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श्रीमन् महागणाधिपतये नमः।हिंदुओं में पंच देवों की उपासना कैसी है?श्री गणेश जी परम ब्रह्म परमात्मा का ही प्रकट रूप हैं।परमात्मा महासर्ग के प्रारंभ में माया शक्ति के योग से उत्पत्ति,स्थिति, संघार,निग्रह तथा अनुग्रह नामक पंचकृत्य का निर्वाह करने के लिए, क्रमशः सूर्य,विष्णु, शिव,शक्ति तथा गणपति संज्ञक पंचदेव रूप में अपने को व्यक्त करते हैं।पंचदेवों के निर्गुण निराकार,तथा सगुण निराकार स्वरूपों में सर्वथा ऐक्य है,केवल साकार अर्चावतारों की नाम,रूप,लीला और धाम को लेकर भेद है।इनको इष्ट मानने वाले सौर, वैष्णव,शैव,शाक्त तथा गणपति कहलाते हैं।इन मतों में,कोई किसी भी मत का भी हो,उसे अन्य मतों का आदर करना पड़ता है।इससे अद्वैत भाव में कोई हानि नहीं होती।परमार्थिक दृष्टि से,देवताओं में उच्च-नीच का भाव नहीं होता।
सभी देवताओं का अंग के रूप में भी पूजन होता है,और प्रधान रूप में भी।प्रधान पूजन सभी मनोरथों की सिद्ध के निमित्त होता है।अंग रूप में गणेश जी का पूजन सभी श्रौत,स्मार्त, पौराणिक तथा तांत्रिक कर्मों में विघ्नहरण के निमित्त होता है।
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श्रीमन् महागणाधिपतये नमः।हिंदुओं के हर मांगलिक कार्य में,प्रथम गणेश पूजन का विधान है।इसका कारण यह है की सृष्टि- कार्य में आसुरी शक्तियों द्वारा जो स्वभाविक विघ्न-बाधाएं उपस्थित की जाती हैं,उनका निवारण करने के लिए,सृष्टि के प्रारंभ से ही भगवान,गणपति के व्यक्त या अव्यक्त रूप से ब्रह्मा जी के कार्य में सहायक होते आए हैं। वही गणेश जी शिव-पार्वती के तप से प्रसन्न होकर,पार्वती-पुत्र के रूप में प्रादर्भूत हुए हैं। भगवान गणेश,शिव-पार्वती से उत्पन्न होकर भी उनसे अपकृष्ट नहीं है।अतः उनकी शिव-विवाह में विद्यमानता और पूजा दिखाई गई है ।
मनुष्य अन्य सभी कारणों के रहते हुए भी कार्य संपन्न न होने पर प्रतिबंधक या विघ्न का अनुमान करता है।वह बिघ्न या प्रतिबंधक तब तक नहीं हट सकता ,जब तक प्रबल अदृश्य शक्ति का अवलंबन नहीं लिया जाए।विघ्न-बाधाओं को दूर करने के लिए ही विघ्नेश्वर की शरण ली जाती है। अतएव सनातन धर्मावलंबियों में, सभी कर्मों के आरंभ में,गणेश-पूजन व द्वादश नामों के स्मरण की प्रथा है।
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श्रीमन् महागणाधिपतये नमः।बिना शक्ति के चाहे ऋषि हो,या देव कोई भी अपने मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ नहीं होता।आध्यात्मिक शक्ति संपत्ति के लिए,प्राचीन ऋषियों ने अनेक साधन आविष्कृत किए हैं।उनमें से निर्दिष्ट पर्वकाल में,निर्दिष्ट देवता का पूजन और आराधना एक है।
श्री गणेश जी परमात्मा की समस्त बुद्धि रूप है।संसार का कोई भी भाव देव- अधिकार से रिक्त नहीं है।जगत का नियंत्रण करने के लिए,परमात्मा की विभूति रूप देवगण जगत के भिन्न-भिन्न विभागों में नियुक्त हैं।गणेश जी समस्त बुद्धि के देवता हैं। गणेश जी का उपासक अपने चित्त को समष्टि बुद्धि वृत्ति में लीन कर लेता है,और सब प्रकार के दिव्य ऐश्वर्यों को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है।
उपासक पहले श्री गणेश जी के सगुण स्वरूप की सेवा करते हैं।उनकी आकृति छोटी है।उनका शरीर स्थूल है,मुख गजेंद्र का है,उदर विशाल और सुंदर है।उनके गंड स्थल से मद धारा स्त्रवित हो रही है और भ्रमर गण चारों ओर उन पर एकत्रित हो रहे हैं। वह अपने दांत से शत्रुओं को विदीर्ण कर,उनके खून को शरीर पर लेप कर,सिंदूर अवलेपन की शोभा धारण किए हुए हैं।
श्री गणेश जी के भक्त,प्रतिमास की दोनों चतुर्थी तिथियों पर विशेष आराधना करते हैं। एक मान्यता के अनुसार गणेश जी का सर्वप्रथम आविर्भाव माता पार्वती के यहां, माघ मास की कृष्णपक्ष चतुर्थी को अपने आराध्यकों के संकटों व कष्टों को नष्ट करने के लिए हुआ था।अतः उस तिथि का नाम संकष्टी श्रीगणेश 4 है,और उस दिन भक्त लोग विशेष आराधना करते हैं ।
स्कंध पुराणोत्त श्री कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद के अनुसार भाद्र मास की शुक्ल पक्ष चतुर्थी की विशेष महिमा है।उस दिन गणेश जी अपने आराध्यकों के समस्त कार्यकलापों की सिद्धि प्रदान करते हैं,अतः उसका नाम सिद्धि विनायकी चतुर्थी प्रसिद्ध है।पुणे, महाराष्ट्र में 1893 ईस्वी को इस तिथि पर सार्वजनिक पूजन उत्सव प्रारंभ हुआ,जो लोकमान्य तिलक के प्रयास से,पूरे राष्ट्र में कई दिनों तक बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा है।
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श्रीमन् महागणाधिपतये नमः। श्री गणेश जी के आदिभौतिक स्वरूप पर विचार करना है। हिंदू धर्म का मुख्य सिद्धांत अद्वैतवाद है। जिसके अनुसार, संसार में एक ही सत्ता- ब्रह्म, ईश्वर है।वह सर्वव्यापी और वही सभी जीवो की अंतरात्मा भी है।दूसरी ओर यह धर्म व्यवहार में अनेक देवी-देवताओं को भी स्वीकार करता है,और उनकी पूजा अर्चना को आवश्यक कर्तव्य बताता है।एकत्व में, अनेकतत्व और अनेकत्त्व में एकत्व दर्शन, यही हिंदू संस्कृति की विशेषता है।
सभी देवताओं के अधिष्ठान में एक ही तत्व होने के उपरांत भी, सृष्टि का संचालन सुव्यवस्थित रहे,इसके लिए देवताओं का कार्यक्षेत्र निर्धारित है।इस दृष्टि से विघ्नों का विभाग श्री गणेश जी के पास है।वे ही, बिघ्नेश और विघ्ननायक हैं।वे एकओर पर- पीड़क,पाप- परायण एवं आसुरी संपत्ति से युक्त अभक्तों के कार्यों में,अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित कर,उनके कार्यों में बाधा डाल देते हैं।दूसरी ओर शरणागत पुण्यात्मा भक्तों के कार्य, निर्विघ्न पूरा करा देते हैं।श्री गणेश जी की अग्रपूजा और उनके नाम स्मरण का यही रहस्य है।
गणपति शब्द के गण शब्द का अर्थ स्पष्ट रहना चाहिए।वैदिक साहित्य के विश्वेदेव- 8वसु,12 आदित्य,11 रुद्र,49 मरुदगण समूह के रक्षक होने से,गणपति हैं।सत,चित्, आनंद तीनगणों के पति होने से भी,आप गणपति हैं।जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति से परे तुरीय अवस्था में रहने के कारण उनके वेत्ता और दृष्टा होने से भी गणपति हैं।त्रिभुवन- पृथ्वी,अंतरिक्ष एवं स्वर्ग तीनों भुवनों के पति होने से गणेश हैं।गुण-गणों, सत्व, रज व तम के एकमात्र पति होने से गणपति कहलाते हैं। अस्तु कह सकते हैं कि सर्व विधि गणों को सत्ता, स्फूर्ति देने वाला जो परमात्मा है, वही गणपति है ।
श्री पार्वती जी निर्मित गणेश मूर्ति में गजानन का सिर लगना रहस्यमय है।प्रकृति के सात्विक अंश से सुबुद्धि की उत्पत्ति होती है, जो अद्वैतभाव रूप सच्चिदानंद परमब्रह्म में अवस्थान करा देती है।यदि वह बुद्धि शक्ति व शक्तिमान को ही अलग-अलग करने लगे तो यह शास्त्र विरुद्ध है।अतः आदि गुरु शंकर ने पार्वती निर्मित मंत्र को शक्तिशाली, अमोघ,और निर्दोष बनाने के लिए, उसमें गजानन रूपी सिर -प्रणव जोड़ दिया, जिससे उपासक में शक्ति और शक्तिमान के प्रति अद्वैत बुद्धि रहे। बुद्धि के गांभीर्य-भाव को दिखाने के लिए, वे लंबोदर हैं।गण्ड- स्थल से ज्ञान अमृत का क्षरण होता है, जिसके पान करने के लिए मुमुक्षुओं को, भंवरों के रूप में दिखाया गया है।
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श्रीमन् महा गणाधिपतये नमः।समग्र साधना-पथ और श्री गणेश जी।मानव जीवन की सफलता का प्रारंभ, परमसत्य की जिज्ञासा से माना जाता है,जो धर्मात्मा होने,मुक्त होने,और भक्त होने के क्रमिक विकास द्वारा पूर्णता को प्राप्त करती है। यही समग्र साधना पथ है ।शास्त्र- स्वाध्याय और सत्संग के प्रभाव से,संयमित विषय-सेवन करते हुए,स्व-कर्तव्य पालन करने वाला,धर्मात्मा कहलाता है।ऐसा सत्य का जिज्ञासु समय पाकर,वस्तु,व्यक्ति व परिस्थिति की चाहत से रहित हो जाने पर जीवन मुक्त (गीता 6.29)हो जाता है।आगे चलकर समष्टि आत्मतत्व की अखंड स्मृति और उसकी अगाधप्रियता की कारण,साधक भक्त बन जीवन लक्ष्य(गीता 15.19) को प्राप्त कर लेता है।अस्तु सत्य-स्मरण ही सफलता का मूल मंत्र है।यही कारण है कि सनातन धर्मी हिंदू,प्रत्येक कार्य का प्रारंभ सत्य स्वरूप श्री गणेश जी के स्मरण से करता है।
श्री गणेश जी साक्षात परम ब्रह्म परमात्मा हैं। अतींद्रिय सूक्ष्म निर्णय,केवल शास्त्र के ही आधार पर किया जा सकता है।भगवान श्री गणेश को प्रसन्न किए बिना कल्याण संभव नहीं है।भले ही आपके इष्ट देव,भगवान श्री विष्णु हों, अथवा भगवान शंकर हों,अथवा पराअंबा दुर्गाजी हों, इन सभी देवी-देवताओं की उपासना निर्विघ्नं संपन्नता के लिए विघ्नविनाशक श्री गणेश का स्मरण आवश्यक है।उनकी अद्भुत विशेषता है, उनका स्मरण करते ही,सब विघ्न- बाधायें दूर हो जाती हैं और सब कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं।लोक-परलोक में सर्वत्र सफलता पाने के लिए कार्य आरंभ करने से पहले, भगवान श्री गणेश का स्मरण पूजन अवश्य करें ।
मानव जीवन का चरमलक्ष्य स्वरूप-स्थिति प्राप्त करने के लिए , दैवीप्रकृति की प्राप्ति अनिवार्य है,जिसमें आसुरी वृत्तियों प्रबल बिघ्न है।गुरुकुल से लौटते हुए स्नातक को यह शिक्षा दी जाती रही है- मातृ देवो भव। पितृ देवो भव।आचार्य देवो भव।अतिथि देवो भव।इस उपदेश में दैवीप्रकृति विकास करने की योजना छिपी हुई है।जहां देवभाव का अभाव है,वहां असुरभाव उपस्थित हो जाता है।प्राचीन सिद्धांत के परित्याग का फल आज का असुरभाव संपन्न मानव समाज है। गणेश जी विघ्नेश्वर हैं,उनके नाम मात्र से असुर समूह दूर हट जाता है ।
आशा है कोरोना के कारण, सार्वजनिक श्री गणेश मूर्ति स्थापना न कर पाने के सूनेपन को, 5 पोस्टों से मानसिक पूजा द्वारा, दूर कर लिया होगा।श्रीहरि शरणम।
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श्रीमन् महागणाधिपतये नमः।हिंदुओं में पंच देवों की उपासना कैसी है?श्री गणेश जी परम ब्रह्म परमात्मा का ही प्रकट रूप हैं।परमात्मा महासर्ग के प्रारंभ में माया शक्ति के योग से उत्पत्ति,स्थिति, संघार,निग्रह तथा अनुग्रह नामक पंचकृत्य का निर्वाह करने के लिए, क्रमशः सूर्य,विष्णु, शिव,शक्ति तथा गणपति संज्ञक पंचदेव रूप में अपने को व्यक्त करते हैं।पंचदेवों के निर्गुण निराकार,तथा सगुण निराकार स्वरूपों में सर्वथा ऐक्य है,केवल साकार अर्चावतारों की नाम,रूप,लीला और धाम को लेकर भेद है।इनको इष्ट मानने वाले सौर, वैष्णव,शैव,शाक्त तथा गणपति कहलाते हैं।इन मतों में,कोई किसी भी मत का भी हो,उसे अन्य मतों का आदर करना पड़ता है।इससे अद्वैत भाव में कोई हानि नहीं होती।परमार्थिक दृष्टि से,देवताओं में उच्च-नीच का भाव नहीं होता।
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