा, इसलिए मैं उस पर कुछ टीका-टिप्पणी कर रहा हूं। साधु (सज्जन) लोग ,दुखी व्यक्ति के कथन की उपेक्षा करते हैं और उसका बुरा नहीं मानते। पिताजी देवलोक में है, और श्रीसीताराम जी बन में है,और आप सब मुझसे राज्य करने को कह रहे हैं।इसमें या तो आप मेरा हित देख रहे हैं, या कोई अपना बड़ा लक्ष्य (राजा की नियुक्ति) पूरा करना चाहते हैं :- मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥ मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥ गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥ उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥ तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई॥ जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें॥ अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू॥ ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू॥ दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु। एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु॥177॥ टिप्पणी:-सभा के लोग जिस उद्देश्य से,मुझे राजा बनाना चाहते हैं,उस पर मेरे विचार सुनो! हमारी भलाई तो सीतापति राम की सेवा करने में है, जिसमें माता की कुटिलता के कारण विघ्न उपस्थित हो गया है।मैंने निश्चय कर लिया है कि मेरा कल्याण और किसी उपाय में नहीं है। इस समय अवध राज्य के सब अंग शोक संतप्त हैं।श्री सीता-राम-लखन के आशीर्वाद विना, वे वैसे ही व्यर्थ है - जैसे दिगंबर देह सोने चांदी के आभूषण लाद देने से रहता है।जैसे राग युक्त वाणी सहित ब्रह्मविचार रहता है।जैसे रोगी शरीर के लिए विषय भोग के साधन व्यर्थ रहते हैं। जैसे भक्ति रहित होकर जप- योग के साधन व्यर्थ ही रहते हैं। जैसे सुंदर देह चेतना रहित होने पर व्यर्थ हो जाती है,वैसे ही बिना रघुराई राम के मेरा सब कुछ व्यर्थ है।अतः राम जी के पास चलने के मेरे प्रस्ताव की सभा अनुमति दे। इसी उपाय से मेरा कल्याण हो सकता है ,और सब व्यर्थ है:- हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई॥ मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥ सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें॥ बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू॥ सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा॥ जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई॥ जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू॥ टिप्पणी:-यदि दूसरे कारण से आप सब मुझे राजा बनाना चाहते हैं,तो उस पर भी मेरा विचार सुनो ! मेरे जैसे व्यक्ति को राजा बनाकर राज्य और जनता का कल्याण देख रहे हैं -यह मोह वस भ्रम है ।कैकेई का पुत्र ,कुटिल बुद्धि, रामविमुख और निर्लज्ज राजा के राज्य में किसी का सुखी रहना असंभव है।सच्ची बात यह है, कि राजा को धर्मिष्ठ होना चाहिए,धर्मनिरपेक्ष नहीं,अन्यथा पृथ्वी पाताल को चली जाती है ।अर्थात पृथ्वी माता का पालन कर्ता गुण समाप्त हो जाता है। इस समय है मेरे अंदर सब पाप निवास कर रहे हैं, क्योंकि मेरे कारण श्री सीताराम वनवास के कष्ट भोग रहे हैं।मेरे कारण राजा को विवश होकर रामजी को वनवास देना पड़ा, और स्वयं भी देह छोड़ना पड़ा ।मैं सारे अनर्थों के केंद्र में होता हुआ भी ,सारी बातें सुन-समझ कर जिंदा बैठा हूं,और श्री रामजी रहित अपने निवास स्थान राजमहल में बैठकर,सारे जग का उपहास सह रहा हूं।मेरे पापी प्राण रामरस से उदासीन है किंतु सांसारिक भोगों के लोभी और भूखे हैं । मैं अपने हृदय की कठोरता कैसे व्यक्त करूं जो वज्र से अधिक कठोर हो रहा है।सिद्धांतन कारण से कार्य कठोर होता है।हड्डी से बना बज्र और पाषाण (लोहे की ओर) से बना लोहा अपने कारणों से कठोर होता है ।मेरे नीच प्राण पूरी तरह अभागे होने के कारण,कैकेई से उत्पन्न देह को छोड़ नहीं रहे हैं। प्रिय ईष्ट के वियोग होने पर भी, मेरे प्राण देह का त्याग नहीं कर रहे हैं,अतः मुझे अभी बहुत कुछ देखना-सुनना शेष है:- मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू॥ दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज। तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज॥178॥ कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू॥ मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥ मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥ रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा॥ मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू॥ बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू॥ राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे॥ कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई॥ दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर। कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥179।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -59 श्री भरतजी द्वारा श्री राम जी की शरण में चलने का प्रस्ताव रखना-२:- श्री भरत जी सभा को स्पष्टीकरण दे रहे हैं,कि कैकेयी जैसी माता से उत्पन्न पुत्र के राज्य में आप सब सुखी नहीं रह सकते।वे व्यंगात्मक भाषा में कहते हैं,कि जिस राज्य का राजा हमें बनाना चाहते हो, उसके लिए कैकेयी अनेक उपहार पहले ही दे चुकी है।यथा➡ श्री सीता -राम -लक्ष्मण को बन दिया।पति को स्वर्ग भेजा।वैधब्य और अपयश स्वयं लिया।प्रजा को शोक और संताप दिया।मुझे सुख सुयश देने के लिए राज्य दिया।बची-खुची कमी आप सब ,रायतिलक करके क्यों पूरी करना चाहते हो? कैकेई की कोख से जन्म देकर, विधाता मेरी सब आवश्यकताएं पहले ही पूरी कर चुके हैं ।फिर प्रजा और पंच मेरी और अधिक सहायता क्यों करना चाहते हैं, अर्थात मरे हुए को क्यों मारना चाहते हैं ? जो क्रूर ग्रहों से ग्रसित हो(लखन- राम-सीता का बन जाना)। उसे सन्निपात भी हो(पिता का स्वर्गवास)।उसपर भी बीछी ने डंक मार दिया हो (राम बियोग से विक्षिप्त प्रजा का सामना)। उसे मदिरा (राजतिलक) क्यों पिलाना चाहते हैं? इससे तो उसके लोक परलोक सब बिगड़ जाएंगे :- लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा॥ लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू॥ मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू॥ एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका॥ कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं॥ मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई॥ दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार। तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥ टिप्पणी :-कैकेई के पुत्र होने के नाते,चतुर विधाता मेरी सब आवश्यक आवश्यकताएं पूरी कर चुका है। दशरथ महाराज को पिता और श्री राम जी को भाई तो धोखे में बना दिया है।आप सभी को मेरे लिए राजतिलक की राजाज्ञा उचित लग रही है, इसलिए राजतिलक कराना चाहते हैं।मैं अकेला पड़ गया हूं,जिसको जो अच्छा लगे कहो ,मैं प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं हूं। मेरे राजतिलक को,मैं और मेरी माता कैकेई ही अच्छा कह सकती है, अन्यथा सारे जड़-चेतन को श्री रामजी प्राण प्रिय हैं।जो मेरे लिये सबसे बड़ी हानि( राजतिलक) है, उसमें आपको मेरा सबसे बड़ा हित दिख रहा है, यह मेरा दुर्भाग्य है।आप सब का इसमें दोष नहीं है,आप सब जो कुछ भी कह रहे हैं ,सब उचित है। श्री राम जी की माता होने के कारण कौशल्या जी स्वाभाविक रूप से अत्यंत सरलचित्त हैं,और मुझसे विशेष प्रेम करने के कारण,मेरी दीनता पर तरस खाकर,उन्होंने भी राजतिलक का अनुमोदन कर दिया है:- कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई॥ दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥ तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका॥ उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥ मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई॥ मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥ परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू॥ संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥ दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि। कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181। टिप्पणी:-गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, उनके लिए सारा जगत हथेली पर रखे बेर के समान है। वे भी मेरा राजतिलक उचित ठहरा रहे हैं।विधाता के विपरीत होने पर सभी विपरीत हो जाते हैं।श्री सीताराम जी को छोड़कर,सभी लोग वनवास के षड्यंत्र में मेरी सम्मति देखेंगे।मुझे यह सब बिना प्रतिकार के सहना पड़ेगा।क्योंकि जहां पानी होता है,वहां कीचड़ हो ही जाता है। मुझे लोक की बदनामी का डर नहीं है और न परलोक बिगड़ने का सोच है।हृदय में एक ही दावाग्नि धधक रही है,कि मेरे कारण श्री सीताराम जी बन में दुख उठा रहे हैं।जीवन का सच्चा लाभ लक्ष्मण जी ने उठाया,जो सब कुछ त्याग कर श्री राम जी के चरणों में समर्पित हो गए।मैं अभागा व्यर्थ में पछता रहा हूं।मेरा जन्म तो श्री राम जी को वन भेजने के लिए हुआ है। मैं आप सब से सिर झुका कर अपनी दारुण दीनता निवेदन करता हूं,की श्री रघुनाथ जी की शरण जाए बिना मेरे हृदय की अग्नि शांत नहीं होगी:- गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥ मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥ परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं॥ सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥ डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू॥ एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥ जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा॥ मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥ दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ। देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-60, श्री भरत जी द्वारा चित्रकूट चलने के प्रस्ताव की सर्वसम्मति से स्वीकृति:- भरत जी अपने निश्चय की घोषणा कर देते हैं। मेरे हृदय की बात रघुवर श्रीराम ही जान सकते हैं। अतः मेरा एक ही निश्चित निर्णय है, की प्रातः काल ही मैं प्रभु के पास चल दूंगा।यद्यपि मैं बुरा और अपराधी हूं,और मेरे ही कारण सब उपद्रव हुआ है। फिर भी मुझे विश्वास है, कि मुझे शरणागत हो सम्मुख देखकर, सब अपराध क्षमा करके, प्रभु मुझ पर विशेष कृपा करेंगे। श्री रघुनाथ शीलवान, संकोची,सरल स्वभाव के हैं,तथा कृपा और प्रेम के समुद्र ही हैं।श्री राम जी शत्रु का भी बुरा नहीं चाहते,मैं तो शिशु और सेवक ही हूं अतः टेढ़ा होते हुए भी, मेरे अपराध को क्षमा कर देंगे। आप सब पंच मेरे भले के लिए,अपने अच्छे मन से,मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर आशीर्वाद दें, जिससे मेरी बिनती सुनकर,मुझे अपना दास जानकर,श्री राम जी राजधानी लौट आएँ।यद्यपि मेरा जन्म कुमाता से है,मैं दुष्ट और दोषी हूं,फिर भी अपना जानकर वे मुझे न त्यागेंगे। मुझे श्री राम जी पर पूरा भरोसा है :- आन उपाय मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥ एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥ जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी॥ तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी॥ सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥ अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥ तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी॥ जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥ दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस। आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस॥183॥ टिप्पणी :-श्रीराम प्रेम-अमृत में पगे भरत के वचन सबको प्रिय लगे।वे वियोग रूपी विष से मूर्छित दशा को प्राप्त हो रहे थे,कुछ उपाय नहीं सूझ रहा था।बीज युक्त मंत्र सुनते ही विष शांत हो गया। "एकै आंक....... प्रभु पाहीं" वचन ही बीजयुक्त मंत्र है।प्रस्ताव सुनकर माता, मंत्री,गुरु,पुरवासी तथा स्त्री -पुरुष प्रेम के मारे व्याकुल हो गए, अर्थात उनकी रामबिरह-अग्नि भड़क उठी और सब भरत जी की बराबर प्रशंसा करने लगे कि -भरत राम प्रेम की साक्षात मूर्ति हैं। सब कहते हैं,हे तात ! निसंदेह राम जी तुम्हें प्राणों की तरह है प्रेम करते हैं।जो नीच व्यक्ति अपनी मूर्खतावश माता की कुटिलता का, तुम से संबंध जोड़ेंगे, वह अपनी करोड़ों पिछली पीढियों सहित, सैकड़ों कल्प तक नरकीय जीवन बिताएंगे।सर्प- मणि उससे उत्पन्न होने पर भी,सर्प के पाप और दोषों को नहीं ग्रहण करती,अपितु दूसरे के विष, दुख हुआ दरिद्र को शांत कर देती है। सब ने कहा, हे भरत !अवश्य बन को चलिए,जहां राम जी हैं।तुमने बहुत अच्छी युक्ति निकाली है, जिससे शोक समुद्र में डूबते हुए सभी को सहारा मिल गया:- भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥ लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥ मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥ भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥ तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू॥ जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई॥ सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता॥ अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥ दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह। सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥ टिप्पणी:-सभी अत्यंत आनंदित हो उठे। मानो ब्रह्मनिष्ठों को चातक के समान स्वाति का जल मिल गया हो और ईश्वरवादियों को मोर के समान वर्षा के बादल गरजने लगे हों। प्रातःकाल चलने के निश्चयात्मक निर्णय से भरत सब के प्राण प्रिय हो गए।सभा की समाप्ति हुई और मुनि की वंदनाकर तथा भरत को माथा नवाकर सब विदा हुए।रास्ते में परस्पर श्री भरत के शील-सनेह की सराहना करते हुए कहते हैं, कि संसार में भरत जी का जीवन धन्य है।बहुत बड़ा काम हो गया, श्रीराम- दर्शन और उनकी लौटाने का निर्णय लिया गया है। सब चलने की तैयारी करने लगे।घरों की व्यवस्था और सुरक्षा के लिए जिनकी रुकने की स्थिति बनती है,वे मानते हैं कि हमारी तो गर्दन ही कट गई।कोई -कोई कहते हैं किसी को भी रुकने को न कहो ! सभी श्री रामदर्शन कर जन्म लेने का लाभ उठाना चाहते हैं।वह संपत्ति,घर,सुख,मित्र, माता-पिता तथा भाई सब व्यर्थ और त्याज्य है,जो श्री रामचंद्र जी के सन्मुख होने में प्रसन्नता पूर्वक सहायता न करें:- भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥ चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥ मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥ धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥ कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥ जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥ कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू॥ दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ। सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185।।
- मानस आधारित श्री राम कथा अयोध्याकांड -61,श्री भरत सहित अवधवासियों की चित्रकूट यात्रा-१:- घर-घर लोग हर्षपूर्वक सवेरे यात्रा पर चलने की तैयारी करने लगे।सभा से लौटने पर भरत के हृदय में कर्मयोग का सूत्र,186. 3,4 प्रकट हो गया अर्थात "सारी संपत्ति रघुपति राम की है।सेवक होने के नाते इसे सुव्यवस्थित रखना हमारा कर्तव्य है अन्यथा हम स्वामीद्रोही, पॉपशिरोमणि हो जाएंगे "।एक प्रकार से भरत के लिए श्री राम जी का अवध के राजपद पर अभिषेक हो गया, जिसका निर्वाह वह 14 वर्ष तक करते रहेंगे। सेवक वही है जो स्वामी की भलाई करे,अत: उन्होंने कर्मचारियों को उनकी योग्यता अनुसार रक्षाभार सौंपकर,माता कौशल्याजी के पास पहुंचे। माताओं को दुखी जान,उन सब को भी ले चलने के लिए,पालकी,सुखासन और रथ तैयार करने का आदेश दे दिया :- घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना॥ भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥ संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही॥ तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई॥ करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई॥ अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥ कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा॥ करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे॥ दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान। कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥ टिप्पणी:- नगर के स्त्री -पुरुष ,चकवी -चकवे की तरह आतुरता पूर्वक सुबह की प्रतीक्षा करने लगे। सारी रात जागते-जागते सवेरा हो गया।भरतजी ने, मंत्रियों को तिलक की सारी सामग्री साथ ले चलने की आज्ञा दे दी,जिससे मुनि जी बन में ही श्रीराम जी को राजा बना दें। श्री अरुन्धती और अग्निहोत्र की सामग्री सहित रथ पर पहले मुनिराज वशिष्ठ जी चले।अनेक सवारियों में ब्राम्हण बृन्द चढ़कर चले। नगर के सभी लोगों ने रथो और सवारियों से चित्रकूट के लिए प्रस्थान किया।सुंदर पालकियों पर चढ़ कर सब रानियां चल दीं। नगर की सुव्यवस्था कर्मचारियों को सौंपकर,सबको आदर पूर्वक रवाना करके,श्री भरत, शत्रुघ्न जी भी श्री सीताराम जी के चरणों का स्मरण कर, चल दिए:- चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥ जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥ कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू॥ बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥ अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥ बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥ नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥ सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी॥ दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ। सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥ टिप्पणी:- श्री राम दर्शन की चाहवश,सभी स्त्री-पुरुष आतुरता से ऐसे चल रहे हैं,मानो प्यासे हाथी -हथिनी जल देखकर तेजी से जा रहे हों। श्री सीताराम जी का बन में होने का विचारकर भरत जी भाईसहित पैदल ही जा रहे हैं।उनका ऐसा प्रेम देखकर,अन्य लोग भी वाहन त्याग कर पैदल चलने लगे। माता कौशल्या जी को पता चलते ही उन्होंने अपनी डोली भरत के पास रुकवा दी,और बोलीं, बेटा ! माता बलिहारी जाती है,रथ पर चढ़ो! अन्यथा सब पैदल चलेंगे।जनता शोक से दुर्बल हो रही है,पैदल चलने योग्य नहीं है।माता जी की आज्ञा मानकर,माथा नवाकर,दोनों भाई रथ पर चढ़कर चलने लगे। कोई दूध का आहर करते हैं,कोई फलाहार करते हैं,कोई रात्रि में एकासन करते हैं। सब लोग भूषण और भोग-विलास श्री राम जी के लिए त्याग किए हुए हैं। पहले दिन तमसा किनारे बसकर,दूसरी रात गोमती पर ठहर कर,तीसरी रात साईं नदी किनारे विश्राम किया और फिर श्रृंगवेरपुर के लिए चल दिए:- राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥ बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥ देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे॥ जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥ तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी॥ तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू॥ सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई॥ तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥ दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग। करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥ सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड- 62,भ्रमवश निषाद राज का श्री भरत से युद्ध करने की तैयारी करना:-निषादराज को भरत जी के श्रृंगवेरपुर पहुंचने की सूचना मिल गई।वह विचार करने लगा कि भरत जी बन क्यों जा रहे हैं ? साथ में सेना होने के कारण उसमें नकारात्मक सोच उत्पन्न हो गया, कि हो सकता है भरत जी दोनों भाइयों को मारकर,अकंटक राज्य करना चाहते हो। वह सोचता है कि राजनीति के विषय में भरत अनाड़ी हैं। राज्य प्राप्त हो गया था, तो राजा बने रहते,उसमें केवल राज्य- लोलुपता का कलंक था। लेकिन इस कृत्य से तो वह प्राण गंवा बैठेंगे ! सारे देवता और असुर मिलकर भी,रामजी को युद्ध में नहीं जीत सकते हैं!लेकिन भरत जी ऐसी भूल कर रहे हैं,क्योंकि विष की लता अमृतफल नहीं फलती। गुह ने अपने विचार,अपनी जाति वालों को बताकर,सावधान हो जाने को कहा!भरत से युद्ध की रणनीति के लिए,उसने डाँड़, पतवार तथा नावों को जल में डुबोकर घाटों की राह छेंक लेने की योजना बनाई :- समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥ कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं॥ जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥ जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी॥ भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥ सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥ का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥ दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु। हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥ टिप्पणी:-गुह कहता है, लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ ! भरत से युद्ध करूंगा ! जीते जी गंगा पार ना होने दूंगा ! देह तो क्षणभंगुर है ही, लेकिन मरने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है - युद्ध में मरना ,गंगा तट पर मरना ,और वह भी भगवान राम के लिए ! स्वामी के लिए युद्ध करने से 14 लोकों में निर्मल यश फैलेगा। श्री रघुनाथ जी के लिए युद्ध करने में जय-पराजय दोनों में लाभ ही लाभ है।जीवन को सफल बनाने के लिए, सज्जनों और रामभक्तों की पंक्ति मैं स्थान पाना आवश्यक है।अन्यथा जीवन व्यर्थ ही गया और जन्म लेना माता का यौवन व्यर्थ करने वाला ही माना जाएगा। विषाद रहित हो निषादराज ने सब का उत्साह बढ़ाकर स्वयं भी श्री राम जी का सुमिरन कर,तुरंत अपना तर्कश, धनुष और कवच लाने को कहा:- होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥ सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥ समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥ भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥ स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥ तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥ साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा॥ जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥ दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु। सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥ टिप्पणी:-स्वयं युद्ध की तैयारी करता हुआ गुह,अपनी जाति बिरादरी के लोगों का उत्साह बढ़ाते हुए कहता है,कि राजआज्ञा सुनकर कायरता का परिचय न देना !सब सहर्ष" जय सरकार "! कहकर आज्ञा स्वीकार करते हैं,और और परस्पर एक दूसरे का उत्साह बढ़ाते हैं।सभी वीर हैं,संग्राम करने में उन्हें अच्छा लगता है।युद्ध में ढाल की आवश्यकता होती है,अतः श्री राम जी के पैरों की पनही का स्मरण करते हैं।दैन्यघाट के भक्त के लिए इससे अच्छी ढाल नहीं हो सकती। निषाद वीरों ने कमर में तरकस बांधे और अपने छोटे-छोटे धनुषों की प्रत्यंचा चढ़ा ली।कवच पहनकर ,सिर पर लोहे की टोपी बांधकर फरसों और बरछों को सुधार लिया।जो ढाल तलवार की कला में निपुण हैं, वे उत्साह से अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। अपना-अपना लड़ाई का साज- सामान लेकर सब दरबार में आकर, गुहराजा को प्रणाम करके, अपनी उपस्थिति जनाते हैं। सुंदर योद्धाओं को देखकर निषादराज उनका नाम ले लेकर उनकी उपस्थिति का सम्मान करता है, और कहता है भाइयों ! आज बड़े काम के लिए आपकी आवश्यकता है ! धोखा ना देना ! उत्तर में, योद्धा भी ललकारते हैं, हे वीर !अधीर न हो ! हे नाथ ! श्रीराम के प्रताप ,और आप के बल से,सेना के योद्धाओं और घोड़ों का सफाया कर देंगे!जीते जी हम पैर पीछे ना हटायेंगे!पृथ्वी रुंड -मुंडमय हो जाएगी! :- बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥ भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥ चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी॥ सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥ अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥ एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥ निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई॥ देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥ दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि। सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥ राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥ जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -63, निषाद राज को अपनी भूल का बोध और श्री भरत से मिलन:- निषादराज ने देखा उसके योद्धाओं का जत्था तैयार है।तब उसने कहा लड़ाई सूचक ढोल बजाओ।इतना कहते ही बाँई और छींक हुई।शगुन विचारने वाले ने कहा खेत सुंदर रहेगा।एक वृद्ध ने शगुन विचार कर कहा - भरत से मिलाप होगा,उनसे मिलो, लड़ाई न होगी।भरतजी ,श्री राम को मनाने जा रहे हैं।शगुन कह रहा है लड़ाई-झगड़ा न होगा। यह सुनकर गुह ने कहा, बूढ़ा ठीक कह रहा है। मूर्ख लोग जल्दबाजी में भूल करते हैं,फिर पीछे पछताते हैं।भरत जी का शील-स्वभाव बिना जाने- समझे युद्ध करना हानि प्रद है। तुम सब भट संगठित होकर घाट छेंको।मैं जाकर उनका मर्म लेता हूं। मित्र या शत्रु या मध्य भाव जैसा होगा, जानकर अगला कदम उठाऊँगा।बैर और प्रेम भाव छिपाए नहीं छिपता। उसने भेंट व परीक्षा के लिए तीनों गुणों वाली भिन्न-भिन्न वस्तुएं अलग-अलग बहंगो में भरकर कहारों को साथ लेकर, मिलने चला।मंगल शगुन होने लगे। सबसे आगे वशिष्ठ मुनि को देखकर, उसने अपना नाम बताकर, दंड प्रणाम किया।सुमंत्र ने इसका परिचय पहले ही दे दिया था, अतः राम प्रेमी जानकर मुनि ने आशीर्वाद दिया,और भरत को भी उसका परिचय दे दिया। उसे रामसखा जानते ही, भरत जी रथ त्याग कर उससे मिलने चले।अपनी और भरत को आते देख गुह ने अपना नाम व गांव का नाम तथा अपनी जात बता कर दंडवत प्रणाम किया।उसको दंडवत करते देखकर,श्री भरत जी ने उसे छाती से लगा लिया।उसको प्रेम पूर्वक ऐसे गले से लगाया मानो लक्ष्मण को गले लगा रहे हों :- दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥ एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥ बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥ रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥ सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा॥ भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥ दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ। बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥ लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥ अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥ मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने॥ मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥ देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥ जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥ राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा॥ गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥ दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ। मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ॥193॥ टिप्पणी:- भरत को इतने प्रेम पूर्वक भेंट करते देख,लोग ईर्ष्या पूर्वक प्रेम की रीत की सराहना करने लगे।देवता लोग आकाश से धन्य-धन्य कहकर फूल बरसाते हैं।वे सराहना करते हुए वह कहते हैं - लोग और वेद अनुसार गुह आध्यात्मिक विकास क्रम में बहुत नीचे है। उससे श्री राम के छोटे भाई भरत गले से लगाकर मिलते हुए,शरीर से भरपूर पुलकायमान हो रहे हैं,यह राम महिमा का प्रभाव है ।जिन लोगों के मुख से आलस्यवश भी राम-राम निकल जाता है,उसके पाप समूह नष्ट हो जाते हैं।इसे तो साक्षात श्री राम जी ने ही हृदय से लगाया है,अतः सबके लिए कुल समेत पवित्र बन गया है। सामान्यतया कर्मनासा के जल से नहाने पर,संपूर्ण पुण्य नष्ट हो जाते हैं,किंतु जब वही जल गंगा जी में मिल जाता है,तो उसे सभी पवित्र मानकर सिर पर धारण करते हैं। उल्टा (मरा -मरा)नाम जपने से बाल्मीकि जी ब्रह्म के समान पूज्य हो गए। स्वपच, शबर ,खस ,यवन ,कोल,किरात आदि असभ्य और मूर्ख लोग भी राम नाम लेने से पवित्र और लोक प्रसिद्ध हो गए।अस्तु गुह को सम्मान मिलने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है।ऐसा तो युग युगांतर से होता आ रहा है।श्री राम जी के संबंध से सभी को बड़प्पन मिल जाता है।देवता लोग श्री राम की महिमा गा रहे हैं और अवध वासी सुन सुन कर सुख पा रहे हैं:- भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥ धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥ लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥ तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥ राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥ यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥ करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई॥ उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥ दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात। रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥ नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई॥ राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -64, निषादराज का सभी अवध वासियों से प्रेम पूर्वक मिलन और आदर पूर्वक उनके ठहरने की व्यवस्था करना:- श्री भरतजी ने प्रेम सहित रामसखा से मिलकर,उसका कुशलक्षेम और मंगल समाचार पूछा?भरत जी का शील स्वभाव और प्रेम देखकर गुह स्तब्ध रह गया। उसके मन में संकोच,स्नेह और आनंद की ऐसी बाढ़ आई,कि वह टकटकी लगाए श्री भरत को देखता रहा।फिर धीरज धरकर, चरणों को प्रणाम कर,हाथ जोड़कर, प्रेम सहित विनती करने लगा। कुशलमूल आपके चरणों को देखकर,मैं अब तीनों कालों में अपनी कुशल मानता हूं।आपकी परम अनुग्रह से करोड़ों पीढ़ियों सहित हमारा मंगल रहेगा । जो मेरे जैसे आचरण और कुल वाले को गले लगाते देखकर भी, श्री रामजी के चरणों की सेवा न करे, वह बड़ा अभागा है।मुझ जैसे कपटी,कादर, दुर्बुद्धि,नीचजाति,सब प्रकार से लोक और वेद से बाहर होने पर भी,जब से हमें श्री राम जी ने अपनाया है,तभी से मैं सब लोकों में भूषण रूप हो गया हूं :- रामसखहिं मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥ देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥ सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥ धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥ कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥ अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥ दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ। जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥ कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥ राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥ टिप्पणी :-निषादराज की प्रीति देखकर ,और सुंदर विनय सुनकर,शत्रुघ्न जी भी उससे मिले। निषादराज ने अपना परिचय देते हुए,विनम्र वाणी से सब रानियों को प्रणाम किया।उन सब ने भी लक्ष्मण के समान मानकर, उसे आशीर्वाद दिया, यथा -सौ लाख वर्ष तक तुम सुख पूर्वक जियो! अवधपुर के निवासी निषाद को देखकर,ऐसे प्रसन्न हो रहे हैं,मानो लक्ष्मण को देख रहे हैं।सब कहते हैं, इसका जीवन सफल हो गया है।क्योंकि श्री रामजी ने भुजाओं में भरकर इसे हृदय से लगाया है। अपने भाग्य की बडाई सुनकर निषादराज प्रसन्न चित्त सबको लिवाकर श्रृंगवेरपुर के गंगातट की ओर चला।उसने सब सेवकों को इशारे से समझा दिया,कि अब लड़ना नहीं है,इन सबका अतिथि सत्कार करना है।वह सब स्वामी का संकेत पाकर चले और घरों,वृक्षों के नीचे,तालाबों के किनारे, बागों और वनों को झाड़-बुहारकर तथा साथरी आदि बिछाकर ठहरने लायक स्थान बनाने लगे:- देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥ कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं॥ जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥ निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी॥ कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥ सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥ दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ। घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥ टिप्पणी :-श्री भरतजी ने जब से श्रगवेरपुर देखा, तब से श्री राम जी संबंधित बातें यथा- यहां रथ छोड़ा,रात्रि विश्राम किया,जटा बनाएं तथा सुमंत्र को लौटाया, स्मरण आने से उनके सब अंग प्रेम से शिथिल हो रहे हैं।वे निषादराज के कंधे पर हाथ से सहारा लिए चलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं,मानो विनय और प्रेम की मूर्तियां जा रही हों।भरत जी ने सब सेना के साथ जाकर, मोक्षदायिनी गंगा जी का दर्शन किया।श्री राम घाट को प्रणाम कर ऐसे आनंदित हुए,मानो राम जी मिल गए हों। नगर के स्त्री-पुरुष गंगाजी को प्रणाम करके और ब्रह्मद्रव देख-देखकर प्रसन्न होते हैं।वे इस स्नान कर,हाथ जोड़कर वरदान माँगते हैं- कि श्री राम जी के चरणों में अति प्रेम हो। भरत जी ने प्रार्थना की, हे सुरसरि ! आपकी रेणु सबको सुखद है, कामधेनु के समान समस्त सुख देने वाली है, मुझे श्री सीताराम जी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम होना दो ! श्री भरत जी स्नानकर, गुरुजी से आज्ञा लेकर और सब माताओं का स्नान करना सुनिश्चित कर, डेरा लिवाकर रात्रि विश्राम के लिए चल दिए:- सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥ सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥ एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा॥ रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥ करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥ करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी॥ भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥ जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥ दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ। मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ॥197।।
- मानस आधारित श्री राम कथा अयोध्याकांड -65,श्री भरत द्वारा,श्री सीताराम जी के रात्रि विश्राम- स्थल का दर्शन-नमन:-जहां-तहां लोगों को स्थान मिला,रात्रि विश्राम के लिए वहां ठहर गए।भरत जी ने सबका संभाल कर लिया।देव पूजन करके,माता से आज्ञा लेकर,दोनों भाई उनके पास पहुंचे। चरण दबाकर और मीठी वाणी कहकर सब माताओं का सम्मान किया।फिर भाई को माताओं की सेवा सौंपकर,आपने स्वयं निषाद को बुला लिया। सखा का हाथ से हाथ पकड़ कर चले,और उससे कहा-कि वह स्थान दिखाओ!जहां श्री सीता राम लक्ष्मण रात को सोए थे ! यह कहते-कहते उनके आंखों में प्रेमाश्रु भर आये। यह देख-सुनकर निषादराज को भी बड़ा दुख हुआ।वह उन्हें तुरंत सिंसुपा( शीशम या अशोक) वृक्ष के नीचे लेगया। श्री भरत जी ने अत्यंत स्नेह से उस स्थान को प्रणाम किया।कुश से बनी साथरी देख, उसका प्रदक्षिणा कर प्रणाम किया।चरण चिन्हों की रज आंखों में लगाई।कोई दो-चार कनक बिंदु दिखे, तो उनको सीता जी के समान मानकर,मस्तक पर रख लिया।प्रीति की अधिकता से नेत्रों में आंसू भर आए,हृदय में ग्लानी है।वे शखा से बोले! ये स्वर्णकण भी सीता जी के विरह से कांति और शोभा हीन हो रहे हैं,जैसे अवध के स्त्री-पुरुष मलिन हो गए हैं।राजा जनक, जिनके योग-भोग दोनों हथेली के नीचे हैं,वे श्री सीता जी के पिता है।सूर्यकुल के सूर्य राजा दशरथ उनके ससुर हैं,जिनके भाग्य की सराहना इंद्र करते हुए स्पर्धा रखते हैं। उनके पति संत तुलसी के इष्ट रघुनाथ जी हैं।ऐसी ऐश्वर्यवान, पतिव्रता शिरोमणि सीता जी की कुश- सैया देख कर मेरा हृदय हहाराकर फट जाना चाहिए था, लेकिन बज्र से अधिक कठोर होने के कारण,ऐसा नहीं हो रहा है - जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥ सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥ चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी॥ भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥ चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें॥ पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥ जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥ भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥ दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु। अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥198॥ कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥ चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥ कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे॥ सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥ श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना॥ पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥ ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू॥ प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई॥ दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि। बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि॥199॥ टिप्पणी :- लक्ष्मण जी की साथरी न देख,भरत जी समझ गए,कि वे रात भर जगकर पहरा देते रहे होंगे।अस्तु उनका स्मरण हो आया।सुंदर,दुलार करने योग्य लक्ष्मण जी के समान भाई न हुए,न हैं, और न होने वाले हैं।वे अवध वासियों की प्यारे, माता-पिता के लाड़ले तथा श्री राम जी के प्यारे हैं। जिनका शरीर व स्वभाव बड़ा कोमल है, जिसे लू का कभी स्पर्श नहीं हुआ है।ऐसे लक्ष्मण जी बन में सब प्रकार की विपत्तियां, कष्ट, दुख झेल रहे हैं।यह समझ कर भी मेरी छाती करोड़ों बज्रों का तिरस्कार करते हुए ,फट नहीं रही है। श्री राम जी ने संसार में जन्म लेकर,संसार को प्रकाशित कर दिया है।वे रूप ,शील, सुख और समस्त गुणों के समुद्र है।पुरवासी,कुटुंबी,गुरु,पिता और माता सभी को राम जी का स्वभाव सुख देने वाला है।शत्रु भी राम जी की बड़ाई करते हैं।उनकी बोलचाल,मिलनसारी और विशेष नम्रता सबके मन को हरने वाली है।कोटि -कोटि शेष भी प्रभु के गुण समूहों की गिनती नहीं कर सकते,तो भला मैं क्या कहूं।आश्चर्य है कि ऐसे सुख स्वरूप मंगल और आनंद के खजाना रघुवंशमणि कुश बिछाकर पृथ्वी पर सोते हैं,तो मानना पड़ता है कि विधाता की गति अत्यंत बलवान है:- लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥ पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे॥ मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ॥ ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥ राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर॥ पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥ बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं॥ सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥ दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान। ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड- 66,श्रीराम का विश्राम स्थल देखकर,भरत का विषाद और निषादराज का उन्हें समझाना:- सिंसुपा के नीचे साथरी को देख, भरत जी,रामजी के गुणों का स्मरण कर दुखी हो रहे हैं। श्रीराम जी ने कभी दुख का नाम तक नहीं सुना था। राजा दशरथजी उनकी प्राणों की तरह देखभाल करते रहे।माताएं उनकी रक्षा वैसे ही करती थीं, जैसे पलके आंखों की और सर्प अपने मणि की करता है।ऐसे श्रीराम नंगे पैर बन-बन घूम रहे हैं और कंदमूल का भोजन कर रहे हैं?अमंगल की जड़ कैकई को धिक्कार है।मुझ पाप-समुद्र और अभागे को धिक्कार है, जिसके कारण ये सब उपद्रव हुए हैं।विधाता ने मुझे कुल-कलंक रूप बनाया और माता ने मुझे स्वामी-द्रोही बना दिया। निषाद राज प्रेम पूर्वक बोले!हे नाथ ! आप व्यर्थ विषाद कर रहे हैं।श्री राम जी आपको प्यारे हैं,और आप भी रामचंद्रजी को, यह दृढ सत्य है।सार बात यह है,कि सारी घटना का दोषी विधाता है।उनकी वामांगी सरस्वती ने माता कैकेई को बाबली बना दिया था । उस रात प्रभु बारंबार सादर आप की बड़ाई करते रहे।मैं शपथ पूर्वक कहता हूं ,कि आप से अधिक राम जी को कोई दूसरा प्रिय नहीं है।अंत में सब मंगल होगा,यह समझकर धीरज धारण कीजिए। श्री राम जी अंतर्यामी हैं, प्रेमयुक्त संकोच और कृपा के धाम हैं,इस बात पर पक्का निश्चय कर लीजिए,और अब आराम कीजिए :- राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ॥ पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥ ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥ धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥ मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥ कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥ सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥ राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥ छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी। तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥ तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ। परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥ सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन। चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥201॥ टिप्पणी :-सखा के वचन सुनकर ,भरतजी, श्री राम का स्मरण करते अपने विश्राम -स्थल के लिए चल दिए। नगर वासियों को यह सूचना मिलते ही, वे सब बड़ी उत्सुकता और दुख के साथ,साथरी देखने पहुँचे,उसका परिक्रमा कर प्रणाम करते हैं। आंसू भरकर,कैकेई को दोष देते हैं और विधाता को दोषी ठहराते हैं ।कोई कोई भरत जी के प्रेम की प्रशंसा करते हैं।कोई राजा दशरथ के प्रेम- निर्वाह की प्रशंसा करते हैं।कोई -कोई निषाद की प्रशंसा करते हुए अपने को हेय ठहराते हैं।अवध वासियों के बिमोह और विषाद को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार सब लोग रात भर जागते रहे। सवेरा होते ही सभी करीब 500 नावों से गंगा जी को पार किया और प्रात काल की क्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान किया।भरत जी भी पार होकर सब का संभाल किया।वे भी सब क्रियाओं से निवृत्त होकर और माताओं के चरण की वंदना कर,गुरु को माथा नवा, निषाद लोगों को आगे कर सेना को चला दिया:- सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥ यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥ परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा॥ भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं॥ एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥ निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥ एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥ गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं॥ दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥ दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ। आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥ टिप्पणी :-यहां से राम जी पैदल गए थे,अतः भरत जी ने भी स्वयं पैदल चलने की योजना बना,तथा सब की सुरक्षा को ध्यान में रखकर,क्रम में परिवर्तन कर दिया।राह दिखाने के लिए निषाद लोग आगे हैं।उनके पीछे सेना है।फिर माताएं हैं। फिर बिप्रबृंद सहित गुरु हैं और इन सब की सुरक्षा तथा सेवा के लिए,निषादराज और शत्रुघ्न जी हैं। सब के पीछे भरत जी पैदल चल रहे हैं,जिसकी सूचना आगे के लोगों को नहीं है।साथ में भरत जी की सवारी है,जिसकी बागडोर पकड़े सेवक चल रहे हैं। सेवक, सवारी पर चढ़ने के लिए प्रार्थना करते हैं। भरत जी उनको समझाते हैं,कि श्री राम जी यहां से पैदल चले हैं,और हम हाथी घोड़े और रथ पर चलें,यह उचित नहीं।सेवक धर्म कठोर होता है, हमें तो सिर के बल चलना चाहिए। भरत की दशा देखकर तथा उनकी कोमल वाणी को सुनकर सेवक लोग ग्लानि से गले जा रहे हैं। भरत जी तीसरे पहर त्रिवेणी पहुंचे,वे प्रेम से भरे सीताराम,सीताराम कह रहे हैं।अन्य लोग सवारियों से चले थे,अतः दूसरे पहर ही पहुंचकर संगम स्नान कर चुके थे:- कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥ साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥ आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥ गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥ कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥ रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥ सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥ देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥ दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग। कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥203।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -67 ,भरत जी का त्रिवेणी पहुंचकर विधिवत स्नान -पूजन कर, श्री भरद्वाज जी से भेंट करना-१:- श्रृंगवेरपुर से भरत नंगे पैर चलकर संगम पहुंचे थे, इसलिए पैरों पर छाले ऐसे चमक रहे थे मानों कमल कोश में ओष बिंदु हों।यह देख -सुन सब समाज दुखी हुआ। यह जानकर कि सब लोग स्नान कर चुके हैं,भरत जी ने त्रिवेणी को प्रणाम कर विधिपूर्वक संगम स्नान किया और ब्राह्मणों को दान देकर उनका सम्मान किया। संगम के दिव्य दर्शन से भरत जी पुलकित हैं, और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करते हैं, हे तीर्थराज ! आपका प्रभाव वेदों में प्रकट है।आप सब कामनाओं को पूरा करने वाले हैं।अपना धर्म (अनन्य भक्त का केवल इष्ट से मांगने का व्रत) त्याग कर, आप से भिक्षा मांगता हूं।आर्त लोग शास्त्र धर्म छोड़ने का कुकर्म कर बैठते हैं,किंतु सज्जन उत्तमदानी हमारे जैसे आर्त भिक्षुक को भीख दे देते हैं । हमें पुरुषार्थ क्षेत्र की उपलब्धियां-अर्थ,धर्म,काम व मोक्ष नहीं चाहिए। मैं परमार्थ क्षेत्र की उपलब्धि "श्रीराम चरणों में अनन्य भक्ति" के वरदान की भीख मांगता हूं :- झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥ भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥ खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥ सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥ देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे॥ सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥ मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥ अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥ दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान। जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥204॥ टिप्पणी :-जिस किसी से मांगने के कारण,भले ही राम जी मुझे कुटिल माने,और अन्य लोग मुझे गुरु और स्वामी द्रोही कहें,पर आपकी कृपा से नित्य- प्रति श्रीसीताराम जी के चरणों में मेरा प्रेम बढ़ता रहे ,यही मेरी याचना है ।चातक की सुध चाहे मेघ जन्म भर भूला रहे,जल मांगने पर चाहे ओले दे, पर चातक की रट घटने से उसकी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी।अतः स्वाति जल के लिए प्रेम बढ़ाना ही उसके लिए उचित है ।जैसे तपाने से सोने की चमक-दमक बढ़ती है, वैसे ही प्यारे इष्ट के चरणों में प्रेम-नेम निभाने से सेवक की प्रतिष्ठा बढ़ती है। भरत की विनती सुन, त्रिवेणी के मध्य से मंगल प्रदाता मधुर वाणी हुई, हे तात भरत ! तुम सब प्रकार से साधु हो!श्री राम चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है !व्यर्थ ग्लानि मत करो !तुम्हारे सामान श्रीराम को कोई प्यारा नहीं है ! त्रिवेणी की अनुकूल बाणी सुनकर भरत का शरीर पुलकित हो उठा,हृदय प्रसन्न हुआ ।देवता हर्षित होकर,भरत तुम धन्य हो ! धन्य हो ! कहकर फूल बरसाने लगे:- जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥ सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥ जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥ चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई॥ कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें॥ भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥ तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥ बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥ दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल। भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥ टिप्पणी :-त्रिवेणी की वाणी सुनने से प्रयाग में बसने वाले, बानप्रस्थी, ब्रह्मचारी,गृहस्थ और विरक्त सन्यासी बड़े प्रसन्न हुए।वे आपस में चर्चा करते हैं,श्री भरत का प्रेम और शील पवित्र तथा सच्चा है।श्री रामजी के सुंदर गुणों की चर्चा सुनते, भरतजी मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज जी के पास आए और दंडवत प्रणाम किया।मुनि ने उनको देखा,तो उन्हें ऐसा लगा कि हमारा भाग्य मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है,अतः दौड़ कर उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया ,तथा आशीर्वाद देकर उन्हें कृतकृत्य कर दिया। मुनि ने आसन दिया,तो भरत सादर मस्तक झुका कर बैठ गए।वे ऐसे दिखाई पड़ रहे हैं मानो संकोच में गड़े जा रहे हों। संकोच यह है,की मुनिजी राम- वनगमन के बारे में चर्चा करेंगे,तो क्या उत्तर देंगे? सामने वाले के मन की बात जान जाने वाले मुनि जी,भरत का संकोच दूर करते हुए बोले ! हमें सब समाचार मिल चुका है।विधाता की करनी के सामने किसी की नहीं चलती! इसे माता की करनी समझकर तुम ग्लानि मत करो ! लोकमत से भले ही कैकेयी दोषयुक्त हो,लेकिन वेद मत से तो सरस्वती ने बुद्धि बिगाड़ दी थी !दोनों मत बुद्धि विचार पर ही आधारित है !वास्तविकता तो दूसरी ही है !कि "राम कीन्ह चाहैं सोई होई":- प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥ कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा॥ सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥ दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥ धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥ आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥ मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥ सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥ दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति। तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥ यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
- मानस आधारित श्री राम कथा अयोध्याकांड-68,मुनि भरद्वाज जी द्वारा,श्री भरत में उत्पन्न हीन भावना की निवृत्ति केलिए उपदेश-२ :-भरद्वाज जी कहते हैं-हे तात ! तुम्हारा यश(पराभक्ति)का गान वेद और लोक सम्मत है। सब की मान्यता है,कि जिसे पिता दे वही राज्य का अधिकारी होता है।राजा वरदान देने के लिए पूर्व से प्रतिज्ञाबद्ध थे। वे तुमको राज्य दे देते तो सभी सुख अनुभव करते,और धर्म की भी प्रतिष्ठा होती। लेकिन राम-वनगमन ही अनर्थ की जड़ है, जिसे सुनकर सारे संसार को पीड़ा हुई है।वह भी हरि इच्छावश हुआ है।रानी अज्ञानी हो गई।कुचाल कर के,अंत में पछताना ही पड़ा। यदि कुचाल से कोई तुम्हें जोड़े,तो वह अज्ञानी,असाधु और असदमार्गी ही होगा । यदि तुम राज्य करते, तो तुम्हें दोष न होता,यह सुनकर श्री रामचंद्र जी को भी संतोष होता।लेकिन तुमने यह जो राम जी की शरण जाने का निर्णय लिया है,यह अति उत्तम है। श्रीराम चरणों में प्रेम होना,समस्त मंगल का मूल है,सो वह प्रेम तो तुम्हारा धन,जीवन और प्राण है,अतः तुम अत्यंत भाग्यशाली हो। हे तात ! तुम्हारे लिए यह स्वाभाविक बात है।क्योंकि तुम पुण्यात्मा दशरथ के पुत्र हो और श्री राम जी के प्यारे भाई हो:- तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥ लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥ राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥ राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥ सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥ तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥ करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥ दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु। सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥ सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥ यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥ टिप्पणी:- हे भरत ! सुनो ! श्री राम जी के मन में तुम्हारी बराबरी का कोई प्रेमपात्र नहीं है।लक्ष्मण, राम,और सीता जी सारी रात तुम्हारे बड़प्पन की चर्चा करते रहे।दूसरे दिन प्रातः संगम-स्नान करते समय भी ,तुम्हारी याद में प्रेम मगन हो जाते थे। जैसे सांसारिक लोगों को विषय सुख और आयु प्रिय होती है, वैसे ही श्री राम जी का तुमसे स्नेह है। यह श्री राम जी के लिए कोई अतिशयोक्ति नहीं है ,क्योंकि वह सारे शरणागत भक्त समुदाय के पालनहार हैं । हे भरत ! मेरे मत में, तू तुम राम प्रेम की साक्षात मूर्ति हो।तुम भले ही अपने को कलंकित मानते हो, लेकिन तुम्हारा आचरण हम सबके लिए आदर्श व शिक्षाप्रद है।हमारे लिए तो यह परा भक्ति प्रारंभ करने का श्रीगणेश है। इसके गूढार्थ का संबंध दोहा 107.8 में मांगे वरदान से है, जो भरतरूप में श्री रामजी ने भरद्वाज को दिया है:- सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥ लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥ जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥ तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥ यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥ तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥ दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु। राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥ टिप्पणी :- हे तात ! तुम्हारा यश भक्तों के लिए नया चंद्रमा रूप है।श्री रामकेभक्त केलिये कुमुदिनी पुष्प और चकोर सदृश्य हैं।भरतयश- चंद्र में प्राकृतिक- चंद्र की तरह कमियां भी नहीं है,यथा- यह रात- दिन उदित रहेगा ।यह कृष्णपक्ष में घटेगा नहीं, दिन-दिन बढ़ता जाएगा ।सदा बना रहने के कारण त्रिलोकीरूपी -कोक इससे अत्यंत प्रीति करेगा।श्री रामजी का प्रतापरुपी सूर्य के सामने भी यह उदित रहेगा।दिन-रात सदा सब किसी को सुख दायक रहेगा।कैकेई-कृत राहु इसे न ग्रसेगा। कैकेयी- करणी रूपी काला -दाग भी इस पर न लगेगा। श्री रामजी के सुंदर प्रेमरूपी अमृत से यह पूर्ण है। गुरु के उपदेश न पालन करने के दोष से भी यह दूषित न होगा। तुमने पृथ्वी को भी अमृत सुलभ करा दिया।अब राम भक्त इस अमृत से सदा तृप्त रहेंगे । आपके पूर्वज भी प्रतापी रहे हैं।भागीरथ जी गंगा जी को लाए ,जिनका सुमिरन मंगल की खानी है। श्री दशरथ के गुणों का समग्रता से वर्णन नहीं हो सकता।उनके समान कोई हुआ नहीं।जिन श्री राम जी का, महादेवजी हृदय के नेत्रों से ही ध्यान लगाए देखा करते हैं, किंतु तृप्त नहीं होते, वे श्री राम जी दशरथ जी का प्रेम देखकर संकोच में पड़ गए ,और अवतार लेना पड़ा:- नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥ उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥ कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥ निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥ पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥ राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥ भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी॥ दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥ दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ॥ जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥209।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -69, मुनि भरद्वाज जी द्वारा उपदेश के मध्य, सनातन धर्म( मानस) का सिद्धांत- सार बताना और भरत जी का राम- बनगमन पर स्पष्टीकरण -3:- श्री भरद्वाज जी कह रहे हैं, हे तात! तुमने कीर्ति रूपी अनोखे चंद्रमा को उदित किया है,जिसमें रामप्रेम रूपी हिरण बसता है।हे तात ! तुम व्यर्थ मन में ग्लानि करते हो! पारस मणि पाकर भी दरिद्रता से डरते हो! हे भरत,सुनो! हम झूठ( ठाकुरसुहाती) नहीं कहते,क्योंकि हम विरक्त हैं, तपस्वी हैं, और बन में रहते हैं।मुनिश्रेष्ठ ने अगली दो चौपाइयों 3,4 में सनातन धर्म (मानस) का सार अर्थात आध्यात्मिक साधन का क्रमिक विकास बता दिया, यथा:- साधक को पहली सफलता लक्ष्मण जी( समष्टि आत्मा) के दर्शन (गीता 6.29 के अनुसार आत्म साक्षात्कार) से मिलती है।अगले चरण में श्री राम जी (परंब्रह्म) का दर्शन (गीता 6:30 के अनुसार बोध) होता है ।तीसरे चरण में श्री सीता जी (आत्ममाया ,गीता 4.6) का दर्शन (गीता 7.6 व 9.7 के अनुसार) होता है। तीनों दर्शनों के फल रूप में श्री भरत जी (पराभक्ति की मूर्ति )का दर्शन (गीता 15. 19 व 9.22 की अवस्था) होता है। श्री भारद्वाज जी कहते हैं -मेरी साधना सफल होने पर, श्री लक्ष्मण -राम -सीता जी का दर्शन हुआ और उसके फल स्वरुप तुम्हारा दर्शन हो रहा है ।यह प्रयाग सहित हमारा सौभाग्य है।हे भरत ! तुम धन्य हो! तुम्हारा जैसा यश संसार में किसी को प्राप्त नहीं हुआ, ऐसा कहकर मुनि जी प्रेम में मग्न हो गए और वाणी रुक गई :- कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥ तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥॥ सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥ सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥ तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा॥ भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ॥ टिप्पणी:- मुनि के वचन सुनकर सब सभासद प्रसन्न हुए और साधुवाद कहकर देवता फूल बरसाने लगे ।प्रयाग के आकाश में धन्य-धन्य की गूंज सुनकर ,भरतजी प्रेम में मग्न हो गए।शरीर में पुलकावली हो रही है, हृदय में श्री सीताराम, नेत्रों में प्रेमाश्रु हैं।मुनिमंडली को प्रणाम करके भरत गदगद वाणी में ,अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं- तीर्थराज प्रयाग में, मुनिमंडली के बीच यदि कुछ झूठ बनाकर कहा जाए ,तो इसके समान कोई बड़ा पाप, नीच कर्म और अधर्म न होगा।मैं सत्य भाव से कहता हूं ,आप लोगों में सब कुछ जानने की शक्ति है ,तथा रघुराई श्रीराम से भी कुछ छिपाया नहीं जा सकता।मेरी स्थिति यह है, कि मुझे माता जी करनी का दुख नहीं है ।उनका पुत्र होने के नाते कोई मुझे नीच व पापी समझे तो उसका भी मुझे दुख नहीं है।मुझे परलोक बिगड़ने का डर भी नहीं है। पूज्य पिताजी के मरने का शोक भी मुझे नहीं है। क्योंकि उनका पुण्य और सुयश सभी लोकों में सुशोभित हो रहा है ।उन्होंने श्री राम -लक्ष्मण सरीखे पुत्र पाए हैं और श्री राम जी के विरह में नाशवान शरीर का त्याग किया है। हमारे शोक और दुख का कारण यह है,कि श्री राम -लक्ष्मण -सीता जी नंगे पाँव मुनिवेष में वनों में घूम रहे हैं।वल्कल वस्त्र पहनते हैं,फल खाते हैं, पृथ्वी पर साथरी बिछा सोते हैं, वृक्षों के नीचे ही सर्दी ,गर्मी तथा वर्षाती झकोरे सहते हैं:- सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥ धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥ दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन। करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥210॥ मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥ एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥ तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥ मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥ नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥ सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥ राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥ राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही॥ दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात। बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥211॥ टिप्पणी:- दुःख का स्वरूप बताकर उसका परिणाम बताते हैं। दुख के कारण मेरी छाती में जलन होती रहती है, जिससे भूख और नींद नष्ट हो गई है ।इस कुरोग की लौकिक दवा ब्रह्मांड में नहीं है।इस रोग की जड़ बढ़ई रूपी कैकेई की पापीविचार वाली बुद्धि है ,जिसने मेरे राज्य प्राप्ति को अपना वसूला बनाया।उससे कुकाठ( बबूल, बहेड़ा) को गढ़ कर कुयंत्र (पुतला) बनाया, और वनवास का मंत्र पढ़कर अवध में ,14 वर्ष का संकल्प कर गाड़ दिया। उसका यह बुरा आयोजन मेरे लिए सजा और सारे संसार को नष्ट-भ्रष्ट करने वाला है।यह कुयोग अब श्री राम जी के लौट आने से ही मिटेगा और किसी अन्य उपाय से अवधपुरी बस नहीं सकती । भरत के अनन्य प्रेम का यह बेजोड़ उदाहरण है। मुनिश्रेष्ठ और सभी सभासद श्री भरत के बचन सुनकर सुखी हुए और उनकी प्रशंसा की।श्री भरद्वाज जी बोले, हे तात ! तुम इतना अधिक चिंतित न हो! श्री राम जी के चरणों का दर्शन पाते ही सब समाधान हो जाएगा! सब प्रकार से सान्त्वना देकर मुनिश्रेष्ठ ने, भारत को अतिथि होने का निमंत्रण दिया और कहा जो कुछ फल -फूल दें उसे स्वीकार करो !:- एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥ एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥ मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥ कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु॥ मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा॥ मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥ भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई॥ तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी॥ दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु। कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -70, मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज जी द्वारा अवधवासियों का दिव्य अतिथि सत्कार:- मुनि के निमंत्रण को लेकर भरत जी दुविधा में फँस गए। भरत जी साधु -संतों की सेवा करने में विश्वास रखते हैं, उनसे करवाने में नहीं। दूसरी ओर मुनि ने जिस गंभीरता और गुरुता से निमंत्रित किया है, उसे न भी नहीं किया जा सकता।अस्तु गुरु के चरणों को प्रणाम करके हाथजोड़ बोले ! हे नाथ आपकी आज्ञा शिरोधार्य करना हमारा सबसे बड़ा धर्म है । भरत जी के के बचन मुनि श्रेष्ठ को अच्छे लगे। उन्होंने सेवकों और शिष्यों को बुलाया, और कंद-मूल -फल लाने को कहा।वे सब माथा नवा कर अपने -अपने काम में लग गए ।मुनि को चिंता हुई की अवधवासियों एवं सेनासहित, राजपरिवार बड़ा मेहमान है,इसकी उचित सेवा कैसे होगी ? चिंता करते ही रिद्धियाँ -सिद्धियाँ प्रकट हो गई और बोली जो आज्ञा हो, सो हम करें। मुनिश्रेष्ठ ने प्रसन्न होकर कहा! शत्रुघ्न तथा भारत सहित सारा राजसमाज रामविरह से व्याकुल है, इनका आतिथ्य सत्कार करके, उनका श्रम दूर करो ! रिद्धि- सिद्धियों ने मुनि वचनों को शिरोधार्य किया।आपस में चर्चा की, कि मुनि की वंदना कर हमसब राज समाज को सुखी करेंगे:- सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥ जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥ सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥ भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥ चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई॥ भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥ मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥ सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई॥ दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज। पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥213॥ रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥ कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥ मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू॥ टिप्पण:- सिद्धियों ने पहले, सुंदर -सुखदायक सबको उनके स्तर अनुसार, निवास स्थान दिए। उनमें दिव्य भोग और ऐश्वर्य की सामग्री भर दिया, जिसे देख देवता भी ललचाने लगे।सब जगह दास- दासियाँ नियुक्त हैं,जो रुचि की वस्तुएं, इच्छा करते ही, उपलब्ध करा देती हैं।देवलोक से भी उत्तम व्यवस्था, सिद्धियों ने सुलभ करा दी। ऋषि वशिष्ठजी व अन्य ऋषियों ने, राजपरिवार सहित भरत से कहा -कि मुनि भरद्वाज जी द्वारा उपलब्ध कराए महलों में चला जाए और ब्रह्मा जी को भी आश्चर्य में डालने वाले ऐश्वर्या को सम्मान दिया जाए:- अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥ भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥ दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥ सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥ प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥ दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह। बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥214॥ टिप्पणी :- जब भारत ने मुनि का प्रभाव देखा,तो लोकपालों के लोक तुच्छ लगे। सुख की सामग्री का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता,जिन्हें देखकर ज्ञानीलोग अपना वैराग्य भुला देते हैं। बिछौने, सुंदरवस्त्र वन फुलवारी अनेक पक्षी,नाना प्रकार के मृग सभीको उपलब्ध है।सभीको सुगंध, सुगंधित फूल, अनेक फल, निर्मल जलाशय, अमृतसरीखे भोज्य और पेय पदार्थ भी प्रप्त हैं, जिन्हें देखकर व्रती अवधवासी, यम-नियम टूटने के संकोच में पड़ गए ।सभी के यहां कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इंद्र- सची भी ललचा रहे हैं ।वसंत ऋतु है, शीतल-मंद-सुगंधित वायु चल रही है।सभी को चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ प्राप्त है।अलौकिक पुष्पमाला, चंदन ,स्त्री और भोग विलास की सामग्री देखकर सब हर्ष और विस्मय कर रहे हैं, कि एकदम से यह सब कैसे और कहां से आ गया ! महल रूपी पिंजड़े में भोग-विलास रूपी चकवी और भरत रूपी चक्रवात को बंद कर देना, यह मुनि का खिलवाड़ था।जहां चक्रवात ने चकवी से मुख मोड़कर रात भर अपने इष्ट चंद्रमा(श्री रामचंद्र जी) को देखकर (स्मरणकर) रात विता दी और सवेरा हो गया:- मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥ सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी॥ आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥ सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना। असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से॥ सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥ रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥ स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥ दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार। तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार।215।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -71,श्री भरत की प्रयाग से चित्रकूट के लिए यात्रा प्रारंभ-१:- श्री भरत ने त्रिवेणी में स्नान किया, पूरे समाज सहित मुनि को माथा नवाया।उनकी आज्ञा और आशीर्वाद शिरोधार्य कर, दंडवत कर विनती करी।कुशल पथ प्रदर्शकों को आगे कर,सबके साथ चित्रकूट का स्मरण करते हुए वहां से चल दिए। वे सखा निषादराज का सहारा लिए,सबसे पीछे चल रहे हैं।जिसे देखकर लगता है,मानो प्रेम ही शरीर धारण कर चल रहा हो।न पैरों में जूते हैं, न सिर पर छाया।उनका प्रेम-नेम-व्रत तथा धर्म छल- कपट रहित है।सखा से,श्री सीता-राम-लखन की यात्रा कथा पूछते हैं,और वह कोमल वाणी में उसे बताता है।श्री राम जी के ठहरने के स्थानों और वहां के वृक्षों को देखते ही,उनको रोमांच हो उठता है,प्रेमाश्रु उमण पड़ते हैं।श्री भरत की यह दशा देख,पृथ्वी कोमल हो गई,मार्ग मंगल दाता हो गया और देवता फूल बरसाने लगे।बादल छाया किए जा रहे हैं,शीतल-मंद-सुगंध वायु चल रही है।जैसा सुखदायक मार्ग भरत के लिए हो रहा है,वैसा श्री राम जी के लिए नहीं हुआ था:- कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥ रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥ पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥ रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥ नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥ लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥ राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं॥ दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥ दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात। तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥216॥ टिप्पणी:-मार्ग के अनेक जड़ और चेतन जीव, जिन्होंने श्री राम जी को देखा था अथवा जिन्हें रामजी ने देखा था,वे सब परमपद के अधिकारी हो चुके थे और भगत जी के दर्शन करने से संसार- चक्र से मुक्त हो गए।भरत जी का यह प्रभाव स्वाभाविक है,क्योंकि श्री राम जी स्वयं उनका स्मरण करते रहते हैं।मान्यता है कि जो सांसारिक लोग रामनाम लेते हैं वे दूसरों को तारने वाले हो जाते हैं,फिर यहां तो श्री भरत ,श्री राम जी के प्यारे हैं और उनके छोटे भाई भी हैं।अतः उनकी यात्रा लोगों के लिए कल्याणकारी होनी ही चाहिए।सिद्ध, साधु,श्रेष्ठमुनि आपस में ऐसी ही चर्चा करते हैं,और भरतजी को देखकर ह्रदय में हर्षित होते हैं। श्री भरत के अलौकिक प्रेम का प्रभाव देखकर इंद्र सोचने लगे कि इनके प्रेमवश होकर श्री राम जी लौट आए,तो बना-बनाया खेल बिगड़ जाएगा। स्वार्थी का सोच अपने ढंग का निराला ही होता है। अस्तु उन्होंने गुरु बृहस्पति जी से कहा कि ऐसा उपाय करें,कि श्रीभरत और श्रीराम की भेंट ना होने पाए।श्रीराम संकोची हैं और श्री भरतजी प्रेम के समुद्र हैं।भरत प्रेम के वश होकर श्री राम लौट सकते हैं,और तब पृथ्वी रावण व राक्षस बिहीन न हो पाएगी,अतः छल पूर्वक दोनों का मिलन रोकना चाहिए:- जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥ ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥ यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥ बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥ भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥ सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥ देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥ गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥ दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि। बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥ टिप्पणी:-इंद्र के वचन सुन बृहस्पति जी मुस्कुराए। मन में सोचते हैं,हजार नेत्र होने पर इन्हें वास्तविकता दिखाई नहीं पड़ती।वे बोले ! व्यर्थ का सोच और छल छोड़ो ! कपट करोगे तो भेद खुलने से हंसी और दुर्दशा होगी!हे देवराज ! मायापति श्री राम के भक्त से छल करने पर ,माया उल्टे छल करने वाले को ले डालती है।पिछली बार कुवरी द्वारा श्री कैकेयी की बुद्धि बिगाड़ने के मायिक खेल में,श्री रामजी की मौन स्वीकृति थी,अब कुचाल करने पर तुम्ही भूसा फाँकने लगोगे।हे देवराज सुनो ! श्री राम जी के प्रति किया गया अपराध क्षम्य हो सकता है,लेकिन श्री राम के सेवक से अपराध करने वाला ,श्री रामकी क्रोधाग्नि का शिकार हो ही जाता है,इस विषय में भक्तराज अंबरीष व दुर्वासा ऋषि की कथा प्रसिद्ध है।भरत जी के समान श्री राम जी का कोई भक्त नहीं है।संसार के लोग श्री रामनाम जपते हैं,किंतु श्री राम भरत जी का स्मरण करते रहते हैं। हे देवराज ! श्री राम के भक्त का बुरा करना तो दूर, उसे मन में भी न लाना अन्यथा लोक में अपयश तथा परलोक में दुःख और नित्यप्रति शोक का समाज बढ़ता जाएगा:- बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥ मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥ तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी॥ सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥ जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥ लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥ भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥ दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु। अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -72 देवगुरु के उपदेश से इंद्र का भ्रम दूर व भरत की चित्रकूट यात्रा प्रकरण-२:- बृहस्पति जी बोले ,हे देवराज!हमारा उपदेश सुनो! श्री राम को सेवक परम प्रिय है।सेवक की सेवा करने से वे प्रसन्न होते हैं,और सेवक से बैर करने वाले को अपना बड़ा भारी शत्रु मानते हैं। यद्यपि प्रभु राम सम हैं, न किसी से राग है, न किसी से द्वेष है।संसार-रूप स्वचालित-यंत्र में कर्म की प्रधानता है,और प्रत्येक को कर्म अनुसार फल प्राप्त हो जाता है। स्वचालित नियमों के अंतर्गत भक्तों की सेवा करने वाले के साथ,वे प्रेम पूर्ण व्यवहार करते हैं और जो भक्त का अपराध करता है,उसे दंड मिल ही जाता है।भगवान राम सामान्यतः निराकार,निर्लेप स्वरूप में रहते हैं,किंतु भक्तवत्सलता के कारण,सगुण साकार हो जाते हैं। भक्तों की कामनाएं,उनकी शक्ति के प्रभाव से पूरी हो जाती हैं।वेद,पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं।अतः छल छोड़कर भक्त शिरोमणि भरत के चरणों में,प्रीति करो ! हे इंद्र ! राम भक्त स्वभाव से परोपकारी होते हैं, और पराया दुख देखकर दुखी हो जाते हैं तथा उनका व्यवहार दया पूर्ण रहता है।भरत तो भक्त शिरोमणि है,उनसे मत डरो! सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥ मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई॥ जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥ करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥ तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥ अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस॥ राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥ अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥ दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल। भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥ टिप्पणी:-प्रभु श्री राम सत्य प्रतिज्ञ हैं, समर्थवान है,और देवताओं के हितेषी हैं।भरतजी ,राम जी की आज्ञा अनुसार ही व्यवहार करेंगे।स्वार्थबश होकर तुम विकल हो रहे हो, इसलिए विपरीत चिंतन कर रहे हो।भरत जी निर्दोष हैं,उनसे तुम्हें कोई हानि नहीं होगी ! देवगुरु की श्रेष्ठ वाणी सुनकर,देवराज के मन में आनंद हुआ और दुख व शोक मिट गया।वे प्रसन्न होकर,भरत के स्वभाव की प्रशंसा करने लगे,और फूल बरसाने लगे। प्रेम में मग्न भारत जी चले जा रहे हैं और उनकी दशा देखकर मुनि लोग सराहना करते हैं और ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए ललचाते हैं।बीच-बीच में भरत जी,लंबी सांस खींचकर "राम" कहते हैं तो चारों तरफ भगवत-प्रेम उमड़ पड़ता है उनके वचन सुनकर,पत्थर हृदय वनवासी तक पिघल जाते हैं। फिर पुर जनों के प्रेम का वर्णन कैसे किया जा सकता है।बीच में एक जगह निवास करके जमुना तट पर सब आए तो श्यामवर्ण जल देख कर श्रीराम के रूप का स्मरण हो आया और वे सारे समाज सहित प्रेम विरह में डूबने-उतराने लगे। भरत जी ने अपने को संभाला और विवेक कर, कि अभी यात्रा शेष है ,रात विश्राम की व्यवस्था संभालने लगे।:- सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥ स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥ सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥ बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥ एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥ जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा॥ द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥ बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥ दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज। होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥ टिप्पणी :-उस दिन यमुना के किनारे निवास किया। भोजन -शयन की व्यवस्था सबके लिए हुई।रात-ही- रात में अनेक घाटों के नावें वहां आ गई सवेरे एक ही खेवे में सब नदी पार हो गए।यह निषादराज की सेवा से ही संभव हो सका,जिससे भरत जी बहुत प्रसन्न हुए।नदी स्नान और उसको प्रणाम कर आगे की यात्रा प्रारंभ हो गई। आगे निषाद लोग और सेना चल रही है।उसके बाद रथों में मुनिश्रेष्ठ व विप्र समाज है।उनके पीछे राज समाज सवारियों पर हैःसबसे पीछे सादे वस्त्रों और वेष में दोनों भाई पैदल हैं।सेवक,मित्र और मंत्री के पुत्र साथ में हैं।श्री लक्ष्मण-सीता-राम जी का स्मरण करते हुए सब आगे बढ़ रहे हैं।जहां- जहां श्री राम जी ने निवास या विश्राम किया था वहां-वहां प्रेम पूर्वक प्रणाम करते हैं।रास्ते में निवास करने वालों को,जैसे ही इस यात्रा का पता चलता है,सब काम धंधा छोड़कर वे दौड़ पड़ते हैं। यात्रियों का दर्शन कर और उनका राम प्रेम देख, अपना जन्म सुफल मानकर आनंदित होते हैं:- जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥ रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥ प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥ चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥ आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥ तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥ सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥ जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥ दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ। देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -73, श्री भरत की चित्रकूट यात्रा- 3 :-मार्ग के किनारे रहने वाले सब कामकाज छोड़कर, यात्रियों को देखने आते हैं।श्री भरत- शत्रुघ्न की जोड़ी देखकर स्त्रियां आपस में चर्चा करती है, की हे सखि! ये राम-लक्ष्मण है कि नहीं! एक कहती है अवस्था,शरीर, रंग-रूप वैसा ही है। शील और चाल भी वैसी ही है, लेकिन वेष मुनि जैसा नहीं है,और साथ में सीता जी भी नहीं हैं। इनके आगे चतुरंगिनी सेना चल रही है।चेहरे पर प्रसन्नता नहीं है,और मन उदास दिखाई दे रहा है।हे सखी ! इन भेदों के कारण से संदेह होता है। उसकी तर्क बुद्धि की सराहना करते हुए सब ने कहा, तू चतुर है! तेरी बात सच है !उनमें एक स्त्री ने मीठी वाणी में प्रेम सहित राम-राज्याभिषेक और राम-वनगमन की कथा बताई। फिर भरत जी के शील, सनेह और सौभाग्य की सराहना करने लगी। भरत जी पिता के दिए राज्य को त्याग कर,नंगेपैर पैदल, फलाहार करते हुए श्री राम जी को मनाने जा रहे हैं।आज भरत जी के बराबरी का अनुरागी और त्यागी कोई दूसरा नहीं है:- कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥ बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥ बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥ नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥ तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥ तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥ कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥ भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥ दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु। जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥ टिप्पणी :-श्री भरत की कथा कहने-सुनने से दुख- दोष दूर हो जाते हैं।हे सखी ! उनकी बड़ाई में जो कुछ कहा जाए, वह थोड़ा है।श्री राम जी के भाई को ऐसा ही होना चाहिए ! भाई सहित श्री भरत जी के दर्शनकर हम सब पुण्यवान और भाग्यवान स्त्रियों की श्रेणी में आ गई हैं। भरत जी के गुण सुनकर और उनकी तप और उदासी युक्त दशा देखकर सखियां यह कहती हैं, कि ऐसा पुत्र कैकेई माता के योग्य नहीं है। कोई कहती है, की रानी को दोष मत दो,विधाता ने हम लोगों को भाग्यवान बनाने के लिए,यह सब किया है।लोक व्यवहार और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से न्युन स्तर का स्त्री-शरीर धारण करने के कारण, तथा छोटे गांव में रहने के कारण,श्री भरत जैसे महात्माओं का दर्शन हमें दुर्लभ था,यह तो पुण्य आत्माओं को ही होता है।विधाता की विशेष कृपा से हमें हो रहा है।गांव-गांव में ऐसा आनंद और आश्चर्य हो रहा है, मानो मरुस्थल में कल्पवृक्ष उग आया हो अथवा सिंघल द्वीप( रामेश्वर जी के पास एक स्थान) वासियों के घर-बैठे, तीर्थराज सूक्ष्म दिव्य शरीर धारण कर स्वयं पहुंचे और उन लोगों को त्रिवेणी के स्नान का फल मिल गया:- भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥ जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥ हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥ सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥ कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥ कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥ बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥ अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥ दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु। जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥ टिप्पणी :-श्री भरत अपने गुणों सहित,श्री राम जी के गुणों की कथा सुनते और श्री रघुनाथ जी का स्मरण करते हुए चले जा रहे हैं।तीर्थ देखकर स्नान करते हैं,और आश्रमों तथा मंदिरों को देखकर प्रणाम करते हैं। मन-ही-मन श्री सीताराम जी के चरण कमलों का प्रेम मांगते हैं ।रास्ते में कोल, किरात आदि बनवासी तथा बानप्रस्थी, ब्रह्मचारी, यती और उदासी मिलते हैं। उनमें किसी किसी को प्रणाम करके पूछते हैं, कि श्री-लक्ष्मण-राम-सीता जी किस वन में है? वे प्रभु का सब समाचार बताते हैं,और भरत जी को देखकर जन्म सुफल कर लेते हैं।जो लोग कहते हैं ,कि हमने उन्हें कुशल पूर्वक देखा है, वे श्री राम-लखन जी जैसे प्रिय हो जाते हैं। इस युक्ति से वे रास्ते में भी, श्री राम जी के वनवास की कथा सुनते जा रहे हैं। रात्रि हो जाने पर विश्रामकर प्रातः काल की यात्रा प्रारंभ कर दिया।चित्रकूट के पास पहुंच जाने के कारण,सभी के हृदय में श्री रघुनाथ जी के दर्शन की विव्हलता बहुत बढ़ गई है:- निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥ तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥ मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥ मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥ करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥ ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥ जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥ एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥ दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ। राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -74,श्री भरत जी का चित्रकूट यात्रा प्रकरण-४:- रात्रि विश्राम के बाद प्रातकाल ही अंतिम मंजिल के लिए यात्रा प्रारंभ हो गई ।सबको मंगल शकुन हो रहे हैं।आंखों और भुजाओं की फड़कन शुभ संकेत दे रही है।समाज सहित भरत जी को उत्साह हो रहा है,कि राम जी अवश्य मिलेंगे और दुख संताप दूर हो जाएगा।अपने- अपने भाव अनुसार सब मनो राज्य कर रहे हैं। सभी प्रेम रूपी मदिरा की मस्ती में मतवाले से चले जा रहे हैं। पैर लड़खड़ाते हैं,और मुंह से स्पष्ट शब्द नहीं निकलते हैं।निषादराज ने वहीं से पर्वत शिरोमणि कामदगिरि की चोटी दिखा कर,बताया कि इसी की तलहटी में,पयस्विनी के किनारे श्री सीता सहित दोनों भाई निवास करते हैं।सब ने दर्शन कर "जय श्री जानकी जीवन रामचंद्र" का जयकारा लगाते हुए साष्टांग प्रणाम किया।सब ऐसे प्रेम-मगन हो गए जैसे श्री राम अवध लौट चले हों। श्री भरत के प्रेम का वर्णन तो शेष जी भी नहीं कर सकते और संत तुलसी के लिए जो वैसा ही असंभव है, जैसे अहंता-ममता युक्त जीव के लिए ब्रह्म साक्षात्कार होता है। श्री रामप्रेम की विव्हलता के कारण उस दिन सूर्य अस्त होने तक केवल 6-7 किलोमीटर की यात्रा ही हो पाई।जल और सुविधा पूर्ण स्थल मिलते ही, सब ठहर गए।रात बीतते ही,श्री भरत जी,श्री राम जी से मिलने के लिए चल पड़े:- मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥ भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू॥ करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके॥ सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं॥ रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥ जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥ देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥ प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥ दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु। कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥ सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥ जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥ टिप्पणी:-उधर ब्रह्म मुहूर्त में श्री सीता जी व रामजी जगे, तो सीता जी अपने देखे हुए सपने का हाल सुनाने लगीं। वे कहती हैं - मानो समाज सहित भरत जी आए हैं।उनका शरीर विरहा अग्नि से तप्त हो रहा है।सभी उदास दीन और दुखी हैं। सासुऐं विधवा वेश में हैं। श्री सीता जी का स्वप्न सुनकर,श्री राम जी के नेत्रों में जल भर आया और संसार को शोच मुक्त करने वाले प्रभु स्वयं शोचवश हो गये। बोले,लक्ष्मण ! यह स्वप्न अच्छा नहीं है,कुछ अशुभ समाचार सुनने को मिलेगा।ऐसा कहकर सब ने स्नान किया और त्रिपुरारी शिव जी का पूजन कर,साधुओं का सम्मान किया और शांति से बैठ गए। स्वप्न का स्मरण आने से रामजी ने अवध की ओर देखा,कि कहीं श्री भरत आ तो नहीं रहे हैं।उधर आकाश में धूल थी,पशु-पक्षी आश्रम की ओर डरकर भागे आ रहे थे।प्रभु खड़े हो गए !और समझने का प्रयास करने लगे ऐसा क्यों हो रहा है! कोल -भील दूर रहकर भी प्रभु के चारों ओर सुरक्षा का घेरा बनाए रखते थे।अतः उन्होंने सब समाचार आकर बताया कि भरत जी आ रहे हैं।तीनों जन प्रफुल्लित हो उठे और प्रभु के नेत्रों में प्रेमाश्रु भर आए:- उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥ सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥ सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥ सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥ लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥ अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने॥ छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए। नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥ तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे। सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥ दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर। सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥ टिप्पणी :-सर्वज्ञ श्री रामजी सोचवश हो उठे!कि भरत जी क्यों आ रहे हैं ! तब तक एक ने आकर सूचना दी, कि उनके साथ चतुरंगिणी सेना भी है। अब श्री राम जी समझ गए,कि भरत राज तिलक करने की तैयारी कर आ रहे हैं।अस्तु अत्यंत सोच में पड़ गए, कि भारत जैसे जबर भक्त की शील की रक्षा कर पाएंगे या पिताजी की आज्ञा का पालन !! फिर यह विचार कर कि भरत बुद्धिमान है, धर्मात्मा और सदाचारी है,तथा पूरी तरह मेरी आज्ञा मानने वाले हैं,अपने चित्त का समाधान कर लिया। श्री लखनजी ने प्रभु की भाव मुद्रा को क्षण-क्षण बदलते देख,और अयोध्या की राजनीतिक दशा से प्रभावित हो बोले, हे गोसाईं ! आपके बिना पूछे ही मैं कुछ कहने की धृष्टता करता हूं।सेवक सेवाकी दृष्टिकोण से ढिठाई करे तो वहां क्षम्य होती है,हे स्वामी ! आप सब जानते हैं,अपनी अल्प समझ अनुसार मैं कह रहा हूं। हे नाथ ! आप अत्यंत सहृदय,अत्यंत सरल चित्त और सील तथा प्रेम के समुद्र है।सब पर आपका प्रेम और विश्वास है,और सब को अपने समान ही समझते हैं।किंतु मूर्ख विषयी प्राणी, प्रभुता पाकर,मोहवश अपना असली स्वरूप प्रकट कर देते हैं:- बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥ एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥ सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥ भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही॥ समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥ लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥ बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई॥ तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥ दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान॥ सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥ बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्या कांड -75 ,श्री लक्ष्मण को चतुरंगिणी सेना देख,भ्रम होना और क्रोधाभिनिवेश:-लक्ष्मण जी श्री रामजी से कह रहे हैं,कि भरत नीति परायण,साधु,और समझदार हैं।आपके चरणों में प्रेम है, यह सारा संसार जानता है,वे भी आज राजा का पद पाकर ,धर्म मर्यादा मिटाने की स्थिति में आ गए हैं।कुअवसर देख, की रामजी बन में अकेले, साधन रहित हैं अतः कुटिलता पर उतर आए।करोड़ों प्रकार की कुटिलता की कल्पना कर, सेना लेकर दोनों भाई अकंटक राज्य करने की योजना से आ रहे हैं।यदि मन में कपट कुचाल न होती,तो सेना आदि को साथ में न लाते। इसके लिए भरत को दोष देना व्यर्थ है,राजपद पाकर सभी संसारी लोग बावले हो जाते हैं।इसके लिए छै लोगों का प्रमाण देते हैं -चंद्रमा गुरु पत्नी गामी हुआ,नहुष ब्राह्मणों से पालकी उठवा कर उस पर चढ़ा।बेन ने लोक और वेद नियमों के विरुद्ध अधम आचरण किया।सहस्त्रबाहु,इंद्र तथा त्रिशंकु सभी ने राजमद के प्रभाव से कलंकित आचरण किया। भरतु नीत रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना॥ तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥ कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी॥ करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥ कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥ जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥ भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥ दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान। लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥ सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥ टिप्पणी:-भारत का यह आचरण नीति युक्त है- शत्रु और ऋण को शेष नहीं रखना चाहिए। केवल एक दृष्टि से यह बड़ा दोष है, कि बड़े भाई को बन में साधनहीन जान चढ़ाई कर, उसका अपमान कर रहे हैं।वह भी आज उन्हें अच्छी तरह समझ में आ जाएगा, जब संग्राम में राम जी के क्रोध युक्त मुख का दर्शन करेंगे।इतना कहते-कहते उनके ह्रदय में वीर रस का संचार हो गया कि सेवक के रहते, मालिक को क्यों संग्राम करना पड़ेगा? उनके शरीर में वीर रस प्रवाह के लक्षण प्रकट हो गए। प्रभु को प्रणाम करके और चरण रज सिर पर रखकर,अपना सच्चा और स्वाभाविक बल कहने लगे। हे नाथ ! समय अनुकूल सेवा का अंग मानकर, मेरे कहने का बुरा न मानिएगा।भरत जी के कारण हम लोगों को बहुत कष्ट सहने पढ़ रहे हैं। कब तक हम मन को मार कर रखेंगे।हे नाथ! आप हमारे साथ हैं,और हमारे हाथ में धनुष है,क्षत्री हूं,रघुकुल में जन्म है, राम हमारे इष्ट हैं- यह संसार जानता है।लात मारने से तो धूल भी बदला लेने के लिए उड़कर सिर पर सवार हो जाती है, हम तो समर्थवान हैं:- भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ॥ एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥ समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥ एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥ प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥ अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥ कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥ दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान। लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥ टिप्पणी:-लक्ष्मण जी उठकर खड़े हो गए।हाथ जोड़कर युद्ध करने की आज्ञा मांगी।श्री राम की आज्ञा बिना वे कोई काम नहीं करते।जटाएं सिर में बांधकर, कमर में तरकस कसकर,हाथ में धनुष बाण लेकर बोले ! आज मैं राम सेवक होने का यश लूंगा। भरत को रण में सबक सिखा दूंगा,की राम-विमुख की कैसी दुर्गति होती है।श्री राम जी के अपमान के फलस्वरूप दोनों भाई रणसैया पर सोएंगे। अच्छा हुआ कि सारा समाज एक साथ इकट्ठे आ गया।पीछे इन पर क्रोध आया, पर प्रकट न कर सका।आज सब हिसाब साफ हो जाएगा।जैसे सिंह हाथियों के समूह को दल डालता है और बाज लवा को चंगुल में दबोच लेता है,वैसे ही सारी सेना का दलन कर भरत को भाई सहित रण में मार गिराऊँगा। शंकर जी भी अपने भक्त की सहायता के लिए आए, तो भी श्री रामजी की शपथ लेता हूं ,कि भारत को मार गिराऊँगा। लक्ष्मण जी की राम के प्रति अनन्यता ऐसी है,कि राम का विरोधी कोई भी हो,उसे छोड़ते नहीं है। लक्ष्मण जी का भीषण क्रोध देख, और शपथ सुनकर,सारे लोक निवासी भयभीत हो गए और लोकपतियों को ऐसा लगा, कि प्रलय का समय आ गया है, अतः कर्तव्य छोड़कर पलायन कर जाना चाहिए। संसार को भय में डूबा देखकर सृष्टि संचालक सक्तियों ने लक्ष्मण जी की वीरता की प्रशंसा करते हुए,आकाशवाणी द्वारा सचेत किया, कि तुम्हारे प्रभाव और प्रताप को कौन जान सकता है? फिर भी अनुचित या उचित कैसा भी कार्य हो,अच्छी तरह से विचार कर ही करना चाहिए।वेद और पंडितों का कहना है,कि जल्दबाजी में कार्यकर बाद में पछताने वाले को बुद्धिमान नहीं माना जाता:- उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥ बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥ आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥ राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥ आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥ जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥ तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥ जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥ दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान। सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥ जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥ तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥ अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥ सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-76 ,श्री रामजी द्वारा भरत की प्रशंसाकर, लक्ष्मण जी का भ्रम दूर करना:- आकाशवाणी सुनने से,श्री लक्ष्मण जी को तीव्र आत्मग्लानि हुई।श्री सीता-राम जी ने यह देख भक्तवत्सल वाणी से सम्मान करते हुए,उन्हें पास में बैठा लिया।श्री राम जी बोले, हे भाई ! राजमद सब मदों से अधिक प्रभावशाली होता है ।लेकिन उससे वही मतवाले होते हैं ,जिन्होंने साधु सभा का सेवन नहीं किया है।हे लक्ष्मण !सुनो !भरत जैसा उत्तम पुरुष ब्रह्मा जी की सृष्टि में न कहीं सुना है ,और न देखा है!अयोध्या राज्य क्या,ब्रह्मा- विष्णु -महेश का पद पाकर भी भरत को राजमद नहीं होना है।कांजी के एक कण से क्षीर सागर का दूध नहीं फट सकता!:- सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥ कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥ जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥ सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥ दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ॥ कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥ टिप्पणी :-यद्यपि असंभव है, फिर भी लौकिक सृष्टि को बनाने वाले पांचों तत्व (पृथ्वी,जल,पावक, वायु और आकाश)अपने नैसर्गिक स्वभाव बदल सकते हैं,किंतु अलौकिक पुरुष भरत का स्वभाव हमेशा निर्दोष रहेगा!श्री राम जी पांचों तत्वों के अस्वाभाविक व्यवहार के उदाहरण देते हैं - भले ही पृथ्वी अपना स्वाभाविक गुण छमा त्याग दे, अगस्त जी( जिन्होंने समुद्र को आचमन में पी लिया था)गाय के खुर से बने गड्ढे के जल में डूब जाएं ,अंधकार चाहे दोपहर के सूर्य को निगल जाए, मच्छर की फूँक से भले ही सुमेरू पर्वत उड़ जाए,भले ही आकाश बादल में समा जाए ,किंतु है भाई !भरत को राजमद नहीं हो सकता !हे लक्ष्मण !तुम्हारी शपथ और पिताजी की सौगंध खाकर कहता हूं,कि भरत के समान उत्तम भाई संसार में नहीं है।भरत जी के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते रघुनाथ जी प्रेम समुद्र में मग्न हो गए:- तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥ गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥ मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥ लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥ सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥ भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥ गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥ कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥ दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु। सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥ टिप्पणी :- श्री रघुनाथ जी की वाणी सुनकर और भरत जी पर उनका प्रेम देखकर, सब देवता उनकी प्रशंसा करने लगे, कि -श्री राम जी जैसा कृपालु प्रभु ,समर्थवान और कृपाधाम दूसरा कोई नहीं है।यदि भरत जी का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर समस्त धर्मों की धुरी को, कौन धारण करता? कवि समुदाय के लिए अगम्य भरत के गुणों की कथा, हे रघुनाथ जी ! आपके सिवा कौन जान सकता है ?देवताओं की वाणी सुनकर, श्री लक्ष्मण जी ,श्री राम जी और श्री सीता जी को अत्यंत सुख का अनुभव हुआ ।जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । उधर भरत ने सारे समाज सहित, मंदाकिनी जी में स्नान किया ।फिर माताओं, गुरु और मंत्रियों से आज्ञा लेकर, भरत जी निषादराज और शत्रुघ्न जी के साथ , श्री सीताराम जी से मिलने चल दिए। माता जी की करनी का स्मरण होनेसे उनके मन में कुतर्क आया,कि मेरा नाम सुनकर श्री सीता-राम- लक्ष्मण जी स्थान छोड़कर कहीं अन्यत्र न चले जाएं ? माता की करनी में मेरी करतूती समझकर जो कुछ भी कहें, थोड़ा है।यदि अपना सेवक मानेंगे,तो मेरे पापा और अवगुणों को क्षमाकर अपना लेंगे।दोनों दशाओं में मेरे सिर पर राम जी की जूतियां ही रहेगी।हर दशा में मेरे लिए श्री राम जी की पनही ही, शरण- आश्रय हैं। रामजी सु- स्वामी हैं और दोष सब दास का ही है(यही आदर्श कार्पण्य- शरणागति है )।जगत में चातक और मछली ही यश के पात्र हैं जो अपने नियम और प्रेम का निर्वाह करते हैं।मेरा तो न नेम निभा न प्रेम ,अन्यथा श्री रामजी को छोड़कर मैं ननिहाल क्यों जाता ?और प्रेम होता तो वन गमन सुनकर प्राण चले जाना चाहिए था:- जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥ कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥ लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥ इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥ सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥ चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥ समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥ रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥ दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर। अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥ जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी॥ मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥ जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्या कांड -77,श्री भरतजी का श्रीराम-आश्रम के निकट पहुंचना,और वहां के दिव्य वातावरण के प्रभाव से आनंदित होना:-भरतजी, श्री रामजी से मिलने के लिए नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करते चले जा रहे हैं।माता की करनी का स्मरण आते ही संकुचित होते हैं,अपनी शरणागति के स्मरण से चलने लगते हैं,और श्री रामजी की भक्त- वत्सल के स्मरण से तेज चलने लगते हैं।भरतजी की चाल,जलभ्रमर (तैरकुआ) की तरह हो रही है। उनके संकुचन और भगवत-प्रेम का आभास निषाद को होने से ,वह भी अपने देह की सुध-बुध भूल जाता है। भक्तों की ऐसी दशा देखकर, प्रकृति मंगल शकुन कर निषादराज को सचेत करती है।शकुनों पर विचार कर निषाद कहता है- शोक मिटेगा,हर्ष होगा ,पर अंत में दुख होगा( अर्थात राम जी अभी लौटेंगे नहीं)। भरतजी ने भक्त निषाद के वचनों को सत्य मान लिया और तब तक आश्रम के निकट पहुंच गए :- अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥ फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥ जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥ भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥ देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥ दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु। मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥ सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥ टिप्पणी:-श्री रामजी के निवास के प्रभाव से,बन संपदा शोभायमान हो रही है, और उससे रामराज्य में होने वाला आनंद स्फुरित हो रहा है,जिसका प्रभाव भरत पर पड़ा।उन्हें ऐसा आनंद प्राप्त हुआ जो भूखे व्यक्ति को उत्तम भोजन मिल जाने से होता है।वे उसी सुख का अनुभव करने लगे जो ईति-भीति से पीड़ित है,तीनों तापों( दैहिक,दैविक, भौतिक)व महादशा से ग्रसित तथा महामारी (कोरोना)से ग्रसित प्रजा को ,उत्तम राज्य के सुंदर देश में पहुंच जाने से प्राप्त होता है। अब मानस उत्तम राज्य (रामराज्य)की शासन व्यवस्था को परिभाषित करता है - चित्रकूट-बन में ज्ञानराजा है,वैराग्य मंत्री है।पवित्र बन राज्य है।यम -नियम रक्षा विभाग है।चित्रकूट का मुख्य पर्वत कामदगिरि राजधानी है।शांति,सुमति और पवित्रता रानियां है।राजा,राज्य के अन्य सभी अंगों से भी संपन्न है।श्री राम जी के भरोसे रहने से सब के चित्त में उत्साह और प्रसन्नता है।मोह रूपी राजा को उसकी सेना सहित जीतकर, ज्ञान रूपी राजा शत्रुहीन राज्य पर शासन कर रहा है,जहां सुख, संपत्ति और सुकाल उपस्थित है:- भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥ ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥ जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥ राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥ सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥ भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥ सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥ दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु। करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥ टिप्पणी:-श्री रामजी के वन प्रदेश में निवास करने के कारण,वहां एक अच्छे राज्य के सब अंग प्रकट हो गए हैं। वहां जो मुनियों के आश्रम हैं, वे शहरों कस्बों ,ग्रामों तथा पुरवों का एहसास कराते हैं।वहां के रंग-बिरंगे अनेक जाति के पशु-पक्षी ही,उस राज्य की प्रजा है।गैंडा,हाथी,सिंह,बाघ,शूकर,भैंसे और बैल आदि सब हष्ट-पुष्ट और सुंदर हैं।वे सब आपसी बैर छोड़कर,अनुशासित चतुरंगिनी सेना की भांति, विचरण कर रहे हैं। झरने झर रहे हैं,मतवाले हाथी गरज रहे हैं मानो अनेक प्रकार के डंके-नगाड़े बज रहे हों।चक्रवाक, चकोर,चातक,तोते,कोयल, हंस आदि सब प्रसन्न मन से अपनी सुंदर बोली बोल कर चह-चाहते हैं। भ्रमर गुनगुनाते हैं और मोर नाचते हैं।बेलें,वृक्ष और तृण सब फल युक्त हैं।सारा समाज आनंद विखेर रहा है। इस प्रकार मानस ने स्पष्ट कर दिया - कि सुराज्य(रामराज्य)वही है,जिसमें सारी प्रजा सुखी हो। श्री रामजी के पर्वत की शोभा देखकर,भरत जी का हृदय प्रेम से ऐसा भर गया,जैसे एक तपस्वी को लक्ष्य मिल गया हो और उसकी तपस्या का काल भी समाप्त हो गया हो:- बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥ बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥ खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥ बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥ झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥ चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥ अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥ बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥ दो०-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु। तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -78, श्री भरत का आश्रम में प्रवेश और श्रीरामजी का दर्शन :- श्री भरत,शत्रुघ्न व केवट आश्रम की ओर बढ़ रहे थे, तभी केवट दौड़कर ऊंचे टीले पर चढ़कर, भरत जी से कहता है,हे नाथ ! उन विशाल वृक्षों - पाकर ,जामुन ,आम और तमाल को देखो ! उनके बीच में सुंदर विशाल बरगद का वृक्ष शोभा दे रहा है।उसके पत्ते घने और फल लाल हैं तथा उसकी छाँह सब ऋतुओं में सुख देने वाली है।इन्हें ब्रह्मा जी ने जानबूझकर परम शोभामय बनाया है।कुछ विद्वान चारों वृक्षों को मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार का प्रतीक मानते हैं तथा वटवृक्ष को आत्मा जिसके अधिष्ठान में ब्रह्म भी है।वह कहता है,हे गोसाईं ! ये वृक्ष मंदाकिनी नदी के समीप है,जहां कुटी में रघुनाथ जी विराजते हैं ।कुटी के समीप श्री सीताजी और लक्ष्मणजी के लगाए सुंदर तुलसी के पौधे हैं। बरगद की छाया के नीचे सीता जी द्वारा निर्मित सुंदर वेदी है,जहां नित्य श्री सीताराम जी ,मुनि समाज के साथ बैठकर शास्त्र ,वेद ,इतिहास व पुराण आधारित सत्संग करते हैं :- तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥ नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥ जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥ नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥ मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥ ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥ तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥ बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥ दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान। सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥ टिप्पणी :-केवट के बचन सुन, भरत जी ने वृक्षों को देखा ,और उनकी आंखों से प्रेमाश्रु गिरने लगे। यहां से दोनों भाई ,साष्टांग प्रणाम करते हुए आगे बढ़ने लगे। उनकी प्रीति का यथार्थ वर्णन सरस्वती जी भी नहीं कर सकतीं। श्री राम-चरण-चिन्ह , बज्र,अंकुश ,कमल आदि को पृथ्वी में अंकित देखकर वे ऐसे हर्षित होते हैं मानो दरिद्र ने पारस मणि पा लिया हो।पदरज को सिर पर रखकर हृदय और नेत्रों में लगाते हैं,जिससे रघुनाथ जी की भेंट जैसा सुख अनुभव होता है।श्री भरत जी का नैसर्गिक प्रेम -दशा देखकर, पशु -पक्षी -वृक्ष आदि सभी जीव प्रेम में मग्न हैं। प्रेम में मग्न हो जाने से निषाद भी रास्ता भूल गया।तब देवता रास्ते पर फूल वर्षा कर सही राह दिखाते हैं।वनवासी यह सब देख ,उनके नैसर्गिक प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं - कि पृथ्वी पर यदि भरत का जन्म न होता ,तो अचर को सचर और सचर को अचर कौन करता ? ऐसा लगता है,की दयालु रघुवीर जी ने ,भरत रूपी प्रेमसागर को विरह रूपी मथानी से मथकर ,साधु रूपी देवताओं के लिए, भगवदप्रेम रूपी अमृत प्रकट कर दिया है:- सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥ करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥ हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥ रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥ देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥ सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥ निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥ होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥ दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर। मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥ टिप्पणी :-सखा सहित, भरत -शत्रुघ्न जी को आते हुए ,घने जंगल की आड़ के कारण,लक्ष्मण जी नहीं देख पाए।भरत जी ने श्री राम जी का सुहावना, सुमंगल-दायक, पवित्र आश्रम देखा ! उस धाम में प्रवेश करते ही,विरह -दुख-दावाग्नि मिट गई ,और वही आनंद मिला जो पुरुषार्थ सिद्ध योगी को परमार्थ सिद्ध होने पर मिलता है। भरत जी ने देखा कि लखनजी, रामजी के सामने खड़े हैं और किसी पूँछी बात का प्रेम पूर्वक उत्तर दे रहे हैं।लक्ष्मण जी सजग सेवक की भांति मुनिवेष में हैं -कमर में उत्तरीय और तरकस बँधा है, दाहिने हाथ में बाँण और बाएं कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुनि-साधु मंडली और श्री सीताजी सहित श्री रामजी विराजमान है।वल्कल वस्त्र व जटा धारण किए हुए हैं,श्याम शरीर है,मानो रति और कामदेव मुनिवेष में बैठे हों। करकमलों को धनुष -बांण पर फेर कर भक्तों (भरत जी) के हृदय की जलन (विरह-अग्नि-ताप) हर रहे हैं और प्रसन्न दृष्टि से भक्तों को देखकर आनंदित कर रहे हैं। सुंदर मुनिमंडली के बीच में श्री सीताजी और श्री रघुकुलचंद्र ऐसे सुशोभित हो रहे हैं,मानो ज्ञान- सभा के बीच ,शरीर धारण किए हुए भक्ति और सच्चिदानंद मूर्तिमान हैं:- सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥ भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥ करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥ देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥ सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥ बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥ बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा॥ कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥ दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु। ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु॥239
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्या कांड- 79,श्री राम-भरत मिलाप:- निकट पहुंचते ही सखा सहित भरत जी का मन,श्री राम जी में मग्न हो गया।जिससे उनके हर्ष-शोक सुख-दुख के संकल्प-विकल्प समाप्त हो गए और वे, हे नाथ ! रक्षा कीजिए ,हे गोसाईं ! रक्षा कीजिए कहकर , पृथ्वी पर निर्जीव छड़ी की भांति निढाल होकर गिर पड़े। राम जी के सामने लक्ष्मण खड़े हैं।उनके पीठ पीछे यह घटना घटी है, अस्तु दोनों लोग उन्हें देख न सके ,पर वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी ने जान लिया,कि उनके पीठ पीछे भरत जी दंडवत कर रहे हैं।वे दुविधा में फंस गए- सेवक के लिए एकदम से उत्तर देना बंद करना भी अशिष्टता है,और भरत के आने की सूचना देना भी सेवक का धर्म है।अतः लक्ष्मण जी ने कुशल पतंगबाज की तरह, चढ़ी पतंग उतारी अर्थात अपनी बात को समाप्त कर बोले, हे रघुनाथ ! सामने पृथ्वी पर माथा रखकर भरत प्रणाम कर रहे हैं।यह सुन और सामने भरत जी को दंडवत पड़ा देखकर, श्री राम जी प्रेम से अधीर होकर दौड़े,जिससे कहीं उनका उत्तरीय गिरा,कहीं तरकस,कहीं धनुष और कहीं बांण अर्थात निर्विशेष ब्रह्म हो गए।उन्होंने भरत जी को बलपूर्वक उठाकर गले से लगा लिया।भरत-राम मिलाप देखकर सभी को अपनी सुध-बुध भूल गई। यहां तक कि पत्थर पिघल गए,जिसके चिन्ह-अवशेष कामतानाथ जी की परिक्रमा मार्ग में आज ही देखे जा सकते हैं।इस पूरी घटना का अध्यात्मिक विश्लेषण संतों और विद्वानों ने अनेक प्रकार से किया है, जिसकी चर्चा मोबाइल पोस्ट में देना संभव नहीं है:- सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥ पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई॥ बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥ बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥ मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥ रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥ कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥ उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥ दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान। भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥ टिप्पणी:- श्री राम-भरत-भेंट की प्रीति का वर्णन असंभव है। दोनों भाई अंतःकरण चतुष्ठय से उपराम होकर ब्रह्मरूप से एकाकार हो रहे हैं।यह पराभक्ति की प्रेम अवस्था,कवि समुदाय के लिए मन-कर्म-वचन से अगम्य है,फिर वर्णन कैसे हो ! कवि शब्द के सहारे ही किसी घटना का वर्णन करता है,लेकिन पराभक्ति- प्रेम के लिए शब्द ही नहीं है,फिर कवि कैसे कुछ कहे? नट ताल के सहारे ही नाचता है,जब ताल ही न हो तो कैसे नाचे ?ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों गुणों के नियंत्रक देवता है,लेकिन श्री राम-भरत-मिलाप प्रेम गुणातीत होने के कारण, उनके मन के लिए भी अगम्य है ,फिर अल्पज्ञ कवि उसके बारे में कैसे कुछ कह सकता है? गाँडर( घास) की डोरी वाले वाद्ययंत्र से सुंदर राग नहीं निकाले जा सकते।श्री भरत-रघुवर-मिलाप देखकर देवगणों को शंका हुई कि कहीं राम जी लौट न जाएं!देवगुरु के समझाने पर वे चेते और फूल बरसा कर प्रशंसा करने लगे। शत्रुघ्न जी से मिलकर, श्री राम जी केवट से मिले। लक्ष्मण के प्रणाम करते ही, भरत जी ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया:- मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥ परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥ कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥ कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥ अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥ सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥ मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी॥ समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥ दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम। भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥24॥ टिप्पणी :-श्री लक्ष्मण जी शत्रुघ्न जी से ललककर मिले,फिर निषाद को हृदय से लगा लिया ।भरत- शत्रुघ्न , मुनिवृन्द को प्रणामकर आशीर्वाद पा, आनंदित हुए ।भाई सहित भरत, श्री सीता के चरण कमलों की रज को सिर पर धारणकर बार-बार प्रणाम किया।सीता जी ने उन्हें उठा, करकमलों को सिर पर फेरकर,उनको बिठाया।श्री सीता जी इतना प्रेममग्न है,कि बोल नहीं पा रही हैं, और मन ही मन आशीर्वाद दे रही हैं। भरत जी श्रीसीता जी को अपने ऊपर इतना दयालु देखकर, शोक रहित हो गए और सारी शंकाएं मिट गईं। सबके मन प्रेम में इतना मग्न हो गए ,कि सब मौन हैं, क्षेम कुशल पूछने की बातचीत भी नहीं हो रही। समय अनुकूल, केवट धीरज रखकर हाथ जोड़ प्रणाम कर बोला, हे नाथ! मुनिराज वशिष्ट जी के साथ सब माताएं, पुरवासी, सेवक,सेनापति,मंत्री सब के सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं:- भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥ पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥ सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥ पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥ सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं॥ सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥ कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥ तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥ दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग। सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-80, श्री रामजी का गुरु- परिजन- प्रजा-मिलाप :- शील समुद्र रामजी, गुरु का आगमन सुनकर, शत्रुघ्न जी को सीता जी के पास छोड़ ,तेजी से उनकी ओर चले।गुरु को देखते ही भाई लक्ष्मण सहित अनुराग से भरकर, प्रेमपूर्वक साष्टांग दंडवत प्रणाम करने लगे, मुनि वशिष्ट ने दौड़कर उनको हृदय से लगा लिया और दोनों भाइयों से अत्यंत प्रेम पूर्वक भेंटे। केवट प्रातः ही गुरु जी को प्रणाम कर गया था,लेकिन स्वामी को प्रणाम करते देख, प्रेम विभोर हो अपना नाम लेकर,पुनः साष्टांग पड़कर प्रणाम किया।वशिष्ट जी ने रामसखा को पहली बार बलपूर्वक उठाकर गले लगाकर भेंट की।यह दृश्य ऐसा लगा,मानों वशिष्ठ जी ने पृथ्वी पर लोटते प्रेम को बटोरकर उठा लिया हो।यह देख, देवता सराहना करते हुए फूल बरसाने लगे। इस प्रसंग से शिक्षा मिलती है कि शास्त्र में साधकों का कर्म -भक्ति -ज्ञान की उपलब्धि अनुसार एक स्तर मान्य है।इस कसौटी से केवट नीचे के स्तर पर है और वशिष्ठ जी श्रेष्ठतम स्तर पर हैं।लेकिन सीतापति राम जिसे अपना लेते हैं,वह स्तर रहित होकर रामसखा के समान श्रेष्ठ हो जाता है :- सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥ चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥ गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥ मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥ प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥ रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥ रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥ एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥ दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ। सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥ टिप्पणी:-भगवान राम,अयोध्या से आए सभी के दुख को जान गए ।जो जिस भाव से श्री राम जी से मिलना चाहता था, उसी रूप में लक्ष्मण जी सहित सभी से क्षणभर में मिले, जिससे उन लोगों का विरहताप मिट गया।सभी जीव भगवान का ही प्रतिबिंब है,अतः ऐसे मिलन में आश्चर्य नहीं करना चाहिए! सारे पुरवासी केवट से मिले और भाग्य की सराहना करने लगे। रामजी ने सभी दुखी माताओं को देखा, जो दुख के मारे श्रीहीन हो रही हैं। श्री रामजी सबसे पहले कैकेयी अंबा से मिले,उनका ह्रदय स्वाभाविक मातभक्ति से ओतप्रोत था।माता के पैरों पड़कर और काल-कर्म-विधि के ऊपर दोष रखकर,उन्हें समझाया। श्री रघुनाथ जी सब माताओं से मिले और सबको समझाकर संतुष्ट किया, कि संसार का संचालन ईश्वर के हाथ में है, अतः घटी हुई घटनाओं के लिए किसी को दोष न देना चाहिए। दोनों भाइयों ने ब्राह्मण पत्नियों सहित अरुंधति माता जी के चरणों को प्रणाम किया और सबको गंगा-गौरी के सामान सम्मान दिय। सबने प्रसन्न होकर, कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया। दोनों भाइयों ने सुमित्रा जी के चरण पकड़,प्रणाम किया और उनकी गोद से ऐसा जा लगे,मानो अति दरिद्र को संपत्ति मिल गई हो।उसके बाद दोनों भाई बहुत दुखी और व्याकुल भाव से कौशल्या माता के चरणों में पड़ गए, जिससे उनमें वत्सल भाव उमड़ पड़ा और माता ने तुरंत उठाकर दोनों को छाती से लगा लिया।उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु की धारा बह चली।उस समय के हर्ष-शोक का वर्णन कवि करने में वैसे ही असमर्थ है,जैसे गूंगा भोजन के स्वाद का। श्री रघुनाथ जी सब से मिलकर गुरुजी से आश्रम चलने की प्रार्थना करी। गुरुजी ने पुरवासियों को जल-थल की सुविधा देखकर डेरा डाल लेने की आज्ञा दे दी।इसके बाद ब्राह्मण,मंत्री,माताओं व गुरु सहित सीमित लोगों को लेकर,श्री भरत- लक्ष्मण-रघुनाथजी पवित्र आश्रम को चले:- आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥ जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥ सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥ यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥ मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥ देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥ प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई॥ पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥ दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु॥ अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥ गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई॥ गंग गौरि सम सब सनमानीं॥देहिं असीस मुदित मृदु बानी॥ गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका॥ पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥ अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥ तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥ मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥ पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥ दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ। पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ।।245।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -81,श्री सीताजी का परिजनों से मिलाप और श्री वशिष्ठ जी द्वारा, श्री रामजी को दशरथ जी की स्वर्ग यात्रा सुनाना:- परिवारजनों सहित वशिष्ठ जी के आश्रम पहुंचते ही, श्री सीताजी ने उनके चरणों को स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित अरुंधति जी के चरणों की पृथक-पृथक प्रेम पूर्वक वंदनाकर आशीर्वाद पाया।जब श्री सीताजी ने सासुओं को देखा, तो सहम गईं और नेत्र बंद हो गए ।वे सोचती हैं,कि विधाता ने कैसी कुचाल की है!सासुओं ने भी सीता जी को तपस्विनी वेष में देखकर दुखी हुई, और सोचने लगीं, कि दैव जो कुछ सहाता है,वह सब सहना ही पड़ता है।सीता जी ने धीरज धरकर, आंखों में आंसू भरकर,सासुओं से मिलीं। वहां के सारे वातावरण में करुणा छा गई।सब के पैरों लग- लग सीता जी बड़े प्रेम व अनुराग से मिली।सब प्रेमवश हो आशीर्वाद देती हैं-सदा सौभाग्यवती रहो !अहिवात अचल हो!:- सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥ गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥ बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥ सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥ परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥ तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥ जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥ मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥ दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग॥ हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥ टिप्पणी:-श्री सीता जी और सब रानियां स्नेहवश व्याकुल हो रही हैं।ज्ञानी गुरुजी ने सब को बैठने को कहा!जगत की गति को मायिक अर्थात मिथ्या बताया !और फिर परमार्थ की कथा कहकर समझाया,कि दशरथ जी ने धर्मपक्ष की रक्षा के लिए शरीर त्यागा है! श्री राम जी,मरने का कारण अपने लिए पुत्रप्रेम देखकर अत्यंत दुखी और व्याकुल हो उठे। राजा दशरथ की स्वर्ग यात्रा कथा से,लक्ष्मण जी,सीता जी और सभी रानियां भी अत्यंत दुखी हो विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से ऐसा व्याकुल हो उठा, मानो राजाजी ने अभी शरीर त्यागा हो। मुनिश्रेष्ठ ने विशेष उपदेश देकर रामजी को संभाला ।शास्त्र आज्ञा अनुसार मंदाकिनी नदी में सारे समाज ने स्नान किया,और उस दिन सब ने निर्जला व्रत किया। दूसरे दिन प्रातः मुनि वशिष्ठ की आज्ञा अनुसार,जेष्ठ पुत्र होने के नाते राम जी ने सपिंडी आदि सारे श्राद्ध कर्म, आदर पूर्वक संपन्न किये। वेद की आज्ञा अनुसार सब क्रियाएं पूरी होने पर सूर्य-रूप राम लोकशिक्षा के लिए पवित्र हुए। जिनका नाम लेने मात्र से,पाप रूपी रुई तुरंत भस्म हो जाती है,और जिनका स्मरण मात्र सारे मंगलों का आधार है,"वे शुद्ध हुए" यह कहना लोक शिक्षा के लिए ही है। साधुओं का मत है,कि यह ऐसा ही हुआ, जैसे सर्वतीर्थ-मई-गंगा जी पर आह्वान करने से तीर्थ आएं,और स्वयं पवित्र होकर चले जाएं। दो दिन बाद रामचंद्र जी गुरु जी से बोले,हे नाथ! सब लोग कंदमूल फल और जल का आहार कर, सर्वथा दुख पा रहे हैं।भाईसहित भरत को,मंत्रियों और माताओं को, इस दशा में देखकर मेरा एक-एक पल एक-एक युग के समान बीत रहा है। सभी को साथ लेकर अवधपुरी को पधारें।आप यहां हैं, और राजा इंद्रपुरी में हैं! मैं क्या कहूं, हे गुसाईं ! आप जैसा उचित माने करें ! मुनि बोले, राम !तुम धर्म के सेतु और करुणाधाम हो ।तुम्हारे लिए ऐसा कहना उचित है। लेकिन लोग वियोग से अत्यंत दुखी हैं, दो-चार दिन आपके दर्शन कर इन्हें संभल जाने दो! राम जी के वचन सुनकर परिजन वियोग से दुखी हो रहे थे, लेकिन गुरु जी के वचन सुन हर्षित हो उठे।जानते हैं रामजी, गुरुश्रेष्ठ की आज्ञा नहीं टालेंगे:- बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥ कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा॥ नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥ मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥ कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥ सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू॥ मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥ ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥ दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह॥ श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥ करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥ जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥ सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस॥ सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते॥ नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥ सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥ सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥ बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥ दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम। लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥ राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥ सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -82, अयोध्यावासियों की चित्रकूट में दिनचर्या:- मुनिश्रेष्ठ की अनुशंसा से अवध वासियों को चित्रकूट में ठहरने का अवसर मिल गया ।वहां उनकी दिनचर्या बहुत सुख से बीतने लगी।वे पवित्र पयस्विनी-मंदाकिनी के जल में तीन बार - प्रातः,मध्यान्ह व सायं नहाते हैं। सभी बारंबार मंगल मूर्ति श्री रामजी का दंडवत प्रणाम कर दर्शन करते हैं,और हर्षित होते हैं। चित्रकूट- कामदगिरि और बन में विचरण करते हैं ।जहां झरने अमृत समान जल गिराते रहते हैं और शीतल -मंद -सुगंध वायु चलती रहती है।वृक्ष,लताएं और तृण असंख्य जाति के हैं।फल-फूल-पत्ते बहुत प्रकार के हैं।सुंदर चट्टाने बैठने के लिए हैं और पेड़ों की छाया सुख देने वाली है। श्री राम जी के प्रताप और प्रसाद से,बन की सुखद छवि ऐसी है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तालाबों में कमल के फूल हैं, जलपक्षी कूंजते हैं, भंवरे गुंजार कर रहे हैं,रंग-बिरंगे पशु-पक्षी बन में बैर रहित होकर बिहार कर रहे हैं। पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं॥ मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥ राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥ झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥ बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥ सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥ दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग। बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥ टिप्पणी:-कोल,किरात व भील, अवधवासियों को अतिथि मानकर,अपने ढंग से उनकी सेवा में लगे रहते हैं। मीठे,पवित्र,सुंदर,अमृत से स्वादिष्ट कंदमूल-फल-अंकुर-जूरी को सुंदर दोनों में भर-भर कर देते हैं।वे बनवासी लोग विनय युक्त प्रणामकर,अमृत के समान स्वाद वाले, खाद्य पदार्थों के स्वाद,भेद,गुण और नाम बता कर सबको देते हैं। लोग दाम देते हैं, तो नहीं लेते।इस पर यदि वे वस्तु लौटाने का प्रयास करते हैं,तो रामजी की दुहाई देते हैं।प्रेम भरी वाणी में कहते हैं - सज्जन लोग तो प्रेम की ही पहचान करते हैं,वस्तु का मूल्यांकन और जाति आदि की उपेक्षा करते हैं।अतः हमारे प्रेम को देखकर वस्तु का लौटाना उचित नहीं है। आप धर्मात्मा है,हम निषाद ,हिंसक जाति के हैं। पर श्री राम जी की कृपा से ही आपका दर्शन हम पा रहे हैं।आप लोगों का दर्शन हमारे लिए उतना ही दुर्लभ है,जैसे मारवाड़ देश के लोगों को गंगा जी की धारा में स्नान करना दुर्लभ होता है।जैसे राम जी ने निषादराज पर कृपा की है,वैसे ही राम जी की प्रजा होने के नाते आप हमपर कृपा करें। सब संकोच छोड़ और हमारा प्रेम देखकर फल, तृण,अंकुर स्वीकार कर हमको कृतार्थ कीजिए:- कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥ भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥ सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥ देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥ कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥ तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥ हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥ राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥ दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु। हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु॥250।। टिप्पणी :- वे कहते हैं, आप जैसे प्यारे मेहमान बन में पधारे हैं,उनकी उचित सेवा करने की क्षमता हम में नहीं है।हम कुछ भी देने योग्य नहीं है। किरातों की मित्रता तो ईंधन-पात देने तक सीमित है। यदि हम आपके कपड़े-बर्तन आदि नहीं चुरा रहे हैं,तो इसे सेवा ही मानियेगा।हम जड़ जीव हैं,हिंसक हैं, कुटिल,कुचाली,दुर्बुद्धि और कुजाती हैं। हमारा समय तो पाप करते बीतता है।तन पर कपड़े और पेट भर भोजन पाने का भाग्य भी हमारा नहीं है।धर्म-बुद्धि का हममें सर्वदा अभाव है। हम जो यहां थोड़ा सा सदव्यवहार आप से कर रहे हैं,यह श्री रघुनाथ जी के दर्शन का हम पर प्रभाव है।जब से प्रभु के पदकमल देखे हैं तब से हमारे दुःसह- दुख दूर हो गए हैं। कोलभीलो की वाणी सुनकर और उनपर आर्त शरणागति का चमत्कार देखकर,पुरजन प्रेम से भर गए।सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे। उनकी बोलचाल,मिलनसारी और श्री सीताराम की भक्ति देखकर प्रसन्न हो रहे हैं और उन्हें अपने से भी श्रेष्ठ भक्त मान रहे हैं।संततुलसीदास जी कहते हैं,कि श्री सीताराम जी की अलौकिक माया से लोहा नाव बनकर तुंबी को तैराने में सहायक बन गया है।सारे पुरजन वैसे ही आनंदित हो चित्रकूट बन में बिहार कर रहे हैं,जैसे पहली वर्षा होने पर मेंढक और मोर आनंदित होकर चहकने लगते हैं:- तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥ देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई॥ यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई॥ हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥ पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं॥ सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥ जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥ बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥ छं0-लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं। बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥ नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥ सो0-बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब। जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥251
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड- 83, चित्रकूट में श्री रामजी को अवध लौटाने के लिए विचार -विमर्श प्रकरण-1:- श्री रामप्रेम में मग्न पुरवासियों के दिन पलक झपकते बीत रहे हैं। सीता जी ने प्रत्येक सासु के लिए एक मायिक स्वरूप बनाकर,सबकी एक समान आदर पूर्वक सेवा कर रही हैं।श्री राम जी को छोड़कर इस रहस्य का किसी को पता नहीं है। सृष्टि की समस्त माया, श्री सीता जी से ही स्फुरित होती है।सारी सासुयें सेवा से प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। रानी कैकेयी, सीता सहित दोनों भाइयों का निष्कपट प्रेम व्यवहार देखकर, मन ही मन पछता रही हैं।वे पृथ्वी और यमराज से प्रार्थना करती हैं, किंतु न पृथ्वी रास्ता देती है,और न विधाता मृत्यु देता है। लोक,वेद व कवि लोगों के बीच ऐसी मान्यता है, कि राम विमुख को नर्क में भी स्थान नहीं मिलता। श्री राम जी को अवध लौटाने को लेकर,सबके मन में कौतूहल और चिंता है।श्री भरतजी तो इस सोच से इतना विकल है,कि उन्हें न दिन में भूख लगती है और ना रात में नींद आती है।उनकी दशा उस मछली के समान है जो सूखते हुए पानी वाले कीचड़ में तड़पती है:- पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥ सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥ लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥ सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥ लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई॥ अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥ लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥ यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥ दो0-निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच। नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥252॥ टिप्पणी:- समय बलवान होता है -उसने माता के बहाने से राम जी का तिलक न होने दिया। यह ऐसा ही हुआ कि पकी-तैयार धान की फसल किसी ईति-भीति से नष्ट हो जाए।भरत जी तिलक का साज लेकर आए हैं।वह कैसे हो,इसकी संभावना पर विचार कर रहे हैं। एक संभावना यह है कि गुरु जी आज्ञा दे दें,तो राम लौट सकते हैं। लेकिन गुरु जी तो विधि के विधान के अनुकूल ही कुछ कहेंगे। दूसरी संभावना है,माता कौशल्या आज्ञा दे दें।वे भी धर्म के अनुकूल ही कुछ कहेंगी। वह पति की आज्ञा और पुत्र के धर्म पालन में,बाधा न डालेंगी। भक्ति के बल पर स्वयं हठ करने से भी काम बन सकता है,लेकिन इस समय भाग्य प्रतिकूल है और ऐसा करने से भक्ती हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी।एक भी युक्ति सफल होते नहीं दिखाई पड़ी! यह सब सोचते-सोचते भरत जी की रात बीत गई।प्रातः काल की क्रियाएं पूरी करके बैठते ही, गुरु जी ने बुला लिया:- कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥ केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥ अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥ मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥ मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥ जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥ एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥ प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥ टिप्पणी:-भरत जी गुरु चरणों को प्रणाम कर उनके पास बैठ गए।मुनि वशिष्ट जी ने रामजी के अवध लौटने पर विचार करने के लिए,अयोध्या के गणमान्य लोगों, मंत्री वह भारत के साथ एक गोष्ठी का आयोजन कर लिया।गोष्टी को प्रारंभ करते हुए गुरुजी बोले,हे भरत! सभासदों! सुनिए!श्री राम जी धर्मधुरीण, सूर्य कुल के सूर्य,सर्वतंत्र स्वतंत्र, और भगवान हैं। सत्यप्रतिज्ञ व वेदों के रक्षक हैं। उन राम जी का अवतार,जगत के मंगल हेतु हुआ है।वे गुरु,पिता और माता की आज्ञा पर चलने वाले हैं।दुष्टदल के नाशक और देवताओं के हितकारी हैं। नीति,प्रीति,परमार्थ और स्वार्थ का यथार्थ ज्ञान जैसा उन्हें है,वैसा किसी अन्य को नहीं है। ब्रह्मा,विष्णु,महेश,चंद्र,सूर्य आदि दिक्पाल,माया, जीव सभी कर्म,काल,सभी सिद्धियां और सर्पराज, जिनके पास कुछ भी सीमित प्रभुता है,उन सभी पर राम जी की प्रभुता भारी है,अर्थात उपरोक्त सभी उनकी आज्ञा पालन करने केलिये विवश है। ऐसे में रामजी की आज्ञा और उनकी इच्छा की रक्षा करने में ही हम सबकी भलाई है।अस्तु आप सब समझदार और चतुर लोग सर्वसम्मति से वह निर्णय करें जो अवध की राजव्यवस्था के लिए मंगलकारी हो:- दो0-गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ। बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥253॥ बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥ धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥ सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू॥ गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥ नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥ बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥ अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥ करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥ दो0-राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ। समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥254।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -84,श्री रामजी को अवध लौटाने के लिए विचार-विमर्श प्रकरण-1(ii):- मुनिश्रेष्ठ कह रहे हैं, कि श्री राम जी का तिलक सबको सुखदाई है,वही मंगलप्रद एक उपाय है।उसके लिए सब लोग विचार कीजिए !सबने मुनि जी की नीति, परमार्थ और स्वार्थयुक्त बात सुनी।किसी को कुछ उत्तर नहीं सूझता, सब स्तंभित हो गए! भरत जी विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर बोले,हे नाथ ! सूर्यवंस में अनेक श्रेष्ठ राजा हुए।सबके जन्म का कारण पिता-माता होते हैं,और कर्मफल विधि- विधान से मिलता रहता है। संसार जानता है,कि आपके आशीर्वाद से कर्मफल का दुख नाश हो जाता है और वह कल्याणप्रद हो जाता है।हे स्वामी! आपने अनेक बार सूर्यवंश के राजाओं के अशुभ संस्कारों को मिटाकर,मंगलप्रद बनाया है। यह मेरा दुर्भाग्य है,कि आज इस समस्या का उपाय हमसे पूछते हैं ! प्रेम पूर्ण वचन सुनकर गुरु जी के हृदय में,भरत केलियेअनुराग उमड़ पड़ा:- सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥ केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥ सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥ उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥ भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे॥ जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥ दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥ सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥ दो0-बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु। सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु॥255॥ टिप्पणी:- हे तात ! एक सीमा तक तुम्हारी बात सत्य है,लेकिन वह सब भगवान की कृपा से ही हुआ है।रामकृपा न हो,तो विधि के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। एक सुझाव संकोच के साथ दे रहा हूं, कि तुम दोनों भाई बन चले जाओ, और राम लक्ष्मण सीता अयोध्या लौट जाएं। गुरुजी, यह सुझाव अपनी स्वाभाविक दशा में नहीं दे रहे हैं,क्योंकि भरत प्रेम ने उन्हें असामान्य कर दिया है।उनका यह सुझाव सांसारिक दृष्टि से ठीक हो सकता है,कि दो भाइयों को पिता की आज्ञा का बंटवारा हुआ है - एक को वनवास दिया ,दूसरे को राज्य।यदि एक भाई को बटवारा स्वीकार नहीं है,तो बंटवारे की वस्तु की अदला-बदली कर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। यही वशिष्ठ जी का व्यक्तिगत सुझाव है,जो किसी शास्त्र पर आधारित नहीं है। सुझाव सुन दोनों भाई अत्यंत हर्षित हुए,मन प्रसन्न और शरीर तेज युक्त हो गया, मानो रामचंद्र जी राजा हो गए हों। जनमानस को भी यह सुझाव एक हद तक अच्छा लगा।माताओं को इसमें सुख- दुख समान है,अतः वह रो रही हैं। भरत जी कहते हैं, की मुनि जी के सुझाव को मानने से संसार भर के जीव प्रसन्न हो जाएंगे।श्री सीताराम जी अंतर्यामी हैं और आप सर्वज्ञ हैं।अतः मेरे अंदर की बात जानते हैं,कि मैं 14 वर्ष ही नहीं, जीवन पर्यंत बनवास करने को तैयार हूं।हे नाथ ! यदि आप सच्चे हृदय से यह सुझाव दे रहे हैं,तो इस पर गुरुआज्ञा की मोहर लगा दीजिए।जिससे यह शास्त्र सम्मत हो जाए ,और तब राम जी भी इसे मानने के लिए विवश हो जाएंगे:- तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥ सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥ तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई॥ सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥ मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा॥ बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥ कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे॥ कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू॥ दो0-अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान। जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥256॥ टिप्पणी:- श्री भरत जी के वचन सुनकर,और उनका प्रेम देखकर ,सभा सहित मुनिजी विदेह हो गए अर्थात सुध-बुध खो बैठे।भरत की महिमा महान समुद्र के समान हो गई,और मुनि की बुद्धि तट पर खड़ी अबला स्त्री के समान हो गई,जो समुद्र पार जाने के लिए असमर्थ हो रही है।भरत की महिमा वर्णन करने में कवि असमर्थ है। भरत जी,मुनि जी को मन में बहुत अच्छे लगे। समस्या का समाधान न देख,वे गोष्टी समाप्तकर सबके साथ राम जी के पास पहुंच गए।प्रभु ने प्रणामकर उत्तम आसन दिया। मुनि की आज्ञा से सब यथा स्थान बैठ गए और फिर सभा प्रारंभ हो गई । मुनिश्रेष्ठ देश-काल और अवसर अनुसार बोले,हे राम !सुनिए !आप सर्वज्ञ हैं, सुजान हैं,धर्म, नीति, गुणों और ज्ञान के खजाना हैं।आप सबके हृदय में बसते हैं,सबके भाव-कुभाव को जानते हैं।आप वह उपाय बताइए,जिससे पुरवासियों,माताओं और भरत का हित हो।दुखी लोगों की विचार शक्ति समाप्त हो जाती है और वे जुआरी की तरह अपने लाभ की ही बात सोचते हैं:- भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥ भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥ गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा॥ औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥ भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए॥ प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥ बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥ सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥ दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ। पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥257॥ आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-85, श्री रामजी के अवध लौटाने के लिए विचार-विमर्श प्रकरण-1(iii):- मुनिश्रेष्ठ ने, रामजी से सबके हित की रक्षा करने वाली व्यवस्था बताने को कहा ! उत्तर में राम जी कहते हैं ,हे नाथ ! उपाय तो आपकी आज्ञा पालन करने में,और अपके सामने सत्य कहने में ही, सबका हित है।सबसे पहले मेरे लिए जो आज्ञा हो, उसे मैं सिर -माथे धारण कर करूं! हे गोसाईं! फिर जिसके लिए जो आज्ञा होगी, वे सबप्रकार से सेवा में लगेंगे। मुनि श्रेष्ठ ने कहा, हे राम! तुम ठीक कहते हो! अवध की समस्याओं का समाधान गुरु के पास होना ही चाहिए ,लेकिन भरत प्रेम के कारण हमारे विचार पक्षपाती हो गए हैं। इसीलिए मैं बार-बार कह रहा हूं ,कि मेरी बुद्धि भरतप्रेम से संक्रमित है। उपाय जो भी हो, वह भरत को स्वीकार होना चाहिए।पहले भरत की विनती को सुना जाए! निर्णय तो साधुमत, लोकमत ,राजनीति-सिद्धांत और वेदमत आधारित ही लिया जाएगा। मुनिश्रेष्ठ ने कूटभाषा में,भारत की मानसिक दशा पर विशेष ध्यान देने की ओर इशारा कर दिया:- आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ॥ सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥ सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें॥ प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई॥ पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ॥ कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥ तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥ मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥ दो0-भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥ टिप्पणी :-भरत पर श्री गुरु जी का प्रेम देखकर,श्री राम जी आनंदित हुए। वे जानते हैं, कि भरत जी धर्म-रहस्य जानते हैं,हमारे प्रति उनकी अविरल भक्ति है,अतः उन पर हर प्रकार का विश्वास किया जा सकता है।अस्तु गुरु जी की आज्ञा के अनुकूल, सुंदर, कोमल और मंगलकारी बचन बोले!हेनाथ! आपकी शपथ और पिता के चरणो की सौगंध खाकर कहता हूं ,कि संसार में भरत सा भाई नहीं हुआ।जो गुरु चरणकमल के अनुरागी हैं,वे लोक और वेद के अनुसार भाग्यवान माने जाते हैं।जिस पर आपका इतना अनुराग हो,उसके भाग्य का वर्णन नहीं किया जा सकता है।बड़े भाई के लिए, छोटे भाई की बड़ाई,उसके सामने करना मना है।अतः इतना ही कहूंगा, कि जो कुछ भरत कहें,वही मानने में सबकी भलाई है।ऐसा कहकर राम जी चुप हो गए:- गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी॥ भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥ बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥ नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥ जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥ राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥ लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥ भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥ दो0-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात। कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥259॥ टिप्पणी :-मुनिश्रेष्ठ भारत से बोले,हे तात !संकोच छोड़कर,दयासागर प्यारे भाई के सामने,ह्रदय की बात कहो ! मुनि की आज्ञा,व राम जी की सहमति देख, गुरु और स्वामी की अनुकूलता समझकर भरत जी पूरी तरह तृप्त हो गए।समस्या का सारा भार अपने ऊपर देख,विचार करने लगे।शरीर पुलकित हुआ और वे सभा में खड़े हो गए।आंखों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई।भरत बोले ! जो मैं कहना चाहता था,संक्षेप में मुनिश्रेष्ठ ने कह दिया है,इसके अलावा मेरे पास कहने को कुछ नहीं है।अपने इष्ट के स्वभाव को मैं जानता हूं-वे अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते।मेरे ऊपर जो उनकी विशेष कृपा और प्रेम है।बचपन से मैं उनके साथ हूं,मेरा मन उन्होंने कभी नहीं तोड़ा।यहां तक कि खेल में हारी बाजी भी,वे जानबूझकर मेरा मन रखने के लिए मुझे जिता देते थे।मैंने कभी उनके सामने संकोच और स्नेहवश कुछ नहीं कहा,अतः आज कैसे क्या कहूं समझ नहीं आता।संकोचबस मैंने कभी उन से आंख मिलाकर ,उनके भरपूर दर्शन भी नहीं किए, अतः मेरे नयन उनके दर्शन से पूरी तरह तृप्त नहीं है:- सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥ लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥ पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें॥ कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा। मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥ मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥ सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥ मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही॥ दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन। दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन॥260
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-86,श्री रामजी के अवध लौटाने के लिए विचार -विमर्श प्रकरण-1(iv):- भरत जी, सभा में अपनी स्थिति स्पष्ट कर रहे हैं।वे बोले!श्री रामजी के हम अत्यंत दुलारे हैं,इसके कारण बिधि को हमसे ईर्ष्या हुई और माता की कमजोरी का सहारा लेकर उनसे विभेद पैदा कर दिया।मेरा यह दोषारोपण भी शोभनीय नहीं है।क्योंकि अपने को तो सभी साधु समझते हैं,किंतु वह तभी मान्य है जब दूसरे भी साधु माने। माता मंद है,और उनसे उत्पन्न मैं साधु हूं,यह विचार आते ही मैं नीचता की श्रेणी में आ जाता हूं।क्योंकि कोदों चावल की बाली में उत्तम शालि धान नहीं फल सकता।क्या गढ़इया में पाए जाने वाले घोंघे में मोती उत्पन्न हो सकता है ? दूसरे को दोष देना व्यर्थ है, मैं ही अत्यंत अभागी हूं ।अपने पापों की और न देखकर,मैंने व्यर्थ में माता के लिए व्यंग वचन बोलकर उन्हें,कष्ट पहुंचाया है।कल्याण की आशा की किरण केवल यह है,कि मेरे गुरु समर्थवान हैं और मेरे स्वामी श्री सीतारामजी हैं।साधुसमाज,गुरु और प्रभु के समीप,चित्रकूट जैसे तीर्थ में, मैं यहां छल पूर्वक कह रहा हूं, या सच्चे हृदय से, यह तो मुनि श्रेष्ठ और श्री रामजी जानते ही हैं:- बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा। यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥ मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥ फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली॥ सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥ बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥ हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥ गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥ दो0-साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ। प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥261॥ टिप्पणी :-प्रेमपन रखने के लिए राजा का मरण, और माता की कुमति, दोनों के लिए सारा संसार साक्षी है।माताएं व्याकुल हैं, देखी नहीं जातीं। अवध के सभी स्त्री-पुरुष कठिन ताप से जल रहे हैं ।इन सारे अनर्थों की जड़ मैं ही हूं,यह समझकर सारे दुख सहे। श्री रघुनाथ जी मुनिवेश बनाकर, लक्ष्मण और सीता जी को साथ लेकर,पैदल,नंगे पैर वन को गए,यह सुनकर भी मैं जीता रह गया। फिर निषाद का प्रेम देखकर भी,मेरा हृदय विदीर्ण न हुआ।अब यहां आकर सब आंखों से देखा।जीते रहने पर सब कुछ सहना होगा। जिनको देखकर तामसी नागिनें और बीछियां अपना कठिन बिष और तामसी प्रकृति त्याग देती है,ऐसे रघुनंदन,लक्ष्मण और सीता जी जिसे शत्रु जान पड़े,उसके पुत्र को छोड़कर दैव ऐसा दुख किसे देता?:- भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥ देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी॥ महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥ सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥ बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ॥ बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥ अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥ जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी॥ दो0-तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि। तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥262॥ टिप्पणी:-श्री भरत जी की नम्रता और दीनता से भरी श्रेष्ठवाणी सुनकर, सभी शोकमग्न हो गए। सभा में खलबली मच गई,मानो कमलबन में पाला गिर गया हो।ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ ने पौराणिक और श्रेष्ठ कथाएं कहकर,भरत को समझाया।इसके बाद सूर्य कुल रूपी कुमुदिनी बन को प्रफुल्लित कर देने वाले,चंद्रमा के समान श्री रामचंद्र जी बोले, हे तात! जीव के साथ होने वाली घटनाएं ईश्वर के आधीन है ,अतः उनके लिए तुम ग्लानी मत करो! मेरे विचार में, तीनों कालों और तीनों लोकों में तुम श्रेष्ठतम पुण्यात्मा हो! तुम पर किसी प्रकार की कुटिलता का दोषारोपण करने से व्यक्ति का लोक- परलोक बिगड़ जाएगा ।जो माता को दोष देते हैं, वे जड़ावत हैं।उन्होंने गुरु और साधु सत्संग नहीं किया अतः वे विश्व की घटनाओं का रहस्य नहीं जानते । तुम ऐसे पुण्यआत्मा भक्त हो, कि भरत के नाम सुमिरन से जीवन के समस्त पाप, प्रपंच और अमंगल समूह मिट जाएंगे तथा लोक में सुयश व परलोक में सुख प्राप्त होगा:- सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥ सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥ कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी॥ बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥ तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी॥ तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे॥ उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई॥ दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥ दो0-मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥263।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-87,श्री रामजी को अवध लौटाने के लिए विचार -विमर्श प्रकरण1(iv):- अपराध भावना से भ्रमित,भरतजी को राम जी समझा रहे हैं।हे भरत ! मैं शिवजी को साक्षी कर,स्वभाव से सत्य कह रहा हूं,की तुम्हारे रखने से ही पृथ्वी रह सकती है।हे तात ! तुम व्यर्थ की चिंता मत करो! वैर और प्रेम छिपाए नहीं छिपता। पशु-पक्षी भी सब जीवों से प्रेम रखने वाले मुनियों के पास चले जाते हैं,और शिकारियों से दूर भागते हैं।मनुष्य तो बुद्धिमान होनेके कारण तुरंत सब पहचान जाताहैं। हे तात ! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं।क्या करूं ?दुविधा में फंस गया! राजा जी ने मुझे त्याग कर, सत्य की रक्षा की और प्रेमपन रखने के लिए शरीर छोड़ दिया,अतः उनका वचन मिटाने में संकोच होता है।दूसरी ओर उससे भी भारी संकोच तुम्हारा है।गुरुजी की भी संतुति है,कि तुम्हारी इच्छा अनुसार ही मैं कुछ करूं। तुम प्रसन्न मन से संकोच त्यागकर जो कहोगे,वही मैं करूंगा।सत्य प्रतिज्ञ रघुकुल श्रेष्ठ श्री राम जी के वचन सुनकर सभा के लोग प्रसन्न हुए :- कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥ तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ॥ मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥ हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥ तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें॥ राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥ तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥ ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥ दो0-मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु। सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥264॥ टिप्पणी:-इंद्र सहित सब देवता चिंतित हो उठे।राम जी ने वचन दे दिए हैं,भरत जी के कहने से लौट सकते हैं और तब राक्षस न मरेंगे।वे सब राम जी की शरण गये। फिर परस्पर विचार करने लगे कि यह उपाय ठीक नहीं है।अंबरीश-दुर्वासा की कथा का स्मरण करते हैं।हिरण्यकश्यप से हम सब दुख सह रहे थे,तब भक्त प्रहलाद ने नरसिंह जी को प्रकट कर,सब के दुख मिटाए थे।श्री राम जी तो भक्त के वश में रहते हैं।हम सबका कल्याण भक्त भरत के हाथों में है,अतः हमें हृदय से,प्रेम पूर्वक उन्हीं का स्मरण करना चाहिए। यह सुनकर देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा- कि यह विचार तुम्हें भाग्यशाली बना देगा! श्री भरत के चरणों का प्रेम संसार में सारे मंगलो का मूल है:- सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥ बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥ बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं। सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥ सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥ लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥ आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा॥ हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥ दो0-सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु। सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥265॥ टिप्पणी :-देवगुरु कहते हैं - श्री सीतापति के सेवक की सेवा सैकड़ों उत्तम कामधेनु के समान सुंदर है।तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो समझो विधाता ने बात बना दी है, हे देवपति भरत जी का प्रभाव देखो ! श्री राम जी उनके बस में हैं।हे देवताओं ! भरत जी को श्री राम जी का प्रतिबिंब जानकर,शांत हो जाओ!अंतर्यामी राम जी देवताओं की बातें और देवगुरु की उनको सलाह सुनकर,संकोच में पड़ गए। श्री भरत जी ने देखा समस्या-समाधान का सारा भार उन्हीं पर आ पड़ा है।उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि श्री राम जी की आज्ञा में ही अपना भला है।प्रभु ने अपना सिद्धांत छोड़, मेरे म़मत्त्व की रक्षा की,यह बहुत बड़ी कृपा है। श्री सीताराम जी की असीमित कृपा हम पर हुई है,जिसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।ऐसा सोचकर दोनों हाथ जोड़कर और प्रणाम कर, श्री भरत जी बोले:- सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥ भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥ देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ॥ मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥ सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू॥ निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥ करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥ निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥ दो0-कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ। करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥266।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-88, श्री रामजी को अवध लौटाने के लिए विचार-विमर्श प्रकरण-1(vi):- श्री भरत जी, सभा में श्री रामजी से विनती कर रहे हैं - हे कृपासिंधु ! अब कुछ कहने -कहलाने के लिए शेष नहीं रहा।गुरु को प्रसन्न और इष्ट को अपने पक्ष में देखकर,काल्पनिक शूल मिट गई।मैं भ्रम वश डर गया था डरने का कोई कारण नहीं था। हे देव! दिशा भ्रम होने वाले को ,सूर्य को दोषी नहीं ठहराना चाहिए कि वह गलत दिशा में उदय है।मेरे भाग्य,माता की कुटिलता, विधाता का विधान तथा काल के प्रभाव ने मुझे नष्ट करने का ही निश्चय कर लिया था,किंतु आपकी शरणागत की रक्षा करने की प्रतिज्ञा के सामने,वे सब असफल हो गए। ऐसी घटना नई नहीं है।पहले से ही लोक और वेद में स्पष्ट है, कि चाहे संसार शत्रु हो जाए,लेकिन आप का सहारा मिल जाए तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।आप कल्पवृक्ष के समान सबका हित करने के लिए एक समान है।जो भी वृक्ष को पहचानकर, उसके पास जाकर,अपनी कामना व्यक्त करता है, वह पूरी होती है,चाहे वह राजा हो रंक हो या पापी हो :- कहौं कहावौं काअब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥ गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥ अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें॥ मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥ पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला॥ यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥ जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं॥ देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥ दो0-जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच। मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच॥267॥ टिप्पणी:-सब प्रकार से गुरु और स्वामी का अपने ऊपर स्नेह देख कर,मन की ग्लानि व व्याकुलता आदि मिट गई।हे करुणानिधि !अब वही कीजिए, जिसमें दास और सबका कल्याण हो,किंतु प्रभु के चित्त में भी क्षोभ न हो।जो सेवक स्वामी को संकोच मैं डालकर,अपना स्वार्थ सिद्ध करे वह नीच प्रकृति का है।सेवक तो वही है,जो सभी सुखों और लोभों को छोड़कर,स्वामी की सेवा करे। हे नाथ ! ऊपरी तौर से आपके लौटने में सभी का स्वार्थ दिखाई पड़ता है,किंतु आपकी आज्ञा पालन से उससे भी करोड़ों गुना लाभ होगा।यही स्वार्थ और परमार्थ का रहस्य है। इसी से समस्त पुण्य के फल और शुभ गतियों की शोभा है।हे देव!मेरी एक विनती सुन लीजिए ! फिर जैसा उचित हो वैसा कीजिए !हे प्रभो! राज्य तिलक की सामग्री सजा कर लाया हूं,यदि उचित मानें तो उसको धन्य बना दीजिए। पिता की आज्ञा पालन के विकल्प में ,शत्रुघ्न सहित मुझे बन भेजिए,अथवा दोनों भाइयों को अवध लौटा दीजिए मैं आपके साथ चलूं,अथवा तीनों भाई बन को जाएं और आप श्री सीता जी सहित लौटकर अवध वासियों को सनाथ करें।हे करुणासागर !हे रघुराई ! जिस प्रकार प्रभु का मन प्रसन्न रहे वही कीजिए:- लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥ अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥ जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥ सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥ स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥ यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु॥ देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥ तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥ दो0-सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ। नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥268॥ नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥ जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥ टिप्पणी :-हे देव ! आपने सारी जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी है।मेरे न तो नीति का विचार है,न धर्म का। मेरी बातें अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए हैं। आर्त व्यक्ति सही विचार नहीं कर सकता।जो सेवक स्वामी की आज्ञा सुनकर,उत्तर दे,वह निपट निर्लज्ज है। मैं इस प्रकार के अवगुणों का अथाह समुद्र हूं,पर मुझ पर प्रेम होने से, स्वामी मुझे साधु कहकर बड़प्पन देते हैं। हे कृपालु ! अब मेरी समझ में आ रहा है,कि वही हो,जिससे स्वामी के मन में संकोच न हो।प्रभु के चरणों की सौगंध लेकर सद्भाव से कहता हूं,कि संसार भर की भलाई इसी में है कि प्रभु प्रसन्न मन से और संकोच छोड़कर जिसे जो आज्ञा दें वह पूरे मनोयोग से उसे करे और तभी सारी अड़चनें और उपद्रव मिट जाएंगे। भरत जी के बचन सुनकर देवता प्रसन्न हुए,और साधु -साधु कहकर फूल बरसाने लगे।अवधबासी दुविधा में फंसे, कि प्रभु लौटेंगे या नहीं।तपस्वी और बनवासी मन में प्रसन्न हुए।संकोची स्वभाव श्रीराम चुप रहे -की आज्ञा दें कि न दें।आज्ञा देने से तो एक प्रकार से राजा होने की स्वीकृति हो जाएगी।सर्व समर्थ प्रभु की यह दशा देख सारी सभा स्तब्ध रह गई। इसी समय श्री जनक के दूत आने की सूचना मिली और उन्हें मुनि श्रेष्ठ ने तुरंत बुला लिया।इस प्रकार प्रथम सभा की कार्यवाही स्वतः रुक गई:- देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु॥ कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू॥ उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई॥ अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू॥ अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा॥ प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ॥ दो0-प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब। सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब॥269॥ भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥ असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥ चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥ जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-89, श्री जनकजी का चित्रकूट आगमन -1:-मुनिवशिष्ठ की आज्ञा मिलते ही, दूत आ गए।उन्होंने प्रणामकर श्री रामजी को मुनिवेश में देखकर दुखी हुए।मुनिश्रेष्ठ ने दूतों से विदेहराज की कुशलता का समाचार पूछा?दूत प्रश्न सुनकर संकोच के साथ, पृथ्वी पर माथा नवाकर,हाथ जोड़ेहुए बोले स्वामिन! आपका सादर कुशल पूछना ही,हे गोसाईं!कुशलता का कारण हो गया। अन्यथा तो,हे नाथ!कुशल तो कोशलनाथ श्री दशरथ महाराज के साथ चली गई।सारा जगत ही अनाथ हो गया,उसमें भी जनकपुर और अवध तो विशेष रूप से अनाथ हो गया। कोशलराज का स्वर्ग गमन सुनकर,जनक व जनकपुर वासी विक्षिप्त से हो गए और जनक जी का व्यवहार सदेह लोगों जैसा हो गया।रानीजी द्वारा उत्पन्न अवध की परिस्थितियां सुनकर,जनक जी की व्याकुलता मणिछिने सर्प जैसी हो गई। भरत को राज्य और रघुवर को बनवास सुन,जनक जी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।राजा ने विद्वानों तथा मंत्रियों की सभाकर,ऐसी परिस्थिति में उचित कर्तव्य जानना चाहा।लेकिन अवधकी परिस्थितियाँ इतनी उलझी हुई थीं, कि सभा वहां चलने या न चलने के विषय में निर्णय लेने में असफल रही। राजा जनक ने धैर्य पूर्वक विचार कर,चार चतुर जासूस अवध भेजे। उनको आज्ञा थी,कि भरत जी के सद्भाव अथवा दुर्भाव का गुप्तरूप से पता लगाकर,शीघ्र लौटें! दूत अवध गए,भरत जी का लक्ष्य समझकर, और उनका सदव्यवहार देख,जैसे ही भरत चित्रकूट के लिए चले,गुप्तचर तिरहुत के लिए चल दिए :- जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥ करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे॥ दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥ सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा॥ बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं॥ दो0-नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ। मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥270॥ कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा॥ जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥ रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि॥ भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू॥ नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू॥ समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ॥ नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी॥ बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥ दो0-गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति। चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति॥271॥ टिप्पणी:-दूतों ने जनकपुर आकर अवध की परिस्थितियों को यथासमझ स्पष्ट कर दिया।गुरु, कुटुंबी,मंत्री तथा राजा सभी उसे सुनकर-समझ कर सोच और स्नेह के वशीभूत हो,अत्यंत व्याकुल हो उठे।तुरंत मिथिलाप्रांत की सुरक्षा व्यवस्था ठीक कर,चित्रकूट चलने के लिए सवारियां तैयार कर ली गईं। शास्त्र विधि अनुसार दुघड़िया मुहूर्त निकालकर, राजा तुरंत चित्रकूट के लिए चल दिए।रास्ते में कहीं विश्राम नहीं किया गया।आज सवेरे प्रयाग स्नान कर सब लोग यमुना पार करने लगे।हमें यहां के समाचार लेने को भेजा गया है।दूतों ने ऐसा कहकर पृथ्वी पर माथा नवाकर प्रणाम किया। मुनिवर ने तुरंत मार्गदर्शन के लिए 6-7 किरात साथ देकर, विदा की आज्ञा दे दी। श्री जनक महाराज का आगमन सुनकर,सारा अवध समाज प्रसन्न हुआ,कि श्री रामजी के साथ रहने का अवसर और बढ़ गया।श्री राम जी संकोच में पड़ गए।इंद्र का सोच बढ़ गया कि,कहीं रामजी लौट न जाएं।कैकेई जी को अपनी भूलपर,ग्लानि बढ़ गई,कि अब समिधिनियों का सामना कैसे करूंगी:- दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥ सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥ धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई॥ घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे॥ दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला॥ भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा॥ खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा॥ साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे॥ दो0-सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु। रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥272॥ गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -90 श्री जनक जी का चित्रकूट आगमन-2:-जनक दूतों के लौट जाने के बाद,सारे अयोध्यावासी अपने नित्य कर्मों में लग गए।स्त्री- पुरुष मन ही मन विचार कर प्रसन्न हो रहे हैं, कि अच्छा हुआ,जनक जी के आने से कुछ दिन श्री रामजी के साथ और रहने का अवसर मिलेगा। इस प्रकार वह दिन बीत गया दूसरे दिन सवेरे उठकर सबने स्नान कर गणेश जी,गौरी-शंकर, लक्ष्मी-नारायण,दुर्गा जी व सूर्य भगवान का पूजन किया।फिर पुरुषों ने हाथ जोड़कर व स्त्रियों ने आंचल पसारकर पंचदेवों से विनती की,की अवध फिर से पूरे राजअंगों सहित स्वतंत्रता पूर्वक बसे। श्री राम जी राजा हों व जानकी जी रानी हों और भरत जी युवराज बना दिए जाएं।वे पंचदेवों से वरदान में मांगते हैं कि ऐसा सुख देकर हमारे जन्म को सफल बनाइए और गुरु,राजअंगों व भाइयों के सहित अवधपुरी में रामराज रहते हुए,ही हमारी मृत्यु हो :- अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥ एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥ करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥ रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥ राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥ सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥ एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥ दो0-गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ। अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ॥273॥ टिप्पणी :-अवधवासियों की स्वाभाविक प्रेममय दिनचर्या देखकर,चित्रकूट वासी ज्ञानी व मुनि अपनी वैराग्य और योग पूर्ण साधना को हेय मानते हैं।नित्यकर्म से निवृत्त हो अवधवासियों ने श्री राम जी को प्रणाम किया।समाज के सभी श्रेणी के लोग अपने-अपने अधिकार और भाव के साथ राम जी से मिलते हैं।प्रभु सावधानीपूर्वक सबकी नीति-प्रीति पहचानकर यथा योग्य सम्मान देते हैं। श्री रामजी का बचपन से ही ऐसा व्यवहार करने का स्वभाव है। श्री रघुनाथ जी शील व संकोच के समुद्र है,सुंदर है, प्रसन्नमुख और मधुर भाषी हैं,नेत्र कृपापूर्ण जल से भरे रहते हैं और सरल स्वभाव के हैं।अवधवासी श्री रामजी के गुणों की चर्चा करते हुए,अपने को भाग्यवान मानते हैं।वे कहते हैं कि हमारे समान पुण्यवान लोग जगत में कम हैं,जिन्हें राम जी भी अपना मानते हों। ऐसी चर्चाओं के बीच जनकजी का, आश्रम के निकट आ जाने का समाचार मिला और श्री रामचंद्र जी सहित सभी लोग उत्साह आदर और उतावली पूर्वक उठ खड़े हुए:- सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥ एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥ ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी॥ सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं॥ लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी॥ सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥ कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे॥ हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे॥ दो0-प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु। सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥274॥ टिप्पणी:-भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लिए रघुनाथ जी आगे बढ़े।ज्योंही जनक जी को गिरीश्रेष्ठ कामतानाथ का दर्शन हुआ,त्यों ही उसे प्रणामकर वे रथ त्यागकर पैदल चलने लगे।श्री रामदर्शन की लालसा और उत्साह के कारण सभी मार्ग के कष्ट और थकावट को भूले हुए हैं।मन वहां है,जहां रघुवर श्री सीतारामजी हैं,अतः मन को सुख -दुख का भान नहीं हो रहा है।समाज सहित श्री जनक जी महाराज की बुद्धि प्रेम मगन होने से बेसुध सी हो रही है। दोनों समाज निकट आने पर परस्पर एक दूसरे को देखकर,अनुराग से भरकर आदर पूर्वक भेंट करने लगे।श्री जनक जी मुनियों के चरणों की वंदना करते हैं और भाइयों सहित रघुनाथ श्री रामजी ने जनकपुर से आए ऋषियों को प्रणाम किया।भाइयों सहित श्री रामजी राजा जनकजी से भेंटकर उनको समाज सहित लिवाकर चले।ऐसा जान पड़ने लगा,कि जनक जी का समाज करुणा नदी है,जो शांतिरूपी पवित्रजल से भरे रामजी के आश्रमरूपी समुद्र से संगम के लिए जा रही हो:- भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥ गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं॥ राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू॥ मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥ आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती॥ आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे॥ लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन॥ भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि॥ दो0-आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु। सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥275
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -91,श्री जनक जी का चित्रकूट आगमन-3:- श्री जनक -समाज रूपी करुणानदी का श्री राम- आश्रम-सागर के संगम-रूपक से दोनों समाजों के मिलन का सुंदर वर्णन किया जा रहा है। करुणानदी की बाढ़ से ज्ञान-वैराग्य भी करुणा रस से पूर्ण हो गए। राजा दशरथ के प्रति कहे शोक वचनों से ज्ञानी-वैरागी लोगों का भी धीरज ऐसा छूटा, मानो नदी के किनारे के धैर्य रूपी वृक्ष भी ढह गये हों। राज्य के नष्ट होने का भय और राम जी के लौटने -नलौटने का भ्रम ही नदी की भंवरे हैं।वहां बड़े-बड़े विद्वान हैं,और उनके पास विद्या रूपी नावें भी हैं लेकिन बाढ़ के कारण रास्ता नहीं स्पष्ट हो रहा,अतः लंगर डाल कर रुक गए हैं।कोल किरात तट पर के मुसाफिर हैं,जो विस्मित होकर दोनों समाजों की दशा एकटक देख रहे हैं। जैसे ही करुणा- नदी आश्रम में पहुंची, वहां का ऋषि तथा रनिवास समाज भी ऐसा व्याकुल हो उठा,मानो शांत समुद्र क्षुब्ध हो गया हो।समाज में न ज्ञान रहा,न धीरज और न लज्जा ही रह गई। दशरथ महाराज के रूप,गुण और शील की सराहना करके सब रो रहे हैं।सभी विधाता को दोष देकर उसके लिए क्रोध युक्त वचन बोलते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि देवता,सिद्ध,तपस्वी, योगी और मुनि लोग भी विदेहराज की दशा देखकर,प्रेमरूपी नदी को पार करने का सामर्थ्य खो बैठे हैं।श्रेष्ठ मुनियों ने जहां-तहां अनेक उपदेश दिए और वशिष्ठ जी ने विदेह जी से कहा, कि हे राजन ! धैर्य धारण कीजिए :- बोरति ज्ञान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥ सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥ बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥ केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥ बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥ आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥ सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥ भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही॥ छं0-अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा। दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥ सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की। तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥ सो0-किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह। धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥276॥ टिप्पणी :-यद्यपि इस समाज में ऐसे ज्ञानी महापुरुष हैं ,जो सामान्य लौकिक मोह-ममता से ऊपर उठे हुए हैं,लेकिन वे भी श्री सीतारामजी के प्रेम से प्रभावित हैं।संसार में कर्मयोग-भक्तियोग- ज्ञान योग के साधक विद्यमान होते हैं,लेकिन साधू समाज उनका आदर तभी करता है जब वे श्री राम जी के प्रेमी भी हों। बिना रामप्रेम का ज्ञान मल्लाह रहित नाव जैसा होता है। मुनि वशिष्ट जी ने बहुत प्रकार से विदेहजी को समझाया,तब सब ने मंदाकिनी के रामघाट पर स्नान किया। सभी स्त्री-पुरुष दुख से पूर्ण हैं और सब ने उस दिन निर्जल उपवास किया,कुटुंबियों कि कौन कहे,पशु-पक्षी तथा हरिणों तक ने भोजन नहीं किया। दूसरे दिन प्रातःकाल दोनों समाजों के लोग स्नान कर,वटवृक्ष के नीचे उदासीन भाव से,शोकसभा के लिए एकत्रित हुए:- जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥ तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥ बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥ राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥ सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू॥ मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए॥ सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी॥ पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥ दो0-दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात। बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात॥277॥ टिप्पणी:- श्रीअयोध्या तथा श्रीमिथिला नगर के विद्वान ब्राह्मण,श्री वशिष्ठ जी तथा श्री शतानंद जी आदि, जो परमार्थ तत्व के निपुण ज्ञाता हैं,उन सब ने धर्म-नीति- वैराग्य व ज्ञानयुक्त अनेक उपदेश दिए ।श्री विश्वामित्रजी ने पुरानी कथाएं कहकर, सभी को सुंदर वाणी से समझाया। श्री रघुनाथजी ने श्री विश्वामित्रजी से कहा,हे नाथ! कल से सब लोग बिना जल के रह रहे हैं।श्री विश्वामित्र जी ने सब को समझाया कि श्री रामजी ठीक कह रहे हैं,अढ़ाई दिन आज भी बीत गया है। ऋषि का संकेत समझ,श्री जनक जी ने कहा!यहां अन्न का भोजन करना उचित नहीं है,श्री राम जी फलाहार पर हैं।राजाजी का विचार सब को अच्छा लगा और आज्ञा पाकर सब नहाने लगे। उस समय अनेक प्रकार के बहुत से फल-फूल- दल और मूल आदि फलाहार सामग्री बहंगियों और बोझों के रूप में लादकर वनवासी कोल-भील ले आए:- जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥ हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥ लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका॥ कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं॥ तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ॥ मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥ रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू॥ कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥ दो0-तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार। लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार॥277।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -92, चित्रकूट में मिथिला वासियों की रहनी-1:- श्री राम जी की अनिर्वचनीय माया के प्रभाव से चित्रकूट के सभी पर्वत और बन कामनाओं की पूर्ति करने वाले हो गए,जैसे वे कल्पवृक्ष हों। तालाब, नदी, बन तथा पृथ्वी सबसे मानो आनंद उमड़ रहा हो।बेलें और वृक्ष सभी फल और फूल से युक्त हो गए।शीतल-मंद-सुगंध वायु सब तरफ आनंद विखेरने लगी। बन की सुंदरता-रमणीयता कहीं नहीं जा सकती। लोग नहा-नहा कर श्री रामजी ,जनकजी तथा मुनिश्रेष्ठ से आज्ञा लेकर, सुंदर वृक्षों के नीचे उचित स्थान देखकर,डेरा लगाने लगे।एक दिन बीत चुका था,लेकिन मिथिला वासियों ने अभी तक डेरे भी नहीं लगाए थे।वशिष्ठ जी ने पवित्र,सुंदर,स्वादिष्ट दल-फल-मूल-कंद यथेष्ट मात्रा में आदर पूर्वक सब को भिजवा दिए।सभी लोग देवता अतिथि और गुरु की पूजा कर,फलाहार करने लगे:- कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥ सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥ बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला॥ तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥ जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई॥ तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई॥ देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥ दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥ दो0-सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार। पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥279॥ टिप्पणी:- इस प्रकार 4 दिन बीत गए। श्री राम जी के दर्शन कर,सब स्त्री-पुरुष सुखी हैं। दोनों समाजके लोगों के मन में ऐसी इच्छा है,कि बिना श्री सीतारामजी के लौटना, अच्छा नहीं।यहां देवलोक के समान आनंद मिल रहा है,श्री लक्ष्मण- राम -सीताजी को छोड़कर,जिसे घर अच्छा लगे उसका दुर्भाग्य है।जब दैव प्रसन्न हो,तभी श्रीराम जी के पास,बन में रहना संभव है।मंदाकिनी में त्रिकाल स्नान,श्रीराम दर्शन,रामबन-पर्वत तथा तपस्वियों के स्थानों में विचरण और अमृत भोजन कर,14 वर्ष पल के समान बीत जाएंगे।अवध- मिथिला समाज के लोगों में श्री राम जी के चरणों में सहज प्रेम है और वे नाना प्रकार के मनोरथ करते हैं।प्रेमभरे वचन सुनकर सभी का मन आकर्षित हो जाता है। उसी समय श्री सीताजी की माता श्रीसुनयना जी ने दासी भेजकर,कौशल्या जी से मिलने की उचित समय जान लिया और मिथिला का रनिवास,दिन के चौथे पहर श्री कौशल्या जी के कैंप में,मिलने के लिए पहुंच गया:- एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥ दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥ सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥ परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥ दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही॥ मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला॥ अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल॥ सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥ दो0-एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु॥ सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥280॥ एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥ सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥ सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -93 ,चित्रकूट में मिथिला वासियों की रहनी-2, मिथिला का रनिवास,श्रीकौशल्या जी के कैंप में पहुंच गया।श्रीकौशल्या जी ने सब का आदर,सम्मान किया और समय अनुकूल आसन दिए।दोनों तरफ से शील-सनेह पूर्ण आचरण देखकर और शोकयुक्त वचन सुनकर कठोर हृदय वाले भी पिघल गए। सबके शरीर पुलकित और शिथिल है।अधिकांश रानियां सोचवश पैर के नाखूनों से पृथ्वी कुदेर रही हैं। सब श्रीसीताराम जी के प्रेम की सी मूर्ति लगती हैं,मानो करुणा ही बहुत से वेष धरकर शोक और चिंता कर रही हो। श्री सुनैयनाजी स्तब्धता भंग करते हुए बोलीं- विधाता की बुद्धि बड़ी बाँकी है,जो दूध के फेन को वज्र की छेनी से फोड़ती है।अमृत सुनने में आता है लेकिन अधिकतर विष ही दिखाई पड़ता है।उसकी सब करनी भयंकर और कठोर है।जहां-तहां कौवे, उल्लू,बगुले ही दिखाई देते हैं,हंस मानसरोवर में ही दिखते हैं।यहां अन्योक्ति अलंकार द्वारा विधि के बहाने कैकेयी- कर्तव्य पर कटाक्ष है। देवी सुमित्रा जी शोक पूर्वक कहती हैं- विधाता की चाल उल्टी और विचित्र है,उसकी बुद्धि बच्चों जैसी है जो खिलौने बनाती बिगड़ती रहती है। कौशल्या जी कहती हैं,दोष किसी का नहीं है, कर्मानुसार दुख-सुख, हानि-लाभ मिलते रहते हैं। विधाता करम गति जानते हैं और तदानुसार शुभ- अशुभ फल देते रहते हैं।ईश्वर की आज्ञा सबके सिर पर है।उत्पत्ति,स्थिति तथा प्रलय अटल है और ऐसा अनादि काल से होता आ रहा है।हम सब मोहवश व्यर्थ के सोच करते रहते हैं। श्री कौशल्या जी पंडिता है,राम माता है,अतः सबको निर्दोष बताकर , सारबात कह दी, कि ईश्वर की इच्छा प्रबल है,किसी का दोष नहीं है।हे सखी!राजाजी का जीना-मरना लेकर,जो हम सब सोच कर रहे हैं,वह अपने हित-अनहित को देखकर होता है। सुनैयना जी सुंदर वाणी में कहती हैं,कि आपकी बात सत्य है।आप पुण्यात्माओं की सीमा अवधराज दशरथ की रानी है,आपका ऐसा कहना आपके ही योग्य है :- कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥ सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा॥ पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥ सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति॥ सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी॥ दो0-सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल। जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥281॥ सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥ जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी॥ कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू॥ कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥ ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें॥ देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥ भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी॥ सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥ टिप्पणी:- दुखित और गदगद हृदय से कौशल्या जी बोलीं, श्रीलक्ष्मण-राम-सीता बन को जाँए, इसका परिणाम बहुत बुरा न होगा किंतु भरत की मानसिकता चिंता का विषय है।हे सखी !मैं रामजी की शपथ लेकर कहती हूं, कि श्रीभरत का शील, गुण,विनम्रता, बड़प्पन,भाईपन,भक्ति और विश्वास आदि कहनेमें,सरस्वती जी भी असमर्थ हैं,फिर और कौन उनका वर्णन कर सकता है।राजा जी ने हमेशा मुझसे कहा, कि भारत कुल का चिराग है, ऐसा हमेशा जानना और मानना।जौहरी के हाथ पड़ने पर ही,कसौटी द्वारा सोना और मणि की पहचान होती है।वैसे ही कठिन समय पर पुरुष की स्वाभाविक पहचान हो जाती है।मेरा आज ऐसा कहना,बहुत युक्तियुक्त नहीं भी हो सकता क्योंकि शोक और स्नेह के प्रभाव से बुद्धि क्षींण हो जाती है।गंगा जी के समान पवित्र वाणी सुनकर सब रानियां प्रेम विव्हल हो गईं। कौशल्या जी धैर्य धारण कर कहती है ,हे मिथलेश्वरी सुनिए!विवेक- सागर राजाजनक की प्रिया को कौन उपदेश दे सकता है:- दो0-लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु। गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु॥282॥ ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥ राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥ भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई॥ कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥ जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा॥ कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ। अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा॥ सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी॥ दो0-कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि। को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि॥283॥ टिप्पणी:-कौशल्या जी कहती हैं, हे रानी! मौका पाकर राजाजी को अपने ढंग से समझाइएगा, कि लक्ष्मण को घर रोकलिया जाए और भरत बन को चले जाएं, तो कैसा रहेगा?जो यह सलाह राजा जी को ठीक जचे, तो इसे व्यवहार में लाने का पूरा प्रयत्न करें ! मुझे भरत को लेकर चिंता है।भरत के मन में रामजी के प्रति गूढ प्रेम है।उनका घर में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है,कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए! श्री कौशल्या जी का स्वभाव देखकर और निष्कपट वाणी सुनकर,सब रानियां करुणारस में डूब गईं। आकाश से धन्य-धन्य की ध्वनि और पुष्प वृष्टि होने लगी।सिद्ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गए।सारा रनिवास स्तब्ध होकर रह गया। श्री सुमित्रा जी,स्थिति की गंभीरता देखते हुए बोलीं! बहुत देर हो चुकी है। यह सुनकर कौशल्या जी प्रेम पूर्वक उठ खड़ी हुईं, और स्नेहा पूर्वक बोलीं! आप शीघ्र ही डेरे को पधारिये! हमारा तो अब ईश्वर ही सहारा है, या मिथिलेश जी सहायक हैं:- रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥ रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥ तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी॥ गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं॥ लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी॥ नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि॥ सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ॥ देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती॥ दो0-बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय। हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय॥284।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -94, मिथिला वासियों की रहनी-3:- श्री कौशल्या जी का प्रेम देख और विनम्र वाणी सुन, सुनयना जी ने उनके चरण पकड़कर बोलीं, हे देवि!आपकी ऐसी विनय उचित ही है, क्योंकि आप दशरथजी की पत्नी और रामजी की माता हैं। समर्थ लोग अपने से छोटे जनों का भी आदर करते हैं।अग्निदेव धुऐं और तिनके को सिर पर धारण करते हैं।राजा( जनक) जी तो मन कर्म वचन से आपके सेवक हैं,और सदा सहायक तो शिव-पार्वती जी ही हैं।आपकी सहायता करने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है।क्या दीपक सूर्य का सहायक बन कर शोभा पा सकता है? मुनि याज्ञवल्क्य जी ने पहले ही कह रखा है,कि श्री रामजी बन जाकर देवकार्य करके अवधपुरी में अटल राज करेंगे।देवता,पातालवासी तथा मनुष्य सब श्री राम जी की छत्रछाया में सुखपूर्वक बसेंगे। हे देवि! मुनि की वाणी व्यर्थ नहीं हो सकती। ऐसा कहकर बड़े प्रेम से पैर पकड़कर, सीता जी को साथ लेजाने की आज्ञा ली,और अपने डेरे को चल दीं:- लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥ देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥ प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं॥ सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी॥ रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै॥ रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू॥ अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल॥ यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥ दो0-अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ॥ सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥285॥ टिप्पणी:-श्री सीताजी अपने मइके वालों से प्रेम पूर्वक यथायोग्य मिलीं। उन्हें तपस्वी वेश में देखकर सब दुखी और व्याकुल हुए।जनक जी महाराज वशिष्ठ जी से आज्ञा लेकर,अपने डेरे पहुंचे। वहां आकर उन्होंने सीता जी को देखा।श्री जनक जी ने अपने प्राण और प्रेम की पाहुनी सीता जी को हृदय से लगा लिया।राजाजी का मन प्रयाग हो गया,जहां सिय-प्रेम रूपी अक्षय वट बढ़ने लगा, जिस पर रामप्रेम रूपी बालक शोभित हो रहा था।ज्ञान रूपी मार्कंडेय ऋषि (जनकजी) व्याकुल होकर डूबते-डूबते बालक का सहारा पा गये। वास्तव में विदेहजी की बुद्धि मोह में न डूबकर,श्री सीताराम प्रेम के प्रभाव में थी। श्री सीताजी भी माता-पिता के प्रेम विवश हो व्याकुल हो उठीं। फिर किसी तरह पृथ्वी की पुत्री जानकी ने समय और अपना धर्म विचार कर धीरज धारण किया:- प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥ तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥ जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥ लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की॥ उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥ सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा॥ चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥ मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥ दो0-सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि। धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥286॥ टिप्पणी:-तपस्वी वेश में श्री सीताजी को देखकर, श्री जनकजी को अत्यंत प्रेम और संतोष हुआ।वे बोले, बेटी!तूने दोनों कुलों (निमिकुल,रघुकुल) को पवित्र किया है।उज्जवल सुंदर यश जगत में छा गया है,जिसकी लोग प्रशंसा कर रहे हैं।तेरी कीर्ति नदी ने गंगा को भी जीतकर,अनेक ब्रह्मांडों में प्रवेश पा लिया है।पृथ्वी पर गंगा जी ने 3 बड़े तीर्थ (हरिद्वार,प्रयाग,गंगासागर) बनाए,लेकिन कीर्ति नदी ने अन गणित साधु समाजों में प्रवेश कर,उन्हें तीर्थ जैसा बना दिया।पिता ने ससनेह सत्य सुंदरबानी कही,जिसे सुनकर श्री सीताजी संकोच में समा गईं। माता-पिता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया,और सुंदर हितकारी शिक्षा तथा आशीर्वाद दिए।श्री सीताजी ने संकोच के साथ संकेत दिया,कि ऐसे समय रात्रि को यहां रुकना अच्छा नहीं।सुनैना जी ने सीता जी कि रुचि से, राजा जी को अवगत कराया।दोनों ने हृदय में उनके शील स्वभाव की सराहना की। बार-बार सीता जी से मिल-भेंटकर, राजा-रानी ने सम्मान पूर्वक उनको विदा किया। सुनैना जी एकांत और उचित अवसर पाकर,सुंदर वाणी में राजा जी से भरत जी की मानसिक दशा और उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार की चर्चा करने लगीं:- तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥ पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥ जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी॥ गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥ पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥ पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥ कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥ लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥ दो0-बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि। कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥287।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-95, चित्रकूट में मिथिला वासियों की रहनी -4:- सुनयना जी से,सोने में सुगंध और चंद्रमा का साररूप अमृत के समान श्रेष्ठ, भरत का व्यवहार सुनकर, राजा जनक पुलकित हुए और प्रेमपूर्ण नैनो को बंदकर भरत की सराहना करने लगे।बोले,हे सुमुखि! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो !भरत-चरित्र की कथा संसार-बंधन से छुड़ाने वाली है ।मेरी धर्मनीति,राजनीति तथा ब्रह्मविचार मैं थोड़ी पकड़ है,लेकिन मेरी बुद्धि भरत-महिमा की छाँव तक नहीं छू पाती,उसको समझना तो असंभव है। श्री ब्रह्मा,गणेश, शारदा,कवि,कोविद,पंडित और भी जो लोग बुद्धि में श्रेष्ठतम माने जाते हैं,उन सब के लिए भी भरत का चरित्र,कीर्ति,करणी,धर्म,शील गुण तथा ऐश्वर्य समझने और सुनने में अतिशय पवित्र,रुचिकर तथा आनंद देने वाला है।उनके गुणों की सीमा नहीं है।वे उपमा रहित पुरुष हैं।श्री भरत को,श्री भरत के ही समान जानो। सुमेरपर्वत कई लक्ष्य योजन का लंबा चौड़ा अतिशय विशाल है,उसकी नाप-तौल बताना अपनी हंसी कराना है। सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥ मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥ सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥ धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥ सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही॥ बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥ भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती॥ समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥ दो0-निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि। कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥288॥ टिप्पणी:-हे परमसुंदरी ! सभी के लिए भरत की महिमा का वर्णन,मछली का सूखी-भूमि पर चलने का वर्णन करने जैसा कठिन है।हे रानी सुनो !भरत की महिमा को श्री राम जी जानते तो हैं,लेकिन वे भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।पत्नी की भावना का आदर करते हुए राजाजी बोले ! "लक्ष्मण जी लौटें और भरत बन को जाएं" यह विचार सबके मन में है,और सबका हितकारी भी हो सकता है। लेकिन हे देवी ! श्रीभरत -रघुवर की परस्पर प्रीति का अनुमान तर्क द्वारा नहीं जाना जा सकता।श्री रामजी समता की सीमा है,तो भरत जी स्नेह और ममता की सीमा है। श्री भरतजी का प्रेम निश्चल और निष्काम है।उन्हें स्वप्न में भी परमार्थ और स्वार्थ के सुखों की कामना नहीं है।उनकी साधना और सिद्धि राम- चरण में प्रेम तक सीमित है।राजा जी ने बिलखकर प्रेमाश्रु बहाते हुए कहा, कि भरत जी भूलकर भी श्री राम जी की मानसिक इच्छा तक के विरुद्ध, कुछ करना क्या,सोच भी नहीं सकते।हम लोग भले ही प्रेम-मोह बस कुछ भी सोचें या चिंता करें। श्री भरत जी के गुणों की प्रेम पूर्वक चर्चा करते हुए,राजा-रानी की रात पलक झपकते बीत गई, समय मालूम ही न हुआ:- अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥ भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥ बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥ बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥ देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥ भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥ परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥ साधन सिद्ध राम पग नेहू॥मोहि लखि परत भरत मत एहू॥ दो0-भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ। करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥289॥ राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥ टिप्पणी:-दोनों राज-समाज प्रातःकाल जागे और नहा-नहा कर देवताओं की पूजा करने लगे।श्री रामजी स्नान कर गुरु वशिष्ठ के पास गए और चरणों की वंदनाकर,आज्ञालेकर बोले,हैनाथ!भरत, अवधवासी और माताएं सब शोक से व्याकुल और वनवास से दुखी हैं।राजा जनक भी समाज सहित क्लेश उठा रहे हैं।हे नाथ !सबका हित आपके हाथ में है,जो उचित हो वही कीजिए। ऐसा कहने के लिए श्री राम जी को अत्यंत संकोच हुआ।उनका शील-स्वभाव देखकर, मुनिश्रेष्ठ रोमांचित हुए और बोले, हे राम! तुम्हारे बिना घर- बार, संपूर्ण सुख का सामान,दोनों राज-समाजों के लिए नर्क के समान दुखदाई है।हे राम !तुम प्राणों के भी प्राण हो, जीव के भी जीव और सुख के भी सुख हो।हे तात !तुम को छोड़कर जिन्हें घर -द्वार भाता है, उन पर विधाता रुठा जानो:- राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥ गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥ नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥ सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू॥ उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥ अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ॥ तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥ दो0-प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम। तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम॥290।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड- 96,श्री रामजी के अवध लौटने को लेकर विचार -विमर्श प्रकरण दो-2(i):-दोनों समाजों के वनवासी कष्टों से दुखी राम जी को, मुनि श्रेष्ठ समझा रहे हैं ।वह कह रहे हैं,कि सब लोग स्वभाववस स्वेक्षा से रुके हुए हैं।वह सुख, कर्म,धर्म व्यर्थ है,जिसका संबंध राम प्रेम से न हो। वह योग, कुयोग है और वह ज्ञान, अज्ञान है, जिसमें रामप्रेम की प्रधानता न हो।सब तुम्हारे बिना दुखी हैं और तुमसे ही सुखी हैं।हे कृपालु आपको सब की अवस्था भली प्रकार मालूम है। आप आश्रम में पधारें,हम देखते हैं क्या हो सकता है।यह कहकर मुनिराज स्नेह से शिथिल हो गए। श्री राम जी प्रणाम कर अपने डेरे पर चले गए। वशिष्ठ जी जनक जी के पास आ गए और दूसरे निर्णायक सभा के आयोजन का श्रीगणेश हो गया। राजा जी को सारी परिस्थिति और राम जी के विचारों से अवगत करा कर मुनिराज ने कहा हे महाराज !अब आप उपाय कीजिए ,जिससे धर्म सहित सबका हित हो। हे राजन !आप ऐसे ज्ञानवान, सुजान पवित्र, धर्मशील,धैर्यवान राजा के सिवाय ,इस समस्या का समाधान करने वाला कहां मिलेगा ?:- सो सुख करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥ जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू॥ तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥ राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥ आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥ करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥ राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए॥ महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई। दो0-ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल। तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥291॥ टिप्पणी:-मुनिश्रेष्ठ के बचन सुन, राजा जनक प्रेम विभोर हो गए और उनका ज्ञान-वैराग्य जाता रहा। वे मन में सोचने लगे, कि यहां आकर बुरा फंसे। दशरथ जी को मजबूरी में, वनगमन की आज्ञा देनी पड़ी, लेकिन शरीर छोड़कर उन्होंने अपने भगवत-प्रेम का प्रमाण दे दिया ।हम ज्ञान के घमंड में राम वनवास को उचित ठहरा देंगे,किंतु भगवत प्रेम न सिद्ध कर पाएंगे।जनक-वशिष्ठ जैसे बड़े-बड़े धर्म-वेताओं को धर्म संकट में फंसा देख, वहां उपस्थित तपस्वी, मुनि,ब्राम्हण सब प्रेमवस व्याकुल हो उठे।राजा जनक पूरे समाज सहित समस्या समाधान के लिए भरत जी के पास पहुंचे। भरत जी ने उनका सम्मान पूर्वक स्वागत किया, और उचित आसन दिया।जनक जी ने कहा हे तात भरत ! तुमको राम जी का स्वभाव भलीभांति ज्ञात है।वे धर्म परायण और सत्य प्रतिज्ञ हैं।सबके सील और स्नेह में फंसे हुए, वे संकोचवरश कष्ट सह रहे हैं।जैसी तुम्हारी सलाह हो वह हम उनसे कह दें:- सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥ सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही॥ रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥ हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥ तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥ समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥ भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥ तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥ दो0-राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु॥ संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु॥292॥ टिप्पणी:-प्रसन्न चित्त नेत्रों में प्रेमाश्रु भरकर भरत जी धैर्य पूर्वक बोले,हे प्रभु !आप समर्थवान हैं, पिता समान प्रिय और पूज्य हैं ।पूज्यकुल गुरु वशिष्ठ जी माता-पिता से भी अधिक हितेषी हैं। विश्वामित्र जी आदि मुनियों और मंत्रियों के समाज सहित,ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित हैं।आप सबके सामने हमारी हैसियत शिशु सेवक आज्ञा पालक की है,अतः हे स्वामी मुझे शिक्षा दीजिए! चित्रकूट जैसे तीर्थ में,पूज्य गुरु और ज्ञानियों के समाज में,मेरा मौन रहना उचित है,लेकिन परिस्थिति वश में मलिन बौरा बोल रहा हूं।छोटे मुंह बड़ी बात कह रहा हूं।विधाता विपरीत है इसलिए क्षमा कीजिएगा। वेद शास्त्र सहित यह सर्वमान्य है की सेवाधर्म निर्वाह अत्यंत कठिन है। स्वामिधर्म और स्वार्थ का परस्पर विरोध है,लेकिन यह तथ्य अंधा और बहरा प्रेम मानने को तैयार नहीं होता।अस्तु श्री राम जी की इच्छानुसार उनके धर्म और व्रत की रक्षा करते हुए, और मुझे उनके अधीन जानकर,सर्वसम्मति से जो सबके लिए हितकारी हो,वह कीजिए। मैं आज्ञा पालन के लिए तैयार हूं:- सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥ प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥ कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥ सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥ एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥ छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥ स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥ दो0-राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि। सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि॥293।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-97, श्रीराम जी का अवध लौटने के लेकर विचार विमर्श प्रकरण-2(ii):- भरत जी का स्वभाव देखकर और उनकी वाणी सुनकर, सभा सहित जनक जी उनकी सराहना करते हैं ।भरत जी की वाणी कहने में सुगम है, सुनने में मृदु है, समझने में अगम है। निर्वाह कठिन होने से,कठोर है।दर्पण हाथ में होता है,और उसमें मुख का प्रतिबिंब भी दिखाई पड़ता है, पर उसे पकड़ा नहीं जा सकता।वैसे ही भरत की वाणी के कहे हुए भावार्थ का कोई उत्तर नहीं सूझता।अतः समस्या समाधान के लिए श्रीराजाजनक ,भरत,वशिष्ठ कौशिक जी, सारे समाज सहित श्रीराम जी के पास गए । ऐसी दशा देखकर सब लोग सोच से ऐसे व्याकुल हैं,मानो मछलियां वर्षा का प्रथम जल पी लेने से व्याकुल हों। देवताओं ने श्री वशिष्ठजी का रामप्रेम देखा।फिर विदेहराज का स्नेह देखा।भरत पहले से ही भक्ति रस से परिपूर्ण है। समाज के सभी लोग भी रामप्रेम मय हैं। अतः देवताओं ने हृदय से हार मान लिया, कि राम जी प्रेमवस होकर लौट जायेंगे। इंद्र चिंतातुर होकर कहने लगे, अब सब देवता मिलकर माया रचो,नहीं तो काम बिगड़ जाएगा :- भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥ सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥ ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥ भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥ सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥ देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥ राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥ सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा॥ दो0-रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज। रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥ टिप्पणी:-देवताओं ने सरस्वती जी का आवाहन किया और स्तुति कर कहा, हे देवी! देवता आप की शरण में है ,रक्षा कीजिए !अपनी माया के प्रभाव से,भरत की बुद्धि से रामप्रेम हटा दीजिए। स्वार्थवश जड़ता को प्राप्त, देवताओं की दशा देख देवी सरस्वती इंद्र को संबोधन कर बोली !मुझसे भरत की बुद्धि पलटने को कहते हो !दो हजार नेत्र होने पर भी सुमेरु पर्वत भी नहीं दिखाई पड़ता? परमात्मा की माया छोड़,सृष्टि में ब्रह्मा-विष्णु- महेश की माया सबसे प्रभावशाली है।वह भी भरत की गुणातीत बुद्धि को और देख तक नहीं सकती।उस बुद्धि को प्रभावित करने के लिए मुझसे कहते हो?चांदनी जब सूर्य को ढकने उसके पास पहुंचेगी,तो उसके प्रकाश में विलीन हो जाएगी।श्री भरत के हृदय में श्री सीताराम जी का निवास है,जहां सूर्य प्रकाश हो वहां अंधकार (माया) कैसा? ऐसा कह सरस्वती जी ब्रह्मलोक को चली गईं।व्याकुल होकर देवों ने मायाजाल रच कर भय, आरति, और भ्रम फैलाया।कुचालकर इंद्र सोचता है, कि राम का लौटना तो भरत प्रेम पर निर्भर है,लेकिन वहाँ तो मेरी कुचाल अप्रभावित हैं:- सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥ फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥ बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी॥ मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥ बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥ सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥ भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥ अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥ दो0-सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु॥ रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥ करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥ टिप्पणी:- इस बीच श्री जनकजी सारे समाज सहित, श्री राम जी के पास पहुंच गए। श्री रामजी ने सब का सम्मान किया।रघुकुल के पुरोहित श्री वशिष्ठजी ने पहले जनक-भरत संवाद सुनाया,फिर भरत का उत्तर बताया।इसके बाद कहा हे तात अब मेरी सहमति है,कि जैसी तुम आज्ञा दो,वैसा ही सब करें। गुरु ने पहली बार ऐसा करने की अप्रत्यक्ष रूप से आज्ञा दी है।श्री रामजी आज्ञा का पालन करेंगे, किंतु भक्त शिरोमणि भरत को पूरी तरह प्रतिष्ठित करने के बाद । गुरुजी की बात सुनकर,श्री राम जी दोनों हाथ जोड़कर,सत्य,सीधी और कोमल वाणी में बोले! जिस सभा में मिथिलेशजी और आप उपस्थित हों, वहां मेरे लिए आज्ञा देना ,सब प्रकार से भद्दा है।मैं शपथ पूर्वक कहता हूं,कि आपकी और राजा जी की आज्ञा ही,सबको शिरोधार्य होगी ! श्री रामजी को शपथ सुनकर,सभा सहित मुनि और जनक जी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और समस्या समाधान के लिए भरत जी का मुंह ताकने लगे। रामबंधु श्री भरत ने धैर्य धारण किया।कुसमय समझकर अपनी प्रेम-बाढ़ को संभाला,जैसे बढ़ते हुए विंध्याचल को अगस्त जी ने संभाला था।आगे ऐसा हुआ, मानो शोक-रूपी हिरण्याक्ष ने सभा की बुद्धि-रूपी पृथ्वी को हरलिया हो और ब्रह्मा-रूपी भरत से विवेक-रूपी वराह भगवान ने प्रकट होकर पृथ्वी का उद्धार कर दिया हो:- गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥ समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥ जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥ तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥ सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥ बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥ राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥ दो0-राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत। सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत॥296॥ सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी॥ कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥ सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥ भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-98 ,श्री रामजी के अवध लौटने को लेकर विचार-विमर्श प्रकरण -2(iii):-श्री भरत जी का यह भाषण,सेवाधर्म युक्त अतिश्रेष्ठ भाषण माना जाता है।भरतजी ने सारे समाज सहित,श्री रामजी, गुरुजी की विनती कर क्षमा मांगी।फिर श्री सरस्वती जी,श्री सीतारामजी का स्मरण कर ज्ञान, धर्म, व नीति से परिपूर्ण वाणी बोले,हे प्रभु ! आप मेरे पिता,माता,सुहृद, गुरु, स्वामी, परमहितैषी, और हृदय की बात जानने वाले हैं।आप सरल, सुसाहिब, सील के समुद्र,शरणागत पालक,सर्वज्ञ सुजान हैं। आप समर्थ, शरणागत के हितेषी और अवगुण व पापों को हरने वाले हैं।इन सब में आपके सामान,आप ही हैं,- कोई उपमा नहीं है। स्वामी की शपथ!अधमता और स्वामि-द्रोह में,मेरे समान मैं ही हूं । आपके और पिताजी के वचन को मोहवस उल्लंघन करके, समाज को बटोरकर मैं यहां आया।जबकि संसार में कहीं कोई भी,आपकी आज्ञा को कर्म- वचन से कौन कहे,मन से भी टालने वाला नहीं दिखाई पड़ता। मैंने सब प्रकार से ढिठाई की, लेकिन प्रभु ने उस धृष्टता को स्नेह और सेवा मान लिया।परिणाम स्वरूप मेरे दोष भूषण के समान हो गए और चारों ओर सुंदर सुयश फैल गया। करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥ छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥ हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई॥ बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥ दो0-निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु। करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥297॥ प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी॥ सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥ समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥ स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई॥ प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥ जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥ राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥ सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥ दो0-कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर। दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर॥298॥ टिप्पणी:-हे प्रभु ! वेद शास्त्रों में आपका बड़प्पन वर्णित है।दुराचारी,क्रूर,कुटिल,खल,पापी,नीच शीलरहित, नास्तिक तथा निशंकी आदि भी, शरणागत होकर प्रणाम मात्र करने से, आप द्वारा अपना लिए जाते हैं।शरणागत के दोष देखकर भी उन पर ध्यान नहीं देते, वरन् उसके सुने हुए गुणों की प्रशंसा साधु समाज में करते हैं।सेवक पर उपकार कर उसको गुणवान बनाते हैं,इसपर यदि सेवक संकोच करता है,तो उल्टे आप स्वयं हृदय में सकुचाते हैं कि हमने इसको कुछ नहीं दिया। जैसे नट पशु को और पाठक तोते को सुधारकर, उनके गुणों की प्रशंसा करके, सब लोगों में उनका यश बढ़ाते हैं,वैसे ही अपने भक्तों को आप समाज में बड़प्पन दिलवाते हैं। ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है,यह मैं हाथ उठाकर प्रतिज्ञा करके,सत्य कह रहा हूं।वेद- शास्त्र में वर्णित,अपनी विरुदावली की सत्यता आप जैसा कृपालु ही सिद्ध कर सकता है:- राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥ कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥ तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥ देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥ को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥ निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥ सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥ पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥ दो0-यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर। को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥ टिप्पणी:-भरतजी,राम जी के उपरोक्त स्वभाव वश, अपने ऊपर बर्षी कृपा को स्पष्ट करते हैं। मैं यहां राजआज्ञा की अवहेलना कर आया,लेकिन आपने सबको बता दिया कि भरत ने स्नेहवश, शोक से व्याकुल हो,हमसे मिलने आए हैं।आपके चरणों के दर्शन मात्र से,मुझे विश्वास हो गया कि स्वामी स्वाभाविक रूप से मेरे अनुकूल हैं। बड़ी चूक होने पर भी,श्रीवशिष्ठ जी,विश्वामित्र जी,जनक जी से युक्त बड़े समाज में मैं प्रतिष्ठा का पात्र बन गया।यह आपकी हम पर सर्वांगकृपा,अनुग्रह का फल है।आपने मेरे दुलार की रक्षा कि,मैं अब पूर्ण संतुष्ट हूं:- सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥ तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥ देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला॥ बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥ कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥ राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं॥ नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥ अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥ टिप्पणी:-भरतजी अब अपने भाषण की सार बात कहकर,सच्चे सेवक के नाते श्रीरघुनाथ जी को आज्ञा देने के लिए विवश कर रहे हैं।हे देव ! सुहृद, सुजान स्वामी के सामने बहुत बोलने की ढिठाई हमने की, उसे क्षमा करके अब मुझे "आज्ञा" दीजिए ,जिसके पालन करने से ही मेरे सेवक-सेव्य धर्म की पुष्टि होगी और उससे मेरा सब सुधार हो जाएगा। प्रभु के चरणरज की शपथ करके अपने हृदय की बात कहता हूं।स्वार्थ,छल और धर्म-अर्थ-काम- मोक्ष की इच्छा छोड़कर,स्वामी की सहज स्नेह से आज्ञा पालन करने के समान, सुसाहिब की दूसरी सेवा नहीं है।हे देव ! वही "आज्ञा" रूपी प्रसाद सेवक को मिले! ऐसा कहकर भरत जी प्रेम के वश हो गए,शरीर पुलकित हो गया,नेत्रों में जल भर आया।अकुला कर उन्होंने प्रभु के चरणकमल पकड़ लिए।उस समय के प्रेम का वर्णन असंभव है।दयासागर श्री रघुनाथ जी ने सुंदर वाणी से उनका सम्मान करके, हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया।ऐसा भाग्य इनके अलावा, मानस में,केवल श्री हनुमान जी को प्राप्त हुआ है।श्री भरत की विनय सुन श्रीरघुनाथ जी,साधुसमाज,वशिष्ठ जी,जनक जी स्नेह से शिथिल हो गए।सब मन ही मन भरत जी के भाई- पने व भक्ति की सराहना करने लगे।देवता भी मलिन मन से प्रशंसा कर रहे हैं और फूल बर्षा रहे हैं।संत तुलसी कहते हैं कि भरत के निर्णय से सब लोग ऐसा संकुचित हुए,जैसे रात्रि होने पर कमल बंद हो जाता है:- दो0-सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि। आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥300। प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥ सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥ सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥ अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा॥ अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी॥ प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥ कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी॥ भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥ छं0-रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी। मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥ भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से। तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से।।301।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-99 ,श्री रामजी के अवध लौटने को लेकर विचार -विमर्श प्रकरण-2(iv):- श्री भरतजी का भाषण सुनकर,दोनों समाजों के लोग संकुचित हो,असमंजस में पड़ गए।सभी स्त्री-पुरुष आगमी वियोग और स्नेह से दुखी और दीन है।महामलिन इन्द्र मरे जैसे लोगों को मार कर अपना कल्याण चाहता है।उन पर उच्चाटन आदि का प्रयोग कर और दुखी कर रहा है।इंद्र कपट और कुचाल की सीमा है।अपना कार्य सिद्ध करने के लिए,दूसरे का कार्य बिगड़ सकता है।इंद्र का व्यवहार कौवे के समान छली और मलिन है।पहले ही कुमंत्र द्वारा, सबके सिर पर उच्चाटन डाल चुका है,लेकिन श्री रामजी की प्रेम- प्रीति बनी रहने के कारण दुविधा पूर्ण स्थित है।क्षण में बन की इच्छा होती है और क्षण में घर रहना अच्छा लगने लगता है। मन की गति दुविधामय होने से प्रजा दुखी है। उनके मन की चंचलता नदी-समुद्र के संगम-जल की तरह डांवाडोल हो रही है।अस्थिर चित्त होने से कहीं भी संतोष नहीं हो पा रहा है। लेकिन वे एक- दूसरे पर अपनी दशा जाहिर नहीं होने दे रहे हैं।यह दशा देखकर दयासागर श्री राम जी मन ही मन इंद्र की मनोदशा पर हंस रहे हैं। यह भी कुत्ते और कामान्धों की तरह सशंकित हो रहा है कि मेरे हिस्से में आ चुके मुझे (श्री राम जी को) ये लोग कहीं छीन न ले जाएं!श्री भरतजी,जनक जी, मुनि लोगों, मंत्री,सज्जनों और सावधान लोगों को छोड़कर,देवमाया ने सभी मनुष्यों को उनकी योग्यता के अनुसार प्रभावित कर दिया :- देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब। मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥301॥ कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥ काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥ प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला॥ सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥ भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥ दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥ दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं॥ लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥ दो0-भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ। लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥ टिप्पणी:-दयासागर श्री रामजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज के छल के बीच फँसकर दुखी होते देखा।सभा के लोग,जनकजी,गुरुजी, ब्राह्मणों तथा मंत्रियों सभी की बुद्धि पर भरत की भक्ति का ताला लग गया था।अतः सब किंकर्तव्यविमूढ़ से थे। सब लोग एकटक राम जी को निहार रहे थे, और सिखाए से बचन संकोच बस बोलते थे।श्री भरत जी की प्रीति,नम्रता,विनय और बड़ाई सुनने में सुख दायक है,पर वर्णन करना बड़ा कठिन है। भारत की भक्ति देखकर जब मुनिगण और राजा जनकजी प्रेम मगन हो गए, तब उसकी महिमा का तुलसी कैसे कहे? भक्ति के स्वाभाविक प्रेम-प्रभाव से मेरी बुद्धि निर्मल होकर कुछ कहने की उमंग में है,पर कवि कुल की मर्यादा (सीमा) समझकर सकुचा गई।मर्यादा यह है कि जिसे विधि,हरि,हर, शेष,गणेश,शारदा आदि न कह सके, उसका कहना हमारे लिए उचित नहीं है। तुलसी कह रहे हैं कि श्री भरत जी का यश निर्मल चंद्रमा जैसा है,और मेरी बुद्धि चकोर कुमारी की तरह उसे ही देखे जा रही है।बुद्धि स्तब्ध होकर एक-टक हृदय-नेत्रों से उसे देखकर आनंदित तो हो रही है,लेकिन अधिक लुब्ध और मोहित हो जाने के कारण कुछ कह नहीं पारही है। श्री भरत जी के स्वभाव का वर्णन वेदविदों के लिए भी सरल नहीं है।मेरी तुच्छ बुद्धि की चंचलता को कबिलोग क्षमा करें।श्री भरतजी की कथा का जो भी कथन या श्रवण करेगा,वह अवश्य ही श्री सीताराम चरणों में अनुरक्त हो जाएगा।श्री भरत जी का स्मरण करने पर,जिसको श्री रामप्रेम सुलभ न हुआ वह भाग्यहीन है:- कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥ सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥ रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥ भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥ जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥ महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥ आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥ कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥ दो0-भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि। उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥303॥ भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥ कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥ सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-100, श्री रामजी के अवध लौटने को लेकर, विचार-विमर्श प्रकरण-2(v):- यह श्री रामजी का,स्वामीधर्म प्रधान,मानस का सर्वश्रेष्ठ भाषण है।इसमें उन्होंने भरत को उनकी मांग पूरी करते हुये ,अप्रत्यक्ष रूप से आज्ञा देकर, संतुष्ट कर दिया। कृपाल और सुजान श्री राम जी ने सभी की दशा को समझा।भक्तों के हृदय को समझने वाले,धर्म धुरंधर,नीतिनिपुण,सत्यशील तथा सुख के समुद्र रघुनाथ जी देश,काल और समाज के अनुसार सुंदर वचन बोले, जो बाणी के सर्वस्य थे,अंत में हितकारी और सुनने में अमृत के समान थे। वे बोले,हे तात भरत ! तुम धर्म धुरंधर हो,लोक,वेद के ज्ञाता हो,और प्रेम में प्रवीण हो।हे तात! कर्म वचन और मन से निर्मल तुम्हारे सामान तुम ही हो। बड़ों के सामने,वह भी कुसमय में, छोटे भाई के गुण कहना अच्छा नहीं है। हे तात! तुम सूर्यकुल की रीत,सत्य-प्रतिज्ञ पिता का यश,और रघुकुल-कीर्ति में उनकी प्रीति को भी जानते हो।समय, समाज,गुरजनों की लज्जा, उदासीन-मित्र-शस्त्रु के मन की,सभी का कर्तव्य और अपना एवं मेरा परमहित व परमधर्म,तुमको सब ज्ञात है।अतः तुमसे कुछ कहने की आवश्यकता तो नहीं है,लेकिन समय व परिस्थिति वश कुछ कहना पड़ रहा है। हे तात ! पिता के बिना हमारी बात कुलगुरु वशिष्ट जी की कृपा ने संभाल लिया।नहीं तो हमारे सहित,प्रजा, कुटुंबी,परिजन और परिवार सभी की दुर्दशा होती।सूर्य यदि अपने निर्धारित समय के पहले अस्त हो जाए,तो संसार के सभी जीवो का कष्ट होगा।अयोध्या राज्य के राजा का ऐसे समय शरीर शांत हो गया,जब कोई राज्य पद का अधिकारी वहां न था।मुनि वशिष्ठ और राजा जनक का समाज में इतना प्रभाव था,कि आंतरिक और वाह्य शत्रु शांत रहें और राज्य में कोई उत्पात नहीं हुआ:- देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥ धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर॥ देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥ बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥ तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥ दो0-करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात। गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥304॥ जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥ समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥ तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू॥ मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥ तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी॥ नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥ जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥ तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥ टिप्पणी:-हे तात ! तुम राजकाज के भार से घबराओ मत ! राज्य का सब काम,प्रतिष्ठा,धर्म, धरणि,धन,धाम सबका पालन गुरु प्रभाव से होता रहेगा। समाज सहित तुम्हारा और हमारा घर व बन में गुरु का कृपाप्रसाद रखवाला है।विश्वास रखना चाहिए कि माता,पिता,गुरु और इष्ट(यहां भरत के इष्ट राम) का आशीर्वाद धर्मरूपी पृथ्वी को धारण करने के लिए शेषनाग के समान है।वही तुम करो और मुझ से कराओ। हे तात ! इस विधि से सूर्यकुल के रक्षक बनो:- दो0-राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम। गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥ सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥ मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥ सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥ टिप्पणी:-साधक के लिए सिद्धियां देने वाली कीर्ति (गुरु आज्ञा पालन रूपी गंगा ), ऐश्वर्य (माता-पिता की आज्ञा पालन रूपी जमुना) तथा सद्गति (इष्ट- आज्ञा पालन रूपी सरस्वती) रूपा त्रिवेणी प्रत्यक्ष है ।यह विचारकर संकठ सहकर परहित रूपी धर्म के लिए, कष्ट सहकर प्रजा और परिवार को सुखी करो।वास्तव में तो विपत्ति हमारी ही थी,किंतु उसे प्रजा,परिवार और पुरजनों सभी ने बांट लिया है। लेकिन तुम्हारे हिस्से में विपत्ति कुछ अधिक आ गई है,क्योंकि तुम्हें वियोग दुख सहते हुए,14 वर्ष तक राज-काज का भार भी ढोना है।तुमको कोमल जानकर वियोग की कठोर बात कह रहा हूं। वह कुसमय की मजबूरी है।विपत्ति पड़ने पर श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते हैं।वार पड़ने पर स्वाभाविक रूप से हाथ (उत्तम भाई) ढाल बनकर सामने आ जाते हैं,भले ही वे स्वयं घायल हो जाँय। श्री राम जी भरत को आदर्श राजा बनने का मंत्र भी देते हैं।सेवक (प्रजा) हाँथ, पैर और नेत्र के समान है और स्वामी (राजा) मुख के समान है। हाथ,पैर,नेत्र न हो तो मुख में भोजन कैसे पहुंचे! और मुख न हो तो हाथ-पैर आदि को पोषक रस कैसे मिले! प्रजा से कर ले और उसे स्वयं अपने भोग में न लगाकर प्रजा की सुव्यवस्था-विकास में लगा दे। ऐसी सेवक -स्वामी की प्रीति-रीति आदरणीय और सराहनीय होती है:- साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥ सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी॥ बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥ जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा॥ होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए॥ दो0-सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ। तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड -101'अवध राज्य की व्यवस्था सुनिश्चित हो जाने पर,दूसरी सभा की समाप्ति:-श्री रघुनाथ जी की प्रेमामृत से सनी दिव्य वाणी सुनकर सभी स्तब्ध रह गए,मानो सब की प्रेम समाधि लग गई हो।सरस्वती भी मौन हो गईं अर्थात सभी लोग चुप व शांत हो गए।भरत जी को इष्ट की अनुकूलता और कृपा प्राप्त होने से परम संतोष तथा आनंद हुआ,जैसे गूंगे को सरस्वती जी की कृपा से वेद पर प्रवचन करने का सामर्थ प्राप्त हो गया हो। श्री भरत जी ने प्रेम पूर्वक पुनः प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोले,हे नाथ! मुझे आपके साथ जाने जैसा सुख प्राप्त हो गया और मेरा मानव जन्म भी सफल हो गया।हे कृपालु !अब जो आज्ञा होगी मैं उसे आदर पूर्वक करूंगा।हे देव !मुझे अवलंब रूप में कुछ निशानी मिले,जिसके सहारे में 14 वर्ष बिता सकूं। हे देव !गुरु जी की आज्ञा लेकर तिलक के लिए सब तीर्थों का जल लाया हूं,उसके लिए क्या आज्ञा है :- सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी॥ सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥ भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥ मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥ कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी॥ नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥ अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥ सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥ दो0-देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ। आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥307॥ टिप्पणी:-हे प्रभु ! मेरे मन में एक मनोरथ भी है जिसे भय और संकोच से कह नहीं पा रहा हूं।प्रभु ने तुरंत कहने की आज्ञा दे दी।तब भरत जी स्नेह मयी वाणी से बोले। चित्रकूट पवित्र तीर्थ स्थल है, जहां सुंदर बन, पशु-पक्षी,तालाब,नदी झरने,पर्वत की चोटियां और प्रभु के चरण चिन्हों से अंकित भूमि है।यदि प्रभु की आज्ञा हो,तो इनको देखना चाहता हूं।श्री राम जी बोले,अवश्य देखिए!श्रीअत्रि जी की आज्ञा धारण कर,निर्भय होकर बन में विचरो ! हे भ्राता मुनि के प्रभाव से बन मंगलदाता है,परम पवित्र और सुहावना है।ऋषिराज अत्रि जी जहां आज्ञा दें,उसी स्थान में तीर्थों के जल को रख देना।प्रभु के वचनों को सुनकर भरत जी आनंदित हुए और अत्रि जी के चरण कमलों में मस्तक नवा शरणागत हुए । श्री भरत-राम का सुंदर संवाद सुनकर स्वार्थी देवता भी रघुवंश की प्रशंसा करके,कल्पवृक्ष के फूलों की वर्षा करने लगे, भरत जी धन्य है गोसाई रामजी की जय हो।:- एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥ कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥ चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥ प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥ अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू॥ मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥ रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं॥ सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥ दो0-भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल। सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥308॥ धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई। टिप्पणी :- भरत जी के वचन सुनकर,मुनि मिथिलेश तथा वहां उपस्थित लोग आनंदित हुए। विदेहराज जी ने पुलकित होकर भरत जी तथा राम जी के गुणों की प्रशंसा किया। सेवक और स्वामी के स्वभाव की और पवित्र करने वाले नेम- प्रेम की मंत्री और सभासदों ने भी अपनी-अपनी योग्यता अनुसार सराहना की। श्री राम -भरत संवाद सुन सुनकर अवध और मिथिला वालों के हृदय में हर्ष और विषाद दोनों का सम्मिलित प्रभाव पड़ा।श्री राम जी की माता ने दुख और सुख को समान मानकर,श्री राम जी की विशेष दायित्वों- पितावचन-पालन,देव कार्य तथा भूमिभार का उद्धार आदि की चर्चा की। प्रजा के लोग अपने-अपने ढंग से,कोई श्री राम जी का बड़प्पन बताते हैं,तो कोई भरत की निकाई की सराहना करते हैं।इस प्रकार की चर्चाओं के चलते दूसरी सभा समाप्त हो गई:- मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥ भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू॥ सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन॥ मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे॥ सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू॥ राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी॥ एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥309।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-102, समस्या समाधान के बाद भारत का चित्रकूट विचरण:- श्री अत्रिजी महाराज ने भरत जी को बताया,कि रामसैल के समीप सुंदर कुआं है।अनुपम पवित्र जल को उसी में सुरक्षित रखना चाहिए।आज्ञा पाकर भरत जी ने जलपात्रों को वहां भिजवा दिया और स्वयं भाई शत्रुघ्न तथा श्री अत्रिजी व साधु समाज सहित विशाल कुएं के पास पहुंचे।पवित्रजल विधि विधान के साथ कुएं में डाल दिया गया और अत्रि जी ने उस अनादि सिद्ध तीर्थस्थल की कथा सुनाई,जिसे लोग भूल गए थे। शिष्यों ने जलयुक्त इस तीर्थ की महिमा जानकर, कुएँ को विशेष सुंदर रूप में सँवार दिया।इससे संसार भर का उपकार हो गया।भक्त लोग प्रेम से नियम पूर्वक इस तीर्थ में स्नानकर अपने मन,वचन कर्म को सुगमता से निर्मल करते रहते हैं।मुनि अत्रि जी ने तीर्थजल से अति पवित्र हुए कुएँ का नाम भरतकूप निर्धारित कर दिया।आज भी भरतकुप अपने बैभव में प्रकट है,और उससे भक्तों का कल्याण हो रहा है। कूप की महिमा कहते-सुनते सब लोग रामजी की कुटिया पर लौटकर आ गए।मुनि जी ने श्री रामजी को भरतकूप तीर्थ की महिमा-कथा सुनाई:- भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥ सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥ पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥ तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥ तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा॥ बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू॥ भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा॥ प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी॥ दो0-कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ। अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥310॥ टिप्पणी :-प्रेम पूर्वक तीर्थ से जुड़ी कथा-प्रसंगों और इतिहास कहते-सुनते रात सुख पूर्वक बीत गई ।प्रातः काल भरत,शत्रुघ्न नित्य क्रियाओं से निवृत्तहोकर,श्रीरामजी,अत्री व गुरुजी को प्रणाम कर,तथा आज्ञा लेकर सारे समाज सहित,पैदल रामबन दर्शन के लिए निकल पड़े।उनके चरण कोमल है अतः पृथ्वी माता संकोच वस कोमल हो गईं। विचरण करते हुए श्री राम जी के प्यारे भक्तों का चित्रकूट की प्रकृति स्वागत-सम्मान करने लगी।पृथ्वी ने कुश, कांटे, कंकरिया,गड्ढे तथा अन्य कठोर कष्टदायक वस्तुओं को छुपा लिया।मार्ग सुंदर और कोमल हो गए।सुख देने वाली शीतल-मंद-सुगंधित वायु चलने लगी। देवता फूल वर्षा कर, बादल छाया करके, वृक्ष फल फूलों द्वारा, तृण कोमलता से,पशु देखकर और पक्षी मधुरवाणी बोल कर,श्री राम जी के प्यारे भक्तों की सेवा करते रहे। आलस्य वश श्रीराम मुंह से निकल जाने पर भी,सामान्य प्राणियों का कल्याण हो जाता है। तब भरत जी के लिए इस प्रकार की सेवा, कोई बड़ी बात नहीं है।वे तो राम जी के प्राण प्यारे भक्त हैं:- कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥ नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥ सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें॥ कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥ कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥ महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥ सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं॥ मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥ दो0-सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात। राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥311॥ टिप्पणी :-इस प्रकार 5 दिन तक प्रातः काल से लेकर करीब 2:00बजे दिन तक विचरण कर भरत जी राम जी के पास लौट आते रहे।उनका नेम-प्रेम देखकर मुनि सकुचाते हैं। दिव्य पवित्र नदी,बावली, कुंड,पशु-पक्षी,वृक्ष,तृण, पर्वत,बन तथा बाग देखकर भरत जी उनकी सुंदरता और लोकप्रियता को जानने की जिज्ञासा करते हैं।अत्रि जी प्रसन्न होते हैं,और विस्तार से भरत की जिज्ञासाओं का समाधान करते हैं। भरत जी मन में आनंदित होकर कहीं स्नान करते हैं ,कहीं प्रणाम और कहीं दर्शन करते हैं। कहीं मुनि की आज्ञा पाकर बैठ जाते हैं और श्री सीता सहित दोनों भाइयों का स्मरण करते हैं।भरत जी का स्वभाव प्रेम और सुंदर सेवा देखकर बन देवता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं।भरत जी ने 5 दिनों में चित्रकूट के तीर्थ स्थानों का दर्शन कर लिया। पांचवाँ दिन भी हरि-हर सुयश कहते-सुनते बीत गया और सबने रात्रि विश्राम किया:- एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥ पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥ चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी॥ सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ॥ कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा॥ कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई॥ देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा॥ फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई॥ दो0-देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ। कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥312।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-103, अवध व मिथिला दोनों समाजों की विदाई-1:- छठे दिन प्रातः नित्य कर्मों से निवृत्त होकर भरत जी,ब्राह्मण तथा श्री जनक जी आदि सब एकत्रित हुए।रामजी ने जाना,कि आज का दिन प्रस्थान के लिए उत्तम है, लेकिन संकोच बस कुछ कह नहीं पा रहे हैं।श्री गुरु,राजा जनक, भरत और सभा की ओर देखकर, भावुक हो रामजी संकोचवश पृथ्वी की ओर निहारने लगे। सभी लोग उनके शील की प्रशंसा कर रहे हैं- कि राम जी के समान संकोची मालिक कहीं नहीं है। भरत जी जैसे भक्त सेवक ने मालिक की कठिनाई ताड़ली। प्रेम पूर्वक उठकर दंडवत कर, हाथ जोड़कर कहने लगे, हे नाथ ! आपने मेरी सभी इच्छाएं पूरी की। मेरे कारण आप सहित सभी ने बहुत दुख उठाए।हे गोसाईं !अब मुझे राज आज्ञा दीजिए कि मैं 14 वर्ष तक अवध की सेवा करूं।हे दीनदयाल मुझे वह शिक्षा दीजिए जिस के पालन से अवधि बीतने पर कोशलपति के चरणों के दर्शन पा सकूं :- भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥ भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥ गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥ सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥ भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥ करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥ मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥ अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥ दो0-जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल। सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल॥313॥ टिप्पणी:-हे गोसाईं !अवधवासी,कुटुंबी व प्रजा आपके संबंध रहने से पवित्र और सरस रहती है। आपके बिना परमपद प्राप्ति भी व्यर्थ है।हे स्वामी आप सुजान हैं,सभी की दशा और मुझदास के हृदय की रुचि,लालसा और रहनी जानकर सभी का पालन करेंगे।आपकी बनवास की प्रतिज्ञा भी रहेगी,और मेरी रुचि,लालसा,रहनी भी रहेगी।हे प्रभु ! मुझे इस सब का दृढ़ भरोसा हो गया है और विचार करने पर कुछ भी सोच नहीं रह गया है। हे स्वामी ! मेरे दुख और आपकी कृपा ने मुझे ढीठ बना दिया है।मेरे इस बड़े दोष को दूर कर, मुझको सेवक धर्म की शिक्षा दीजिए!दूध और जल को अलग-अलग कर देने वाली,भरत की विनय पूर्ण वाणी सुनकर सब ने प्रशंसा की:- पुरजन परिजन प्रजा गोसाई। सब सुचि सरस सनेहँ सगाई॥ राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥ स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की॥ प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू॥ अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥ आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥ यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी॥ भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी॥ दो0-दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन। देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥314॥ टिप्पणी :-श्री रामजी, भाई के दीन और छलहीन वचन सुनकर देश, काल और अवसर के अनुकूल बोले, हे तात ! तुम्हारी, मेरी, और परिवार की, घर की और बन की चिंता गुरु और जनक जी को है। श्री गुरु जी, विश्वामित्र जी,मिथिलेश जी हमारे रक्षक हैं।हमको और तुमको स्वप्न में भी क्लेश नहीं है। मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ,स्वार्थ,सुयश, धर्म और परमार्थ इतना ही है, कि हम दोनों वेद और लोक में प्रतिष्ठित पिता की आज्ञा का पालन करें। गुरु,पिता,माता और इष्ट की आज्ञा पालन करते रहने पर,कोई चूक हो जाने में भी,रक्षा हो जाती है। ऐसा विचार कर सब सोच छोड़कर,अवध में जाकर,अवधि भर उनकी आज्ञा पालन करो।देश, कोष, परिजन इन सबके सार-संभाल का भार गुरुजी के चरण रज पर है।तुम्हें तो मुनि,माता और मंत्रियों की शिक्षा मानकर पृथ्वी,प्रजा और राजधानी का पालन भर करना है। अब राम जी एक ही सूत्र में,राजधर्म का सार बता देते हैं।श्री राम जी कहते हैं -कि मुखिया को मुख के समान होना चाहिए,जो देखने में तो अकेला ही अन्न खाता है,किंतु वह सारे का सारा तत्व,विवेक पूर्वक यथा योग्य सभी अंगों के पालन पोषण में बांट देता है।राज धर्म का सर्वस्य इतना ही है,जो राज्य की सुव्यवस्था में गोपनीय रहता है:- तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥ माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू॥ मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु॥ पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई॥ गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें॥ अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई॥ देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥ तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥ दो0-मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक। पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥315॥ राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-104 दोनों समाजों की विदाई-2:- रामजी ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया, किंतु बिना अवलंब उनको संतोष व शांति नहीं हो रही है।दूसरी ओर गुरु मंत्रियों के आदरणीय समाज का संकोच, श्री राम जी को है।अंत में स्नेह की जीत हुई,और प्रभु ने कृपा करके अवलंब रूप में खड़ाऊँ दिए।भरत जी ने उन्हें आदर पूर्वक लेकर सिर पर रख लिया। करुणानिधान श्री राम जी के दोनों खड़ाऊँ प्रजा की रक्षा के लिए दो पहरेदार की तरह हैं।भरत के स्नेह रूपी रत्न को सुरक्षित रखने के लिए डिब्बा हैं।जीवों के लिए मोक्ष रूपी दो अक्षर (जप,राम) हैं। रघुकुल की सुरक्षा के लिए दो-पाट वाले किवाँड़ हैं।कुशल कर्म करने के लिए दो कर्मठ हाथ जैसे हैं।सेवा रूपी धर्म मार्ग-दर्शन के लिए नेत्र हैं।भरत जी को आनंद देने के लिए श्री सीताराम जी का संग-स्वरूप हैं।खड़ाऊ रूपी अवलंब मिल जाने से भरत जी प्रमुदित हैं। उन्होंने श्री राम जी को प्रणाम कर विदा मांगी।श्री रघुनाथ जी ने उन्हें हृदय से लगा लिया:- बंधु प्रबोधु बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥ भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥ प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥ चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥ संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के॥ कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के॥ भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें॥ दो0-मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ। लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ॥316॥ टिप्पणी:- कुटिल इंद्र को अवसर मिला,और उसने लोगों पर उच्चाटन की देव माया फैला दी।संयोग से उसकी कुचाल लोगों के लिए हितकारी हो गई। रामजी से उच्चाटन हुआ और आशारूपी संजीवनी मिल गई, कि 14 वर्ष बाद राम जी पुनः मिल जाएंगे।अन्यथा श्री सीता-राम-लक्ष्मण के वियोग रोग से सब पीड़ित रहते।श्री राम जी की कृपा से उलझी गुत्थी सुलझ गई।देवताओं का वार सहायक सिद्ध हुआ। श्री रामजी,भुजाओं में भरकर भाई भरत से भेंट कर रहे हैं।उस प्रेम रस का वर्णन असंभव है। अनुराग ऐसा उमड़ा,कि धीर शिरोमणि श्री राम जी अधीर हो रोने लगे,कमल समान नेत्रों से आंसू गिर रहे हैं।उनकी यह दशा देख देव समाज दुखी हुआ। मुनि-समाज, गुरु वशिष्ठ और जनक जी जैसे लोग, जो ज्ञानाग्नि से तपे हुए हैं और जिनका जन्म ही संसार रूपी जल में कमल-पत्रवत् हुआ है, वे भी श्री राम-भरत जी के अपार,उपमा रहित प्रेम को देखकर,तन-मन-वचन से उसी में डूब गए:- सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥ नतरु लखन सिय सम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥ रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥ भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु कहि न परत सो॥ तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा॥ बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी॥ मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से॥ जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥ दो0-तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार। भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार॥317॥ टिप्पणी:-जहां श्री जनक जी व गुरु वशिष्ट की बुद्धि भोरी हो गई हो,उस दिव्य प्रीति का वर्णन, प्राकृत प्रीति की तरह करना बड़ा दोष है।श्री राम-भरत के वियोग का वर्णन कठोर हृदय कवि ही कर सकता है,अस्तु इस संकोचवश कवि की वाणी मौन हो गई श्री। भरत जी से भेंट कर,श्री राम जी ने उनका ढांढस बंधाया।फिर शत्रुघ्न जी को हर्ष पूर्वक ह्रदय से लगा लिया।सेवक और मंत्री भरत की आज्ञा पाकर सब अपने-अपने काम में लग गए।चलने की तैयारी होते देख,दोनों समाज के लोगों को कठिन दुख हुआ। भरत जी व शत्रुघ्न जी,श्रीरामजी को प्रणामकर व आज्ञा लेकर अन्य लोगों से मिलने लगे।मुनियों, तपस्यों और बन देवताओं सबका बारंबार सम्मान करके,सब से विनती की।लक्ष्मण जी से भेंट- प्रणाम करके,श्री सीता जी की चरणरज सिर पर रखकर,उनका मंगल मूलक आशीर्वाद लेकर,दोनों भाई प्रेम सहित चल दिए:- जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥ बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥ सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी॥ भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए॥ सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥ सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥ प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई॥ मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी॥ दो0-लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि। चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि॥318
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-105,दोनों समाजों की विदाई-3:- श्री भरत को विदाकर, श्री रामजी लक्ष्मण सहित राजा जनक जी के पास विदाई देने आए।राजाजी को माथा नवाकर विनती की और आभार प्रकट किया, कि आपने यहां आकर बहुत दुख उठाया, अब आशीर्वाद देकर नगर को पधारिये। श्री जनक जी ने धैर्य धारण कर प्रस्थान किया।मुनियों, ब्राह्मणों तथा साधुओं को सम्मान देकर विदा किया।दोनों भाई सुनैना जी के पास गए,और आशीर्वाद लेकर लौटे।श्री विश्वामित्र,बामदेव, जाबालि व मंत्रियों आदि को यथायोग्य सम्मान देकर विदा किया।कैकेई जी को प्रणाम कर तथा प्रेम पूर्वक मिलकर राम जी ने उनके सब संकोच दूर किए और पालकी सजाकर विदा किया:- सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥ देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥ पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा॥ मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने॥ सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई॥ कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली॥ जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा॥ नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे॥ दो0-भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि। बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि॥319॥ टिप्पणी:-श्री सीताजी, माता-पिता व परिजनों से मिलकर लौटीं और फिर सब सासुओं को प्रणाम कर गले लगकर मिलीं। सासुओं से शिक्षा और आशीर्वाद पाकर प्रसन्न हुईं। श्री राम जी ने सुंदर पालकियों पर सब माताओं को संतोष देकर चढ़ाया।दोनों भाई बराबर सब माताओं से मिलते रहे।श्री भरत व राजा जनक जी ने अवध व मिथिला के समाज व सेना सहित,यथा योग्य सवारियों से प्रस्थान कर दिया।सब लोग बेसुध से चले जा रहे हैं और हृदय में श्री सीता- लक्ष्मण-राम जी का स्मरण कर रहे हैं। हाथी,घोड़े आदि पशु भी उदासी पूर्वक चल रहे हैं। श्रीगुरु और गुरुपत्नी को प्रणाम करके श्रीसीता, लक्ष्मण सहित प्रभु हर्ष-शोक पूर्ण हृदय से पर्ण कुटी पर लौट आए:- परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥ करि प्रनामु भेंटी सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥ सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई॥ रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई॥ बार बार हिलि मिलि दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई॥ साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना॥ हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता॥ बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें॥ दो0-गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत। फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत॥320॥ टिप्पणी:-श्री रामजी ने निषाद को भी सम्मान देकर विदा किया।उसके हृदय में बहुत विरह- विषाद है ।बनवासी कोल,किरात,भील आदि भी लौटाने पर बार-बार प्रणाम कर लौट चले। प्रभु राम, श्री सीताजी तथा लक्ष्मणजी बरगद की छाया में बैठकर,प्रिय परिजनों के वियोग से व्याकुल हैं।श्री राम जी इन लोगों से,भरतजी व परिजनों की मन-वचन-कर्म की प्रीति का बखान करते हैं।परिणाम स्वरुप चित्रकूट के पशु-पक्षी, जलमीन व सभी जड़ चेतन-उदास और दुखी हो गए।देवताओं ने फूल बरसा कर श्री राम जी से अपनी दीनदशा बताई।प्रभु ने प्रणाम कर उनका भय दूर कर ढाँढस बंधाया,तब वे सब चले गए। श्री सीता-लक्ष्मण-राम जी परण कुटी में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं,मानो भक्ति,वैराग्य और ज्ञान सशरीर विराजमान हों:- बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥ कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥ प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं॥ भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी॥ प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी॥ तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना॥ बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की॥ प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो॥ दो0-सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर। भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर॥321
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-106,दोनों समाजों की लौटानी यात्रा:- श्री भरत ,राजा जनक,मुनि,ब्राह्मण,गुरुजी सभी समाज के साथ श्री राम जी का स्मरण करते हुए चुपचाप चले जा रहे हैं।पहले दिन यमुना पार कर,रात्रि विश्राम किया।दूसरे दिन गंगा जी पार कर श्रंगवेरपुर में विश्राम किया,जहां निषादराज ने सब व्यवस्थाएं करीं। तीसरे दिन सई नदी पार कर गोमती में स्नान किया, और चौथे दिन अवधपुर पहुंच गए।श्री जनकजी नगर में 4 दिन रहकर, सब राजकाज संभलवाकर राज्य की कार्य व्यवस्था, श्रीभरत,मंत्री,गुरुजी को सौंपकर तिरहुत चले गए।गुरुजी ने नगर निवासियों को समझा दिया,कि राज्य श्री राम जी का ही है, पिताजी की आज्ञा पालन कर वे लौटेंगे और राजकार्य स्वयं संभाल लेंगे।लोग राम दर्शन की आशा लिए संयम-नियम पूर्वक जीवन बिताने लगे:- मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू॥ प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं॥ जमुना उतरि पार सबु भयऊ। सो बासरु बिनु भोजन गयऊ॥ उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू॥ सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए। जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी॥ सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू॥ नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी॥ दो0-राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास। तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस॥322।। टिप्पणी:-श्री भरत ने मंत्रियों और सेवकों को राजकाज सुचारु रुप से करने की शिक्षा दी।भाई शत्रुघ्न को माताओं की सेवा का कार्यभार सौंप दिया।ब्राह्मणों को बुलाकर सम्मान पूर्वक कह दिया,कि जो कुछ भी छोटा-बड़ा काम हो, बिना संकोच बताइएगा,मैं आपका सब कार्य करूंगा। परिजन, पुरजन और प्रजा को बुलाया और सबका संतोष करके सुख पूर्वक बसाया। दोनों भाइयों ने गुरु वशिष्ट जी के पास जाकर प्रणाम किया और सच्चे साधक की तरह जीवन बिताने की आज्ञा मांगी।गुरु प्रसन्न होकर बोले! तुम जो कुछ समझोगे,कहोगे,करोगे वही संसार के लिए धर्मसार होगा।गुरुजी से बड़ा आशीर्वाद पाकर,शुभ मुहूर्त में प्रभु की चरण पादुकाओं को राज्य सिंहासन पर बिधिपूवर्क पधरा दिया। कुछ विद्वानों का मानना है कि सिंहासन नंदीग्राम में रखा गया।पादुकाओं को नगर में नहीं ले गए, उनका नगर में जाना और प्रभु का वहां जाना एक ही बात होती:- सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे॥ पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई॥ भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे॥ ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू॥ परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए॥ सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी॥ आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा॥ समुझव कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई॥ दो0-सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि। सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि॥323॥ टिप्पणी:-भरत जी ने माता कौशल्या जी व गुरुजी के चरणो में माथा नवाकर और प्रभु पादुकाओं से राजआज्ञा लेकर नंदीग्राम (नगरबहर) में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे।उनकी रहनी और वेशभूषा तपस्वी जैसी रही। सिर पर जटाओं का जूड़ा,शरीर पर मुनि वस्त्र,पृथ्वी खोदकर,कुश की साथरी को ही प्रयोग में लाते हुए, ऋषि यों के समान कठिन जीवन बिताने लगे।सारे राजसी भोगों को तन-मन- वचन से त्याग दिया। अवध राज्य की समृद्धि के लिए इंद्र भी ललचाते थे और कुबेर जी भी उसके सामने,अपने को हेय मानते थे।ऐसे राज्य में,भरत जी ममत्व रहित होकर वैसे ही रहते हैं, जैसे भँवरा अत्यंत सुगंधित चंपा के फूलों से दूर रहकर,चंपा के बाग में रहता है।राम जी के प्रेमी धन-वैभव से उपलब्ध विषय भोगों को बमन के समान त्याग देते हैं।उनका यह व्यवहार स्वाभाविक होता है।जैसे चातक की टेक और हंस का विवेक नैसर्गिक होता है:- राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥ नंदिगावँ करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥ जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥ असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा॥ भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी॥ अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई॥ तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा॥ रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी॥ दो0-राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति। चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति।।324। 🌷 आ घर लौट चलें 🌷
- मानस आधारित श्री राम कथा, अयोध्याकांड-107,भक्तों के लिए श्री भरत जी की आदर्श रहनी:- भरत जी का नंदीग्राम में तपस्वी जीवन बिताने से, शरीर दुबला होने लगा। उपवास-फलाहार के कारण,मेद घट रहा है किंतु मुख की कांति तेज युक्त होती जा रही है।रामप्रेम नित्य पुष्ट होता जा रहा है।धर्माचरण नित्य बढ़ता जा रहा है।मन में प्रसन्नता बढ़ रही है।शम-दम, संयम,नियम तथा उपवास आदि भरत जी के हृदय रूपी निर्मल आकाश के तारागढ़ व नक्षत्र हैं। विश्वास ध्रुव नक्षत्र है ,और अवधि ही पूर्णिमा है। स्वामी का स्मरण आकाशगंगा है।श्री राम-प्रेम रूपी चंद्रमा नित्य पूर्ण और सुंदर रूप में सोह रहा है।भरत जी की भीतरी और बाहरी दिव्यता साधकों के लिए आदर्श है। श्री भरत जी की रहनी,समुझनी,करनी, भक्ति, वैराग्य,निर्मलगुण और ऐश्वर्य पूरी तरह न जान पाने के कारण,कबि उसके वर्णन में सकुचाते हैं।जब शेष,गणेश और सरस्वती जी के लिए भी वह अगम है,फिर कवियों का संकोच स्वाभाविक ही है। भरत जी नित्य प्रभु की चरण पादुकाओं को प्रीति पूर्वक पूजते हैं और उनकी प्रेरणा अनुसार राज्य के कामकाज करते हैं:- देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥ नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥ जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे॥ सम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा॥ ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥ राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा॥ भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥ बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥ दो0-नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति॥ मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥325॥ टिप्पणी:-भरत जी का शरीर पुलकित रहता है। हृदय में श्री सीताराम जी विराजे रहते हैं।जिह्वा से नाम जपते रहते हैं और नेत्रों से प्रेमाश्रु बहते रहते हैं।एक ओर श्री सीता-राम-लक्ष्मण जी की वन में नैसर्गिक तपस्या चल रही है,तो दूसरी ओर श्री भरत जी समृद्धशाली अवध का राजकाज करते हुए भी,असाधारण तपस्या में रत हैं।अस्तु लोग भरत जी की रहनी को अधिक सराहनीय मानते हैं। उनकी बाहरी साधना देखकर,साधक साधु सकुचा जाते हैं और आंतरिक ज्ञानयुक्त पराभक्ति को समझकर,श्रेष्ठ मुनि भी संकोच में पड़ जाते हैं। अयोध्या कांड में वर्णित भरत-आचरण आदर्श पराभक्त का चरित्र है,जिसके श्रवण-मनन करने से आनंद-मंगल हो जाता है।कठिन कलिकाल के पपों और क्लेशों की समाप्ती हो जाती है।असत्य को सत्समझने वाली मोहरात्रि नष्ट हो जाती है।पाप-पुण्य नष्ट हो जाता हैं। जीव के दैहिक-दैविक- भौतिक ताप समाप्त हो जाते हैं।भक्त लोग आनंदित होते हैं।आवागमन से मुक्ति हो जाती है, और रामप्रेम रूपी अमृत की प्राप्ति हो जाती है। श्री भरत रूपी भक्तिपात्र, प्रेमामृत से परिपूर्ण है और प्रेरणादायक है।उसी से प्रेरित होकर मुनि लोग यम,नियम,शम,दम आदि कठिन तप पूर्ण आचरण करते रहते हैं।उसके श्रवण से सामान्य जीवों का दुख,संताप,दरिद्रता,दंभ आदि दूषण समाप्त होते रहते हैं।संत तुलसी को उन्हीं के चरित्र से कलिकाल में भी कार्पण्य शरणागति प्राप्त हो गई।वे सबके लिए मंगल कामना करते हैं कि जो भी भरतजी का चरित्र नियम-संयम में रहकर आदर पूर्वक श्रवण करेगा,उसे असत् संसार से वैराग्य होकर,श्री सीताराम जी के चरणों में दिव्य प्रेम हो जाएगा :- पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥ लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥ दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू॥ सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं॥ परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू॥ हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥ पाप पुंज कुंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू। जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू॥ छं0-सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को। मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥ दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को। कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को॥ सो0-भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं। सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति॥326।। 🌷दूसरा सोपान पूर्ण 🙏🙏
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