शिवरात्रि की महिमा
शिवरात्रि के दिन शिव पूजन का महत्व शिव पुराण में विस्तार से दिया है। उसके अनुसार श्री ब्रह्मा जी व विष्णु जी के बीच उत्पन्न भ्रम को मिटाने एवं उन्हें परम सत्य का स्मरण दिलाने के लिए उनके सन्मुख अनंत विशाल तेजोमय लिंग प्रकट हुआ ।उसका आदि अंत वे दोनों नहीं जान सके ।तब शिव जी वहां प्रकट हुए और उन दोनों को परम तत्व का बोध कराया ।शिव जी ने मनुष्यो के कल्याण के लिए उस दिव्य लिंग को अरुणाचल पर्वत के रूप में परिवर्तित कर दिया ; तथा उस दिन शिव पूजा करने से विशेष लाभ होने का वरदान दे दिया ।वही दिन शिवरात्रि है ।अरुणाचल पर्वत स्वयंभू शिवलिंग रूप है ।वह महर्षि रमण की तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध है ।
शिव तत्व से हम कैसे जुड़े हुए हैं?
हम ईश्वर के अंश किस श्रंखला द्वारा उनसे संबद्ध है ?शिवजी उस श्रंखला की कौन सी कड़ी हैं ?इन सब प्रश्नों के उत्तर अपने सहित, समष्टि व्याप्त चेतन तत्व पर विचार करने से मिल जाते हैं ।एक चेतन तो नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त है ; जो परम ब्रम्ह से अभिन्न है ।उसका संयोग होता है त्रिगुणात्मिका माया के साथ ।दोनों का संवित शिव तत्व है ।इस संवित से इस स्फुरित होने वाला प्रतिबिंब ही, चराचर जगत की आत्मा है। इस आत्मा का,लिंग शरीरों से,परिवर्तित प्रतिबिंब ही व्यष्टि जीव है ।अतः स्वरूप स्थिति की लौटानी यात्रा में शिवतत्त्व को लांघ कर नहीं पहुंचा जा सकता ।अवतारी श्री राम जी ने इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है। यथा :-
औरउ एक गुप्त मत सबय कहां कर जोरी ।
शंकर भजन बिना नर भगति न पावै मोरि।।
(मानस 7.45 )
अस्तु कम से कम शिवरात्रि के दिन विधिवत शिव पूजन करना चाहिए ।
शिवलिंग रहस्य
अर्घा में स्थापित शिवलिंग क्या है ?इस में हम किस तत्व की आराधना करते हैं ?गीता जी के मंत्र 14.3 में भगवान कृष्ण ने स्पष्ट किया कि" मेरी महत् ब्रह्मरूपा प्रकृति संपूर्ण भूतों के गर्भाधान का स्थान है ,और मैं उस योनि में चेतन रूप बीज स्थापित करता हूं ।उस जड़-चेतन के संयोग से,सब भूतों की उत्पत्ति होती है ।"इस मंत्र के आशय का मूर्तिरुप(चित्र) ही अर्घा में स्थापित शिवलिंग है ।स्पष्ट है-कि समस्त मूलप्रकृति तत्व ही अर्घा है,और चेतन पुरुष तत्व(चिति शक्ति) लिंग है ।इन दोनों के सम्मिलन से सर्ग एवं विसर्ग सृष्टि का विस्तार होता है। जिससे हम सब उत्पन्न हुए हैं,और बराबर जिसके आश्रित हैं, उसी तत्व का प्रतीक चिन्ह अर्घा -शिवलिंग की मूर्ति है ।उसके प्रति कृतज्ञ भाव प्रगट करने के लिए हम सब उसकी पूजा करते हैं । कुछ पश्चात सभ्यता से प्रभावित लोग अर्घा- शिवलिंग पर मांस- चर्म वेष्टित योनि लिंग को अध्यारोपित करके ,उसे अश्लील बताते हैं ।यह महापाप है। ऐसे लोग अनंत -विशाल ,सूक्ष्म और सर्वव्यापक शिव- तत्व का विवेक करने की क्षमता नहीं रखते ।वह साधना ,साक्षात्कार विहीन, विद्या-व्यसनी एवं ग्रंथ -लंपट हैं। उनकी उपेक्षा करके शास्त्र सम्मत शिव उपासना करते रहना चाहिए ।
भूमिका
14 भुवन वाले ब्रह्मांड में-सूर्य,चंद्रमा तथा पृथ्वी आदि अनेक लोक हैं,जहां भिन्न-भिन्न प्रकार के देह धारी जीव रहते हैं।बद्ध जीव पंचाग्नि विद्या- बृहदारण्यक उपनिषद 6.2.8-14की प्रक्रिया अनुसार भिन्न-भिन्न देह धारण कर,इन लोकों में आते-जाते रहते हैं।हमें विचार करना है- कि मानव देह धारण करने से पहले,हम कैसे- कहां से आते हैं "पूर्वार्ध" ;और देह त्याग के बाद कहां-कैसे जाते हैं "उत्तरार्ध"। संसार चक्र से निकलने का उपाय क्या है? उपनिषद वर्णित पंचाग्नि विद्या जाननी है,बृ०उ० 6.2.8 -14।
पूर्वार्ध
पंचाग्नि विद्या में पांच होम कुंडों का वर्णनहै➡द्युलोक➡पर्जन्य(मेघ)➡पृथ्वी➡ नरदेह➡नारीदेह।इनकी पांच अग्नियां हैक्रमशः➡द्युलोकाग्नि➡पर्जन्याग्नि➡इहलोकाग्नि➡पुरुषाग्नि ➡योषाग्नि।हविरूप जीव के आवरण हैंक्रमशः➡श्रद्धा➡ सोम➡ बर्षा➡अन्न➡ रेत। इसमें मानव देह प्राप्त होने से पहले की प्रक्रिया छिपी है।छ०उ०5.3से10।
पंचाग्नि विद्या में,परमपुरुष द्वारा,वासना युक्त जीद्युलोक( अंतरिक्ष )रूपी पहले होमकुंड में झोंका जाता है।वहां आदित्य ही ईंधन है,किरणें घूम है,दिन ज्वाला है तथा दिशाएं चिंगारियां हैं।इससे श्रद्धा रूपी जीव, सोम रूप धारण कर लेता है।बृ०उ०-6.2.9
पंचाग्नि विद्या में मेघ दूसरा होमकुंड है।वहां संवत्सर ही ईंधनहै,बादल धुआं है,विद्युत ज्वाला है,इंद्रवज्र अंगारा है, मेघ गर्जन चिंगारियां हैं।इस कुंड में सोम रूप जीव पककर ,वर्षा रूप धारण करता है। बृहद ० 6. 2.10 ।
पंचाग्नि विद्या में भूलोक अर्थात पृथ्वी ही तीसरा होमकुंड है ।अव्यक्त अग्नि तत्व ही ईंधन है,रात्रि ज्वाला है,चंद्रमा अंगार है,नक्षत्र चिंगारियां है।इस कुंड में झोंका गया वृष्टि रूपी जीव,पककर अन्न रूप धारण करता है।बृहद० 6.2.11।
पंचाग्नि विद्या में नर ही चौथा होमकुंड है।उसका खुला मुख ही ईंधन है,वाक ज्वाला है,नेत्र अंगारे हैं तथा श्रोत्र चिंगारियां है।देवता( प्राण)अन्न (भोजन)रूपी जीव को देह में होमते हैं,जिससे वह वीर्य (स्पर्म)रूप धारण करता है । बृहद०6.2.12।
पंचाग्नि विद्या में नारी ही पांचवा अग्निकुंड है।उपस्थ ईंधन है,लोम धुआं है, योनि ज्वाला है,मैथुन अंगारा है, आनंदलेश चिनगारियां है। गर्भ में स्थापित वीर्य (स्पर्म)रूपी जीव, 9-10महीने में मानव देह धारण कर लेता है।बृहद०6.2.13।
प्रत्यक्ष भाग
मानव जीवन
जीव पृथ्वी पर प्रकट होकर, वासना तृप्ति के लिए विषय भोग करतेहुए,प्राय:उन्हें और बढ़ा लेता है।इस प्रकार निर्धारित आयु पूरा करके देह त्याग करता है, जिसे उसके संबंधी लौकिक चिता-अग्नि में हवन कर देते हैं।इसके बाद संसार चक्र के उत्तरार्ध की अगली यात्रा प्रारंभ हो जाती है।बृ०उ०6.2.14। मानव देह की प्राप्ति संसार चक्र से निकलने का सुनहरा अवसर भी है, इसे गंवाना नहीं चाहिए।चूकने पर 84 का चक्कर चलता रहता है।
उत्तरार्ध
लौकिक देह त्याग के बाद भी, अज्ञानियों के लिंग शरीरों द्वारा, विभिन्न प्रकार की देहोंका गृहण-त्याग चलता रहता है।श्री गीता मंत्र 14.18 के अनुसार,मरने के बाद जीवों की तीन गतियां -अधो ,मध्य और ऊर्ध्व हो सकती है।
- अधोगति:- जिन जीवों की वासनाएं निम्न कोटि की होती है, वे अपना तादात्म्य,चितापर जलरही देह से छोड़कर,चिता की राख से कर लेते हैं।फलस्वरूप पृथ्वी पर अचेत से पड़े रहते हैं।यथा समय, अन्न रूप से आहार बनकर, पशु- पक्षी कीट-पतंग,व कोरोना वायरस आदि बनते हैं,या यातना शरीर प्राप्त कर नर्क जाते हैं।गीता 16.16,19,20 ।।
- मध्यम गति:- जिनके जीवन में पाप-पुण्य दोनों होते हैं,वे जीव जलती हुई लौकिक देह से तादात्म्य छोड़कर चिता के धुएं के साथ तादात्म्य करके-गीता 8.25 के अनुसार दक्षिणायन मार्ग से ,अन्य लोकोंका भ्रमण कर,पुनः मनुष्य देह प्राप्त करते हैं।
- ऊर्ध्वगति:- परमात्मा का परोक्ष ज्ञान वाले, जिनमें श्रेष्ठ लोकों के भोगों की सूक्ष्म वासनायें शेष है,वे चिता की ज्वाला से तादात्म्य करते हैं,और गीता 8.24 के अनुसार,उत्तरायण मार्ग से ब्रह्मलोक तक जाते हैं।वे या तो ब्रह्मा जी के साथ सद्यो मुक्ति लाभ करते हैं,अथवा कारक पुरुष के रूप में जन्म लेते हैं।
संसारचक्र के भ्रमण से निकलने का उपाय
उपाय 1
संसार चक्र का परिचय,सैर करने के लिए न होकर, उससे निकलने के लिए है।लिंग शरीर से तादात्म्य छोड़ने से यह विघटित हो जाता है, जिससे लिंग शरीर के 24 तत्व,समष्टि के 24 तत्वों में लयकर जाते हैं ,और जीव आत्म-स्वरुप में स्थित हो आनंदित हो उठता है।श्री गीता जी के मंत्रों -8.13,14,16 व 14.19व 18.65 में उसको छोड़ने के विज्ञान का उपाय निहित है।
उपाय 2
चक्र से बाहर निकलने के लिए भारत में अनेक मत प्रचलित हैं। धार्मिक-कर्म शुद्ध करने को कहते हैं, उपासक-वासना को,योगी-चित्तवृत्ति निरोध को कहते हैं,तथा वेदांती-अविद्या निवृत्ति का सिद्धांत समझाते हैं।साधक को अपनी क्षमता व योग्यता अनुसार,साधना करते हुए, लिंग शरीर से तादात्म्य छोड़ने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होना है।
उपाय 3
कठोपनिषद का एक मंत्र 1.3.13 ही सुंदर उपाय बताता है।उसके अनुसार,साधक वाक् इन्द्रिय(सभी इंद्रियों)को मन में उपसंहार करे, मनोमय कोष को बुद्धि तत्व में लय करे, बुद्धि को महत्त्व में लय करे और अपने को आत्मा -परमात्मा में लीन कर दे।इस अभ्यास से जीव का लिंग शरीर से तादात्म्य छूटता है और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है।
उपाय 4
ईशावास्योपनिषद के मंत्र 15 के अनुसार,केवल प्रार्थना द्वारा भी संसार चक्र से निकला जा सकता है ।यथा-सत्य का मुंह स्वर्णमय पात्र से ढका हुआ है,जो भगवान की कृपा (प्रार्थना )से ही हट सकता है।गीता जी की भाषा में हिरण्मय पात्र योगमाया है,जिसे पार करने का उपाय प्रपन्नता है।गीता- 7.14 ।
उपाय 5
ब्युह से निकलने का वैदिक उपाय-कर्मयोग, भक्तियोग व ज्ञान योग है। श्रीमद् भागवत 11.20.6 व अध्यात्म रामायण 7.7.59 ।कर्मयोग से जगत का,उपासना व योग से अपना और ध्यान योग से परम तत्व का बोध हो जाता है ।
तीनो योगमार्गों का पूरा विवरण इसी ब्लॉग में देखा जा सकता है ।उनका नाम और लिंक नीचे लिखे हुए
इन पोस्टों पर एक साथ विचार करने पर,साधक को संसार चक्र /चौरासी का चक्कर /भवसागर जैसे गुढ विषय का अर्थ स्पष्ट हो सकता है।
***पूर्ण इदं।***