श्री राम कथा
बालकांड
- पंचदेव व शक्ति सहित परंब्रम्ह की प्रार्थना:-वर्णानामर्थसंघानाम रसानां छंदसामपि।मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणीविनायकौ।।मूक होइ वाचाल पंगु चढ़ई गिरवर गहन। जासु कृपा सो दयाल द्रवहु सकल कलिमल दहन।।नील सरोरुह स्याम तरुण अरुन बारिज नयन।करउ सो मम उरधाम सदा क्षीरसागर सयन।।कुंद इंदु सम देह उमा रमन करूना अयन ।जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन।।बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर।।उद्भव स्थिति संहारकारिणीं क्लेसहारिणीम।सर्वश्रेयस्करीम सीतां नतोहं रामवल्लभां।यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा।यत्सतवादिमृषैव भाति सकलं रजौ यथाहेभ्रम:।। यत्पादप्लवमेकमेव हि भावाम्भोधेस्तितीर्षीवतां।वंदेम तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।मानस धारावाहिक का प्रयोजन:-तुलसी मेटै रूप निज बिंदु सीय के रूप ।देखि लखै सीता हिये राघव रेफ अनूप।।तुलसी जो तजि सीय को बिंदु रेफ में चाहु।तो कुभ्भी मँह कल्प सत जाहु जाहु परिजाहु |
- कार्पण्ययुक्त बंदना:- श्री गुरुचरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारी।वरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायक फल चारि।। बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरों पवन कुमार।बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं हरहु कलेश विकार।।गुरुपदरज मृदु मंजुल अंजन।नयन अमिअ दृगदोष भंजन।।तेहिकर विमलविवेक विलोचन।बरनउँ रामचरित भवमोचन।।बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोहजनित संसय सब हरना। सुजन समाज सकल गुनखानी।करउँ प्रणाम सप्रेमसुवानी।।मुद मंगलमय संत समाजू।जो जग जंगम तीरथ राजू।।बिनु सत्संग विवेक न होई।रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।।आकर चारिलाख चौरासी।जाती जीव जल थल नभ वासी।।सियाराम मय सब जग जानी।करूं प्रनाम जोरिजुगपानी।।निज बुधिबल भरोस मोहि नाहीं।ताते विनय करौं सब पाहीं।।संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेह।बालविनय सुनि करिकृपा राम चरन रति देहु।।जड़ चेतन जग जीव जत सकल राम मय जानि। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्व ।बंदउँ किन्नर रजनीचर कृपा करहु अब सर्व।।
- समष्टि वंदना: बंदउँ मुनि पद कंज रामायन जेहि निरमयउ।सखर सुकोमल मंजू दोष रहित दूषन सहित।।बंदउँ चारिउ वेद भव बारिधि बोहित सरिस।जिन्ह्हि न सपनेहु खेद वरनत रघुवर बिसद जसु।। व्यास आदि कवि पुंगव नाना। जिन सादर हरि सुजस बखाना।।चरण कमल बंदउँ तिन्ह केरे।पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।।गुरु पितु मातु महेश भवानी।प्रनवउँ दीन बंधु दिनदानी।।सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। वरनउ राम चरित चित चाऊ।। बंदउँ अवधपुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।। बंदउँ कौशल्या दिस प्राची।कीरति जासु सकल जग माची।। दसरथ राउसहित सब रानी।सुकृत सुमंगल मूरति मानी।। करउँ प्रनाम कर्म मनबानी।करहु कृपा सुत सेवक जानी।प्रनवउँ परिजन सहित विदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।। प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।जासु नेम ब्रत जाई न वरना।।बंदउँ लक्ष्मण पद जलजाता।शीतल सुभग भगत सुखदाता।।रिपुसूदन पद कमल नमामि। सूर्य सुशील भरत अनुगामी।।कपिपति रीछ निशाचर राजा।अंगदादि जे कीस समाजा।। बंदउँ सब के चरण सुहाए। अधम सरीर राम जिन पाए।।सुक सनकादिक भगत मुनि नारद।जे मुनिवर विज्ञान विशरद।। प्रनवउँ सबहिं धरनि धर सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनिसा।।गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।बंदउँ सीताराम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।मा० 1.18
- नाम वंदना राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार| तुलसी भीतर बाहरेहुं जो चाहसि उजियार।।1.21।।बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानू हिमकर को। महामंत्र जेहि जपत महेसू। कासी मुक्ति हेतु उपदेसू।। महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।जान आदिकवि नाम प्रतापू।भयो सुद्ध करि उल्टा जापू।। सहसनाम सम सुनि सिव बानी।जपि जेईं सिव संग भवानी।।आखर मधुर मनोहर दोऊ।वरन विलोचन जनजिय जोऊ।।वरनत वरन प्रीति बिलगाती।ब्रम्ह जीव सम सहज सँघाती।।नरनारायण सरिस सुभ्राता।जग पालक विसेषि जनत्रता।।स्वाद तोष सम सुगति सुधाके। कमठ सेष सम धर वसुधाके।।जन मन मंजू कंज मधुकर से।जीह जसोमति हरि हलधर से।।नामरूप दुइ ईस उपाधी।अकथ अनादि सुसामझि साधी।।देखिअहिं रूप नाम आधीना।रूप ज्ञान नहीं नाम आधीना।।रूप विशेष नाम विनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।। सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें।। नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी।।मा०1.21.7।।
- (क):-सकल कामना हीन जे राम भगत रस लीन।नाम सुप्रेम पियूष हृद तिन्हुँ किए मन मीन।।राम भगत जग चारि प्रकारा।सुकृती चारिउ अनघ उदारा।। नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।विरति बिरंचि प्रपंच बियोगी।।जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ।।साधक नाम जपहिं लय लाए।होंहिं सिद्ध अनिमादिक पाए।।जपहिं नामु जन आरत भारी।मिटहिं कुसंकट होंहिं सुखारी।।चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि विशेष नहीं आन उपाऊ।। अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।अकथ अगाध अनादि अनूपा।। मोरे मत बड़ नाम दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूते।। एक दारुगत देखिअ एकू।पावक सम जुग ब्रह्म विवेकू।। व्यापक एक ब्रह्म अविनासी। सत चेतन घन आनंद रासी।। अस प्रभु हृदय अक्षत अविकारी।सकल जीव जग दीन दुखारी।। नाम निरूपण नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें।।निरगुन थे यही भांति बड़ नाम प्रभाव अपार।कहउँ नाम बड़ राम तें निजी विचार अनुसार।।मा०1.23राम एक ता तापस तिय तारी।नाम कोटि खल कुमति सुधारी।। ऋषि हित राम सुकेतु सुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।।सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रवि निसि नासा।।भंजेउ राम आप भव चापू।भव भय भंजन नाम प्रतापू।। निसिचर निकर दले रघुनंदन। नाम सकल कलि कलुष निकंदन।।सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दिन्ह रघुनाथ।नाम उधारे अमित खल वेद विदित गुन गाथ ।।मा 1.24।
- ब्रह्म राम तें नाम बड़ बर दायक वरदानि।रामचरित सतकोटी महँ लिय महेस जियँ जानि।1.25 राम भालु कपि कटकु बटोरा।सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा।। नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं। करहु विचारु सुजन मन माहीं।। राम सकुल रन रावनु मारा।सीय सहित निज पुर पगु धारा।।सेवक सुमिरत नाम सप्रीति।बिनु श्रम प्रबल मोह दल जीती।। नाम प्रसाद संभु अविनासी। साजु अमंगल मंगल रासी।। सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्म सुख भोगी।। नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।। नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत शिरोमनि भे प्रहलादू।।ध्रुव सगलानी जपेउ हरिनाऊँ।पायो अचल अनूपम ठाऊँ।। अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।भये मुकुत हरिनाम प्रभाऊ।।नामु राम को कल्पतरु कलि कल्याण निवासु। जो सुमिरत भयो भाँगते तुलसी तुलसीदास।।ध्यान प्रथम जुग मखबिधि दूजे। द्वापर परितोषित प्रभु पूजे।। कलि केवल मल मूल मलीना।पाप पयोनिधि जन मन मीना।।रामनाम कलि अभिमत दाता।।हित परलोक लोक पितु माता।।नहीं कलि करम न भगति बिवेकू। राम नाम अवलंबन एकू।।राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल।।1.27-
- मौलिक -सिद्धांत प्रकरण(कुंजी),कथा की परंपरा:-जागबलिक जो कथा सुहाई।भरद्वाज मुनिवरहिं सुनाई।। कहिहउँ सोई संवाद बखानी।सुनहुँ सकल सज्जन सुख मानी।। शंभू कीन्ह यह चरित्र सुहावा।बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा।।सोइ सिव काग भुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।तेहि सन जागबलिक पुनि पावा।तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।मैं पुनि निज गुरुसन सुनी कथा सो सूकरखेत।समुझी नहिं तस बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।भाषाबद्ध करबि मैं सोई।मोरे मन प्रबोध जेहि होई।। निज संदेह मोह भ्रम हरनी।करउँ कथा भव सरिता तरनी।। बुध विश्राम सकल जनरंजनि। रामकथा कलि कलुष विभांजनि।। सोई वसुधा तल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि।।संत समाज पयोधि रमा सी। विश्व भार भर अचल क्षमा सी।।जमगन मुंह मसि जग जमुनासी।जीवन मुक्ति हेतु जन कासी।। रामहिं प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसीदास हित हियँ हुलसी सी।।जग मंगल गुन ग्राम राम के।दानि मुक्ति धन धर्म धाम के। समन ताप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोककेकाम कोह कलिमल करीगन के।केहरि सावक जन मन बन के।।मंत्र महा मनी विषय ब्याल के।।मेटत कठिन कुअंक भाल के ।।रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।सज्जन कुमुद चकोर चित हित विशेषि बड़ लाहु।।1.32 नोट:-इस प्रकरण की 9 पोस्टें मानस के मौलिक सिद्धांत को बताने के लिए हैं। इनसे मानस का तात्विक स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा।
- सिद्धांत-प्रकरण(कुंजी)-२,मानस-सरका अवतरण:- राम अनंत अनंत गुन अमित कथा विस्तार।सुनी आचरजु न मानिहहिं जिनके विमल विचार।।33 कीन्ह प्रश्न जेहि भांति भवानी।जेहि विधि संकर कहा बखानी।।सो सब हेतु कहब मैं गाई।कथा प्रबंध विचित्र बनाई।।कथा अलौकिक सुनहिं जे ज्ञानी।नहिं आचरजु करहिं असजानी।।नाना भांति राम अवतारा। रामायण सत कोटि अपारा।।कलप भेद हरि चरित सुहाए।भांति अनेक मुनीसन गाए।। करिअ न संसय अस उर आनी।सुनिअ कथा सादर रति मानी।।सादर सिवहिं नाइ अब माथा। वरनउँ विसद रामगुन गाथा।।संवत् सोरह सौ एकतीसा। करउँ कथा हरिपद धरि सीसा।।नौमी भौमवार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।। जेहि दिन राम जन्म श्रुति गावहिं तीरथ सकल तहां चलि आवहिं।। जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना।करहिं राम कल कीर्ति गाना।।मज्जहिं सज्जन वृंद बहु पावन सरजू नीर ।जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर श्याम सरीर।।1.34 राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि।।चारि खानि जग जीव अपारा।अवध तजें तनु नहीं संसारा।।सब विधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्ध प्रद मंगल खानी।।विमल कथाकर कीन्ह अरंभा।सुनत नसाहिं काम मद दंभा।। रामचरितमानस यहि नामा।सुनत श्रवन पाई विश्रामा।। राम चरित मानस मुनि भावन। बिरचेउ संभ सुहावन पावन।। रचि महेस निज मानस राखा।पाई सुसमउ सिवा सन भाखा ।।ताते रामचरितमानस बर।धरेउ नाम हिय हेरि हरषि हर।।कहउँ कथा सोई सुखद सुहाई।सादर सुनहु सुजन मन लाई।।
- प्रपत्ति घाट की कथा प्रारंभ:- इस घाट के वक्ता तुलसीदास जी बताते हैं, कि 78 वर्ष तक उनके हृदय गुहा में दिव्य रामयश रूपी जल भरता रहा ।उसी को प्रसार के लिए मानसरोवर की तरह ही अलौकिक तालाबों के अनुरूप मानस-सर की कल्पना की गई :- दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु। अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥ संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥ सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥ बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥ दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि। तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥ सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥ रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥ राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥ सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥ अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥ नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥ सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥ भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥ सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥ दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु। माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥
- मानस-सर का परिचय:- सुठि सुंदर संवाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।तेइ एहि पावन शुभ सर घाट मनोहर चारि।। सनातन धर्म में मानव कल्याण के साधन रूप में तीन मार्ग- कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग बताए गए हैं।कर्मयोग- क्रिया शक्ति आधारित भौतिक साधना है।ज्ञानयोग- ध्यान शक्ति आधारित आध्यात्मिक साधना है ।भक्तियोग- इच्छाशक्ति आधारित आस्तिक साधना है। मानस की राम कथा में,बड़े मनोहर ढंग से तीनों योगमार्गों को पिरोया गया है।संत तुलसी के हृदय में कल्पित चारघाट युक्त मानस सरोवर,अति सुंदर है।इसके 3 घाटों में सात-सात सीढ़ियां हैं और चौथा प्रपत्ति घाट सपाट है।चित्र में चारों घाटों को स्पष्ट किया गया है|
- मानस आधारित श्री रामकथा, बालकांड, ग्रंथ-सिद्धांत प्रकरण(कुंजी)-५,कर्मयोग घाट की 7 सीढ़ियां:-सप्त प्रबंध सुभग सोपाना।ज्ञान नयन निरखत मनमाना।।मानस के दोहे 7.54 के लक्ष्यार्थ में, क्रमिक आध्यात्मिक विकास के सात सोपान निर्देशित हैं--धर्म➡️वैराग्य➡️सम्यकज्ञान➡️जीवन मुक्ति➡️ब्रह्मलीनता➡️विज्ञान➡️परा भक्ति।सातों सोपानो की साधना, कर्मयोगी श्री भरत चरित्र (अयोध्या कांड) में स्पष्ट झलकती है।इसीलिए भरत जी अयोध्या में राम राज्य स्थापित कर सके। 1प्रथम सोपान धर्म :-परहित सरिस धर्म नहिं भाई।पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।7.41.1।धर्म न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना। 2.95.5।संपति सब रघुपति कै आही।जो बिन जतन चलौ तजि ताही 2.186.3।।जो न होत जग जन्म भरत को।सकल धरम धुर धरनि धरत को।।2. 233 1।2 द्वितीय सोपान वैराग्य:-जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब विषय विलास विरागा।।2.93.4।।भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।2.3.26।।3 .तीसरा सोपान विवेक:-होइ विवेक मोह म्रम भागा।तब रघुनाथ चरण अनुरागा।।2.93.5।।त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक।। 7.41.7।। 4 चौथा सोपान मोक्ष:-जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई।जदपि मृषा छूटत कठिनाई ।7.117.4।।आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।तब भव मूल भेद भ्रम नासा।। छोरन ग्रंथि पाव जो सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।। 5 पांचवा सोपान ब्रह्मलीनता:-करत प्रवेश मिटे दुख दावा।जनु जोगी परमार्थ पावा।2. 239.3।।भक्त केवट-चरण रज (ब्रह्म प्रकाश)स्पर्श से नाव( विद्या )का मुनिघरनी ( ब्रह्मविद्या )में लय होने को सिद्धांत बताता है- तरनिउ मुनि घरनी होई जाई।बाट परइ मोर नाव उड़ाई है।।2.100.6।। 6 छठा सोपान विज्ञान :-आत्मा ,चितिशक्ति व ईश्वर का हृदय गुहा में एकसाथ दर्शन:- सब साधन कर सुफल सुहावा।लखन राम सिय दर्शन पावा।।2. 210. 4।। 7 सातवां सोपान पराभक्ति:-श्री भरत मूर्तिमान परा भक्ति हैं -तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा।सहित प्रयाग सुभाग हमारा।।2. 210.5।।परम प्रेम पूरन दोउ भाई।मन बुद्धि चित अहमिति विसराई।अगम सनेह भरत रघुवर को।जहँ न जाइ मन विधि हरि हर को।।2. 241.2,5।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकाण्ड, ग्रंथ -सिद्धांत प्रकरण(कुंजी)-6 , ज्ञान घाट की 7 सीढ़ियां :-सप्त प्रबंध सुभग सोपाना ।ज्ञान नयन निरखत मनमाना ।।ज्ञान घाट के वक्ता-श्रोता श्री शिव-पार्वती जी हैं। उन्हीं के ज्ञान नैनों द्वारा ज्ञानपथ की 7 सीढ़ियां स्पष्ट होती हैं।पार्वती जी प्रश्न के ब्याज से,ज्ञानपथ की सात सीढियों को मानस 7.54 ,1 से 8 चौपाइयों में निरूपण कर दिया है :-1 प्रथम सोपान धर्म :-नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी॥ 2 द्वितीय सोपान वैराग्य :- धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई॥ 3 तीसरा सोपान विवेक :- कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई॥ 4 चौथा सोपान मोक्ष:-ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ॥ 5,6 पांचवा और छठा सोपान,ब्रह्मलीनता व विज्ञानी:- तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी॥ धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी॥ 7 सातवा सोपान पराभक्ती:-सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, बालकांड ,ग्रंथ-सिद्धांत प्रकरण(कुंजी)-7, भक्तियोग घाट की 7 सीढ़ियां:-यहि मां रुचिर सप्त सप्त सोपाना।रघुपति भगति केर पंथाना।। 7. 129.3।। संयोग से श्री राम जी जी ने स्वयं ही भक्ति पंथ के सातों सोपानों का निरूपण श्री लक्ष्मण जी से 3.16में कर दिया है।:-भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥ भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥1प्रथम सोपान धर्म :-प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥ नाजकर्म निर्धारण के लिए मानस 2 .172-173 में वर्णाश्रम धर्म देखा जा सकता है। 2 दूसरा सोपान वैराग्य :-एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥ भगवान के धर्म को मानस 7.86-87 में देखा जा सकता है। 3 तीसरा सोपान नवधा भक्ति( विवेक ):-श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥ नौ प्रकार की भक्ति मानस 3.35.7से 3:36.6 तक में वर्णित है। 4 चौथा सोपान मोक्ष अर्थात जड़ता से तादात्म्य तोड़कर समष्टि चेतना से युक्त होना :- संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥ संत के वचनों से प्रेम करने पर, जीव का देह से तादात्म्य समाप्त हो,समष्टि-चेतन से योग हो जाता है। 5 पांचवें सौपान में ब्रह्म भाव की उत्पत्ति ।साधक का अन्य जीवो से सांसारिक संबंध के स्थान पर अधिष्ठान से संबंध का बोध होना ।:-गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा॥6 छठा सोपान विज्ञान :-भक्तों के अंतःकरण में क्षरपुरुष ,अक्षरपुरुष तथा पुरुषोत्तम भगवान के एकत्व की अनुभूति हो जाने के कारण, वाह्य लक्षण गदगद गिरा-प्रेमाश्रु आदि भी प्रकट हो जाते हैं।मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥7 सातवा सोपान पराभक्ति:-काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥दो0-बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम॥तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥16 अनन्य होकर भजन करने से,भक्त और इष्ट द्रवी- भूत होकर एकाकार हो जाते हैं ।अद्भुत है कि समस्त विकास में भक्तों का व्यक्तित्व हीन अस्तित्व बना रहता है।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड,ग्रंथ- सिद्धांत-प्रकरण(कुंजी)-८, कविता- सरयू का प्राकट्य:-श्री भवानीशंकर से संपुटित कथा का ताना-बाना व सार (विषय सूची) 35 से 45 दोहे के बीच संत तुलसी ने दिया है। इसके 2 भाग है-एक मानसरोवर रूपी तुलसीदास का अंतः करण सर और दूसरा मानसरोवर से निकली सरयू के समान तुलसी के हृदय- सर से निकली कविता-सरजू(राम चरित्र मानस )। 78 वर्षों तक संतो से प्राप्त रामयश रूपी जल,तुलसी के चित्त रूपी गड्ढे(हृद) में एकत्रित होता रहा। श्रवण मनन तथा निदिद्द्यासन से ही विचार सुव्यवस्थित होते हैं।जिसके बल से तुलसी ने एकत्रित यश रूपी जल पर मानसिक चारघाट और उनकी सीढ़ियां बनाई।पहले भाग मानस -सर का वर्णन पिछले 7 पोस्ट में किया जा चुका है।इसमें साधना के लिए सुंदर मार्ग प्रशस्त हुआ है।कथा के प्रारंभ में वक्ता के समाहित होने का विधान है।भगवान के प्रेम रस में समाधि लगाने से चित समाहित हो जाता है।उपरोक्त मानस सर की रचना कर तुलसी ने पहले स्वयं उस में डुबकी लगाई। जिससे उनमें कथा बीज का दूसरा भाग काव्य रचना का सामर्थ्य उत्पन्न हो गया ।यथा:-अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39
- मानस आधारित श्रीराम कथा,ग्रंथ- सिद्धांत प्रकरण(कुंजी)-९, कविता सरजू का प्रसार :-मानस-कथा रूपी सरजू,तुलसीदास के हृदय में प्रकट होकर,वाणी के द्वारा लोक कल्याण के लिए चल पड़ती है।महाकाव्य में सरोवर,नदी, पर्वत,समुद्र तथा छह ऋतुओं आदि का वर्णन होना चाहिए।अस्तु मानस महाकाव्य में भी, सभी का प्रतीकों और रूपकों द्वारा समावेश किया गया है। मानसरोवर से निकली सरयू नदी,अयोध्या होते हुए गंगा व सोन महानद के साथ संगम करती है और आगे चलकर गंगासागर पर समुद्र में जाकर मिल जाती है।उसी प्रकार ब्रह्म विद्या रूपी कविता- सरजू की धारा में बह रहा साधक जीव गंगा रूपी भक्ति धारा (प्रयाग में गंगा,यमुना,सरस्वती के संगम से निकली)तथा वैराग्य रूपी महानद सोन के साथ युक्त होकर अपने अधिष्ठान रूपी परम ब्रम्ह समुद्र को पा लेता है:- रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥ सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥ जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥ त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥ मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥ रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।। सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥ काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥ दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग। कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥ कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥ बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥ ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥ अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥ राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ॥ जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥ दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ। सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43(क)॥ पिछली 9 पोस्टों में सनातन धर्म के दार्शनिक सिद्धांत का अति महत्वपूर्ण प्रकरण पूरा हुआ।यह मानस की कुंजी है।
- मानस की धारावाहिक श्री राम कथा, बालकांड,प्रयाग में श्री याज्ञवल्क्य -भरद्वाज का मिलन प्रसंग:-अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद । कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥43(ख)॥ भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥ भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥ तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥ दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग। कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥ ( उपरोक्त एक ही दोहे में सनातन धर्म और सत्संग का स्वरूप)एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥ प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥ जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥ सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥ अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥ रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥ संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी।।एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥ ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47।।
- मानस की धारावाहिक श्री राम कथा, बालकांड ,कर्म घाट की कथा प्रारंभ,सती मोह प्रकरण-१, इस घाट का पहला सोपान धर्म है,जो विधि-निषेधमय होता है।दक्ष कन्या सती चरित्र की कथा जो प्रारंभ हो रही है, वह धर्म का निषेधात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए है। सती जी, जगतगुरु अपने पति श्री शिवजी के ज्ञान पर अविश्वास करती हैं,परिणाम स्वरूप देह त्याग करना पड़ता है ।श्री याज्ञवल्क्यजी, भरद्वाज जी को कथा सुना रहे हैं :-एक बार त्रेता जुग माहीं। शंभू गए कुंभज ऋषि पाहीं।।संघ सती जगजननि भवानी।पूजे रिषि अखिलेश्वर जानी ।।रामकथा मुनिवर्ज बखानी।। सुनी महेस परम सुखु मानी।।रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥ मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥ तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥ पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥ दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ। गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48(क)॥ जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥ एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥ लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥ करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥ मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥ बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥ कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें।।भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी॥ जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥ चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥ सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥ संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥ तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा॥ भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥50.8।।
- मानस आधारित श्री राम कथा, बालकांड, सती मोह, प्रकरण-२, सती जी ने कुंभज ऋषि और शिवजी के बीच हुए सत्संग के बीच हुए सत्संग को ध्यान से सुना नहीं,अतः राम जी के बारे में संशय पैदा हो गया:- ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद।। 50 ।। बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥ खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥१॥ संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥ अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥२॥जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥३॥जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥ सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥४॥ छं०-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं। कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥ सो०-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु। बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥५१॥ पति के नाते शिवजी के समझाने पर भी, जब दक्ष कन्या की समझ में नहीं आया,तब चेतना जागृति के लिए व्यंगात्मक उपदेश किया।जिसका उल्टा प्रभाव हुआ और मोहबस सती जी ने उसे राम जी की परीक्षा लेने की अनुमति मान लिया:- चौ०-जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥ तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥१॥जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥ चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥२॥ इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥ मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥३॥होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥४॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, बालकांड,सती मोह प्रकरण-३, सती जी की देह दक्ष शुक्र से संबंधित होने के कारण पिता की तरह ही ईश्वर कोटि के अपने पति शंकर जी के विचारों की अवहेलना करती हैं तथा भगवान राम जी की परीक्षा के लिए सीता का रूप बनाने की बड़ी भारी भूल करती हैं:- दो०-पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप। आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥५२॥ श्री राम जी नकली वेश की उपेक्षा कर सती के असली वेश से ही उनकी पहचान करते हैं- सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥२॥ सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥ निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥३॥ जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥ कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥४॥ दो०-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु। सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥ भगवान राम अपने भक्त शंकर जी के उपदेशों का समर्थन के लिए सती जी को अपने सच्चिदानंद विराट स्वरूप का दर्शन कराते हैं,जिससे सती जी को अपने सामर्थ्य का बोध हो जाता है- जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥ सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥२॥फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥३॥ देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥ बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥४॥ दो०-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप। जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥५४॥ चौ०-देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥ जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥१॥ पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥ अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥२॥ सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥ हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥३॥ बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥ पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥४॥
- मानस आधारित श्री राम कथा, बालकांड,सती मोह प्रकरण-४, शिवजी का संताप और सती के मानसिक त्याग का संकल्प तथा समाधि:- गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात। लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात।।55।।सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ।। कछु न परीछा लीन्हि गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई।। तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना।।बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा।।हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना।।सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा।। जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती।। दो0-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु। प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु।।56।। नोट:- शिवजी शरणागत हुए, तो करणीय कर्तव्य का बोध हो गया:-तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा।।एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा।।चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई।।अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना।।सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा।।कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला।।जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती।।दो0-सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य।।57क।। संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी।।निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई।।सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू।। बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा।। तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन।। संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।। दो0-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं। मरम न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं।। 58।
- सती मोह प्रकरण-५, सती का पश्चाताप एवं आर्तप्रपन्नता।याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को कथा सुना रहे हैं -दुखित सती जी बिना बुलाए, पिता के घर धर्म विरुद्ध हो रहे यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जाती हैं :- चौ०-नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥१॥सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥२॥ कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥ जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥३॥ तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥ जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥४॥ दो०- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ। होइ मरनु जेहि बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥चौ०-एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥ बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥१॥ राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥ जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥२॥ लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥ देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥३॥ बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा॥ दो०- दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग। नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥६०॥ बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥१॥ सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥ पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥ दो०-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ। तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥६१॥ चौ०-कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥१॥ ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥ जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥२॥ जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥ तदपि विरोध मान जहँ कोई। तहां गएँ कल्यानु न होई ।। भांति अनेक शंभु समझावा। भावी बस न ग्यान उर आवा।।
- सती मोह प्रकरण-६, पिता द्वारा सती जी की उपेक्षा।यज्ञशाला में सती जी का देह त्याग एवं दक्ष के अभिमान व उनके यज्ञ का विनाश।यज्ञ द्वारा सृष्टि के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती है और सृष्टि को पुष्टि किया जाता है,अतः धर्म का आवश्यक अंग है।ईश्वर द्वारा इसकी रक्षा भी होती है।लेकिन यज्ञ का लक्ष्य जब सृष्टि को नियंत्रित कर शक्ति संचय व उसका दुरप्रयोग एवं दूसरे को नीचा दिखाना होता है तो, उसे विध्वंस भी किया जाता है।मानस में दोनों प्रकार के उदाहरण मिलते हैं :- कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि। दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥ चौ०-पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥ सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥१॥ दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥ सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥२॥ तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥३॥ जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥ समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥४॥ दो०-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध। सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥६३॥ चौ०-सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥ सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥१॥ संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥ काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥२॥ जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥ पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥३॥ तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥४॥ दो०-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस। जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥६४||चौ०-समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥ जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥१॥ भै जगबिदित दक्ष गति सोई। जसि कछु संभु विमुख कै होई।।
- उमा चरित्र प्रकरण-१, शिव-शक्ति हिमालय के यहां उमा रूप में पुनर्जन्म लेती है । हिमालय जी जड़ पर्वत न हो,उसके अधिष्ठाता देवता है।जन्मते ही,उमाजी की दिव्यता के प्रभाव से,वहां की स्थावर और जंगम सृष्टि सुहावनी और मंगल प्रद हो गई:-सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥ तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥३॥ जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥ सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥ नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥२॥ नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥ सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥३॥ नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥ निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥४॥ दो०-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥ कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥६६॥नोट -नारद जी भगवान की इच्छा रूप हैं, अस्तु हिमाचल के घर आए।यथा योग्य सत्कार के बाद, प्रश्न के उत्तर में, उन्होंने अत्यंत गूढ़ वचनों में ऐश्वर्य को गुप्त रखते हुए , गुणों और लक्षणों के बहाने से पार्वती जी को आद्यशक्ति और पति के रूप में शिव जी की ओर संकेत कर दिया। गिरी-मैना गूढ़ अर्थ न समझ सके,किंतु उमाजी उसे समझकर नारद जी को गुरु मानकर, विश्वास पूर्वक उनके वचनों को पकड़ लिया- चौ०-कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥ सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥१॥ सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥ सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥२॥ सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥ अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥४॥ दो०-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥ अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥चौ०-सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥ नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥१॥ सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥ होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥२॥ उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥ जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥३॥ झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥ उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥४॥ दो०-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार। देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८।।
- उमा चरित्र प्रकरण-२, देवर्षि का उमा जी को तप के लिए प्रेरणा तथा आशीर्वाद देना। यह प्रसंग प्रारब्ध बनाम पुरुषार्थ के झगड़े पर सुंदर प्रकाश डालता है।पुरुषार्थ ऐसा होना चाहिए कि प्रारब्ध की घटना ज्यों-की- त्यों घटने दें,पर सुख-दुख के तारतम्य में भेद पड़ जाए:- चौ०-तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥ जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥१॥ जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥ जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥२॥ सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥ समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥४॥ दो०-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान। परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥ संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥ दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥२॥ जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥ जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥३॥ इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥४॥ दो०-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस। होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥ चौ०-कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥ पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥१॥ जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥ न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥२॥ अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥ बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥४॥ चौ०-अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥ करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥१॥ नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥ अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥२॥ सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥ उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥३॥ बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
- उमा चरित्र प्रकरण:- माताजी को संकोच में पड़ा देख पार्वती जी स्वयं सुसंगत भाषा में अपने लिए तपस्या करने की भूमिका बनाती है:- जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥४॥ दो०-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि। सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२ चौ०-करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥ तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥ तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥२॥ तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥ मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥ प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥४ दो०-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥ पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३ नोट :-तपस्या में,स्वेच्छा से ईश्वरी लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर, शास्त्र के अनुसासन में शक्ति संचित करना होता है। श्री गीता जी में भी भगवान प्राप्ति के लिए -शारीरिक,मानसिक व वाणी के सात्विक तप की अनुशंसा की गई है।पार्वती जी भी वैसा ही तप करती हैं,तपस्या में स्थूल शुद्धि से सूक्ष्म शुद्धि की ओर बढ़ा जाता है, जिससे तीनों पुर- स्थूल,सूक्ष्म व कारण शरीर से तादात्म्य छूटकर,त्रिपुरारी से तादात्म्य हो जाता है।चिदाकाश में स्थिर हो जाने पर अनहद नाद (आकाशवाणी) सुनाई पड़ती है:-चौ०-उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥ संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥२॥ कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥ बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥३॥ पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥ देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥४॥ दो०-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि। परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७4।। आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥ मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥२॥
- श्री शिव चरित्र प्रसंग,शिव जी अपनी भक्त पत्नी सती जी के वियोग में इधर-उधर विचरण करते हुए सत्संग व भजन करते लगे:- उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥३॥ जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥ जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥४॥ दो०-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम। बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥ चौ०-कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥ जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥१॥ एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥ टिप्पणी :-श्री राम जी प्रकट होते हैं और उमा जी के भूतशुद्धि व चित्तशुद्धि के लिए किए तप की प्रशंसा करते हैं।फिर वर मांगने के ब्याज से,उमा को अपनाने की आज्ञा-सलाह भी देते हैं।शिवजी ईश्वर कोटि के हैं,अतः उनसे विनोद भी करते हैं-हर होने के नाते आप ने सती जी की देह का हरण कर लिया,अब हमारी विशेषता" भक्तपालन की रक्षा" के लिए भक्त उमा को संरक्षण देने की बात भुला मत देना-प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥३॥ बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥ अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥४॥ दो०-अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु। जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥७६ चौ०-कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥ सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥१॥ मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥ तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥२॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥३॥ अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥ तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥४॥ दो०-पारबती पहिं जाइ तुम प्रेम परीक्षा लेहु। गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु।।77।।
- शिव जी की आज्ञा से सप्त ऋषियों द्वारा पार्वती प्रेम परीक्षा प्रसंग--लोक शिक्षा के लिए साधक को इष्ट के प्रति अनन्य श्रद्धा और विश्वास पूर्वक समर्पण का उदाहरण:- तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥४॥ दो०-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु। गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥७७॥ चौ०-रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥ बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥१॥ केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥ कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥२॥ नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥३॥ देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥४॥ दो०-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह। नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥७८॥ चौ०-दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥ चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥१॥ नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥ मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥२॥ तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥ निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥३॥ कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥ पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥४॥दो०-अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥७९॥ चौ०-अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥१॥दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥२॥
- शिवचरित्र प्रसंग-- सप्त ऋषियों द्वारा पार्वती जी का प्रेम परीक्षण कर उन्हें शिव अर्धांगिनी जगदंबिका भवानी के रूप में पहचाना। उन्होंने हिमवंत को सूचना देकर पार्वती जी को घर लौटवाया ।ऋषियों ने शिवजी को भी उमा की कथा बताई, जिससे वे प्रसन्न हुए, किंतु राम जी के ध्यान में पुनः समाधि में चले गए:-सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥ कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥३॥ नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ॥ गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥४॥ दो०-महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम। जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥८०॥अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥१॥जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥३॥ मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥ देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥४ दो०-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु। नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥८१॥ चौ०-जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥ बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥१॥ भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥ मनु थिर करि तब संभु सुजाना।लगे करन रघुनायक ध्यान।।
- शिवचरित्र प्रसंग के अंतर्गत तारकासुर का देवताओं पर अत्याचार --देवताओं की प्रार्थना पर कामदेव का समाधिष्ठ शिवजी की समाधि भंग करने का संकल्प और उनके समीप जाना। ब्रह्मांड भर में काम प्रभाव में काम प्रभाव की व्याप्ति का होना :- तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥३॥ अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥ तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥४॥ दो०-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ। संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥८२॥ सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥१॥ तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥ पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥ तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥३॥अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥४॥दो०-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार। संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83।। पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥१॥ अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥ चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥२॥ तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥ कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥३॥दो०-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम। ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥८४॥ चौ०-सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥ नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥१॥ मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसिदिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥३॥ इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥ सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥४॥सो०-धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे। जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥८५॥ उभय घड़ी अस कौतुक भयऊ।जौ लगि कामु संभु पंहि गयऊ।।
- शिव चरित्र के अंतर्गत,कामदेव के प्रयास से शिव समाधि भंग तथा मदन दहन प्रसंग - कामदेव के बल प्रयोग से समाधि भंग होने पर शिव जी को क्रोध आया और उन्होंने ज्ञान नेत्र से कामदेव को देखा,जिससे वह भस्म हो गया।रति की प्रार्थना पर शिवजी ने वरदान दिया कि कामदेव अनंग अर्थात बिना स्थूल शरीर के जीवित रहेंगे और सृष्टि रचना का देवकार्य करते रहेंगे।यह भी वरदान दिया,कि तुम्हारा पति तुम्हें शरीर रूप से कृष्ण पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में मिलेगा:- उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥ सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥१॥ रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥२॥ फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥ प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥३॥छं०-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही। सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥ बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा। कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥ दो०-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत। चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥८६॥ चौ०-देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥ सुमनचाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥१॥ छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥ सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥ तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥३॥ हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥ समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥४॥ छं०-जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई। रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई। अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही। प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥ दो०-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥८७॥चौ०-जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥१॥रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहूं बखानी।।
- उमा-शिव विवाह प्रसंग--देवताओं की प्रार्थना पर शिव जी द्वारा विवाह प्रस्ताव की स्वीकृति।सप्त ऋषियों का हिमाचल के पास जाकर विवाह की लग्न निश्चित करना:- देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥२॥ सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥ पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥३॥ बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥ कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥४॥ दो०-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु। निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥ चौ०-यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन। कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥१॥ सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥ पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥२॥ सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥ तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥३॥ अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥ सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥१॥ हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥२॥पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥३॥लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥४॥ दो०-लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।होय सगुन मंगल शुभद करहिं अप्सरा गान।।91।।
- उमा-शिव विवाह के अंतर्गत,बरात का स्वरूप-- देवता लोग पूरे उत्साह के साथ बरात की तैयारी करते हैं।कैलाश से चलकर हिमाचल के वास स्थान त्रियुगीनारायण-गौरीकुंड क्षेत्र तक जाना है। दूल्हा बने शिव जी का श्रंगार,उनके गणों ने, उन्हीं के अनुरूप कर दिया।श्रृंगार की वस्तुएं सांसारिक दृष्टि से भले ही अमंगल सूचक हों,लेकिन शिव संकल्प और तत्व के संपर्क प्रभाव से वे सबके लिए मंगलकारी हो जाती हैं।देवांगनायें भी विचित्र वेषधारी दूल्हे को देखकर व्यंगात्मक हंसी हंस रही है :- सिवहि संभुगन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥ कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥१॥ ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥ गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥२॥ कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥ देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥३॥ बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥४॥ टिप्पणी:-बराती मूड में,ईश्वर कोटी के विष्णु जी भी,दूल्हा बने शिवजी से व्यंगात्मक विनोद करते हैं दूल्हा की सुंदरता के अनुरूप देवता नहीं है अतः शिव जी को अपने समाज के साथ होने की सलाह देते हैं और देवताओं को समूह के साथ अलग हो जाने को कहते हैं।शिवजी प्रसन्नता पूर्वक विनोद को स्वीकार कर उसका व्यावहारिक रूप दे देते हैं। दो०-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज। बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥ चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥ बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥१॥ मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥ अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥२॥ सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥ नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥॥३॥कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥ बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥४॥ सो०-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥ जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥टिप्पणी :-हिमांचल जी सुंदर मंडप बनवाते हैं,और जनातियों के रहने की व्यवस्था करते हैं।संसारभर के पर्वत,नदियां तथा सरोवर अपने-अपने सुंदर रमणीय देव रूपों में आकर ठहरते हैं:- इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥१॥ सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥ बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥२॥ कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥ गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥॥३॥ प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥ पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥४॥ छं०-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही। बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥ मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥ बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥दो०-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ। रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ।।94।।
- उमा-शिव विवाह के अंतर्गत अगवानी व परिछन का स्वरूप --मानस के महाकाव्य होने के नाते उसमें हिंदुओं के सभी रीति-रिवाजों का सुंदर समावेश है।बरीक्षा में पिता की सहमति,परिछन में माता की सहमति और छत से चावल फेंकने में लड़की की स्वीकृति मानी जाती है । बरात की अगवानी के समय ही से शिव के आध्यात्मिक स्वरूप समझने की कठिनाई का सुंदर चित्रण हुआ है।परमात्मा शिव असीम, निर्विकार सत्य स्वरूप है,जिसे योगमाया अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए,सामान्य जन से छिपाकर रखना चाहती है ।सयाने (ज्ञानवान लोग) तो शिव बारात का स्वागत कर पाते हैं, लेकिन बालबुद्धि वाले और वह्य रूप का अधिक महत्व देने वाली महिला-बुद्धि वाले हर्ष-विषाद में फंसकर,व्याकुल हो जाते हैं।संत तुलसी इस सब का सुंदर चित्रण कर रहे हैं:- नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥ करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥१॥ हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥ सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥२॥ धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥ गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥॥३॥ कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥ बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥४॥दो०-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं। बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥ चौ०-लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥ मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥ कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥ बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥२॥ भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥ मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥३॥ छं०- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई। जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥ तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥ घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥ दो०-भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥ चौ०-नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥१॥साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥ पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कै पीरा॥२॥जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥ छं०-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं। दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥ बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥ दो०-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७
- उमा-शिव विवाह प्रसंग के अवसर पर किए जाने वाले कार्यक्रमों और रीति-रिवाजों का अति सुंदर चित्रण चल रहा है।मोह- विषाद में डूबी महिलाओं के मध्य, नारद जी अकेले जाने का साहस नहीं कर पाते,अतः वे सप्त ऋषियों और हिमांचल जी को साथ लेकर घर जाकर,महिलाओं को समझाते हैं।भक्त नारद के व्यक्तित्व के प्रभाव से सबको उमा-शिव के अलौकिक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है,और प्रसन्नता पूर्वक विवाहिक कार्यक्रम आगे बढ़ने लगता है ।:- तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥ चौ०-तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥ मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥१॥ अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥ जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥२॥ जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥ तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥३॥ छं०-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं। हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥ अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया। अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥ दो०-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥ चौ०-तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥ नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥१॥ लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥ भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥२॥ छं०-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं। भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥ जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो। अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥ दो०-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ। समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥ बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥ सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥ बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥२॥ बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥ देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥३॥ जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥ सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥४॥ छं०-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा। सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥ छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥दो०-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि। कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००
- उमा-शिव विवाह प्रसंग के अंतर्गत विवाह संपन्न:-जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥ बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥ बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥ हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥ दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥ अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥टिप्पणी :-पहले भारतीय परंपरा में,कन्या के हिस्से की धन,पिता विवाह के समय स्वेच्छा से चल संपत्ति के रूप में पुत्री को दे देता था और अचल संपत्ति पुत्र को मिल जाती थी।इससे परस्पर पारिवारिक प्रेम भी बना रहता था और अचल संपत्ति के विघटनकारी,अव्यावहारिक विभाजन भी नहीं होता था- छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥ सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो। पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥ दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु। छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥ बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥ जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥ करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥ बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥ कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥ भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥ पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥ सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥ छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं। फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥ जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥ दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥ तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥ आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥ जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥टिप्पणी:-श्रद्धा विश्वास के मिलन (विवाह )का फल निरहंकारी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ जिन्होंने अहंकार रूपी तारकासुर का वध कर दिया।श्रीराम के ब्रह्म रूप को समझने के लिए निरहंकारी होना आवश्यक है, जिसके लिए याज्ञवल्क्य जी ने उमा-शिव विवाह प्रसंग की कथा सुनाई:- जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥ करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥ हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥ तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥ यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥ दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103
- कथा के अनुकूल वातावरण में पार्वती -शिव संवाद से ज्ञान घाट की कथा प्रारंभ-- भरद्वाज जी ने राम कथा पूछी,लेकिन याज्ञवल्क्य जी ने परंब्रह्म राम के ज्ञान का अधिकारी जानने के लिए, उन्हें शिव कथा सुनाई।कथा में प्रेम देखकर,याज्ञवल्क्यजी ने उनकी योग्यता पहचान कर अत्यंत प्रसन्न हुए,और श्री राम कथा सुनाने लगे। एक बार कैलाश का वातावरण कथा के अत्यंत अनुकूल था और जगतगुरु शिव जी का प्रसन्न समाहित चित्त भी सत्संग के अनुकूल था।ऐसे में पार्वती जी,अवसर का लाभ उठाकर,अपनी जिज्ञासा प्रकट करती हैं।इसी संवाद को सुनने के लिए,दैन्य घाट से तुलसीदास जी और कर्मयोग घाट से याज्ञवल्क्य जी भूमिका बांधते आए हैं:- संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥ बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥ प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥ अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥ सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥ दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार। सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥ तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥ सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥ जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥ प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥ परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥ दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥ हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥ तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥ कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥ तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥ भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥ दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल। नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥ पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥ जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥ बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥ पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥ कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥ बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥ चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥ दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥ जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107।।
- पार्वती-शिव संवाद प्रकरण में,पार्वती जी के प्रश्न- मानस वेदों के गूढ़ ज्ञान से भरा हुआ है,अतः पार्वती जी अपने प्रश्न के औचित्य का अधिकार स्पष्ट करती हैं। अधिकार -अनाधिकार की बात सर्वत्र देखी जाती है।जो ग्रेजुएट है,उसी को पोस्ट ग्रेजुएट की क्लास में प्रवेश मिल सकता है।पार्वती जी अपने को आर्त शरणागत होने के कारण वेद- ज्ञान-युक्त कथा की अधिकारणी मानती है।आर्त भक्त वह होता है,जो आत्मनिरीक्षण कर अपने दुराचरण से व्यथित हो,सही मार्ग में आने के लिए गुरु की शरण ग्रहण करता है । कर्म घाट में भरद्वाज जी का प्रश्न है कि क्या अवतारी राम और शिव जी द्वारा निरंतर जप करने वाले राम,एक ही हैं या भिन्न-भिन्न हैं? इसी बात को ठीक से समझने के लिए,पार्वती जी उस एक ही प्रश्न को 20 प्रश्नों के रूप में विस्तार कर शिवजी से पूछती है:- जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥ तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥ सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥ तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥ रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि। देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥ जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥ अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥ मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥ तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥ अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥ प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥ तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥ कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥ दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि। बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥ जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥ गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥ अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥ प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥ कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥ बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥ राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥ दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम। प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥ पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥ औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥ जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥ तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥ प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥ हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥ श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥ दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111
- पार्वती-शिव संवाद:- पार्वती जी के सहज भाव से पूछे आध्यात्मिक प्रश्नों को सुनकर,भगवान शिव की अंतस चेतना में बैठे ब्रह्म के तीनों रूपों(निर्गुण निराकार,सगुण निराकार व सगुण साकार)विषयक ज्ञान का स्मरण सक्रिय हो उठा और वे भाव विह्वल हो गए।उन्हें असीम सुख का अनुभव होने लगा और प्रेमाश्रु छलकने लगे ।भगवान की लीला कथा का प्रभाव वक्ता-श्रोता दोनों को भावविभोर करता है।कथा प्रारंभ के लिए शिवजी मंगलाचरण करते हैं,जिसमें ब्रह्म के तीनों रूपों का सुंदर समावेश है।🔅शिव जी की कही वाणी,पार्वती जी के सुनने पर, साबर मंत्र का रूप ले लेती है।इसीलिए मानस की कविता साबर मंत्र के प्रभाव वाली है और इसके पाठ-श्रवण मात्र से हर श्रेणी के जीव का कल्याण हो जाता है🔅:- मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥ मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥ करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥ शिव जी पार्वती जी की भी प्रशंसा करते हैं, कि तुम्हें पूर्व जन्म में राम महिमा का बोध हो चुका है। अतः तुम्हारे मन में शोक,मोह, संदेह,भ्रम आदि नहीं है,स्वाभाविक जिज्ञासा की पूर्ति के लिए कथा प्रकट हो जाने से,श्रोता-वक्ता सहित जगत का हित होगा :- धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥ पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥ तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं। सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥ तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥ भगवान शिव विधि-निषेध दोनों से कथा की विस्तारपूर्वक प्रशंसा करते हैं और जीवन में उसके बनाए रखने की अनिवार्यता बताते हैं:-जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥ नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥ ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥ जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥ जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥ कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥ गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥ दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि। सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥ रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥ राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥ जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥ तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥ उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई ।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, पार्वती-शिव संवाद-१, पार्वती जी की सहज जिज्ञासा का आदर कर, शिवजी अवतारवाद के खंडन का अनर्गल प्रलाप करने वालों की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं। इसके बाद मूल प्रश्न का उत्तर देते हुए शिव जी निर्गुण निराकार परंब्रह्म और दशरथ नंदन श्री राम के एकत्त्व को सरल मान्य दर्शनों के आधार पर स्पष्ट कर देते हैं: उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥ तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥ दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥ अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥ लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥ कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥ मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥ जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥ बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥ जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥ सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥ सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥ जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥ राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥ सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥ हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥ राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥ दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥ रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥ निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥ जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥ चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥ उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥ बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥ सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥ दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥ एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥ जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, पार्वती- शिव संवाद--शिवजी निर्गुण निराकार के साथ-साथ,सगुण निराकार परमात्मा व दशरथ नंदन राम के एकत्व का भी निरूपण कर देते हैं। इस प्रकार वैदिक धर्म के मूल सिद्धांत निर्गुण निराकार,सगुण निराकार और सगुण साकार तीनों रूपों के एकत्व का प्रतिपादन हो जाता है:- आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥ बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥ दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥ सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥ कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥ बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥ सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥ राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥ अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥ सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥ भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥ टिप्पणी:-पार्वती जी की मूल जिज्ञासा का समाधान हो गया,इसके लिए वे कृतज्ञता प्रकट करती हैं।उनमें कथा सुनने की प्रबल लालसा बढ़ जाती है और वे शिवजी से अन्य पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर और" राम-जन्म का हेतु "विस्तार से सुनाने का निवेदन करती हैं:- दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥ ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥ तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥ नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥ अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥ प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥\ राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥ नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥ उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥ दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, रामअवतार-हेतु प्रकरण-१,पार्वती जी की प्रार्थना से प्रसन्न होकर,शंकर जी ने आगे की कथा प्रारंभ की।उन्होंने बताया कि जो कथा हम सुनाने जा रहे हैं,यह काकभुसुंडि जी ने,पक्षीराज गरुड़ को सुनाई थी।यहां पर चौथे भक्तिघाट का बीज डाल दिया गया, जिसके वृक्ष का विस्तार उत्तरकांड में होगा।सनातन धर्म में नई गाथा कोई नहीं है।वक्ता को ज्ञान तथा कथा परंपरा से ही प्राप्त होता है, जिससे वह प्रारंभ में बता देता है । हरि अवतार हर कल्प में भिन्न-भिन्न कारणों से होते हैं।जिसके कुछ सामान्य हेतु होते हैं, और कुछ विशेष घटनाएं भी हेतु बनती हैं।लेकिन यह नहीं कहा जा सकता, कि केवल यही एकमात्र कारण है। सामान्य कारणों में आसुरी प्रकृति के बढ़ जाने से वेद वर्णित सृष्टि व्यापार बाधित होता है,जिससे सृष्टि संचालन के सहायक बिप्र,गौ,देवता और पृथ्वी दुखित हो जाते हैं।असुरों को मारकर वेद व्यवस्था को पुनः जीवित करने के लिए भगवान का अवतार होता है।बाद में अवतारी लीला- कथाओं की शिक्षा,संतो के कल्याण का आधार बनती है:- सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल। कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥ सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥ हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥ सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥ हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥ राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥ तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥ तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥ जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥ करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥ दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥ सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥ टिप्पणी :-रामावतार के विशेष-हेतु,कल्प कल्प में भिन्न-भिन्न में भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। मानस में चार कल्पों कल्पों की विशेष घटनाओं( हेतुओं) का वर्णन मिलता है।एक बार श्रापवश असुर बने जय-विजय को श्राप से मुक्त कराने के लिए अवतार हुआ। एक बार वृंदा के श्रापवश रामावतार हुआ, आदि आदि:- राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥ जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥ द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥ बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥ कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥ बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥ होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥ दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान। कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥ मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥ एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥ कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥ एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥ एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥ संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥ परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥ दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥ जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥ तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥ तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥ एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥ प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी।।
- रामावतार-हेतु प्रकरण-२ के अंतर्गत नारद मोह प्रसंग-१:- भगवान शंकर पार्वती जी के विशेष अनुरोध पर राम अवतार के तीसरे हेतु,नारदमोह की कथा विस्तार से सुनाने लगे:- प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥ नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥ कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥ यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥ दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ। जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥ सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥ हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥ आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥ निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥ सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥ मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥ सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥ सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥ जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥ दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज। छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥ तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥ चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥ रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥ करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥ देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥ काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥ सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥ दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन। गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, रामावतार -हेतु प्रकरण-३, के अंतर्गत नारद मोह प्रसंग-२:-कामदेव की माया का भक्त नारद पर प्रभाव नहीं पड़ा।तब वह डरकर उनके शरणागत हुआ,और ऐसी प्रशंसा की, कि नारद में अहंकार उत्पन्न हो जाता है।जो भक्तों के लिए काम से भी अधिक घातक होता है:- भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥ नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥ मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥ सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥ तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥ टिप्पणी :-नारद ,शिव जी से मिलने जाते हैं।उनमें अंकुरित अहंकार को शिवजी देख लेते हैं।वे नारद के हितैषी हैं,उनका सम्मान भी करते हैं, इसलिए उन्होंने नेक सलाह दी,जिसकी नारद जी अहंकार वश उपेक्षा करते हैं।नारद जी भगवान विष्णु जी से मिलने जाते हैं,और वही भूल दोहराते हैं,जिसको शिव जी ने मना किया था।भक्त पालक होने के नाते भगवान विष्णु नारद जी की भूलसुधार - कार्यवाही प्रारंभ कर देते हैं:- मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥ बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥ तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥ दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान। भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥ राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥ एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥ छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥ हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥ बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥ काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥ अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥ दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान । तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥ सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥ ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥ नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥ करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥ बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥ मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥ तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥ श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥ दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना विविध प्रकार।।129।।
- रामावतार- हेतु प्रकरण-४ के अंतर्गत नारद मोह प्रसंग-3:- सुधार- योजना के प्रभाव से जिन नारद के जीवन का लक्ष्य हरि थे ,उनका लक्ष्य बदला और वह कामेच्छा की पूर्ति हो गया।जिसे जीत लेने का उन्हें घमंड था,उस काम की पूर्ति के चक्कर में वे जप-तप भी भूल गए और कामिनी प्राप्ति के लिए पाखंड भी कर बैठे:- बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥ बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥ तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥ सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥ बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥ सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥ करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥ मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥ सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥ दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥ देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥ लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥ जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥ सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥ लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥ करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥ जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥ दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल। जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥ टिप्पणी:- नारद जी पर भगवत कृपा बनी रही, अस्तु कामिनी प्राप्ति के लिए भी वे भगवान की ही शरण में जाते हैं:- हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥ मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥ बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥ प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥ अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥ आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥ जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥ निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥ दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132।।
- रामावतार-हेतु प्रकरण-५के अंतर्गत नारद मोह प्रसंग-४:- माया भगवान के अतिरिक्त किसी के बस में नहीं होती।केवल भगवान के कृपा पात्रों को वह प्रभावित नहीं करती।अस्तु जिस माया से नाराद बचे रहते थे,उसके चक्कर में फंसते गए। भगवान भी बड़े कौतिकी हैं।नारद को ऐसा रूप दिया,कि वे सामान्य जन को पूर्ववत संत नारद ही दिखाई पड़ते रहे,किंतु सूक्ष्मदृष्टि वालों को वे हास्यपद रूप वाले बंदर दिखाई पड़ने लगे:- जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥ कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥ माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥ गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥ निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥ मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥ दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥ जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥ तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥ करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥ रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥ मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥ काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥ मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥ टिप्पणी :-नारद जी राजकुमारी रूप धारिणी मायादेवी सेउपेक्षित हुए ,जिससे उनमें क्रोध का संचार हो गया:- दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल। देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥ जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥ धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥ दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥ मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥ तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥ अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥ बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥ दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135।।
- रामावतार -हेतु प्रकरण-६ के अंतर्गत नारद मोह प्रसंग का अंतिम चरण-५:- माया प्रभाव ग्रसित नारद जी अहंकार,काम,क्रोध आदि सभी दोषों से युक्त हो गए फिर,भी भगवान से मिलना चाहते हैं।भगवान रमा हुआ राजकुमारी के साथ रास्ते में ही प्रकट हो जाते हैं। नारद उनके प्रति भी दुर- वचन कहकर श्राप दे देते हैं।भगवान निर्विकार बने रहते हैं ।नारद जी के शॉप को भी अंगीकार कर, , उनकी विनती करते हैं:- पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥ फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥ देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥ बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥ बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥ पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥ मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥ दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु। स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥ परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥ भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥ डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥ करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥ भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥ बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥ कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥ मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥ दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि। निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥ टिप्पणी-लीला को आगे बढ़ाते हुए भगवान रमा व राजकुमारी को अर्थात कंचन-कामिनी को दूर कर देते हैं ।दूसरे शब्दों में नारद जी को विद्या-अविद्या से मुक्त कर पूर्ववत ब्रह्मविद्या युक्त कर देते हैं।अब नारद भगवान के चरणों में अनन्य शरणागति लेते हैं,और स्वयं के दिए श्रॉप के प्रभाव को नष्ट करने की प्रार्थना करते हैं।भगवान कहते हैं कि सारी लीलाएं मेरी इच्छा से हुई हैं,और हो कर रहेंगी।इस पर नारद दुरवचनों के पाप का प्रायश्चित पूछते हैं। भगवान उसके लिए शंकर शतनाम जपने की आज्ञा देते हैं:- जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥ मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥ जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥ कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥ जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥ दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥ सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥ टिप्पणी :-पूर्ववत संत स्वभाव को प्राप्त हुए नारद जी की शरण,हरगण लेते हैं और वे उनके शॉप का संशोधन कर,उन्हें वैभवशाली असुर होने और भगवान के हाथों मारे जाने से मुक्त होने को कह देते हैं।इस प्रकार एक कल्प के राम-रावण अवतार की पूरी रूपरेखा बन जाती है:- हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥ अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥ हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥ श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥ निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥ भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ। समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥ दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139।।
- रामावतार हेतु प्रकरण-७ के अंतर्गत मनु-शतरूपा वरदान प्रसंग-१:- अभी तक कहे गए 3 अवतारों का हेतु श्राप रहा।अगला चौथा हेतु मनु-शतरूपा को वरदान है।ग्रंथ में इसी अवतार की लीलाओं का प्रचुरता से वर्णन किया गया है । नैमिष तीर्थ--मनु के समय से नैमिष,आत्म- अनुसंधान का केंद्र है ।पौराणिक काल में वहां के अध्यात्मिक महाविद्यालय में 50000 रिसर्च विद्यार्थी थे।महाविद्यालय के चांसलर शौनकजी थे। श्रीमद्भागवत और रामायण इसके प्रमाण हैं। लंबे समय से सत्ता द्वारा यह तीर्थ उपेक्षित चल रहा है।अच्छा हो इस तीर्थ की महिमा का आदर किया जाए।क्षेत्र आध्यात्मिक ऊर्जा से भरपूर है। संत तुलसीदास ने अवतार के कई कारण बताए हैं,उनमें तीन -नारदमोह ,मनु-शतरूपा तथा प्रताप भानु की कथा विस्तार से है।मनु-शतरूपा की कथा प्रारंभ करते समय ,शिव जी पार्वती जी को और याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को सावधान करते हैं :- सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥ अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥ अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥ जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥ जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥ अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥ लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥ भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥ लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥ दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥ राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥ टिप्पणी:-शिवजी पहले मनु-शतरूपा का पारिवारिक परिचय देते हैं।मनुष्यों के लिए मनु- शतरूपा का चरित्र महत्वपूर्ण है।उन्ही से मैथुनी सृष्टि का तथा प्रवृत्ति मार्ग का प्रारंभ माना जाता है। मनुस्मृति से हम सब परिचित हैं ही:- स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥ दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥ नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥ देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥ सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥ टिप्पणी:-गृहस्थ जीवन बिताने से मनु-शतरूपा को पारिवारिक जीवन के प्रति आसक्ति हो जाती है।लेकिन बानप्रस्थ की आयु आते ही भौतिक जीवन से बलात् विरक्त हो, हृदयस्थ परमात्मा के साक्षात्कार को साधन भजन करने के लिए दोनों बन के लिए निकल पड़ते हैं:- सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन। हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥ बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥ पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥ पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥ जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना । दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143।।
- रामावतार हेतु प्रकरण-८ के अंतर्गत मनु शतरूपा वरदान प्रसंग-२:- नैमीषारण्य पहुंचकर मनु- शतरूपा वानप्रस्थ जीवन के अनुसार तपोमय दिनचर्या बना लेते हैं।उन्होंने परम ब्रम्ह को अपना इष्ट निर्धारित कर लिया और तदनुसार भोजन- भजन करने लगे,जिससे लोक वासना के स्थान पर ब्रह्माकार वृत्ति का उदय हो जाए:- करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥ उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥ अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥ नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥ संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥ ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥ दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार। संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥ टिप्पणी:-जैसे-जैसे तपस्या बढ़ती गई,देह से तादात्म्य छूटता गया और उसी अनुपात में परम ब्रह्म के अंश,ईश्वर कोटि के देवता- विधि, हर,हरि वरदान देने के लिए आए,किंतु मनु -शतरूपा अपने लक्ष्य परंब्रह्म दर्शन पर अटल रहे।प्रभु ने जब जान लिया,कि ये हमारे ही अनन्य भक्त हैं,तो वरदान देने की आकाशवाणी कर दी।शब्द-ब्रह्म ने जैसे ही उनके अंदर प्रवेश किया,वे हष्ट-पुष्ट और प्रफुल्लित हो गए:- बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥ मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥ प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥ मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥ ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥ दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥ टिप्पणी :-मनु शतरूपा का दुर्लभ लक्ष्य परम सत्य की साकार विग्रह का दर्शन करने का था,अस्तु आकाशवाणी की उपेक्षाकर,वरदान नहीं मांगा, और दर्शन देने की प्रार्थना की।भक्तवत्सल भगवान दिव्य देह धारण कर प्रकट हो गए। इस घटना से हम सबको इष्ट की दृढता से पकड़ने के लिए शिक्षा मिलती है:- सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥ जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥ जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥ दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥ दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146।।
- रामावतार हेतु प्रकरण-९ के अंतर्गत मनु शतरूपा वरदान प्रसंग-३:- आदिशक्ति सहित सर्व अधिष्ठान अधिष्ठान प्रभु की प्रकट विग्रह,अत्यंत सुंदर और दिव्य प्रभाव शालिनी थी।मनु शतरूपा आश्चर्यचकित हो दर्शन का लाभ उठाते हैं,और सादर दंडवत प्रणाम करते हैं।अच्छा हो दंपति के साथ हम सब भी भगवान का मानसिक दर्शन और नमन करें।भगवान वरदान मांगने को कहते हैं इस पर मनु जी उन्हीं के समान पुत्र प्राप्ति की अपनी इच्छा प्रकट कर देते हैं :- नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥ सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥ अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥ नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥ कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥ केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥ करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥ दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥ पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥ बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥ जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥ छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥ हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥ सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥ दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥ सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥ एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥ जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥ सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥ दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥ चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149।।
- रामावतार-हेतु प्रकरण-१० के अंतर्गत मनु- शतरूपा वरदान प्रसंग-४:- मनु ने भगवान के समान पुत्र होने का वरदान मांगा।भगवान के समान दूसरा कोई नहीं हो सकता अस्तु भगवान ने स्वयं उनके पुत्र रूप में अवतार लेने की बात स्वीकार कर ली ।इसके बाद भगवान ने शतरूपा से वरदान मांगने को कहा ।शतरूपा ने विनीत और गूढ़ भाषा में एक तरह से दो वरदान मांग लिए -एक तो वही मनु जी वाला पुत्र बनने का और दूसरा ज्ञान-विज्ञान युक्त परा भक्ति प्राप्त करने का:- देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥ सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥ प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥ अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥ दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥ टिप्पणी :-भगवान ने सतरूपा को भी मनचाहा वरदान दे दिया ।इतने में मनु जी को अपनी भूल का स्मरण हुआ -कि हमने अपने और भगवान के बीच कोई संबंध नहीं बनाया,अतः विशेष अनुरोध कर वरदान को सुधारा- कि आप के प्रति हमारा पुत्र -प्रेम वैसा ही रहे जैसे सांप का मणि के प्रति और मछली का जल के प्रति के प्रति होता है।भगवान ने तथास्तु कह दिया।राम वन गमन के समय दशरथ- मरण इसी वरदान का परिणाम होगा।वरदान देने के बाद भगवान ने उन्हें अगले जन्म प्राप्त करने तक स्वर्ग में रहने की भी अनुशंसा कर दी:- सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥ मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें । बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी॥ सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥ अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥ सो0-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि। होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151॥ इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥ जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥ पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥ दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥ दो0-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥
- रावण बनने बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का प्रसंग-१:- जब आसुरी आचरण से धरती, संत,देवताओं क्षुब्ध होते हैं, तब भगवान का अवतार होता है।अस्तु उपरोक्त रामावतार के समकालीन रावण के पूर्व जन्म की कथा होनी चाहिए,जो शिव जी- पार्वती जी को सुनाते हैं।वही कथा याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को बता रहे हैं। धर्म के निषेधात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए-ज्ञानमार्ग में सती मोह की कथा है,भक्तिमार्ग में नारदमोह की कथा कही गई और कर्मयोग मार्ग के लिए राजा प्रताप भानु की कथा आगे कहीं जा रही है।प्रताप भानु का आचरण धर्म अनुसार है किंतु चित्त में बड़ी भारी आसुरी वासना छिपी हुई है,जो अवसर आने पर प्रकट होती है। वही उनके अगले जन्म में प्रबल असुर रावण बनने का हेतु हुई :- सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥ बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥ धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥ तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥ राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥ अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥ भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥ जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥ दो0-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस। प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥ नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥ सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥ सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥ सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥ बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥ जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई॥ सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥ सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥ दो0-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु। अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥ भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥ सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥ सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥ गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥ भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥ दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥ नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥ बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥ दो0-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥155।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, रावण बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का प्रसंग:-एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए विंध्याचल के घने जंगल में जाते हैं।शिकार करने के चक्कर में प्रताप भानु एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए घने जंगल में अकेले ही फस जाते हैं ।शिकार भी बच निकलता है और वे थके-मांदे जंगल में,राजअंगों से विलग हुए ,एक पाखंडी तपस्वी के पास पहुंच जाते हैं:- हृदय न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥ करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥ चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥ बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥ फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥ बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥ कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥ घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥ दो0-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु। चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥ आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥ तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥ तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥ प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥ गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥ अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥ कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥ अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥ दो0-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत। खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥ फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥ जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥ समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥ गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥ रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥ तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥ राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥ उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥ दो0 भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ। मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158।।
- मानस आधारित श्री राम कथा ,बालकांड, रावण बनने की भूमिका में राजा प्रतापभानु का प्रसंग-३:-प्रताप भानु नगर से दूर हो गए थे अतः रात्रि विश्राम के लिए उन्हें छद्मबेशी तपस्वी के आश्रम में रुकना पड़ता है।यह तपस्वी प्रताप भानु से हारा हुआ राजा था,अतः उसने बैरभाव सिद्ध करने के लिए,राजा को मीठी-मीठी बातों द्वारा पहले से निर्धारित किए जाल में फंसाना प्रारंभ करता है:- गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥ आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥ को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥ चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥ नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥ फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥ हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥ कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥ दो0- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान। बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159(क)॥ तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ। आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥ भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥ नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥ पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥ मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥ तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥ समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥ सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥ दो0-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत। नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥160॥ टिप्पणी:-राजा प्रताप भानु चक्रवर्ती राजा होने पर भी,मन में और अधिक वैभव-अमरता प्राप्त करने की वासना रखते हैं।अतः वे वेष मात्र देखकर कपटी को सिद्ध पुरुष मान लेते हैं और कुछ सिद्धि-सामर्थ्य की याचना करते।हैं बिना आध्यात्मिक विकास के संतोष वृत्ति नहीं आती, और जीव भोगों कि तृप्ति के लिये संसार चक्र में भ्रमण करता रहता है:- कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥ सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥ तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥ तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥ जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥ सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥ सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥ सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥ दो0-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु। लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥161।।
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, रावण बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का प्रसंग-४:-सामान्यतया जिनका कुछ आध्यात्मिक विकास रहता है,उनका विवेक जागृत रहता है। वे केवल किसी की बनावटी व मधुर वाणी से जिस किसी को श्रेष्ठ नहीं मान लेते,लेकिन राजा प्रताप भानु से पाखंडी तपस्वी अपने को सिद्ध पुरुष मनवाने में सफल हो जाता है। परिणाम स्वरूप उनके अंदर छिपी हुई बहुत बड़ी वासना प्रकट हो जाती है,और वे उसकी पूर्ति के लिए उस पाखंडी से असंभव वरदान की इच्छा व्यक्त करते हैं। वास्तव में देहाशक्ति,भोगबासना,धन-यश की इच्छा ही जीव के पतन का हेतु होती है:- तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161(ख) तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥ प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥ तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥ अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥ जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥ देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥ नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई॥ कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥ दो0-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि। नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥ जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥ तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥ तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥ भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥ करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥ उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥ सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ॥ कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥ सो0-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥ नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥ गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥ देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥ उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥ अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥ कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥ प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥ दो0-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ। एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164
- मानस आधारित श्री राम कथा,बालकांड, रावण बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का प्रसंग-५:- पाखंडी को अवसर मिल गया,और वह राजा से पुराने बैर का बदला लेने के लिए,अपने जाल में फंसाने की योजना को सुद्धिढ करने लगा। पाखंडी तपस्वी का एक मायावी प्रेत मित्र कालकेतु था,जो उसी जंगल में रहता था।वह भी राजा प्रताप भानु का शत्रु था।दोनों मिलकर प्रताप भानु को नष्ट करने की योजना बनाए हुए थे, जिसमें राजा बराबर फँस्ता जा रहा है:- जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ। एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥ कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥ कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥ तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥ जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥ चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥ बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥ हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥ तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥ दो0-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि। मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥ तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥ छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥ यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥ आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥ सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥ राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥ जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥ एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥ दो0-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ। तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ॥166॥ सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥ अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥ मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥ आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥ जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥ सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥ बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥ दो0- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167।।
- रावण बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का प्रसंग-६:- प्रताप भानु जब पूरी तरह विश्वास में फंस गया,तब पाखंडी तपस्वी ने उसकी असंभव वासना आपूर्ति का उपाय बताया।जिसमें ब्राह्मणों के श्राप से उसे नष्ट करने की चाल छुपी थी।राजा प्रताप भानु योजना को स्वीकार कर सो गया:- जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥ सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥ अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥ जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥ जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥ अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥ पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥ जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥ दो0-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार। मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार॥168॥ एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥ करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥ और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥ तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥ तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥ मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥ गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥ मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥ दो0-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥ टिप्पणी:-जंगली सुअर, जिसके पीछे राजा भागे थे, वह मायावी वेषधारी कालकेतु नामक प्रेत था। उसकी दोस्ती पाखंडी तपस्वी से थी।वह रात्रि में अपने मित्र के पास आया:- सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥ श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥ कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥ परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥ तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥ प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥ तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥ जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥ दो0-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170।।
- रावण बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का प्रसंग-७:- प्रताप भानु अपने साथ घटी घटनाओं को अपने मंत्रिमंडल और ब्राह्मणों से छिपाए रखने की बड़ी भारी भूल की।जिसके कारण पाखंडी- तपस्वी और कालकेतु की योजना पूरी तरह सफल होती गई और राजा प्रताप भानु को निशाचर होने का श्राप मिल गया:- तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥ मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥ अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥ परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥ कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥ तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥ भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥ नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥ दो0-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि। लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥ आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥ जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥ मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥ कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥ गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥ उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥ जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥ समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥ दो0-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत। बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥ उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥ मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥ बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥ भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥ परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥ बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥ भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥ भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥ दो0-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार। जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173।।
- रावण बनने बनने की भूमिका में राजा प्रताप भानु का अंतिम प्रसंग-८:-ब्राह्मणों के श्राप दे देने के पश्चात दुबारा फिर आकाशवाणी होती है,कि ब्राह्मणों तुमने श्राप देकर अनुचित किया है।राजा के भ्रम वश माया जाल में फंस जाने के कारण यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी है।पहली आकाशवाणी मायावी कालकेतु ने की थी दूसरी देवताओंने की:- बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार। जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥ छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥ ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥ संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥ नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥ बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥ चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥ तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥ सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥ दो0-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर। किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥ अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥ सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥ उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥ तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥ घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥ जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥ सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥ रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥ टिप्पणी:-याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को स्पष्ट बोध कराते हैं-कि प्रारब्ध बड़ा बलवान होता है। ईश्वर के शरणागत होकर उसे भोगना से ही समस्या का निदान होता है। समय पाकर श्रापवश प्रताप भानु रावण होता है, उसका भाई अरिमर्दन कुंभकरण होता है तथा मंत्री धर्मरूचि विभीषण बनता है,इस प्रकार दो प्रसंगों द्वारा मानस में वर्णित एक कल्प के रामावतार और रावण जन्म की पूर्व पीठिका स्पष्ट हो जाती है। कल्प भेद से रावण के संदर्भ में भी भेद देखा जाता है।गोस्वामी जी के मानस अनुसार रावण पुलत्स्य के वंश में पैदा होता है।ऋषि के 2 पुत्र हैं- वैश्रवण तथा विश्रवा।वैश्रवण ब्रह्मा जी की सेवा में चले जाते हैं और वे उन्हें कुबेर का पद दे देते हैं। विश्रवा पिता के साथ ही रहते हैं।बाद में वैश्रवण पिता व भाई के पास 3 राक्षसिनियाँ- पुष्पोत्कटा, राका व मालिनी सेवा के लिए भेजते हैं,वे विश्रवा जी से सेवा के बदले,पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रकट करती हैं।फलस्वरूप पुष्पोत्कटा से रावण व कुंभकरण,मालिनी से विभीषण और राका से खर व सूपनखा का जन्म होता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण, कुंभकर्ण व विभीषण तीनों सगे भाई हैं और उनकी माता कैकशी है।कल्प भेद की कथाओं में अंतर होने से व्यर्थ की शंकाओं में नहीं फंसना चाहिए।कथा और कथानक दोनों सत्य होते हैं:- दो0-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम। धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।175॥ काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥ दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥ भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥ सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥ नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥ रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥ कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥ कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥ दो0-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप। तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176।।
- रावण राज्य और निशाचरी-शासन तंत्र प्रकरण-१:- रावण व कुंभकरण तपस्या कर बलवान बनते हैं ।ये कुटिल भयंकर और विवेक हीन होते हैं।आतंकवाद और पाप कर्मों के सहारे आसुरीसंपदा युक्त साम्राज्य स्थापित करने में जुट जाते हैं।समुद्र की खाँई से घिरी लंका को अपनी राजधानी बनाते हैं और ईश्वरी व्यवस्था को नष्ट -भ्रष्ट करने लगते हैं:- उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप। तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥ कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥ गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥ करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥ हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥ एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥ पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥ जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥ सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥ दो0-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु। तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥ तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥ मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥ सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥ हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥ गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥ सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥ भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥ तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥ दो0-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव। कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178(क)॥ हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178(ख)॥ रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥ अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥ दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥ देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥ फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥ सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥ जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥ एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।
- रावण राज्य और निशाचरी-शासन तंत्र प्रकरण-२:- हिंसक,विस्तारवादी और भोगवादी नीति अपनाने से रावण का परिवार और आसुरी संपदा बढ़ने लगी।सिद्धांत अनुसार जीवन में जैसे-जैसे विषयभोग सामग्री की वृद्धि होती जाती है,उसी अनुपात में लोभ बढ़ता जाता है और जीवों में आसुरी गुण बढ़ने से अधोगति हो जाती है,वैसा ही रावण राज्य में होने लगा:- सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥ नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥ अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥ करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥ जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥ समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥ बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥ जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥ दो0-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय। एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥ कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥ टिप्पणी:-आसुरी संपदा वाले अपना साम्राज्य स्थापित कर लेने मात्र से संतुष्ट नहीं होते और भविष्य की चिंता से ग्रस्त होने से,दैवी विकास की आधारशिला को नष्ट करने लगते हैं।रावण जानता है कि सनातन धर्म वहां रहता है,जहां ब्राह्मण, वेद गाय,तपस्या और दक्षिणा सहित यज्ञ रहता है,अतः उसने इन्हें नष्ट-भ्रष्ट करने का शासनादेश (संविधान) जारी कर दिया:- दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥ सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥ सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥ सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥ ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥ तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥ द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥ दो0-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ। तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥ मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥ जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥ तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥ एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥ चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥ रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥ दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥ पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥ रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥ रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥ किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥ ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥ आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥ दो0-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र। मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182
- रावण राज्य और निशाचरी शासनतंत्र प्रकरण-३:- शासन व्यवस्था पर पूरी तरह कब्जा कर,रावण ने अपने राज्य में गीता अध्याय 16 में वर्णित आसुरी संपदा के विकास और दैवी संपदा के विनाश की सुदृढ़ व्यवस्था कर दी।विवेक युक्त हिंदू इन लीलाओं से भलीभांति परिचित हैं।उन लोगों ने कोई 900 वर्ष तक देखा है -कि दैवी संपदा को हिंसा के बल पर नष्ट कर,किस प्रकार से आसुरी संपदा की वृद्धि कर,शासन किया जाता है। स्वतंत्रता के बाद हिंसा ने आतंकवाद का रूप ले लिया है,और मानवता के नाम पर आसुरी संपदा को छद्म उपायों से संरक्षण दिया जा रहा है । परिणाम स्वरूप मांस भक्षण,मदिरापान,कामुक अपराध,गौहत्या,रिश्वत -कमीशन खोरी,भूमाफियों, करोड़ों के घोटालों आदि की वृद्धि हो रही है।वोट बैंक के लिए लुभावने नारों -धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद,साम्यवाद,विकासवाद,क्षेत्रवाद,गरीबी उन्मूलन,दलित आंदोलन,जाट आंदोलन, अल्पसंख्यक संरक्षण तथा किसान आंदोलन आदि की ओट में "उत्थानाय दुष्कृताम विनाशाय च साधुनाम" की सुयोजनित चाल रहती है। राष्ट्र में अविद्या की शिक्षा का बहुत प्रचार-प्रसार है। जागरण हुआ है लेकिन विद्या की शिक्षा,जिससे दैवी संपदा के विकास का मार्ग --नैतिकता➡धर्म➡निष्काम स्वधर्म पालन ➡उपासना➡सद-असद विवे➡ज्ञान➡विज्ञान ➡पराभक्ति प्रशस्त होता है ;को स्थापित करना शेष है।उसे मानवता के नाम पर दफन करने का प्रयास हो रहा है। तुलसी के शब्दों में आसुरी शासन का स्वरूप:- देव दक्ष गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥182ख॥ इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥ प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥ देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥ करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥ जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥ जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥ सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥ नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥ छं0-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा। आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना। तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥ सो0-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं। हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥ बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥ जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥ गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥ सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥ धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥ निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥ छं0-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका। सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥ सो0-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु। जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184।।
- आसुरी शासन तंत्र से पीड़ित होकर सृष्टि संचालक दैवी शक्तियों का परम सत्य की शरणागति लेने का प्रसंग:-सृष्टि में आसुरी संपदा के बढ़ने से पांचों तत्व प्रदूषित और क्षुब्ध हो उठते हैं,जैसा आज भी हो रहा है।रावण राज्य में भी सृष्टि को संचालित करने वाली दैवी शक्तियां पीड़ित और दुखी हो गईं। ऐसे में ब्रह्मा जी व शिवजी सहित देवता,संत, पृथ्वी तथा गौ आदि एकत्रित होकर सृष्टि की सुव्यवस्था पर विचार करने लगे।ब्रह्मा जी ने अपनी असमर्थता बताकर हाथ खड़े कर दिए,और परम सत्य की शरण जाने की संस्तुति कर दिया।परम सत्य से मिलने के उपाय पर सभी अपनी-अपनी मान्यता अनुसार विचार व्यक्त करने लगे ।शिवजी उमा जी को कथा सुनाते हुए कहते हैं-कि उस सभा में मैं भी था,अतः मैंने भी सुझाव दिया कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है,और निश्छल प्रेम करने से प्रकट होते हैं।मेरे विचार का सभी ने अनुमोदन किया,और ब्रह्माजी परमात्मा के शरणागत होकर प्रेम पूर्ण हृदय से प्रार्थना करने लगे।प्रार्थना अनेक भावों से भरी है।परिणाम स्वरूप परम ब्रह्म ने प्रसन्न होकर दिव्य आकाशवाणी की।जिसके नाद से सभी के शोक-संदेह मिट गए और अलौकिक प्रसन्नता छा गई:- बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥ जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥ हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥ अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥ मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥ दो0-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर। अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥ छं0-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥ जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥ सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना। जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥ भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा। मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥ दो0-जानि सभय सुरभूमि मुनि बचन समेत सनेह। गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186।।
- आकाशवाणी और उसको व्यावहारिक रूप देने का श्री गणेश :-आकाशवाणी से भगवान का अवतार होना निश्चित हो गया,और समष्टि का वातावरण व दैवी शक्तियां उसी के अनुकूल अपने को ढालने लगी:- जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह। गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥ जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥ कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥ तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥ हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥ तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥ दो0-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ। बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥ गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥ बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥ गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥ टिप्पणी:-परमात्मा के प्राकट्य के समय व्यष्टि और समष्टि दोनों का वातावरण,अवतार के अनुकूल होता है।समष्टि के बाद व्यष्टि की अनुकूलता दिखाने के लिए,राजा दशरथ की तीनों रानियों और यज्ञ प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। आज भी जिसका जीवन यज्ञमय है,उसी के अंतः करण में भगवान में भगवान की अनुभूति होती है:- यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥ अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥ धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥ दो0-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत। पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥ एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥ निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥ सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥ जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥ दो0-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥ परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189।।
- रामजन्म लीला में रानियों का यज्ञ-हवि ग्रहण और गर्भवती होना तथा भगवान का प्राकट्य प्रसंग:- अवतार होने के पहले ब्रह्माजी व देवताओं ने आकर भगवान की स्तुति की।सूतिका ग्रह में में कौशल्या जी के सामने, भगवान पहले पूर्व जन्म के वरदान (1. 151.3 ) की रक्षा के लिए,दिव्य अलौकिक रूप में प्रकट हुए और फिर माता के प्रार्थना करने पर,अलौकिक शिशु रूप में हो गए :- तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥ परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥ तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥ कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥ एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥ मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥ दो0-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥ नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥ मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥ सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥ बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥ सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥ गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥ बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥ अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥ दो0-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम। जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191॥ छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥ कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता। माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥ करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता। सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥ ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै॥ उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥ माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥ दो0-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192।।
- रामजन्म लीला में जन्मोत्सव प्रसंग-२:- राजा दशरथ व वशिष्ठ जी को जन्म होने की सूचना मिलती है और वे अत्यंत हर्षित हो, तुरंत आकर हिंदुओं के षोडश संस्कारों के अनुसार नंदीमुख श्राद्ध और जातकर्म करते हैं।अयोध्या की जनता आनंद उत्सव और दान आदि लेने-देने में डूब जाती है।इसी बीच राम जी के तीनों भाइयों -भरत, शत्रुघ्न तथा लक्ष्मण जी का भी प्राकट्य हो जाता है।साधक को,आनंदोत्सव के अलौकिक सुख की अनुभूति तो तुलसी के शब्दों को पढ़ने से ही प्राप्त हो सकती है:- बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥ सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी॥ हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥ दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥ परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥ जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥ परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥ गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥ अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥ दो0-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह। हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥ ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥ सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥ बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई॥ कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥ करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥ मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥ सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥ मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥ दो0-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद। हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥ कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥ वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥ अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥ देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥ अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥ मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥ भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी॥ कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥ दो0-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ। रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195।।
- रामजन्म लीला का अलौकिक महोत्सव प्रसंग-३:- भगवान सूर्य देवता और सुर -मुनि आदि सभी उत्सव का आनंद उठाते हैं।शिव जी पार्वती जी को कथा सुनाते हुए कहते हैं -कि आप को साथ न ले जाकर तथा आप से छुपाकर हम भी कागभुसुंडि के साथ मनुष्य रूप में अयोध्या जी की गलियों में उत्सव का आनंद लेते रहे।तथ्य यह है कि जिनके हृदय में ज्ञान-स्वरूप शिवतत्व और प्रेम-भक्ति रूप कागभुसुंडी जी जागृत हैं,वही उत्सव -आनंद का रस ले पाते हैं। महोत्सव चलने के बीच नामकरण का अवसर भी आया और वशिष्ठ जी ने चारों भाइयों जी ने चारों भाइयों की विशेषताओं को उजागर करते हुए उनके नाम प्रकट कर दिए:- मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ। रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥ यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥ देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥ औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥ काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥ परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥ यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥ तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥ गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥ दो0-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस। सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥ कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥ नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥ करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥ इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥ जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥ सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥ बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥ जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥ दो0-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार। गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥ धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥ मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना॥ बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥ भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥ स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥ चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥ हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥ कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥ दो0-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥198
- रामावतार लीला में शिशु-विनोद प्रसंग-४:- जिनके इष्ट शिशु -राम है,उनके ध्यान के लिए तुलसी ने बड़े ही मनोहर रूप की झांकी प्रस्तुत की है।कुछ साधक दोहे 199 के साथ संलग्न 12 (7 +5) चौपाइयों को छंद 7 .130( 2 )में कहीं गई(सत पंच चौपाई मनोहर) से भी जोड़ते हैं।भगवान की लीलाओं से कौशल्या जी और समस्त नगरवासियों को अनंत आनंद की प्राप्ति होती रही:- ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥198॥ काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥ अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥ रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥ कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥ भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥ उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥ कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥ दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥ सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥ चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥ पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥ रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा॥ दो0-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत। दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥ एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥ जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥ रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥ जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥ भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥ मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥ एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥ लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥ दो0-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान। सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200।।
- रामजन्म लीला में कौशल्या माता का विराट रूप दर्शन प्रसंग-५:-कौशल्या जी भौतिक शिशु लीलाओं से प्रभावित हो,अविद्या माया में फंसने लगीं।अस्तु भगवान ने दोहे 151.3 में दिए गए वरदान की रक्षा के लिए,अलौकिक विवेक जागृति हेतु,विराट रूप का दर्शन कराया। आध्यात्मिक विकास मार्ग में विद्या माया द्वारा,अविद्या माया की निवृत्ति के लिए,विराट रूप के दर्शन का नियम सा है।अर्जुन के,सती जी के,काग भुसुंडि जी आदि सभी के विराट रूप दर्शन में,यही सिद्धांत छिपा है।इसमें मुख्य दो बातें समझने की है--सृष्टि माया जाल है और उसका अधिष्ठान परमसत्य भगवान है।अतः सांसारिक व्यवहार करते हुए सत्य स्वरूप का स्मरण बनाए रखना है:- प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान। सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।200।एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥ निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥ करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥ गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥ बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥ इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥ देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥ दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड। रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ 201॥ अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥ काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥ देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥ देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥ तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥ बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥ अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥ हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥ दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥ अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ 202।।
- रामजन्म लीला में बाल और कौमार्य लीला का प्रसंग-६:-भगवान थोड़ा बड़े होते हैं और उनकी मित्र मंडली बन जाती है। वे अपने सखाओं के साथ,परिवार और अयोध्या वासियों के बीच घूम - फिरकर बाल और कुमार अवस्था की स्वाभाविक मनोहर लीलाओं से आनंदित करते हैं। इस बीच समय-समय पर हिंदुओं के षोडश संस्कारों में चूड़ाकरण,जनेऊ आदि भी होते रहते हैं ।चारों भाई गुरु वशिष्ट के घर पर रहकर अनेक विद्याओं का अध्ययन करते हैं:- बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥ कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥ चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥ परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥ मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥ भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥ कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥ निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥ धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥ दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ। भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥ बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥ जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥ भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥ गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥ जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥ बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥ करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥ जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥ दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल। प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥ बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥ पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥ जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥ अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥ जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥ बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥ प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥ दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205।।
- सनातन धर्म के मूल आधार यज्ञ(समष्टि-वर्धन व प्रबंधन ) रक्षण का श्रीगणेश प्रसंग:-विश्वामित्र जी समष्टि को प्रदूषण मुक्त रखने और दैवी शक्तियों को प्रबल रखने के लिए यज्ञ करते रहते थे।रावण ने हिंसक आसुरों- ताड़ुका,मारीच तथा सुबाहु आदि को भारत में दैवी संपदा नष्ट करने के लिए नियुक्त कर रखा था।वे यज्ञ नहीं होने देते थे। विश्वामित्र जी अयोध्या जाकर,राम जी को यज्ञ रक्षा करने के लिए,राजा दशरथ से याचना करते हैं राम जी की आयु 14.5 वर्ष है,अतः मोहबस दशरथ जी उन्हें अपने से अलग नहीं करना चाहते- वह भी असुरों से युद्ध करने के लिए।गुरु वशिष्ठ जी अवतारी प्रयोजन को सिद्ध कराने को ध्यान में रखकर,दशरथ जी को राम जी से अलग होने के लिए प्रेरित करते हैं, और बात बन जाती है:- यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥ बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥ जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥ देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥ गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी॥ तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥ एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई॥ ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना॥ दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार। करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥ मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥ करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥ चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥ बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥ पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥ भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥ तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥ असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥ दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान। धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥ सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥ चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥ मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥ देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही॥ सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥ कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥ सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥ तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥ अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥ मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥ दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस। जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208क
- सनातन धर्म के मूल आधार यज्ञ (समष्टि संवर्धन व प्रबंधन)रक्षण का श्रीगणेश प्रसंग-२:- विश्वामित्र जी, राम के अवतारी होने का निश्चय कर,अपनी विद्याओं का हस्तांतरण कर देते हैं:- पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥ कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208(ख) अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥ कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई॥ प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥ टिप्पणी :-रामजी ने असुरों के विनाश की की बोहनी ताड़का वध से किया है।अयोध्या में हो रहा मंदिर निर्माण राम जी की शक्ति का ही एक अवतार है। हम सब उस शक्ति से प्रार्थना करें कि वह भी, हो रहे चुनाव में, उसी प्रकार की बोहनी कर भारत भूमि से आसुरी-प्रकृति का सफाया करने का इतिहास दोहराने की कृपा करे:- चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥ एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥ तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥ जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥ दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि। कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥ टिप्पणी:-यज्ञ प्रारंभ हुआ और राम जी ने आतंकवादी निशाचरों को मारकर यज्ञ की रक्षा किया।कुछ दिन संतो के साथ सत्संग हुआ और विश्वामित्र जी की आज्ञा से राम जी ने उनके साथ जनकपुर में हो रहे धनुष यज्ञ के लिए प्रस्थान किया:- प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥ होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥ सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥ पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥ मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥ तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥ भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥ तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥ धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।
- धनुष यज्ञ प्रकरण - मिथिला यात्रा में अहिल्या उद्धार का प्रसंग-१:-मार्ग में गौतम ऋषि का उजड़ा आश्रम मिला,जिसमें पाषाणवत् अहिल्या जी पड़ी थीं। विश्वामित्र जी ने उनसे जुड़ी पूरी कथा बताई और चरण स्पर्श देने को कहा!अहिल्या जी दिव्य शरीर धारण कर पति लोक चली गईं।सार बात यह है, कि बुद्धि विषय-वासना के स्मरण से जड़ावत हो जाती है।शरणागत होकर भगवान के स्मरण-ध्यान से सर्व व्यापक परमात्मा का स्पर्श पाकर,बुद्धि परमपति भगवान से युक्त हो जाती है:- तब मुनि सादर कहा बुझाई।चरित्र एक प्रभु देखिअ जाई।। धनुष यग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥ आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥ पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥ दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥ छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही। देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥ अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही। अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥ धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥ मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥ मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना। पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥ जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी। सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥ एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥ दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल। तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में मिथिला यात्रा का प्रसंग-२:- अहिल्या उद्धार के बाद यात्रा आगे बढ़ती है।मार्ग में गंगा जी मिलती हैं,विश्वामित्र जी उनका पूर्व इतिहास राम जी को बताते हैं।सभी लोग पुण्य नदी का विधिवत स्नान-पूजन करते हैं,और आगे बढ़ते हुए जनकपुर की सीमा में पहुंच जाते हैं। नगर बहुत ही सुंदर और सुव्यवस्थित ढंग से बसाया गया है,जहां मानव जीवन की सब सुख- सुविधाएं प्राप्त हैं,जिनका बहुत सुंदर वर्णन किया गया है।धनुष यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आए राजों-महाराजाओं के चारों ओर बाग बगीचों में डेरे पड़े हुए हैं। विश्वामित्र जी ने भी एक सुंदर अमराई में ऋषि-मुनियों और राम जी के साथ डेरा डाल दिया।राजा जनक जी को समाचार मिल जाता है, और वे तुरंत विश्वामित्र के स्वागत-अनुरूप,राज्य अंगों के साथ उपस्थित होकर,उनकी अगवानी करते हैं:- चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥ गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥ तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥ हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥ पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥ बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥ गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥ बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥ दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास। फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥ बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥ चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥ धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥ चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥ मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥ पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥ अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥ होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥ दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति। सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥ सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥ बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥ सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥ पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥ देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥ कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥ भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥ बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥ दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति। चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में जनक व विश्वामित्र जी का मिलन-३:-जनक जी ने स्वयं आकर विश्वामित्र जी की अगवानी की। शिष्टाचार पूर्वक मिलन के पश्चात गूढ़ भाषा में,गुरु जी ने राम लक्ष्मण जी का परिचय कराया।जनक जी ने,पूरी मंडली को साथ ले जाकर सुसज्जित अतिथि गृह में रहने की यथा योग्य सुव्यवस्था करा दी:- कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥ बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥ कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥ तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥ स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥ उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥ भमख राखेउ सबु साखिजगुए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥ मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥ दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥ कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥ सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥ ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥ इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥ कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥ ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥ रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥ दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम। जिते असुर संग्राम॥216।। मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥ सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥ इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥ सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥ पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥ म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥ सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥ करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥ दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु। बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217
- धनुषयज्ञ प्रकरण में राम-लक्ष्मण जी का नगर दर्शन प्रसंग-४:-नगर पहुंचने के पहले दिन के चौथे पहर,लक्ष्मण जी की नगर देखने की इच्छा हुई।राम जी ने इसे जाना,और विश्वामित्र जी से अनुमति लेकर,नगर भ्रमण के लिए निकले ।नगर वासियों में भी इनके भ्रमण की सूचना फैल जाती है,और सब इन को देखने के लिए उतावले हो जाते हैं ।किशोर वय है, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए हैं । दोनों भाई अति सुंदर हैं,अवतारी सच्चिदानंद की विग्रह होने से स्वत: ही चिति युक्त आनंद विकिरण होता रहता है।जिसके दर्शन से नगरवासी नर-नारी सभी अति आनंदित और मोहित हो जाते हैं। युवतियां भी मर्यादा में रहकर,घर के झरोकों से इनके दर्शन कर,परस्पर इनकी सुंदरता की हर्षवर्धन दिव्य चर्चा करती हैं:- लखन ह्रदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥ प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥ राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥ परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥ नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥ जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥ सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥ धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥ दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ। करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥ मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥ बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥ पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥ तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥ केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥ सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥ कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥ चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥ दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस। नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥ देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥ धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥ निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥ जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥ कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥ सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥ बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥ अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥ दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम । अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में नगर भ्रमण प्रसंग-५:-श्री राम- लक्ष्मण के दर्शन से मिथिला की नारियां दिव्य परमानंद में डूब गईं। वे परस्पर चर्चा में अपने हृदय के उद्गार व्यक्त करने लगीं,जो पढ़ने-सुनने लायक हैं।वे राम जी से सीता जी का ब्याह हो जाने की मंगल कामना करतीं हैं,और भगवान से प्रार्थना करतीं हैं कि यह संजोग घटित हो जाए:- कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥ कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥ ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥ मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥ स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥ कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥ गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥ लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥ दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि। आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥ देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥ जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥ कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥ सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥ कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥ तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥ जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥ सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥ दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि। यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥ बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥ कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥ सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥ सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥ परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥ सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥ जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥ तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी॥ दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद। जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223
- धनुषयज्ञ प्रकरण में यज्ञशाला दर्शन प्रसंग-६:- नगर देखते-देखते राम-लक्ष्मण जी यज्ञशाला मंडप देखने पहुंच जाते हैं।वहां पर सभी नागरिकों को यथा योग्य बैठने की व्यवस्था है।नगर के बालक भगवान के संग होकर और बहाने से उनके स्पर्श का अलौकिक आनंद उठाने लगते हैं।राम जी उनकी भावनाओं को समझ कर,उनका आदर करते हैं:- पुर पूर्व दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥ अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥ चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला॥ तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥ कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥ तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥ जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥ पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥ दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात। तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥ टिप्पणी:-तुलसीदास जी याद दिलाते हैं,कि भगवान उस माया के पति हैं,जो क्षण भर में 14 भुवनों की सुंदर रचना कर डालती है,लेकिन भक्तों के प्रेम का आदर करने के लिए, ऐसी लीला करते हैं,कि मानो ऐसी अद्भुत रचना उन्होंने देखी ही न हो।संध्या-वंदन का समय आते जान, गुरु अनुशासन का आदर करते हुए,प्रेम पूर्वक बालकों से विदा लेकर,दोनों भाई गुरुजी के पास आ जाते हैं:- सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥ निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥ राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥ लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥ भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥ कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥ जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥ कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥ दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ। गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥ जीवन में 24 घंटे की दिनचर्या का बहुत महत्व है। गुरु जी सब को संध्या-वंदन की आज्ञा देते हैं। उसके कुछ काल बाद रात के भोजन आदि से निवृत हो,आध्यात्मिक चर्चा और पौराणिक कथाएं होती हैं,जो आधी रात तक चलती हैं। इसके बाद मुनि विश्वामित्र सहित सभी अपने- अपने आसन पर आसन पर जाकर विश्राम करने लगे, पर दोनों भाई गुरुजी के चरण दबाकर सेवा करने लगते हैं।उनके बार-बार कहने पर दोनों भाई भी सोने के लिए जाते हैं और तब लक्ष्मण जी,राम जी के पैर दबाने लगते हैं।प्रातः काल होता है,मुर्गे की ध्वनि सुनते ही सबसे पहले लक्ष्मण जी उठ जाते हैं,और फिर गुरुजी के उठने के पहले ही,राम जी भी बिस्तर छोड़ देते हैं। सेवा करने वाले को मर्यादित रहना पड़ता है:- निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥ कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥ मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥ जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥ तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥ बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥ चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥ पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥ दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥ गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226
- धनुषयज्ञ प्रकरण में फुलवारी लीला प्रसंग-१:प्रातः काल उठकर,दोनों भाई नित्य क्रियाओं तथा संध्या वंदन से निवृत्त होकर,गुरु जी की पूजा के फूल लेने के लिए,उनसे आज्ञा लेकर फुलवारी में जाते हैं ।राजा जनक जी की फुलवारी दर्शनीय है,भांति भांति के फूलों,वृक्षों तथा लताओं से भरी पड़ी है। फुलवारी के बीच में स्वच्छ जल व रंग-बिरंगे कमलों से सुशोभित सरोवर और देवी जी का मंदिर है।माली से पूछ कर दोनों भाई फूल तोड़ने लगते हैं:- सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥ समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥ भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥ लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥ नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥ चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥ मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥ बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥ दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत। परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥ चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥ टिप्पणी:- उसी समय सुनैना जी की भेजी हुईं, सीता जी भी,सखियों के साथ भगवती गिरजा जी की पूजा के लिए फुलवारी में आती हैं।सीता जी सखियों के साथ सरोवर में स्नान कर देवी जी की प्रेम पूर्वक पूजा-करती हैं इस बीच एक सखी जो फुलवारी देखने के लिए गई थी,वह दोनों भाइयों के अलौकिक दर्शन कर,अत्यंत प्रेम विव्हल और चकित होकर सखियों के पास लौट कर आती है:- तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥ संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥ सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥ मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥ पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥ एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥ तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥ दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन। कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥228॥ टिप्पणी:-सब सखियां उससे चर्चा करके तय करती हैं,कि ऐसा जान पड़ता है कि यह वही राजकुमार हैं,जिनकी अलौकिकता की धूम कल से नगर में फैली हुई है,अतः दर्शनीय के दर्शन करना चाहिए।वे सब जानकार सखी को आगे करके,फुलवारी में उन्हें खोजने लगती हैं।सीता जी दिव्य कल्पनाओं से आनंदित हो रही हैं।शक्ति व शक्तिमान अनादिकाल से अभिन्न है।यह पुरातन प्रीति काल की महिमा से जागृत हो रही है।यह तथ्य न स्वयं समझ में आता है न किसी दूसरे को। यही प्रीति सीता जी को अनजाने ही राम जी जी की ओर खींचे ले जा रही है।नारद के वचन स्मरण हो जाने से,सीता जी भय मिश्रित आनंद का अनुभव करती हैं।अध्यात्म रामायण 1.6.60-66 के अनुसार एक बार नारद जी ने जनक जी से कहा था,कि भगवान का अवतार राम के रूप में दशरथ जी के यहां हो चुका है और उनकी शक्ति सीता के रूप में आपके यहां अवतरित हुई हैं।सीता जी ने यह सुन लिया था:- देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥ स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥ सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥ एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥ जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥ बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥ तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥ चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥ दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥ चकित बिलोकति सकल दिसी जनु सिसु मृगी सभीत।। 229।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में फुलवारी लीला प्रसंग-२:-श्री सीता जी, राम जी की अंतरंग अभिन्न शक्ति हैं। उनकी देह व आभूषणों की ध्वनि सभी चिदानंद मय है।अस्तु उनके संकल्पों व भावना आदि का प्रभाव राम जी पर पड़ जाता है। राम जी सरल चित्त हैं,अतः अपने भाई से मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं को साफ-साफ व्यक्त कर देते हैं ।फिर जिधर से कंकन, किंकिणी और नूपुर की ध्वनि आ रही थी,उधर देखने लगते हैं। सीता जी इतनी सुंदर हैं,कि राम जी एकटक उनको देखने लगे।तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसा लगता है कि निमी महाराज(जानकी जी के पूर्वज जिनका बास पलकों में माना जाता है)ने अपने कुल पुत्री-दामाद का श्रृंगार प्रसंग देखना उचित न मानकर पलकें छोड़ दिया है। तुलसी नैसर्गिक श्रंगार लीला का अत्यंत मर्यादित वर्णन कर रहे हैं:- कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥ मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥ अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥ भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥ देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥ जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥ सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥ सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥ दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि। बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥ राम जी अपने विचारों को लक्ष्मण जी से व्यक्तकर मानो एक प्रकार से सीता जी का अलौकिक परिचय दे देते हैं, कि वह हमारी अभिन्न अंतरंग शत्ति हैं:- तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥ पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥ जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥ सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥ रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥ मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥ जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥ मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥ दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान। मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में फुलवारी लीला प्रसंग-३:- राम जी की तरह ही,सीता जी की भी मानसिक स्थिति है। राम जी लता मंडप के बीच में होने से,वे तो सीता जी को देख पा रहे हैं, लेकिन सीता जी उन्हें नहीं देख पा रहीं हैं किंतु देखने के लिए व्याकुल हैं।एक सखी ने उन्हें लता की ओट में होने के लिए इशारा किया।सीता जी ने उधर देखकर राम जी की दिव्य सुंदरता पर मुग्ध हो स्तब्ध रह गईं और आखें बंद कर,मानसिक दर्शन में मग्न हो गईं। इस बीच रामजी लता मंडप पारकर बाहर आ गए।राम जी किशोर वय में नख से शिख तक इतना माधुर्य और ऐश्वर्य निधान हैं,कि सखियां अपना भान ही भूल गईं:- चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥ जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥ लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥ देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥ थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥ अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥ जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥ दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ। निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥232॥ सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥ मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥ भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥ बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥ चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥ मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥ उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥ सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥ दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान। देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥ टिप्पणी:-एक सखी ने यह जानते हुए भी, कि सीता जी किसके मानसिक दर्शन में मग्न है,विनोद करके सचेत किया-इस समय राजकुमारों को देख लो,देवी जी का ध्यान बाद में कर लेना।सीता जी ने आंखें खोलते ही सामने राजकुमारों को देखा और उनकी सुंदरता पर स्तब्ध रह गईं।किंतु राम जी से ब्याह की शर्त पूरा हो पाने की शंका हो जाने से मन में क्षोभ भी होने लगा।इस प्रकार से सुध-बुध खोई दशा देखकर,एक सखी ने विनोद भरी भाषा में सचेत किया,कि घर चलने की देर हो रही है, कल फिर इस समय आ जाएंगी। सीता जी लौट तो चलीं, किंतु पेड़-पक्षी देखने के बहाने से मुड़- मुड़कर चुपके से राम जी को बार-बार देखती जाती हैं:- धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥ बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥ सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥ नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥ परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥ पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥ गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥ धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥ दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि। निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ 234।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में फुलवारी लीला प्रसंग-४:-श्री सीताजी भवानी मंदिर की ओर पुनः लौट चलीं। हृदय में राम जी की श्यामल मूर्ति धारण किए हुए हैं,किंतु विवाह के बीच में शिवधनुष की कठोरता और राम जी की कोमलता के स्मरण से,थोड़ा चिंतित हैं।उधर राम जी ने,सीता जी को लौटता जान परम प्रेम की स्याही (रंग) से चित्त की दीवार पर सीता जी का चित्र अंकित कर लिया। सीता जी अपनी चिंता दूर करने के लिए पार्वती जी की पुनः विशेष प्रार्थना करती हैं।सनातन धर्म के सभी संप्रदायों (शाक्त, शैव, गणपात्य आदि)में अपने इष्टदेव को परम ब्रह्म की शक्ति तथा ऐश्वर्यौं से संपन्न माना जाता है।अतः सीता जी ने पार्वती जी की प्रार्थना में,उन सब का समावेश किया है। प्रार्थना से पार्वती जी का आदिशक्ति होने का पूरा बोध हो जाता है:- जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥ प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥ परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥ गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥ जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥ जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥ नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥ भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥ दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥ सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥ देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥ टिप्पणी:-सीता जी प्रार्थना कर,देवी जी के चरणों को पकड़कर शरणागत हो जाती हैं।पत्थर की मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा रहती है और विशेष अवसरों में उनका चेतन युक्त व्यवहार देखा जाता है।देवी जी के गले की माला खिसक कर सीता जी को प्रसाद रूप में प्राप्त हो जाती है और मूर्ति मुस्कानें लगती है।देवी बोलीं- मेरा आशीर्वाद बचन सुनो!तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी!भगवान राम करुणानिधान है,तुम्हारे सील-स्नेह की रक्षा करेंगे! नारद जी के वचन अन्यथा नहीं हो सकते!ऐसी मान्यता है कि नारद जी ने सीता जी से एक बार कहा था, कि अपने पति को पहली बार पुष्प वाटिका में देखोगी,उसके प्रति तुम्हारा आकर्षण उत्पन्न होगा और बाद में देवी जी की आशीर्वाद से वह तुम्हें पतिरूप में प्राप्त हो जाएगा। पार्वती जी का आशीर्वाद सुनकर सीताजी बहुत प्रसन्न हुईं। देवी जी की बार-बार पूजा और प्रणाम कर प्रसन्न चित्त घर लौट चलीं:- मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥ कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥ बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥ सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥ सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥ नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥ छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥ एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥ सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236
- धनुषयज्ञ प्रकरण में धनुषभंग प्रसंग का श्रीगणेश-१:- श्री राम-लक्ष्मण जी फुलवारी से फूल चुनकर गुरुजी के पास लौट आए।श्री राम जी को सीता जी की दिव्य सुंदरता का बराबर स्मरण होता रहा।गुरुजी से बिना किसी दुराव के फुलवारी की घटनाओं को,अपनी भावनाओं सहित बता दिया।गुरु जी ने फूल लेकर भगवान की विधिवत पूजा-अर्चना की और राम जी को मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद दे दिया। दिनचर्या समान रूप से चलती रही। दोपहर भोजन विश्राम के पश्चात सत्संग हुआ,उसके पश्चात सायं कालीन संध्या वंदन हुआ और फिर गुरु आज्ञा के पश्चात रात्रि विश्राम प्रारंभ हुआ।चंद्रमा को देखकर रामजी को पुनः सीता जी का स्मरण हो आया:- हृदय सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥ राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥ सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥ सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥ करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥ बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥ प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥ बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥ दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक। सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥ टिप्पणी:-चंद्रमा को देखकर रामजी सोचते हैं,कि इसकी सुंदरता सीता जी से हीन है। चंद्रमा की कमियों के बहाने (ब्याज)से सीता जी की सुंदरता का स्मरण करते हैं।ऐसा सोचते-सोचते भगवान सो जाते हैं।प्रात उठकर उदय होते सूर्य को देखकर लक्ष्मण जी से फिर विवाह संबंधी बातें प्रारंभ हो जाती हैं:- घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥ कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥ बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥ सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥ करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥ बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥ उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥ टिप्पणी:-लक्ष्मण जी का मत है, कि सूर्योदय के प्राकृतिक क्रियाकलापों का धनुष भंग से होने वाली घटनाओं का संबंध है।जैसे मोहभंग होने से आसुरी वृत्तियाँ( काम,क्रोध आदि) नष्ट हो जाती हैं और दैवी वृत्तियां (शांति संतोष आदि)विकसित हो जाती हैं,वैसे ही धनुष भंग से दुष्ट राजे प्रभावहीन हो जाएंगे,और सज्जन लोग सुखी और प्रसन्न हो जाएंगे।लक्ष्मण जी कहते हैं यह यज्ञ,आप की भुजाओं के बल को प्रकाशित होने का उद्घाटन समारोह सिद्ध होगा।इसके बाद नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो,दोनों भाई गुरुजी के पास आकर प्रणाम करते हैं।तब तक जनक जी के पुरोहित सतानंद जी द्वारा यज्ञ में सम्मिलित होने का बुलावा आ जाता है और गुरु जी उसमें चलने की सबको आज्ञा दे देते हैं:- बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥ दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन। जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥ नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥ कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥ ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥ उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥ रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥ तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥ बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥ नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥ सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥ जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥ दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ। चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में राम जी का यज्ञशाला गमन-२:- जनक जी के बुलावे का आदर करते हुए विश्वामित्र जी राम -लक्ष्मण व मुनि मंडली के साथ यज्ञशाला के लिए प्रस्थान करते हैं।विश्वामित्र जी व्यावहारिक चलन की बात कहते हैं -की देखना है कि भगवान की कृपा से,स्वयंवर में किसे विजय मिलती है। विश्वामित्र जी राम जी को मनोकामना की पूर्ति का आशीर्वाद पहले ही दे चुके हैं।अतः लक्ष्मण जी सटीक उत्तर देते हुए कहते हैं,कि आप के कृपापात्र को ही सफलता मिलेगी।मुनि मंडली प्रसन्न हो जाती है।दोनों भाइयों के यज्ञशाला पहुंचने का समाचार नगर में फैल जाता है और सभी कामकाज छोड़कर रंगभूमि में पहुंच जाते हैं। राज्य कर्मचारी सतर्कता पूर्वक भीड़ को संभालते हैं:- सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥ लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥ हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥ पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥ रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥ चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥ देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥ तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू॥ दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि। उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥ टिप्पणी:-राजकुमार रंगभूमि में पहुंचते हैं।उनकी छवि राजाओं के बीच में विशेष आकर्षण का केंद्र है।मानो तारों के बीच में दो पूर्णिमा के चांद चमक रहे होंं।समाज में विभिन्न प्रकार की मानसिकता और रस (वात्सल्य,करुणा,श्रृंगार तथा विभत्य आदि )प्रियता वाले मनुष्य होते हैं,और तदनुसार भगवान उनको दिखाई पड़ते हैं।इसका आनंद तुलसी के शब्दों में ही लेना कर्तव्य है:- राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥ गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥ राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥ जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥ देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥ रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥ पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥ दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप। जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥ बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥ सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥ जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥ हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥ उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥ दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर। सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242
- धनुषयज्ञ प्रकरण के अंतर्गत यज्ञशाला में श्री राम- लक्ष्मण का प्रवेश-३:- संत तुलसी ने दोनों भाइयों के शब्द चित्र की सुंदर झांकी प्रस्तुत की है।नख- शिख शोभा ईश्वरी प्रभा युक्त होने से विशेष प्रभाव शालिनी हो रही है।भक्तों को अपने हृदय पटल में इस झांकी के दर्शन करना चाहिए :- सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥ सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥ चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥ कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥ कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥ भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥ पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥ रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥ दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल। बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥ कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥ पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥ देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥ टिप्पणी:-राजा जनक ने आकर विश्वामित्र के चरणों में दंडवत की स्वयं साथ चलकर रंगभूमि दिखाई और सर्वश्रेष्ठ मंच पर राम लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जी को आसन दिया:- हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥ करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥ जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥ निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥ दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल। मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण के अंतर्गत सभा में आए राजाओं पर राम जी के ऐश्वर्य का प्रभाव:-मंच पर विश्वामित्र जी के साथ विराजे रामजी के ऐश्वर्य का प्रभाव, स्वयंवर में पधारे राजाओं पर अलग-अलग ढंग से होने लगता है।भले राजाओं ने मान लिया कि धनुष न टूटने पर भी.स्वयंबर रीति से सीता जी,राम जी को ही पति रूप में वरण करेंगी। दुष्ट राजे प्रलाप करने लगे,कि धनुष तोड़ने पर भी हमारे होते राम जी सीता से विवाह न कर सकेंगे।बुद्धिमान राजे सलाह देते हैं-कि अमृत का समुद्र छोड़कर, प्यास बुझाने के लिए मृगजल के लिए दौड़-दौड़ कर मरना अच्छा नहीं है।सीताराम जी जगत के माता-पिता है,हमें तो उनके दर्शन का लाभ उठाना चाहिए,देवता लोग भी अपने-अपने ढंग से उत्सव में भाग ले रहे हैं।उचित समय जानकर जनक जी ने सखियों सहित सीता जी को यज्ञ मंडप में बुला लिया:- प्रभुहिं देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥ बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥ बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥ तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥ एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥ यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥ सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥ जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥ ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥ जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥ सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥ सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥ करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥ अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥ देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥ दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई। चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥246
- धनुष यज्ञ प्रकरण में श्री सीता जी का मंडप में प्रवेश:-श्री सीता जी सखियों के साथ के साथ यज्ञ मंडप में आती हैं।वे आदिशक्ति हैं, और षट ऐश्वर्यों,धर्म,यश, श्री, ज्ञान,वैराग्य और पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त हैं।तुलसीदास उनकी सुंदरता वर्णन करना चाहते हैं,पर अपने को उसके लिए असमर्थ पाते हैं। नख-शिख वर्णन करना मर्यादा के विरुद्ध है। उपमा देने के लिए त्रिदेवियां भी उपयुक्त नहीं है,तो फिर किस प्रकार उपमा दी जाए:- सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥ सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥ जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥ गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥ बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥ जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई॥ सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥ दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल। तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥ टिप्पणी:-सीता जी हाथ में जयमाल लिए हैं,साथ में मंगल गीत गाती हुई सखियां हैं और उनकी अलौकिकता के कारण सभी नर-नारी मोहित हो जाते हैं।देवता व अप्सराएं भी फूल बरसाती हैं और गीत गाती हैं।सीता जी तो अपने इष्ट की खोज में इधर-उधर देख रही हैं।मुनि के साथ उन्हें चुपके से देखकर ह्रदय पटल में उनकी मूर्ति अंकित कर लेती हैं।टकटकी लगाकर न देखने के पीछे गुरुजनों की मर्यादा का विचार है:- चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥ सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥ भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥ रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥ हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥ पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥ सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥ मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥ दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥ लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥ टिप्पणी:- रंगभूमि के नर-नारी सीताराम जी की दिव्य अलौकिक ऐश्वर्य से चकित हैं।उनके ब्याह की मंगल कामना कर,प्रार्थनाएं कर रहे हैं।जनक जी की आज्ञा से बंदीजन, धनुष यज्ञ प्रक्रिया के नियमों की घोषणा करते हैं:- राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥ सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥ हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥ बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥ जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥ एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥ तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥ कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥ दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल। पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में यज्ञ मंडप की कार्यवाही:- जनक जी के आज्ञा की घोषणा बंदी जनों ने कर दी।जो राजे समझदार थे, वे शिव धनुष की महिमा और अपना सामर्थ्य जानते थे,अतः वे धनुष तोड़ने के लिए नहीं उठे ।अभिमानी मूढ राजे जोश दिखा दिखाकर धनुष उठाने का भरसक प्रयास करने लगे,पर वह हिला तक नहीं,अतः लज्जित होकर अपने स्थान पर बैठ गए:- नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥ रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥ सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥ त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥ सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥ परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥ तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥ जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥ दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ। मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250।। टिप्पणी:-सारे अभिमानी राजाओं ने युक्ति से एक साथ मिलकर धनुष उठाने का प्रयास किया।जब उसमें भी सफलता नहीं मिली,तो उनका जोश ठंढा हो गया और शर्माकर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए।राजाओं को श्री हीन देख, राजा जनक की, सीता जी के विवाह को सोच कर चिंता बढ़ी,और उन्होंने चुनौतीपूर्ण शब्दों में अपने विचार व्यक्त कर दिए।सभा में निराशाजनक वातावरण बन गया:- भुप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥ डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥ सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥ कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥ श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥ नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥ दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥ देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥ दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय। पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥ कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥ रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥ अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥ सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥ जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥ जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥ टिप्पणी:-श्री राम-लक्ष्मण निष्काम कर्मयोगी है।वे शास्त्र व गुरु वचनों के अनुसार ही व्यवहार करते हैं।अभी तक वे चुप थे।जनक जी की वाणी में वीरों पर कटाक्ष था,अतः लक्ष्मण जी को क्रोध आया और उनके होंठ फड़फड़ाने लगे। फिर भी मर्यादा में रहते हुए, खड़े होकर राम जी को सिर झुका कर ,एक प्रकार से बोलने की अनुमति मांगी।और उनके मौन रहने को स्वीकृति मानकर बोलना आरंभ किया। माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥ दो0-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान। नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥
- धनुषभंग प्रकरण में यज्ञशाला के क्रियाकलाप:-श्री लक्ष्मण जी , जनक वचनों के प्रक्रिया स्वरूप उत्तर देना प्रारंभ करते हैं।वास्तव में जनक जी ने केवल अभिमानी राजाओं को पूरा अवसर देकर आगे के आंदोलनों और हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए चुनौतीपूर्ण भाषा का प्रयोग किया था।लेकिन वे शब्द सभा में उपस्थित सभी राजाओं पर लागू माने जाएंगे ।अतः लक्ष्मण जी ने बोलना प्रारंभ किया और पहली बार राम जी के साथ भगवान शब्द को जोड़ा।यह भी कहा कि राम जी के बल के सहारे वह कुछ भी कर सकने में अपने को समर्थ पाते हैं। लक्ष्मण जी के भाषण में उनका शेषनाग अथवा समष्टिआत्मा के अवतार होने की झलक मिलती है।जनक वचनों से सभा में जो नौराश्य पूर्ण वातावरण बना था वह छिन्न-भिन्न हो गया और धनुष टूटने की आशा दिखाई देने लगी। लक्ष्मण जी की बातों का प्रभाव भिन्न-भिन्न लोगों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से पड़ा ।रामजी ने बात बढ़ते देख,लक्ष्मण जी को इशारे से अपने पास बिठाकर शांत कर दिया:- रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥ कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥ सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥ जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥ काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥ तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥ नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥ कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥ दो0-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ। जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥ लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥ सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥ गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥ सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥ टिप्पणी:-विश्वामित्र जी सिद्ध संत हैं,समय को पहचानते हैं,अतः उपयुक्त मुहूर्त जानकर,जनक जी का हित करने के लिए,राम जी को धनुष को उठाने,प्रत्यंचा चढ़ाने,तोड़ने की आज्ञा दे देते हैं। निष्काम कर्मयोगी होने के नाते,राम जी गुरु की आज्ञा पालन करने के लिए,पर हित में,अत्यंत स्वाभाविक मानसिक स्थिति में रहते,धनुष की ओर बढ़ने लगते हैं।सभी भद्र जन उनकी सफलता के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगते हैं:- बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥ उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥ सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥ ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥ दो0-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग। बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥ नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥ मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥ भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥ गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥ सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥ चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥ बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥ तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥
- धनुषयज्ञ प्रकरण में सुनयना जी का वात्सल्य- विषाद:-गुरु जी का राम जी को कठोर शिवधनुष तोड़ने की आज्ञा देना,सुनयना जी को अच्छा नहीं लगा। वह अपनी सखी से अपने विचार प्रकट करती हैं ।सुनयना जी के विचारों से वात्सल्य प्रेम के कारण स्त्री हृदय में उत्पन्न कोमलता का सुंदर चित्रण हुआ है।उनको जनक जी और गुरु जी द्वारा- राम जी के लिए भी धनुष तोड़ने की शर्त लगाना, अविवेक पूर्ण कार्य दिखाई देने लगा:- रामहिं प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ। सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥ सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे॥ कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥ रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥ सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥ भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥ टिप्पणी :-वे अपनी मुख्य सखी से अपने विचार प्रकट करते हैं।सखी उनको रामजी की अलौकिकता कि ओर ध्यान दिलाकर, शंका का समाधान करती है:- बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥ कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥ रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥ दो0-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब। महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥ काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥ देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी॥ सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥ टिप्पणी-इधर श्री सीता जी का मन भी धनुष की कठोरता और राम जी की कोमलता के स्मरण से चंचल होता है और वे और वे जिस किसी देवता(पंचदेवों) से सहायता की विनती करने लगती हैं:- तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥ मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥ करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥ गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥ बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥ दो0-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥ भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥
- धनुषयज्ञ मंडप में उपस्थित जनमानस का मनोविज्ञान:-राम जी को धनुष के निकट पहुंचा देख सभी की निराली मनोदशा हो जाती है। आदिशक्ति,शक्तिमान से अलग होने के कारण,बभिन्न शंकाओं से पीड़ित हो,जिस किसी से प्रार्थना कर रही है।सीता जी को ज्ञात है कि इस धनुष की महिमा का तात्विक कारण उसमें उपस्थित दधीच ऋषि के एक उप- प्राण की उपस्थिति है अतः उसी से कहती हैं-कि भगवान राम को पहचानो,धनुष की गरुता,कठोरता को समाप्त करो और इनके हाथों धनुष तुड़वा कर अपने को मुक्त कर लो।जानकी जी की व्याकुलता बढ़ते देख रामजी ने धनुष को ऐसे देखा-जैसे उसका तोड़ना उनके लिए खिलवाड़ है । लक्ष्मण जी न,राम जी की दृष्टि की भाषा पढ़ ली अतः समष्टि की आत्मा होने के कारण, सृष्टि के संचालक शक्तियों को धनुष टूटने के प्रभाव को संतुलित रखने के लिए सावधान कर दिया।यज्ञशाला में उपस्थित लोग सांस रोककर,चित्र लिखे से,स्तब्ध हो,अंतिम परिणाम देखने के लिए व्याकुल हो उठ।सर्व आत्मा राम जी,सीता जी सहित सभी भक्तों की बेचैन मनोदशा का अनुभव कर रहे हैं:- देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥ भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥ नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥ अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥ सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥ कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥ बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥ सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥ निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥ अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं॥ दो0-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल। खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥258॥ गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥ लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥ सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥ तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥ तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी॥ जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू॥ प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥ सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे॥ दो0-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु। पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥259॥ दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥ रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥ चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥ सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥ भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥ सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥ संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई॥ राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥ दो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि। चितइ सीय कृपायतन जानी विकल विशेखि।।260।।
- धनुषयज्ञ में धनुष तोड़ना, भक्तवत्सल रामजी की विवशता:-भक्तों की,विशेषकर सीता जी की मनोदशा देखकर,रामजी को लगा कि अब धनुष तोड़ने में विलंब करना, आवश्यक कर्तव्य से चूकना होगा।यदि भावावेग में किसी भक्त का कुछ अनर्थ हो गया,तो जैसे मरने के बाद अमृत की,तथा खेती सूख जाने पर वर्षा की, कोई उपयोगिता नहीं रह जाती,वैसे ही धनुष तोड़ना व्यर्थ हो जाएगा।तात्विक दृष्टि से सीता-राम जी का मन सदा एक है।किंतु तुलसी आध्यात्मिक सत्य दिखाना चाहते हैं,कि मन का मोह भगवत कृपा से ही दूर होता है,और वह तभी होती है जब शरणागत भक्त सीता जी की तरह अनन्य चेता होकर भगवान का स्मरण करता है:- राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि। चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥260॥ देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥ तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥ का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥ अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥ टिप्पणी :-श्री राम जी ने मन ही मन गुरु जी को प्रणाम कर सहजता से धनुष उठाया,प्रत्यंचा चढ़ाई और जैसे ही डोरी को खींचा धनुष मंडलाकार हो टूट गया।तीनों कृत्य इतनी शीघ्रता से हुए कि लोग उसे ठीक से देख नहीं सके।केवल शिव धनुष टूटने की भीषण ध्वनि के गूंज ही सुना।शब्द शक्ति के प्रवाह से सृष्टि की संचालक शक्तियां,जिन्हें लक्ष्मण जी पहले ही सावधान कर चुके थे,एक बार लड़खड़ा गई।रामजी ने धनुष के दोनों खंडों को मंच के बगल में डाल दिया:- गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥ दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥ लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥ छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥ सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही॥ टिप्पणी:-जिन लोगों की वासनाएं स्वार्थ वश धनुष से जुड़ी जुड़ी थी,वे सब निराश हो गए।जिन लोगों की शुभकामनाएं राम जी से संबंधित थीं ,वे अत्यंत हर्षित हो उठे।वे चाहे विश्वामित्र जी हों, चाहे ब्रह्मा जी,देवता,सिद्ध ,मुनि आदि हो सब अपनी-अपनी प्रसन्नता का प्रदर्शन अपने-अपने ढंग और सामर्थ्य के अनुसार करने लगे:- सो0-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु। बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥261॥ प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥ कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥ रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥ बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥ ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥ बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥ रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥ मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥ दो0-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर। करहिं निछावर लोग सब हय गय धन मनी चीर।।
- धनुषयज्ञ प्रकरण में धनुष टूटने पर आनंद की लहर और राम जी के गले में जयमाल:-धनुष टूटते ही दैवी-प्रकृति में आनंद की लहरें उठने लगीं। जनता के बीच झांझ, मृदंग,भेरी,दुंदुभी आदि बाजे बजने लगे।स्थान-स्थान पर स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं।हिंदुओं में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के नृत्य करने की परंपरा नहीं थी।जो रानियां निराश होकर कुम्हला रही थी, मानो धान की फसल सूख रही हो,वे धनुष टूटने से वर्षा का पानी पाकर लहलहाने( प्रसन्न )लगीं।जनक जी की बेचैनी पानी में डूब रहे व्यक्ति जैसी थी,वे धनुष टूटते ही वह सुख पाने लगे जो डूबते व्यक्ति को किनारा मिलने से होता है ।राजे जो अपने अहम का प्रदर्शन कर रहे थे,वे वैसे ही श्री हीन हो गए जैसे अंधेरे में प्रकाश दिखाने वाला दीपक धूप में श्री हीन हो जाता है।सीता जी का आनंद उस चातकी के सुख के समान है,जो उसे स्वाति का जल पाने से होता है ।इससे जगत जननी अपने बच्चों को शिक्षा दे रही,हैं कि भगवान के कृपा जल से से ही तुष्ट होना,जिस किसी जल (विषय आनंद)से नहीं।लखन जी राम जी को एकटक उसी तरह देखने लगे, जैसे चकोर सावक पूर्णमासी के चांद को देखता है।जनक जी के पुरोहित सतानंद जी ने उचित समय जानकर,सीता जी को ,राम जी के पास जाकर,अगला वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न करने का निर्देश दे दिया:- बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर। करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥ झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥ सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥ जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥ श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥ सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥ रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥ सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥ टिप्पणी:-सीता जी जयमाल हाथ में लिए सखियों से घिरी हुई राम जी के पास पहुंच तो गईं लेकिन समाधिष्ठ होकर,स्तब्ध हो गई।समझदार सखी ने हिलाकर सचेत करते हुए कहा!अब क्यों खड़ी हो! माला पहनाओ!सीता जी के हाथ जयमाल पहनाते ऐसे लग रहे हैं-मानो दोनों हथेलियां दो कमल के फूल हैं,और दोनों हाथ कमलनाल हैं,लेकिन हस्त- कमल को संकोच हो रहा है कि राम जी के मुखचन्द्र संसर्ग से कहीं कमल बंद न हो जाय हो जाय। सखियां लोकगीत के माध्यम से,सीता जी को जय माल पहनाने की कला समझाती जाती हैं और अंततोगत्वा सीता जी ने राम जी के गले में जयमाल डाल दी:- दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार। गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥263॥ सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥ कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥ तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥ जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥ चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥ सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥ सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥ सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन। सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264।।
- जानकी विवाह प्रकरण में उत्पन्न विभिन्न दृश्य:- जयमाल पड़ते समय,जो आनंद का व्यक्तिकरण स्तब्ध हो गया था,वह दूने उत्साह से पुनः क्रियाशील हो उठा।तीनों लोकों में में आनंद-स्रोत फूट पड़ा। वेदपाठ भी हो रहे हैं बंदीजन कुल की विरुदावली गा रहे हैं।पुर नर-नारि जो जहां है वहीं से आरती कर रहा है और अपनी मर्यादा से अधिक धन निछावर कर रहा है।पूरे आनंद केलिये तुलसी के शब्दों को देखना चाहिए।सामान्यतः पूज्यनीय को माला पहनाकर चरण स्पर्श किया जाता है,किंतु आनंद के अतिरेक में सीता जी यह भूल गईं।अतः सखी ने उसके लिए उन्हें सचेत किया।किंतु अहिल्या जी की सद्गति का स्मरण कर सीता जी पैर छूने में हिचकिचाती हैं,क्योंकि भक्त सामीप्य मुक्ति चाहता है,सायुज्य मुक्ति नहीं:- रघुवर उर जय माल देखि देव बरिसहिं सुमन। सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥ पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥ सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥ नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥ महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥ करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥ सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥ सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥ दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि। मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥ टिप्पणी:-एक ओर दैवी प्रकृति के लोग अत्यंत आनंदित हो रहे थे,तो दूसरी ओर आसुरी प्रकृति वाले युद्ध की तैयारी करने लगे।लड़ाई का वातावरण बनते देख,सीता जी को सखियां सुनैना जी के पास लिवा ले गईं।राम जी भी स्वाभाविक रूप से गुरुजी के पास चले गए।लक्ष्मण जी अपने स्वभाव के अनुसार राजाओं को क्रोध पूर्ण दृष्टि से घूरने लगे,किंतु राम जी के अनुशासन के कारण शांत रहे:- तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥ लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥ तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥ जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥ साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥ बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥ दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु। लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥ बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥ जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥ लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥ हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥ कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥ रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥ रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥ भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥ दो0-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप। मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥267॥ खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।।
- जानकी विवाह प्रकरण में परशुराम जी का जी का प्राकट्य:-धनुष भंग के कारण सर्वत्र ब्याप्त ध्वनि सुनकर,परशुराम जी आकाश मार्ग से आकर प्रकट हो गए ।तुलसीदास जी ने पूर्व रामायणों से हटकर इसी अवसर पर परशुराम जी को प्रकट करा दिया है,जो विशेष शिक्षाप्रद है । परशुराम जी आवेशावतार हैं जिनका कर्तव्य पूर्ण अवतार हो जाने तक, दुष्ट राजाओं को नियंत्रणमें रखना निर्धारित है।परशुराम व विश्वामित्र दोनों का जन्म मैथुनी सृष्टि के अनुसार न होकर चारु आधारित ऋषि सृष्टि से संबंधित है।विश्वामित्र जी की मां और परशुराम जी की दादी मां-बेटी थीं और उन लोगों के द्वारा चारुकी आपस में अदला-बदली कर लेने से विश्वामित्र में ब्राह्मणों के गुण और परशुराम जी में क्षत्री के गुण प्रकट हो जाते हैं। परशुराम जी की वेशभूषा में भी उनका दोहरा व्यक्तित्व झलकता है - वीर व्यक्तित्व भी और मुनि व्यक्तित्व भी:- तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥ देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥ गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥ सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥ भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥ बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥ कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥ दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप। धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥ टिप्पणी:-परशुराम जी का प्रभाव दुष्ट राजाओं में भय पैदा करने वाला था और सज्जनों के बीच आदरणीय मुनि जैसा।अतः उनके आते ही सब उपद्रवी राजे भय के कारण शांत हो गए।वहां उपस्थित सब लोग अपना-अपना परिचय देकर परशुराम जी के सामने,दंड प्रणाम करने लगे। जनक जी ने भी आकर स्वागत में प्रणाम किया, और सीता जी का परिचय देकर प्रणाम कराकर आशीर्वाद दिला दिया।यूं तो परशुराम जी विश्वामित्र जी के भांजे के पुत्र हैं,किंतु आध्यात्मिक जगत में दोनों को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है।तदनुसार दोनों महापुरुष आपस में भेंट करते हैं।विश्वामित्र जी अपने शिष्यों राम-लक्ष्मण का परिचय देकर चरणों में प्रणाम कराया।परशुराम जी दोनों को आशीर्वाद देते हैं।राम जी की ईश्वरता से प्रभावित हो उन्हें एकटक निहारने लगते हैं:- देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥ जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥ जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥ आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥ बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥ रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥ रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥ टिप्पणी:-अब परशुराम जी वह लीला प्रारंभ करते हैं जिसके लिए वह आए हैं।जनक जी से पूछते हैं, कि यह भीड़ क्यों इकट्ठा है? जनक जी उत्तर देना प्रारंभ करते हैं,तब तक उनकी दृष्टि शिव धनुष के टूटे के टूटे खंडों पर पड़ जाती है।गुरुजी के चाप को टूटा देखकर परशुराम जी क्रोधित हो उठते हैं,और कठोर शब्दों में गर्जना करते हैं-कि चाप तोड़ने वाले को सामने लाओ,अन्यथा जहां तक तुम्हारा राजपाट है ,उसे उलट-पुलट कर डालूंगा। जनक परिवार,देवता,मुनि तथा सीता जी सहित सभी नर-नारी भयभीत हो उठते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने,सीता जी को विशेष भयभीत देखकर, सामने आकर, सामने आकर ,अपने व्यक्तित्व के अनुसार मोर्चा संभाला:- दो0-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥ पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥ समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥ अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥ बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥ अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥ मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥ दो0-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु। हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270
- जानकी विवाह प्रकरण में परशुराम लीला:-श्री राम जी,परशुराम जी जैसे क्रोधी व्यक्ति को विनम्रता पूर्वक उत्तर दे रहे हैं ।उनको नाथ कहके संबोधित करते हैं,और कहते हैं कि धनुष तोड़ने वाला कोई आपका सेवक ही होगा,शिव से शत्रुता रखने वाले ने उनका धनुष नहीं तोड़ा है। बताइए उसके लिए क्या आज्ञा है।माने घुमा कर बता दिया कि धनुष तोड़ने वाले हम ही हैं । परशुराम जी गुस्से में आकर कहते हैं कि सेवक तो वह होता है जो सेवा करता है,गुरु का धनुष तोड़ने वाला सेवक कैसे हो सकता है,वह तो शत्रु होगा।उसको समाज से अलग करो अन्यथा सब राजे मारे जाएंगे । बीच में लक्ष्मण जी बोलने लगते हैं,और परशुराम -लक्ष्मण संवाद शुरू हो जाता है,जो रामलीला के अवसर का सबसे जनप्रिय प्रसंग है।कुछ लोग उसे ब्राह्मण-क्षत्री के झगड़े के रूप में भी देखते हैं। किंतु तुलसी ने इसे आध्यात्मिक शिक्षा के रूप में यहां जोड़ा है।लक्ष्मण जी कहते हैं कि बचपन में तमाम धनुहीं बनाया और तोड़ा है,तब तो आपने ऐसी गुस्सा कभी नहीं किया। इस कथन के अंतरंग में परशुराम के जीवन का एक रहस्य छिपा है। शिव धनुष की तुलना धनुही से करने पर परशुराम जी का गुस्सा और भड़क जाता है। वास्तव में परशुराम जी के क्रोध-मनोविकार की चिकित्सा के लिए उसको पहले उभारना आवश्यक है,इसीलिए यह लीला है।आवेशावतार पूर्ण अवतार के संसर्ग में आया है,तो उसको सत्संग का कुछ लाभ तो मिलना ही चाहिए:- नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥ आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥ सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥ सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥ सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥ सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥ बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥ दो0-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥ धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥ टिप्पणी:-लक्ष्मण जी परशुराम जी की क्रोधाग्नि में शब्दों की आहुति देकर उसे और भड़काते हैं। परशुराम जी अपने द्वारा क्षत्रियगुण के कारण किए उग्र कर्मों का,अपने मुख से ही वर्णन करते हैं ।वास्तव में उन कर्मों को भगवान ने ही निश्चित अवधि तक करना निर्धारित किया था,उसका समय पूरा हो चुका है।जन्म प्रक्रिया से उत्पन्न क्षत्रित्व का दोष आ गया था उसकी निवृत्ति होनी है:- लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥ का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥ छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू । बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥ बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥ बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥ भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥ दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर। गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥ टिप्पणी:-लक्ष्मण जी पहले उनका ध्यान उनके दोहरे आध्यात्मिक व्यक्तित्व की ओर दिलाते हैं, और कहते हैं कि उत्तम ब्राम्हण भृगुकुल में पैदा होने के कारण आप पूज्य हो,इसलिए हम आपका आदर कर रहे हैं।हम स्वयं क्षत्रिय हैं,अतः तुम्हारे क्षत्रियगुणों को देखकर हमारा वीरत्व जागृत होता है-वीरता का डर हमें मत दिखाओ। ब्राह्मण को हथियार रखने की आवश्यकता कहां है?वह तो मंत्र दृष्टा है और शब्द-शक्ति से ही किसी का विनाश कर सकता है।इसका रहस्य जानकर आज के ब्राह्मणों को जप द्वारा अपनी शब्द शक्ति को जाग्रत रखकर, सज्जनों के उत्थान और दुष्टों के विनाश में उसका सदुपयोग करना चाहिए:- बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥ इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥ देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥ भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥ बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥ कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥ दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥273
- जानकी विवाह प्रकरण में परशुरामलीला-3:- परशुराम जी की क्रोधाग्नि प्रज्वलित है,और उसमें बराबर लक्ष्मण जी के कटाक्ष वचनों की आहुति पड़ रही है।परशुराम जी विश्वामित्र जी का सहारा लेकर बात बढ़ने से रोकना चाहते हैं,किंतु लक्ष्मण जी बीच में ही टोका-टाकी कर वातावरण को गरमा देते हैं:- कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥ भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥ काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥ तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥ लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥ अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥ नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥ बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥ दो0-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥274॥ टिप्पणी:-परशुराम का क्रोध बढ़ जाता है,और वे फरसा लेकर हमला करने की मुद्रा में आ जाते हैं। अब विश्वामित्र जी परशुराम जी को यह कहकर शांत करते हैं,कि साधु पुरुष बालकों की भली-बुरी बातों की ओर ध्यान नहीं देते।परशुराम जी कुछ शांत तो होते हैं,किंतु फिर भी अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं - कि गुरु द्रोही सामने है, कुठार हाथ में है,फिर भी विश्वामित्र जी आपके कहने से इसे छोड़ता हूं,अन्यथा इसे मारकर गुरु ऋण से मुक्त हो जाता। विश्वामित्र जी मन ही मन सोच रहे हैं कि परशुराम जी अभी अवतारी राम को पहचान नहीं पा रहे हैं,और उन्हें उन दुष्ट क्षत्रिय राजाओं की श्रेणी में ही मान रहे हैं,जिन्हें वे अभी तक मारते रहे हैं:- तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥ सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥ अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥ बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥ कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥ खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥ उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥ न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥ दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ। अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥ टिप्पणी:-लक्ष्मण जी फिर कटाक्ष करते हैं।माता पिता के ऋण से मुक्त होने की कथा से सब परिचित हैं।लगता है कि गुरू से ऋण हमारे बलबूते पर ही ले रखा है।गुरु शंकर जी से शिक्षा लिए बहुत समय बीत गया है,अतः ब्याज का हिसाब-किताब लंबा हो गया होगा। किसी ब्याज के गणितज्ञ को बुलाओ,तो हम अपने धन की थैली खोलकर सब ऋण अदा कर दें।कटु वचन सुनकर परशुराम जी ने फरसा पुनः संभाला। लखनलाल के कटाक्ष से बढ़ती कटुता सभा में उपस्थित लोगों को अच्छी नहीं लगी,अतः उसे अनुचित कहा।राम जी ने जनमानस का आदर करते हुए लक्ष्मण जी को शांत रहने का इशारा किया,और परशुराम जी को अपनी शीतल वाणी से शांत करने का प्रयास करने लगे:- कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥ माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥ सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥ अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥ सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥ भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥ मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥ अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥ दो0-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु। बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276।।
- जानकी विवाह प्रकरण में परशुराम लीला-४:- भगवान राम,परशुराम जी से कहते हैं- कि हे नाथ यह बालक अभी दुधमुहा बच्चा है ,इस पर कृपा कीजिए ।गूढ़ अर्थ में परशुराम जी को प्रभु भी संबोधित करते हैं और कहते हैं,यह बालक आपके प्रभाव को नहीं जानता।यदि बालक उपद्रव करते हैं,तो बड़े-बूढ़े उनकी उपेक्षा कर देते हैं ।क्रोध अहंकार से उत्पन्न होता है।राम जी के वचनों से परशुराम जी का अहंकार तृप्त होने से क्रोध भी कुछ शांत हुआ,लेकिन लखनलाल को हंसते देख परशुराम जी ने कहा-यह दुधमुहा नहीं बिषमुहा है। स्वभाव से टेढा है,तुम्हारा अनुसरण नहीं कर रहा है:- नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥ जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥ जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥ करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥ राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥ हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥ गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥ सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥ दो0-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥ टिप्पणी:-लखन ने हंसकर कहा कि क्रोध से पाप कर्म होने लगते हैं।आध्यात्मिक अर्थ में परशुराम जी क्रोध के वशीभूत हो,अपने गुरु शंकर जी के इष्ट राम का अपमान कर रहे हैं।लखन कह रहे हैं कि हम तो आपके अनुचर हैं।आप जब से आए हैं खड़े ही हैं,थक गए होंगे,बैठ जाएं!अगर धनुष अत्यंत प्रिय है,तो किसी कुशल कारीगर को बुलाकर जुड़वाया जा सकता है। जनक जी भी शांति चाहते हैं,अतः लक्ष्मण जी से कहते हैं,कि अब चुप भी हो जाओ इस तरह किसी को चिढ़ाना उचित नहीं।जनकपुर वासी भी अनर्थ की संभावना से सहमे हुए हैं। परशुराम जी,राम पर एहसान जताते हुए कहते हैं, कि तुम्हारे भाई होने के नाते हम इसे मारने से छोड़ रहे हैं।इस पर लक्ष्मण जी फिर मुस्कुराते हैं, तो राम जीने आंख दिखाकर डांटा और वे चुप हो गए:- मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥ टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥ जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥ बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥ थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥ भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥ बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥ मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥ दो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम। गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥ टिप्पणी:-राम जी फिर शीतल वाणी वाणी शीतल वाणी वाणी फिर शीतल वाणी वाणी शीतल वाणी वाणी में बोले- महाराज बालकों की उपेक्षा करना ही ठीक होता है,आपका अपराधी तो मैं हूं, कृपा -क्रोध-बध जो भी करना हो,अपना सेवक जानकर मुझे दंड दीजिए। जिससे आप का क्रोध शांत हो वही का क्रोध शांत हो वही क्रोध शांत हो वही करें। परशुराम जी कुछ शांत तो तो कुछ शांत तो तो हो रहे हैं,लेकिन पूरी तरह नहीं।वह अपने ऊपर ही आश्चर्य करते हुए कहते हैं-कि जिस फरसे के प्रभाव से दुनिया काँपती है,उसके हाथ में रहते,एक राजकुमार हमसे वैरी की तरह बातें कर रहा है,और जिंदा है?:- अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥ सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥ बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥ तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥ कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥ कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥ कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥ एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥ दो0-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर। परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥
- जानकी विवाह प्रकरण में परशुराम लीला-५:- परशुराम जी अपने बदले व्यवहार पर स्वयं आश्चर्य व्यक्त करते हैं - एक और क्रोध से जलन हो रही है,दूसरी ओर फरसा चलाने में हाथ संकोच कर रहा है! हमारे अंदर कृपा भाव कैसे उत्पन्न हो गया है !लक्ष्मण जी को अवसर मिला, और वे पुनः हंसकर उपहास करने लगे। परशुराम जी फिर जनक जी को बीच में डालकर,चर्चा बंद करना चाहते हैं:- बहइ ना हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥ भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥ आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥ बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥ जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥ देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥ बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥ बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥ दो0-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु। संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥ क्रोध में परशुराम जी को, राम जी में भी दोष दिखाई देने लगे।राम के मना करने पर भी लक्ष्मण का उपहास करते रहने से, परशुराम जी को लगा कि दोनों भाइयों में मिलीभगत है और मिलकर हमारा उपहास कर रहे हैं।अतः राम जी को युद्ध के लिए ललकारा। राम जी इतने पर भी सिर झुका कर,विनम्रता पूर्वक कहते हैं, कि आपके फरसे के सामने यह सिर झुका है,जैसे आप का क्रोध शांत हो वह कर लीजिए।हम क्षत्रिय हैं,आपके सेवक हैं, मालिक और सेवक के बीच युद्ध कैसे हो सकता है।राम जी तत्त्वज्ञान की ओर इशारा करते हुए सावधान करते हैं- कि आपको दुष्ट राजाओं को विनाश करने का अधिकार पूर्ण अवतार होने तक के लिए दिया गया था,"अनुगामी" पूर्ण अवतार सामने खड़ा है! पहचानो!:- बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥ करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥ छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥ भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥ गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥ टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥ राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥ जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥ दो0-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु। बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥ टिप्पणी:-रामजी कहना चाहते हैं,कि क्षत्रित्व को त्याग कर अपने ब्राह्मणों के गुणों की रक्षा करो! यदि आप क्षत्री के लक्षण फरसा और धनुष धारण किए न होते,तो क्षत्री बालक में वीरत्व के भाव संचार ना हुआ होता।यदि आप केवल विप्र के लक्षण धारण किए होते,तो लक्ष्मण पैरों पड़ता।हम आपसे विप्र होने के नाते बिना युद्ध के ही हार स्वीकार करते हैं।हम तो केवल एक डोरी वाला धनुष धारण करते हैं,आप 9 गुणों-शम,दम,क्षमा, शोच,तप,सरलता,आस्तिकता,ज्ञान,विज्ञान(गीता 18.42)के प्रतीक 9 डोरी वाला वाला जनेऊ धारण करते हैं,अस्तु श्रेष्ठ हैं।परशुराम जी को राम जी के शब्दों में,ब्राह्मण के नाते दया की भीख दिखाई पड़ती है,जो उन्हें स्वीकार नहीं है:- देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥ नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥ जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥ छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥ हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥ राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥ देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥ सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥ दो0-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम। बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥282
- 99जानकी विवाह प्रकरण में परशुराम लीला-६:- भगवान राम ,परशुराम जी को बार-बार मुनिवार, मुनिनायक तथा विप्र आदि शब्दों का प्रयोग कर उनमें ब्राह्मणत्व का गौरव जागृत करना चाहते थे, पर उसका प्रभाव उल्टा हो रहा था।समस्या यह थी कि परशुराम के हृदय में ब्राह्मणत्व के प्रति हीन भाव और अपने अंदर आगंतुक छत्रित्व के प्रति श्रेष्ठ भाव था।अतः रामजी से कहते हैं कि तुम मुझे निरा-निरा, सीधा-साधा ब्राह्मण समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हो,और धनुष तोड़ कर अपने को बड़ा भारी योद्धा समझ रहे हो।मैं ऐसा ब्राह्मण हूं वह सुनो!और उन्होंने फिर अपनी वीरता का वर्णन किया:- निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥ चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥ समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥ मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥ मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥ भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥ राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥ छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥ टिप्पणी :-रामजी गूढ भाषा में परशुराम जी को अंतर्मुखी चिंतन के लिए विवश करते हुए,कहते हैं कि-यदि हमें कॉल भी युद्ध के लिए ललकारे तो भी हम उससे निडर होकर युद्ध करेंगे।यह हमारे रघुवंश और क्षत्रित्व का स्वाभाविक धर्म है।क्षत्रिय कभी युद्ध से नहीं डरता न भयवश किसी की हाथ जोड़ कर सिर झुकाता है। देवता गाय व ब्राह्मण हमारे लिए पूज्य हैं हम उनका संरक्षण करते हैं, उन पर हम वीरता नहीं दिखाते।अतः अपने क्षत्रिय धर्म- विप्रपूजा की रक्षा के लिए आपके सामने सिर झुका रहे हैं।ईश्वरी व्यवस्था में आध्यात्मिक विकास की श्रेष्ठता के कारण,ब्राह्मण को वह स्थान प्राप्त है, कि जो इनका आदर करता है वह निर्भय होकर स्वधर्म पालन करते, हुए संसार सागर को पार कर जाता है:- दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ। तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥ देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥ जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥ छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥ कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥ टिप्पणी:-अब परशुराम जी की चेतना जागृत हो गई और उन्हें पुरानी घटना का स्मरण हो आया। पुराणों में एक कथा आती है, कि जब परशुराम जी गंधमादन पर्वत पर तपस्या कर ,शिवजी से धनुर्विद्या सीख रहे थे,तो उनके बल आधिक्य के कारण प्रायः धनुष टूट जाया करते थे(लक्ष्मण जी,प्रारंभिक संवाद में, इसी घटना की ओर संकेत कर रहे थे, जिसे परशुराम जी जी नहीं समझे)।इस पर शिवजी ने उन्हें वही धनुष दिया जिसे रामजी ने तोड़ा ने तोड़ा है।परशुराम जी इस धनुष पर डोरी भी नहीं चढ़ा सके थे।तब शिवजी ने आज्ञा दी, कि अब तुम भगवान विष्णु की आराधना कर, उनसे धनुष प्राप्त करो!परशुराम जी की तपस्या से प्रसन्न हो, भगवान विष्णु ने उन्हें अपना सारंग धनुष दे दिया और कहा-कि इसकी सहायता से हमारे अवतार होने तक पृथ्वी पर सुव्यवस्था बनाए रखो!हमारी अवतारी विग्रह के पास यह धनुष स्वत: ही चला आएगा और तब तुम हमें पहचान लेना,तथा समझ लेना कि तुम्हारे कर्तव्य पालन का कार्यकाल पूरा हो गया है। इस घटना का स्मरण होते ही परशुराम जी को आभास हो गया,कि संभवतः राम जी अवतारी पुरुष है।उन्होंने तुरंत निश्चयात्मक परीक्षण के लिए उनसे अपने धनुष पर डोरी चढ़ाने का निवेदन किया।धनुष स्वता ही राम जी के पास चला गया:- बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥ सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥ राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥ देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥ दो0-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात। जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥284॥ टिप्पणी:-परशुराम जी को राम जी के अवतारी होने का विश्वास हो गया उनका ह्रदय प्रेम से भर गया। उन्होंने हाथ जोड़कर राम जी की बड़ी सुंदर प्रार्थना की और भगवान की जय जयकार करते हुए गंधमादन पर्वत पर जाकर,तपस्या करने लगे। ऐसी मान्यता है कि आज भी वहीं पर तपस्या कर रहे हैं।कहा जाता है कि उन्होंने दुष्ट राजाओं से पृथ्वी को छीन कर उस पर यज्ञ किए थे।और उसे कश्यप ऋषि को दान में दे दिया था,अतः वे रात में पृथ्वी पर नहीं रुकते।परशुराम जी के जाते ही सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और पहले की तरह नाना प्रकार के उत्सव होने लगे:- जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥ जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥ बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥ सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥ करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥ अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥ कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥ अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥ दो0-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल। हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285।।
- जानकी-राम विवाह अवसर पर जनकपुरी की हलचल:-परशुराम जी ने सिद्ध कर दिया कि राम जी अवतारी पुरुष हैं।परशुराम जी के जाते ही जनकपुरी का वातावरण तनाव मुक्त हो गया और उपद्रवी राजे भी शांत हो गए ।सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई ।भगवान के ऊपर फूल बरसने लगे।जनकपुर के सब स्त्री पुरुष प्रसन्न हो गए।जनक जी भी अति प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी के पास आए।उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करी,और आगे के लिए मार्गदर्शन की प्रार्थना की:- अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥ जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥ सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥ गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥ जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥ टिप्पणी:-विश्वामित्र जी ने स्पष्ट कर दिया कि यद्यपि शास्त्र सम्मत रीति से तो विवाह हो गया है, किंतु सारे समाज को इस यज्ञ कार्य में भागीदार बनाने के लिए वंश परंपरा के अनुसार उत्सव की सुव्यवस्था करो!सारे कार्यक्रम शास्त्र,गुरु,विप्र तथा कुलवृद्धों के अनुशासन में होने चाहिए!सबसे पहले दूतों को अवधपुर भेजो,जो राजा दशरथ को बुला कर लाएँ, क्योंकि वे ही सारे उत्सव के केंद्र में हैं ।राजा जनक ने इस आज्ञा का पालन तुरंत कर दिया।राजा जनक ने नगर के महाजनों को बुलाकर सारे देवालय,सड़कें, हॉट-बाजार सजाने- संवारने की आज्ञा दे दी:- कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥ टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥ दो0-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु। बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥ दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥ मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥ बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥ हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥ हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥ रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥ पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥ टिप्पणी:-सजावट का वर्णन और उसका समझना हमारे लिए कठिन है।सारी सजावट व दृश्य प्राकृतिक रूप में और मंगलमय हैं किंतु उनके निर्माण की सामग्री व सजावट में सोना,हीरे जवाहरात व मणियों का प्रयोग इस तरह किया गया है कि वे चिरकाल तक सारे दृश्य नवीन ही दिखते रहें।उस का आनंद लेने के लिए धैर्य पूर्वक शब्दकोश के साथ मानस को पढ़ना पड़ेगा:- बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥ दो0-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल। रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥287॥ बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥ कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥ तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥ मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥ किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥ सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥ चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥ दो0-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥ हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥ पूरे राजमहल को विवाह मंडप के योग्य सजाया-संवारा गया।जितनी भी मंगल-सामग्री किसी मंडप में हो सकती है -जैसे बंदनवार,कलश, दीपक आदि सब दिव्य रूप में संवार कर उससे जनक महल भर दिया गया है।जिस मंडप में दुल्हन आदिशक्त सीताजी हों और दूल्हा जगतपिता रामजी हों उसकी दिव्यता का वर्णन करने में सरस्वती जी और शेष जी भी असमर्थ हैं, तब कोई कवि उसे कैसे कह सकता है, नगर के सारे ग्रह राजमहल की तरह ही सजा दिए गए।आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के घरों की संपदा और वैभाव इंद्र को भी मोह पैदा करने वाला था फिर राजमहल की शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है :- रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥ मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥ दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥ जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥ दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥ जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥ जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥ जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥ दो0-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥ तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289।।
- श्री राम विवाह की सूचना से अयोध्या धाम की हल-चल:- जनकपुर के दूत अयोध्या धाम के राज द्वार पर पहुंच गए।राजा दशरथ को सूचना मिली।दूतों को अंदर बुलाया गया।राजा जी ने प्रसन्नता के अतिरेक में राज दरबार के सामान्य चलन से हटकर, स्वयं पत्र लेकर पढ़ने लगे।ऐसा लगता है कि धनुष यज्ञ की उड़ती खबर अयोध्या पहुंच चुकी थी ।दशरथ जी के मन में राम-लखन की रूप है,गला रुँधा हुआ है,और हाथ में पत्र है,लेकिन भावावेश में पढ़ नहीं पा रहे हैं। अपने को किसी प्रकार संभाल कर दशरथ जी ने सभामें चिट्ठी पढ सुनाई ।लोगों ने स्वयंवर संबंधी खबरों का सच पाया और वे अत्यंत हर्षित हो उठे।भरत-शत्रुघ्न मित्र मंडली में खेल रहे थे।उनको भी जनकपुर के दूतों के आने की सूचना मिली तो वे दौड़कर सभा में आ गए और मर्यादा की रक्षा करते हुए,पिताजी से पत्र के बारे में पूछ।प्रसन्नता के अतिरेक में दशरथ जी ने पुनः पत्र पढ़कर सुना दिया।दोनों भाइयों के हर्ष की सीमा न रही:- पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥ भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥ करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥ बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥ रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥ पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥ खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥ पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥ दो0-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस। सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥ सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥ प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥ टिप्पणी:-राजा दशरथ ने दूतों को बुलाकरअपने निकट बैठा लियाऔर पुत्रों के प्रेम में विवह्वल हो उनसे आंखों-देखा हाल पूछने लगे।। यह भी जानना चाहा कि जनक जी ने उन्हें किस रूप में पहचाना:- तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥ भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥ स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥ पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥ जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥ कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥ टिप्पणी:-पुत्र प्रेम देखकर और दशरथ जी के प्रश्नों के वैचित्र्य से दूतों ने मुस्कराते हुए, स्वयंबर का हाल बताना प्रारंभ किया-चक्रवर्ती जी,आप जैसा भाग्यशाली कोई नहीं है,जिनके सृष्टि के विभूषण स्वरूप राम-लखन जैसे पुत्र हैं। आपके दोनों स्वयं प्रकाश पुरुष-सिंह हैं,उनके लिए आप पूछते हैं कि राजा जनक ने किस रूप में पहचाना?सूर्य-चंद्रमा पहचानने के लिए दीपक के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती!शिव धनुष की श्रेष्ठता और कठोरता बताते हुए दूतों ने कहा, कि जिसको बाणासुर जैसा बलशाली छूने की हिम्मत नहीं जुटा सका,उस धनुष को रामजी ने उसी सहजता से तोड़ दिया,जैसे हाथी कमल नाल को तोड़ को तोड़ देता है:- दो0-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ। रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥ पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥ जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥ तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥ सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥ संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥ तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥ सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥ जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥ दो0-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल। भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥292॥ टिप्पणी:-शिवधनुष के टूटने के शब्द को सुनकर परशुराम जी आए,उन्होंने अपना क्रोध भी दिखाया लेकिन राम जी के सामर्थ्य को जानकर,शारंग धनुष लौटाकर,चले गए।राम जी की तरह लखन लाल जी भी तेजवान हैं।सभी दुष्ट राजे उनके सामने कांपते थे।दूतों ने सुंदर रीति से सब घटनाक्रम का वर्णन किया,इस पर राजा दशरथ प्रसन्न होकर उनको निछावर देने लगे।दूतों ने अपने कान छूकर निवेदन किया,कि इसे लेना तो क्या सुनना भी पाप है।कन्या पक्ष के होने के नाते दूतों का ऐसा स्वाभिमान देख कर,सब को अच्छा लगा। दशरथ जी ने स्वयं गुरु वशिष्ट के पास जाकर पत्र दिया,और दूतों को उनके पास बुला कर धनुष यज्ञ का हाल सुनवाया:- सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥ देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥ राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥ कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥ देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥ दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥ सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥ कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥ दो0-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ। कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥
- श्री राम विवाह के लिए अयोध्या में बरात की तैयारी का धूम- धड़ाका:-दूतों से स्वयंवर में,राम जी की यश-गाथा सुनकर,गुरु वशिष्ठ को हार्दिक प्रसन्नता हुई।उन्होंने सुंदर नीति वचनों को उधृतकर दशरथ जी के भाग्य की सराहना की । रघुकुल के आचार्य होने पर भी , राम जी के संस्कारों और उनसे संबंधित उत्सव को हरि-सम्मत और विधि-निर्धारित मानते हैं।अतः बिना विवाह की तिथि निर्धारित किए,दशरथ को जनकपुर बरात ले चलने की आज्ञा दे देते हैं:- सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥ जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥ तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥ तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥ सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥ तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥ बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥ तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥ दो0-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ। भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥ टिप्पणी :-दशरथ जी तुरंत रनिवास पहुंचते हैं। जनक की भेजा पत्र पढ़कर रानियों को सुनाते हैं। रानियां अत्यंत प्रसन्न होकर चिट्ठी हृदय से से लगाती हैं।गुरु पत्नियां आशीर्वाद देती हैं।राजा दशरथ इस शुभ घटना को मुनि- प्रसाद की संज्ञा देकर राजदरबार- प्रसाद की संज्ञा देकर राजदरबार चले जाते हैं।रानियां दान और निछावर लुटाना प्रारंभ कर देती है।जानकी-राम के विवाह का समाचार अयोध्या में तेजी से फैल जाता है। विवाह के शुभ अवसर के उपयुक्त मंगल सूचक सजावट से पूरी अयोध्या नगरी जगमगाती है।सर्वत्र मंगल द्रव्य -सोने के कलश,वंदनवार,मणियों के दीपक,हल्दी,दूर्वा,अक्षत,फूल माला दिखाई देने लगते है:- राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥ सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥ प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥ मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥ लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥ राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥ मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥ दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥ सो0-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि। चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥ कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥ समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥ भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥ सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥ जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥ ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥ कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥ दो0-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ। बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥ टिप्पणी :-नगर की सजावट के बाद, संत तुलसी अयोध्या के नर-नारियों में व्याप्त आनंद की लहर का वर्णन करते हैं।अवतारी भगवान के साथ रहने वाले जीवो में नैसर्गिक सात्विक, दिव्य आकर्षण होता है।सुंदर युवतियां सोलह सिंगार कर,ग्रुप बनाकर,राज महल की ओर आ-जा रही हैं। वे लोक गीत गा रही हैं,जिनमें सीता राम के विवाह की सुंदर झांकी झलकती है। बंदी,मागध वंश की महानता का वर्णन कर रहे हैं।दूसरी ओर विप्र, वेद ध्वनि का उच्चारण कर रहे हैं। दशरथ जी का विशाल राज भवन आज उत्साह व्यक्त करने के लिए बौना पड़ गया है, जिसके कारण उत्साह छलक कर सारे नगर में फैल गया है आध्यात्मिक अर्थ में धनुष भंग से,मानो मोहभंग हुआ और अविद्या दूर हो गई। जिससे सत-चित- आनंद का नैसर्गिक प्रभाव सब के हृदय में फूटा पड़ रहा है:- जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥ बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥ गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥ भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥ मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥ कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥ गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥ बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥ दो0-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार। जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297।।
- श्री राम-विवाह के लिए अयोध्या में बरात की तैयारी का धूम-धड़ाका-२:- राजा दशरथ ने भरत को बुलाकर,बरात का नेतृत्व सौंप दिया।बरात का आनंद युवा वर्ग ही लेना जानता है। चक्रवर्ती सम्राट के रजवाड़े में उत्तम से उत्तम जाति के घोड़े, हाथी है। सबको बरात के योग्य सजा-सँवारकर एक स्थान पर एकत्रित किया जाने लगा।बरात में युवा राजकुमार हैं,उन्होंने अपनी- अपनी पसंद के घोड़े छाँट लिए हैं। वे वीर भेष में हैं।उनके अंगरक्षक भी साथ में है।विप्रों के लिए सुंदर पालकियाँ तैयार की गई हैं।हाथियों की सजावट और उनके लटकते हुए घंटों की गूंज से बरात में निखार आ रहा है।सजे-धजे सुंदर रथ भी भी तैयार खड़े हैं । बरात में सब श्रेणी के लोग हैं।रास्ते के लिए सभी उपयोगी वस्तुएं भी ऊँट ,बेसर, वृषभ आदि में लदी हुई हैं।जो वस्तुएं काँवरों से चलने वाली है ,उसे कहार लोग लिए हुए हैं । सब एक स्थान पर एकत्रित हुए,पूरे उत्साह और आनंद से भरे हुए, बरात चलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं:- भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥ चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥ भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥ रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥ सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥ नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥ तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥ सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥ दो0- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन। जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥ बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥ फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥ रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥ चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥ सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥ सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥ जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥ अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥ दो0-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात। होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥ कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥ चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥ बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥ तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥ मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥ बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥ कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥ चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥ दो0-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर। कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥300।।
- राम- विवाह के लिए अयोध्या से बरात का प्रस्थान:-राजमहल के सामने बरात इकट्ठा हो गई,स्थान,छोटा पड़ गया।सुमंत्र जीने दो दिव्य रथ- एक चक्रवर्ती सम्राट के योग्य और दूसरा महर्षि वशिष्ठ के योग्य, सजाकर द्वार पर लाकर खड़ा करा दिया, कुलरीतियाँ पूरी कर,राजा दशरथ ने वशिष्ठ जी को रथ पर विराजमान कराकर,स्वयं अपने रथ पर बैठे।गुरु जी से आज्ञा लेकर शंख ध्वनि कर बारात प्रस्थान कि राजआज्ञा दे दी।बरात के सब अंग भरपूर हैं ,और सभी प्रकार के मनोरंजन हो रहे हैं।लेकिन भौतिकवाद भी, आज की तरह निरंकुश नहीं है,वह आध्यात्मवाद की सीमा में नियंत्रित है। छतों पर सजी-धजी सुंदरियां मधुर लोक गीत गा रही हैं, आरती उतार रही हैं, लेकिन फूहर नाच का सर्वदा अभाव है। भगवान के विवाह में भागीदार बनने के लिए देवता भी आकाश से मंगल सूचक फूल बर्षा रहे हैं गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥ निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥ महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥ चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मंगल थारी॥ गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना॥ तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥ दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥ राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥ दो0-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु। आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥301॥ सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥ करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥ सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥ हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥ भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥ सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥ घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥ करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना । दो0-तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान॥ नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥302॥ टिप्पणी :-अपने अस्तित्व को सफल बनाने के लिए सभी शगुन,बरात के चलते ही अपना स्वरूप प्रकट करने लगे- नीलकंठ पक्षी चुगता हुआ बाएं तरफ दिखाई दिया।दाहिनी ओर एक कौवा सुंदर मैदान में दिखाई दिया।नेवला के दर्शन भी सब बरातियों ने पाए। अनुकूल दिशा में शीतल,मंद,सुगंधित वायु चलने लगी।एक सुहागिन स्त्री गोद में बालक और सिर पर पानी से भरा घड़ा लिए जाती दिखाई पड़ी। नगर के निकलते ही बार-बार लोमड़ी दिखाई दे रही है।गांव के किनारे गायें अपने बछड़े को दूध पिला रही हैं।हिरणों का झुंड बाएं ओर से घूम कर दाहिनी ओर चला गया।क्षेमकारी(एक विशेष प्रकार की चील) क्षेम-क्षेम की आवाज करती आकाश में उड़ती दिखाई पड़ती है।श्यामा नाम का पीले पैरवाला काला पक्षी बाँई और एक हरे भरे पेड़ पर बैठा दिखाई पड़ता है।सामने दही और मछली दिखाई पड़ती है।दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए दिखाई पड़ते हैं।सारे शगुन एक साथ अपने अस्तित्व की सफलता के लिए स्वाभाविक रूप से प्रकट हो रहे हैं:- बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥ चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥ दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥ सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी॥ लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥ मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥ छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥ सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥ दो0-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार। जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥303॥ मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥ राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥ सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥ एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥ टिप्पणी:-संत तुलसी ने मानस में,भक्तों को दो बरातें करवाईं हैं,और दोनों विचित्रता से भरी हुई हैं।" शिवजी की बारात" अपने वैचित्र्य के कारण मुहावरों में स्थान प्राप्त किए हुए हैं।श्री राम जी की बरात कम विचित्र नहीं है-बरात के संरक्षक ब्रह्मार्षि वशिष्ठ व चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी हैं। बरात का संचालन भक्त शिरोमणि भरत वह शत्रुघ्न जी द्वारा हो रहा है।लेकिन बरात बिना दूल्हे के है, और बारातियों में किसी को यह पता नहीं है, कि कितने दिन तक बराती बने रहना है।
- बारात का स्वागत, सत्कार और जनवासा:- अयोध्या से बरात चलने की सूचना दूतों द्वारा जनक जी को मिल गई। पूरा मार्ग सुव्यवस्थित कर दिया गया और जहां आवश्यक था नदियों पर पुल बना दिए गए।रास्ते में बारातियों को ठहरने के लिए सुंदर अतिथिग्रह बनाए गए, जिनमें स्वर्गलोक जैसी सुख सुविधायें थीं: आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥ बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥ असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥ नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥ टिप्पणी:-नगर सीमा के पास पहुंचते ही, बारात की अगवानी के लिए चक्रवर्ती सम्राट की मर्यादा के अनुकूल,सारी भेंट सामग्री लेकर अगवान वहां पहुंच गए।बारातियों ने भी जनातियों को आते देख वाद्य यंत्रों को बजाकर उनका सम्मान किया।दोनों तरफ के लोग मैदान में आमने-सामने पंतिबद्ध होकर खड़े हुए,और धीरे-धीरे बढ़ कर इतने प्रेम से मिले,मानों दो प्रेम समुद्रों की लहरें आपस में मिल रही हों। राजा दशरथ जी के सामने उपहार की वस्तुएं रखकर, सम्मान पूर्वक विनती की गई।राजा जी ने परंपरा अनुसार उपहार लेने की स्वीकृति दी:- दो0-आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान। सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥304॥ कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥ भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥ फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥ भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥ मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥ दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥ अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता॥ देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥ दो0-हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल। जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥ बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥ बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें॥ प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा। टिप्पणी:-अब जनाती लोग, रास्ते में बहुमूल्य पावणे डालते हुए ,बारातियों को जनवासे की ओर ले चले। राजा जनक की ओर से वहाँ अति सुंदर व्यवस्था की गई थी।उसके साथ सीता जी की ओर से गुप्तरीत से अलौकिक व्यवस्था का संयोग करा दिया गया था। सीता जी ने सिद्धियों को जनवासा अति सुविधाजनक बनाने की आज्ञा दे दी। सिद्धियों ने सारी व्यवस्था में ही, ऐसी दिव्यता का संयोग कर दिया, कि बारातियों को स्वर्ग जैसे आनंद का अनुभव होने लगा, लेकिन उसका रहस्य वे न जान सके। राम जी सीता जी की इस लीला को समझा, और मन ही मन अपने प्रति यह आदर पूर्ण भाव देखकर प्रसन्न हुए। दशरथ जी का आगमन जान राम लक्ष्मण उनसे मिलने के लिए आतुर तो हो उठे,लेकिन गुरु जी की मर्यादा की रक्षा करते हुए, किसी प्रकार का उतावलापन नहीं दिखाया। विश्वामित्र जी सब समझ गए,और दोनों भाइयों को लेकर राजा दशरथ के पास पहुंच गए:- करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥ बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीं॥ अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥ जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥ हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई॥ दो0-सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास। लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥ निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥ बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥ सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥ पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥ सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥ बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥ हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥ चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥ दो0- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत। उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307
- श्री राम -लक्ष्मण का अयोध्या से आई बरात के साथ सम्मिलन:-राजा दशरथ ने राम लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र जी को जनवासे में आता देख,उठ कर उन्हें दंडवत प्रणाम किया। विश्वामित्र जी ने उन्हें हृदय से लगा कर,आशीर्वाद दिया।इसके बाद राम-लक्ष्मण ने पूज्य पिता को दंडवत प्रणाम किया।दशरथ जी ने उन्हें हृदय से लगाकर अपने बियोग जनित दुसह ताप को शान्त किया।राम-लक्ष्मण जी ने इसके बाद गुरु वशिष्ठ के चरणों में सिर नवाया।अब मिलन का लंबा सिलसिला चल पड़ा -अयोध्या से आए पुरजन, जातिजन,मंत्री आदि सभी से यथा योग्य राम - लक्ष्मण जी की, प्रेम-सम्मान भरे वातावरण में भेंट होने लगी। मानो वरात को बिछड़ा हुआ वर मिल गया और उसका अधूरापन समाप्त हो गया:- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत। उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥ मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥ कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥ पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥ सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥ पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥ बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं॥ भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥ हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥ दो0-पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत। मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥ रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥ टिप्पणी:-अगवानी के लिए जनकपुर से आए लोग बरात देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। कुल आचार्य शतानंद व सचिवों के नेतृत्व में अगवानी की रीत पूरी हुई,और वे राजा दशरथ से आज्ञा लेकर अपने घरों को लौट चले। बरात लगन से 1 महीने 7 दिन पहले आ गई है, इसलिए जनता विशेष प्रसन्न है। नगर में बरात की दिव्यता और राजा दशरथ का चारों पुत्रों के साथ ऐश्वर्य का समाचार सर्वत्र फैल गया।जनता सीताराम के व्याह से उत्पन्न नाना प्रकार के सुखों की कल्पना करके,अनेक चर्चाएं करने लगी:- नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥ सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥ सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥ सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥ सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥ प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥ ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥ दो0-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज। जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥।309॥ जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥ इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे॥ इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥ हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥ जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥ पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥ कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥ बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई।।
- जनकपुर वासियों का आनंद:-बरात, संभावित लगन से पहले आ गई है,इसलिए जनकपुर वासियों को भगवान के संघ का दिव्य आनंद अनजाने ही प्राप्त होने लगा।वे आपस की बातों में अनेक मनोभावों को व्यक्त करते हैं,जैसे- महाराज दशरथ और जनक जी के समान पुण्य आत्मा और भाग्यशाली कोई नहीं है,न होगा।एक को साक्षात परमात्मा पुत्र रूप में प्राप्त हुआ है,तो दूसरे को परमात्मा की शक्ति रूपा पुत्री प्राप्त हुई है।हम लोग भी बहुत भाग्यशाली हैं,जिन्हें सीताराम जी की छवि के दर्शन हो रहे हैं:- बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय। लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥ टिप्पणी:-जनकपुर की स्त्रियां कहती हैं, कि सीता-राम के संबंध हो जाने के कारण,रामजी बराबर ससुराल आते रहेंगे तथा बहुत सारे उत्सव होंगे और हम सबको बराबर दर्शन मिलते रहेंगे। एक सखी कहती है कि राम-लक्ष्मण जी से बिल्कुल मिलती-जुलती दशरथ जी के साथ एक दूसरी जोड़ी भरत-शत्रुघ्न की भी है।दोनों जोड़ियां देखने में एक जैसी हैं,इनमें अंतर कर पाना कठिन है।वास्तव में अवतारी देह चितघन होती है और उसमें कमल पुष्प के समान कोमलता और सुगंध भी होती है।उसके दर्शन का जो अलौकिक आनंद जनकपुर वासियों को प्राप्त हो रहा है,उसको वे व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। स्त्रियां आंचल पसार कर भगवान से प्रार्थना करती हैं, कि चारों भाइयों का विवाह जनकपुर में ही हो जाए:- बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥ तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥ सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥ स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥ कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥ भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥ लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥ मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥ छं0-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं। बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥ पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥ ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥ सो0-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन। सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥ एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥ जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥ कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥ गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥ टिप्पणी:-समय बीता ,और लग्न की तिथि भी आ गई।ब्रह्मा जी ने लग्न शोधकर लग्नपत्रिका नारद जी द्वारा जनक जी के पास भिजवा दी।पत्रिका जनक जी की सभा में पढ़ी गई,तो उसमें वही संभावित तिथि थी,जो जनकपुर के पुरोहितों द्वारा निकाली हुई थी।सभी ने ज्योतिषियों के ज्ञान की सराहना की। सतानंद जी ने,जनक जी को सलाह दी, कि अब विवाह के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया जाए।वे स्वयं सचिव मंडली के साथ, सभी मंगल द्रव्य लेकर तथा शंख आदि की मंगल ध्वनि करते हुए, दशरथ जी को बुलाने के लिए जनवासे पहुंच गए।वहां भी द्वारचार के लिए,बरात चलने को सूचना देने वाले वाद्ययंत्र बजाए जाने लगे। दशरथ जी ने कुलगुरु के मार्गदर्शन में कुल रीतियां पूरी की,और साधु समाज के साथ द्वारचार के लिए चल दिए । ब्रह्मा सहित सभी देवता इस समय जनकपुर के आकाश में विमानों पर हैं,और वे नगर और दशरथ के भाग्य की सराहना कर रहे हैं। मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥ ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥ पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥ सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥ दो0-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल। बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल॥312॥ उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥ सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥ संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥ सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥ लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥ कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥ भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ॥ गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥ दो0-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313।।
- द्वारचार का उत्सव:-रामजी की बारात द्वारचार के लिए चली,तो ब्रह्मा जी आदि देवता विमानों पर चढ़कर,जनकपुर के आकाश मंडल में आकर,बड़े उत्साह से सब लीला देखने लगे। वहां के व्यक्ति और वस्तुएं अलौकिक हो गईं थी, इसलिए सब आश्चर्य चकित हो गए।व्यक्ति या वस्तु या तो चेतन घन हो गए थे, या उन पर अनिर्वचनीय माया शक्ति का चितघन दिव्य आवरण पड़ गया था।ब्रह्मा जी को भी सब कुछ अपनी कृति से बाहर का दिखाई पड़ने से,भ्रम में फंस गए। शिव जी वहां थे,और सब जान गए।अतः ब्रह्मा जी के सम्मान का ध्यान रखते हुए, देवताओं को समझाने के बहाने से,उनका समाधान करने लगे। जो कामारि( कामना रहित )है वही ब्रह्मलीला को समझ सकता है।शिव जी ने कहा कि आप सब आश्चर्य में पड़ कर परेशान न हों,धैर्य धारण कर विचार करें,कि हम सब परंब्रह्म राम और उनकी अंतरंग शक्ति सीता जी के विवाह को देख रहे हैं। यह किसी लौकिक व्यक्ति का विवाह नहीं है,ये वही राम है, जिनके नाम का पश्यंती मैं जप होने पर,आत्मा-परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं।इतना सुनते ही सारे देवतागण,नख से सिर तक राम जी के दिव्यता तथा सुंदरता को निहारने लगे। उमा- महेश सहित सभी देवता दिव्य दर्शन से पुलकित हो उठे और उनके प्रेमाश्रु बहने लगे:- सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥ सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥ प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥ देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥ चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना॥ नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥ तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥ बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥ दो0-सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु। हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥ जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥ करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥ एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥ देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥ साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥ सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥ मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥ पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥ दो0-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि। पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥ टिप्पणी:-वरवेष धारण किए हुए राम जी शंकर जी को,कैसे दिख रहे हैं,इसका वर्णन है।रामचरित्र मानस में भिन्न-भिन्न प्रकार के साधकों के लिए, राम जी की आयु और अवसर के अनुरूप भिन्न- भिन्न प्रकार के रूपों का वर्णन किया गया है।यहां पर प्रवृत्ति मार्ग वालों के लिए, राम जी का वह स्वरूप है,जो कामरूपी घोड़े को पूरी तरह नियंत्रित करके,उस पर सवार है और घोड़ा उन्हीं के मन के इशारे पर चल रहा है।प्रवृत्ति मार्ग वाले को,जीवन में कामनाओं को प्रयोग में लाना है किंतु उनके स्वामी बन कर रहना है।घोड़े पर सवार वरवेष धारण किए राम जी का यह रूप मन में ध्यान करना,उनके लिए उपासना है। सारे देवता प्रत्यक्ष रूप में राम जी को वरवेष में निहार कर आनंद में डूबे हुए हैं:- केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥ ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥ सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥ सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई॥ बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा॥ राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥ जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥ कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥ छं0-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई। आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥ जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे। किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।316
- द्वारचार और परिछन:- बरात धीरे-धीरे बढ़ती हुई कन्या के द्वार पर पहुंच रही है।वरवेष में दिव्य घोड़े पर सवार,राम जी के स्वरूप दर्शन कर शिव जी, विष्णु जी,तथा ब्रह्मा जी,सहित सारे देवता आनंद समुद्र में निमग्न हो रहे हैं।नेत्रों की संख्या के तारतम्य से देवता लोग अपने भाग्य का मूल्यांकन कर रहे हैं।इंद्र अपने को सबसे अधिक भाग्यशाली मान रहे हैं,क्योंकि उनके पास गौतम ऋषि के श्रापवस एक हजार नेत्र हैं :- प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव। भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥ जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥ संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥ हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥ निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥ सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥ रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥ देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥ मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥ टिप्पणी:-तुलसी अब भक्तों का ध्यान कन्या पक्ष की नारियों की ओर खींचते हैं।वाद्य यंत्रों से संकेत मिल गया कि बरात द्वार पर पहुंचने वाली है।अतः परिछन की पूरी तैयारी के साथ,राम जी की आरती करने के लिए,सजी-धजी सुंदर रानियां द्वार पर इकट्ठा होने लगीं। भाग्यवान रानियों के सब अंग-प्रत्यंग इतने सुंदर हैं,जितने मानव जाति की स्त्रियों के संभव हो सकते हैं।उस पर भी वह दिव्य आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित हैं। एक कौतुक और होता है।शारदा जी,रामा जी, उमा जी,व सची जी सभी छद्म मानवी वेश में रानी बनकर,मंगल गीत गाते हुए,सब रानियों में ऐसा घुलमिल गई है,कि आनंद के अतिरेक में उनके परिचय की कोई परवाह नहीं कर रहा है और वे ब्रह्म के परिछन करने का लाभ उठाना चाहती हैं। द्वार पर आनंद कंद राम जी के दर्शन कर सभी रानियां ब्रह्मानंद में निमग्न हो गईं। सुनैना जी के प्राप्त हो रहे विशेष आनंद के लिए शब्द नहीं है। प्रेमाश्रु रोक कर उन्होंने राम जी की आरती करी। वेद और कुलरीति के अनुसार सभी ने राम जी की आरती और पूजा की।वेद ध्वनि मंगल ध्वनि और पंच ध्वनियां हो रही हैं। श्री राम जी को घोड़े से उतार कर,बहुमूल्य वस्त्रों के पाँवडे डालते हुए और अर्घ देते हुए, द्वार से ब्याह मंडप में ले जाया गया।वहां पर दिब्यआसन पर विराजमान करा कर पुनः उनकी आरती की गई। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश आदि श्रेष्ठ देवता छद्म विप्र वेष बनाकर,ब्रह्म की इस अद्भुत लीला का आनंद ले रहे हैं। नाऊ-बारी आदि सेवक राम जी की मनचाही निछावर पाकर अत्यंत हर्षित हुए:- छं0-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी। बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥ एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं। रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥ दो0-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि। चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥ बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥ पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥ सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥ कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥ बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥ सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी॥ कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥ करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी॥ छं0-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली। कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥ आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई॥ अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥ दो0-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु। सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥ नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥ बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥ पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥ करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥ दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥ समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥ नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥ एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥ छं0-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं॥ मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥ ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं। अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥ दो0-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319।।
- द्वारचार में समधियों का मिलन:- परिछन का कार्यक्रम पूरा होते ही,द्वार पर महाराज दशरथ जी और जनक जी का मिलन वैदिक रीति और लौकिक रीति का पालन करते हुए संपन्न हुआ।देवता लोग यह अद्भुत मिलनी देखकरअत्यंत हर्षित हुए,और फूल बरसाते हुए कहते हैं- की सृष्टि में अनेक विवाह हुए हैं, किंतु कहीं भी दोनों समधियों में ऐसी समानता नहीं देखी गई।भौतिकता और आध्यात्मिकता(ईश्वर में भक्ति, प्रेम व ज्ञान)स्तर पर दोनों समान है।सामध में समानता का अर्थ होता है, कि वर एवं कन्या दोनों एक जैसे संस्कार,सभ्यता व संस्कृति के वातावरण में पले हैं,अतः इन में तलाक की संभावना नहीं है। अंतर्जातीय विवाहों में इन सबकी विलोम परिस्थिति रहती है। सामध के बाद दशरथ और अन्य बारातियों को पाँवडे बिछाते और अर्घ्य देते हुए मंडप में ले जाया गया।मंडप मणियों और सोने से बना इतना सुंदर है,की वशिष्ठ,विश्वामित्र तथा बामदेव जैसे विरक्त मुनि भी आकर्षित होकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं। जनक जी सम्मानीय वरातियों को अपने हाथ से सुंदर आसन देकर बैठा रहे हैं और फिर क्रम से वशिष्ठ, विश्वामित्र,वामदेव आदि विप्रो की विधिवत पूजन और प्रार्थना करते हैं:- मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥ मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥ लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥ सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥ जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥ सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥ देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥ देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥ छं0-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे॥ निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥ कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही। कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥ दो0-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस। दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥ बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥ कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥ पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती॥ आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू॥ सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥ टिप्पणी:-ब्रह्मा जी,विष्णु जी, शंकरजी,दिगपाल और सूर्य देवता आदि राम जी को परंब्रह्म ही जानकर, छद्म ब्राह्मण वेष बनाकर उनका सुंदर विवाह देख रहे हैं।जनक जी ने इन छद्म वेषधारी ब्राह्मणों का पूजन-सत्कार देवताओं के समान ही कर दिया।भगवान राम को दूल्हे के रूप में देखकर लोग इतने आनंदमग्न हैं,कि किसी के परिचय की ओर ध्यान ही नहीं देते। भगवान राम सर्वज्ञ हैं।अतः देवताओं को विप्र वेष मैं भी पहचान लिया और स्वयं सामान्य रहते हुए उनको मानसिक आसन देकर मानसिक पूजन एवं सत्कार किया।भगवान राम का ऐसा शील- स्वभाव देखकर देवता मन ही मन अत्यंत आश्चर्यचकित और प्रमुदित हुए:- बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥ कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥ पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥ छं0-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई। आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई॥ सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए। अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥ दो0-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर। करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥32
- श्री जानकी जी का मंडप में प्रवेश:- स्वागत-सत्कार का कार्यक्रम पूरा होते देख, वशिष्ट जी ने सतानंद जी से,कन्या को पाणिग्रहण संस्कार के लिए मंडप में लाने को कहा।सतानंद जी से रनिवास में समाचार मिलते ही कुल वृद्धा और विप्र पत्नियों ने जानकी जी से कुलरीतियों को पूराकरा कर सजी-धजी षोडशी सखियों के साथ,जिनमें छद्म-वेशधारी पार्वती जी,लक्ष्मी जी व सरस्वती जी भी है,मंडप में भेज दिया।इन सखियों के आभूषणों के घुंघरू-ध्वनि तथा उनके द्वारा गाए जा रहे मंगल गीतों की मनोहर ध्वनि के साथ मिलकर दिव्य मनोहारी द्रश्य का निर्माण हो गया। ऐसा लगता है,मानो श्री सीता जी के रूप में छवि का क्रेंद्र बीच में है और उसकी विखरती किरणों के रूप में सखियां आसपास हैं। इस अलौकिक दृश्य को देखकर चारों पुत्रों सहित राजा दशरथ जी प्रमुदित हुए।वहां उपस्थित आनंद विभोर स्त्री- पुरुषों ने दिव्य सुंदरता को मन ही मन प्रणाम किया। मुनि और विप्र प्रमुदित होकर शांति पाठ कर रहे हैं।कुलगुरूओं ने वेदरीति और कुलरीति के अनुसार गौरी-गणेश आदि देवी-देवताओं का पूजन कराया।देवी-देवता स्वयं प्रकट होकर पूजा स्वीकार कर आशीर्वाद देते हैं और अपने को भाग्यवान मानते हैं। पूजा पूरी होने के बाद पुरोहितों ने सीता जी से सिंहासन पर बैठ जाने को कहा।अब सीता-राम जी ने समंजन रीत निर्वाह के लिए अत्यंत प्रेम पूर्ण अलौकिक दृष्टि से एक दूसरे को देखा,जिसे कवि सहित कोई नहीं समझ सका। हवन विधि को पूरा करते समय अग्निदेव साक्षात आहुति ग्रहण कर आनंदित होते हैं।विवाह के सभी विधि-विधान,वेद स्वयं विप्ररूप धारण कर पूरा करा रहे हैं :- समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥ बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥ रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥ बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥ नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥ तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥ बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥ सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥ छं0-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं। नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥ कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं॥ दो0-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥ सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥ आवत दीखि बरातिन्ह सीता॥रूप रासि सब भाँति पुनीता॥ सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥ हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥ सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥ गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥ एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥ तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥ छं0-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं। सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥ मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं। भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥ कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो। एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै॥ मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥ दो0-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं। बिप्र बेष धरि बेद सब कहि विवाह विधि देहिं।।323।।
- 1️⃣1️⃣2️⃣ श्री सीता-राम जी का पाणिग्रहण संसकार व भाँवरी:-पाणिग्रहण संस्कार के पहले होने वाली पूजा पूरी होते देख,मुनियों ने सुनयना जी को बुलवाया।सुहागिन स्त्रियां तुरंत उन्हें ले आईं और उन्हें जनक जी के बाँयी ओर बैठा दिया गया।जनक जी ने स्वयं जल से भरे सोने के कलश और मणियों से जड़े थाल, जो मांगलिक द्रव्यों से भरे थे,श्री राम जी के सामने रखा।मुनियों ने मंत्र पढ़ना प्रारंभ किया और राजा-रानी ने श्री राम जी व श्री सीता के पैर पखारना प्रारंभ किया।इन पैरों की महिमा ग्रंथ में देखनी चाहिए।इन्हीं चरणों के स्मरण मात्र से जीव को,परम गति की प्राप्ति हो जाती है ।अब पाणिग्रहण की रीति अनुसार राम जी की हथेली पर,सीता जी की हथेली और उस पर जनक जी की हथेली रखी गई। दोनों कुलगुरुओं ने दोनों पक्षों का शाखोच्चार(पिता, पितामह,प्रपितामह के नाम उच्चारण) किया और और जनक जी ने सीता जी की हथेली को पलट कर भगवान राम जी की हथेली पर रख दिया। मानो चितघन व आनंदघन एकाकार हो गए और उनकी साकार विग्रह के दर्शन भी होने लगे।सर्वत्र आनंद छा गया।बंदी, मागध जय-जयकार कर रहे हैं,बिप्रवेद पाठ कर रहे हैं, देवता लोग कल्पवृक्ष के फूल बरसा रहे हैं :- जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥ सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥ समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई॥ जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना॥ कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे॥ निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥ पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥ बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥ छं0-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली। नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं। जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥ जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई। मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं। ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै॥2॥ बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं। भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं॥ सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो। करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥ हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई। तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥ क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी। करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी॥4॥ दो0-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान। सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥ पानी ग्रहण के बाद यज्ञ हुआ और गांठ जोड़कर भाँवरे पड़ने लगीं। शास्त्र विधि के अनुसार कन्यादान लेने के बाद दंपत्ति को धर्ममय जीवन बिताने के लिए कुछ संकल्प लेने होते हैं।वे विधि-विधान पूरे किए जाने लगे।भाँवरों एवं सीता जी की मांग में सिंदूर भरने का वर्णन,संत तुलसी ने बड़े ही रोचक ढंग से किया है।शास्त्र में उसे देखना होगा। श्री सीताराम जी की जोड़ी की परिक्रमा करते समय,मंडप में मणियों के खंभों के माध्यम से उनकी परछाहीं भी परिक्रमा करती जान पड़ने लगी।ऐसा लगता है मानो कामदेव व रति की जोड़ी छुप-छुपकर विवाह देख रही हो।दृश्य इतना मनमोहक है की विदेह सहित,सभी उपस्थित लोग देह की सुध-बुध भूलकर उसे देखने में निमग्न हैं। मांग भरते समय,ऐसा जान पड़ता है,जैसे राम जी, श्रीसीता जी के मुखचंद्र का अमृत पाने के लोभ में "कमल के पराग रूपी सिंदूर" की भेंट दे रहे हों। पंडितों ने विवाह की सब रीतियां पूरी कीं। उन्हें मनचाहा नेग मिला। अब वशिष्ठ जी ने आज्ञा दी की वर व दुल्हिन को एक सिंहासन में बैठा दो ।अर्थात विवाह का कार्यक्रम संपन्न हो गया है:- कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं॥नयन लाभु सब सादर लेहीं॥ जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥ राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं । मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥ दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥ भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥ प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं॥ राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥ अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥ बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥ छं0-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए। तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए॥ भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा। केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगल महा।
- कोहवर लीला:-वशिष्ठ जी से आज्ञा लेकर ,सब स्त्रियां चारों दूल्हा-दुल्हिनों को, मंगल गान करती हुई,रनिवास में कोहवार रीति निर्वाह के लिए ले चलीं। कोहवर घर के भीतर वह स्थान होता है,जहां विवाह आरंभ होने के साथ कुल के पितरों और देवताओं को स्थापित कर,बराबर उनकी पूजा की जाती है।मंडप के कार्यक्रम पूरा होने पर,वर-वधू उस स्थान पर जाकर सब की पूजा करते हैं।यहां पर अनेक हास-विलास की बातें भी होती हैं।लहकौर भी खिलाया जाता है। कहीं-कहीं ऐसा भी मानते हैं,कि यहां वर नेग के लिए रूठता है,इसी से इसका नाम कोहवर है। मंडप के नीचे वरिष्ठ आदरणीय लोगों की उपस्थिति में,सीता जी ने राम जी को जी भर के देखा नहीं था।अतः अब सखियों के साथ और हास-परिहास के वातावरण में वे राम जी को बार-बार पूरी तरह देख रही हैं।हम सबको इस दर्शन का आनंद देने के लिए राम जी के वरवेष का पैरों से सिर तक और उस पर रखे हुए मौर का अति सुंदर वर्णन किया गया है,जिसे ग्रंथ में पढ़ना कर्तव्य है । कोहवर में चारों जोड़ियों के पहुंच जाने पर,वहां उपस्थित स्त्रियां बहुत प्रसन्न हुँई। हास-परिहास के वातावरण में वे सब रीतियाँ निवाही जाने लगीं, जो वैवाहिक जीवन की सैद्धांतिक,वैचारिक तथा भावनात्मक एकता की प्रतीक है।लहकौर भी ऐसी ही रीति है जिसमें वर-वधू एक दूसरे को घी-बतासे या दही का कौर खिलाते हैं।छद्म-वेशधारी पार्वती जी राम जी के हाथ से सीता जी को कौर खिलवा रही है,सरस्वती जी सीता जी के हाथ से भगवान राम को कौर खिलवा रही हैं।इसी प्रकार अन्य देवांगनाएँ सब वर-वधुओं से कुलरितियाँ पूरी करवा रही है। संत तुलसी की कोहवर में पैठ नहीं है,अतः"कौतुक विनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि, जानहीं अलीं" कह कर बच निकलते हैं। कोहवर का कार्यक्रम पूरा हो गया तो सब सखियां वर-वधुओं को लेकर जनवासे चल पड़ी।सब नगरवासी और आकाश में देवता बड़े प्रसन्न होकर आशीर्वाद देने लगे।योगीराज सिद्ध मुनि और देवता हर्षित होकर,फूल बरसाते हुए और जय जयकार करते हुए अपने-अपने लोकों को चल दिए। चारों राजकुमार बधुओं सहित महाराज दशरथ के पास जनवासे पहुंच गए,तब ऐसा मालूम पडने लगा जैसे सुंदरता,मंगल और आनंद से भरकर पूरा जनवासा उमर पड रहा हो:- तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै। दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥ दो0-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न। हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥ स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥ जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥ पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥ कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥ पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥ सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥ पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥ नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना॥ सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥ सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥ छं0-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं। पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥ मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं। सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥1॥ कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै। अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥ लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं। रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥ निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की। चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥ कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं। बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥ तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा। चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा॥ जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी। चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥ दो0-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास। सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥
- विवाह संपन्न होने के बाद का मुख्य जेवनार:-अगले दिन राजा जनक ने महाराज दशरथ जी को बरात सहित राजमहल में भोजन के लिए बुलवाया।जनवासे से महल तक पाँवडे बिछा दिए गए।महल में पहुंच जाने पर राजा जनक जीने,महाराज दशरथ के चरण स्वयं धोए। उसके बाद उन्होंने,भगवान राम के चरण कमल को धोया।तीनों भाइयों को भी जनक जी ने, भगवान श्री राम जी के समान मानकर,उनके चरणों को भी अपने हाथों से धोया।उसके पश्चात सभी बारातियों को उचित आसन देकर भोजन के लिए,पंक्ति में बैठा दिया गया । आदर के साथ पत्तले डाली गई।पतले ऐसी हैं, जोकि मणियों के पत्तों से सोने के किले लगाकर बनाई गई है। भोजन में पहले दाल,चावल और गाय का घी परोसा गया।परोसने वाले कुशल और विनीत हैं, परोसने में जरा भी देर नहीं लगी।जनक जी ने सबसे हाथ जोड़कर प्रार्थना की,कि भोजन ग्रहण कीजिए।सभी 5 कवल(प्राणाय स्वाहा,व्यानाय स्वाहा,अपानाय स्वाहा,समानाय स्वाहा,उदानाय स्वाहा) कर भोजन करने लगते हैं।साथमें चतुर भोजन परोसने वाले षडरस( मीठा,नमकीन,कड़ुवा,तीता,कसैला खट्टा)युक्त चार प्रकार(भक्ष्य,भोज्य,चोस्य,लेह्य) के व्यंजन,रुचि-अनुसार बराबर परसते रहे। इस पद्धति से प्रेम पूर्ण वातावरण का भोज, आजकल के गिद्ध-भोज से बिल्कुल भिन्न हैं। भोजन करते समय,घर की स्त्रियां,पर्दे के पीछे से मधुर स्वर में गालियों वाले लोकगीत गा रही हैं। मनोहर गालियों को सुनकर राजा दशरथ बारातियों के सहित हंस-हंसकर भोजन कर रहे हैं।गालियां तो केवल इसलिए कहीं जाती हैं,कि उनमें जनकपुर के पुरुषों से,अयोध्या की महिलाओं का काल्पनिक मिथ्या संबंध स्थापित किया गया होता है,अन्यथा वे गालियां नहीं है। जब सब भोजन करके उठे,तब आदर पूर्वक उनके हाथ धुलाए गए।जब सामान्य होकर सब बैठ गए,तब माला पहनाकर तिलक लगाकर,उन्हें पूजकर पान दिए गए।महाराज दशरथ जी की पूजा कर पान देने का काम जनक जी ने स्वयं किया।इसके बाद सभी बाराती जनवासे लौट गए। पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥ परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥ सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥ धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥ बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥ तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥ आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥ सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥ दो0-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत। छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥328॥ पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान सुनि अति अनुरागे॥ भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥ परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥ चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥ छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥ जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥ समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥ एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥ दो0-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज। जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥ टिप्पणी:-जनकपुर में नित्य नए मंगल हो रहे हैं। दिन रात पलक झपकते बीत रहे हैं।जनक जी आग्रह पूर्वक दशरथ जी और बारातियों को रोके हुए हैं।एक दिन बड़े सवेरे, दशरथ जी नित्य कर्मों से निवृत होकर,गुरुजी के पास जाकर उनका पूजनकर दंडवत प्रणाम किया।फिर प्रार्थना की, कि आपकी कृपा से हमारे सब मनोरथ पूरे होते आए हैं।अब हम चाहते हैं की सजी-सजाई 4लाख गायें बिप्रों को दान करें।आप कृपया उन बिप्रों को बुलवायें, जिन्हें दान दिया जा सके। वशिष्ट जी ने दशरथ जी की प्रशंसा की और कहा कि आपने समयोचित कर्तव्य करने की इक्षा की है। उन्होंने विप्रो और मुनियों को आदर पूर्वक बुलवाया।वहां पर बामदेव जी,देवार्षि नारद जी,वाल्मीक जी,जाबालि जी तथा विश्वामित्र जी आदि महान ऋषियों का समुदाय आकर इकट्ठा हो गया:- नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥ बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥ देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥ प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥ करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥ तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा॥ अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई॥ सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई॥ दो0-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि। आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥33
- विवाह उपरांत दशरथ जी का गोदान एवं विदाई की तैयारी:-श्रीयुत वशिष्ठ जी के निमंत्रण को स्वीकार कर,उस समय के श्रेष्ठ संत जनकपुर में इकट्ठे हो गए।राजा दशरथ जी ने सब का अत्यंत आदर पूर्वक स्वागत-पूजन किया पहले से ही तैयार 4लाख श्रेष्ठ गायें, जिन्हें शास्त्र विधि से सजाया संवारा गया था,ऋषियों को सादर दान में दिया गया।इसके बाद याचकों( मागध,सूत,बंदी जन तथा भिक्षु क आदि)को भी स्वर्ण,आभूषण घोड़े,हाथी आदि व्यावहारिक वस्तुएं दान में दी गईं:- बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि। आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥330॥ दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥ चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई॥ सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥ करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥ पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥ कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥ चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥ एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥ टिप्पणी:- इसके बाद महाराज दशरथ जी ने, विश्वामित्र जी के लिए विशेष कृतज्ञता प्रकट की। श्रीयुत विश्वामित्र जी यज्ञ- रक्षा के लिए राम- लक्ष्मण जी को मांग कर लाए थे।कहां उन्हें युद्ध विद्या से संपन्न किया और उनके व्याह की महिमामई लीला भी संपन्न करवा डाली। दशरथ जी ने जनक जी के स्नेह, शील,करनी और विभूति की भी अत्यंत प्रशंसा की । अब दो पुण्यवान, और प्रतापवान महाराजाओं के प्रेमबंधन के कारण समस्या यह पैदा हो गई,कि दो महीने से भी अधिक समय से बरात जनकपुर में पड़ी हुई है।श्री दशरथ जी अयोध्या जाने के लिए नित्य विदा मांगते हैं,किंतु जनक जी अत्यंत विनय पूर्वक उन्हें रोक लेते हैं।प्रेमडोरी का बंधन बलपूर्वक तो तोड़ा नहीं जा सकता है। इस प्रेम बंधन को सुलझाने का काम महर्षि विश्वामित्र और कुल आचार्य सदानंद जी करते हैं।उनकी युक्ति- युक्त दी गई सलाह जनक जी ने मान ली।सचिवों को बुलाकर विदाई की राजआज्ञा दे दी ,और रनिवास में भी इसकी सूचना करने को कहा। जनकपुर की जनता में भी यह अप्रिय सूचना फैल गई और उनकी दशा कुम्हलाए कमल के फूल जैसी हो गई:- दो0-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ। यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥ जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥ दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥ नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥ नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥ बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥ कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥ अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥ भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥ दो0-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ। भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥332॥ पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥ सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥ टिप्पणी:-राजा जनक जी की ओर से सम्मान व गौरवपूर्ण विदाई की तैयारियां होने लगीं। बरात लौटने के मार्ग के विश्राम स्थलों को सुसज्जित किया जाने लगा।जनक जी ने दहेज के नाम पर अभी तक जो उपहार दशरथ जी को दिए थे,उनको उन्होंने वही बांट दिए थे।अतः जनक जी ने अबकी बार, उपहार की अनेक वस्तुओं-एक लाख घोड़े,25हजार रथ, दस हजार मस्त हाथी, सभी सोने-हीरो आदि से सुसज्जित करवा कर सीधे अयोध्या भिजवा दिए। सोने के बर्तनों में भरकर नाना प्रकार की वस्तुएं पकवान आदि भी दहेज (कन्याधन)के रूप में अयोध्या भेजा जाने लगा:- जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥ बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥ भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा॥ तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥ मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥ कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥ दो0-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि। जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥333।
- विदाई समय के संयोग-वियोग की अद्भुत बातें-1:-जनक जी ने सारे उपहारों को सीधे अयोध्या भेजने की व्यवस्था करा दी। बरात की लौटानी यात्रा प्रारंभ हो गई है,यह बात सुनकर रानियों की बेचैनी वैसे ही बढ़ गई, जैसे मछलियां थोड़ा पानी रह जाने पर विकल हो जाती हैं।वे सीता सहित तीनों राजकुमारियों को गले लगाती हैं ,आशीर्वाद देती हैं,और ससुराल में सुखी रहने की नीति युक्त कला भी सिखाती हैं।मां बार-बार गले लगाकर,नारी जाति की दोषयुक्त परंपरा का स्मरण करती हैं-बचपन में माता-पिता की साया में पलकर फिर उनसे बिछुड़ कर,नारी शेष जीवन पति के साथ बिताती है:- सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥ चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥ पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं॥ होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥ सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥ अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥ सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई॥ बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥ टिप्पणी:-इसी समय भाइयों सहित राम जी जनक महल में विवाह समय की अंतिम रीति विदाई के लिए आते हैं।रास्ते में जनकपुर वासी उनके दर्शन कर,नाना प्रकार के प्रेमपूर्ण भक्तिभाव से विभोर होते हैं।उसका आनंद ग्रंथ से लेना चाहिए। महल में तीनों भाइयों सहित पहुंचते ही रामजी के अलौकिक प्रभाव से रानियां हर्षित हो उठीं,आरती उतारी जाने लगी,निछावर होने लगी।प्रेम अतिरेक के कारण,मां पद पर होते हुए भी,सास जी बार-बार राम जी के पैर छूने लगीं। रीति रिवाज के अनुसार उपटन लगाकर चारों भाइयों को स्नान कराया गया,और दिव्य भोजन का आहार कराया गया:- दो0-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु। चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥334॥ चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥ कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥ लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥ को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥ मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥ पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे॥ निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥ एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥ दो0-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु। करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥335॥ देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥ रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥ भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥ टिप्पणी:-अवसर मिलते ही राम जी ने शील और प्रेम युक्त वाणी में सुनयना जी से कहा- महाराज दशरथ जी अयोध्या जाना चाहते हैं,इसलिए उन्होंने हमें आपसे विदाई मांगने के लिए यहां भेजा है। हे माता प्रसन्न होकर आप हमें चलने की आज्ञा दीजिए,और बालक जानकर हमारे ऊपर सदा ही प्रेम भाव बनाए रखना। ऐसी मार्मिक बाणी सुनकर सबकी आंखों में प्रेमाश्रु छलकने लगे,गला रुँध गया,वे कुछ बोल न सकीं। सब रानियों ने पुत्रियों को हृदय से लगाया और लाकर उनके पतियों को सौंप दिया तथा सामायिक विनती की।सोरठे में की गई प्रार्थना अत्यंत सारगर्भित है- हे भगवान राम आप तो समस्त कामनाओं से परितृप्त हो,आप को क्या दिया जा सकता है।आप सब के गुण-दोष जानने वाले हो,लेकिन भक्तों पर प्रेमभाव की प्रियता के कारण उनके गुणों को ही देखने वाले हो और उनके दोषों को तो नष्ट कर देते हो। राम जी की महिमा कहते-कहते सुनयना जी ने भावावेश में पुनः राम जी के चरण पकड़ लिए और वाणी मौन हो गई जैसे वह प्रेम के दलदल में धंस गई हो।ऐसी दशा देखकर रामजी ने सुनयना जी को बहुत प्रकार से सम्मान दीया और हाथ जोड़कर बार-बार प्रणाम किया।आशीर्वाद मिलते ही चारों भाई जनवासे के लिए चल दिए:- बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥ राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥ मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥ सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥ हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥ छं0-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै। बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥ परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी। तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥ सो0-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय। जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥336॥ अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥ सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥ राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥ पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई
- विदाई समय की संयोग-वियोग की अद्भुत बातें-2:- जनकमहल को छोड़ते समय कि श्री राम -मूर्ति,सभी रानियों के हृदय में बस गई।अब रानियों ने श्री सीता जी सहित तीनों राजकुमारियों से भेंट करते हुए,द्वार तक पहुंचाने चली।सुनैना जी बार-बार सीता जी से मिलती हैं,सखियां अलग करा के आगे बढ़ती हैं,ऐसा दृश्य उपस्थित है-मानो ताजी ब्याई गाय को उसके बच्चे से अलग किया जा रहा हो।रानियों सहित,उपस्थित जनसमूह प्रेम विवस हो इस प्रकार विलख रहा है,मानो विदेहपुर में करुणा और विरह ने निवास कर लिया है। सब लोग राजभवन से बाहर आये, तो भवन सुना देखकर,श्री सीता जी के पाले हुए तोता-मैना चिल्लाते हुए पुकारते हैं-वैदेही कहां हैं? पहले उनके पुकारने पर सीता जी दौड़ी आती थी,लेकिन आज न आने से वह विकल और दुखी होकर चिल्लाते जा रहे हैं। जहां पशु पक्षियों की यह दशा है,वहां मनुष्यों की दशा का वर्णन किन शब्दों में किया जा सकता है:- मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी॥ पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं॥ पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥ पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥ दो0-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु। मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥ सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥ भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥ टिप्पणी:-चारों भाइयों के द्वार से बाहर आने के बाद,जैसे ही सखियों सहित सीता जी भी द्वार के पास आ गईं, राजा जनक अपने भाई सहित वहां आ गए।सीता जी को देखकर उनके भी प्रेमाश्रु निकल पड़े और उन्होंने सीता जी को हृदय से लगा लिया।जनक जी ज्ञानी महापुरुष हैं, जिन्हें सुख-दुख के ऊपर माना जाता है,लेकिन विदाई की इस बेला पर,ज्ञान की मर्यादा भी भंग हो गई, और वे दुखी हो गए।अवसर की बलिहारी है कि जिन सचिवों को हमेशा राजा निर्देश देते थे,वे उन्हें धैर्य बँधाने लगे। राजा ने परिवार को विशेष प्रेम विवस देखकर,तथा शुभ मुहूर्त को निकलते जान, स्वयं सिद्धि सहित गणेश जी का सुमिरन कर, राजकुमारियां को सुंदर सजी-धजी पालकियों पर बैठा दिया।साथ में राजा जी उन्हें नारी-धर्म और कुल-धर्म की रक्षा का उपदेश भी देते रहे।सीता जी के जो प्रिय दास-दासी थे उन्हें भी राजा जी ने उनके साथ कर दिया। पालकिओं के चल देने पर, राजा जनक, सचिव और ब्राह्मणों के साथ, महाराज दशरथ से विदाई-भेंट करने जनवासे के लिए चल दिए।बाजे विदाई के स्वर में बजने लगे।जनवासे में सबके पहुंच जाने पर, राजा दशरथ ने सब ब्राह्मणों को खूब सम्मान पूर्वक दान दिया और उनकी चरण धूल सिर पर धारण कर,आशीर्वाद लिया।प्रसन्न चित्त दशरथ जी ने गणेश जी का सुमिरन कर,यात्रा प्रारंभ कर दी। देवता लोग आकाश से पुष्प वर्षाने लगे और अप्सराएं मधुर गीत गाने लगीं। नगर के प्रतिष्ठित लोग तथा राज- समाज के साथ जनक जी साथ-साथ चलने लगे।राजा दशरथ जी विनय पूर्वक,किसी प्रकार,सम्मानीय नगर वासियों को लौटाने में तो सफल हुए,लेकिन जनक जी साथ में चलते रहे:- बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥ सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥ लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥ समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥ बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई॥ दो0-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस। कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥338॥ बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई॥ दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥ सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥ भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥ समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥ दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥ चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥ सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना॥ दो0-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥339॥ नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥ भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥ बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥ बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥
- विदाई समय की संयोग -वियोग की अद्भुत बातें-3:- प्रेमविवश जनक जी दशरथ जी के साथ चल रहे हैं,दशरथ जी के बार -बार निवेदन करने पर भी लौटना नहीं चाहते।अंततः राजा दशरथ जी रथ से उतरकर खड़े हो गए,उनकी आंखों में प्रेमाश्रु छलक रहे थे।राजा जनक हाथ जोड़कर विनती करने लगे,तब राजा दशरथ जी प्रीति पूर्वक उन्हें बार-बार हृदय से लगाते रहे। तत्पश्चात जनक जी ने,मुनि मंडली को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया। अब जनक जी राम जी सहित चारों भाइयों की ओर मुड़े।वे हाथ जोड़कर राम जी की परमात्मा रूप में विनती करने लगे, जिसे ग्रंथ में देखना कर्तव्य है।भगवान ने जब उन्हें कृपा दृष्टि से देखा, तो जनक जी ने उनके चरणों की भक्ति का वरदान मांगा।प्रेम से भरे वचनों को सुनकर पूर्ण काम रामजी अत्यंत संतुष्ट हुए,मानो उन्होंने जनक जी को गुप्त रूप से वरदान की स्वीकृति दे दी।भगवान राम ने अपनी अवतारी लीला की रक्षा करते हुए, जनक जी को पिता और गुरु जैसा सम्मान देकर संतुष्ट किया:- बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥ पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥ राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥ तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥ करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥ दो0-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति। मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥340॥ मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥ सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥ जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥ राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥ करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥ ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥ मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥ महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥ दो0-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल। सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥341॥ सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥ होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥ मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥ मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥ बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥ सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥ करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥ टिप्पणी:- अब राजा जनक जी ने भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न जी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया।वे तीनों भी प्रेमवस हुए,और जनक जी को बार-बार नमन,प्रणाम करके राम जी के साथ जाकर अपनी सवारियों में बैठ गए। इसके बाद जनक जी विश्वामित्र जी के पास जाकर उनके चरण पकड़ लिए और उनके चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई।बार-बार उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और कहा- कि आप के दर्शन और सत्संग के प्रभाव से मेरे सारे मनोरथ पूरे हो गए।विश्वामित्र जी से आशीर्वाद प्राप्त कर जनक जी लौट पड़े,और बरात के बाजे बजने लगे, तथा वह अयोध्या की ओर चल पड़ी:- बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥ दो0-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस। भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥342॥ बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥ सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥ सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥ कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥ चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।
- श्री सीताराम जी के विवाह की बरात की लौटानी यात्रा:-विवाह संपन्न हो जाने पर बरात जनकपुर से अयोध्या लौट रही है।रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों की भाग्यवान जनता, अलौकिक बरात में दर्शन का लाभ उठा रही है।अयोध्या के निकट पहुंचते ही नगाड़ों पर चोट पड़ने लगी।दूसरे वाद्य यंत्र भी जोर से बजाये जाने लगे।अयोध्या वासियों को बोध हो गया की बरात पहुंचने वाली है।अतः वे अपने घर-बाजार सजाने लगे। जगह- जगह चौकें पूरी,बंदनवार बांध दिए, फल-फूल से लदे मंगल वृक्ष-सुपारी,केला,आम तथा कदम्ब आदी रास्तों के किनारे लगा दिए गए और इनके थलहे बनाकर मणियों से सजा दिया गया।घर घर आम के पत्ते और नारियल युक्त कलस अच्छी तरह सजा कर, रख दिए गए।इस समय रघुवरपुरी सारे देवताओं की पुरियों से श्रेष्ठ दिखाई देने लगी:- चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥ रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥ दो0-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत। अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥343॥ हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥ झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥ पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥ निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥ गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई॥ बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥ सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥ लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥ दो0-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि। सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥344॥ टिप्पणी:-महाराज दशरथ जी का राज भवन इतना सुंदर सजा है,कि कामदेव का मन भी मोहित हो रहा है।ऐसा जान पड़ता है सारे मंगल शगुन,रिद्धियां- सिद्धियाँ स्वयं आकर विराजमान है अति सुंदर स्त्रियां,झुंड के झुंड बनाकर राजमहल की ओर आ-जा रही हैं।उनके हाथों की स्वर्ण थालियों में आरती और पूजा की मंगल सामग्री- दूर्वा,पुष्प, दही,अक्षत आदि भरे हुए हैं। राज महल में राज माता कौशल्या आदि रानियां पुत्र वधू प्रेम के अतिरेक के कारण सिथिल हो रही हैं।अपनी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति वह विप्रो को दान देकर कर रही हैं:- भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥ मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥ जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए॥ देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥ जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि॥ सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥ भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥ कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं॥ दो0-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी। प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥345॥ मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥ टिप्पणी:-सब रानियां वर-वधुओं की परछिन(द्वार पर की आरती)की जोरदार तैयारियां में मगन हैं। सुमित्रा जी की देखरेख में सारी मांगलिक सामग्री -हल्दी,दूर्वा ,फूल, पान,सुपारी,अक्षत,तिलक की सामग्री,तुलसी मंजरी आदि से अनेक तरह की दिव्य आरतियां सजाई गई हैं। कलस इतने सुंदर ढंग से सजाए गए हैं,जैसे कामदेव के शगुन रूपी पक्षियों के घोसले हों। माता कौशल्या जी, कमल जैसे सुंदर हाथों में मांगलिक वस्तुओं से भरपूर स्वर्ण थाली लिए श्री राम-सीता के परछन की प्रतीक्षा कर रही हैं:- राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥ बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥ हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥ अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥ छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥ सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥ रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥ दो0-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात। चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥346।।
- लौटे बारातियों का अयोध्या में स्वागत :-अयोध्या वासियों ने लौटे बारातियों के स्वागत की,ऐसी धूम मचाई कि अयोध्या में सावन का दृश्य उपस्थित हो गया।धूपबत्तीयों का सुगंधित धुआं ऐसा छा गया जैसे,आकाश में सावन के बादल छा गए हों। देवता लोग कल्पबृक्ष के सफेद फूल और मालाएं वर्षा रहे हैं जैसे सफेद बकुलों की पंक्ति उड़ रही हो,सुगंधित जल वर्षा रहे हैं मानो वर्षा की फुहार पड़ रही हो।दुंदुभी की ध्वनि ऐसे लग रही है मानो बादलों की मधुर गर्जन हो रही हो।छतों से छज्जे पर स्त्रियों का आना- जाना ऐसा लगता है,मानो बिजली चमक रही हो। वशिष्ठ जी ने शुभ मुहूर्त जानकर बरात को नगर में प्रवेश करने की आज्ञा दी।राजा दशरथ मन में शिव-पार्वती तथा गणेश जी का सुमिरन कर,पूरी बरात के साथ नगर में प्रवेश कर गए।सुंदर शगुन हो रहे हैं,आकाश में अप्सराएं नाच-गान कर रही हैं। मागध,सूत, भाट तथा नट सब भगवान राम का यशगान कर रहे हैं। वेद के परम पवित्र मंत्रों का पाठ हो रहा है।सभी अत्यंत प्रसन्न हैं।राजा दशरथ को आता देख,नगरवासी झुककर प्रणाम कर रहे हैं।उनके पीछे चारों भाई हैं,उनकी आरती उतारकर निछावर हो रही है।स्त्रियां पालिकाओं के पर्दे उठाकर दुल्हनों को देख रही हैं:- धूप घूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥ सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥ मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥ प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥ दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥ सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥ समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥ सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥ दो0-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ। बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥347॥ मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥ जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥ बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥ बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥ पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥ करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥ आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी॥ सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥ टिप्पणी:- बरात नगर वासियों को सुख देती हुई राज भवन के द्वार तक पहुंच गई।वहां पर माताएं परछन के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं।चारों भाई सवारियों से उतर कर खड़े हो गए।चारों दुल्हनों को पालकी से उतारकर पतियों की बगल में खड़ा कर दिया गया और आरती होने लगी।माताएं आरती कर रही हैं,टीका कर रही हैं,सखियां मंगल गीत गा रही हैं।सभी राम-सीता जी का बर-बधू रूप में दर्शन कर जीवन को सफल बना रहे हैं। आकाश से देवता लोग फूलों की वर्षा कर रहे हैं ,जल की फुहार डालते हैं,अपने-अपने ढंग से सब सेवा कर रहे हैं।सरस्वती जी इस दृश्य का वर्णन करने की उपमा नहीं ढूंढ सकीं और सीताराम जोड़ी की सुंदरता पर मुग्ध होकर अपलक दृष्टि से देखती रह गईं। जब द्वार पर की सब कुल रीतियां पूरी हो गईं, तो माताएं सीता-राम सहित सब भाइयों-बधुओं को अर्घ्य देती हुई,पाँवडे बिछवाती हुई महल के अंदर लिवा ले गईं:- दो0-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर। मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥348॥ करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥ भूषन मनि पट नाना जाती॥करही निछावरि अगनित भाँती॥ बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी॥ पुनि पुनि सीय राम छबि देखी॥मुदित सफल जग जीवन लेखी॥ सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥ बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥ देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥ देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥ दो0-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत। बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥349।।
- महाराज दशरथ के परिवार द्वारा लोक- वेद अनुमोदित कुलरीति का पालन एवं मेहमानों की विदाई:-माताएं चारों वर-वधुओं को राजभवन के अंतःपुर में लेजाकर,दिव्य सिंहासनों पर बैठाकर,वेद अनुसार पूजनकर,लोकरीति का पालन करती हैं।इससे वर-वधुओं को बहुत संकोच हो रहा है,किंतु माताओं को इसमें ऐसा आनंद हो रहा है,जैसे किसी योगी को परम तत्व अनुभूति होने से होता है,जैसे किसी जीर्ण रोगी को अमृत मिल जाने से मृत्यु भय दूर होने से होता है।जैसा आनंद जन्मजात दरिद्र को,पारस मणि मिल जाने से होता है।जैसा आनंद किसी गूंगे व्यक्ति को, उसकी वाणी में सरस्वती के प्रकट हो जाने से होता है।जैसा आनंद किसी सूररवीर को बड़ी विजय प्राप्त होने से होता है।माताएं इन सुखों से भी करोड़ों गुना सुख का अनुभव कर रही हैं। भगवान राम ऐसे मोद- विनोद को देख कर मन में मुस्कुरा रहे हैं।माताओं ने देव- पितरों की विधिवत पूजा की और वरदान में भाइयों सहित राम जी का कल्याण माँगा:- चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥ तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे॥ धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि॥ बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥ बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥ पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं॥ जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥ मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥ दो0-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु॥ भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥350(क)॥ लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं। मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं॥350(ख)॥ देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥ सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥ अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं॥ टिप्पणी:-उधर द्वार पर राजा दशरथ बारातियों की विदाई करने में लगे हैं।उन्हें यथा आवश्यकता सवारियां, वस्त्र,मणियाँ और आभूषण आदि उपहार में देते हैं।बरात में बाजा बजाने वाले,सेवक और भिक्षुक आदि जो भी है,सबको मनचाही वस्तुएं,धन तथा सम्मान देकर संतुष्ट करते हैं।वे सब आशीर्वाद देते हुए और जय जय कार बोलते हुए चले गए:- भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥ आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥ पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥ जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥ सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥ दो0-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ। तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥351॥ टिप्पणी:-अब राजा दशरथ उन सब को जो लोग राज भवन के भीतर जाने के अधिकारी हैं,जैसे वशिष्ठ जी,विश्वामित्र जी तथा विप्र लोग उन सबको साथ लेकर,राजभवन में प्रवेश करते हैं। वशिष्ठ जी की आज्ञानुसार दशरथ जी वैदिक और लौकिक रीति से आगे के सब कार्यक्रम पूरा करने लगे। रानियों ने जैसे ही विप्रों को अंदर आते देखा वैसे ही उठकर,आदर पूर्वक उनकी सेवा में लग गईं। पहले विप्रो के चरण धोकर उनके स्नान की सुव्यवस्था की गई।महाराज दशरथ ने उनका विधिवत पूजन कियाउनको भोजन कराकर,दान- दक्षिणा देकर प्रसन्न किया।वे आशीर्वाद देकर विदा हुए । विप्रों के चले जाने के बाद दशरथ जी ने विश्वामित्र जी की पूजा की,विनती की।रानियों सहित दशरथ जी ने उनके चरणों की धूल मस्तक में लगाई,और राजमहल के अंदर ही उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी,जिससे स्वयं परिवार सहित उनकी सेवा कर सकें। उसके बाद राजा दशरथ ने अपने चारों पुत्रों, बहुओं और रानियों सहित कुलगुरू वशिष्ठ के चरणों की पूजा और बंदना की।दशरथ जी बार-बार गुरु चरणों को प्रणाम करते हैं और गुरू जी उनको हृदय से आशीर्वाद देते हैं:- जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥ भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥ पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥ आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥ बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥ कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥ भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥ पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥ दो0-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु। पुनि पुनि बंदत गुरु चरन देत असीस मुनीसु। 352
- राजा दशरथ जी द्वारा परिवार के सगे- संबंधियों और विशेष रूप से जुड़े लोगों का सम्मान और विदाई:-राजा दशरथ ने सारा राज्य, धन-संपदा, पुत्र तथा पुत्र-बधुओं को कुलगुरू के सामने कर निवेदन किया, कि यह सारा वैभव आपका कृपा प्रसाद है।वशिष्ठ जी ने अवसर के अनुकूल नेग मांग कर राजा को अनुग्रहित किया और विदा होकर,सीताराम जी का स्मरण करते अपने घर चले गए। महाराज दशरथ ने अब ब्राह्मण पत्नियों को बुलाकर रेशमी वस्त्र और आभूषण देकर विदा किया इसके बाद राजा दशरथ ने सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर उनकी इच्छा अनुसार वस्त्र व आभूषण दिए। इसके बाद विशेष नेग के अधिकारी सेवक,नाई, बारी आदि को मुंह मांगा नेग दिया। इसके बाद मान्य श्रेणी के संबंधियों को,विशेष आदर के साथ वस्त्र व आभूषण देकर विदा किया। जो देवता लोग सूक्ष्मा शरीर धरकर,फूल बरसाते हुए,श्री सीताराम जी के विवाह का आनंद ले रहे थे ,वे सब भी भगवान का यश गान करते हुए यथा स्थान चले गए:- बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु। पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥352॥ बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥ नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥ उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥ बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई॥ बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥ नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं॥ प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥ देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥ दो0-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ। कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥353॥ टिप्पणी:-राजा दशरथ जी का दिन,सब को आदर पूर्वक विदा करते बीता।दो घंटे रात बीत चुकी थी। अब वे रनिवास में पहुंचे। वहां पर वर-वधुओं को गोद में बिठाकर दुलार करने की,पारिवारिक रीति को साआनंद पूरा किया।इस दृश्य से राजा सहित सभी रानियों को अत्यंत प्रसन्नता हुई। राजा दशरथ ने जनकपुर की विशेष घटनाओं की चर्चा की।राजा जनक के शील स्वभाव व ऐश्वर्य की प्रशंसा एक भाट की तरह की,जिसे सुनकर रानियाँ व वहुयें आनंदित हुईं। अब राजा ने पुत्रों सहित स्नान कर, घरपर ठहरे हुए विप्रो और अतिथियों के साथ, रात्रि का भोजन किया।इस समय महिला संगीत की परंपरा रीति का सआनंद निरवाह होता रहा। जिस आनंद की वर्षा यहां होती रही,उसका सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। अब राजा दशरथ ने परिवार के मुखिया पद की गरिमा के अनुकूल रानियों को सचेत किया कि बहुयें कम आयु की हैं, नए घर में आई हैं,अतः इनकी संभाल आंख की पुतली की तरह की जानी चाहिए।लड़के भी यात्रा के कारण थके हुए हैं,और उनकी आंखों में नींद भर आई है,इनके शयन की सुव्यवस्था करो।यह कहकर राजा दशरथ स्वयं भी भगवान राम जी का स्मरण करते हुए अपने शयन कक्ष में चले गए:- सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥ जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥ लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥ बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥ देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू॥ कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू॥ जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥ बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥ दो0-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति। भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥354॥ मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥ अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥ रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥ प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥ कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥ सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥ नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी॥ बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥ दो0-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ। अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355
- विवाह उत्सव के बाद अयोध्या वासियों एवं श्री राम जी की सहज दिनचर्या:-महाराज दशरथ जी के इच्छा अनुसार ,माताओं ने राजभवन के अनुकूल शयन की सुंदर व्यवस्था कर दी।राम जी ने सब भाइयों को सोने की आज्ञा देकर,स्वयं भी अपनी सेज पर लेट गए।माताएं राम जी की कोमल देह और मुखड़े को देखकर,यज्ञरक्षा के समय की घटनाओं का स्मरण करती हैं-डरावनी ताड़का को तुमने कैसे मारा होगा ?घोर निशाचरों, मारीच, सुबाहु आदि से यज्ञ की रक्षा कैसे की होगी ?शंकर जी और गुरु जी की कृपा से बहुत सारे संकट टलते रहे !तुम्हारी चरण धूल से अहिल्या का उद्धार हुआ यह, बात सारा संसार जान गया। भरी सभा में कठोर शिव धनुष तोड़कर भाइयों के सहित, विवाह कर घर आए।तुम्हारे सारे अमानुषिक कार्य गुरु विश्वामित्र जी के आशीर्वाद से संपन्न होते रहे।जो समय तुमको देखे बिना बीत गया,वह व्यर्थ गया।अब हमारा जीवन सफल हो रहा है। भगवान ने बड़ी विनम्रता से, मधुर वचनों में माताओं को संतुष्ट किया और मानवी लीला करते हुए, शंकर जी,गुरुजी और विप्रो का स्मरण कर आंखें बंद कर सो गए:- भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥ सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥ उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥ रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥ सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥ अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥ देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥ मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥ दो0-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु॥ मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥356॥ मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥ मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई॥ मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥ कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥ बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥ सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥ आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥ जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥ दो0-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन। सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन॥357॥ टिप्पणी:-सोते समय भी भगवान का मुख अति सुंदर लगता रहा है।मानो संत तुलसी स्पष्ट करते हैं,की तीनों (जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति) अवस्थाओं में भगवान की भगवता एक जैसी ऐश्वर्यवान रहती है ।रीति-रिवाज के अनुसार,आज अयोध्या भर की महिलाएं रात-जागरण एवं गाना-बजाना कर आपस में विनोद करती रही।माताएं भी अपनी बहुओं को लेकर,ऐसा सो गईं मानो सर्पों ने अपनी मणियों को अपने फन में छिपा लिया हो। प्रातःकाल चारों भाई ब्रह्म मुहूर्त मैं उठ गए।उन्होंने विप्रो,देवताओं,गुरू और माता-पिता की वंदना कर, और उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर,बहुत प्रसन्न हुए। सहज दिनचर्या के अनुसार बंदी, मागध लोग द्वार पर आकर,गुणगान करने लगे। नगर के लोग भी राजा के प्रातःकालीन दर्शन करने के लिए इकट्ठे हो गए।महाराज दशरथ चारों पुत्रों के साथ द्वार पर निकले और जनता को दर्शन दिया। इसके बाद चारों भाई नित्य क्रियाएं,स्नान,संध्या वंदन आदि संपादन करके, राज दरबार में महाराज दशरथ के पास पहुंच गए:- नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥ घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥ पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥ सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई॥ प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥ बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥ बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥ जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥ दो0-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ। प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥358
- प्रथम सोपान की अंतिम पोस्ट,अयोध्या राज दरबार के दैनिक सहज क्रियाकलाप:-संत तुलसी अयोध्या दरबार की नित्य जीवनशैली बता रहे हैं,जो सबके लिए आदर्श है।राज्यसभा की कार्यवाही प्रातः कालीन धर्म सभा से प्रारंभ होती है,जिसमें राज परिवार और प्रजा सम्मिलित होती है।गुरु वशिष्ठ वेद-पुराण की कथा सुनाते हैं।उसी परंपरा के अनुसार चारों भाई प्रातः काल सिंहासन पर विराजमान पिता के पास आकर प्रणाम करते हैं।राजा दशरथ प्रसन्न होकर उनको ह्रदय से लगाते हैं।राजा की आज्ञा अनुसार वह सभा में बैठ जाते हैं। इसके बाद गुरु वशिष्ट जी और विश्वामित्र जी भी आकर,प्रवचन करने के लिए निर्धारित आसन पर विराजमान हुए। राजा दशरथ पुत्रों के साथ उनका पूजन करते हैं।वशिष्ट जी धार्मिक कथा कहना प्रारंभ करते हैं और कथा के मध्य ही प्रसन्न चित्त होकर वशिष्ट जी ने विश्वामित्र जी के दिव्य आदर्श चरित्र और यज्ञ संबंधी क्रियाकलापों द्वारा धर्म के प्रत्यक्ष व्यवहारिक रूप को समझाया।सभा में उपस्थित ऋषि बाममदेव जी ने वशिष्ठ जी की कथनी का अनुमोदन किया।श्री राम-लखन जी ने स्वयं विश्वामित्रजी के प्रभाव का अनुभव किया था अतः उन्हें विशेष रूप से प्रसन्नता हुई।इस प्रकार अयोध्यावासियों की नित्य आनंदमई दिनचर्या होने लगी:- कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ। प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥358 भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई॥ देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥ पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥ सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥ कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥ मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी॥ बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥ सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥ दो0-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति। उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥359॥ टिप्पणी:-समय बीतने के साथ, वह शुभ मुहूर्त भी आया,जब वर-वधू के कंकण खोले जाते हैं।यह विवाह का अंतिम मांगलिक कार्यक्रम माना जाता है,जो सआनंद परिपूर्ण हुआ। सारे उत्सव के केंद्र बिंदु विश्वामित्र जी अभी तक रुके हुए हैं,किंतु नित्य जाने के लिए आग्रह करते हैं।पूरा परिवार विनय पूर्वक उन्हें रोके हुए है।अब वह जाने का विशेष आग्रह करने लगे।अतः राजा दशरथ ने सारी संपत्ति,वैभव और पुत्रों सहित सारे परिवार को उनके सामने कर कहा-आप सब के स्वामी हैं,हम सब आपके सेवक हैं,आप इन बालकों के ऊपर सदा कृपा बनाए रखियेगा और हमको दर्शन देते रहिएगा।यह कहते-कहते उनका कंठ अवरुद्ध हो गया।विश्वामित्र जी ने उनको नाना प्रकार से आशीर्वाद दिया,और बड़े प्रेम पूर्वक वहां से चल दिए। भगवान राम सब भाइयों सहित उन्हें दूर तक पहुंचाने गए,और फिर विश्वामित्र जी की आज्ञा होने पर लौट आए।ऋषि बामदेव ने सभा में पुनः विश्वामित्र जी की महिमा का वर्णन किया।सभी आनंदित हुए।राजा दशरथ जी ने सभा समाप्त होने की राज्य आज्ञा दी और आनंद से भरे सब लोग अपने-अपने घरों को चले गए। यहां भगवान के विवाह के साथ-साथ बालकांड की कथा पूरी होती है।संत तुलसी कथा की फलश्रुति सुनाते हैं।वह कहते हैं कि इस कथा का पूरा वर्णन कोई भी नहीं कर सकता।भगवान श्री राम-सीता जी का यश गान मंगलकारी और वाणी को पवित्र करने वाला है।कथा सुनाना पांडित्य प्रदर्शन के लिए नहीं है,और सुनना ज्ञान वर्धन के लिए भी नहीं है।यह साधना के आवश्यक अंग हैं, अस्तु कथा कही-सुनी जाती है। राम जी का यश मंगल भवन है।जो श्री सीताराम जी के विवाह की पवित्र कथा गाएंगे या सुनेंगे, उनके मन में सदा उत्साह और सुख बना रहेगा। कलयुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करने वाला पहला सोपान,125 पोस्टों में पूरा हुआ:- सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥ नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥ बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥ दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥ मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥ नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥ करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू॥ अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥ दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥ रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥ दो0-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु। जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥360॥ बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥ सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥ बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥ जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥ आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥ प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥ कबिकुल जीवनु पावन जानी॥राम सीय जसु मंगल खानी॥ तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥ छं0-निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो। रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥ उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं। बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥ सो0-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥361
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